गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ----,पंख

 


"माँ,माँ !देख कबूतर के पंख" चहकते हुए चम्पा ने आँगन में गिरे पंख को उठाया और बड़े प्यार से पंख को सहेजते हुए एकटक देखने लगी।"अरे क्या पंख पंख करती रहती है।किसी चिरैया का टूटा हुआ पंख दिखा नहीं कि बस पगला जाती है।,"माँ चूल्हा फूँकते हुए बीच में बोली।

     "माँ !मुझे भी एक दिन आकाश में उड़ना है।देखो ऊँचे आकाश में उड़ती चिड़िया कितनी अच्छी लगती है।ऊपर आकाश में कोई दीवार नहीं,कोई बाडर नहीं,कोई हवेली नहीं,कोई झोपड़ी नहीं।बस पंख फैलाओ और पूरा आकाश नाप लो।वहाँ कोई बंदिश नहीं।," माँ आकाश निहारती चम्पा की खुली आँखों में सपनों की चमक को अचरज से देखती रही।

      रेल की पटरियों के पास बसे छोटे से एक गाँव में झनकू गरीब की कुटिया में चम्पा टूटे पंखों को सहेज कर उड़ान भर रही थी।झनकू और उसका परिवार मुखिया के घर व खेतों में काम करके किसी तरह दो वक्त की रोटी जुटाता था।

           झनकू को चम्पा की ऐसी बातें बिल्कुल पसंद नहीं थीं। एक तो गरीबी की मार ऊपर से छ: बेटियों का पिता झनकू कभी हँसता हुआ नहीं देखा गया।बेटियों को वह हमेशा डाँट डपट कर रखता।सबसे छोटी चम्पा से तो वह खासा चिढ़ता था।चम्पा भी डर के मारे पिता के सामने जाने से बचती थी।बस माँ के सामने ही वह बेझिझक अपनी उड़ान भर लेती थी।

           धीरे-धीरे समय बीत रहा था।एक बार गाँव में हैजा फैला।चम्पा की माँ और दो बहनें इसकी चपेट में आ गईं।जहाँ खाने का भी आसरा न हो,वहाँ बेहतर इलाज की कौन सोचे।बदहाली में झोलाछाप की देखरेख में माँ के पीछे-पीछे दोनों बहनें भी काल का ग्रास बन गई।जीवित रह गयी शेष बड़ी तीन बहनों को पिता ने किसी तरह ठिकाने लगाया।हाँ....झनकू इसे ठिकाने लगाना ही कहता था।

           एक बेटी उसने अधेड़ अफीमची से ब्याही,दूसरी तीन-तीन बीवियों वाले नि:संतान जमींदार के पल्ले बंधी,जो किसी दूर के जिले का रहने वाला था।तीसरी बची माला ने अपनी पसंद के कल्लू से भाग कर शादी कर ली तो पिता ने उस से नाता ही तोड़ लिया।पर वह मन ही मन संतुष्ट था कि चलो यह भी ठिकाने लग गई,अब अपना नसीब खुद ढोये। शेष रह गई थी 16 साल की चम्पा जिससे पिता को कभी स्नेह नहीं रहा।चम्पा को ऐसा कोई दिन याद नहीं था जब उसने पिता से सहज होकर बात की हो या पिता ने ही ढंग से उससे बात की हो।माँ के जाने के बाद तो संवाद का रहा सहा पुल भी टूट गया था।

                     चंपा अजीब सी उधेड़बुन में थी।वह जानती थी कि एक दिन उसे भी ठिकाने लगा दिया जाएगा।उसने टूटे हुए पंखों के अपने खजाने को बड़ी अधीरता से देखा।पंखों की ऊर्जा मानो उसके हाथों और पैरों में आ गई थी।उसने एक गठरी बाँधी और पटरियों की ओर चल दी। पिता अभी काम से नहीं लौटा था,वैसे भी उसके लिए चम्पा का कोई अस्तित्व नहीं था।अक्सर वह मुखिया की पशुशाला में ही रुखा सूखा खा कर सो जाता था।

