मंगलवार, 30 जून 2020

वाट्सएप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। मंगलवार 23 जून 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों डॉ ममता सिंह, रवि प्रकाश, डॉ अर्चना गुप्ता, नवल किशोर शर्मा नवल, मीनाक्षी ठाकुर, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ श्वेता पूठिया, डॉ पुनीत कुमार, सीमा वर्मा, अशोक विद्रोही, दीपक गोस्वामी चिराग, रामकिशोर वर्मा ,मरगूब हुसैन अमरोहवी, प्रीति चौधरी, निवेदिता सक्सेना, स्वदेश सिंह, कमाल जैदी वफा , राजीव प्रखर और सीमा रानी की कविताएं-----


बरखा, तेरे रंग निराले
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काली काली मस्त बदरिया,
आसमान में छाई है।
अपनी झोली में भर कर वो ,
ढेरों खुशियां लाई है ।।

बच्चों की इक टोली देखो,
निकल घरों से आई है ।
गली-गली छत आंगन सबने,
मिल कर धूम मचाई है ।।

बरखा की रिमझिम ने सब में ,
हरियाली फैलाई है।
खेतों औ खलिहानों में भी,
लौट खुशी अब आई है।।

तेज हवा ने लाचारों की,
धड़कन बहुत बढ़ाई है।
छोटी सी उनकी कुटिया पे,
आफत सी लहराई  है ।।

कहीं कहीं खुश हो मेघा ने,
खुशहाली बरसाई है।
वहीं कहीं क्रोधित होने पर,
विकट तबाही आई है।।

✍️ डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
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सुनो मास्क पहनो दूल्हे जी
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चूहे जी बारात संग ले
शादी करने आए ,
सिर पर साफा ,सेहरा लंबा
मंद मंद मुस्काए

चुहिया आई थी चूहे को
पहनाने वरमाला ,
बिना मास्क पहने चूहे को
देखा तो कह डाला

सुनो मास्क पहनो दूल्हे जी
फिर शादी में आना ,
सभी बराती जाँचे परखे
सिर्फ नेगेटिव लाना

बेचारा खिसियाकर चूहा
बोला मैं पछताया,
मास्क लगाना बहुत जरूरी
समझ मुझे यह आया।।

✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर(उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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 जामुन का पेड़
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ठीक हमारे घर के आगे
जामुन  का इक पेड़ लगा है
काले काले बड़े बड़े से
गुच्छों से वो खूब लदा है

ललचाई नज़रों से देखे
हर कोई आता जाता है
इसके गुच्छे देख देखकर
मुँह में  पानी भर आता है

मन मसोस कर रह जाते हम
तोड़ नहीं इनको पाते हैं
लेकिन बच्चे उछल उछल कर
इनपर पत्थर बरसाते हैं

रूप रंग में काली दिखती
खाने में पर मीठी लगती
इसके ही गूदे गुठली से
दवा रोग की देखो बनती

देकर ये ऑक्सीजन अपनी
हमको स्वस्थ बनाता है
हरा भरा ये पेड़ हमारा
घर का द्वार सजाता है

✍️ डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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दादा जी बंदूक दिला दो
मैं सीमा पर जाऊंगा
जिसने सैनिक मारे अपने
नानी याद दिलाऊंगा

छल करके जो लड़ता रण में
वीर नहीं वो कहलाता
काट शीश बैरी के रण में
खोलूंगा मैं भी खाता

दादाजी बोले बेटा तुम
अभी बहुत ही छोटे हो
करो अभी तुम तैयारी ही
मन में क्यों तुम रोते हो

जाना होगा सीमा पर गर
मैं पहले ही जाऊंगा
देश की खातिर जिया सदा हूं
उस पर ही मर जाऊंगा

अभी पिता तेरा सीमा पर
खड़ा हुआ सीना ताने
देश का सैनिक मर जायेगा
इंच नहीं हट कर जाने

भारत माता की खातिर सुन
हर बच्चा मर जायेगा
लेकिन चीन भले कुछ कर ले
इंच नहीं बढ़ पायेगा। 

✍️ नवल किशोर शर्मा 'नवल'
 बिलारी मुरादाबाद
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नेक काज में करो न देर,
जंगल का राजा है शेर।

कितनी सुंदर प्यारी भोर,
पक्षी राज कहलाये मोर।

समय से करना अपना काम,
फलों का राजा मीठा आम।

इंद्र धनुष है रंग बिरंगा
राष्ट्र ध्वज का रूप तिरंगा।

जय जवान और जय किसान
मेरा प्यारा देश महान।।

 ✍️मीनाक्षी ठाकुर
मुरादाबाद
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भालू   दादा  नेता  बनकर
जब    जंगल   को    धाए
जंगल  के  सारे  जीवों  ने
तोरण     द्वार      सजाए।
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उतर  कार  से  भालू दादा
शीघ्र    मंच     पर    आए
कहकर जिंदाबाद सभी ने
नारे        खूब        लगाए
इतना स्वागत पाकर दादा
मन    ही    मन   मुस्काए।
भालू दादा---------------

सबकी तरफ  देख नेताजी
इतना       लगे        बताने
थोड़ा  सब्र  रखो   बदलूँगा
सारे        नियम       पुराने
साफ हवा भोजन पानी  के
सपने      खूब       दिखाए।
भालू दादा----------------

जमकर  खाई   दूध मलाई
खाई        मीठी       रबड़ी
फल खाने को चुहिया रानी
आकर   सब  पर   अकड़ी
चुहिया  रानी  को समझाने
सभी      जानवर      आए।
भालू दादा-----------------

निर्भय होकर सब जंगल में
इधर    -   उधर        घूमेंगे
एक   दूसरे   के  हाथों  को
बढ़-चढ़       कर      चूमेंगे
साफ - सफाई रखने के भी
अद्भुत       मंत्र      सुझाए।
भालू दादा----------------

जंगल के  राजा को पर यह
बात    समझ    ना     आई
मेरे    जीतेजी    भालू   को
किसने      जीत      दिलाई
खैर  चाहता   है   तो  भालू
तुरत         सामने      आए।
भालू दादा-----------------

देख  रंग  में  भंग   सभी  ने
सरपट      दौड़        लगाई
सर्वश्रेष्ठ   ही    बचा   रहेगा
बात    समझ     में     आई
भालू  दादा   भारी  मन   से
इस्तीफा        दे         आए
भालू दादा-----------------

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 9719275453
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अम्मा देखो आसमान मे,
काले काले  बादल छाये।
कुछ बरसेगे कुछ गरजेंगे,
कुछ यूंं ही इठलाये।।अम्मा...

रिमझिम रिमझिम करती बूंदे,
धरती के भी मन को भाये।।अम्मा...
वर्षा के इस शीतल जल से
पौधे भी हर्षाये
 हमको भी जाने दो मैय्या
हम भी भीगना चाहे।।।अम्मा.....

 ✍️ डा श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
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तिर तिर तिर तिर चले पवन
प्रफुल्लित ,करती तन मन
ना इसकी है ना उसकी
ये है बच्चोंं हम सबकी

खिल खिल खिल खिल खिलता फूल
हम जिसे देख गम जाते भूल
ना इसका है ना उसका
ये है बच्चोंं ,हम सबका

झर झर झर झर झरना बहता
प्यार बहाओ ,बस येे कहता
ना इसका है ना उसका
ये है बच्चोंं हम सबका

 ✍️ डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600
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छोटा सा इक गाँव था

         उसमें चार सयाने थे

बड़े - बड़े उनके कद थे
   
       सबके जाने - माने थे

सबकी खोज खबर वो रखते

      कहते - कहते कभी ना थकते

पढ़कर आगे बढ़ना सीखो

  बुरी संगत से डरना सीखो

आस - पास की रखो सफाई

    पड़ो बीमार तो लो दवाई

मेल मिलाप की बेल  सजाओ

    गाँव में अपनापा लाओ

घर की बेटी जरूर पढ़ाओ

     हर घर में एक पेड़ लगाओ

सब उनकी बातों को सुनते

      मन ही मन में सब कुछ गुनते

चार सयानों की बातों को
     
    पूरे गाँव ने मिलकर माना

बेटियों को विद्यालय भेजा

      सबने पढ़ने का मोल था जाना

कूड़ा - करकट सब था हटाया
 
       गाँव में रखी सबने सफाई

हरे-भरे पेड़ों - पौधों से
     
         घर-घर में हरियाली छाई  ।।।

✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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पंछी तुम मुझको भातें हो,
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो ?
      रंग बिरंगे पंख तुम्हारे
      पंछी तुम हो प्यारे प्यारे
      गौरैया ,बुलबुल और तोता
      तुम्हें देख मन हर्षित होता
      कोयल, काक, कबूतर,खंजन
      बोली से करके मनोरंजन           
  दाना पानी खा जाते हो
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो?
      दबे पांव छत पर हो आते
      मगर घोंसले दूर बनाते
      अंडे देते, उनको सेते
      चूजों को फिर भोजन देते
      देखभाल में कमी न आये
      बच्चों को उड़ना सिखलायें     
  मुझसे काहे शर्माते हो ?
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो?
      ये संसार तुम्हारी थाती
      सीमाएं भी रोक न पातीं
      मैं भी एक छोटा सा बच्चा
      तन का कोमल मन का सच्चा
      अपने दल में मुझे मिला लो
      मुझको भी उड़ना सिखला दो
साथ नहीं क्यों ले जाते हो?
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो ?
      खुले गगन की सैर करूंगा
      नहीं किसी से बैर करूंगा
      ऊंचाई से डर न होगा
      सारा जग मेरा घर होगा
      मित्र जगत के बच्चे होंगे
      फिर दिन कितने अच्छे होंगे
मुझको फिर क्यों तरसाते हो !
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो?

