1. मैं जानता हूँ
अचानक मुझे
एक वाक्य पढ़ने को मिला।
वाक्य क्या था -
मैं कभी अपने खिलाफ़
मुकदमा खड़ा नहीं करता ।'
मैं जानता हूँ,
मैं कमजोर हो सकता हूँ
मैं जानता हूँ-
जीवन की कठोर भूमि पर
सब जगह
हरियाली नहीं उगाई जा सकती
मैं यह भी जानता हूँ
कि बड़ी बड़ी नदियाँ,
पहाड़ और सागर
मेरे रास्ते में आएंगे।
घने जंगल, काँटेदार पेड़
खूँख्वार जानवरों की टोली
या सर्पीली पगडंडियाँ
मेरा स्वागत करेंगी
जाने - अनजाने भटकाएँगी-
मुझे टुकड़ों में बाँटेंगी
छांटेगी
मुझे आगे बढ़ने से
रोकेंगी।
कभी मेरे चारों ओर
धुंध और गुबार के बादल आएँगे
छितरा जाएँगे
मेरे अस्तित्व को छीलने के लिए।
कोशिश में रहेंगे
मुझे लीलने के लिए ।
उनकी रचना का उद्देश्य
सर्वगत है
कुछ अविगत नहीं है
आगत है।
लेकिन जैसे ये सब
अपने अस्तित्व की रक्षा में संकल्पबद्ध होकर
प्रहार करते हैं
सकारात्मक सोच पर
उसी तरह मैं भी
उतना ही उत्तरदायी हूं
अपने को बचाने के लिए।
मैं बचाऊँगा
कभी नहीं चाहूंगा
कि मैं अपने खिलाफ
कोई तर्क दूं।
मेरा अस्तित्व मेरा अपना है
मेरा चिंतन
पराया नहीं है।
इसी लिए
समय के साथ चलते हुए भी
हारो मत
स्वयं को ललकारो मत
दुत्कारो मत।
संकल्प का दीप जलाओ
और हर विपदा को
गले लगाओ।
2. मेरी मां
इतनी ऊर्जा
कहाँ से पाती थी माँ
जब कभी कुछ सिखाती
केवल गीत गाती थी माँ ।
वह कभी डाँटती,
नाराज़ होती
हमारी भूलों के प्रति
सचेत करती
तो
शब्दों के बाण नहीं चलाती थी
हमारे जख्मों पर
प्यार का मलहम लगाती थी माँ।
कभी किल्लाती, किलकिलाती
कभी दिलासा दिलाती
कभी अपनी बातों से बहलाती
पूरी जज्बाती थी माँ।
कभी-कभी हमारी हरकतों पर
बौखलाती
हमारी नालायकियों पर चिल्लाती
मिसमिसाती
चहचहाती थी माँ।
जीवन की
चिलचिलाती धूप में
छलछलाती रहती
बिल्कुल बरसाती थी मां।
3. मेरे पिता
एक दिन
मैंने पूछा अपने पिता से
आप इतना नाराज़ क्यों होते हैं'
हमारी भूलों को
नज़रअंदाज़ नहीं करते हैं!
उस दिन वह नाराज़ नहीं थे
और मेरे प्रश्न का
उत्तर देने की स्थिति में थे।
बोले- मैं कहाँ होता हूँ नाराज़
कब करता हूं क्रोध
कब करता हूँ ताड़ना
कब पीटता हूँ
कब फटकारता हूँ!
क्या तुम्हें ऐसा लगता है!
मैंने उनकी ओर देखा
और बिना भय के
उनसे पूछा -
याद है आपको
मैं मौसी की शादी में गया था,
आप भी लगे थे इंतज़ाम में।
तभी अचानक क्या हुआ
एक गाय आई
और उसने
मेरी छोटी अंगुली को
अपने खुर से रगड़ दिया ।
मैं चीखा, चिल्लाया
डॉक्टर ने पैर की पट्टी की
तब तक आप आए
मेरी पीड़ा को समझे बिना
गाल पर अपने हाथ के चिह्न छाप दिए।
क्या यह आपका
क्रोध नहीं था,
कौन सा प्यार था वह
जो स्वीकार था केवल आपको !
पिता ने मेरी ओर देखा
और हलके से मुस्कराए।
बोले
वह कोध तुम्हारी सुरक्षा के प्रति था
वह क्रोध
तुम्हारे प्रति प्रेम का
अतिरेक था
तुम सुरक्षित थे
इस बात की आस्वस्ति था।
तुमने मेरे कोध को तो देखा
मेरी आँखों में झलकते
आँसुओं की तरफ
ध्यान नहीं दिया।
तुम्हारे हित में
मेरी उत्तेजना
किस रूप में बरस रही थी
इसका आभास
केवल मुझे था,
तुम बालक थे
तुमने मेरा क्रोध-भर देखा था।
4.पात्र का गुण
पात्र खाली नहीं रह सकता
कभी
पात्र का गुण है भरा रहना
तुम करो कोशिश
भरे अमृत।
न गर अमृत भरेगा
तो भरेगा विष
हरेगा प्राण
जीवनसत्त्व सबका।
पात्र का गुण है भरा रहना
भरो शुभ भाव मन में
न भर पाए सहित के भाव
तो हित भी
अहित बन जाएगा
अनजान में ही
पात्र का गुण है भरा रहना
भरो तुम प्रीत से गागर
कि सागर
द्वेष का सूखे।
न भर पाए हृदय को
प्रेम से तो
पूर्ण कर लेगी घृणा
खाली जगह को
पात्र का गुण है भरा रहना
भरो हर कण
धरा का तुम
मलय की गंध से।
न कर पाए सुवासित
गंधमादन मन
भरे दुर्गंध कण कण में
पात्र का गुण है भरा रहना
पात्र खाली रह नहीं सकता
कभी।
✍️ डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल
ए 402, पार्क व्यू सिटी 2
सोहना रोड, गुरुग्राम
78380 90732
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