       चम्पा रेल के जनरल डिब्बे में शौचालय के पास अपनी गठरी पकड़ कर सहमी सी बैठ चुकी थी।तभी डिब्बे ने झटका खाया और रेल छुक छुक करती हुई बढ़ चली।चम्पा का दिल धक् कर गया था,पर जल्द ही उसे उड़ान का आभास होने लगा।उसने दरवाजे से बाहर देखा तो सब कुछ पीछे छूटता नजर आ रहा था उसे लगा जैसे पैरों में बँधी बेड़ियां खुल कर गिर गई हों।वह बहुत हल्का महसूस करने लगी।अपनी गठरी पकड़ कर चम्पा गहरी नींद में खो गई थी।वह ऊँचे आसमान में उड़ रही थी,"जहाँ कोई दीवार न थी,और न ही था कोई बाडर।"

         सुबह "चाय गरम..... !चाय ...."की आवाज के साथ चम्पा की नींद खुली।बड़ा स्टेशन था।जरूर कोई बड़ा शहर होगा, सोचकर चम्पा उस स्टेशन पर उतर गई।उस दिन यूँ ही शहर में भटकते हुए एक भण्डारे में खाना खाकर उसने स्टेशन पर रात गुजारी।कुछ दिन ऐसे ही बीते।एक दिन उसकी मुलाकात अपने ही जिले की एक महिला से हो गई।बातों ही बातों में आपस में दूर की जान पहचान भी निकल आयी।उसने अपने मालिक से कहकर चम्पा को झाड़ू पोछे का काम दिला दिया।

     गरीबी की मारी गाँव की चम्पा के लिए यह नया आकाश था।सब कुछ ठीक चल रहा था।चम्पा को पगार मिलने लगी थी और वह अपने ख्याली पंखों को सहेजते हुए अपने आकाश में उड़ान की कल्पना करते फूली न समाती थी।

     पर... क्या जमीन से उड़ान भरने के लिए अपना अपना आकाश पा लेना इतना सरल होता है?चम्पा की ख्याली उड़ान ज्यादा लंबी न चल सकी।

     चकाचौंध भरा शहर,ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ ,सफेदपोश व्यवसायी,हाई फाई लाइफ स्टाइल,नौकरों की फौज रखने वाले धनाढ्य वर्ग.... इस आकर्षक तस्वीर के पीछे कुछ इतना स्याह होता है, जो कभी किसी की नजर में नहीं आता,जो कभी बड़ी खबर नहीं बनता।चम्पा जैसे गुमनाम चेहरे बड़े- बड़े शहरों में कब और कैसे गुम हो जाते हैं,कोई नहीं जान पाता।ऐसे मसले पैसों के ढ़ेर के नीचे दबा दिए जाते हैं। 

     अखबार के स्थानीय खबरों वाले पृष्ठ पर एक छोटी सी खबर थी," सर्वेंट क्वार्टर में पंखे से लटकी मिली नौकरानी की लाश" चंपा की उड़ान लाश बन कर लटकने पर थम गई थी। 

           तहकीकात जारी है हत्या अथवा आत्महत्या?पर सब जानते हैं एक गरीब जवान लड़की की हत्या की बजाय आत्महत्या का एंगिल ही सब झंझटों से मुक्ति का रास्ता है।आखिर बड़े बड़ों की चमक फीकी नहीं पड़नी चाहिए।

        चम्पा के गाँव का पता पुलिस को उस महिला से मालूम हुआ।पुलिस ने वहाँ संपर्क साधा।गाँव के मुखिया ने झनकू से पुलिस की बात फोन पर करवायी।झनकू की आवाज सपाट थी,बिल्कुल उसकी ही तरह रूखी।उसके लिए चंपा पहले भी नहीं थी।चलो,अब ठिकाने लग गई तो सामाजिक दायित्व भी नहीं रहा।पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के बाद अंतिम संस्कार हेतु ले जाने के लिए उसे सूचित किया।झनकू ने मना कर दिया,"मैं नहीं आ सकता साहब,गरीब आदमी हूँ।आप जैसे चाहें वैसे मिट्टी को ठिकाने लगा दें।" 

       अपनी झोपड़ी में लौटकर झनकू ने चंपा के सहेजे हुए पंखों के ढ़ेर को थोड़ी देर निहारा और फिर उन्हें उठाकर हवा में उछाल दिया।चम्पा पंख लगाकर विस्तृत गगन में उड़ चली थी,"जहाँ ना कोई दीवार थी और न कोई बाडर।"

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

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