 ✍️ अशोक विद्रोही
412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
   82 188 25 541
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जीवन का आधार है शिक्षा
सब धर्मों का सार है शिक्षा।

भाग्य बड़े से मिल पाता जो
बालक को उपहार है शिक्षा ।

घाटा कभी न होता जिसमें
एसा इक व्यापार है शिक्षा ।

यज्ञ में समिधा होना पड़ता
वो पावन आचार है शिक्षा ।

जीवन में तुम भुला न देना।
गुरुवर का उपकार है शिक्षा ।

बच्चों को भेजो विद्यालय।
बालक का अधिकार है शिक्षा।
✍️ दीपक गोस्वामी चिराग
 बहजोई
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*सूर्यग्रहण*

मम्मी सबको समझायी थी
ग्रहण सूर्य का बतलायी थी ।

सुबह-सबेरे उठना होगा
नहान-खाना करना होगा ।

ग्रहण पड़े मत खाना-पीना
दान भले कुछ भी कर दीना ।

बाहर भी तुम कब जा सकते
सूर्य देखने से सब बचते ।

राहू-केतू बहुत सताते
निगल सूर्य को है जो जाते ।

मम्मी यों समझातीं हमको
कीर्तन ही बस करना सबको ।

नंँगी आंँख से जो देखेगा
नैनन ज्योति वही खो देगा ।

मम्मी की बातें सब मानीं
उन्हें बतायी असल कहानी ।

बीच में जब चंँदा आ जाता
सूर्य नहीं पृथ्वी पर आता ।

तेज धूप जब भी होती है
दिन में तब संध्या लगती है ।

 यह कारण है सूर्य ग्रहण का
 असर बहुत होता पर इसका ।
 ✍️ राम किशोर वर्मा
    रामपुर
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*रिमझिम बारिश*

रिमझिम बारिश जब जब आती।
मायशा रानी फिर खुश हो जाती।

घर से बाहर निकल खूब नहाती।
झूम झूम के सुरीले गीत है गाती।

पानी से राह लबालब हो जाती।
धमा चौकड़ी  वो उसमें मचाती।

वो कागज की एक नाव बनाती।
इधर उधर से   एक चींटा लाती।

नाव का उसको मल्लाह बनाती।
फिर तेज  धार में  नाव  बहाती।

देख के फिर मन्द मन्द मुस्काती।
जैसे ख्वाहिश जब पूरी हो जाती।

चीख चीख कर  सबको बताती।
इस काम में उसको मस्ती छाती।

ज़ोर की बारिश जब जब आती।
है बार बार इसको वो  दोहराती।

 ✍️ मरग़ूब हुसैन अमरोही
दानिशमन्दान, अमरोहा
मोबाइल-9412587622
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 माँ मेरी गुड़िया रानी
हो गयी है अब सयानी
अच्छा सा एक गुडडा ढूँढो
गुड़िया अब पड़ेगी ब्याहनी
कैसा गुडडा हो गुड़िया का
बात पड़ेगी मुझको समझानी
रूप रंग में सुंदर हो
पैसे की हो न जिसे तंगी
नौकर चाकर हो घर में
मोटर गाड़ी की जो करें सवारी
बात सब गुड़िया की माने
गुड़िया बने उस घर की रानी
ना बेटी गुड़िया का तेरी
गुड़डा ऐसा  ढूँढूँगी
प्यार बेशुमार जो करेगा उसको
जानता हो रोटी ,मेहनत की कमानी।
                 
✍️ प्रीति चौधरी
गजरौला ,अमरोहा
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देश उपवन की नई कोपल ,
सुमन पल्लव सुगंधों,,,
अपने उपवन की सुगंध   
 उपवन से तुम खोने ना देना  ।।
 आधुनिक बनना मगर इस     
 आधुनिकता से कभी भी
 सभ्यताओ  संस्कारों की     
बलि चढ़ने न देना ।।
 जिंदगी के रास्तों पर
 जीत भी है हार भी है।
दृढ़ करो मन को कि तुमको
 ये सभी स्वीकार ही हैं
 ये है जीवन सिर्फ इसमें   
जीत का रास्ता नहीं है ।
 हार के बिन अनुभवों का
 रंग कभी चढ़ता नहीं है।।
 कितना पा लो पुराने
 मित्र तुम  खोने ना देना।
आधुनिक बनना मगर इस   
 आधुनिकता से कभी भी
 सभ्यताओं संस्कारों की बली चढ़ने न देना।।
धन बड़े होने की परिभाषा
नहीं ,है सिर्फ साधन
सोच करनी है बड़ी बस
और बड़ा करना है ये मन
ऊंंचा  उठना  ठीक है पर पांव
धरती पर ही  रखना ।
दूरी दुष्कर्मों से लेकिन
 प्रेम मन में अमर रखना।
बनना पहले एक इंसा ,
बाद उसके कुछ भी बनना
अपने अंदर से कभी
इंसानियत खोने  न देना ।।
आधुनिक बनना मगर इस     
आधुनिकता  से कभी भी
 सभ्यताओं संस्कारों की बली चढ़ने न देना।।
देश उपवन की नई  कोपल
 सुमन  पल्लव सुगंधो,
अपने उपवन की सुगंध
उपवन से कभी खोने न देना।।

 ✍️ निवेदिता सक्सेना
आशियाना
मुरादाबाद
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        *सेहत*
सेहत है अनमोल  खजाना
इसको तुम कभी नही खोना

सफाई का तुम रखना ख्याल
रोगों  से बचायें हर हाल

रोज खाओं  ताजे फल-सब्जी
इन्ही  से  होती  सेहत अच्छी

खेलों-कूदो करो  व्यायाम
हाथ जोड़कर करो प्रणाम

स्वस्थ शरीर तेज दिमाग
इनसे होता सही विकास

 ✍️ स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
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     वर्षा रानी                                   
वर्षा रानी, वर्षा रानी,
अबकि न करना मनमानी।

कोरोना ने बहुत सताया,
अभी तलक न टीका आया।

कितने ही तूफान है आये,
हिम्मत से पार हमने पाये।

साथ न लाना बाढ़ का पानी,
वर्षा रानी वर्षा रानी।

शालाये सब बंद पड़ी है,
कैसी मुसीबत दर पा खड़ी है।

तुम्ही भगा दो कोरोना को
खूब सज़ा दो कोरोना को

दवा मिलाकर छिड़को पानी,
वर्षा रानी, वर्षा रानी।

✍️ कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी (सम्भल)
9456031926
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सीमा रानी, अमरोहा



मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा की रचना ---- -पत्थर का योगदान


