शनिवार, 27 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की कृति ''अर्चना की कुंडलियां ( भाग-दो)" की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा

     कहते हैं कि स्वर्ण जब अग्नि में तप जाए तो कुंदन  बन जाता है।ऐसा ही एक कुंदन का  आभूषण हैं, हिंदी साहित्य जगत मुरादाबाद में डॉ अर्चना गुप्ता जी का चमकता हुआ नाम ।माता पिता की प्रतिभाशाली संतान डा. अर्चना गुप्ता जी के माता पिता ने सोचा भी न होगा कि गणितीय सूत्रों को पल में हल करने वाले हाथ  साहित्यिक मोती  भी बिखेर सकते हैं।एक नीरस  विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त तरुणी के हृदय से भावों का  मीठा झरना फूटना निश्चित ही विस्मित करता है!!
डा. अर्चना गुप्ता जी  की कुंडलियां भाग दो को पढ़कर मैं   हतप्रभ हो यह सोचने लगी कि क्या एक ही छंद में इतने सारे विषयों को समाहित करना संभव है!!

     आपने जीवन,पर्यावरण,हास्य,करूणा, परिवार ,देश,व्यंग्य और व्यक्तित्व कोई भी मूर्त -अमूर्त भाव रूपी सुंदर रत्न  कुंडलियों के आभूषण में सजाने से नहीं छोड़े।
      डा. अर्चना गुप्ता जी  की कुंडलिया यात्रा  मुझे किसी नदी की यात्रा सी प्रतीत  होती है।जो अपने प्रादुर्भाव काल में जब पहाड़ों से नीचे उतरती है तब प्रचंड वेग से बहती हुई  वह नदी, पथ में पड़ने वाले सभी जड़-चेतन को बहा ले जाना चाहती है।
उसी प्रकार डा. अर्चना गुप्ता जी की कुंडलियां जब हम पढ़ना प्रारम्भ करते हैं तभी आभास हो जाता है कि वो समस्त भावों को समेटती हुई आगे बढ़ रहीं हैं।जिस प्रकार  ,मार्ग की दुर्गम यात्रा  पार करने के पश्चात भी नदी के  जल की मिठास कम नहीं होती ,उसी प्रकार  शिल्प के कठोर विधान के पश्चात भी आपने भाव पक्ष की मिठास तनिक भी कम नहीं होने दी है ।हास -परिहास लिखते समय शालीनता  की सीमा रेखा कहीं भी पार होती नहीं दिखती ।व्यंग्य की तीव्रता देखते ही बनती है।फिर चाहे होली की मस्ती हो या बढ़ती आयु में  रूप रंग के खत्म होने का भय,सभी रचनाओं में एक स्वतः हास उत्पन्न होता है।
जब जीवन के विभिन्न पहलुओं को आप अपनी कुंडलियों में दर्शाती हैं तब लगता है मानो गंगा अपने मैदानी पड़ाव में शांत व विस्तृत भाव से बहते हुऐ  विशाल गर्जना करते हुए ,भावों से भरे मैदान  के सभी तटों को अपनी साहित्यिक उर्वरकता से पोषित कर रही है।
        डा. अर्चना गुप्ता जी की एक और विशेषता मुझे आकर्षित करती  है वो यह कि वो जितनी सहज व सरल हैं उतनी ही सरलता से गंभीर बातों को भी पाठकों तक  सहजतापूर्वक पहुँचा भी देती हैं।महान व्यक्तित्व की बात करें तो लगता हैं कि "अर्चना की  कुंडलियां  भाग दो "का अंतिम पड़ाव उतना ही शांत,धीर गंभीर है जितना किसी नदी का अंतिम पड़ाव  सागर तक की यात्रा पूर्ण होने पर  प्रतीत होता है।सम्भवतः यह यात्रा कुंडलियों के सागर में एक नदी के भाव मिलने जैसी है जिससे उसका शीतल जल मेघ बनकर पुनः आकाश में जाकर धरती पर बरस सके ।अर्चना दी जितनी शीघ्रता से कुंडलियां व ग़ज़ल लिखती हैं उसे देखकर यही लगता है ,मानो उनके हृदय रूपी गगन में विचरता  कोई साहित्यिक मेघ पुनः पाठकों के मन मरुस्थल पर बरसने को तैयार है।
        यहाँ कुछ कुंडलियों की पंक्तियां अवश्य उद्धृत करना चाहूँगी जो मुझे अत्यधिक पसंद आयीं।यथा...
 माँ शारदा से अत्यंत विनीत भाव से विनती करती हुई लगभग हर रचनाकार के मन की ही बात कहती हैं...
  चरणों में देना जगह ,मुझे समझकर धूल
माँ मैं तो नादान हूँ ,करती रहती भूल।
करती रहती भूल ,बहुत हूँ मैं अज्ञानी
खुद पर करके गर्व, न बन जाऊँ अभिमानी ।
कहे 'अर्चना' प्राण,भरो ऐसे भावों में,
गाऊँ मैं गुणगान बैठ तेरे चरणों में।

