"विश्व में दूसरे नम्बर की जनसंख्या का पोषण करने वाली भारतभूमि अनेक पोषक तत्वों से भरपूर है,अन्नपूर्णा है और प्रत्येक उद्यमी युवा कुटुम्बी के लिए इसके पास रोजगार के अवसर ही अवसर हैं।"
श्रीमान चौबे जी अपना ज्ञान बखार रहे थे।वे ज्ञान का असीम भण्डार रखते हैं।समय तो उनका अपना लंगोटिया यार है,हर समय उनके पास रहता है।समय की नौकरी नामक सौत से उनका गौना अब तक नहीं हुआ है।इसीलिए शहर के हर आयोजन में वह समय के साथ होते हैं और हर आयोजन उनका यह कर्ज उन्हें नये-नये बकरों की भेंट के साथ चुकाता है।इन बकरों की बलि वे अपने नये समाज सेवा रूपी अनुष्ठान में चढ़ाते हैं।
मुँह में हर वक्त चाशनी सी घुली रखने वाले,गली मोहल्लों की हर छोटी समस्या से लेकर वैश्विक राजनीति तक की बड़ी खबरों के विशेषज्ञ श्री चौबे जी,बेरोजगारी को समस्या नहीं मानते हैं, बेरोजगार को मानते हैं।उनकी दृष्टि में बेरोजगार का मतलब वह अकर्मण्य व्यक्ति है,जो अवसर भुनाने का सलीका नहीं जानता,जिसे समाज सेवा नहीं आती।उनके मत में आज के समय में समाज सेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं,पर उनके पड़ोसी गुप्ता जी को यह बात निपट विरोधाभासी लगती है।
गुप्ता जी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक, नौकरीपेशा व्यक्ति हैं।बहुत ही नेक और सज्जन हैं।नौकरी और घर के कामों को निभाते हुए रोज शाम का थोड़ा समय चुरा कर चौबे जी के शरणागत होते हैं और देश की समस्याओं पर विलाप करते हैं। हालांकि उनका स्वयं का जीवन खुशहाल है।पर रोने की आदत का कोई क्या करे?अब सब चौबे जी तो होते नहीं कि बेरोजगारी के बावजूद हर हाल खुशहाल।
एक दिन गुप्ता जी ने करूण स्वर में पूछा,"चौबे जी,आप ये बताइये जो व्यक्ति बेरोजगार हो,जिसके अपने रहने खाने का कोई जुगाड़ न हो,कोई जमा-पूंजी न हो।वह क्या समाज सेवा करेगा? मुझे आपकी यह अवसर ही अवसर वाली बात बिल्कुल समझ नहीं आती।"
"भाई गुप्ता, तुम्हें....मैं समझ में आता हूँ?" चौबे जी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ गुप्ता जी की ओर देखा।गुप्ता जी ने हथियार डाल देने वाली दयनीय मुद्रा में हाथ जोड़कर कहा,"नहीं,प्रभु।"
"तो तुम्हारे बस का नहीं है इस गूढ़ तत्व को समझना।"चौबे जी ने गम्भीरता का भाव ओढ़ते हुए कहा फिर तुरन्त गला खराश कर आगे कहना जारी रखा," फिर भी तुम्हें वह गहन ज्ञान सांकेतिक बताने का प्रयास करता हूँ,जिसे भगवान कृष्ण भी गीता में वाचन से रह गये या यह कह सकते हैं उनकी इसी अनुकम्पा से मुझे इस कलियुग में यह ज्ञान बाँटने का अवसर मिला है।"
गुप्ता जी गद्गद् होकर अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हुए और करबद्ध विनीत होकर चौबे जी की तरफ भक्तिसिक्त दृष्टि से देखने लगे।चौबे जी ने कृष्णवत् तर्जनी हवा में उठायी और समझाया,"सुनो गुप्ता!कलियुग में समाजसेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं।यह वह रोजगार है जिसमें केवल तुम्हारी वक्तृत्व कला ही तुम्हारी योग्यता है।तुम नि:संकोच याचना करने का गुण रखते हो तो यह तुम्हारी अतिरिक्त योग्यता है।बेरोजगार होना तुम्हारी पूँजी है,क्योंकि इस रोजगार के लिए जिस चीज की परम आवश्यकता है वह है समय और बेरोजगार के पास ही तो समय की उपलब्धता होती है।"
