सोमवार, 29 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की कृति "धूप धरती पे जब उतरती है" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा------- ‘...वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’

ग़ज़ल के संदर्भ में मशहूर शायर बशीर ‘बद्र’ ने अपने एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार में कहा है-‘जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुलमिल गए हैं, ग़ज़ल की भाषा उन्ही शब्दों से बनती है। हिन्दी ग़ज़ल के असर से उर्दू ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल के असर से हिन्दी ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबी आती जा रही है। मुझे वो ग़ज़ल ज़्यादा भरपूर लगती है जिसकी भाषा हिन्दी और उर्दू के फ़र्क को ख़त्म करती है।’ यह बात बिल्कुल सही है कि तत्सम मिश्रित शब्दावली वाली हिन्दी की ग़ज़ल हो या फ़ारसी की इज़ाफ़त वाली उर्दू में कही गई ग़ज़ल, आज की आम बोलचाल की भाषा में कही गई ग़ज़ल की तुलना में शायद कहीं पीछे छूट गई है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें छंद का अनुशासन भी ज़रूरी है और कहन का सलीक़ा भी। इसे इशारे की आर्ट भी कहा गया है। जिगर की धरती मुरादाबाद से भी अनेक रचनाकार आम बोलचाल की भाषा में बेहद शानदार ग़ज़लें कहते आए हैं और अब भी कह रहे हैं। ग़ज़ल के ऐसे ही महत्वपूर्ण रचनाकारों में अपनी समृद्ध उपस्थिति मज़बूती से दर्ज़ कराने वाले वरिष्ठ साहित्यकार डा. अजय ‘अनुपम’ के ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ से गुज़रते हुए उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल के परंपरागत स्वर के साथ-साथ वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति को मैंने महसूस किया जिन्हें उन्होंने ग़ज़लियत की मिठास के साथ सहजभाषा के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त किया है-
‘वो मुझे जब भी निगाहों से छुआ करता है
मेरे आँसू के न गिरने की दुआ करता है
हर शुरूआत में पहला जो क़दम रखते हैं
जीत में वो ही मददगार हुआ करता है’
हालांकि ग़ज़ल का मूल स्वर ही श्रृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को केवल दैहिक प्रेम समझने वाले और मानने वाले लोगों के समक्ष प्रेम को बिल्कुल अनूठे रूप में व्याख्यायित किया है सुविख्यात नवगीतकार डॉ.माहेश्वर तिवारी ने अपने गीत में-‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेजुबान छत-दीवारों को घर कर देता है।’ वास्तव में ईंट, रेत, सीमेन्ट से बना ढांचा जिसे मकान कहा जाता है और उस मकान में रखीं सारी चीज़ें तब तक घर नहीं बनतीं जब तक प्रेम उसमें अपनी भूमिका नहीं निभाता। अपनी एक बहुत ही प्यारी ग़ज़ल में डॉ. अजय 'अनुपम' भी तक़रीबन ऐसी ही अनुभूति को स्वर देते हैं-
‘हार-जीत के बिन लड़ने को, कोई तत्पर कब होता है
गहरे प्रश्नों का समझाओ, सब पर उत्तर कब होता है
गद्दा, तकिया, ताला-चाभी और अटैची में कुछ कपड़े
सब होते कमरे में लेकिन, तुम बिन घर, घर कब होता है’