        अरे पत्थर! तुम कठोर होकर भी बहुत ही सह्रदय हो,जो किसी विचलित मन वाले इंसानी हाथों से छूट कर,एक देवता के सिर पर जा लगे,जिससे एक डॉक्टर रूपी देवता की तकदीर तो फूटी लेकिन तुम्हारी तकदीर बदल गई,तुमने अपने त्याग,बलिदान और देशप्रेम की मिसाल पेश कर दी।तुमने एक सिर को चोट तो जरूर पहुंचाई,लेकिन कई दुष्ट पात्रों को,जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया।तुम्हारी यह देश-भक्ति हमेशा याद रखी जाएगी।
      हालांकि प्राचीन काल से अब तक,पत्थरों का बहुत बड़ा योगदान रहा है,चक्की के रूप में प्रकट होकर,पूरे संसार का पेट पालन किया है,शिवलिंग रूप में स्थापित होकर,जगत का कल्याण किया है,अपना विस्तार करते हुए हिमालय पर्वत बनकर,तुम सीना ताने खड़े हो और प्रहरी बनकर युवाओं को ऊंचा बनने की प्रेरणा देते रहे हो।
     पत्थर और परम पिता परमेश्वर का परस्पर प्रेम भी,चौंकाने वाला है,गौतम ऋषि की पत्नी,देवी अहिल्या के रूप में,तुमने काफी कष्ट उठाए,लेकिन तुम्हारा,स्वयं प्रभु श्रीराम ने आकर उद्धार किया।रावण तक पहुंचने के लिए, श्री राम को रास्ता देने वाले तुम ही तो थे जो सागर के जल में तैरने लगे,पुरुषोत्तम श्रीराम की मदद के लिए,पानी में सदा डूब जाने वाले अपने जन्मजात गुण से भी,तुम पथभ्रष्ट हो गए।आखिर विश्व के कल्याण को,तुम बारम्बार पथभ्रष्ट होते रहना,अपना धर्म भूलते रहना,क्योंकि सृष्टि को तुम्हारी बहुत जरूरत है,तुम्हारे कंधों पर बहुत जिम्मेदारियां हैं,अलग-अलग रूपों में रहकर तुम हमेशा कल्याणकारी ही बने रहना।
       हे पत्थर!तुम इसी तरह,जगत का हमेशा उद्धार करते रहोगे,उधर जगतपिता तुम्हारा उद्धार करते रहेंगे।भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत भी पूरे अध्यात्म जगत में चर्चित हैं,वह पत्थर भी कितने भाग्यशाली रहे होंगे जिन्होंने माखन भरी मटकियां फोड़ीं।एक वो पत्थर,जो केदारनाथ घाटी में आई बाढ़ के प्रकोप को रोकने के लिए,मंदिर के ठीक पीछे आकर टिक गया,जिसने सनातन धर्म के मुख्य स्तंभ यानि केदारनाथ मंदिर को,ध्वस्त होने से बचा लिया। कुछ तो है,वरना रसखान अगले जन्म में खुद को पत्थर बनने की अभिलाषा मन में लाते ही क्यों?             तुम्हारी शक्ति और भक्ति को जो जानता है,वह हमेशा पत्थर बनने को तैयार रहता है लेकिन अब कलयुगी संसार में,कोई पत्थर नहीं बनना चाहता और ना ही उसके महत्व को पहचानता है। इतना जरूर है कि पत्थरदिल इंसानों की संख्या में,बढ़ोतरी जरूर हुई है,लेकिन तुम उदास मत होना।इन पत्थरदिल लोगों की वजह से पाप बढ़ेगा, धर्म का विनाश होगा, फिर शीघ्र ही भगवान को अवतरित होना पड़ेगा।इस तरह,दुष्टों के दिलों में बैठे हुए पत्थर की भूमिका भी कम नहीं है,मैं तुमको नमन करता हूं,वंदन करता हूं,अभिनंदन करता हूं।
         इसलिए हे पत्थर! तुम अपने कार्यक्रम और पराक्रम का क्रम जारी रखो,तुम खुश रहो,कभी देवों पर, तो कभी दुष्टों पर,उछलते रहो, इतिहास में तुम हमेशा पूजे ही जाओगे।
         हालांकि मैं तो कबीर की कल्पनाओं वाले पत्थर को ढूंढने निकला था,जाने कहां-कहां भटकने लगा ?देखना यह होगा कि अगला आने वाला पत्थर, किसी आधुनिक भगवान के मस्तक पर पड़ेगा या दुष्टों की मत पर।

✍️ अतुल कुमार शर्मा
निकट प्रेमशंकर वाटिका
संभल
मो०9759285761, 8273011742

सोमवार, 29 जून 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की रचना ----कवि सम्मेलन की असली रिपोर्ट


      कवि सम्मेलन दोपहर 3:00 बजे शुरू होना था । हमेशा की तरह एक घंटे बाद आयोजक पधारे ।उस समय स्थल पर कोई नहीं था । होता भी क्यों ? सबको मालूम था
कम से कम एक घंटा लेट आयोजक महोदय आते हैं ।
           फिर धीरे-धीरे डेढ़ घंटे बाद लोग उपस्थित होने लगे । लोग अर्थात वह कवि जिनको कविता पाठ करना था ।कुल मिलाकर 11 कवि आ गए और काव्य पाठ शुरू कर दिया गया। पहले एक कवि ने कविता पढ़ी ,लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं था। कारण यह था कि उस समय कवि गण आ - जा रहे थे और सबका ध्यान एक दूसरे को नमस्कार करने में लगा हुआ था। कुछ लोग आपस में एक दूसरे का हाल-चाल भी पूछ रहे थे तथा कह रहे थे कि बहुत दिनों बाद मिलना हुआ ।
      पहला कवि जब कविता पाठ कर चुका तब दूसरा कवि आया । दूसरे कवि की तरफ लोगों का ध्यान जाना शुरू हुआ, लेकिन इसी बीच पहला कवि कमरे से उठ कर बाहर जाने लगा । कमरे में हलचल मच गई। तीन कवि उसके पीछे दौड़े ।उसको पकड़ कर वापस लाए। कहा" बाकी दस की कविताएं कौन सुनेगा , अगर सब लोग ऐसे ही जाने लगे ?"
    उसने कहा "मैं जा रहा हूँ। लेकिन हमेशा के लिए नहीं जा रहा हूँ। अभी 5 मिनट बाद लौट कर आऊंगा । मेरी कुछ शंका है।"
         सुनकर सब ने उसे छोड़ दिया। वह 5 मिनट बाद वापस आया और मन लगाकर कविता सुनने लगा । माहौल बड़ी मुश्किल से तीसरे कवि के साथ  जमा ।उसके बाद एक-एक करके दस कवियों ने अपनी कविताएं सुनाई।
        विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि यह बात पहले से तय थी कि सब लोग एक दूसरे की कविता शांतिपूर्वक तथा प्यार भरे माहौल में सुनेंगे और एक-दूसरे की प्रशंसा जी भर कर करेंगे । कई बार ऐसा भी हुआ कि किसी को झपकी आ गई  और वह काव्य- पाठ नहीं सुन पाया । लेकिन फिर जब वाह-वाह की आवाजों से उसकी नींद खुली तो उसने वाह-वाह करना शुरू कर दिया । इसे कहते हैं  धंधे में ईमानदारी। जो कवि काव्य-पाठ कर रहा था, उसे यह देखकर अच्छा नहीं लगा। लेकिन फिर भी जब आदमी वाह-वाह कर रहा है तो अच्छा लगता ही है। सबको मालूम है कि आधे से ज्यादा कवि एक दूसरे के साथ अच्छे संपर्क बनाने के कारण ही वाह-वाह करते हैं । वरना कौन किसकी कविताएं पढ़ता सुनता है  और किसको किसकी अच्छी लगती हैं?
         इसी तरह सब लोगों ने कविताएं पढ़ीं और कार्यक्रम परस्पर सौहार्द के वातावरण में संपन्न हुआ। सामूहिक फोटो खींचा गया । छह लोगों का सम्मान हुआ। इस बिंदु पर छह लोगों को बाकी छह लोगों ने सौ सौ रुपए का शाल ओढ़ाया और उनके सुखमय जीवन की कामना की ।
      इसी मीटिंग में यह भी तय हुआ कि इस बार जिन छह लोगों ने शाल ओढ़ाया है, अगली मीटिंग में उन छह.लोगों को शाल ओढ़ाया जाएगा तथा यह कार्य उन लोगों के कर- कमलों से संपन्न होगा ,जिन्होंने इस बार की मीटिंग में शाल ओढ़ा है । इसी के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ।

 ✍️रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
 मोबाइल  999761 5451

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की कृति "धूप धरती पे जब उतरती है" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा------- ‘...वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’