इसके अतिरिक्त पृष्ठ सं.26पर कुंडलिया न. 16
रिश्तों को ही जोड़ती सदा प्रीत की डोर
मगर तोड़ देता इन्हें मन के शक का चोर
मन के शक का चोर,न हल्के में ये लेना
लेगा सबकुछ लूट,जगह मत इसको देना
करके सोच विचार, बनाना सम्बंधो को
रखना खूब सहेज,अर्चना सब रिश्तों को

पर्यावरण पर आधारित पृष्ठ सं. 36पर कुं. संख्या 30,
"गौरैया दिखती नहीं, लगे गई है रूठ
पेड़ काट डाले हरे,बचे रह गये ठूठ
बचे रह गये ठूठ,देख दुखता उसका मन
कहाँ बनाये नीड़,नहीं अब दिखता आँगन
कहीं अर्चना शुद्ध, नहीं पुरवाई मिलती
तभी चहकती आज,नहीं गौरैया दिखती

पृष्ठ सं.38पर कुं. सं. 35,
"भाये कुदरत को नहीं, जब मानव के ढंग
तब उसने हो कर कुपित,दिखलाया निज रंग
दिखलाया निज रंग,तबाही खूब मचाई
बाढ़ कहीं भूकंप,कहीं पर सूखा लाई
आओ करें उपाय,अर्चना ये समझाये
खूब लगायें वृक्ष ,यही कुदरत को भाये


हालाँकि  कुं सं. 35 बहुत पहले लिखी गयी है मगर आज के हालात पर ही लिखी गयी सी प्रतीत होती है।यह एक संवेदनशील कवियत्री के हृदय की  संवेदना को ही दर्शाती है।कवि हृदय तो यों भी त्रिकालदर्शी होता है।
जीवन के विविध रंगों को दर्शाती उनकीपृष्ठ संख्या 45पर कुंडलियां सं.45 भी मुझे बहुत अधिक आकर्षित करती है जब वो कहती हैं..

"रावण का भी कर दिया अहंकार ने नाश
धरती पर रख पाँव ही,छुओ सदा आकाश
छुओ सदा आकाश ,उठो जीवन में इतना
लेकिन नम्र स्वभाव, साथ में सबके रखना
कहे अर्चना बात ,ज़िंदगी भी है इक रण
अपने ही है हाथ,राम बनना या रावण"

इतने बड़े मुकाम पर पहुँचकर भी डा.अर्चना गुप्ता जी को अभिमान तनिक भी नहीं छू गया है।अपितु उनके साहित्यिक व्यक्तित्व रूपी वृक्ष पर साहित्यिक समृद्धि रूपी फल आने पर वह वृक्ष झुक गया है।ऐसी बहुत सी सुंदर कुंडलिया हैं जो हमें अन्दर तक स्पर्श कर जाती हैं।




 * कृति--अर्चना की कुंडलियां ,भाग -2(कुण्डलिया संग्रह)
* रचनाकार : डा अर्चना गुप्ता, मुरादाबाद
* प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिकेशन
* प्रथम संस्करण : वर्ष :2019
* पृष्ठ संख्या:105
* मूल्यः ₹150
*समीक्षक : मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
मोबाइल: 8218467932

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