झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां
मुख पे छाई हुई रश्मियां रश्मियां
डोलता है गगन, बोलती यह धरा
संभलो-संभलो कि कांपती यह जरा
क्या पता तुमको,हमने पढ़ी सुर्खियां
झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां।।
यदा कदा दमकता, तपता, खनकता
भोर संग उतरता, झिलमिल चमकता
रातभर चाँद तक, चढ़ते थे सीढियां
झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।।
दौड़ते- भागते, हाँफते- खाँसते
दूर थी मंजिलें, जांचते- वाचते
देखी कब हमने, अपनी कुंडलियाँ
झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।।
मोर है न पँख किन्तु, अंक में अंक है
घोष है समर का, कृष्ण सा शंख है
लोरियाँ, झपकियाँ, थपकियाँ, थपकियाँ
झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।
अश्वमेघ यज्ञ सा, सूरज के रथ सा
बोल रहा तपस्वी, नक्षत्र यह छत्र का
सामने वेदियां, भाल पर पोथियां
झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां।।
गीत अवसान का, अनुभवी तान का
ठहर जा ठहर जा, भाव ये मान का
हाथ से आंख तक , तैर गई पीढ़ियां
झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां।।
✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी
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