"लेकिन निरा समय लगाने से क्या होगा,गुरूवर?",
गुप्ता जी अभी भी अज्ञान रूपी अंधकार में घिरे हैं।लेकिन चौबे जी निर्विकार भाव से ज्ञान गंगा को अपने मुख कमण्डल से मुक्त करते हैं,"बेरोजगार केवल अपना समय लगाता है और रोजगार में लगे लोगों से प्रशस्ति पत्र और विशिष्ट अतिथि बनाये जाने के नाम पर धन उगाही करता है।"
"लेकिन कोई समझदार धनिक, बेरोजगार को अपना धन आखिर क्यों कर देगा?"गुप्ता जी अभी भी संशय के बादलों से घिरे हैं।पर चौबे जी तर्क की तलवार से इन बादलों को छाँटते हुए आगे बढ़ते हैं,"क्योंकि उन लोगों के पास समय नहीं है,पर समाजसेवा का मन है या यह कहिए विशिष्ट अतिथि बनने का और समाजसेवा का प्रशस्ति पत्र पाने का लालच तो है।इसी लालच के वशीभूत वे सहर्ष वह धनराशि समाजसेवा के बेरोजगार आयोजक को भेंट कर देते हैं,जिसका वह आग्रह करता है।" गुप्ता जी के चेहरे पर असहायता का भाव है,चौबे जी संकटमोचक बन इशारों से उन्हें समस्या रखने को कहते हैं।गुप्ता जी प्रश्न सरकाते हैं,"पर गुरुवर,यह धनराशि तो समाजसेवा में लग जायेगी फिर बेरोजगार को क्या फायदा होगा?" चौबे जी मुस्कुराते हुए गूढ़ रहस्य समझाते हैं,"गुप्ता जी,यह सहृदय बेरोजगार आयोजक आंँकड़ों के खेल में भी पारंगत होना चाहिए जिससे वह समाजसेवा की लागत,आयोजन का खर्च और अपनी अतिरिक्त कमाई सब आसानी से कुशलतापूर्वक मैनेज कर ले।इस तरह समाज सेवा रूपी रोजगार जहाँ बेरोजगार का पालन पोषण करता है वहीं अन्य रोजगार में लगे लोगों को भी कुछ मुद्राओं के खर्चे पर समाचार पत्रों के पृष्ठ पर महान समाजसेवी के रूप में छपने का आनन्द प्रदान करता है।इसीलिए तो मेरा गुरू मंत्र है, 'समाजसेवा मतलब चोखा धन्धा' "
गुप्ता जी की आँखे अब खुल चुकी थी,उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया था और असीम संतोष की झलक उनके मुखमण्डल पर चमक रही थी।इस परमज्ञान के लिए गुरुदक्षिणा ही समझकर उन्होंने चौबे जी के आगामी निःशुल्क कम्बल वितरण के कार्यक्रम में सहभागिता शुल्क के रूप में 260 रूपये प्रति की दर वाले कम्बल हेतु 500 रूपये का एक करारा नया नोट अग्रेषित किया।चौबे जी ने बड़ी विनम्रता से राशि ग्रहण की और गुप्ता जी की पीठ थपथपाई।फिर उठकर कमरे की मेज पर रखे फ्लेक्स और प्रशस्ति पत्र में मोटे अक्षरों में कई सहयोगियों की सूची में श्री गुप्ता जी का भी नाम दिखाते हुए अर्थपूर्ण मुस्कान लुटायी।भावविभोर होकर यश सुख की कल्पना करते हुए अब गुप्ता जी अपने घर की ओर बढ़ चले थे।
✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद
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