ग़ज़ल के संदर्भ में मशहूर शायर बशीर ‘बद्र’ ने अपने एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार में कहा है-‘जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुलमिल गए हैं, ग़ज़ल की भाषा उन्ही शब्दों से बनती है। हिन्दी ग़ज़ल के असर से उर्दू ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल के असर से हिन्दी ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबी आती जा रही है। मुझे वो ग़ज़ल ज़्यादा भरपूर लगती है जिसकी भाषा हिन्दी और उर्दू के फ़र्क को ख़त्म करती है।’ यह बात बिल्कुल सही है कि तत्सम मिश्रित शब्दावली वाली हिन्दी की ग़ज़ल हो या फ़ारसी की इज़ाफ़त वाली उर्दू में कही गई ग़ज़ल, आज की आम बोलचाल की भाषा में कही गई ग़ज़ल की तुलना में शायद कहीं पीछे छूट गई है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें छंद का अनुशासन भी ज़रूरी है और कहन का सलीक़ा भी। इसे इशारे की आर्ट भी कहा गया है। जिगर की धरती मुरादाबाद से भी अनेक रचनाकार आम बोलचाल की भाषा में बेहद शानदार ग़ज़लें कहते आए हैं और अब भी कह रहे हैं। ग़ज़ल के ऐसे ही महत्वपूर्ण रचनाकारों में अपनी समृद्ध उपस्थिति मज़बूती से दर्ज़ कराने वाले वरिष्ठ साहित्यकार डा. अजय ‘अनुपम’ के ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ से गुज़रते हुए उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल के परंपरागत स्वर के साथ-साथ वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति को मैंने महसूस किया जिन्हें उन्होंने ग़ज़लियत की मिठास के साथ सहजभाषा के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त किया है-
‘वो मुझे जब भी निगाहों से छुआ करता है
मेरे आँसू के न गिरने की दुआ करता है
हर शुरूआत में पहला जो क़दम रखते हैं
जीत में वो ही मददगार हुआ करता है’
हालांकि ग़ज़ल का मूल स्वर ही श्रृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को केवल दैहिक प्रेम समझने वाले और मानने वाले लोगों के समक्ष प्रेम को बिल्कुल अनूठे रूप में व्याख्यायित किया है सुविख्यात नवगीतकार डॉ.माहेश्वर तिवारी ने अपने गीत में-‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेजुबान छत-दीवारों को घर कर देता है।’ वास्तव में ईंट, रेत, सीमेन्ट से बना ढांचा जिसे मकान कहा जाता है और उस मकान में रखीं सारी चीज़ें तब तक घर नहीं बनतीं जब तक प्रेम उसमें अपनी भूमिका नहीं निभाता। अपनी एक बहुत ही प्यारी ग़ज़ल में डॉ. अजय 'अनुपम' भी तक़रीबन ऐसी ही अनुभूति को स्वर देते हैं-
‘हार-जीत के बिन लड़ने को, कोई तत्पर कब होता है
गहरे प्रश्नों का समझाओ, सब पर उत्तर कब होता है
गद्दा, तकिया, ताला-चाभी और अटैची में कुछ कपड़े
सब होते कमरे में लेकिन, तुम बिन घर, घर कब होता है’
आजकल समकालीन कविता को लेकर जगह-जगह अनेक विमर्श आयोजित होते हैं, लम्बे-चौड़े वक्तव्य दिए जाते हैं और अंततः ‘समकालीन कविता में यथार्थवाद’ के संदर्भ में छान्दसिक कविता को नज़रअंदाज़ करते हुए नई कविता के सिर पर सच्ची समकालीन कविता का ताज रख दिया जाता है। मेरा मानना है कि कविता का फार्मेट चाहे जो हो, रचनाधर्मिता जब अपने समकालीन सन्दर्भों पर विमर्श करती है तो वह विमर्श महत्वपूर्ण तो होता ही है दस्तावेज़ी भी होता है। पिछले कुछ समय से बहुत कुछ बदला है। समाज की दृष्टि बदली है, सोच बदली है, पारंपरिक लीकों को तोड़ते हुए या कहें कि छोड़ते हुए घर की, परिवार की, गृहस्थ की परिभाषाएं भी बदली हैं। तभी तो ‘लिव-इन रिलेशन’ महानगरीय संस्कृति में घुलकर बेहिचक स्वीकार्य होने लगा है। समाज की इस बदलती हुई दशा पर डॉ.अनुपम तीखी टिप्पणी करते हैं-
‘हालत सबकी खस्ता भी
झगड़ा भी समरसता भी
चलन ‘रिलेशन लिव-इन’ का
अच्छा भी है सस्ता भी’
कहा जाता है कि बच्चे भगवान की मूरत होते हैं। उनकी निश्छल मुस्कानों में, तुतलाहट भरी बोली में और काग़ज़ के कोरेपन की तरह पवित्र मन में ईश्वर का वास होता है। तभी तो मिठास भरी शायरी करने वाले शायर निदा फाज़ली की कलम से बेहद नाज़ुक-सा लेकिन बड़ा शे’र निकला-‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें/किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।’ दरअस्ल बच्चे के चेहरे पर मुस्कान लाना ईश्वर की इबादत से भी बड़े एक बेहद पाक़ीज़ा काम को अंजाम देना है। डॉ.अनुपम भी अपनी ग़ज़ल में बच्चे के चेहरे पर हँसी लाने की बात करते हैं-
‘नम निगाही दे कभी जब दिल को दावत दोस्तो
इससे बढ़कर इश्क़ की क्या है सआदत दोस्तो
एक बच्चे की हँसी में सैकड़ों ग़म हैं निहाँ
हारती है इसलिए उससे शराफ़त दोस्तो’
पिछले कुछ दशकों से ग़ज़ल कहने का अंदाज़ भी बदला है और मिज़ाज भी है। तभी तो आज के समय में कही जा रही ग़ज़ल सामाजिक अव्यवस्थाओं की बात करती है, आम आदमी की बात करती है, उसकी चिन्ताओं पर चिंतन करती है, समस्याओं के हल सुझाती है। सभी माता-पिता अपने बच्चों का स्वर्णिम भविष्य गढ़ने के लिए उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाते हैं, सुविधाएं मुहैया कराते हैं लेकिन घोर बेरोज़गारी के इस अराजक समय में शिक्षा के बाद भी बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो ही जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लिहाजा रोजगार की तलाश में अपने घर से, शहर से, देश से दूर जाना बच्चों की विवशता बन जाती है। डा. अनुपम भी वर्तमान की इन्हीं सामाजिक विसंगतियों़ को बड़ी ही शिद्दत और संवेदनशीलता के साथ उजागर करती हैं-
‘हर आसानी चुरा रही है सुख मेहनत-मज़दूरी का
यह विकास है या समझौता इंसानी मजबूरी का
भीतर से बाहर तक गहरा अँधियारा-सा फैला है
नई पीढ़ियां भुगत रहीं दुख अपने घर से दूरी का’
वहीं दूसरी ओर आज के विषमताओं भरे अंधकूप समय में मानवता के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदना कहीं अंतर्ध्यान होती जा रही है और संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आँगन की सौंधी सुगंध अब कहीं महसूस नहीं होती। बुज़ुर्गों को पुराने ज़माने का आउटडेटेड सामान समझा जा रहा है। इसीलिए शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या और उनमें आकर रहने वाले सदस्यों की संख्या का ग्राफ़ अचानक बड़ी तेज़ी के साथ बढा है। ऐसे असहज समय में एक सच्चा रचनाकार मौन नहीं रह सकता, अनुपमजी भी अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए अपनी ग़ज़ल में बड़ी बेबाक़ी के साथ समाज को आईना दिखाते हैं-
‘माँ-बाबा के पास न आते, बच्चे जो अब बड़े हुए
अँगुली पकड़ कभी जो अपने पाँवों पर थे खड़े हुए
शर्मसार हैं बूढ़े अपने बच्चों की करतूतों पर
लोग पूछते, सर्दी में क्यों घर के बाहर पड़े हुए’
या फिर-
‘भागदौड़ में दिन कटता है, उनको यह समझाए कौन
मिलने जाने वृद्धाश्रम में, समय कहाँ से लाए कौन
बस अपना सुख, अपनी रोटी, अपना ही आराम भला
बच्चे बिगड़ रहे हैं लेकिन शिष्टाचार सिखाए कौन’
अनुपमजी ने वर्तमान के इस संवेदनहीन समाज में चारों ओर उपस्थित खुरदुरे यथार्थ-भरे भयावह वातावरण को देखा है, जिया है शायद इसीलिए उनका अतिसंवेदनशील मन खिन्न होकर कहने पर विवश हो उठता है-
‘बाग़ लगाया जिस माली ने, पाला-पोसा हरा-भरा
दुनिया ने भी कीं तारीफ़ें, थोड़ी-थोड़ी ज़रा-ज़रा
बच्चों के ही साथ हो गई, अब तो रिश्तेदारी भी
भूल गए सब देना-लेना, माँ-बाबा का करा-धरा’
कहते हैं अंधेरे की उम्र ज़्यादा नहीं होती, उसे परास्त होना ही पड़ता है। उजाले की एक छोटी-सी किरण भी बड़े से बड़े अंधकार को क्षणभर में ही नष्ट कर देती है। इस विद्रूप समय के घोर अंधकार को भी आशावाद और सकारात्मक सात्विक सोच के उजाले की किरण ही समाप्त करेगी। अनुपमजी अपनी ग़ज़ल में उजली उम्मीदों से तर क़ीमती मशविरा भी देते हैं-
‘हर मुश्किल में ज़िन्दा रहने की हर कोशिश जारी रखिये
हिम्मत करिये लफ़्ज़े-मुहब्बत हर कोशिश पर भारी रखिये
बेबस बेकस कैद परिन्दा दिल का, अपने पर खोलेगा
आसमान रोशन होते ही उड़ने की तैयारी रखिये’
अनुपमजी़ की शायरी में भिन्न-भिन्न रंगों के भिन्न-भिन्न दृश्य-चित्र दिखते हैं, कभी वह समसामयिक विद्रूपताओं को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं तो कभी फलसफ़े उनके शे’रों की अहमियत को ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। उनकी ग़ज़ल के शे’र मुलाहिजा हों-
‘समय की शाख पर जब कुछ नये पत्ते निकलते हैं
पुराने शाह पगड़ी थाम सड़कों पर टहलते हैं
जिन्हें मालूम है पहचान अपनी जड़ से शाखों तक
वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’
कुछ शे’र और-
‘हर तक़लीफ किसी अच्छाई की गुमनाम सहेली है
सबने सुलझाई पर अब भी उलझी हुई पहेली है
मिलकर तौबा, मिलकर पूजा, सब क़िस्सागोई बेकार
सभी जानते यही हक़ीकत, सबकी रूह अकेली है’
ग़ज़ल के शिखरपुरुष प्रो. वसीम बरेलवी कहते हैं कि ‘ग़ज़ल एक तहज़ीब का नाम है और शायरी बहुत रियाज़त की चीज़ है, साधना की चीज़ है।’ डॉ.अनुपम की ग़ज़लों से उनकी साधना को स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है। ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ शीर्षक से डॉ.अजय ‘अनुपम’ की यह ग़ज़ल-कृति निश्चित रूप से साहित्य की अमूल्य धरोहर बनेगी, साहित्य- जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा अपार प्रतिष्ठा पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।




* कृति - 'धूप धरती पे जब उतरती है' (ग़ज़ल-संग्रह)
* कवि - डॉ.अजय ‘अनुपम’
* प्रकाशक - अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
* प्रकाशन वर्ष - 2019
* मूल्य - ₹ 250/-(सजिल्द)
* समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद
मोबाइल- 94128 05981

रविवार, 28 जून 2020

🙏 वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्सएप हस्त लिखित कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है। 21 जून 2020 को आयोजित 207 वें आयोजन में 24 रचनाकारों ने अपनी हस्तलिपि में रचनाएं प्रस्तुत की । आयोजन में शामिल साहित्यकारों डॉ पुनीत कुमार, सूर्यकांत द्विवेदी, अनुराग रोहिला, अशोक विद्रोही, ओंकार सिंह विवेक, कंचन लता पांडेय, श्री कृष्ण शुक्ल ,डॉ अशोक रस्तोगी, नवल किशोर शर्मा नवल , राजीव प्रखर, मनोरमा शर्मा, मरगूब हुसैन, मोनिका शर्मा मासूम, सन्तोष कुमार शुक्ल संत, स्वदेश सिंह, रवि प्रकाश , डॉ अनिल शर्मा अनिल, डॉ प्रीति हुंकार ,नृपेंद्र शर्मा सागर, प्रीति चौधरी , डॉ श्वेता पूठिया, त्यागी अशोक कृष्णम, सीमा रानी, और डॉ मनोज रस्तोगी की रचनाएं ------























सीमा रानी, अमरोहा


::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822





शनिवार, 27 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार शचीन्द्र भटनागर की ग़ज़ल-----यह ली गई है लगभग 37 वर्ष पूर्व वर्ष 1983 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष हुल्लड़ मुरादाबादी की रचना-- गणपति बप्पा मोरिया---यह ली गई है लगभग 33 वर्ष पूर्व वर्ष 19 87 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---



मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) के साहित्यकार स्मृति शेष रामावतार त्यागी का गीत ------यह लिया गया है लगभग 44 वर्ष पूर्व वर्ष 1976 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---



:::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार आनंद कुमार गौरव की रचना ------यह ली गई है लगभग 36 वर्ष पूर्व वर्ष 1984 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---



मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की कृति ''अर्चना की कुंडलियां ( भाग-दो)" की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा

     कहते हैं कि स्वर्ण जब अग्नि में तप जाए तो कुंदन  बन जाता है।ऐसा ही एक कुंदन का  आभूषण हैं, हिंदी साहित्य जगत मुरादाबाद में डॉ अर्चना गुप्ता जी का चमकता हुआ नाम ।माता पिता की प्रतिभाशाली संतान डा. अर्चना गुप्ता जी के माता पिता ने सोचा भी न होगा कि गणितीय सूत्रों को पल में हल करने वाले हाथ  साहित्यिक मोती  भी बिखेर सकते हैं।एक नीरस  विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त तरुणी के हृदय से भावों का  मीठा झरना फूटना निश्चित ही विस्मित करता है!!
डा. अर्चना गुप्ता जी  की कुंडलियां भाग दो को पढ़कर मैं   हतप्रभ हो यह सोचने लगी कि क्या एक ही छंद में इतने सारे विषयों को समाहित करना संभव है!!

     आपने जीवन,पर्यावरण,हास्य,करूणा, परिवार ,देश,व्यंग्य और व्यक्तित्व कोई भी मूर्त -अमूर्त भाव रूपी सुंदर रत्न  कुंडलियों के आभूषण में सजाने से नहीं छोड़े।
      डा. अर्चना गुप्ता जी  की कुंडलिया यात्रा  मुझे किसी नदी की यात्रा सी प्रतीत  होती है।जो अपने प्रादुर्भाव काल में जब पहाड़ों से नीचे उतरती है तब प्रचंड वेग से बहती हुई  वह नदी, पथ में पड़ने वाले सभी जड़-चेतन को बहा ले जाना चाहती है।
उसी प्रकार डा. अर्चना गुप्ता जी की कुंडलियां जब हम पढ़ना प्रारम्भ करते हैं तभी आभास हो जाता है कि वो समस्त भावों को समेटती हुई आगे बढ़ रहीं हैं।जिस प्रकार  ,मार्ग की दुर्गम यात्रा  पार करने के पश्चात भी नदी के  जल की मिठास कम नहीं होती ,उसी प्रकार  शिल्प के कठोर विधान के पश्चात भी आपने भाव पक्ष की मिठास तनिक भी कम नहीं होने दी है ।हास -परिहास लिखते समय शालीनता  की सीमा रेखा कहीं भी पार होती नहीं दिखती ।व्यंग्य की तीव्रता देखते ही बनती है।फिर चाहे होली की मस्ती हो या बढ़ती आयु में  रूप रंग के खत्म होने का भय,सभी रचनाओं में एक स्वतः हास उत्पन्न होता है।
जब जीवन के विभिन्न पहलुओं को आप अपनी कुंडलियों में दर्शाती हैं तब लगता है मानो गंगा अपने मैदानी पड़ाव में शांत व विस्तृत भाव से बहते हुऐ  विशाल गर्जना करते हुए ,भावों से भरे मैदान  के सभी तटों को अपनी साहित्यिक उर्वरकता से पोषित कर रही है।
        डा. अर्चना गुप्ता जी की एक और विशेषता मुझे आकर्षित करती  है वो यह कि वो जितनी सहज व सरल हैं उतनी ही सरलता से गंभीर बातों को भी पाठकों तक  सहजतापूर्वक पहुँचा भी देती हैं।महान व्यक्तित्व की बात करें तो लगता हैं कि "अर्चना की  कुंडलियां  भाग दो "का अंतिम पड़ाव उतना ही शांत,धीर गंभीर है जितना किसी नदी का अंतिम पड़ाव  सागर तक की यात्रा पूर्ण होने पर  प्रतीत होता है।सम्भवतः यह यात्रा कुंडलियों के सागर में एक नदी के भाव मिलने जैसी है जिससे उसका शीतल जल मेघ बनकर पुनः आकाश में जाकर धरती पर बरस सके ।अर्चना दी जितनी शीघ्रता से कुंडलियां व ग़ज़ल लिखती हैं उसे देखकर यही लगता है ,मानो उनके हृदय रूपी गगन में विचरता  कोई साहित्यिक मेघ पुनः पाठकों के मन मरुस्थल पर बरसने को तैयार है।
        यहाँ कुछ कुंडलियों की पंक्तियां अवश्य उद्धृत करना चाहूँगी जो मुझे अत्यधिक पसंद आयीं।यथा...
 माँ शारदा से अत्यंत विनीत भाव से विनती करती हुई लगभग हर रचनाकार के मन की ही बात कहती हैं...
  चरणों में देना जगह ,मुझे समझकर धूल
माँ मैं तो नादान हूँ ,करती रहती भूल।
करती रहती भूल ,बहुत हूँ मैं अज्ञानी
खुद पर करके गर्व, न बन जाऊँ अभिमानी ।
कहे 'अर्चना' प्राण,भरो ऐसे भावों में,
गाऊँ मैं गुणगान बैठ तेरे चरणों में।

इसके अतिरिक्त पृष्ठ सं.26पर कुंडलिया न. 16
रिश्तों को ही जोड़ती सदा प्रीत की डोर
मगर तोड़ देता इन्हें मन के शक का चोर
मन के शक का चोर,न हल्के में ये लेना
लेगा सबकुछ लूट,जगह मत इसको देना
करके सोच विचार, बनाना सम्बंधो को
रखना खूब सहेज,अर्चना सब रिश्तों को

पर्यावरण पर आधारित पृष्ठ सं. 36पर कुं. संख्या 30,
"गौरैया दिखती नहीं, लगे गई है रूठ
पेड़ काट डाले हरे,बचे रह गये ठूठ
बचे रह गये ठूठ,देख दुखता उसका मन
कहाँ बनाये नीड़,नहीं अब दिखता आँगन
कहीं अर्चना शुद्ध, नहीं पुरवाई मिलती
तभी चहकती आज,नहीं गौरैया दिखती

पृष्ठ सं.38पर कुं. सं. 35,
"भाये कुदरत को नहीं, जब मानव के ढंग
तब उसने हो कर कुपित,दिखलाया निज रंग
दिखलाया निज रंग,तबाही खूब मचाई
बाढ़ कहीं भूकंप,कहीं पर सूखा लाई
आओ करें उपाय,अर्चना ये समझाये
खूब लगायें वृक्ष ,यही कुदरत को भाये


हालाँकि  कुं सं. 35 बहुत पहले लिखी गयी है मगर आज के हालात पर ही लिखी गयी सी प्रतीत होती है।यह एक संवेदनशील कवियत्री के हृदय की  संवेदना को ही दर्शाती है।कवि हृदय तो यों भी त्रिकालदर्शी होता है।
जीवन के विविध रंगों को दर्शाती उनकीपृष्ठ संख्या 45पर कुंडलियां सं.45 भी मुझे बहुत अधिक आकर्षित करती है जब वो कहती हैं..

"रावण का भी कर दिया अहंकार ने नाश
धरती पर रख पाँव ही,छुओ सदा आकाश
छुओ सदा आकाश ,उठो जीवन में इतना
लेकिन नम्र स्वभाव, साथ में सबके रखना
कहे अर्चना बात ,ज़िंदगी भी है इक रण
अपने ही है हाथ,राम बनना या रावण"

इतने बड़े मुकाम पर पहुँचकर भी डा.अर्चना गुप्ता जी को अभिमान तनिक भी नहीं छू गया है।अपितु उनके साहित्यिक व्यक्तित्व रूपी वृक्ष पर साहित्यिक समृद्धि रूपी फल आने पर वह वृक्ष झुक गया है।ऐसी बहुत सी सुंदर कुंडलिया हैं जो हमें अन्दर तक स्पर्श कर जाती हैं।




 * कृति--अर्चना की कुंडलियां ,भाग -2(कुण्डलिया संग्रह)
* रचनाकार : डा अर्चना गुप्ता, मुरादाबाद
* प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिकेशन
* प्रथम संस्करण : वर्ष :2019
* पृष्ठ संख्या:105
* मूल्यः ₹150
*समीक्षक : मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
मोबाइल: 8218467932

शुक्रवार, 26 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता -- --- वाह वाह क्या बात है


हमने एक वाट्स एप ग्रुप ज्वाइन किया
उसमे नियमित रूप से
अपनी रचनाएं भेजते रहे
संयम के साथ
बाकी सदस्यों की प्रतिक्रिया देखते रहे
कुछ सदस्यों की रचनाओं पर
जबरदस्त वाह वाह मिलती थी
हमारी रचनाओं पर किसी की
निगाह भी नहीं टिकती थी
ये बात हमको बहुत खलती थी
जब हमको कुछ समझ नहीं आया
हमने अपना दुखड़ा
चर्चित और प्रतिष्ठित,कवि मित्र को सुनाया
मित्र ने बताया
ये मत सोचो
तुम्हारी कविताओं में कुछ जान नहीं है
तुमको सफल होने की तकनीक का ज्ञान
नहीं है।
तुम्हे,अपने जैसे 5-6 कवियों का एक गुट बनाना है
एक दूसरे की रचनाओं पर
जम कर ताली बजाना है
वाह वाह क्या बात है
इस मंत्र को बार बार दोहराना है
समय समय पर
एक दूसरे का सम्मान करना है
नगद धनराशि,प्रशस्ति पत्र
और पुरस्कार का आदान प्रदान करना है
इससे तुम्हारी अलग पहचान बन जाएगी
समर्थकों की संख्या भी एकदम बढ़ जाएगी

हम अपने मित्र के,बताए मार्ग पर चलने लगे
वाह वाह क्या बात है
सुबह शाम जपने लगे
बहुत जल्द इसके सुखद परिणाम आ गए
हम सोशल मीडिया में छा गए
अख़बारों और पत्रिकाओं में छपने लगे
एक दिन तो कमाल हो गया
हमारी रचना
तकनीकी कारणों से लोड नहीं हो पाई
लेकिन वाह वाह क्या बात से
पूरा ग्रुप मालामाल हो गया
हमने मित्रो को टोका
पहले पूरी रचना पढ़ तो लेते
उसके बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते
मित्र बोले
कविता के बारे में
हम कहां कुछ जानते हैं
हम तो बस तुम्हारा नाम पहचानते है
क्योंकि रचना तुम्हारी है
उसको अच्छा बताना
हमारी नैतिक जिम्मेदारी है
आजकल काम नहीं नाम बिकता है
और यही वास्तविकता है

अपने मित्रों से
निरंतर मिलते सम्मान ने
हमको साहित्यिक जगत का
सम्मानित व्यक्तित्व और चर्चित ब्रांड
बना दिया है
अन्य संस्थाओं ने भी
हमारा बुला बुला कर सम्मान किया है
ये सब, वाह वाह क्या बात है
मंत्र की करामात है
वरना अपनी क्या औकात है
सम्मान में मिली,घमंड की चादरों से
हमारा पूरा अस्तित्व घिर गया है
ये अलग बात है
हमारी रचनाओं का स्तर
नेताओ के चरित्र सा गिर गया है
ये बाई प्रोडक्ट के रूप में
आधुनिकता की सौगात है
अपनी जमीन छोड़ कर
आकाश में उड़ने की शुरुआत है
वाह वाह क्या बात है
वाह वाह क्या बात है।

 ✍️डॉ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेसीडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M- 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी जाकिर की रचना


🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2,फतेहाबाद रोड
आगरा-282 001
मोबाइल फोन नंबर. 9760613902,
847 695 4471.
Mail-  atzakir@gmail.com

बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी------अभागन

          "मम्मी तुम बहुत ही प्यारी हो ....आज देखो मैने  कॉलेज टॉप किया है ."उमा की बड़ी बेटी ने माँ से लिपटते हुए कहा .
​"देख लो  दीदी हम दोनों भी तुम्हारे पदचिन्हों पर ही चल रहे हैं l"दोनों छोटे भाई बहन भी एक स्वर में बोले .देखकर उमा की आँखों से खुशी के आँसू बह निकले .
​"नहीं मम्मी रोना नहीं ....हमने तुमको बहुत  रोते हुए देख लिया लेकिन अब नहीं ..l"बड़ी बेटी ने उमा के आँसू पौंछते हुए कहा .
​सुनकर उमा आज कई साल बाद जी भरकर रोई ....बेटियों ने खाना बनाया और माँ के साथ मिलकर सबने खाया .जब तीनों बच्चे सो गए तो उमा ने प्रेम से उनके ऊपर हाथ फेरा , और डूब गई अपने अतीत में क्योंकि अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता उसकी खुशियाँ और दुख कभी भी आकर मन क़ो बेचैन कर जाते हैं .
​पति की लाश के पास उमा चुपचाप बैठी थी , बिल्कुल बुत की तरह या यूँ कहिये कि जिंदा लाश की तरह ...तीन छोटे छोटे बच्चे घर में मचे कोहराम क़ो देखकर इधर उधर रोते बिलखते फिर रहे थे ...लड़का छोटा था दो लड़कियां थीं पाँच और तीन साढ़े तीन साल की और लड़का ढेड साल का वह चलकर आता और अपनी मम्मी से लिपटकर उसकी छाती से लिपटकर सिर मारता कभी मूँह टिकाता और रोता बिलखता फिर चला जाता ....बड़ी लड़की क़ो समझ आ चुका था कि उसके पापा भगवान के पास चले गए मगर छोटी ....वह तो छोटी ही थी ....क्या क्या होता रहा उमा क़ो  कोई सुध नहीं थी , उसकी चूड़ी तोड़ दी गयीं और सिंदूर भी पौंछ दिया गया ....कोई पहली बार तो हुआ नहीं था यह इससे पहले भी .....यह सोचकर वह बहुत जोर से चिल्लाई और रोने लगी ..."मैं इतनी बुरी हूँ क्या ?"यह वेदना भरे शब्द सुनकर पत्थर दिल लोग भी रोए बिना न रह सके .."हर कोई चला जाता है मुझसे रूठकर दूर ...बहुत दूर ...क्यों ?"उसका रोना देखा नहीं जा रहा था .
​थोड़ी देर बाद उसके पति की क्रिया कर्म के लिए ले जाया गया वह बहुत रोई मगर कोई फायदा नहीं इधर बच्चों का भी बुरा हाल था .
​रात क़ो जब वह लेटी  थी तो ताई सास और उसकी ननद आपस में बातें कर रही थीं .....
​"इसके भाग्य में सुहाग है ही नहीं ....पहले विधवा हो गई थी और अब यहां भी ....अब क्या करेगी ?"
​उमा सब कुछ सुन रही थी मगर वह कुछ नहीं बोली पास में जमीन पर सो रहे अपने तीनों मासूम बच्चों क़ो देखा जो शायद भूखे ही सो गए थे क्योंकि बच्चे उमा के साथ ही खाना खाते थे .
​उसकी आँखों में बीती सारी घटनाएं घूमने लगीं .
​कितनी बोझ बनी जा रही थी वह माँ और बाबूजी क़ो कि हाईस्कूल में आते ही उसकी पढ़ाई छुड़ाकर पास के ही गाँव के योगेश नाम के युवक के साथ उसका विवाह कर दिया गया था ....सब कुछ था योगेश के पास जो जीने के लिए चाहिए घर ...जमीन थोड़ी सी और बहुत सारा प्यार ...शादी के दो साल बाद उसने जुड़वा बच्चों क़ो जन्म दिया ...बहुत खूबसूरत और प्यारे बच्चे पाकर जैसे योगेश और उमा खुशी से फूले नहीं समा रहे थे ....मगर उनकी खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही कहा भी जाता हैं कि अति हर चीज की बुरी होती हैं फिर चाहे वह खुशी हो या गम बच्चे छः महीने के ही थे कि एक दिन शाम क़ो जब योगेश खेत से घर लौट रहे थे तब रास्ते में ही अचानक पेट में दर्द उठा और पेट पकड़े हुए घर आए ...डाक्टर के पास ले जाया गया मगर कोई फायदा नहीं हुआ ...शहर ले गए मगर बहुत सारे टेस्ट कराने के बाब्जोड भी कोई फायदा नहीं हुआ तबीयत दिन ब दिन बिगड़ती ही गई और एक दिन उमा पर जैसे वज्रपात हो गया योगेश उसक़ो और उसके बच्चों क़ो छोड़कर रोता बिलखता हमेशा के लिए चले गए .
​घर में फिर ताने दिए जाने लगे कि उसने और उसके बच्चों ने योगेश क़ो खा लिया ...एक दिन बच्चों क़ो बहुत तेज बुखार आया और बे भी ....फिर तो उसका घर में रहना ही दूभर हो गया ससुराल वालों ने उसको इतना परेशान किया कि उसका घर में रहना दूभर कर दिया , पति की अकाल मौत और ऊपर से बच्चों का साया उठना जैसे वह मर ही गई थी अभी उम्र ही क्या थी केवल वाइस साल .
​घर परिवार वालों और रिश्तेदारों ने फिर से जीना मुश्किल कर दिया और एक बार उमा के माँ बाप ने उसको फिर से समाज की दुहाई डे बमुश्किल विवाह के लिए राजी किया .
​इस बार उसका विवाह निमेष के साथ तय हुआ जोकि एक सरकारी स्कूल में चपरासी था ....विधुर था ...यह हमारे समाज की विडम्बना ही तो हैं कि विधवा महिला क़ो तो हँसी खुशी विधुर के साथ विवाह दिया जाता हैं मगर कोई क्वांरा लड़का आज भी विधवा का हाथ थामने से कतराता है.
​निमेश उम्र में उमा से पूरे आठ साल बड़ा था मगर अंधा क्या मांगे दो आँखें ....उसकी नौकरी थी इसलिए घरवालों ने उसको विवाह दिया .
​एक बार फिर से जीने की आस जागी मगर विवाह के आठ साल बाद ही सर्पदंश से निमेश की भी मौत हो गई .
​उमा फिर रह गई बिल्कुल अकेली ....उससे ज्यादा चिंता फिर से उसकी समाज क़ो होगी मगर सिर्फ उसको किसी मर्द का सहारा देने के लिए .
​लेकिन इस बार उसने निश्चय कर लिया कि वह समाज के आदेश पर नहीं अपितु अपने जमीर की सुनेगी .
​उसने उठकर तीनों बच्चों क़ो दुलारा .और जब सारे क्रिया कर्म हो गए तो सभी सहानुभूति जताकर अपने अपने घर चले गए .
​इधर छोटे देवर अजीत की सहानुभूति उसके प्रति बढ़ती ही जा रही थी हालांकि वह शादीशुदा था उसकी पत्नी जोकि पहले उमा क़ो एक आँख नहीं देखती थी कुछ ज्यादा ही हमदर्दी जताने लगीं .
​"हेल्लो भाभी l"बड़ी ननद का फोन आया .
​"नमस्ते जीजी l"
​"नमस्ते ....अब ऐसा करो निमेश की नौकरी के जो कागजात बनेंगे उन पर दस्तखत कर देना l"
​"कैसे दस्तखत ?"
​"अजीत बता देगा l"कहकर ननद ने फोन काट दिया .
​"भाभी जीजी से बात हो गई ?"
​"हाँ l"
​"लो यहां अँगूठा लगा दो l"
​"क्या हैं यह ?"
​"अरे पढ़कर क्या करोगी ...लो स्याही l"अजीत ने हंसते हुए कहा l
​उमा पूरा पेपर पढ़ गई उसमे साफ साफ लिखा था कि नौकरी करने में वह असमर्थ हैं इसलिए राजी से अपनी नौकरी निमेश के भाई अजीत क़ो देना चाहती हैंl
​"भैया ...तुम कहाँ तक पढ़े हो ?"
​"मैं ...मैं हाईस्कूल फेल हूँ l"
​"और मैं पास ....मेरे भी तो बच्चे हैं ...बताओ भैया मैं कैसे पालुंगी इनको ?"सुनकर अजीत पागल हो गया आया हुआ मौका जाता देखकर उसने उमा क़ो परेशान करना शुरू कर दिया .
​पूरे गाँव में अफवाह फैला दी कि उसकी भाभी उमा बहुत ही अभागन और डायन है...एक पति क़ो तो पहले खा आई और निमेश क़ो भी खा गई .
​सबने उसका विरोध किया मगर इस बार वह पीछे नहीं हटी . उसने नौकरी करनी शुरू की और साथ ही उसी स्कूल में अपने बच्चों का एडमीशन भी करा लिया .

✍️राशि सिंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी-------- 'द सीज ऑफ डेथ '


ये समय था 1944 की सर्दियों का और इस वक़्त जर्मनी और रुसी सेनाओं के बीच लेनिनग्राड शहर के लिए एक अहम और भयानक युद्ध चल रहा था। जर्मनी की सेना ने लेनिनग्राड शहर के इर्द गिर्द घेरा डाल रखा था। शहर को रूस के अन्य शहरों से जोड़ने वाले मुख्य मार्गों को जर्मनों ने कब्ज़ा रखा था और बाल्टिक सागर में उसकी नौसेना ने घेरा डाल रखा था। आसमान में जर्मनी के लड़ाकू विमान गरजते रहते थे। ये इस मोर्चे की सबसे भयंकर जंग थी। दो साल हो चुके थे और लेनिनगार्ड का घेरा अभी भी कायम था। जर्मनों की सफलता ये थी की शहर की आपूर्ति और उसके आस पास उनका कब्ज़ा था, तो वहीँ रूसियों ने जर्मनों को शहर पर कब्ज़ा करने से रोके रखा था। जब जर्मन सेना आगे बढ़ने में असफल रही तो उसने शहर की आपूर्ति ठप्प कर दी। रसद , अनाज और असलहा ढ़ोने वाले वाहनों को वो रस्ते में ही तबाह कर देता था और भेजी गयी रसद का बहुत छोटा सा हिस्सा ही शहर तक पहुँच पाता था। बाल्टिक सागर से आने वाले रसद के जहाजों को जर्मन पनडुब्बियां पानी में ही जलसमाधि दे देती थीं। शहर के हालात बेहद खराब हो चुके थे। रसद और राशन की कमी के कारण आधा शहर कब्रिस्तान बन चुका था। शहर में रुसी सेना के हालात भी ज्यादा अच्छे न थे। न हो ढंग से असलहा मिल रहा था न ही मदद। पूरे शहर में मौत , बेबसी और भूतिया सन्नाटा पसरा हुआ था। 2 साल में लेनिनग्राड में मात्र भुखमरी से 6 लाख से भी ज्यादा नागरिक मारे जा चुके थे। कब्रिस्तान बन चुके लेनिनग्राड में हालात बद से बदतर हो चले थे। अब लोग चलते चलते ही गिर पड़ते और उन्हें उठाने वाला भी वहां कोई न होता। रुसी सैनिक दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे, एक तो सामने के दुश्मन से दूसरा इस तबाही से। रोज न जाने कितने ही नागरिकों को दफनाते , जिनमे काई छोटे छोटे बच्चे कुछ तो नौनिहाल भी होते और तो और कई बार अपने ही किसी साथी को भी दफनाना पड़ता। जिन्दा लाश बन कर रह गए थे । जो ये सब नहीं देख पाता था, अपनी राइफल से खुद को गोली मार लेता था। जर्मन भी इस स्थिति से वाकिफ थे और उनका मानना था कि इस तरह वो बिना लड़े ही जीत जायेंगे। शहर खंडहर हो चुका था, जिस शहर में कल तक ऊँची ऊँची इमारतें हुआ करती थी, आज सड़कों पर उनका मलबा बिखरा पड़ा था। दिन में दो बार सेना के वाहन रसद बाँटा करते थे। हाँ, जिसको जितना मिल जाये वो अपनी किस्मत समझ ले लेता था। जिसे दिन में मिल जाता उसे शाम को मिले भी या नहीं इस बात कि भी कोई गारंटी नहीं थी। ऐसे ही शहर में घूमते सेना के एक ट्रक में सवार सैनिक इवानोस्की गुजरते रस्ते को देख रहा था। शहर कि दुर्दशा को देख उसके मन में अब कोई भाव नहीं आता था क्यूंकि आँखों के आंसू सूख चुके थे और दिल तो न जाने कब का पत्थर का हो चुका था। ट्रक रुकने पर इवानोस्की ट्रक से उतरा और बैरक की ओर चल दिया। बैरक क्या थी , एक टूटे फूटे भवन की ईमारत थी जिसमे वो और उसकी कंपनी के लोग रात गुजारते थे। अब आँखों में नींद नहीं होती थी। इवानोस्की 2 साल से लेनिनग्राड में था, अब इसे उसकी किस्मत कहें कि वो इतने साल तक जिन्दा रहा या बदकिस्मती कि उसने अपने साथ के न जाने कितने साथियों को अपने ही हाथों से दफनाया था। उसकी आँखों के कोर गीले तो होते थे लेकिन न ही आंसू निकलते थे और न ही मन में कोई भाव ही आता था। तभी एक गोली चलने की आवाज से वो उठ खड़ा हुआ, लेकिन थोड़ी देर में ही असलियत जान वापस पत्थर के टुकड़े पर लेट गया। साथ के एक और सिपाही ने खुद को गोली मार ली थी ,उसने आज दो लाशें दफ़नायीं थीं जिनमे एक मां और दूसरा 5 साल का बच्चा था। अपने ही लोगों को अपने सामने भूख से मरते देखना और फिर उनकी लाशों को दफनाना, नए रंगरूट कई बार इससे उबर नहीं पाते थे। इवानोस्की अतीत में देखने लगा कि जब वो पहली बार 2 साल पहले लेनिनग्राड आया था तो उसने भूख से मरे पूरे 11 लोगों के परिवार को दफनाया था। उसके बाद वो एक महीने तक सो नहीं पाया था। इवानोस्की जैसे न जाने कितने थे जो अब पत्थर के बन चुके थे। अगली सुबह इवानोस्की उठकर वापस अपनी ड्यूटी पर गया तो उसे पता चला कि रात को रसद लाने वाला ट्रक जर्मन बमबारी में तबाह हो गया, अब आज दिन का राशन नहीं बंटेगा। इवानोस्की को 4 रंगरूटों के साथ शहर का एक चक्कर लगाने को कहा गया। वो बैरक में वापस आ जाने की तैयारी करने लगा । वो रंगरूट भी वहीँ बैठे अपनी राइफल में गोलियां भर रहे थे और असलहा ले जाने की तैयारी कर रहे थे। इवानोस्की ने ये देख उनसे कहा -
'गोलियों से भी जरुरी एक चीज रख लेना, उसकी जरुरत आजकल ज्यादा पड़ती है'
'वो क्या सार्जेंट?' एक रंगरूट ने पूछा।
'कुदाल (फावड़ा)', इवानोस्की ने कहा।
वो रंगरूट चौंककर उसकी ओर देखने लगे।
'क्या हम दुश्मन को कुदाल से मारेंगे सार्जेंट', एक ने पूछा। 
'नहीं, दुश्मन के लिए नहीं' अपनी कुदाल रखते हुए इवानोस्की ने कहा
'तो कुदाल क्यों सार्जेंट?' दूसरे रंगरूट ने पूछा।
'कब्र खोदने और लाशें दफ़नाने के लिए’, ये कह इवानोस्की निकल गया।
उन चारों के मुख की चंचलता एक अजीब से तनाव और गंभीर भाव में बदल गयी। वो बिना कुछ कहे उठे और इवानोस्की के पीछे हो लिए।
इवानोस्की अपनी पत्थर निगाहों को शहर के प्रमुख स्थानों की ओर दौड़ता और उन स्थानों के युद्ध के पहले जैसे होने की कल्पना करता। इस युद्ध की विभीषिका ने इस शहर का क्या हाल बना दिया है। जहां पहले ये शहर खुशहाल , सुंदर और लोगों से भरा हुआ होता था, वहीँ आज खंडहर, कब्रिस्तान और भूतिया हो गया है। गश्त लगाते लगाते इवानोस्की शहर के मुख्य चौराहे पर पहुंचा तो उसने देखा एक 80 साल की बुढ़िया अपनी गोद में एक दुधमुंहा बच्चा लेकर दो कब्रों के पास बैठी थी। इवानोस्की उसके पास गया, और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख वहीँ बैठ गया। आगे की बात उस बुढ़िया की आँखों के आंसुओ ने इवानोस्की को बता दी। इवानोस्की ने अपने रंगरूट को इशारा किया तो वो पानी लेकर उसके पास गया। इवानोस्की ने उस बुढ़िया की ओर पानी बढ़ा कहा -
‘अम्मा, लो पानी ले लो'
आँखों में आंसू लेकिन पत्थर जैसी भाव से उसे बुढ़िया ने कहा -
'मेरी प्यास 5 दिन पहले मेरे बहु और बेटे के साथ मर गयी थी'
इवानोस्की के लिए ये कुछ नया नहीं था, फिर भी अपनी ड्यूटी निभाते हुए वो आगे बोला  'अम्मा , मैं तेरी क्या मदद कर सकता हूँ?'
'मेरा पोता 2 साल का है। इसकी मां 5 दिन पहले ही चल बसी', उस बुढ़िया ने उन कब्रों को निहारते हुए कहा।
इवानोस्की ने अपनी सप्लाई में टटोल के देखा तो उसे कुछ खाने का सामान मिल गया। उसने उसे उस बुढ़िया के हाथ में रखने की कोशिश की। इवानोस्की यही करता था, वो अपना सप्लाई राशन रोज किसी किसी न जरूरतमंद को दे देता था। लेकिन उस दिन उस बुढ़िया ने उससे राशन लेने से मना कर दिया। इवानोस्की ने थोड़ा जोर देकर कहा -
'आमा अपने पोते के लिए ले ले’
'वो, वो तो कल रात ही चल बसा', ये कहते हुए उस बुढ़िया की आँखों से आंसू ढुलक पड़ा।
इवानोस्की दंग रह गया। मन ही मन शायद वो भगवान से ये भी का रहा था की अभी और क्या देखना बाकी  है। उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
'अगर तू मेरी मदद करना चाहता है तो मेरे पोते को उसके मां बाप की कब्रों के बीच दफना दे'
इवानोस्की पत्थर हो चुका था। उसकी आँखों में भावरहित बेबसी और दुःख के आंसू थे। वो बिना कुछ कहे खड़ा हुआ और उसने वहां उन दोनों कब्रों के बीच एक छोटा सा गड्ढा खोदा और उस बच्चे को वहां दफना दिया। वो चारों रंगरूट ये दृश्य देख रहे थे। उन्हें ये समझ ही नहीं आया कि किस से क्या कहें। उन्हें इवानोस्की के शब्द याद आ रहे थे -'कुदाल, लाशें दफ़नाने के लिए'। खैर, ये सब निपटा कर जैसे ही वो जाने को हुए, उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
‘बेटा, मेरा एक काम और करता जा'
इवानोस्की के कदम रुक गए। उसने उस बुढ़िया के हाथ अपने हाथ में लिए और बोला -
'बोलो अम्मा, क्या करना है'
‘मेरे मरने के बाद मुझे भी यहीं मेरे परिवार के पास दफना देना', उस बुढ़िया ने अपने पोते की कब्र की ओर देखते हुए कहा।
इवानोस्की के हाथ से उस बुढ़िया के हाथ छूट गए। उसकी समझ ही नहीं आ रह था की वो क्या कहे। थोड़ी देर उस बुढ़िया की आँखों में देख इवानोस्की खड़ा हुआ और वापस अपनी बैरक आ गया। आज की घटना के बाद जैसे उसका मन अब भर चुका था इस सबसे। वो रंगरूट तो सबसे ज्यादा विचलित थे। अभी आये हुए 3 माह भी नहीं हुए थे और ये वीभत्स दृश्य देख वो तो जैसे पूरी तरह ही डोल गए थे। उस रात बैरक में 4  सिपाहियों ने खुद को गोली मार ली। इवानोस्की को जब ये पता चला तो वो एक बार फिर अपनी कुदाल उठा चल दिया। बेबसी के इस माहौल में न जाने उसे अभी और कितनों को दफनाना था। इसा मोर्चे पर रूसियों को जर्मन सेना से इतनी क्षति नहीं पहुंची थी जितनी इस भुखमरी और बेबसी ने दी थी। लेनिनग्राड का ये घेराव पूरे 2 साल 4 महीने चला (तकरीबन 870 दिनों तक )। ये इतिहास का सबसे विभीषक  मोर्चा था जहां एक ही बार में इतने नागरिक  मारे गए थे (तकरीबन 8 लाख से भी ज्यादा) । 872 दिन के बाद रुसी सेना से जर्मन सेना को पीछे धकेलते हुए नगर का घेराव तोड़ा और युद्ध में वापसी की।

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त
 मुरादाबाद