आजकल समकालीन कविता को लेकर जगह-जगह अनेक विमर्श आयोजित होते हैं, लम्बे-चौड़े वक्तव्य दिए जाते हैं और अंततः ‘समकालीन कविता में यथार्थवाद’ के संदर्भ में छान्दसिक कविता को नज़रअंदाज़ करते हुए नई कविता के सिर पर सच्ची समकालीन कविता का ताज रख दिया जाता है। मेरा मानना है कि कविता का फार्मेट चाहे जो हो, रचनाधर्मिता जब अपने समकालीन सन्दर्भों पर विमर्श करती है तो वह विमर्श महत्वपूर्ण तो होता ही है दस्तावेज़ी भी होता है। पिछले कुछ समय से बहुत कुछ बदला है। समाज की दृष्टि बदली है, सोच बदली है, पारंपरिक लीकों को तोड़ते हुए या कहें कि छोड़ते हुए घर की, परिवार की, गृहस्थ की परिभाषाएं भी बदली हैं। तभी तो ‘लिव-इन रिलेशन’ महानगरीय संस्कृति में घुलकर बेहिचक स्वीकार्य होने लगा है। समाज की इस बदलती हुई दशा पर डॉ.अनुपम तीखी टिप्पणी करते हैं-
‘हालत सबकी खस्ता भी
झगड़ा भी समरसता भी
चलन ‘रिलेशन लिव-इन’ का
अच्छा भी है सस्ता भी’
कहा जाता है कि बच्चे भगवान की मूरत होते हैं। उनकी निश्छल मुस्कानों में, तुतलाहट भरी बोली में और काग़ज़ के कोरेपन की तरह पवित्र मन में ईश्वर का वास होता है। तभी तो मिठास भरी शायरी करने वाले शायर निदा फाज़ली की कलम से बेहद नाज़ुक-सा लेकिन बड़ा शे’र निकला-‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें/किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।’ दरअस्ल बच्चे के चेहरे पर मुस्कान लाना ईश्वर की इबादत से भी बड़े एक बेहद पाक़ीज़ा काम को अंजाम देना है। डॉ.अनुपम भी अपनी ग़ज़ल में बच्चे के चेहरे पर हँसी लाने की बात करते हैं-
‘नम निगाही दे कभी जब दिल को दावत दोस्तो
इससे बढ़कर इश्क़ की क्या है सआदत दोस्तो
एक बच्चे की हँसी में सैकड़ों ग़म हैं निहाँ
हारती है इसलिए उससे शराफ़त दोस्तो’
पिछले कुछ दशकों से ग़ज़ल कहने का अंदाज़ भी बदला है और मिज़ाज भी है। तभी तो आज के समय में कही जा रही ग़ज़ल सामाजिक अव्यवस्थाओं की बात करती है, आम आदमी की बात करती है, उसकी चिन्ताओं पर चिंतन करती है, समस्याओं के हल सुझाती है। सभी माता-पिता अपने बच्चों का स्वर्णिम भविष्य गढ़ने के लिए उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाते हैं, सुविधाएं मुहैया कराते हैं लेकिन घोर बेरोज़गारी के इस अराजक समय में शिक्षा के बाद भी बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो ही जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लिहाजा रोजगार की तलाश में अपने घर से, शहर से, देश से दूर जाना बच्चों की विवशता बन जाती है। डा. अनुपम भी वर्तमान की इन्हीं सामाजिक विसंगतियों़ को बड़ी ही शिद्दत और संवेदनशीलता के साथ उजागर करती हैं-
‘हर आसानी चुरा रही है सुख मेहनत-मज़दूरी का
यह विकास है या समझौता इंसानी मजबूरी का
भीतर से बाहर तक गहरा अँधियारा-सा फैला है
नई पीढ़ियां भुगत रहीं दुख अपने घर से दूरी का’
वहीं दूसरी ओर आज के विषमताओं भरे अंधकूप समय में मानवता के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदना कहीं अंतर्ध्यान होती जा रही है और संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आँगन की सौंधी सुगंध अब कहीं महसूस नहीं होती। बुज़ुर्गों को पुराने ज़माने का आउटडेटेड सामान समझा जा रहा है। इसीलिए शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या और उनमें आकर रहने वाले सदस्यों की संख्या का ग्राफ़ अचानक बड़ी तेज़ी के साथ बढा है। ऐसे असहज समय में एक सच्चा रचनाकार मौन नहीं रह सकता, अनुपमजी भी अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए अपनी ग़ज़ल में बड़ी बेबाक़ी के साथ समाज को आईना दिखाते हैं-
‘माँ-बाबा के पास न आते, बच्चे जो अब बड़े हुए
अँगुली पकड़ कभी जो अपने पाँवों पर थे खड़े हुए
शर्मसार हैं बूढ़े अपने बच्चों की करतूतों पर
लोग पूछते, सर्दी में क्यों घर के बाहर पड़े हुए’
या फिर-
‘भागदौड़ में दिन कटता है, उनको यह समझाए कौन
मिलने जाने वृद्धाश्रम में, समय कहाँ से लाए कौन
बस अपना सुख, अपनी रोटी, अपना ही आराम भला
बच्चे बिगड़ रहे हैं लेकिन शिष्टाचार सिखाए कौन’
अनुपमजी ने वर्तमान के इस संवेदनहीन समाज में चारों ओर उपस्थित खुरदुरे यथार्थ-भरे भयावह वातावरण को देखा है, जिया है शायद इसीलिए उनका अतिसंवेदनशील मन खिन्न होकर कहने पर विवश हो उठता है-
‘बाग़ लगाया जिस माली ने, पाला-पोसा हरा-भरा
दुनिया ने भी कीं तारीफ़ें, थोड़ी-थोड़ी ज़रा-ज़रा
बच्चों के ही साथ हो गई, अब तो रिश्तेदारी भी
भूल गए सब देना-लेना, माँ-बाबा का करा-धरा’
कहते हैं अंधेरे की उम्र ज़्यादा नहीं होती, उसे परास्त होना ही पड़ता है। उजाले की एक छोटी-सी किरण भी बड़े से बड़े अंधकार को क्षणभर में ही नष्ट कर देती है। इस विद्रूप समय के घोर अंधकार को भी आशावाद और सकारात्मक सात्विक सोच के उजाले की किरण ही समाप्त करेगी। अनुपमजी अपनी ग़ज़ल में उजली उम्मीदों से तर क़ीमती मशविरा भी देते हैं-
‘हर मुश्किल में ज़िन्दा रहने की हर कोशिश जारी रखिये
हिम्मत करिये लफ़्ज़े-मुहब्बत हर कोशिश पर भारी रखिये
बेबस बेकस कैद परिन्दा दिल का, अपने पर खोलेगा
आसमान रोशन होते ही उड़ने की तैयारी रखिये’
अनुपमजी़ की शायरी में भिन्न-भिन्न रंगों के भिन्न-भिन्न दृश्य-चित्र दिखते हैं, कभी वह समसामयिक विद्रूपताओं को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं तो कभी फलसफ़े उनके शे’रों की अहमियत को ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। उनकी ग़ज़ल के शे’र मुलाहिजा हों-
‘समय की शाख पर जब कुछ नये पत्ते निकलते हैं
पुराने शाह पगड़ी थाम सड़कों पर टहलते हैं
जिन्हें मालूम है पहचान अपनी जड़ से शाखों तक
वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’
कुछ शे’र और-
‘हर तक़लीफ किसी अच्छाई की गुमनाम सहेली है
सबने सुलझाई पर अब भी उलझी हुई पहेली है
मिलकर तौबा, मिलकर पूजा, सब क़िस्सागोई बेकार
सभी जानते यही हक़ीकत, सबकी रूह अकेली है’
ग़ज़ल के शिखरपुरुष प्रो. वसीम बरेलवी कहते हैं कि ‘ग़ज़ल एक तहज़ीब का नाम है और शायरी बहुत रियाज़त की चीज़ है, साधना की चीज़ है।’ डॉ.अनुपम की ग़ज़लों से उनकी साधना को स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है। ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ शीर्षक से डॉ.अजय ‘अनुपम’ की यह ग़ज़ल-कृति निश्चित रूप से साहित्य की अमूल्य धरोहर बनेगी, साहित्य- जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा अपार प्रतिष्ठा पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।




* कृति - 'धूप धरती पे जब उतरती है' (ग़ज़ल-संग्रह)
* कवि - डॉ.अजय ‘अनुपम’
* प्रकाशक - अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
* प्रकाशन वर्ष - 2019
* मूल्य - ₹ 250/-(सजिल्द)
* समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद
मोबाइल- 94128 05981

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