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सोमवार, 3 मई 2021
वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । इस आयोजन में समूह में शामिल साहित्यकार अपनी हस्तलिपि में चित्र सहित अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं । रविवार 2 मई 2021 को आयोजित 251 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों डॉ अशोक रस्तोगी,चंद्रकला भागीरथी, सन्तोष कुमार शुक्ल सन्त, विवेक आहूजा, शिशुपाल मधुकर, अशोक विद्रोही, कंचन खन्ना, दीपक गोस्वामी चिराग, मीनाक्षी वर्मा, राजीव प्रखर, अटल मुरादाबादी, रेखा रानी, इंदु रानी, शिव कुमार चंदन, रवि प्रकाश, मीनाक्षी ठाकुर, श्री कृष्ण शुक्ल और डॉ मनोज रस्तोगी की रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में .......
रविवार, 2 मई 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी की काव्य कृति - प्रवासी - पंच सई । उनकी यह कृति अशोक प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 1981 में प्रकाशित हुई थी। इसकी भूमिका लिखी है डॉ जयनाथ नलिन ने । इस कृति में उनके 504 दोहे संगृहीत हैं .....
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::::::: प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
शनिवार, 1 मई 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की 31 ग़ज़लें -----
(1)
उत्सवों के देश में ऐसा अचानक क्या हुआ!
आज हर-इक शहर में सन्नाटा है पसरा हुआ!!
कैसी बीमारी कोरोना, आई है संसार में ,
इससे तो हर आदमी है आज घबराया हुआ !!
कोई दुश्मन , दीखता भी तो नहीं है सामने ,
फिर भी उसके ख़ौफ़ से है आदमी सहमा हुआ !!
लाख कोशिश करने पर भी ये सुलझता ही नहीं,
मसअला मज़हब का है ये किसका उलझाया हुआ!
मौत का वारंट बनकर हर जगह पहुँचा है जो,
कौन से ज़ालिम का है फ़रमान यह आया हुआ!!
आओ!मिल-जुल कर करें 'ओंकार' इसका ख़ात्मा ,
हर जगह संसार में कोरोना है फैला हुआ!!
(2)
यूँ कोई दीप मुहब्बत का जलाया जाए ,
दोस्तो! जिसका ज़माने में उजाला जाए ।।
दिल की कश्ती है घिरी वक़्त के तूफ़ानो में ,
ग़र्क़ होने से भला कैसे बचाया जाए ।।
ख़ून इंसान का जो चूस के फूला है बहुत ,
ऐसे कोरोना को अब जड़ से मिटाया जाए ।।
ज़हर नफ़रत का जो इंसां के लहू में घोलें ,
ऐसे नागों से अब इंसां को बचाया जाए ।।
मसअला हल कोई बंदूक़ नहीं कर सकती ,
क्यों न हल बैठके आपस में निकाला जाए ।।
नित नए रंग हों ख़ुशबू भी हो प्यारी-प्यारी ,
ऐसे फूलों से ही गुलदस्ता सजाया जाए ।।
जिससे लोगों के दिमाग़ों में हो नफ़रत पैदा ,।।
ऐसी बातों को न अब शेरों में ढाला जाए ।।
प्यार की ज्योति हर इक दिल में जलाकर 'ओंकार' ,
जग से नफ़रत के अंधेरों को मिटाया जाए ।।
(3)
दिल में जो घाव हैं उनको मैं दिखा भी न सकूं ।
अपने अश्कों को ज़माने से छुपा भी न सकूं ।।
इस तरह मोह के बंधन ने है जकड़ा मुझको
बेड़ियां तोड़ के संसार से जा भी न सकूं ।।
अब हवा- पानी भी ज़हरीले हुए हैं इतने ,
सांस मैं ले न सकूं , प्यास बुझा भी न सकूं ।।
दिल में बसते थे कई ख़्वाब सुहाने लेकिन ,
जिनकी ताबीर को मैं आज बता भी न सकूं ।।
कुछ नए गीत हैं करने को समर्पित तुमको ,
ग़म यही है मैं जिन्हें , तुमको सुना भी न सकूं ।।
आज बीमारी ये कैसी है कि जिसमें अपने ,
ख़ून के रिश्तों का मैं साथ निभा भी न सकूं ।।
नाव मझधार में है , तेज़ है तूफ़ान बहुत ,
कितना बेबस हूं कि मैं नाव चला भी न सकूं ।।
ख़ुश हैं कुछ लोग तो बारूद इकट्ठा करके ,
मुझको दुख है, मैं कोई जान बचा भी न सकूं ।।
ग़म ने जकड़ा है ये संसार सभी ऐ 'ओंकार' ,
एक इंसान को मैं ग़म से छुड़ा भी न सकूं ।।
(4)
न रिश्ता कोई सच,न अब प्यार सच है ।
हुआ सब पे भारी ये बाज़ार सच है ।।
न कोई हुनर या हुनरदार सच है ।
मुनाफ़ा हो जिसमें वो व्यापार सच है ।।
न तो सत्य कवि है न ही सत्य कविता ,
मगर हो जो विकने को तैयार सच है ।
विचारों को उन्नत बनाएं तो कैसे ,
नहीं कोई उनका तरफ़दार सच है ।।
किसी मोल पर हो जो बिकने को राज़ी,
वही आदमी है समझदार, सच है ।।
बचाना शराफ़त को मुश्किल है यारो!,
हुई उसमें जुल्मों की भरमार सच है।।
न आसान है अब सफ़र ज़िन्दगी का ,
भरा मुश्किलों से ये संसार सच है ।।
नियामक है जीवन का पैसा ही अब तो ,
हुआ वो ही रिश्तों का आधार सच है ।।
अकेला हर इक शख़्स है भीड़ में भी ,
किसी का न कोई मददगार, सच है ।।
नहीं पूछता है कोई सादगी को ,
बनावट के युग में चमकदार सच है ।।
नहीं गुम हुआ जो चकाचोंध में भी ,
फ़क़त आप ही का ये 'ओंकार' सच है।।
(5)
मैं गीत में वो सुखद भवनाएँ भर जाऊँ ,
कि छंद- छंद में बनकर खु़शी उतर जाऊँ !!
तराने प्यार के छेड़ूँ जिधर-जिधर जाऊँ ,
हर-एक शेर मुहब्बत के नाम कर जाऊँ !!
हर-एक शख़्स करे प्यार सारी दुनिया को ,
सभी दिलों को इसी रौशनी से भर जाऊँ !!
हटा सकूँ मैं सभी रास्तों से काँटों को ,
हर-एक राह पे फूलों-सा मैं बिखर जाऊँ !!
ख़ुशी की राह को मैं खोजता हूँ बरसों से ,
मिले न राह तो फिर बोलिए किधर जाऊँ !!
तुम्हारा साथ अगर उम्र भर मिले मुझको ,
तो सारी मुश्किलें जीवन की पार कर जाऊँ !!
मुझे कमाल वो हासिल हो काश ऐ 'ओंकार',
कि दिल की बातों को शेरों में नज़्म कर जाऊँ!!
(6)
आपस में जहाँ प्यार हो घर ढूंढ़ रहे हैं,
इस दौर में ये कौन-सा दर ढूंढ़ रहे
परिवार की टूटन से तो सुख-चैन भी टूटा ,
अब चैनअकेले ही किधर ढूंढ़ रहे हैं !
सुख -चैन से सब लोग वतन में हों हमारे ,
अख़बार में हम ऐसी ख़बर ढूंढ़ रहे हैं !
हर बस्ती ,गली -गाँव-नगर,बाग़ में ढूंढ़ा
मिलता ही नहीं यार मगर ढूंढ़ रहे हैं!
ग़म कोई किसी को भी न छू पाए कभी भी,
हम लोग वो जीने का हुनर ढूंढ़ रहे हैं !
मीठे हों समर-1और घनी छाँव हो जिसकी ,
पंछी वो बसेरे का शजर ढूंढ़ रहे हैं !
संसार के लोगों के दिलों को जो मिला दे,
अब लोग कोई ऐसा बशर ढूंढ़ रहे हैं !
खोए हैं अभी हम तो विचारों के भँवर में ,
मंज़िल पे पहुंचने की डगर ढूंढ़ रहे हैं!
'ओंकार' बबूलों को ही बोया था जिन्होंने ,
वो लोग ही अब आम इधर ढूंढ़ रहे हैं !
1- समर= फल
(7)
नाम तक भी नहीं शेष मधुमास का ।
एक भी फूल खिलता नहीं आस का ।।
हर मनुज है अकेला यहाँ आजकल ,
है न अंकुर कहीं मन में विश्वास का ।।
अब स्वयं से भी भयभीत है आदमी ,
हर दिशा में हुआ वास संत्रास का ।।
रंग काला रंगा भृष्ट आचार ने ,
स्वच्छ कैसे बने पृष्ठ इतिहास का ।।
मार्गदर्शी ग्रसित मोतिया बिंद से ,
दीखता ही नहीं दूर का- पास का ।।
अब अँधेरा उजाला निगलने लगा ,
एक भी दीप जलता नहीं आस का ।।
लालसा तीव्र थी देखने की उन्हें ,
था न अनुमान जिनको मेरी प्यास का ।।
है न 'ओंकार 'कहना सरल यह ग़ज़ल ,
खेल है ये कठिन नित्य अभ्यास का ।।
(8)
फूल खिलते हैं हसीं हमको रिझाने के लिए ।
ये बहारों का है मौसम गुनगुनाने के लिए ।।
बाग़ में चंपा, चमेली ,खेत में सरसों खिली ,
हर कली तैयार है अब मुस्कुराने के लिए ।।
गुलमुहर के लाल फूलों की छटा है फागुनी ,
है रंगीली धूप धरती को सजाने के लिए ।।
देखकर फूलों को खिलता झूमती हैं तितलियाँ ,
मस्त भौंरे गुनगुनाते रस को पाने के लिए ।।
कोंपलों के फूटते ही आम बौराने लगे ,
आ गई डाली पे कोयल गीत गाने के लिए ।।
नाचती हैं तितलियाँ , मधुमक्खियाँ देती हैं ताल ,
मस्त धुन पंखों से बजती झूम जाने के लिए ।।
अब उदासी रात की धुलकर सहर होने लगी ,
आ गया फूलों का मौसम खिलखिलाने के लिए ।।
ताज़गी से भर गया उम्मीद का हर-इक ख़याल ,
गुनगुनी है धूप सर्दी को मिटाने के लिए ।।
उड़ रही है मस्त खुशबू हर तरफ़ 'ओंकार 'अब,
दिल उसे करता है साँसों में बसाने के लिए ।।
(9)
हम नई राहें बनाने का जतन करते चलें ।
जो भी वीराने मिलें उनको चमन करते चलें ।।
नफ़रतों की आग से बस्ती बचाने के लिए ,
प्यार की बरसात से ज्वाला शमन करते चलें ।।
दूसरों का छीनकर सुख अपना सुख चाहें नहीं ,
ऐसे सुख की कामनाओं का दमन करते चलें।।
अंधकारों को ज़माने से मिटाने के लिए ,
ज्ञान के दीपक जलाने का जतन करते चलें ।।
सारी दुनिया में सभी सुख से रहें ये सोचकर ,
रात-दिन अपने विचारों का हवन करते चलें ।।
रात भर जलकर स्वयं जो रौशनी करते रहे ,
उन दियों की साधनाओं को नमन करते चलें ।।
हौसला कमज़ोर को देते रहें 'ओंकार' हम ,
दूर गीतों से दिलों की हर दुखन करते चलें ।
(10)
ज़द में उदासियों की वतन देखते चलें ।
आओ ! फिर एक बार चमन देखते चलें ।।
मेले न महफिलें हैं , न यारों के क़हक़हे ,
वीरान क्यों है आज वतन देखते चलें ।।
किस वास्ते रुखों पे उदासी है आजकल ,
किस आग में जले हैं बदन देखते चलें ।।
चिड़ियों के चहचहाने से ,कोयल के गीत से ,
क्या गूंजता है अब भी गगन देखते चलें ।।
चल चित्र देखने में लगे लोग आजकल ,
सजती कहाँ है बज़्मे -सुख़न देखते चलें ।।
फसलें उग रहे हैं पसीना बहा के जो ,
चेहरों की आज उनके थकन देखते चलें ।।
किन महफ़िलों में जश्ने-चिरागां है दोस्तो !
है किन घरों में आज घुटन देखते चलें ।।
'ओंकार' सीखना है अगर प्यार का सबक़ ,
सागर से इक नदी का मिलन देखते चलें ।।
(11)
ग़मों के बीच से आओ! खुशी तलाश करें !
अँधेरे चीरके हम रोशनी तलाश करें!!
ख़ुशी को अपनी लुटाकर ख़ुशी तलाश करें ,
सभी के साथ में हम ज़िन्दगी तलाश करें !!
हटाके धूल जमी है जो अपने रिश्तों पर ,
पुराने प्यार में हम ताज़गी तलाश करें !!
अकेलेपन को मिटाने को आज दुनिया से,
भुलाके भेद सभी दोस्ती तलाश करें!!
दिल अपना शोर से दुनिया के आज ऊब गया ,
चलो कहीं भी मिले ख़ामशी तलाश करें !!
ख़ुशी जो गुम है चकाचोंध में बनावट की ,
ख़ुशी वो पाएं अगर सादगी तलाश करें !!
निकल पड़ेंगे उजाले इन्हीं अंधेरों से ,
हम अपने मन की अगर रोशनी तलाश करें !!
नहा के जिसमें बनें मन पवित्र लोगों के ,
विशुद्ध जल की वो गंगा नदी तलाश करें !!
मिटाके नफ़रतें संसार से सभी "ओंकार" ,
चलो के भोर मुहब्बत भरी तलाश करें !!
(12)
किया है उसने किसी खल का अनुसरण मित्रो !
कि जिससे बिगड़ा है उसका भी आचरण मित्रो !!
सड़क है सकरी गली और मन भी तंग हुए ,
हुआ है आज सभी ओर अतिक्रमण मित्रो !
इधर से मूल्य बढ़े हैं उधर से बेकारी ,
हुआ सब ओर से पूँजी का आक्रमण मित्रो !
धरा को फोड़के अंकुर गगन को घूरेंगे ,
हर-एक बीज का होगा जब अंकुरण मित्रो !
जिधर हों फूल सुगंधित उधर ही जाते हैं ,
सुगंध -मुग्ध है भौंरों का आचरण मित्रो !
मधुप की गूँज को सुन कर कली ने मुस्काकर ,
हटा दिया है स्वयं मुख से आवरण मित्रो !
लगाके पेड़ नए उनकी देखभाल करें ,
वसुन्धरा का नहीं होगा फिर क्षरण मित्रो !
चलो कि सीख लें जीने का ढंग नैसर्गिक ,
सुखी बनाएगा उसका ही अनुसरण मित्रो !
तुम्हारे हँसने से खिलते हैं फूल उपवन में ,
तुम्हारा फूल भी करते हैं अनुकरण मित्रो !
जगाएँ प्रेम मनों में सभी के हम 'ओंकार',
हमारा काम है करना ही जागरण मित्रो !
(13)
मिलने-जुलने की कोई राह निकाली जाए!
क्यों न तन्हाई से अब जान छुड़ा ली जाए !!
बीच में रिश्तों के अब रार न डाली जाए !
जो भी दीवार हो ऐसी वो हटा ली जाए !!
यूँ न पगड़ी सरे- बाज़ार उछाली जाए !
बात घर की है तो घर में ही संभाली जाए !!
आओ! सब ईद की खुशियों को मनाएँ मिलकर ,
और दीवाली भी मिल-जुलके मना ली जाए !!
जिससे लोगों के दिमाग़ों में हो नफ़रत पैदा ,
बात ऐसी न कभी मुँह से निकाली जाए !!
कल भी हम एक थे और एक रहेंगे कल भी ,
बात नफ़रत की हर-इक दिल से निकाली जाए !!
जिसमें हर रंग के फूलों की महक हो शामिल,
एेसे फूलों से ही महफ़िल ये सजा ली जाए !!
कल तो 'ओंकार' उगेगा ही ख़ुशी का सूरज,
दुख भरी रात है ये आज बिता ली जाए! !
(14)
जाने हम गॉव की तारीख़ किधर भूल गए!
याद सब कुछ है मगर अपना ही घर भूल गए!!
इस क़दर लोग अँधेरों के तरफ़दार हुए ,
ऐसा लगता है उजालों का सफ़र भूल गये !
मुश्किलों को न गिना वोटों की गिनती कर ली,
नज़्र वोटिंग के हुए कितनों के सर भूल गये !
टूट जाते हैं ज़रा बात में रिश्ते ऐसे ,
जैसे अब लोग मुहब्बत का हुनर भूल गये !
मैने हर तौर मुहब्बत में उजाले देखे ,
और तुम मेरे उजालों का नगर भूल गये !
एक हो जाएं तो दुनिया को बदल सकते हैं ,
हम तो ख़ुद अपनी ही ताक़त का असर भूल गये!
हों जो फलदार, घनी छांव लिए खुशबू भी,
लोग राहों पे लगाना वो शजर भूल गये !
रूप की धूप ढली सांझ की बेला आई ,
कितना रंगीं था वफाओं का सफ़र भूल गये ,
तुमने जो राह ज़माने को दिखाई 'ओंकार' ,
याद रखनी थी तुम्हें , ख़ुद ही मगर भूल गये!
(15)
जिसने सीखा है हर-इक शख्स की इज़्ज़त करना !
उसको आता है हर-इक दिल पे हकूमत करना !!
नेक बंदों को सिखाते हैं जो नफ़रत करना ,
ऐसे लोगों से सदा आप बग़ावत करना !!
बेगुनाहों पे मज़ालिम-1 जो किया करते हैं,
वे सभी छोड़ दें अब ऐसी शरारत करना !!
दिल भी जलते हैं फ़ना ज़िन्दगी हो जाती हैं ,
है बुरी बात किसी से भी अदावत करना !!
लोग संसार के सुख-चैन से रह सकते हैं ,
सबकी चाहत हो अगर ख़त्म कदूरत-2 करना !!
उनका दस्तूर है क्या ये हमें मालूम नहीं ,
हमको आता है फ़क़त सबसे मुहब्बत करना !!
बिगड़े हालात हमारे भी सुधर सकते हैं ,
हमको आ जाए अगर वक़्त की इज़्ज़त करना !!
लोग खुशहाल सभी होंगे वतन में अपने ,
सब अगर सीख लें जी-जान से मेहनत करना !!
दुख की रातें हैं बड़ी , चंद खुशी की घड़ियाँ ,
ज़िन्दगी के तू हर-इक पल से मुहब्बत करना !!
जल की एक बूंद है संजीवनी जीवन के लिए,
एक-इक बूंद की सब लोग किफ़ायत करना !!
क़ीमती होता है हर आँख का आँसू यारो,
एक आँसू की भी 'ओंकार'हिफ़ाज़त करना !
1-मज़ालिम-- अत्याचार (बहुवचन)
2-कदूरत-- गदलापन ,मैलापन , रंजिश
(16)
राहों की मुश्किलों से न घबरा रहा हूँ मैं !
काँटों में अपनी राह बनाता रहा हूँ मैं !!
छाने लगी है अब तो थकन जिस्म पर मेरे ,
वरना कभी जवान सजीला रहा हूँ मैं!!
चेहरे की झुर्रियों पे नहीं आज तुम हँसो,
कल तक किसी का ख़्वाब सुहाना रहा हूँ मैं !!
वीणा के अपनी तार पुराने हुए हैं अब ,
जीवन का वरना साज़ सुरीला रहा हूँ मैं ,
खाई हैं कितनी ठोकरें जीवन की राह में,
गिर-गिर के बार - बार संभलता रहा हूँ मैं !!
ज़ख़्मों को मेरे दिल के कोई कैसे जानता ,
हंस-हंस के अॉसुओं को छिपाता रहा हूँ मैं !!
सुनता नहीं है कोई भी पैग़ामे - दोस्ती ,
फिर भी तो दिल की बात सुनाता रहा हूँ मैं!!
नफ़रत के दाग़ दिल से मिटाने को आज तक ,
नयनों के प्रेम-जल से ही धोता रहा हूँ मैं !!
'ओंकार' 'जब से होश संभाला है आज तक ,
जीवन की उलझनों को ही सुलझा रहा हूँ मैं!!
(17)
बीत रहे हर पल को भरने एक नया पल आएगा
समय नहीं रुकता रोके से आगे बढ़ता जाएगा
बुरे समय में अगर किसी के जो भी साथ निभाएगा
खुशियाँ उसके पॉव छुएंगी वो हरदम मुस्काएगा
करो सदा सम्मान समय का यह तो एक परिंदा है
अगर परिंदा उड़ जाएगा कभी न वापस आएगा
कष्ट पड़ें चाहे जितने भी मलिन नहीं होगा साधू
जैसे- जैसे स्वर्ण तपेगा और निखरता जाएगा
जीवन रूपी इस पुस्तक में नियम यही लागू होगा य
इक पन्ना यदि पलट गया तो झट दूजा खुल जाएगा
ऐ 'ओंकार ' सदा तू दिल से लोकहितों की बातें लिख
तेरे गीतों को पढ़-पढ़कर हर मानव सुख पाएगा
(18)
बस्ती-बस्ती हमें ज्ञान के दीप जलाने हैं
हर बस्ती से सभी अंधेरे दूर भगाने हैं
सबके मन में प्रीत जगाते गीत सुनाने हैं
भरें उमंगें हर मन में,वे साज़ बजाने हैं
हरियाली ही हरियाली हो खेतों में सबके
श्रम करके ही हमें सभी उद्योग चलाने हैं
खोज करेंगे नए-नए हम चाँद सितारों की
मानव हित को नए-नए औज़ार बनाने हैं
मिले सभी को सुख-सुविधा सब शोषण मुक्त रहें
इस धरती पर खुशियों के अंबार लगाने हैं
खुशबूदार हवा हो जिनकी और रसीले फल
जीवन की बगिया में ऐसे पेड़ लगाने हैं
महानगर से सड़क, गाँव,हर घर तक जाएगी
इस जीवन के सब के सब पथ सुगम बनाने हैं
नए-नए फ़िरक़ों में बांटें जो 'ओंकार' हमें
सावधान उनसे रहना वे ढीठ पुराने हैं
(19)
विचारों में मेरे गहराइयां हैं
ये तेरे प्यार की ऊँचाइयां हैं
उठीं जन मन से जो चिंगारियां हैं
तनीं प्रत्यक्ष में अब मुट्ठियां हैं
बढ़ी जातीं गहन कठिनाइयां हैं
दिखीं हर ओर फिर क्यों चुप्पियां हैं
न कम समझे कभी भी बेटियों को
सुखी घर को बनाती बेटियां हैं
व्यथाएं मार्ग की किसको सुनाएं
कहारों ने ही लूटीं डोलियां हैं
विदेशी शब्द-जालों के भंवर में
फंसीं जाती हमारी बोलियां हैं
बिखरते जा रहे संबंध सारे
सुलझती ही नहीं अब गुत्थियां हैं
इसी धरती की हैं संतान हम सब
हमारे बीच फिर क्यों दूरियां हैं
उड़ी हैं छीनकर हाथों से रोटी
चलीं कैसी प्रगति की ऑधियां हैं
निराशा के क्षणों में से भी हमको
मिलीं जीवन की कुछ उपलब्धियां हैं
चलाता था मनुज कल मंडियों को
चलाती अब मनुज को मंडियां हैं
खड़ी बाधाएं करती हैं निरंतर
प्रगति के मार्ग में कुछ रूढ़ियां हैं
लगे फल हैं अधिक 'ओंकार ' जिस पर
झुकीं उस पेड़ की सब डालियां हैं
(20)
दर्द में डूबी है क्यों रात ,कोई क्या जाने
किसने बख़्शी है ये सौग़ात, कोई क्या जाने
आज छप्पर से टपकता है जो पानी घर में
कैसे गुज़रेगी ये बरसात , कोई क्या जाने
हर तरफ़ धोखाधड़ी,ज़ुल्म हैं और राहज़नी
किस क़दर बिगड़े हैं हालात,कोई क्या जाने
जाने कब लौट के फिर आएँ मेरे आंगन में
गूँजते प्यार के नग़मात,कोई क्या जाने
आज किस वास्ते मुरझाई हैं कलियाँ प्यारी
कैसी पेड़ों से हुई घात, कोई क्या जाने
छोटा घर छोड़के महलों में ठहरती है सदा
धूप के दिल में है क्या बात, कोई क्या जाने
किसलिए शोले भड़कते हैं किसी के दिल में
क्यों झुलस जाते हैं जज़्बात, कोई क्या जाने
आग में फ़िक्र की हर ज़हन झुलसता है क्यों
कौन सी किस को लगी बात,कोई क्या जाने
कुर्सियों के लिए होती है बहस संसद में
आम लोगों के सवालात, कोई क्या जाने
कल को "ओंकार" किसे घेरे अँधेरा ग़म का
रास आएँ किसे हालात, कोई क्या जाने
(21)
तपाकर ख़ुद को सोने -सा निखरना कितना मुश्किल है
ख़ुद अपनी ज़िंदगी पुरनूर-1 करना कितना मुश्किल है
है आसाँ ख़ून से अपनी इबारत आप ही लिखना
मुकम्मल शेर में अपने उतरना कितना मुश्किल है
बहुत आसान है गुलपोश-2 राहों से गुज़र जाना
मगर पथरीली राहों से गुज़रना कितना मुश्किल है
गुज़रती ज़िन्दगी जिसकी है औरों की भलाई में
नदी की धार-सा लेकिन गुज़रना कितना मुश्किल है
किसी निर्धन को मिल सकता है उजला पैरहन-3 लेकिन
किसी चेहरे से कालिख का उतरना कितना मुश्किल है
बहुत है डूबने वाले को तिनके का सहारा भी
डुबोया जिसको अपनो ने उभरना कितना मुश्किल है
बहुत आसान है कुछ खोट औरों में बता देना
मगर अपनी कमी को दूर करना कितना मुश्किल है
मिला धोखा हो जिसको हर क़दम 'ओंकार सिंह'बोलो
किसी पर भी उसे विश्वास करना कितना मुश्किल है
1-पुरनूर--चमकीला,आभायुक्त,
2-गुलपोश राहों =फूल बिछे रास्ते
3- उजला पैरहन =सफेद कपड़े
(22)
आदमी ऊँचा उठा तो और भी तनकर मिला
हाँ मगर झुकता हुआ फल से लदा तरुवर मिला
चिलचिलाती धूप में जब भी घना तरुवर मिला
इक थके हारे पथिक को जैसे अपना घर मिला
आज अच्छे आचरण से लोग क़तराने लगे
जो भला था बस वही अब काँपता थरथर मिला
रोशनी अच्छाइयों की कैसे टिक पाती भला
जब अँधेरों से डरा-सहमा हुआ दिनकर मिला
एक अच्छा मित्र मैने उम्रभर खोजा मगर
आज तक उसका पता पाया न उसका घर मिला
भूल को तू ,दोस्तों की ,तूल देना छोड़कर
हाथ अपने दोस्तों से और भी बढ़कर मिला
पास आ 'ओंकार' तू शिकवे शिकायत भूलकर
'"मीत मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला "
(23)
प्यार का होता है यारो क़ायदा कुछ भी नहीं
राब्ता ही राब्ता-1 है ज़ाबता-2 कुछ भी नहीं
कब तलक है दाना-पानी ये पता कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी से मौत का तो फ़ासला कुछ भी नहीं
भूलता हरगिज़ नहीं कमियाँ किसी इंसान की
वक़्त करता है इशारे बोलता कुछ भी नहीं
सारे सुख-दुख और साधन बांटते मिलकर अगर
तो दिलों के बीच होता फ़ासला कुछ भी नहीं
शोर में पूजा - इबादत कैसे हो पाए भला
शोर है केवल दिखावा प्रार्थना कुछ भी नहीं
जोड़ने का काम करती थी सियासत अब मगर
तोड़ना ही तोड़ना है जोड़ना कुछ भी नहीं
प्यार से सब ही रहें 'ओंकार' दुनिया में सदा
दिल में मेरे और है अब कामना कुछ भी नहीं
राब्ता ही राब्ता=मेल-मिलाप
ज़ाबता= विधि-विधान
(24)
आपके आ जाने भर से यह अचानक क्या हुआ।
मेरा घर लगने लगा है आज तो महका हुआ ।।
ज़िंदगी की झंझटों में ख़ुद को था भूला हुआ ,
शाम को घर आ गया वो सुब्ह का भटका हुआ ।।
चैन से बीते बुढ़ापा ,थी यही चाहत मगर,
सत्य हो पाया न अब तक अपना वो सोचा हुआ ।।
जिंदगी का कारवॉ अब आख़िरी मंज़िल में है,
काम आ जाता है अब भी मॉ का समझाया हुआ ।।
एक अरसे में गया तो , गॉव वालों ने कहा ,
एक चेहरा लग रहा है जाना- पहचाना हुआ ।।
जाला मकड़ी की तरह ख़्वाबों का बुन डाला घना,
अब उसी जाले में है ,ये आदमी उलझा हुआ ।।
कैसी बीमारी कोरोना, आई है संसार में ,
इससे तो हर आदमी है आज घबराया हुआ ।।
कोई दुश्मन सामने से दीखता भी है नहीं,
फिर भी उसके ख़ौफ़ से है आदमी सहमा हुआ ।।
लाख कोशिश करने पर भी ये सुलझता ही नहीं,
मसअला मज़हब का है ये किसका उलझाया हुआ ।।
जिससे हर-इक ज़िंदगी ख़तरे में है 'ओंकार' अब,
कौन से ज़ालिम का है यह जाल फैलाया हुआ ।।
(25)
क़ुदरत ने हमको दिए , नए- नए उपहार ।
भुला दिए हमने मगर , उसके सब उपकार ।।
उसने तो हमको दिए , विविध रंगों के फूल ,
जिनकी मस्त सुगंध से , महक रहा संसार ।।
हरे पेड़-पौधे हमें , देते पावन वायु ,
जिन पर लगते फूल-फल , देते ख़ुशी अपार ।।
खाने से फल-फूल के , मिटे पेट की भूख ,
हो जाता है गात में , ऊर्जा का संचार ।।
सभी चाहते हैं यही , स्वस्थ रहें सब लोग,
हरियाली का सब करें , मिलजुलकर विस्तार ।
हरा-भरा संसार को , करें लगा कर पेड़ ।
हरियाली है दोस्तो , जीवन का आधार ।।
(26)
इंसान ही दुनिया में है इंसान का दुश्मन ।
शैतान तो होता नहीं शैतान का दुश्मन ।।
मेहनत पे जो करता नहीं है अपनी भरोसा ,
वो खेत का दुश्मन है वो खलिहान का दुश्मन ।
जिस शख्स का मामूल हो जिस्मों की नुमाइश ,
होगा वो मेरे मुल्क के सम्मान का दुश्मन ।।
गुलशन में हसीं फूल खिलेंगे भी तो कैसे ,
माली हो अगर कलियों की मुस्कान का दुश्मन ।।
ऐ दोस्त भला ऐसे में हो किस पे भरोसा ,
दरबान जहां पर हो खुद ऐवान 2का दुश्मन ।।
किस तरह वहाँ कोई किसी हुक्म को माने ,
हाकिम हो अगर अपने ही फ़रमान का दुश्मन ।।
'ओंकार' ज़माने में कोई शख़्स किसी के ,
अहसास का दुश्मन हो न अरमान का दुश्मन ।।
1-मामूल- आदत, २- ऐवान- महल
(27)
मेरे भोलेपन का उसने कितना प्यारा मोल दिया ।
"नफ़रत की मीज़ान पे उसने मेरा सब कुछ तोल दिया "।।
हमने जिस को सम्मानित कर बैठाया अपने सर पर ,
उसने हमको अपमानित कर उल्टा-सीधा बोल दिया ।।
बंधक उसने समझ लिया है मेरे नाज़ुक-से दिल को ,
जब चाहा दामन में बांधा ,जब जी चाहा खोल दिया ।।
कुछ लोगों ने अच्छाई को दूर किया यों जीवन से ,
जैसे ग़ल्ले में से कूड़ा , छाना- फटका रोल दिया ।।
साधनहीनों को लोगों ने , ठुकराया हर तौर मगर ,
पल्ला जिसका भारी देखा, वह सिक्कों से तोल दिया ।।
ताल-तलैया नदियां पाटीं , धरती बंजर कर डाली ,
पेड़-हरे काटे लोगों ने , सांसों में विष घोल दिया ।।
हिन्दू,मुस्लिम,सिख, इसाई , रहते हैं जिसमें मिलकर ,
मेरे भारत ने दुनिया को, वह प्यारा भूगोल दिया ।।
दुनिया ने 'ओंकार' हमें तो, ख़ूब सताया है लेकिन ,
हमसे जितना हो पाया है , प्यार हवा में घोल दिया ।।
(28)
अज्ञान की चौखट पे झुका ज्ञान मिला है
विद्वान को ठुकराता ही धनवान मिला है
रहकर के तेरे साथ में जो ज्ञान मिला है
उसमें ही मुझे आज ये अवदान-1 मिला है
मिलते थे विविध रंग के सुघड़ फूल जहाँ पर
अब मात्र वहाँ शूलों का संज्ञान मिला है
समझो कि पतन शीघ्र है उस देश का मित्रो
विद्वान को जिस देश में अपमान मिला है
सब लोग अलग ढपलियों को पीट रहे हैं
समवेत-2 सुरों का न कोई भान मिला है
यह शोर- शराबा भला संगीत है कैसा
सुर -ताल का जिसमें नहीं संज्ञान मिला है
पाने के लिए धन को ही जो दौड़ते रहते
सदमार्ग का उनको न कोई ज्ञान मिला है
उलझे हैं अभी प्रश्न तो जीवन में बहुत से
उनका न कहीं कोई समाधान मिला है
हर व्यक्ति को बाज़ार ने उलझाया है ऐसे
वो प्रेम की हर बात से अनजान मिला है
धरती को निहारो तो वो है कितनी मनोहर
'ओंकार' न उस रूप को पहचान मिला है
1-अवदान=उत्क्रष्ट या पवित्र विचार
2-संवेत = एकीक्रत या एकीकरण
(29)
बढ़ते हुए उन्माद को अलगाव को रोको
हर हाल में तुम आपसी टकराव को रोको
बेकार न कर दे कहीं उपजाऊ ज़मीं को
उफ़ने हुए इस पानी के भटकाव को रोको
फिर आज उठी है नई विध्वंस की आंधी
सदयत्न से निर्माण के बिखराव को रोको
ज़रदार मेरे हिन्द पे हैं घात लगाए
ज़रदारों के बढ़ते हुए फैलाव को रोको
पहले भी बहुत ज़ख़्म हैं सीने में हमारे
'ओंकार' ज़माने के नए घाव को रोको
(30)
जाति, मज़हब धर्म के झगड़े मिटाने के लिए
आओ! सोचें बीच की दीवार ढाने के लिए
एक लम्हा है बहुत रिश्ता बनाने के लिए
उम्र लेकिन कम है वो रिश्ता निभाने के लिए
उम्र कम पड़ती है जिस घर को बनाने के लिए
एक लम्हा है बहुत उसको गिराने के लिए
कोई मुश्किल में किसी की काम आता ही नहीं
हर कोई तैयार है बातें बनाने के लिए
दीप जो क़ुरबानियॉ देकर जलाए थे यहॉ
लोग अब चक्कर में हैं उनको बुझाने के लिए
बॉटते ख़ुशियॉ परिंदे और देते सुख हमें
हम भी कुछ करते हैं क्या उनको बचाने के लिए
शोर अब कौओं का सुनकर ऐसा लगता है मुझे
ये परिंदे आए हैं संसद चलाने के लिए
हमने यह महफ़िल करी मंसूब जिनके नाम पर
काश वो आते हमें जलवा दिखाने के लिए
हमने भी कुछ शेर लिक्खे हैं नए 'ओंकार सिंह '
दिल हुआ बेताव है उनको सुनाने के लिए
(31)
चमन में गुलों की हँसी लुट न जाए
ये कलियों की दोशीज़गी -1 लुट न जाए
जो राहे -वफ़ा से मिटाती है ज़ुल्मत-2
चिरागों की वो रोशनी लुट न जाए
बने हो मुहाफ़िज़ -3 मगर याद रखना
सरे-रहगुज़र-4 फिर कोई लुट न जाए
अजब हादसों के मुक़ाबिल है शायर
कहीं आज़मते-शायरी-5 लुट न जाए
बहुत कोशिशें हैं हमें बांटने की
ये महफ़िल मुहब्बत भरी लुट न जाए
ये कोशिश करें आज 'ओंकार' हम सब
कोई फूल-सी ज़िन्दगी लुट न जाए
1-दोशीज़गी- कौमार्य, 2- ज़ुल्मत--अँधेरा
3--मुहाफ़िज़--रक्षक , 4- सरे-रहगुज़र --रास्ते में
5-अज़मते-शायरी--- शायरी का सम्मान
✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार'
1-बी-241 बुद्धिविहार,मझोला,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001
मो.न. 9997505734
मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- बवाल-ए-फ़ोन-टेपिंग !!!!
विपक्षी दलों की फोन-टेपिंग का मामला जब सामने आया तो कई नेताओं की दिन की नींद और रात का चैन ( जो ज़ाहिर है की बिस्तरों पर ही मिलता है ) अचानक गायब हो गया. सुबह संसद में सोने वाले नेता भी जाग गए कि पता नहीं रात में होने वाली हमारी कौन सी सीक्रेट बात रिकॉर्ड कर ली गयी हो ? क्या पता कि रामकली से घर जल्दी आने की बात कहकर लाजवती यानि लज्जो से होटल जल्दी पहुंचने की बात हो या आई.पी.एल.के घपलों में अपनी हिस्सेदारी से मुक्त होने के जुगाड़ की कोई बात की गयी हो. कल रात भर नेताओं के हाथ-पैर फूले रहे कि पता नहीं हमारी कौन सी 'ह्युमन वीकनेस' यानि मानवीय कमज़ोरी पब्लिक के सामने लाने की साज़िश रची जा रही हो कि कभी इलेक्शन में खड़े होना तो अलग, नामांकन कराने लायक पोज़ीशन भी ना रहे हमारी.
आज सुबह से ही संसद की इमारत यह सोचने में लगी थी कि मैंने पता नहीं कौन से ऐसे बुरे कर्म अपने पिछले जन्म में किये थे, जो आज उनकी सज़ा एक शोरमचाऊ इमारत के रूप में जन्म पाकर भुगतनी पड़ रही है. जिन लोगों के फटे हुए गले पहले से ही इस लायक नहीं हैं कि वे उन्हें और ज़्यादा फाड़ सकें, वे भी गला फाड़-फाड़कर कह रहे हैं कि " यह जो कुछ भी हुआ या अभी भी हो रहा है, वह लोकतंत्र के मुंह पर ( अगर वह वाक़ई में कहीं दिखता है तो ) एक ना पड़ने लायक तमाचा है. " संसद के उस वीरान कोने में, जहां लोग बीड़ियों और सिगरेटों के टोंटे फ़ेंक दिया करते है, लोकतंत्र खड़ा हुआ सोच रहा था कि इस मुल्क के नेता हर मसले में मेरे मुंह पर ही तमाचा क्यों पड़वाते हैं, खुद के मुंह पर क्यों नहीं ?
यह हमारी गोपनीयता के अधिकारों का हनन है और इसे जब तक हम यह सरकार बदलकर अपनी सरकार ना ले आयें, नहीं होने देंगे. " किसी ऐसे विपक्षी सांसद की आवाज़ उनके गले में से बार-बार कुछ सोचते हुए निकलने के प्रयास करती है, जो पिछले दिनों ही अपने गले में आज़ादी के बाद से जमे बलगम को साफ़ कराके अमरीका से लौटे थे. " यह सरासर ज़्यादती है, तानाशाही है और मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि... वो क्या नाम है उसका.....लोकतांत्रिक.....लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास है. " कोने में खड़े लोकतंत्र का मन कर रहा था कि वह अभी उस सांसद का गला पकड़ ले, जिसने इस बार फिर उसके ह्रास होने जैसी कोई गन्दी बात की है. खुद के चरित्र का कितना ह्रास कर लिया है इसने, यह कभी नहीं सोचा इस नेता ने ? लोकतंत्र आज कुछ ज़्यादा ही दुखी था. " सरकार को हम सबसे और इस देश की जनता से माफ़ी मांगनी होगी कि इस तरह की हरकतें वह फिर नहीं करेगी. " किसी ऐसे सांसद की आवाज़ इस बार सदन में गूंजी, जो पहले कभी सरकार में मंत्री-पद पर था और अभी भी उम्मीद में था कि उसे फिर से सरकार में अपनी हिस्सेदारी वापस मिल जायेगी.
संसद में इस फोन-टेपिंग प्रकरण के विरुद्ध सबसे ज़्यादा गला उन्हीं लोगों ने फाड़ा था, जो पिछले कई महीनों से खुलेआम आई.पी.एल., मैच- फिक्सिंग, सट्टे और महिला-मित्रों के संसर्ग में थे और अपने हिस्सेदारों से स्वीटजरलैंड में बैंक-खाते खोलने की प्रक्रियाएं पूछ रहे थे. सबसे ज़्यादा हंगामा यही लोग कर रहे थे. सरकार से माफ़ी मांगने की मांग करने वाले लोग वे थे, जिनकी सोच यह थी कि अगर माफ़ी मांग ली तो ठीक और अगर शर्म या किन्हीं अडचनों की वजह नहीं मांगी, तो उनकी सरकार को समर्थन दे देंगे. समर्थन देने में क्या घिस रहा है ? लेकिन अगर समर्थन नहीं दिया तो सरकार का तो कुछ नहीं घिसेगा, मगर हमारा सब कुछ घिस जाएगा.
✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कहानी ---अनोखा विकास
किसी नगर में एक अनोखा वृक्ष था। उस वृक्ष पर बहुत सुंदर और सुनहरे फल लगते थे।जिन्हें विकास फल के नाम से जाना जाता था।समस्त जनता को वे फल उनके विभिन्न कार्यों के अनुसार, कम या ज्यादा तोड़कर दिये जाते थे।या यों कहिए कि उन विकास नामक फलों को खाकर ही उनको विभिन्न सुख- सुविधाएं प्राप्त होती थीं।परंतु जो भी राजा उस नगर में राज्य करता ,वह उन फलों के एवज़ में उनसे कुछ न कुछ अवश्य ही वसूलता था।
एक बार वहाँ की प्रजा ने सोचा कि हम एक ऐसे राजा को चुनते हैं, जो हमसे बदले में कुछ भी न ले और यह फल भी खाने को मिल जायें।अतः नया राजा बनाया गया।जब विकास रूपी फल खाने का समय आया ,तब प्रजा राजा के दरबार पहुँची और उन फलों की माँग करने लगी।
राजा ने उन सभी की बात सुनकर कहा,"ये फल आपको अवश्य मिलेंगे, परंतु इनके एवज़ में आपको अपनी जान देनी पड़ेगी!!"
"ये क्या कह रहे हो महाराज!!जान देकर हमें विकास का पता कैसे चलेगा?ये कैसा विकास है?"जनता ने विस्मित होते हुए पूछा।
तब राजा ने गंभीरतापूर्वक कहा,"आज से तुम्हारा ज़िंदा रहना ही सबसे बड़ा विकास होगा।क्योंकि तुमने मुफ्त में ही फलों के दर्शन किये हैं।उसके बदले हमने तुमसे कभी कुछ नहीं लिया।"
"किन्तु...महाराज!!!"जनता ने कहना चाहा..
मगर राजा ने उनकी एक न सुनी और उठकर अपने महल की ओर चल दिये।
तबसे आज तक ,उस नगर में जनता दूर से ही उस वृक्ष पर लगे उन सुनहरे फलों को देख-देख कर ज़िंदा है और अन्य सुख-सुविधाएं भूलकर अपने जीवन को ही अपना विकास समझने लगी है।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा---बीता हुआ कल
पंकज ऑफिस से जैसे ही घर आता वैसे ही बहू के खिलाफ दिन भर का बंधा शिकायतों का पुलन्दा माँ पंकज के सामने रख देती।बहू ने यह नहीं किया, खाने में नमक ज्यादा डाल देती है, देर से सोकर उठती है, पता नहीं माँ-बाप ने कुछ सिखाया भी है या नहीं आदि आदि ,,,," मैं तो परेशान हो गई हूँ तू कुछ बोलता क्यों नहीं "। यह छोटी - छोटी बातें रोज़ के कार्यक्रमों में शामिल हो गई थीं।पंकज भी क्या करता ? इस कान से सुनता ,उस कान से निकाल देता । यह क्रम कई हफ्तों तक चलता रहा।आखिर पंकज से रहा नहीं गया ,सो पास ही बैठी दादी व बाबू जी की ओर इशारा करते हुए पूछा क्यों दादी , माँ की इन रोज़ -रोज़ की बातों के बारे में तुम्हारा क्या विचार है ? बस इतना कहना था कि दादी ने बाबू जी की ओर देखा , दोनों ने आँखों में कुछ बात कही और मुस्कुरा दिये,,,,,,,,,,!!
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यकार मोनिका मासूम की ग़ज़ल ----भूखों मरने के पुराने हुए किस्से साहिब खाते पीते हुए अब जान ये जाने लगती है
ज़िंदगी जब ज़रा खाने कमाने लगती है
मौत का खौफ महामारी दिखाने लगती है
मन में विश्वास कि उम्मीद भरी आंखो से
ये ज़ुबां टेर तेरे दर की सुनाने लगती है
दिल को जब भी जरा सी देर सुकूं मिलता है
जी जलाने को तेरी याद ही आने लगती है
भूखों मरने के पुराने हुए किस्से साहिब
खाते पीते हुए अब जान ये जाने लगती है
अपने अपराध तिजोरी में छिपाकर दुनिया
आंसू घड़ियाली सरेआम बहाने लगती है
✍️ मोनिका मासूम, मुरादाबाद
शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार शिव कुमार चंदन का गीत ---बन्द निज आवास में, व्यवधान ऐसा छा रहा
सुखद हों परिवेश जग के , गीत चंदन गा रहा
बन्द निज आवास में, व्यवधान ऐसा छा रहा
कौन जाने समय की गति स्थायी कुछ है ही नहीं
परिस्थितियाँ युगों से, संताप सहती ही रहीं
प्रारब्ध जागे कर्म के,जीवन में है सुख ,दुख सहा
सुखद हों परिवेश जग के, गीत चंदन गा रहा
गति -प्रगति अवरूद्ध होती, है कहीं थमती कहाँ
नित्य परिवर्तन है पल-पल,सम्वेदना जगती यहाँ
भक्ति साधन,साध्य-साधक का सदा ही कर गहा
सुखद हों परिवेश जग के गीत चंदन गा रहा
सृष्टि के प्राणी यहाँ अनभिज्ञ हो कर मौन हैं
प्राण संरक्षक प्रकृति के ,सर्वज्ञ हे प्रभु कौन हैं
लाकडाऊन में फंसा हर व्यक्ति है घबरा रहा
सुखद हों परिवेश जग में ,गीत चंदन गा रहा
व्यवस्था पारम्परिक सब उत्सवों पर रोक है
शान्त हैं सब राज पथ सर्वत्र प्रभु आलोक है
मधुर कलरव पंछियों का ,आनंद से सहला रहा
सुखद हों परिवेश जग में, गीत चंदन गा रहा
✍️ शिव कुमार चंदन
सीआरपीएफ बाउण्ड्री , निकट- पानी की बड़ी टंकी ज्वालानगर, रामपुर ( उत्तर प्रदेश ) मोबाइल फोन नम्बर 6397338850
मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का गीत ----बेटियाँ- पावन-ऋचाएँ हैं बात जो दिल की, कभी खुलकर नहीं कहतीं...... यह गीत उन्होंने 11 अप्रैल 1987 को लिखा था ।
बेटियाँ-
शीतल हवाएँ हैं
जो पिता के घर
बहुत दिन तक नहीं रहती
ये तरल जल की परातें हैं
लाज़ की उज़ली कनातें हैं
है पिता का घर हृदय-जैसा
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं
बेटियाँ-
पावन-ऋचाएँ हैं
बात जो मन की,
कभी खुलकर नहीं कहतीं
हैं तरलता प्रीति- पारे की
और दृढता ध्रुव-सितारे की
कुछ दिनों इस पार हैं लेकिन
नाव हैं ये उस किनारे की
बेटियाँ-
ऐसी घटाएँ हैं
जो छलकती हैं,
नदी बनकर नहीं बहतीं
✍️ डॉ कुंअर बेचैन
मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का सन 1975 में लिखा गीत ---- जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने, दादी की हँसुली ने माँ की पायल ने, उस कच्चे घर की सच्ची दीवारों पर, मेरी टाई टँगने से कतराती है !
जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने माँ की पायल ने
उस कच्चे घर की सच्ची दीवारों पर
मेरी टाई टँगने से कतराती है !
माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
यह अन्तर ही सम्बंधों की गलियों में
ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना
जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है !
जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
तब से लिपे आँगनों से, दीवारों से
बन्द नाक को सोधी गंध नहीं आती
जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
उस घर को घर कहने में शरमाती है !
साड़ी-टाई बदलें या ये घर बदलें
प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता
जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
उन संकेतों वाले भावुक घूंघट पर
दरवाजे की 'कॉल बेल' हँस जाती है !
✍️ डॉ कुंअर बेचैन
मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का गीत ----बदरी ! बाबुल के अँगना जइयो ..... यह गीत उन्होंने जुलाई 1978 में लिखा था ।
बदरी !
बाबुल के अँगना जइयो
जइयो, बरसियो, कहियो,
कहियो कि हम हैं तोरी, बिटिया की अँखियाँ
काँटे-बिंधी है
मोरे मन की मछरिया
मरुथल की हिरनी है गयी
सारी उमरिया
बिजुरी !
मैया के अँगना जइयो
जइयो, बरसियो, कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया की सखियाँ |
अब के बरस राखी
भेज न पाई
सूनी रहेगी
मोरे वीर की कलाई
पुरवा
भैया के अँगना जइयो
छू -छू कलाई कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बहना की रखियाँ।
✍️ डॉ कुंअर बेचैन
गुरुवार, 29 अप्रैल 2021
मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृति शेष डॉ कुंअर बेचैन की प्रथम काव्य कृति - पिन बहुत सारे । इस कृति का प्रकाशन अगस्त 1972 में हुआ था । इसे प्रकाशित किया था स्वयं प्रकाशन गाजियाबाद ने । इस कृति में उनके 65 नवगीत संगृहीत हैं
क्लिक कीजिये और पढ़िये पूरी कृति
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
बुधवार, 28 अप्रैल 2021
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की रचना ----- पड़ी कोरोना की मार मैया कर दो बेड़ा पार हुई जनता अब लाचार मैया कर दो बेड़ा पार ।
पड़ी कोरोना की मार मैया कर दो बेड़ा पार
हुई जनता अब लाचार मैया कर दो बेड़ा पार ।
घर-घर असुर बन खड़ा कोरोना करता है मनमानी
कोई अस्त्र नहीं हाथ किसी के मुश्किल जान बचानी
अछूत हुए सभी रिश्ते नाते चली हवा बेगानी
छूटे कैसे इससे जान मैया कर दो बेड़ा पार ।
पड़ी कोरोना की मार मैया.......
गांव नगर मचा हाहाकार है बिगड़ी आज कहानी
बाल - वृद्ध सब डरे - डरे हैं कुछ कहते नहीं जुबानी
विद्या मंदिर बंद हुए हैं अब कैसे सीख सिखानी
आकर खड़े तुम्हारे द्वार मैया कर दो बेड़ा पार ।
पड़ी कोरोना की मार मैया.......
जड़ी बूटी और औषधि सारी मानो हुई पुरानी
दवा कोई न असर दिखाये फिरा है सभी पर पानी
सांस सांस को तरसाने की कोरोना ने ठानी
दिखे न कोई उपाय मैया कर दो बेड़ा पार
पड़ी कोरोना की मार मैया ........
✍️ डाॅ रीता सिंह, मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की रचना --- मैं विद्यालय जाऊं कैसे
कोरोना के नये दौर में ,
मैं विद्यालय जाऊं कैसे?
बाहर घूम रहा कोरोना,
घर के बाहर आऊं कैसे?
कभी सुनी न और न देखी,
ऐसी नयी कहानी लिख दी।
ब्रह्मा जी ने कभी रची न,
ऐसी अजब निशानी रच दी।।
मास्क लगा सबके ही मुख पर,
अपना मुख दिखलाऊं कैसे ?
बाहर घूम रहा कोरोना,
घर के बाहर आऊं कैसे??
हवा विषैली हो जाये तो,
हम तुम सांसें कैसे लेंगे .?
कटे वृक्ष धरती से कितने,
प्राण वायु फिर कैसे देंगे ?
घायल होती हरियाली में,
पर्यावरण बचाऊं कैसे?
बाहर घूम रहा कोरोना,
घर के बाहर आऊं कैसे??
बन्द हुए हैं विद्यालय सब,
किंतु फीस फिर भी बढ़ती हैं।
लाक डाउन के नये दौर में,
ओनलाइन क्लासें चलतीं हैं।।
दोस्त सभी अब छूट चुके हैं,
फिर से दोस्त बनाऊं कैसे ?
बाहर घूम रहा कोरोना,
घर के बाहर आऊं कैसे ?
कर के दया प्रभु परमेश्वर,
चमत्कार अब तो दिखला दो।
महामारी से त्रस्त हुए सब,
हे प्रभु इस को दूर भगा दो।।
छोड़ तुम्हारे चरणों को मैं ,
द्वार दूसरा पाऊं कैसे ?
बाहर घूम रहा कोरोना,
घर के बाहर आऊं कैसे ?
✍️ अशोक विद्रोही
412, प्रकाश नगर, मुरादाबाद
मोबाइल फोन 82 188 25 541
मंगलवार, 27 अप्रैल 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की रचना -----एक कविता करोना के नाम
नहीं भरोसा बचा सुहाने सपनों पर
जो कुछ दिन पहले दिखलाए थे
इससे बेहतर यही रहेगा प्यारे बंधु
माज़ी ही मेरा मुझको वापस कर दो
धर्मप्राण भक्तों से है करबद्ध निवेदन
बहुत हो गयीं दीन धरम की चर्चाएँ
छोड़ो अब मस्जिद और मंदिर के मसले
यही समय है दुखियारों की पीड़ा हर लो
कैसा मंज़र ! जूझ रहा है देश इस समय
अनदेखे से घातक एक विषाणु से
जो भी सीमित संसाधन हैं अपने बस में
जिसे ज़रूरत है उस की झोली में भर दो
नहीं दिखायी देते हैं वो कठिन समय में
जिन्हें बिठाया था तुमने पलकों पर अपनी
शब्दहीन छिप कर बैठे हैं कहीं सुरक्षित
कायनात देखेगी उनसे तुम इतना ही कह दो
अर्जुन बन जाओ अपना गांडीव सम्भालो
ठोस कदम ही लेने होंगे सबकी ख़ातिर
संकट के पल में खुद को मज़बूत बनाओ
रहो सुरक्षित घर से बीमारी को धक्का दे दो.
✍️ प्रदीप गुप्ता
B-1006 Mantri Serene
Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कविता .......अच्छे दिन
एक बार फिर
दुनिया के सबसे बड़े
प्रजातांत्रिक देश में
चुनाव बड़े ही शांतिपूर्ण ढंग से
सम्पन्न हो रहे हैं।
बिल्कुल मरघट सी शांति .....!!
सड़कों पर पसरा सन्नाटा
मृत्यु का अट्टहास!
डरते लोगों को और डराया जायेगा
मरने पर ही तो मरहम लगाया जायेगा।
फक्क पड़े चेहरे...!!
बोझिल कदम
तपते बदन...
चुनाव पेटियों के साथ
जा रहे हैं अपने गंतव्य को..
शायद ये उनका अंतिम गंतव्य हो।
कोई और विकल्प बचा ही कहाँ है?
जान और माल दोनो के बीच
अपनी जान दाँव पर लगा दी है।
रोजी रही ,तभी तो रोटी भी मिलेगी।
क्योंकि राजनीति का गंतव्य भी
तो यही है।
मौत के आगोश में सिमटकर
अच्छे दिन और भी खूबसूरत लगने लगेंगे।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार, मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ---गुनगुनाती जिंदगी
जितना मैंने पढ़ा,
जितना मैंने सुना,
डर फैलता गया,
आँखों के कोने कोने में,....
मुझे साक्षात दिखने लगी
पड़ोस में रहने आयी मौत.....
उसके नाखून भयानक थे,
हर पल मंडराने लगे
उसके नाखून
मेरे सिर पर......।
मौत के लक्षण
उतर आये
मेरे शरीर में।
प्राणवायु सूखने लगी....
और मैं जुट गयी इंसान होने के नाते
अपनी जान बचाने की होड़ में...
इसी होड़ा होड़ी के दरमियान
मैंने अचानक ध्यान दिया....
बेजुबानों पर.......
हमारा पालतू 'जैरी' निडर था
और मस्त भी....
छत पर आने वाली चिड़िया भी
दहशत में नहीं दिखी....
दाना लेने आयी गिल्लू भी
बेफिक्र थी....
उसने देखा मुझे मुड़कर
बार बार हमेशा की तरह....
जितना मैंने देखा...….
अपने आस पास....
ज़िन्दगी गुनगुनाती मिली....
चढ़ते सूरज की किरणों में,
सरसराते पत्तों में
मम्मी जी की आरती में।
दूध वाले,अखबार वाले,
सब्जी वाले,कूड़े वाले,
और ये गली में खेलते बच्चे,
सब ही तो ज़िन्दगी से भरे हुए थे।
अब नहीं दिख रही थी
मुझे मौत पड़ोसन सी...
और अब वे नाखून भी
गायब हो रहे हैं यकायक....
क्योंकि मैंने बंद कर दिया है
आभासी पढ़ना और सुनना
मैं अब पास पड़ोस का
सच देखने लगी हूँ...
जानने लगी हूँ....
मौत तो एक चारपाई है
जब कोई थक जाता है,
उस पर जाकर लेट जाता है।
लेकिन ज़िन्दगी मेहमान है,
उसे होंसलों के सोफे पर बैठाना होगा,
उम्मीद की मीठी चाय पिलानी होगी।
मेहमान का स्वागत सत्कार करना होगा,
क्योंकि 'अतिथि देवो भव' के
संस्कार है हमारे...
तब तक मौत की खटिया
खड़ी करनी ही होगी,
क्यों न शुरुआत हम सब
अपने दिमाग के दालान से करें....
✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद