सोमवार, 14 जून 2021

साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन



 मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 11 एवं 12 जून 2021 को दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। चर्चा के दौरान साहित्यकारों ने कहा कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी दयानन्द गुप्त का मुरादाबाद के हिन्दी कहानी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान रहा । उनकी कहानियां जहां सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों पर पैने प्रहार करती हैं वहीं नैतिक मूल्यों के पतन, दोहरे चरित्र और मानवीय सम्वेदनाओं को भी बखूबी अभिव्यक्त किया है ।


मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तंभ के तहत संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने  स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा कि 12 दिसम्बर 1912 को जन्में दयानन्द गुप्त की कहानियों का पहला संग्रह 'कारवां ' वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह की भूमिका सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी थी।  सन 1943 में उनके 52 गीतों का संग्रह 'नैवेद्य' नाम से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष उनका दूसरा कहानी संग्रह 'श्रंखलाएं' प्रकाशित हुआ। वर्ष 1956 में 'मंजिल' कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । वर्ष 1946 में आपका एक नाटक 'यात्रा का अन्त कहाँ' प्रकाशित हुआ। 'माधुरी', 'सरस्वती', 'वीणा', 'अरुण' आदि उच्च कोटि की मासिकों में आपकी रचनाएँ विशेष सम्मान के साथ छपती रहीं । दयानन्द गुप्त की रूझान पत्रकारिता की ओर भी था। वर्ष 1952 में उन्होंने 'अभ्युदय' साप्ताहिक का प्रकाशन व संपादन भी किया । 25 मार्च 1982 की अपराह्न वह इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

   

उनके सुपुत्र एवं दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकान्त गुप्त ने उनके अनेक संस्मरण, चित्र  तथा रचनाएं प्रस्तुत कीं । उन्होंने कहा कि दयानन्द गुप्त एक साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे ।अपनी किशोरावस्था में आपने महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाई स्कूल पास करने के उपरान्त वर्ष 1930 में आन्दोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे। सन 1945 में मजदूर आंदोलन में भाग लिया। अनेक श्रमिक संगठनों से आप जुड़े रहे। सन् 1951 में जिनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। वर्ष 1972 से 1980 तक मुरादाबाद नगर की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर भी रहे।

     

 दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्या डॉ स्वीटी तलवाड़ ने उनके गीत संग्रह नैवेद्य का विश्लेषण करते हुए कहा कि गुप्त जी छायावादी कवियों की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति  प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य  सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान। वह प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं।     

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की प्राचार्या डॉ० अनुपमा मेहरोत्रा ने कहा कि दयानन्द गुप्त  बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनका जीवन संघर्ष ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। समाजसेवी व साहित्यकार के रूप में उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया है। शिक्षा जगत में गुप्त जी का योगदान अविस्मरणीय है। खासकर स्त्रियों के लिए विद्यालय, महाविद्यालय की स्थापना करना, स्त्री शिक्षा की ओर बढ़ाया गया चुनौतीपूर्ण कदम है जो उनके प्रगतिशील व्यक्तित्त्व को इंगित करता है। साहित्य उनके अंतर्मन में रचा-बसा था। 

केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाये ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । ' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है।  , ' विद्रोही ' कहानी में  गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है।'नया अनुभव ' कहानी लेखक के गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है , 'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी  के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखे जा सकते हैं,वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है।

   

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. कंचन सिंह ने कहा कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।

वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने कहा दयानन्द गुप्त के लेखन में जहाँ मानवीय संवेदनाएं झंकृत होती हैं वहीं सामाजिक विसंगतियों पर भी तीखा व्यंग और प्रहार परिलक्षित है। धार्मिक मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए वो जहाँ एक समाज सुधारक की भूमिका निभाते हैं तो वहीं धीरे धीरे आध्यात्मिक यात्रा की राह पर चलते हुए एक दर्शानिक के रूप में नज़र आते हैं। उनका समृद्ध साहित्य समाज को दिशा देने वाली एक अमूल्य धरोहर है। इस अवसर पर उन्होंने श्री गुप्त को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा----

जीवन में जो दे गए, नये नये प्रतिमान।

समय करे चर्चा यही, उन पर है अभिमान।।


दयानन्द था नाम सरीखा। पूत पाँव पलने में दीखा।।

माता ने थी नज़र उतारी। दादा दादी सब बलिहारी।।


बचपन बीता खाते पीते। खेल खेल में हँसते जीते।।

शिक्षा को झोली में भरकर। नहीं रहे विघ्नों से डरकर।।


मेहनत ने था रंग दिखाया। धीरे धीरे सब कुछ पाया।।

दिनकर से ये ओज मिला था। सपनों का फिर सुमन खिला था।।


आकर्षक व्यक्तित्व धनी थे। अधिवक्ता वे सुधी जनी थे।।

पौरुष हर दम साथ हुआ था। अभिलाषा ने गगन छुआ था।।


इंसा को मिलता सदा, यश वैभव सम्मान।

पर सेवा का साथ में, जब चले अभियान।।

ईश्वर से जो कुछ मिला, समझा उसे उधार।

वापस किया समाज को, बहा प्रेम रस धार।।


राजनीति को भी अजमाया। उसमे भी था नाम कमाया।।

न्याय प्रक्रिया के थे ज्ञाता। देख देख हर्षित थीं माता।।


शिक्षा की थी अलख जगाई। करी समाज की देख भलाई।।

नारि शक्ति को और बढ़ाया। स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया।।


सदभावों की राह दिखाई। लेखन में भी कलम चलाई।।

जीवन का दर्शन करवाते। पद्य, गद्य में थे समझाते।।


नाटक, कथा कहानी कविता। प्रखर बही भावों की सविता।।

शारद का वरदान अपारा। नाम ईश का एक अधारा।।

महक रहा है देखिये, शिक्षा का संसार।

संवर रही हैं बेटियां, है अनुपम उपहार।।

साँसों का दर्शन लिखा, लिखा हास परिहास।

जीत लिया मानव हृदय, मिला अटल विश्वास।।


कुशल प्रबंधक प्रखर विचारक, राजनीति प्रतिमान।

सामाजिक समरसता लेकर, शिक्षा का अभियान।

अति कानूनी ज्ञान साहित था, वाणी पर अधिकार

सजा हुआ साहित्य सृजन से, जीवन था गतिमान।।


उमाकांत से पुत्र मिले, पुण्य किये हज़ार।

पिता विरासत सींच रहे, फर्ज करें साकार।।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष डॉ रीना मित्तल ने कहा उनकी साहित्यिक रचनाओं का अगर हम अवलोकन करें तो साफ पता चलता है कि उनका कविता संग्रह नैवेद्य, कहानी संग्रह 'मंजिल' की रचनाऐं उनको एक मानव से ऊपर का दर्जा देती है। सभी साहित्यिक रचनाऐं धर्म, कर्म, जाति व रंगभेद से ऊपर उठकर समाज के उत्थान का सन्देश देती हैं। उन्होंने उनकी कहानी 'परीक्षा' का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया।

रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कविताओं को दयानंद गुप्त  अपने हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम मानते थे । वह न छायावाद के फेर में पड़े ,न प्रगतिवाद के बंधन में बंधना उन्हें स्वीकार था । वह स्वतंत्र थे।कहानीकार के रूप में उन्होंने जहां विभिन्न समस्याओं की ओर  समाज का ध्यान आकृष्ट किया वहीं जीवन की जटिलताओं को भी उजागर किया।

हिंदू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी विभाग, डॉ. उन्मेष कुमार सिन्हा ने दयानंद गुप्त की कहानी नेता की समीक्षा करते हुए कहा कि कहानी के नायक सेठ दामोदर दास के माध्यम से कहानीकार ने नेताओं के पाखंड पूर्ण व्यक्तित्व  को उजागर किया है । 

कवयित्री
हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि उनकी कहानियाँ निरे उपदेश या निरी मनोरंजन या कला के लिए कला जैसे किसी एक उद्देश्य के सांचे में नहीं ढलती बल्कि उनकी कहानियाँ विविध विषयों,विविध सरोकारों या उद्देश्यों का एक बुके हैं,जहाँ कई रंग हमें नजर आते हैं।उनकी कहानियों में जहाँ संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है तो वहीं आम जन जीवन की भाषा और पात्र के अनुरूप उर्दू शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। चित्रकारिता,संगीत,राजनीति अथवा किसी भी विषय पर उनकी गहरी समझ व पकड़ उनकी कहानियों को जीवन्त बना देती है।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ शोभा गुप्ता ने कहा श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।आपकी रचनाएं पढ़कर मुझे लगा कि आप ने उस समय की सामाजिक समस्याओं को अपनी रचनाओं में भली भांति उकेरा  तथा समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान भी समाज के समक्ष रखा। आपकी रचनाएं आज भी हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं।

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर का कहना था दयानन्द गुप्त सच्चे अर्थों में माँ वीणापाणि के उपासक रहे हैं। आपकी कहानियों में अनेक विम्बों से अलंकृत वाक्य व भाषा शैली के धागों से , किसी सुघड़ बुनकर की तरह कथानक को बुनते हुए जब आप आगे बढ़ते हैं तो दृश्यों का सजीव ताना- बाना बनकर तैयार हो जाता है। वे समाज के  दोहरे आवरण की परत उधेड़ते  हैं। कल्पना और यथार्थ दोनो के चित्रण में आपको  महारथ हासिल थी।समाज में होती उथल पुथल व बदलाव भी आपकी कहानियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। आप समाज की संकीर्णता पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते।

युवा साहित्यकार राजीव प्रखर ने कहा कि उनके कहानी-संग्रह 'मंज़िल' में संगृहीत कहानियां  तत्कालीन परिस्थितियों के साथ-साथ वर्तमान एवं भविष्य की सुगबुगाहट को भी स्वयं में समेटे हुए है। सत्य-असत्य के संघर्ष को सार्थक अभिव्यक्ति देती 'वे पत्र', सहानुभूति  का आवरण ओढ़ कर एक आम व्यक्ति के साथ किये जाने वाले खिलवाड़ का चित्र 'पागल', राह भटकती राजनीति को दर्शाती 'नेता', मानवीय मूल्यों को विभिन्न कोणों से देखती 'तोला', सामाजिक एकता और सद्भाव को अभिव्यक्ति देती 'न मन्दिर न मस्ज़िद' एवं इसी क्रम में विभिन्न संवेदनाओं व परिस्थितियों के संघर्ष को साकार करती हुई 'नारी हॄदय', 'परीक्षा', 'अर्ध परिणीता', 'शोभा', 'दर्पण की कथा', 'विद्रोही' व 'तुम्हारा प्रेम' तक आते-आते यह अनमोल कहानी-संग्रह, वर्तमान समाज के सम्मुख अनेक प्रश्न छोड़ता हुआ उसे यह सोचने पर भी बाध्य कर देता है कि स्वयं में अपेक्षित सुधार न करने पर उसके भविष्य की तस्वीर क्या होगी। भले ही हम आधुनिक युग में जी रहे हो परन्तु यह कड़वा सत्य है कि आज भी सामाजिक असमानता, रसातल में जाती नैतिकता, वर्ग-संघर्ष जैसी अनेक समस्याएं नये स्वरूप में हमारे समाज के सम्मुख बनी हुई हैं। आज की तथाकथित प्रगतिशीलता के सामने इसी तथ्य को रखता यह कहानी-संग्रह 'मंज़िल' निश्चित रूप से प्रत्येक आयु वर्ग के पाठक को विचार शीलता के साथ सोचने पर विवश कर देने में सक्षम है।

     

दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर गृह विज्ञान विभाग, डॉ शुभा गोयल ने कहा कि दयानन्द गुप्त का पेशे से वकील होना तथा साहित्य में अभिरुचि होना एक अनूठा संगम था। उनकी रचनाओं में विविधता के दर्शन होते हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक  विसंगति एवं विषमताओ  का चित्रण मिलता है।

     

उनकी पुत्रवधु सन्तोष रानी गुप्ता ने कहा वर्ष 1952 में आपने नगर में वर्षों से बन्द चली आ रही बल्देव आर्य संस्कृत पाठशाला को पुनः आरम्भ किया। जिसमें संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। उसी वर्ष बल्देव आर्य कन्या विद्यालय की स्थापना की जो बाद में बल्देव आर्य कन्या इंटर कालेज हो गया। वर्ष 1960 में दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त आपने अपने पैतृक ग्राम सैदनगली में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की भी स्थापना की। उन्होंने उनका गीत भी प्रस्तुत किया।

दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर स्नेहा कुमारी ने  उनकी कहानी तोला के संदर्भ में कहा कि इस कहानी के माध्यम से लेखक दयानंद गुप्त ने पारिवारिक संबंधों में व्याप्त आपसी प्रेम, सौहार्द, द्वेष, ईर्ष्या की ही बात नहीं की,अपितु सामंती समाज में पिस रहे समाज, कृषक जीवन में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, ऋण, गुलाम भारत में असमान, महंगी न्याय व्यवस्था का दारुण वर्णन किया है।

वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि  दयानन्द गुप्त की अनेक कहानियाँ  वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है। विद्रोही का कथानक भी स्वयं में विशेषता रखता है और समाज के दोहरे मापदंड को दर्शाता है। 

साहित्यकार फरहत अली खान ने कहा कि दयानंद गुप्त मुरादाबाद के श्रेष्ठ कहानीकार थे। इन की कहानियों में जुज़यात-निगारी(डिटेलिंग) बे-जोड़ है और सब से ज़्यादा आकर्षित करती है। संवाद सहजता के साथ आते हैं।  इस ख़ूबी से वातावरण की तस्वीर खींचते हैं, ऐसे ऐसे बिंब बनाते हैं कि पढ़ने वाला मुरीद हो जाए। भाषा संस्कृतनिष्ठ है, जो आम बोलचाल की भाषा से कुछ अलग होने की वजह से कहानी की पहुँच और मक़बूलियत को सीमित करती है। फिर भी ये कोई ख़ामी नहीं, हर लेखक की भाषा की अपनी विशिष्टता होती है। 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा   गुप्त जी की कहानी 'न मन्दिर न मस्जिद' लिखे जाने के समय भी समकालीन थी और आज भी समकालीन है।इसकी सार्थकता आज भी बनी हुई है। आदरणीय श्री उमा कान्त गुप्त जी के पास मुरादाबाद के साहित्य की अमूल्य धरोहर संरक्षित है, आने वाला कल इसका मूल्यांकन करेगा।     

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा भाई मनोज जी  को एक अच्छे कार्य हेतु बहुत बहुत साधुवाद। साहित्यिक मुरादाबाद के माध्यम से स्मृति शेष दयानंद गुप्ता जी के विषय में सारगर्भित जानकारी प्राप्त हुई है।जो मुझे ज्ञात नहीं थी। उनकी कहानी भी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त कर सका।

   

वरिष्ठ कवयित्री डॉ इंदिरा रानी ने कहा कि स्मृति शेष श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त एक प्रतिष्ठित एडवोकेट होने के साथ-साथ वह साहित्यकार, शिक्षाविद और समाज सेवक थे. उनकी बहुमुखी प्रतिभा आश्चर्य जनक है। गुप्त जी के कहानी संग्रह 'कारवां' में संकलित कहानी 'विद्रोही' को पढ़ कर अंग्रेजी के रोमान्टिक कवि कीट्स की याद आ गयी। विद्रोही कहानी में भी कलाकार की सौंदर्य चेतना अद्भुत है।    

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा  गुप्त जी की रचनाओं में तत्कालीन समाज का स्पष्ट चित्रण दिखाई देता है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के सुपुत्र आदरणीय श्री उमाकांत गुप्ता जी का स्नेह और आशीर्वाद मुझे निरंतर प्राप्त होता रहता है। 

   

वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि दयानन्द गुप्त बहुआयामी व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी थे। जाने-माने प्रतिष्ठित एडवोकेट तो थे ही, साथ ही साहित्यिक कर्म में भी निर्लिप्त थे। शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थाएं नगर-देहात को उन्होंने दी हैं। इसके इतर भी समाज को दिशा देने वाले उल्लेखनीय कार्य भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं से आगे जाकर किए हैं।

साहित्यकार दुष्यन्त बाबा ने कहा कि  गुप्त जी स्त्री शिक्षा के प्रति उतने ही जागरूक और संवेदनशील थे जितने  अपने समय में श्री राजराम मोहनराय। आपने बालिकाओं के लिए बलदेव  आर्य कन्या इंटर कॉलेज तथा दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना का सराहनीय कार्य किया। साथ अमरोहा जनपद के सैदनगली में भी एक इंटर कॉलेज का निमार्ण कराया। 

   

वरिष्ठ अधिवक्ता मुहम्मद जुनैद एजाज ने कहा कि दयानंद गुप्त ने अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बावजूद सामाजिक सरोकारों से अपना गहरा रिश्ता कायम किया। शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में उनका गहरा योगदान है जब देश लंबी गुलामी के बाद गहरे अंधकार से प्रकाश के लिए  लालायित था तब उन्होंने शिक्षा की ज्योति से मुरादाबाद  को आलोकित किया। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति उनकी  संवेदना  गहराई से झलकती है ।

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी डॉ छाया रानी ने कहा की मंजिल कहानी संग्रह में संग्रहित कहानी 'न मंदिर न मस्जिद' सर्व धर्म समन्वय की भावना को पोषित करने वाली है। यह कहानी एक विलक्षण कहानी है इस के लिखने के पीछे उनका  उद्देश्य  वसुधैव कुटुंबकम की भावना को लेकर था आज उसकी बहुत आवश्यकता है। यदि सब इसे समझ जाएं तो सब लड़ाई झगड़े छोड़ कर एक सूत्र में बंध कर सुखचैन से जीवन जी सकते हैं।

साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि  श्रद्धेय कीर्तिशेष श्री दयानंद गुप्त जी वे साहित्य जगत के ऐसे चमकते हुए सूर्य के समान थे ,जिसके प्रकाश से साहित्य जगत एक नई व अलौकिक रोशनी से प्रकाशित हुआ । उन्होंने हिंदी साहित्य का इतनी गहनता से अवलोकन किया ,कि उसकी हर दिशा को अपनी लेखनी का अंग बनाया ।चाहे मानवीय संवेदना हो या सामायिक विसंगतियाँ उन्होंने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज की बहुत ही स्पर्श तस्वीर उकेरी है । इसके साथ ही उन्होंने श्रृंगार ,वियोग एवं प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी दक्षता से अपनी रचनाओं में दर्शाया है ।यद्दपि वे पेशे से वकील थे ,तथा राजनीति बहुत निकटता से जानते थे ,परंतु उन्होंने अपनी अभिरुचि साहित्य की ओर ही रखी ,और यथार्थ का आँचल पकड़ समसामयिक स्थितियों ,परिस्थितियों का इतना विषद चित्रण किया है ,जो आज के समय में भी प्रासंगिक है ।

साहित्यकार एवं दयानन्द आर्य कन्या डिग्री महाविद्यालय की पूर्व छात्रा मीनाक्षी वर्मा ने काव्यमय श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा -------

 नाम से ही परिलक्षित होते गुण अनंत,

दया के अवतार शिरोमणि श्री दयानन्द गुप्त, 

शिक्षा की ज्योति जलाकर किया सर्व उद्धार , 

जनमानस में किया प्रकाशित ज्ञान शक्ति का पुंज, 

श्री गुप्त जी की कृतियां बता रही मानवता का मर्म, 

सभी जाति,प्राणी समान,समान है सभी पंथ,

नैवेद्य, श्रृंखलाये,मंजिल संग्रह देती सीख अनन्त,

प्राणिमात्र से प्रेम करो मानवता का करो न अंत,

स्वतंत्रता के लिये भी किये कितने ही प्रयत्न,

 ऐसे थे महान श्री दयानंद गुप्त, 

श्रमिक वर्ग के मर्म को समझ किया उत्थान, 

हर क्षण जिनके बसा था दयासिन्धु कर्म प्रधान,

 दीप सा जीवन उत्तम मृत्यु जीवन का मेल,

तम हरण करते रहे सदा जला प्राणों का तेल,

 सामाजिक,प्राकृतिक रंग,श्रृंगार वियोग भाव उन्मुक्त,

जीवन के मूल्य व संवेदना की सरल भाषा में व्यक्त, 

आशीर्वाद रूपी अमृत सी कृतियां दे रही जीने का मर्म 

अक्षर अक्षर में है बसें चैतन्य श्री दयानंद चंदन

अर्णव के अद्भुत मोती, पारसमणि व्योम अनन्त,

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अर्चना राठौर ने उनकी कहानी न मस्जिद न मंदिर का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि उनकी कहानियों में यह कहानी उन्हें सर्वाधिक प्रिय है।

साहित्यकार इंदु रानी ने स्मृति शेष दयानंद गुप्ता को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कविता प्रस्तुत की --------

 है धन्य भाग्य धरती पीतल की नगरी के

फिर गुप्त दयानंद जना क्यों नही देते


हम धन्य हुए जान के अमृत है ये शहर

इक बार हमे फिर से जता क्यों नही देते


श्री गुप्त दयानंद की जय बोलता जगत

शिक्षा की फिर से ज्योत जगा क्यों नही देते


ये भाग्य मेरा शिक्षा मिली आपकी शरण

भटकूं न फिर से राह दिखा क्यों नही देते


नारी की राहें रौशनी से सींचते हुए

एक बार फिर अलख को जगा क्यों नही देते


इतरा रहा मन सोच के सब आपकी उपज

ऐसे ही पौध और लगा क्यों नही देते


व्यक्तित्व-कृत्य आपका चमकेगा सूर्य सम

छाए हैं जो बादल वो हटा क्यों नही देते


सक्षम नही कलम जो करे आपका बखान

बाधाओं को फिर इसकी मिटा क्यों नही देते


दूषित हुई है राजनीती, विद्या नगरी भी

अच्छाइयों की धूप लगा क्यों नही देते

साहित्यकार अशोक विद्रोही ने कहा कि  कीर्तिशेष परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के दर्शन करने का मुझे भी सौभाग्य 1970 में आर्यकन्या इंटर कॉलेज बुद्धबाजार में संभाषण करते हुए प्राप्त हुआ  तब मैं हाईस्कूल का छात्र था । अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी  डॉ मनोज रस्तोगी जी जिनके अथक प्रयासों से परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के विशाल और विराट व्यक्तित्व की जानकारी  साहित्यिक मुरादाबाद पटल के माध्यम से हम सभी को प्राप्त हुई है यही नही हमें वे कहानियां पढ़ने को मिली जो हमारे लिए दुर्लभ थीं । इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

गजरौला की साहित्यकार रेखा रानी ने कहा कि कीर्ति शेष आदरणीय दयानंद गुप्त जी  के साहित्य में जब डूबना प्रारम्भ किया तब मन डूबता ही गया और मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया।  आपके द्वारा नया अनुभव और  विद्रोही कहानी बहुत ही बेहतरीन हैं और स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि आप की कल्पना शक्ति गजब की है।

अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के अंतर्गत स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त जी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आयोजित इस कार्यक्रम में सभी की प्रस्तुतियां सराहनीय हैं । इससे हमें बहुत कुछ जानकारी मिली ।

साहित्यकार विवेक आहूजा ने कहा कि दयानन्द जी के गीतों में  हमें जीवन दर्शन मिलता है। सुख दुःख, आशा निराशा , अपना पराया, छल ,उत्पीड़न ,धोखा  सभी भावो को वह अपने गीतों में अभिव्यक्त करते हैं । मै इस मंच के माध्यम से ऐसी महान विभूति श्रद्धेय  दयानंद गुप्त जी को नमन करता हूँ  ।

दयानन्द गुप्त की पुत्री अम्बाला निवासी श्रीमती इला गुप्ता ने कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद  पटल पर  आयोजित इस कार्यक्रम मेंमेरे पिता के बहु-आयामी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिली, साथ ही उनकी कहानियों व कविताओं का सुन्दर विश्लेषण भी पढ़ने को मिला।  पिताजी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मेरे स्मृति पटल पर आज भी अंकित हैं:

शबनम से  कहो  धीरे से गिरे ,

कलियों की आंख न खुल जाये !


मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन की कृति -मुरादाबाद में ग़ज़ल का सफ़र (नवल राय 'वफ़ा' से 'जिगर' तक । इस कृति का प्रकाशन वर्ष 2020 में गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद से हुआ था । इस कृति की भूमिका डॉ रामानन्द शर्मा, डॉ अजय अनुपम, मंसूर उस्मानी और डॉ कृष्ण कुमार नाज ने लिखी है ।



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:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

रविवार, 13 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत पर केंद्रित विस्तृत आलेख ----काल की सापेक्षता है नवगीत .....। यह आलेख उन्होंने वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब पर नवगीत पर विमर्श के दौरान प्रस्तुत किया था ।

 


हिंदी के वरेण्य व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने गीत सम्बन्धी अवस्थापना की व्याख्या करते हुए कुछ सूत्रों का हवाला दिया है ।मैंने उनकी स्थापना के मूल बिंदुओं की तलाश करने के लिए कुछ आधुनिक शब्दकोशों के पृष्ट पलटने पहले आरम्भ किये और पाया कि संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में गीत का अर्थ गाया हुआ और गीतायन का अर्थ, गीत का गायन दिया गया है यह काफी हद तक डॉ. मक्खन के निष्कर्ष की पुष्टि करता है लेकिन सामान्य रूप से गीत के व्यवहारिक स्तर पर जो अर्थ समझा जाता है गेयता अर्थात गीत वह है जो गेय हो। नालंदा अद्यतन कोश के संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार गीत वह है जो गाया जाय/गान। डॉ. फादर कामिल बुल्के ने अपने अंग्रेजी हिंदी कोश में एक तरह से गीत को अंग्रेजी के लिरिक का समानार्थक माना है और लिरिक की अर्थ स्थापना करते हुए लिखा हैं प्रगीतात्मक, गीतात्मक, गीत। चैम्बर्स अंग्रेजी हिंदी कोश के संपादक डॉ. सुरेश अवस्थी लिरिक की जगह लायर शब्द को उठाते हैं और अर्थ करते हैं गीत, गाना, गेयत्व ,गायन। इसी तरह पटल पर एक किसी टिप्पणीकार ने पाणिनि के माहेश्वर सूत्र और भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के दिये सूत्रों की चर्चा की है। पाणिनि और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की व्याख्याएं गीत के लिए नहीं संगीत के लिए हैं। लेकिन जब हम साहित्यिक गीत की चर्चा कर रहे हों तो पाणिनी, भरतमुनि की चर्चाएँ अप्रासंगिक लगती हैं।शब्दकोशीय अर्थ भी सिर्फ रास्ता सुझाते हैस ही आशय तक नहींपहुंचाते। 

      यह बात ध्यान देने की है कि गीत का उद्भव और विकास मानुस के जन्म के साथ नहीं हुआ बल्कि उसमें बोलने की शक्ति के विकास के साथ हुआ। यह अलग बात है कि संगीत सृष्टि के साथ हुआ। अतः यह अलग बात है कि प्रकृति में संगीत था। हवा गाती थी, झरने गाते थे, नदियां गाती थीं। पेड़ गाते रहे, पक्षी गाते रहे किन्तु वे सांगीतिक स्वरों का स्वरूप था और मूल में शब्दहीन थीं वे सांगीतिक अभिव्यक्तियाँ। 

         गीत सबसे पहले हमारे लोकजीवन, लोककंठों में मुखरित हुए और हर्ष विषाद, ऋतुएं उनकी अभिव्यक्ति के विषय रहे फिर श्रम गीत आये और धीरे धीरे जैसे जैसे समाज विकसित होता गया लोकगीतों का सीवान बड़ा होता गया और उसकी अभिव्यक्ति में त्योहार, धर्म, जाति आदि तमाम विषय समाते गये। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हिंदी भाषा के मानक स्वरूप में जिस गीत की चर्चा होती है उसे कला गीत की संज्ञा दी गयी है । 

      हिंदी मे गीत काव्य का प्रयोग सबसे पहले लोचन प्रसाद पाण्डे ने अपनी कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण,(जनवरी-1909) की भूमिका में किया। वैसे प्राचीनतम प्रयोग हेमचंद, गीता गाममिमेसमे (अमरकोश) में मिलता है ।लेकिन हिंदी में लोचन प्रसाद पाण्डे की ही अवधारणा समीचीन लगती है। यह बात स्मरण रखने की जरूरत है कि लोचन प्रसाद पाण्डे और मुकुट धर पाण्डे को कुछ विद्वान छायावाद के प्रथम पुराष्कर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं जिसकी नींव द्विवेदी युग में ही पड़ गई थी ।राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के साकेत महाकाव्य के नवम सर्ग के गीत ,यशोधरा के कुछ गीत इसके प्रमाण हैं। 

          छायावाद काल को हिंदी गीतों का स्वर्णकाल कहा जाता है लेकिन इस स्वर्ण काल मे आम जन की जगह बहुत कम थी और बौद्धिक सामन्तों के वाग्विलास के लिए ज्यादा।कल्पना की अतिशयता और छाया की ओट से ऊबकर लोगों ने कविता को यथार्थ जीवन को निकट लाने की कोशिश के फलस्वरूप प्रगतिशील साहित्य में आती अतिशय सपाटता से छिटक कर कुछ लोगों ने जीवन यथार्थ की वकालत करते हुए स्वच्छंदतावादी उत्तरछायावादी काव्य की धारा शुरू की और हिंदी को कई विश्रुत गीतकवि दिए। लेकिन यहां भी अंतर्वस्तु में कामातुर रीतिकालीन भाव पूरी तरह कामातुर तो नहीं आया लेकिन श्रृंगारगीतों में देहभोग और कामातुर मुद्राओं की अभिव्यक्ति में बड़े बड़े नामधारी गीत कवि रस लेने लगे। यहाँ फिर गीतों को संस्कारित करने की आवश्यकता महसूस हुई। प्रेम वासना के कीचड़ में फंसा हिरण हो गया और नवगीत ने जन्म लिया। 

             जिस तरह गीत का हिंदी में प्रथम उल्लेख लोचन प्रसाद पाण्डे की कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण की भूमिका में मिलता है उसी प्रकार नवगीत शब्द का प्रथम उल्लेख राजेन्द्र प्रसाद सिंह की संपादित कृति गीतांगीनि की भूमिका में मिलता है यद्यपि उसमें नवगीत के जो पाँच तत्व या प्रतिमानो का उल्लेख मिलता है वे स्वीकार्य नहीं हैं। नवगीत शब्द की प्रथम चर्चा का जिक्र डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने परिमल की इलाहाबाद की गोष्ठी में किया था ऐसा उल्लेख भी मिलता है। वीरेंद्र मिश्र का नाम भी इस संदर्भ में उल्लेख में आता है। एक अन्य वरिष्ठ गीतकार और विश्रुत साहित्यकार रहे हैं ठाकुर प्रसाद सिंह जिनकी चर्चा होती है। भइया उमाकांत मालवीय का नाम भी इस संदर्भ में याद आ रहा है। बहरहाल नवगीत के प्रथम पुरुष या पुरोहित कोई भी हों पहले जिन नामों का उल्लेख किया गया है वे सब नवगीत के उन्नयन तथा स्थापना के लिए उल्लेखनीय लोग हैं। डॉ .पी.एन. सिंह, डॉ. उमाशंकर तिवारी की चर्चा इस संदर्भ में करते हैं।सबकी मान्यताओं तथा दावों को भविष्य के शोधार्थियों के लिए छोड़ने के बाद नवगीत की पदचाप की आहट की बात करते हैं। नवगीत अपने निकट पूर्ववर्ती कुछ गीतकारों की रचनाओं में आई लिजलिजी भावुकता और कामातुर अभिव्यक्तियों और स्वाधीनता के कुछ ही समय उपजे मोहभंग से उपजा काव्यबोध है ।

           इस बात को आगे बढ़ाने से पहले  यह जान लेना भी जरूरी है कि आज़ादी से कुछ समय पूर्व से कुछ गीतकार क्या सोच और लिख रहे थे। 1953 में वीरेंद्र मिश्र के एक गीत की चर्चा जनसत्ता में हुई - दूर होती जा रही है कल्पना /पास आती जा रही है जिंदगी। 

15 जुलाई 1955 में उनका एक गीत है--

पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको 

और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी 

और उससे भी अधिकहर पाँव की जंजीर रानी। 

इसी तरह की पीड़ा से जुड़ा हुआ बलवीर सिंह रंग का एक गीत है-

नगर नगर बढ़ रही अमीरी 

मेरा गाँव गरीब है 

अपना गाँव गरीब है 

सबका गाँव गरीब है।।

और अब आते हैं साठोत्तर पीढ़ी पर। सपनो के टूटने को लेकर शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा -

बादल तो आये पानी बरसा गए 

लेकिन यह क्या हुआ

 खिले हुए धानों के 

मुखड़े मुरझा गए।

एक और दर्द मन में घुमड़ता रहा। ओम प्रभाकर के शब्दों में -

जैसे जैसे घर नियराया 

बाहर बापू बैठे दीखे 

लिये उम्र की बोझिल घड़ियाँ 

भीतर अम्माँ करे रसोई 

लेकिन जलतीं नहीं लकड़ियाँ

कैसा है यह दृश्य कटखना 

जो तन से मन तक गहराया 

लेकिन मोहभंग और हताशा का यह बोध नवगीत ने छिटककर अपने से दूर किया और लिखा गया-

पत्ते फिर हरे होंगे

कोयलें उदास मगर फिर वे गाएँगी 

नये नए पत्तो से राहें भर जायेंगी।

         ठाकुर प्रसाद सिंह - 

प्रेम के नाम पर पहले पड़ोस था 

उसकी जगह घर आ गया

छोड़ो बातें दुनिया भर की

आओ कुछ बात करें घर की 

         डॉ. शम्भू नाथ सिंह 

नवगीत में वैज्ञानिक बोध को भी अभिव्यक्ति मिली शम्भूनाथ सिंह जी का एक गीत है-

बादल को बाहों में भर लो 

एक और अनहोनी कर लो।।

नवगीत में सौंदर्य बोध के खूबसूरत बिम्ब हैं --

मुँह पर उजली धूप 

पीठ पर काली बदली है 

राम धनी की बहुरि 

नदी नहाकर निकली है।

        -कैलाश गौतम

इसी तरह एक बिम्ब है देवेन्द्र कुमार की कविता में - 

आगे आगे पछुआ , पीछे पुरवाई 

बादल दो बहनों के बीच एक भाई ।

नईम एक जगह लिखते हैं-

मेरा मन घेर गये मालवा के घाघरे 

तो दूसरी ओर उन्हें बुंदेलखंड के किसानों की याद आती है।

नवगीत अपने समय के आम आदमी की पीड़ा का गायक है उसे रामगिरि के शापित यक्ष की पीड़ा का भान है तो और भी बहुत कुछ याद आता है ---

चलो न्योत आयें अपने--

           तिथि-तीजो को त्योहारों को 

महानगर,कस्बों से लेकर-

                   सारे गाँव-जवारोंको ।

कोई  किसी को नहीं पूंछता 

सब अपने में डूबे हैं।

गति की सीमाएँ लांघते

अपने में ही डूबे हैं 

खैर खबर पूंछे उठकरके 

पीछे छोड़ आये जिनको हम 

चिट्ठी पत्री लिखें लिखाएँ।  

        ढाणी घर परिवारों को 

               -  नईम

और अंत मे एक गीतांश यश मालवीय के 'समय लकड़हारा' गीत से - 

छह जाती मौसम पर

साँवली उदासी

पाँव पटकती पत्थर पर 

पूरनमासी  

रात गये लगता है 

हर दिन बेचारा। 

और अंत में, कविता-गीत-नवगीत में अंतर पर प्रकाश डालते हुए मैं अपनी बात को विराम दे रहा हूँ। 

       कविता, गीत एवं नवगीत गुनगुनाने योग्य शब्द रचना को गीत कहने से नहीं रोका जा सकता। किसी एक ढांचे में रची गयीं समान पंक्तियों वाली कविता को किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो, तो वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है। पर, उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिन्दी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अन्तरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियांँ जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

गीत एवं नवगीत में समानता-

नवगीत भी गीत की तरह दो हिस्सों में बँटा होता है-

१-‘स्थायी’/’मुखड़ा’/और अन्तरा ’टेक’/नवगीत में भी होते हैं।

गीत-नवगीत में अंतर-

    1- अंतरा/बंद- नवगीत के ‘स्थायी’ की पंक्तियों में ‘वर्ण’ या ‘मात्रा’ विधान का कोई बंधन नहीं होता, किन्तु इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि ‘स्थायी’ की या तो पहली पंक्ति या अंतिम पंक्ति के समान उत्तरदायित्व की पंक्ति ‘अन्तरे’ के अंत में अवश्य हो। यह गेयता के लिए अत्यावश्यक है। इस ‘स्थायी’ को दोहराते समय कथन में निरन्तरता और सामंजस्य तभी बनता है।  

2- नवगीत में अंतरा प्राय: दो या तीन ही होते हैं किन्तु चार से अधिक अन्तरे की मान्यता नहीं है।

3- नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता। नवगीत में संक्षिप्तता, मार्मिकता, सहजता एवं सरलता, बेधक शक्ति का समन्वय एवं सामयिकता का होना अति आवश्यक है।

4- नवगीत में देशज प्रचलित क्षेत्रीय बोली के शब्दों का प्रयोग मान्य है और इससे कथ्य में नयापन और हराभरापन आ जाता है। एक नवगीत में कई देशज शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। नवगीत पर संप्रेषणीयता का संकट आ सकता है।

5- नवगीत में नवगीतकार आम आदमी, मेहनत एवं मजदूर वर्ग या सरल भाषा में कहा जाये तो सार्वजनिक सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है।

6- नवगीत में नये प्रयोग को प्रधानता दी जाती है और लीक से हटकर कुछ कहने का प्रयास होता है। यदि आप किसी नये छंद का गठन करते हैं तो यह नवगीत की विशेषता समझी जाती है।

7- नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है और वह कम शब्दों में अधिक बात कहने की सामर्थ्य रखता है।

8- नई कविता में  पंत जी ने खुल गये छंद के बंद, प्रास के रजत पाश की घोषणा की लेकिन पूरी तरह छंद से मुक्ति की बात नहीं थी। छंदमुक्ति का अर्थ मुक्तछंद था छंदहीनता नहीं। नवगीत में छंद से मुक्ति की बात नहीं थी बल्कि कथ्य के दबाव में लय का ध्यान रखते हुए कभी कभी छंद के बंद को कुछ लचीला बनाया जा सकता है। 

नवगीत में भी गेयता भंग नहीं होनी चाहिए। अलंकार का प्रयोग मान्य तो है किन्तु वह कथ्य की सहज अभिव्क्ति में किसी तरह बाधक न हो। अलंकार का एक पैर आकाश में है तो दूसरा पैर जमीन की सतह से ऊपर नहीं होना चाहिए। नवगीत में भाषा, शिल्प, प्रतीक, शैली, रूपक, बिम्ब, कहन, कल्पना, मुहावरा, यथार्थ आदि कथ्य के सामाजिक सरोकारों में एक बड़े सहायक के रूप में खड़े होते हैं।

9- नवगीत नवगीत होता है और अपनी गेय क्षमता के कारण ही वह गीत हो सकता है अन्य किसी अर्थ में नहीं।

10- नवगीत कथ्य प्रधान होता है। नवगीत में समुद्र एक बूँद में समाहित होता है। बूँद ही एक समुद्र होती है। नवगीत में विस्तार नहीं होता है। अभिव्यक्ति की व्याख्या से विस्तार तक पहुँचा जा सकता है।

11- नवगीत तात्कालिक समय को लिखता है, उसमें सनातनता और पारम्परिकता का कोई स्थान नहीं है। नवगीत का उद्देश्य समाज के बाधक कारकों को और उत्पन्न स्थितियों को पहचानकर उन्हें समाज को बताना, इंगित करने के साथ उचित समाधान की ओर अग्रसर करना है। नवगीत काल की सापेक्षता है।

12- नवगीत में स्पष्टता का प्रभाव है। जो भी कहा जाए वह स्पष्ट हो, आम व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके और भाषा का प्रयोग आम आदमी की समझ की हो। किसी शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्दकोश का सहारा न लेना पड़े, तो अति उत्तम।

13- नवगीत में छांदस स्वतन्त्रता है। नवगीत का कार्य कोने में छिपी किसी अनछुई सामाजिक छुईमुई अनुभूति को समाज के समक्ष लाना है। 

      14-  नवगीत न मांसल सौन्दर्य की कविता है और न संयोग-वियोग की स्मृतियाँ। नवगीत प्रथम पुरुष के जीवन की उठा-पटक, उत्पीड़न, गरीबी, साधनहीनता के संघर्ष की अभिव्यक्ति है।

15 - नवगीत हृदय प्रधान, छन्दबद्ध, प्रेम और संघर्ष का काव्य है। नवगीत की यह एक विशेषता है कि वह छंदबद्ध होकर भी किसी छंदवाद की लक्ष्मणरेखा के घेरे से नहीं लिपटा है।

नवगीत लेखन में लिए निम्न बातों का ध्यान रखें-

१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो।

 २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। 

३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें।

 ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। 

५. सकारात्मक सोच हो।

६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। 

७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे।

 ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है, परंतु लयात्मकता की पायल उसका श्रृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखें और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। 

९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

  तो अब आपको कविता, गीत एवं नवगीत में अंतर स्पष्ट हो गया होगा, ऐसा विश्वास है....।

✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48,

नवीन नगर, मुरादाबाद 244001

गुरुवार, 10 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी - विद्रोही । यह हमने उनके वर्ष 1941 में प्रकाशित कहानी संग्रह 'कारवां' से ली है। इस कहानी संग्रह को पृथ्वीराज मिश्र ने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया था। इस संग्रह की भूमिका पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखी थी ।


 चित्रकार के सामने कैनवस पर आधा चित्र बन चुका था। मेज पर तरह-तरह के रंग और ब्रश रखे हुए थे। उसकी कल्पना चित्र-रचना में डूबी हुई थी। आँखों से प्रतिमा का प्रकाश सामने चित्र-पट पर बरस रहा था । नुकीली पतली नासिका उसके कुशल कलाकार होने का परिचय दे रही थी। इस समय वह स्वप्न-लोक के खिले हुए पुष्प के समान अवर्णनीय सौन्दर्य ग्रहण किये हुए था । आज तड़के ही से उसकी आँखें खुल गयी थीं। उनकी निद्रा रूप रचना की लालसा ने चुराली थी। उसने विद्युत प्रकाश किया और - स्टूडियो में खड़े-खड़े उसके कर एक सुन्दर चित्रपट पर तूलिका से अपार सौन्दर्य को क्रमशः रेखा-बद्ध करने लगे। आँखों में एक छवि झूल रही थी  और सामने तूलिका व्याकुलता से कैनवस पर चल रही थी। उसे कई घन्टे इसी तरह व्यतीत हो गये, प्रभात की रश्मियां अब आरम्भ हो चुकी थीं।

वह कार्य कर ही रहा था कि उसके सेवक ने धीरे-धीरे स्टूडियो में प्रवेश करके उससे कहा - "स्वामी, डाकिया ये लिफाफे और कार्ड लाया है।" "सामने मेज पर रख कर चले जाओ" - उत्तर देकर चित्रकार फिर एक नया ब्रश उठाकर रंग भरने में तल्लीन हो गया। नौकर दबे पैर आज्ञा पालन कर कक्ष से धीरे-धीरे बाहर चला गया । वह कुछ बड़ बड़ाता हुआ बाहर जा रहा था। जैसे अपने स्वामी के पागल पन पर खीझ रहा हो ।
      मध्यान्ह तक चित्र भी समाप्त हो गया। उल्लास की एक रेखा उसके विकसित मुख पर दौड़ रही थी। वह अपने चित्र को देखता जाता था और अस्फुट बुदबुद स्वर में उसकी प्रशंसा भी करता जाता था । चित्र एक पुष्प से उत्पन्न रमणी का था, उसमें अनन्त वसन्त का यौवन और विकास अवतरित हुआ था। कुछ कालतक वह मुग्ध निर्निमेष दृष्टि से चित्र के रूप को निरखता रहा और मन ही मन प्रसन्न होता रहा। यह चित्र भविष्य में संसार के आलोचकों का अमर अजेय मोह बन जायगा, उस का ऐसा दृढ़ विश्वास था। इस चित्र के प्रकाशन के बाद उसकी अनवरत साधना कुसुमित हो जायगी। हर्षातिरेक से अपनी मानवीय सीमा को भूलते हुए चित्रकार ने रंगों की उस प्रतिमा को सम्बोधित करते हुए कहा रूपसि ! जिस प्रकार उषा को जन्म देकर उसका पिता सूर्य अपनी पुत्री पर रीझ उठता है और उसके यौवन को निरखने के लिए तत्काल मेघों के परदों से झाँकने लगता है और फिर कन्या अपने पिता को चिरकाल को दूसरे रूप में वरण कर लेती हैं वैसे ही आज से तुम भी मेरे हृदय को अपने सौन्दर्य से जगमगाती रहो। अच्छा, अब मुझे अपने दैनिक कार्यों से निबटने की आज्ञा दो, तुम्हारी ग्रीवा में माला फिर पहनाऊँगा ।" चित्रकार ने यह कह कर भावावेश में अपनी सुन्दर कृति के कपोल उसे रति समझते हुए चूम लिये | चित्र का नाम पुष्पा था ।
चित्रकार ने लिफाफे खोलना प्रारम्भ किये । लिफाफे पत्रिकाओं के सम्पादकों के भेजे हुए थे। पहला लिफ़ाफ़ा 'उषा' के सम्पादक का था | सम्पादक ने उसका चित्र 'सौंदर्य अवतरण' वापस भेजते हुए लिखा था- चित्र अत्यंत चित्ताकर्षक, मनोहर और कल्पनापूर्ण है । कलाकार को अमर करने के लिए ऐसी एक कृति ही पर्याप्त है । संसार में सौंदर्य ने किस प्रकार जन्म लिया, इसकी कल्पना में मौलिकता और स्वाभाविकता दोनों ही का सुन्दर सामंजस्य है लेकिन हमें खेद है कि हम इसे प्रकाशित नहीं कर सकते । शिष्टाचार, नीति और सदाचार के नाते ऐसे चित्रों को प्रोत्साहन न देने में ही समाज का कल्याण है ! " पत्र पढ़ते ही चित्रकार कलेजा मसोस कर रह गया। झूठी नीति का ख्याल उसे घायल कर रहा था ।
    दूसरा लिफाफा 'इन्दु' के सम्पादक का था। उन्होंने चित्र वापस करते हुए अपनी टिप्पणी भी लिख दी थी कि हम ऐसे अश्लील, धृष्ट और हेय चित्र को छाप कर अपनी ग्राहक संख्या नहीं घटाना चाहते | हम व्यवसाय की दृष्टि से इसका प्रकाशन करने में असमर्थ हैं, यद्यपि ऐसा सुन्दर चित्र 'सुरा और साकी' हमारी दृष्टि से अभी तक नहीं गुजरा है। हम न छाप सकने पर भी आपको इस कलाकृति के लिए बधाई दिये बिना नहीं रह सकते। इसी प्रकार किसी सम्पादक ने यह लिखा था कि चित्र देखने में अत्यन्त सुन्दर है लेकिन ऐसे चित्र को छाप कर वे पब्लिक को किस प्रकार मुँह दिखा सकते हैं। किसी ने यह लिखा था कि चित्र बड़ा ही कलापूर्ण मालूम होता है यद्यपि उसकी कला वह समझ नहीं सका। अत: चित्र वापस किया जा रहा है। जैसे गूंगा मिठास का आनन्द तो लेता है लेकिन 'मिठाई क्या है' बता नहीं सकता । कोई सम्पादक जो बहुत शिष्ट था उसने केवल इतना ही लिखकर चित्र वापस कर दिया था कि 'हम स्थानाभाव के कारण छापने में असमर्थ हैं।' वह इन संक्षिप्त शब्दों का अर्थ खूब समझता था । ये गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ करते हैं।
     चित्रकार ने लिफाफे जमीन पर पटक दिये। कितने ही काल से निराशा उसका भोजन और नीर बन चुकी थी। वह ऐसे ढोंगी संसार से नाता तोड़ रहा था। वह बाहर इष्ट मित्रों से बहुत कम मिलने जाया करता था | अब वह साहित्यिक संसार से भी सम्बन्ध अलग करने की सोच रहा था। कभी-कभी उसके हृदय में ऐसी विचार-तरंगें उठती थीं कि वह अपने रंग बहा दे, ब्रश और तूलिकाएँ तोड़ डाले और पटपत्रों में आग लगा दे, लेकिन ललित कला का प्रेमी उनके बिना जी भी कैसे सकता है ? वह फिर उन धक्कों को भूल जाने की कोशिश करता और अपने इष्ट की आराधना में मग्न हो जाता था ।
     चित्रकार उदास, आभाहीन, विवर्ण आनन लिये हुए उठा और कमरे में गुनगुनाता हुआ धीरे-धीरे टहलने लगा । उसका आत्म विश्वास ठगा गया था, साधना विक्षिप्त हो रही थी और विवेचना गूंगी संसार की रुचि को अपनाने की चेष्टा उससे न होती थी और न वह अपने चित्रों को बाजारू बनाना चाहता था। वह अपनी कला की परख वाली हीरे की दृष्टि काँच के परखने वालों की आँखों से कैसे बदल ले ? स्वान्तः सुखाय के अतिरिक्त यश और ख्याति की आशा उसे न छल सकेगी | अब वह प्रकाशकों के पास अपनी कृतियाँ प्रकाशनार्थ न भेजेगा जिनमें साहस, क्रान्ति, नवीनता तथा मौलिकता के लिए सहानुभूति नहीं है । उसे इन विचारों में बहुत देर हो गई। नौकर को झाँकते हुए देख कर वह दैनिक कार्यों को समाप्त करने के लिए कक्ष से बाहर चला गया |
निपट निराशा में इतना दुःख नहीं होता जितना उसे उकसाने वाली आशा के यदाकदा विफल दौरे होते रहने पर । एक लौ से जलने वाले दीप का प्रकाश आँखों को बहुत तेज होने पर भी सुहा जाता है, उसी तरह घोर अटूट अन्धकार भी, लेकिन बिजली की क्षणिक दमक सन्तोषी जीवन को तृष्णा का गरल पिला देती है । चित्रकार का जीवन शतरंज की पटी की तरह, दिन में वृक्ष की छाया की तरह, आशा और निराशा से दुरंगा था। वह कभी अधीर उबल उठता तो कभी शीतल हिम की तरह जम जाता था । कला के पुजारियों की यही दशा हुआ करती है । आलोचकों के थप्पड़ों की उनके गालों को आदत होनी चाहिए और एक गाल के बाद दूसरा गाल बढ़ा देने की क्षमता भी  लेकिन चित्रकार अभी युवक ही था वह सांसारिक पाठ धीरे धीरे सीख रहा था ।

एक दिन उसका एक साहित्यिक मित्र उससे मिलने आया । दोनों कई वर्ष तक प्रयाग विश्वविद्यालय में सहपाठी रह चुके थे और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए थे। दोनों छाती भर कर मिले, जैसे कृष्ण और सुदामा | वह विवेकी आलोचक भी था | उसने चित्रकार से कहा – “आदर आतिथ्य तो फिर करना पहले यह तो बताओ कि वह पुरानी बीमारी चली जा रही है या अच्छे हो गये हो ?" "उस रोग का इलाज ही कहाँ है? हाँ, तुम आलोचक हो, ऐसी दवा दे सकते हो कि रोग न रहे, न रोगी ही।" चित्रकार ने मार्मिक ढंग से मजाक करते हुए उत्तर दिया ।
(हँसते हुए) “समझ गया, लेकिन तुम्हारे चित्र किसी पत्रिका में देखने को नहीं मिले । "
“रोगी ने तुम्हारी कड़वी गोली की कभी आवश्यकता नहीं समझी | " " उन गोलियों के बिना सुधार नहीं हो सकता।”
“ और सुधार के बिना प्रकाशन नहीं हो सकता।”
"मतलब ? "
“मुझ में परिष्कृत रुचि नहीं मेरे चित्र अश्लील और अनैतिक होते हैं, इसलिए सम्पादक छाप नहीं सकते। उन्हें यह भय है कि मेरी अश्लीलता की मुहर उनके मोम के सांचे पर न लग जाय ।”
“ मैं भी तो उन चित्रों को देखूं । "
"कहीं तुम्हारे मानस में काई लग गई तो ?”
" फिर तुम्हारी संख्या बढ़ जायगी | "
" ठीक है । बहुमत के दोष उसकी शक्ति बन जाते हैं। अच्छा तो भीतर आओ । ”
दोनों उठ खड़े हुए और स्टूडियो में पहुँचे । चारों ओर तरह तरह के चित्र बने हुए रखे थे। कई कैनवस कोरे टँगे हुए थे और कई पर केवल रेखा चित्र ही बने थे। उनमें अभी रंग भरना शेष था, तरह-तरह के रंग और ब्रश, तूलिकाएँ, कैंची, चाकू तथा चित्रकारी के अन्य यन्त्र वहाँ संग्रहीत थे । इधर-उधर छोटे-बड़े दर्पण जड़े हुए थे और उनके निकट मिट्टी के बने हुए चित्र क़रीने से सजे हुए थे । काग़ज़ पर बने चित्र भी स्थान स्थान पर सुन्दर बेल वूटों से खचित चौखटों में जड़े हुए दीवालों से टँगे थे । चित्रकारी का सारा सामान जुटाया हुआ था । मूँज की चटाइयों पर मखमल और सूत की रंग-बिरंगी कालीनों का फ़र्श था। एक दो मेज पर लिखने-पढ़ने का सामान भी था तथा एक कोने में चित्रकला सम्बन्धी पुस्तकों से भरी हुई एक अलमारी रखी हुई थी । चित्रकार चित्रों को दिखलाता हुआ अपने चित्रकला सम्बन्धी विचार प्रकट करता जाता था जैसे आजकल प्राचीन इमारतों के दिखलाने गाइड' काम करते हैं और उसका मित्र विस्फारित प्रशंसक दृष्टि से चित्रों को देखता जाता था। उसका जी चित्रों को देखकर भरता ही न था, वह जिस चित्र को भी देखता उसी पर उसकी नज़र चिपक जाती। ऐसे सुन्दर चित्र उसने कभी नहीं देखे थे । चित्र देखते हुए दोनों अब सबसे नवीन चित्र के निकट आ पहुँचे । यह सबसे अंतिम चित्र 'पुष्पा का था। अभी तक चित्रकार ने उसे माला नहीं पहनायी थी। उसका हृदय इतना भारी हो चुका था कि वह तूलिका न उठा सकता था और तब से उसे उसने अपूर्ण ही छोड़ रखा था । चित्रकार उस चित्र की ओर संकेत करता हुआ दुखित स्वर में अपने मित्र से बोला: – " मित्र, यह मेरा अन्तिम प्रयास है, अभी तक मैंने इसे पूरा भी नहीं किया है ।
" क्यों ? तुम्हारे चित्र इतने कलापूर्ण हैं कि सर्वोत्तम कलाकार ने ही ऐसे सुन्दर चित्र बनाये होंगे ।
" लेकिन संसार इन्हें केवल एकान्त के लिये सुन्दर समझता है । विश्व के आलोक में इन्हें देखने की हिम्मत नहीं रखता । " वे ढोंगी हैं । सुन्दर सर्वत्र सुन्दर है, प्राइवेट में भी और पब्लिक में भी । इसे पूरा कर डालो । "
" तुम्हें सचमुच चित्र पसन्द आये या केवल मैत्री के नाते से ही.....?
" विश्वास करो, तुम्हारे स्टूडियो में हीरों की खान है जिनका मूल्य अङ्कों की गिनती में नहीं आ सकता । "
" देखो, मैं अभी चित्र पूरा किये देता हूँ — " कहकर कलाकार ने तूलिका उठाली । जितनी जितनी माला बनती गई उसका मित्र प्रशंसापूर्ण विस्मित नेत्रों से कभी उसके मुख को कभी तूलिका को और कभी चित्र को देखता रहा। इतना अभ्यस्त कर उसने कभी
किसी चित्रकार का नहीं देखा था। कुछ ही काल में माला हो गई। चित्रकार गद्-गद् बोल उठा — “ रूपसि ! तुम्हारी वर्णमाला पूर्ण हो गई । "
“ मित्र, तुमने कमाल हासिल कर लिया है - " आदर के स्वर में चित्रकार से उसने कहा
" चित्र कैसा है ? " चित्रकार ने पूछा ।
“ सबसे श्रेष्ठ और कलापूर्ण । तुम अपने चित्र “ पिक्चर्स आर्ट गैलरी" में अवश्य भेजना सर्व प्रथम पारितोषिक पाओगे।"
“कलाकार धन का भूखा नहीं होता। केवल सम्मान चाहता है | क्या चित्र इतने सुन्दर हैं ?"
" निस्सन्देह, और चित्र को तो जी चाहता है कि अपने साथ ले जाऊँ।"
"सच ? "
" हां "
"तो लो, मेरी ओर से इसे उपहार समझो। ( उसका हाथ पकड़ते हुए) संकोच मत करो, ले लो, इसे अपनी ही वस्तु समझो | "
(प्रसन्नता से हाथ बढ़ाते हुए) "लाओ, (लेकिन उसी क्षण हाथ खींचते हुए) आज नहीं फिर कभी ले जाऊँगा ।”
" न लेने का बहाना अच्छा है, (हँसते हुए) क्यों ?"
"क्षमा करो। स्पष्ट कह रहा हूँ, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी फूल सी कोमल कल्पना पर चित्र का बुरा प्रभाव पड़ेगा ।"
(व्यंगपूर्वक) "उनके मानस में काई लग जाने का भय है। बड़े सीधे हो ढोंग करना नहीं जानते | "
( घबराते हुए ) "अब मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ ।”
" धन्यवाद !"
चित्रकार का मित्र डगमगाते पैरों से शीघ्रातिशीघ्र कक्ष से बाहर हो गया । खुले मैदान में पहुँच कर उसने आराम की साँस ली । अब तक उसका दम घुट-सा रहा था । परीक्षा के वे क्षण याद कर वह काँप गया, कन्धे उठाकर चित्रकार मार्मिक चोट खाया हुआ सा कोच पर लेट गया और उसने हाथों से आँखें ढक कर आशा का कपड़ा उधेड़ना शुरू कर दिया, संसार की ढोल की नीति से वह कितनी बार धोखा खा चुका था ।
   उसने एक मास बँधे हुए पानी के सरोवर की भांति निस्पन्द, निर्जीव आलस्य में बिता दिया, तूलिका हाथ में बिना पकड़े हुए | वह कभी तरंग उठने पर स्टूडियों में चोरों की तरह घुसता और घबरा कर उसी क्षण बाहर निकल आता था। कमरे में गर्द चढ़ने लगी थी, जैसी त्यागे हुए स्थान की दशा हो जाती है ।
संसार का क्रम ही परिवर्तनशील है वह एक बार फिर रंगों की दुनियों बनाने में अपने को बाँधने लगा और साथ ही साथ उसके हृदय में यश अर्जन लिप्सा सजग होने लगी। कलाकार की सबसे महान् दुर्बलता यही होती है ।
'पिक्चर्स आर्ट गैलरी' के उद्घाटन का समय ज्यों ज्यों निकट आने लगा उसके हृदय की उत्तेजना बढ़ने लगी। चित्रकारों के समुदाय में एक बार बैठने की अभिलाषा उसके उर को उकसा रही थी। शराबी की तरह निषेध का प्रण उसे कब तक रोक सकता था ? आखिर उसने अपने सर्वोत्तम चित्र छाँट ही डाले और पिक्चर्स गैलरी में भेज दिये। उसने सोचा कि असफलता होने पर उसका प्रतियोगिता के अखाड़े में अन्तिम बार ही उतरना होगा ।
उन दिनों उसके हृदय में कितनी धुकधुक रहती थी। वह दिन बड़ी बेचैनी से बीतते थे । समाचार पत्रों में निर्णय छपा । उसका नम्बर केवल इसलिए नीचे धकेल दिया गया था कि उसके चित्र समष्टि के लिए कल्याणकारी नहीं थे। बाग़ी को वहाँ भी सहारा न मिला । कला की वस्तु पर साधारण के लाभ की छाप होनी चाहिए। इस बार भी वह अपने मन से अपने कला के आदर्शों से इन निर्णायकों के दृष्टिकोण का समझौता न कर सका लेकिन इस बार उसके विद्रोह की आग पर क्षणिक राख भी न पड़ सकी, वह और भी तीव्र भड़क उठा। इस बार उसके भीतर का नर जाग उठा था जैसे सोये हुए सिंह को छेड़ने पर । उसने संसार को चुनौती देने की ठान ली ।
इस घटना के कई दिन बाद वह एक सन्ध्या में अपने स्टूडियो में बैठा हुआ चित्र बना रहा था, नौकर ने सूचना दी कि एक नवयुवती महिला आप से मिलना चाहती है। वह उन्हें अन्दर लाने की आज्ञा देकर उत्सुक दृष्टि से नवागन्तुका की प्रतीक्षा करता हुआ द्वार की ओर देखने लगा। द्वार खुला और सौन्दर्य की एक प्रतिमा ने अन्दर प्रवेश किया। दोनों में बात चीत प्रारम्भ हो गयी। उसके लावण्य के साथ विद्रोह की ज्वाला उसके स्वर तथा हाव-भाव भंगिमाओं में भभक उठती थी। उसने बतलाया कि वह उससे चित्रकला सीखना चाहती है। उसने पिक्चर्स गैलरी में उसके चित्र देखे थे और उसे वे सबसे अधिक पसन्द आये थे । चित्रकार एकाएक उसकी बातों पर विश्वास न कर सका । उसने उत्तर दिया "लेकिन वे चित्रनीति के नियमों का उल्लंघन करते हैं। समाज शरीर को संघातक रोग की तरह उनसे विपक्ति की आशंका है। फिर आप उन्हें कैसे पसन्द करती हैं ?"
"वे संक्रामक अवश्य हैं। मुझे भी उनसे छूत लग गयी | "
" इसी कारण आप किसी तीर्थ को जाएं और देवालय में रहें , यहाँ शो शायद ही...|''
“ लेकिन मेरा तीर्थ तो यही है, देवालय भी यही बनेगा।" ( हँसते हुए ) आप अपनी आत्मा को बचाने का प्रयत्न करें।"
" मै अब किसी और धर्म में अपनी शुद्धि नहीं चाहती। आप मुझे दीक्षा दें और शिक्षा भी । "
चित्रकार कुछ और न कह सका। उसने उसे चित्रकला की शिक्षा देना स्वीकार कर लिया आज उसने चित्र ही दिखलाये। उसे अब कुछ कम एक वर्ष सीखते हुए बीत गया । उसने अपने लेखों द्वारा साहित्य क्षेत्र में चित्रकार के अनुकूल वातावरण बना दिया | उसके लेख गहन, गवेषणा पूर्ण होते थे और पत्रिकाओं में छपते थे। कुछ सम्पादक यदा कदा चित्रकार के चित्र भी छाप देते थे | प्रोपेगेन्डा का यही महत्व है । चित्रकार के हृदय में उसकी शिष्या ने घर कर लिया था । एक दिन दोनों स्टूडियो में बैठे हुए थे । बाहर रिमझिम रिमझिम बूंदें गिर रही थीं । अँधेरे में कभी बिजली जैसे हँसी उनके गम्भीर मुख पर दौड़ पड़ती थी। उसने चित्रकार से कहा -
"आज मुझे पूरा एक वर्ष हो गया । आज ही के दिन मैं यहाँ आई थी।"
"बड़ा ही शुभ था वह दिन । मुझे तो एक वर्ष एक दिन की तरह मालूम हुआ | ये दिन कितने सुख से कटे ! "
"अब मैं विदा चाहती हूँ ।"
( चौंकते हुए ) " क्यों ?”
“मेरा उद्देश्य समाप्त हो चुका है । "
“लेकिन मैं किस तरह से रह सकूंगा ?"
“पहले की तरह, तब भी तो अकेले थे, निपट अकेले साहित्य तथा संसार में । "
पर तब भी मुझे अपनी दुर्बलता प्यारी मालूम होती है। तुम्हारा वियोग असह्य होगा |”
“ऐसी मुझमें कौनसी वस्तु है जिसको बिना देखे तुम रह नहीं सकते।"
" तुम ! "
“ मैं भी तुम्हें विदाई के उपलक्ष्य में कुछ देना चाहती हूँ और वह भी तुम्हारा मन चाहा | "
" सच ?" चित्रकार उछल पड़ा ।
( उसका कर चूमते हुए ) “तुम्हें मैंने धोका ही कब दिया ? मैं तुम्हें अनन्त काल के लिये, अनन्त आनन्द के लिये अपने को ही दे रही हूँ । उठो, यह लो "
इतना कह कर प्रकाश के नीचे चित्रकार की मेज़ के पास कैनवेस खचित लकड़ी के सहारे वह खड़ी हो गई। उसके वस्त्र खिसक गये थे, किसी यन्त्र की तरह उसने चित्रकार से सस्मित अधरों से कहा
“आओ, चित्रकार आओ, अपनी तूलिका उठा लो और रंगों से अमर चित्रपटी पर मुझे ग्रहण कर लो ।”
चित्रकार मुस्कराता हुआ उठा। वह माडेल की भाँति कैनवेस की लकड़ी के सहारे मुस्कराती खड़ी थी और चित्रकार की चंचल उँगलियाँ तूलिका और रंगों के सहारे मनोवांछित वस्तु ग्रहण करने के लिये चित्रपटी पर उत्सुक दौड़ रही थीं ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 9 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी --- नया अनुभव । यह कहानी उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है । यह कहानी संग्रह सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया था ।


रामजीमल वास्तव में चोर नहीं था लेकिन जिसके यहाँ चोरी का माल पकड़ा जावे वह अपने को निर्दोष कैसे सिद्ध कर सकता है। अन्त में रामजी• मल के हजार कहने पर भी उसे चोरी में छह महीने की सजा हो ही गई। आज तक उसका अंञ्चल साफ था लेकिन जेल में पहुँच कर उसने सभी हुनर सीख लिये । वह चुटकी बजाते बजाते जेब काट सकता था, ताला तोड़ डालना उसके बायें हाथ का खेल था | ताश के पत्तों के खेल उसे एक से एक अच्छे आते थे । कौड़ियाँ फेंकने में वह इतना दक्ष होगया था कि जो दांव माँगता वही आता था । जैसे वह कुछ पढ़ कर कौड़ियाँ फेंकता हो । शराब, चरस, कोकीन, और भांग 0यह नशे उसके जीवन के साथी बन गये थे। सारांश कि जेल ने उसे पक्का सभ्य बना दिया था ।

       जेल से छूटने पर उसे अपने चारों ओर अन्धकार दिखाई दिया। अब कोई भी उसके साथ बैठकर बातचीत करना, हँसना और खेलना पसन्द नहीं करता था। उसके पहुँचने पर सभायें उजड़ जाती थीं । उसने नौकरी बहुत तलाश की लेकिन भला कौन सजा काटे हुए व्यक्ति को अपने यहाँ स्थान दे सकता था ? वह दर-दर मारा बेकार फिरा भूख ने उसके पेट और कमर एक कर दिया । व्यवसाय करने के लिए उसके पास धन नहीं था, वह यही सोचा करता था कि वास्तव में क्या मैं चोर हूँ | क्या संसार मुझे चोरी करने के लिए बाध्य नहीं कर रहा है ? एक बार वह एक बैंक में एक जगह खाली होने की खबर सुनकर आवेदन पत्र लिये पहुँचा। वह खजान्ची या रुपये पैसे रखने या लेने देने वाले काम की नौकरी नहीं माँग रहा था। वह सिर्फ बैंक में चपरासी होना चाह रहा था। आवेदन पत्र लिए मैनेजर के कमरे से वह लौट आया। बैंक में प्रमाण पत्र पाये हुए को जगह कहाँ ? इसी तरह वह एक बीमा कम्पनी के दफ्तर में चपरासी की नौकरी के लिए दरख्वास्त लिए ला रहा था | बरसात का मौसम था सड़क पर कुछ कीचड़ थी । वह पैदल अपना मार्ग पूरा कर रहा था कि बीमा कम्पनी के मैनेजर की मोटर सनसनाती हुई रास्ते से निकल गई । छींटों से उसके कपड़े खराब हो गये । उसने आसमान की ओर देखा और एक ठण्डी आह भरते हुए सोचा कि वह दिन कब आएगा कि जब हम सब आदमी एक दूसरे के बराबर होंगे ।

        जब वह बीमा कम्पनी के मैनेजर के पास पहुँचा तब वहाँ ने उसको धक्के देकर बाहर निकाल दिया । एक गन्दे आदमी को सने हुए जूते पहन कर दफ़्तर का फ़र्श खराब करने का क्या अधिकार हो सकता है ? सर्राफ़, बजाज, बिसाती, पंसारी या ऐसे ही और सौदागर एक चोर को अपने यहाँ किस तरह स्थान दे सकते थे ।

अब उसने भीख माँगने की ठानी ।

नर्बदा तालाब पर रहने वाले महात्माओं के शिष्य भिक्षाटन के लिये वैकुण्ठी कामर लेकर नगर में रोज सुबह दौरा करते थे और शाम तक आटा दाल चावल और बहुत सा घी और पैसे लेकर मठ को लौटते थे। कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव पर वहाँ मठ में बड़ी धूमधाम से जल्सा होता था गाने बजाने के समारोह के साथ साथ श्रद्धालु भक्त चलते समय रुपये पैसे चढ़ाते थे । प्रयागदास एक मोटी थैली में उस दिन की आमदनी संभाल कर अन्दर रखने गए । रामजी भी भूखा गाना बजाना सुनता रहा । भूखे को ऐसे गाने बजाने से आनन्द ही क्या आ सकता है ? जब कृष्ण जन्म हो चुका और जनता चली गई तो रामजीमल ने महन्त प्रयागदास के चरण पकड़ लिए और उनसे कुछ खाना देने के लिए अनुनय विनय की । वह मिठाइयां और फल खाकर वहीं सोगया । महन्त जी और उसके शिष्यगण भी सो गये । रामजीमल ने उस बड़ी थैली को रुपयों और पैसों से ठसाठस भरा देखा था। माया ने उसकी आँखों की नींद हर ली थी । वह नींद का बहाना किये हुए लेटा रहा। अवसर पाकर वह महन्त जी की उसी कोठरी घुस गया, जहाँ वह मोटी थैली रखी हुई थी। मोटी रैली पाकर वह फूला न समाया | वह सोच रहा था कि अब एक महीने के लिए खाने का प्रबन्ध हो गया ।

      वह मठ से निकला पागल की तरह भागा सड़क पर चला जा रहा था । रास्ते में तालाब में स्नान करने को जाने वाले महन्तजी के कुछ भक्तों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया, थैली इस समय भी उसके हाथ में थी। एक ने टार्च की रोशनी में थैली पहचानते हुए दूसरे से कहा । यह तो वही थैली मालूम होती है जिसमें महन्त जी रोज की आमदनी रखते हैं। दूसरे ने राम जी के हाथ से थैली छीन की । अव सब रामजीमल को पकड़ कर मठ में ले आये । महन्त जी इस समय भजन कर रहे थे। कुछ झुकमुका हो गया था। भक्तों ने रामजीमल को महन्त जी के सामने उपस्थित कर दिया और सब कहानी सुना दी । महन्त जी कुछ मुस्कराये और बोले आप सब ने इनके साथ बड़ा ही अन्याय किया | यह थैली इन्होंने चुराई नहीं थी। यह कई दिन के भूखे थे इसलिये मैंने यह थैली इन्हें दे डाली थी। उनमें से एक ने महन्त जी से पूछा कि आप भूल तो नहीं रहे हैं। महन्तजी नै दृढ़ स्वर में उत्तर दिया । नहीं थैली मैंने ही दी है। आप सब जाइये और इन्हें भी जाने दीजिये ।महंत जी के भक्त धीरे धीरे बाहर चले गये । रामजीमल हाथ में थैली थामे वहीं खड़ा हुआ महन्त जी की उदारता पर अचम्भा कर रहा था । यह उसके जीवन में एक नया अनुभव था ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की ग़ज़ल ------रोग के इस दौर में कोई किसी का ना हुआ । जिसको अपना मानते थे,वो भी अपना ना हुआ


रोग के इस दौर में कोई   किसी का  ना हुआ ।

 जिसको अपना मानते थे,वो भी अपना ना हुआ ।।


 तंदुरुस्ती छीन लीं        बीमारियों  ने आजकल ,

नाज़ था जिसको बदन पर वो भी उसका ना हुआ ।।


  उम्रभर जो धन बचाया, वो चिकित्सा में गया,

 हमने धन को अपना समझा, वो हमारा ना हुआ ।।


फिर रहे हैं दर-बदर वे काम की करते तलाश ,

कौन है उनमें से ऐसा , जो कि रुसवा ना हुआ ?


दाम हर-इक चीज़ के   आकाश को छूने लगे ,

वो ये कहते हैं कि दामों में इज़ाफ़ा ना हुआ ।।


दीखती रौनक़ नहीं है अब किसी बाज़ार में ,

लगता था बाज़ार अच्छा, वो भी अच्छा ना हुआ।।


उम्र बीती घर बनाने  में   है जिस मज़दूर की ,

उसके रहने के लिए कोई    ठिकाना ना हुआ ।।


हर तरफ़ छाई उदासी आजकल 'ओंकार'  है ,

अब तो बरसों से कहीं हंसना-हंसाना ना हुआ ।।


✍️ ओंकार सिंह'ओंकार', 1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ------झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ


झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां 

मुख पे छाई हुई रश्मियां रश्मियां


डोलता है गगन, बोलती यह धरा

संभलो-संभलो कि कांपती यह जरा

क्या पता तुमको,हमने पढ़ी सुर्खियां 

झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां।।


यदा कदा दमकता, तपता, खनकता

भोर संग उतरता, झिलमिल चमकता

रातभर चाँद तक, चढ़ते थे सीढियां

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।। 


दौड़ते- भागते, हाँफते- खाँसते

दूर थी मंजिलें, जांचते- वाचते

देखी कब हमने, अपनी कुंडलियाँ

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।।


मोर है न पँख किन्तु, अंक में अंक है

घोष है समर का, कृष्ण सा शंख है

 लोरियाँ, झपकियाँ, थपकियाँ, थपकियाँ

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।


अश्वमेघ यज्ञ सा, सूरज के रथ सा

बोल रहा तपस्वी, नक्षत्र यह छत्र का

सामने वेदियां,  भाल पर पोथियां

झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां।।


गीत अवसान का, अनुभवी तान का

ठहर जा ठहर जा,  भाव ये मान का

हाथ से आंख तक , तैर गई पीढ़ियां

झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां।।


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

मंगलवार, 8 जून 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार एक जून 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों प्रीति चौधरी, दीपक गोस्वामी चिराग, रवि प्रकाश, रेखा रानी, वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी",अशोक विद्रोही, कमाल ज़ैदी 'वफ़ा', धर्मेंद्र सिंह राजौरा,डॉ. रीता सिंह,इन्दु रानी,चन्द्रकला भागीरथी, सुदेश आर्य , कंचन खन्ना और राजीव प्रखर की कविताएं ------


सैर इस आसमाँ की कराओ परी 

चाँद के पास जाकर सुलाओ परी ।।1।।


 है वहीं माँ , बतायें मुझे सब यही

 अब चलो आज माँ से मिलाओ परी ।।2।।


  तुम सुनाकर कहानी मुझे गोद में 

  नींद भी नैन में अब बुलाओ परी  ।।3।।

   

  झिलमिलाते सितारे कहें  हैं  मुझे

  ज़िंदगी में नया गीत गाओ परी ।।4।।


 सीख अब मैं गयी बात यह काम की

 फूल से तुम सदा मुस्कुराओ परी ।। 5।।

                                     

✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला, अमरोहा

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ऐनक लगा कर पुस्तक खोली ।

फिर गुड़िया मम्मी से बोली।

पढ़ना माँ मुझको सिखलाओ,

मेरी प्यारी हिंदी बोली।

है यह सबसे प्यारी भाषा।

सारे जग से न्यारी भाषा। 

'अ'अनार से आरंभ होकर, 

'ज्ञ' ज्ञानी बनने की आशा। 

क्या है 'स्वर-व्यंजन' समझाओ।

 सारे अक्षर मुझे पढाओ 

इन अक्षर  को कैसे लिखते ,

मुझको बारंबार सिखाओ।


 ✍️ दीपक गोस्वामी चिराग, बहजोई,  संभल

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मोबाइल पर पढ़ते बच्चे 

ऐसे   आगे   बढ़ते  बच्चे 

              

बिना परीक्षा अगली कक्षा 

घर   बैठे   ही  चढ़ते  बच्चे

              

बिना दोस्त के सँग में खेले 

नई   जिंदगी   गढ़ते   बच्चे 

              

खोया बचपन ,दोष समूचा

कोरोना   पर   मढ़ते  बच्चे


✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)

मोबाइल 99976 15451

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जंगल भर में शोर मचा है,

भालू को कोरोना है।

 डरे हुए हैं वन्य जीव सब,

सहमा कोना - कोना है।

  भनक लगी  बंदर मामा को,

गहन सोच में डूब गए। 

 बहन लोमड़ी  भी चिंता में,

भालू भईया सूख गए।

जगह - जगह पर खड़े हुए,

बात यही सारे कहते।

 इंसानों वाली बीमारी 

भालू को हो गई कैसे।

 नन्हा सा खरगोश यह बोला,

इस सब का यह समय नहीं है।

 भालू जी की जान बचालो,

उनकी हालत सही नहीं है।

  बनी सहमति तब बोले सब 

  जाओ वैद्य जी को ले आओ।

 रुको- रुको नंबर है उनका,

उनको फौरन फ़ोन लगाओ।

बंदर मामा ने तब झट से ,

हाथी जी को फ़ोन लगाया। 

  बीमारी का सारा हवाला,

  फ़ोन पे ही उनको समझाया।

  हाथी राजा काढ़ा पुड़िया,

साथ में लेकर दौड़े आए।

 सबने देखा पीपीई किट में

 हाथी राजा नहीं समाए।

    नब्ज़ टटोली भालू जी की,

  खांसी बहुत ही उन्हें सताए।

 बहन लोमड़ी को पुड़िया,काढ़ा,

  देने की विधि भी समझाए।

 भाप भी देना बार बार तुम

उसके सारे महत्व बताए।

 काढ़ा पीकर ,पुड़िया लेकर ,

भालू जी अब स्वस्थ हुए।

 जीवों की एकता के आगे 

कोरोना जी पस्त हुए।

कान पकड़ कर भालू जी ने

 दृढ़ निश्चय इस बार किया।

 सर्कस में जाना नहीं मुझको,

 संग में सबके रहकर रेखा

फिर से स्वप्न संजोना है।

जंगल भर में  शोर मचा है

भालू को कोरोना है।


✍️रेखा रानी, गजरौला

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एक  सपेरा   साँप   पकड़ने,

अपने    घर    पर      आया,

सब बच्चों को हाथ जोड़कर,

उसने        यह     समझाया,


बोला   जहरीली  नागिन  में,

गुस्सा      बहुत    भरा     है,

मेरा  दिल भी  इसके   आगे,

सच    में     डरा-डरा      है।


बीन बजाकर  हाथ  नचाकर,

घंटों         उसे         रिझाया,

कैसे  पकडूं  इस  नागिन को,

समझ    न    उसके    आया।


स्वयं   सपेरे   ने   बच्चों   को,

आकर        यह      बतलाया,

पास  नहीं  जाना  मैं   जाकर,

अंकुश       लेकर        आया।


तभी   सपेरे    ने  अंकुश   में,

उसका        गला      फसाया,

डिब्बे   में कर  बंद  उसे  सब,

बच्चों        को     दिखलाया।


बच्चों  ने  अंकल  को  सबसे,

बलशाली              बतलाया,

कोई   छोटा  भीम, किसी  ने,

साबू          उसे       बताया।


बच्चों   की   सुंदर   बातों  ने,

सबका       मन      बहलाया,

हाव-भाव को देख  सभी  को,

मज़ा      बहुत    ही    आया।

       

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र,

 मोबाइल 971927545

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नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           छुट्टी में जब हम हैं जाते 

           नाना नानी खुश हो जाते

           अपनी बहुत प्रतीक्षा करते

           दोनों प्यार बहुत हैं करते 

           मैं नानी की राजदुलारी

          और भैया है राज दुलारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           नानी के घर दो गैया हैं

           एक बहना और एक भैया है

           मामा रोज जलेबी लाते

           सब मिल दही जलेबी खाते

           उधम मचाते कभी झगड़ते 

           खाते कसम ना आएं दोबारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           नहर किनारे बसा गांव है

           शुद्ध हवा और धूप छांव है

           नाना संग खेत पर जाते

           नलकूप के पानी में नहाते 

           फिर बागिया से अमियां लाते

          अजब खेत और ग़ज़ब नज़ारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा नाना

         पर इस बार नहीं जा पाए

         कोरोना ने होश उड़ाए

         बहुत भयंकर बीमारी है

         घोषित हुई महामारी है

         अखिल विश्व इससे है हारा

          पूछो मत कितनों को मारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

        अबकी अरमां मिल गए माटी

        सारी छुट्टी घर में काटी

        कोरोना से सब हैं बेदम

        केवल घर में कैद हुए हम

        ऊब गये हैं पढ़ते पढ़ते

        होते बोर रहे दिन सारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

       मिलने से मजबूर हो गए 

       नाना-नानी दूर हो गए

       हे प्रभु अब तो दया दिखाओ

       कोरोना को मार भगाओ

       दुखी हो रहे नाना नानी

       निशदिन रस्ता तकें हमारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

    

✍️अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद 

82 188 25 541

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बन्दर ने सबको बहकाया,

जमकर के उत्पात मचाया।


लोकतंत्र का है यह ज़माना,

अब न किसी से है घबराना ।


भालू ने काफी समझाया,

बन्दर की पर समझ न आया।


जंगल मे फिर शोर मचाया,

जोर जोर से गाना गाया।


डाली डाली उछला कूदा,

करता रहा हरकत बेहूदा।


शेर ने जब चिंघाड़ लगाई,

नानी याद बन्दर को आई।


भालू ने फिर मुह को खोला,

बन्दर से चुपके से बोला।


सब मानेगे, देर सवेर,

जंगल का राजा है शेर।


जिसके राज में सबकी खैर,

वो राजा है असली शेर।


✍️कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'

प्रधानाचार्य, अम्बेडकर हाई स्कूल बरखेड़ा (मुरादाबाद), मोबाइल फोन नम्बर 9456031926

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छोटे  छोटे  रंग  बिरंगे 

इस दुनिया में कीट पतंगे 

मधुमक्खी शहद बनाये 

भौरा गुन गुन गुन गाये 


बड़ा कटीला है ततैया 

इससे बचकर रहना भैया 

तितली होतीं बड़ी निराली 

सफ़ेद पीली नीली काली


✍️धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

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चिड़िया रानी गीत सुनाती

चीं चीं चूँ चूँ बात बनाती

सिर पर चढ़ आया है सूरज

सोया मुन्ना उसे जगाती ।


उठो सवेरा यही सिखाती

कितनी सुंदर भोर बताती 

नहीं देर तक सोना अच्छा

ऐसा सबको पाठ पढ़ाती ।


आँगन आती नजर घुमाती

पानी में भी खेल खिलाती

कभी मुंडेर कभी पेड़ पर

फुदक फुदक है नाच दिखाती ।


✍️डॉ. रीता सिंह, आशियाना, मुरादाबाद

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बच्चे नन्हे फूल से ,घर बगिया की शान।

सींच रहे हैं यह धरा,दाता पौधे जान।।


नन्हे नन्हे हाथ हैं, नन्हे पग औ चाल।

पौध लगा कर कर रहे,देखो बड़े कमाल।।


संगी साथी साथ ले, होंठों पर मुस्कान।

बगवानी में जुट गए ,कृषक स्वयं को मान।।


बच्चा-बच्चा दे रहा,धरती को सम्मान।

भावी पीढ़ी पर रहा, सब को ही अभिमान।।


✍️इन्दु रानी, मुरादाबाद

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बचपन बड़ा सुहाना है

बच्चे मन लुभाते है

कई खिलौने होते उन पर

फिर भी शोर मचाते है

बचपन बड़ा सुहाना है।।


हैलिकाप्टर मोटर कार

ये चलाते वे कई बार

धनुष चलाते सोटा दिखाते

फिर भी ऐठ दिखाते हैं

बचपन बड़ा सुहाना है।।


गुडडे गुड़ियों का विवाह करते

छोटे बर्तनों में खाना बनाते

कभी लुका छुपी कभी दौड़ भाग

सारे दिन उद्धम मचाते है

बचपन बड़ा सुहना है।।


गर झुनझुना मिल जाए

बच्चा खूब नाचता गाता है

कभी दद्दू के पास जाकर

झुनझुना उनकों दिखाता है

ऐसी उसकी हरकत देख

सबका मन प्रफुल्लित हो जाता है।

बचपन बड़ा सुहाना है।।


✍️चन्द्रकला भागीरथी

धामपुर जिला बिजनौर

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न होती- कभी पढ़ाई,

होती न कभी -लिखाई। 

कभी जान -'न पाते,

दुनियाभर की- हम सच्चाई। 

 वर्णमाला हिन्दी -की सीखी,

अंग्रेजी की-  alphabet भी सीखी

सारे विषय -हमने पढ़कर,

जानी जग- की रीति।

कभी विज्ञान -को पढ़के ,

कुछ अनुसंधान- भी करके।

मानचित्र भी- हमने जाना,

भूगोल को- भी पढ़के।

मातृभाषा के -द्वारा हमने,

सीखा सब- आपसी वार्तालाप 

गणित के द्वारा -सीखा लेन देन

और जाना'- तोल व नाप।

बुद्धि से हम- बढ़े न होते,

रह जाते-  गंवार अनपढ़।

धन्य धन्य हैं-माता पिता जिन्होंने,

शिक्षा की ज्योति- जलाई हमपर।


✍️ सुदेश आर्य , मुरादाबाद

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी ---परीक्षा । यह कहानी सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है ।

 


बनारस अब भी हिन्दुत्व का दुर्ग है। सुना जाता है कि दर्शक के मस्तिष्क पर काशी के दर्शन मात्र से ही पवित्र भावनाओं की छाप लग जाती है। पीतल के उच्च कलशों के बुर्ज आकाश से संदेश लेते हुए प्रतीत होते हैं। उनकी तेज चमक ऐसी मालूम होती है, जैसे विधाता उनपर आशीर्वाद कर फेर रहा हो, और मानों सूर्य की किरणें अंधेरा होने पर उन्हीं कलशों पर सो जाती हों। मन्दिर को देखकर मानव के स्मृति इतिहास के उन पन्नों की ओर एकाएक दौड़ जाती है, जिनमें काशी का सुनहरा अतीत, उसके महत्त्व की गाथाएँ अन्धविश्वासी प्रश्न से परे श्रद्धा से संचित हैं। काशी की गलियाँ पाण्डित्य के ललाट पर उभरी हुई संकीर्णता की रेखाओं-सी फैली जान पड़ती हैं । यहाँ के वातावरण में कट्टर धर्मावलम्बी को, शक्ति तथा उदार विचार वाले व्यक्ति को क्षोभ तथा ग्लानि मिलती हैं ।

    गङ्गा के किनारे दीप से बसे हुए इसी नगर की यह एक पुरानी कहानी है। अंधेरा हो चुका था। ठीक वही समय था, जबकि बालाखानों से सितार की झंकारें और कामिनीकण्ठ की मीठी-मीठी तानें सड़क पर चलने वालों के दिलों को चंचल कर देती हैं। इन घरों में रात को ही वसन्त आता है। दिन का प्रकाश कृत्रिमरूप से यहाँ पैदा किये जाने का विराट प्रयत्न देखने को मिल सकता है। तुम्हारे अनुसार नरक के अंधेरे गन्दे कोने इसी समय स्वच्छ और आलोकित दिखलाई देते हैं। मैं ऐसे ही समय की बात कह रहा हूं जबकि ऊंचे कमरों के जीने खुले हुए, मेहमानों को बुलाने के लिये संकेत करते हुए मालूम होते हैं।

     तुम उसका नाम और पता जानने चाहते हो। मैं किसी के रहस्य को खोलने के लिये तैयार नहीं। तुन्हें इसी से सन्तोष कर लेना चाहिये कि उस देवाङ्गना का नाम कनक और पेशा परमार्थ था। शायद तुम मेरा मतलब ठीक-ठीक समझ गये होंगे। इस युग में इसी तरह रहना तो चाहिये। वह अप्सरा का सौन्दर्य और कंठ में गन्धर्व कुमारी का स्वर लिये पैदा हुई थी। वह इस व्यवसाय में कैसे आई, उसकी माता भी एक अप्सरा रही होगी, कौन कह सकता है। उसके यौवन का उभार बीस वसन्त ऋतुओं का मद और उन्माद, राग से अनुराग विजय और प्रभुता लिये हुए था। उसको महफिल में काशी के पूज्य पण्डित, शमा पर परवाने से जलते हुए देखे जा सकते थे। सम्भव है कि वे अपने विराग की परीक्षा लेने ही आते हों।

       नर्तकी भी वह साधारण नहीं थी। उसके पदाक्षेप से नृत्य का अस्तित्व स्थिर किया जा सकता था। उसके चरण चरण पर जीवन उठता और गिरता। दिशाएँ तन्मयता से नृत्य के संगीत को कान उठाये सुनतीं और उसके नृत्य को देखने ही के लिये आसमान पर तारे अपने घरों से बाहर निकल आते मालूम होते थे। वह गा रही थी--

रति सुख सारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशं । 

न कुस नितंबिनि गमन विलम्बनुसरतं हृदयेशं ||

धीर समीरे यमुना तीरे वसति बने बनमाली || 

    श्री जयदेव के लिए इस से बढ़ कर क्या प्रशंसा हो सकती है ? उनकी दिवंगतात्मा अपनी कृति के इस प्रचार पर कितनी प्रसन्न होती होगी ! काश, श्री जयदेव आज हमारे मध्य में होते और उस अप्सरा को अपने गीत गोविन्द को इस प्रकार गाते हुए सुनते ?

   इस समय कनक की सभा में पण्डित, वेदव्रती, धनिक, जौहरी, प्रोफे सर, डाक्टर, बैरिस्टर, सट्टेबाज़, कला विशारद तथा संगीत प्रेमी भिन्न भिन्न प्रकार की रुचि के नमू ने इकटठे थे । नर्तकी नाचती और गाती जाती थी और उसके सभासद गरम दिल से अपनी जेबें ठण्डी करते जा रहे थे। वह नाज़ के साथ अपने दाता पास आती और नाचती हुई, दिये हुए उपहारों को ले जाती थी। सहसा दर्शक मण्डली की आँखें एक कषाय वस्त्रधारी सजीव मनुष्य प्रतिमा की ओर उठ गई । एक भिक्षुक उस मंडली में घुस आया था । दर्शक भला इस बात को कैसे सहन कर सकते थे, अगर उस समय तुम भी वहाँ होते, तो शायद आग-बबूला हो गये होते, और उन्हीं लोगों की तरह उसे बाहर निकालने पर उतारू हो जाते ।उसको नाच देखने की दावत देना भला कौन-सा शिष्ट व्यक्ति उचित समझ सकता था। नायिका ने आगे बढ़कर संन्यासी को भीतर आने से रोका। उसने व्यंग करते हुए कहा- क्या यहाँ कोई सदाव्रत खुला हुआ है ? यह धर्मशाला नहीं है ।सन्यासी ने उत्तर दिया – 'हाँ जानता हूँ, धर्मशाला नहीं घनशाला है। जो यहाँ का कर अदा कर सकेगा वही बैठने का अधिकारी होगा। पैसे से वेश्या तो खरीदी ही जा सकती है । 

   सभा में बैठे हुए जौहरी ने तड़क कर कहा- "बड़ा आया है खरीदने वाला| दिन भर पैसा पैसा भीख माँगा किये और रात को चल दिये नाच देखने । बोलो,कै पैसे भीख में पाये ?"

   सन्यासी ने किन्चित रोष भरे स्वर में उत्तर दिया- “मैं तुम्हारी जैसी कितनी ही सभाओं को खरीद सकता हूँ । ( नर्तकी की ओर संकेत करते हुए ) बोलो, तुम्हें इन सबसे तथा दूसरे और व्यक्तियों से क्या मिल जाता है ?

नर्तकी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'यही 2000 रु० मासिक।," सन्यासी ने कहा – 'मैं तुम्हें 4000 रु० मासिक दूंगा, किन्तु एक शर्त के साथ | तुम्हें इन सब उपस्थित व्यक्तियों को यहाँ से निकाल देना होगा, और तुम बिना मेरी आज्ञा के किसी पुरुष से नहीं मिल सकोगी और कहीं भी आ जा न सकोगी ।. जब तक मैं तुम्हें निश्चित वेतन देता रहूँगा तब तक तुम्हें इस शर्त को मानना पड़ेगा। हारने पर जितना रुपया मेरा तुम्हारे पास पहुंचेगा, वह सब तुम्हें वापस करना होगा । नर्तकी ने हँसी खुशी के साथ संन्यासी की शर्त मंजूर कर ली । सन्यासी ने एक हीरे की माला अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए नर्तकी को उसी समय भेंट कर दी। नर्तकी के मेहमान एक-एक कर जीने की सीढ़ियां नीचे  जाते हुए आखिरी बार गिन रहे थे ।

  नर्तकी को विश्वास था कि वह इस शर्त में अवश्य जीत जायगी और सन्यासी कुछ महीनों तक या अधिक से अधिक कुछ वर्षों तक इतनी बड़ी रकम को देकर अपनी मूर्खता का अनुभव करने लगेगा और फिर एक बार वह धनी होकर अपनी आज़ादी का भी आनन्द ले सकेगी। संन्यासी समझता था कि नर्तकी फिर भी एक वेश्या है। धन उसकी प्यास को नहीं बुझा सकता । वह सोने के पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह निर्बन्ध होकर मुक्त वातावरण में जाने के लिए बेचैन रहेगी । वह अपना वचन नहीं निभा सकेगी और अन्त में जो कुछ उसका धन नर्तकी के पास पहुँचेगा वह सब मुझे वापिस मिल जावेगा।

    सन्यासी ने एक कोठी में नर्तकी के रहने का प्रबन्ध कर दिया। केवल उसकी नायिका उसके साथ थी । उस कोठी के साथ एक बगीचा भी था । नर्तकी को बगीचे से बाहर कदम रखने की आज्ञा न थो । कोठी की चहार दीवारी इतनी ऊँची थी कि बाहर का चलता-फिरता कोई भो पुरुष नर्तकी को दिखलाई नहीं दे सकता था। सेविकाएँ नर्तकी की सुविधा का ध्यान रखती थीं। भोजन तथा हर प्रकार का प्रबन्ध केवल दासियों के हाथ में था।

     नर्तकी रानी की तरह सब आराम पाती थी। कोई राजा उससे बात करने के लिए उसके महल में नहीं आ सकता था । संन्यासी स्वयं भी कभी कोठी के अन्दर नहीं जाता था। यद्यपि नर्तकी ने कई बार सन्यासी को दासियों द्वारा बुलवाया, लेकिन संन्यासी ने इन्कार कर दिया ।

  इसी तरह उदासी के साथ नर्तकी के दिन व्यतीत होने लगे | दो महीने नर्तकी ने सन्यासी की प्रतीक्षा में काटे । अव उसको पूर्ण विश्वास हो गया कि सन्यासी नहीं आयेगा। शेष 10 महीने नर्तकी ने बगीचे में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगाने में और कोठी को सजाने में व्यतीत किये । दूसरे वर्ष नर्तकी बराबर नाचने और गाने का अभ्यास करती थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह सङ्गीत और नृत्य से कलात्मक प्रेम करने लगी है और उसके चरण उत्कर्ष तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरे वर्ष में नर्तकी ने कृष्ण की एक मूर्ति स्थापित की । अब वह स्वयं राधा बन कर, कभी गोपी बनकर, कभी कुब्जा बनकर, कभी अपने को मीरा समझकर उस मूर्ति के सामने विरह प्रेम के गीत गाती हुई नाचती रहती थी। उसके गीतों में वेदना भरी हुई थी । कृष्ण को वह काल्पनिक प्रियतम समझ कर अपनी पाशविक कामना, तृष्णा और मोह की तृप्ति कर लेती थी। उसके पिछले जीवन के संस्कार इस तरह रहने पर भी उसको व्यग्र कर डालते थे, किंतु जिस प्रकार से मनुष्य की अतृप्त कामनाएं रात्रि 

में स्वप्नों मेंजगकर अपनी तृप्ति कर लेती हैं उसी तरह से पार्थिव वासना की भूख मानसिक भोजन पाकर तृप्त हो जाती थी। कई वर्षों के निरन्तर कार्यक्रम के बाद एक रात उसे बोध हुआ, अब वह रागिनी नहीं वैरागिनी हो गई। उसका प्रेम शरीर से उठकर आत्मा तक पहुँच गया था ! अब वह लोकोत्तर आनन्द में झूमती और वशीभूत रहती थी ।

   अब वह अपने यौवन के दस वर्ष समाप्त कर चुकी थी। जहाँ एक बार उदात्त तरंगों की दौड़ मची रहती थी वहाँ अब ठंडी रेणुका रह गई थी। अब उसके बाल श्वेत हो गये थे। उसकी आकृति तथा प्रकृति इतनी बदल गई थी कि वह किसी ज़माने में एक नर्तकी होगी. अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था । पाँच वर्षों के निरन्तर गम्भीर तपस्या के बाद उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो गई। पहले उसका मन बराबर किसी न किसी पुरुष को देखने के लिए उत्कंठित रहता था। कभी-कभी वह सोचने लगती थी कि इस प्रकार के धन से क्या हृदय की तृष्णा बुझ सकी है ? क्या यौवन का अंत धन है ? वह ऐसे जीवन से उक्ता उठती थी, किन्तु अब वह बिलकुल बुझे हुए ज्वालामुखी के समान शांत और स्थिर थी । सन्यासी को एक दिन नीचे लिखा हुआ नर्तकी का पत्र मिला 'गुरुदेव,

मैं जीवन भर इसी प्रकार यहाँ रह सकती हूँ, मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण हुई सी जान पड़ती हैं, क्योंकि अब कोई इच्छा मेरे हृदय में शेष नहीं रह गई है। मेरी इच्छा किसी पुरुष तो क्या स्त्री के साथ की भी नहीं होती। मैं अकेली मृत्यु तक यहीं रह सकती हूँ | मैंने अपनी स्वतन्त्रता, अपना जीवन, केवल धन के लिए उन शर्तों के हाथ सौंप दिया था, लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि संसार में मुझे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। जिस धन के लिए मैंने यह सब बन्धन स्वीकार किये थे, अब मुझे उसकी भी ज़रूरत नहीं मालूम होती, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ कि तुमने मुझे सच्चा रास्ता दिखा दिया इसलिए मैं उस शर्त को जानबूझ कर तोड़ रही हूं कि जिससे जो धन आज तक तुमने मुझे दिया है, यह सब तुम्हारे पास बापस पहुंच जाय। यह मैं स्वयं बिना पत्र लिखे भी कर सकती थी, किन्तु मैं यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि तुम्हारे पास एक प्रमाण-पत्र मौजूद रहे और संसार तुम्हें ऐसा करने के लिए दोषी न कह सके ।

मैं हूँ तुम्हारी उपकृता ।

   जब संन्यासी को यह पत्र मिला, तो उसके हर्ष का वारापार न रहा । रअगले दिन सुबह उसने 15 वर्ष पहले नर्तकी की सभा में बैठे हुए जौहरी महाशय को अपने पास बुलवाया और उन्हें लेकर कोठी के अन्दर नर्तकी का पता लगाने के लिए गया । नर्तकी रात में कोठी से गायब हो चुकी थी। सन्यासी ने जौहरी को नर्तकी का वह पत्र दिखलाया और नायिका से अपने कुल दिये हुए रुपये वापस ले लिये ।


:::::: :प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का गीत -----गन्ध लुटाते फूल सिखाते हंसते हंसते जिया करो ......


 

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम ने 6 जून 2021 को आयोजित की गूगल मीट पर काव्य-गोष्ठी

 साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में  रविवार 6 जून 2021 को गूगल मीट के माध्यम से  काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल ने की एवं मुख्य अतिथि के रुप में वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल उपस्थित रहे जबकि कार्यक्रम का संचालन जितेंद्र जौली ने किया। 

कार्यक्रम में वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

जीवन के तपते मरुथल में माँ गंगा की धार है। अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर माँ गीता का सार है।। 

कवि श्रीकृष्ण शुक्ल का कहना था  - 

 रात भले हो घोर अँधेरी, 

 उसकी भी सीमा होती है, 

 रवि के रथ की आहट से ही

  निशा रोज ही मिट जाती है। 

अशोक विद्रोही ने कहा - 

वनस्पति ,जंतु जगत, जलवायु मिल जाय। 

इन सबका  संतुलन ही, पर्यावरण कहाय।।

वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने अपना दर्द कुछ इस प्रकार बयां किया - 

 झूठ कहूँ तो मिलती इज़्ज़त, 

 सच बोलूँ तो गाली। 

 छोड़ के असली, दुनिया हो गयी, 

 नक़ली की मतवाली।।

डाॅ. मनोज रस्तोगी  की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

सुन रहे यह साल आदमखोर है । 

हर तरफ बस चीख दहशत शोर है ।। 

मत कहो यह वायरस जहरीला बहुत, 

आदमी ही आजकल कमजोर है।। 

नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार की - 

चलो निराशा के ऊसर में 

एक हरापन रोपें भीतर। 

क्षणिक लाभ के लिए

 त्यागकर मानवता, 

 संवेदन सब कुछ 

 छल-फरेब ने गढ़े 

 स्वार्थ के कीर्तिमान, 

 सम्मोहन सब कुछ। 

 लुगदी-सी हो चुकी सोच में, 

 एक भलापन रोपें भीतर ।

 राजीव प्रखर ने कहा -

 दूरियों का इक बवंडर, जब कहानी गढ़ गया। 

 मैं अकेला मुश्किलों पर तान सीना चढ़ गया। 

 हाल मेरा जानने को फ़ोन जब तुमने किया, 

 सच कहूँ तो ख़ून मेरा और ज़्यादा बढ़ गया। 

 डॉ. रीता सिंह ने समाज को चेताते हुए कहा - कंकड़ पत्थर के जंगल में, 

तरूवर छाँव कहाँ से लाऊँ। 

तपस में तपती मीनारों की, 

कैसे अब मैं तपन मिटाऊँ ।

 कवयित्री इंदु रानी का कहना था -

  कोरोना यह लिख गयो, सबके मन के द्वार। वृक्षारोपण हो परम ,आक्सीजन आधार।।

 जितेंद्र जौली ने परिस्थितियों का चित्र कुछ इस प्रकार खींचा - 

कोरोना को मात दें, हम अब मिलकर संग।

 अपना भारत लड़ रहा, कोरोना के जंग।। 

 कवि प्रशांत मिश्र का कहना था  -

 जब अपना ही घर लूट लिया देश के गद्दारों ने, जनता खड़ी देखती रही सिमटी अपने किरदारों में। 

 कार्यक्रम में  विकास मुरादाबादी एवं मोनिका मासूम ने बतौर श्रोता उपस्थित रहकर सभी का उत्साहवर्धन किया। राजीव प्रखर द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया ।

सोमवार, 7 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का कहानी संग्रह ---श्रंखलाएं । इस कृति में उनकी 17 कहानियां संगृहीत हैं । इस कृति का प्रकाशन पृथ्वीराज मिश्र ने सन 1943 में अपने अरुण प्रकाशन द्वारा किया था ।


 

क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरा कहानी संग्रह

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::::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी)आमोद कुमार की नज़्म ---कुदरत का पैगाम दुनिया की महाशक्तियों के नाम ......


 

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत -----करें प्रतिज्ञा सबको मिलकर सौ-सौ पेड़ लगाना होगा


डाली  -  डाली, पत्ती -  पत्ती

का  एहसान   चुकाना  होगा

विकसित होती  हुई जड़ोंको

मिलकर  हमें  बचाना  होगा।

          ---------------

पेड़  सभी के  लिए  धरा पर

जीवन काअनमोल  खजाना

जो भी नहीं  समझता इनको

उसका व्यर्थ  जगत में आना

अभी  समय  है  चेतो  वरना

रो-रोकर   मर  जाना   होगा।


हरियाली   आनंदित   करती

सभी दिलों में खुशियां भरती

आंखों  को  शीतलता  देकर

मन   में   नई   उमंगें   धरती

इन्हें  नष्ट  करने  का  मन  में

किंचित भाव न  लाना  होगा।


यह  पर्वत  को  जकड़े  रहते

नदियों का  तट  पकड़े  रहते

आंधी,   पानी,   सैलावों   से

टक्कर   लेने   अकड़े   रहते

हैं  जग  के  रखवाले  इनको

कभी  नहीं  बिसराना  होगा।


सांस-सांस पर इनका हकहै

इसमें भी क्या  कोई  शक है

बेरहमी  से  इन्हें   काट  कर

करी व्याधियों की आवक है

अपने  हित में  सच्चाई   को

कभी  नहीं  झुठलाना  होगा।


मौसम भी इन पर  निर्भर है

वृक्ष  बिना  धरती  बंजर  है

सूखा  झेल  रहे  मानव  की

देह   हुई   अस्थी   पंजर  है

हरियाली चहुं ओर बिछाकर

स्वर्ग  धरा  पर  लाना  होगा।


खुशहाली ही  खुशहाली  हो

नहीं  कहीं भी  बदहाली  हो

रंग   बिरंगे   गुलदस्तों   की

महक बड़ी ही  मतवाली हो

करें प्रतिज्ञा सबको मिलकर

सौ-सौ  पेड़   लगाना  होगा।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

      मुरादाबाद/उ,प्र,

       9719275453

               

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार रेखा रानी की रचना ---- धरती माँ तेरी पीड़ा .....


 

रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का मुक्तक ----अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है

 


बनी है मीत साँसों की, परम वायु बहाती है। 

नहीं कुछ मोल लेती है, ख़जाने ये लुटाती है। 

करें इसको सुरक्षित हम, समय है जाग जाएं अब 

अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है।। 

✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के दोहे ----



1, हरियाले वन हैं सदा,जीवोँ का आवास,

    निश्चित इनके छरण से,पर्यावरण विनाश ।

2,  शुद्ध हवा,निर्मल गगन,वर्षा हो भरपूर,

     ऐसा ही पर्यावरण, है हमको मंजूर ।

3,  वन्य जीव सेवार्थ जो,करे त्याग बलिदान,

     ऐसा मानव ही सदा, होते यहां महान।

4,  जीव संरक्षित हों सभी, ऐसा करो प्रयास,

     जीव हमारे मित्र हैं, करियेगा विश्वास ।


✍️अशोक विश्नोई, मुरादाबाद , मो ० 9411809222

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की रचना ----- हर साल जन्मदिन पर तब से, पौधा नया लगती थी ....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की रचना --- हूँ मैं जननी तेरी, हूँ मैं धरिणी धरा ...


 


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कुण्डलिया ---वनस्पति ,जंतु जगत, जलवायु मिल जाय, इन सबका संतुलन ही, पर्यावरण कहाय।।


वनस्पति ,जंतु जगत,

         जलवायु मिल जाय।

इन सबका  संतुलन ही,

           पर्यावरण कहाय।।

पर्यावरण  कहाय ,  

       हरे मत  विरवे   काटो,

वन्य जगत के जीवों,

        को  भी जीवन बांटो।

विद्रोही जीवन   की  ,

          वर्ना    होय दुर्गति ।

 प्राणवायु हो शून्य , 

      यदि न रहे   वनस्पति।।


✍️ अशोक विद्रोही, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की रचना ---- वृक्ष की तब आँचल फैलाती है शीतल छांव


जब थके हों 

पसीने से बेहाल

ढूँढें सहारा


वृक्ष की तब

आँचल फैलाती है

शीतल छांव


बहती हवा

दूर करती पीड़ा

सहला ज़ख़्म


चलते फिर

जीवन सफ़र में

ताजगी भर


सहारा देते

जो वृक्ष हमें सदा

नमन उन्हें 

 ✍🏻 प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक के दोहे ------बार-बार विनती करें,बरगद-शीशम-आम, मानव हमको काट मत, हम आएँगे काम


माना आवश्यक हुआ , सड़कों का विस्तार,

किंतु न हो इसके लिए, पेड़ों  पर नित  वार।       


बार-बार  विनती  करें,बरगद-शीशम-आम,

मानव  हमको काट  मत, हम आएँगे  काम


देते   हैं  हम   पेड़  तो ,  प्राणवायु  का  दान,

फिर  क्यों  लेता है मनुज, बता हमारी जान।

    

देते  हैं  ये   पेड़  ही   , घनी  छाँव, फल-फूल,

इन्हें काटने की मनुज,मत कर प्रतिपल भूल।


पेड़ो  की  लेकर  सतत ,  निर्ममता  से  जान,

मत कर अपनी मौत का, मानव  तू सामान।


सबसे   है    मेरी    यही  ,  विनती   बारंबार,

पेड़  लगाकर   कीजिए , धरती  का  शृंगार।


 ✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की रचना ---- वृक्ष धरा का आभूषण हैं इनको मत काटो प्यारे

 


वृक्ष धरा का आभूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 

हर लेते सारा प्रदूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे


लकड़ी फूल  फल देते 

देते प्राणवायु हम सबको 

करते हम सबका पोषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 


जनम से लेकर मृत्यु तक 

काम हमारे आते हैं ये 

ये सृष्टि का आकर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 


वृक्ष ना होते अगर धरा पर 

सोचो क्या जीवन संभव था 

ये लाते शीतल वर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 

✍🏻 धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का गीत --सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है-


सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।

और हमारा धरती के प्रति सोचो क्या क्या फर्ज है।


हमको धरती से ही जीवन के सब साधन मिलते हैं।

अन्न और जल, वायु आदि सब इसके आँगन मिलते हैं।

लेकिन फिर भी देखो मानव ये कितना खुदगर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।


हमने वृक्ष काटकर धरती माँ को कितने घाव दिये।

बाँध बनाकर नदियाँ रोकीं ताल तलैया पाट दिये।

अंधाधुंध गंदगी करके सोच रहे क्या हर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


घोर प्रदूषण करके हमने नदियां दूषित कर डालीं।

उद्योगों से धुंआ धुंआ कर वायु प्रदूषित कर डाली।

हम सबका व्यवहार वस्तुतः अब धरती का मर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


समय आ गया है धरती के जख्मों को भरना होगा।

वृक्ष लगाकर हरियाली से हरा भरा करना होगा।

वायु और जल स्वच्छ रखें अब यही हमारा फर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---मिटा रहे हैं उनको ही हम जिन-जिनका करना था पूजन-


मिटा रहे हैं उनको ही हम

जिन-जिनका करना था पूजन।


वृक्ष हमारे देव तुल्य हैं

इनमें बसी हमारी सांसें।

कैसे हमको सांसें दें, ये

रोज़ कटन को अपनी खांसें।।

हवस हमारी खा बैठी है

हर पंछी का कलरव कूजन।


जल जीवन है, कहते लेकिन

जल के स्रोत स्वयं ही प्यासे।

सब पट्टों में कटे पड़े हैं

मुंह दुबकाये सकल धरा से।।

इन्हें बांटकर निगल गये हैं

इधर-उधर के चतरू जन।।


पर्वत भी डकराये हैं, जब

उनको काट सुरंगें निकलीं।

कांप रहे हैं अब भी निशि दिन

सड़कें आकर इनमें टिकलीं।।

धाराओं से रोये हैं ये

उतरी नहीं आंख की सूजन।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद