वे प्राचीन ऋषियों जैसे दिखाई देते हैं-श्वेत श्मश्रू और धवल दाढ़ी छोटा कद, तेजस्वी चेहरा और मुस्कराती हुई आँखें। जब वे वेदमंत्रों का पाठ करते है या किसी साहित्यिक समागम की अध्यक्षता कर रहे होते हैं। तो अगस्त्य के कलियुगी संस्करण सरीखे जान पड़ते हैं। साक्षात सरस्वती ही उनकी जिह्वा पर विराजमान रहती हैं। ये हैं डॉ० भूपति शर्मा जोशी | अगस्त्य जैसे संकल्प और इच्छा शक्ति के धनी ।
उन्होंने आजीवन हिन्दी प्रचार-प्रसार का व्रत धारण किया है और आयु के नवे दशक में भी पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ वे इसका निर्वाह कर रहे हैं। जैसे कभी अगस्त्य ने विंध्य के पार द्रविड़ और आर्येतर सभ्यताओं के मध्य वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया था ठीक उसी तरह डॉ० भूपति शर्मा जोशी ने देश-विदेश में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर इसे विश्वसनीय स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में जोशी जी का योगदान अप्रतिम है। आज जबकि भारत की सीमाओं के परे हिन्दी के प्रसार के लिए निर्मल वर्मा, बटरोही, अभिमन्यु अनत तथा विश्वयात्री प्रो० कामता कमलेश का उल्लेख किया जा सकता है, इन सबके बहुत पहले जोशी जी ने हिन्दी की कीर्ति पताका समस्त भूमण्डल में फहराने का 'कोलम्बस प्रयास किया था।
दक्षिण अमेरिका के चिली, कोलम्बिया, अर्जेण्टीना, पेरू और पनामा में, साथ ही उत्तरी अमेरिका के संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको में न केवल भारतवंशियों के बीच बल्कि हिस्पानी सभ्यताओं में देवभाषा और देवसंस्कृति का प्रचार जोशी जी ने किया और उन्हें हिन्दी का सम्यक ज्ञान कराया। उन्होंने आर्य होने के दंभ में जीने वाले जर्मन और साहसी डचों को भी हिन्दी का ज्ञान कराया हिन्दी प्रसार के लिए इन देशों की यात्रा करते हुए जोशी जो अनेक यूरोपिय विद्वानों और भारत विद्यानुरागी लोगो के सम्पर्क में आये। हिन्दी के लिए अपनी विश्वयात्राओं के संस्मरण जोशी जी आज भी बड़े चाव से साहित्यिक आयोजनों के मध्य सुनाते हैं।
डॉ० जोशी ने हिन्दी के लिए पीढ़ियां तैयार की हैं। उन्होंने विदेशियों को न केवल हिन्दी का अक्षर ज्ञान कराया है बल्कि इसकी वैज्ञानिकता और व्यवहारिकता से भी पाश्चात्य जगत को अवगत कराया है। यह जोशी जी के भगीरथ प्रयासों का ही सुफल है जो डॉ० लोढार लुत्शे सहित अनेक विश्वविश्रुत विद्वान हिन्दी ज्ञानार्जन के साथ-साथ साहित्य सृजन के लिए भी प्रेरित हुए। आज विदेशियों द्वारा भी विपुल मात्रा में हिन्दी का साहित्य रचा गया है। कभी हिन्दी के नाम पर नाक-भौह सिकोड़ने वाले और इसे एक समय गंवारों या जाहिलों की भाषा समझने वाले अमेरिकी लोग भी अब इसे सीखने के लिए विवश हो गये है।
डॉ० जोशी ने विदेशियों के साथ-साथ देश में भी हिन्दी अध्यापकों की पूरी खेप तैयार की है। वे लम्बे समय तक भारत के उत्तर पूर्वी प्रान्तों में अधिकारियों को हिन्दी सिखाते रहे है। उन्होंने कोचीन और डिब्रूगढ़ में बड़ी संख्या में अधिकारियों को हिन्दी भाषा का व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया है। दरअसल, भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग का बीजारोपण जोशी जी के भीतर बचपन में ही हो गया था जो आज एक विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। संकल्प के धनी जोशी जी ने बाल्यकाल में हिन्दी को विश्वजनीन भाषा का रूप देने का संकल्प किया था, वह आज फलीभूत हो चुका है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जोशी जी आजीवन एक कार्यपुरुष रहे है, उन्होंने 'वार्तापुरुष' जैसा व्यवहार कभी नहीं किया है।
जोशी जी केवल हिन्दी के विनम्र सेवक ही नहीं है। उनके विराट किन्तु सरल व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। डॉ० जोशी में हिन्दी प्रचार-प्रसार और शिक्षण के साथ अनुवाद जैसा उपेक्षित और प्रायः गौण समझा जाने वाला काम भी किया है। जोशी जी बंगला, असमिया और मलयालम जैसी दुरुह भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन कर कतिपय प्रमुख कृतियों का अनुवाद कर हिन्दी जगत से इनका परिचय कराया है। उन्होंने प्रसिद्ध असमिया उपन्यास 'सपोन जोतिया माँगे, बंगला के पद्य नाटक
'मीरा 'बाई' और मलयालम की कतिपय कविताओं का पद्यानुवाद कर अपनी विलक्षण मेधा का परिचय दिया है।
जोशी जी बहुभाषाविद होने के साथ-साथ स्वयं भी उच्च कोटि के मौलिक सर्जक हैं। उन्होंने हिन्दी में अनेक गीतों का प्रणयन किया है जो न केवल छन्द या शिल्प की दृष्टि से बल्कि कथ्य के स्तर पर भी अद्वितीय है। उन्होंने लोकजीवन, लोकआख्यानों और लोकपरम्पराओं पर आधारित अनेक मौलिक गीतों का सृजन किया है और कृष्ण की बाललीलाओं का अपनी पद्य रचनाओं में सजीव और मनोहारी चित्रण किया है।
जोशी जी ने बालगीतों में भी अभिनव प्रयोग किये है। उनके बालगीत रुढ़ अर्थों में रचे गये बाल गीतों से अलग है। जोशी जी के बालगीत केवल बालकों के लिए नहीं है बल्कि बड़े भी समान रूप से उनसे रस ग्रहण कर सकते है। दरअसल, जोशी जी के बालगीत बड़ों की दृष्टि से बच्चों को लक्ष्य करके लिखे गये गीत है। यहाँ उनका एक 'नन्हा मुन्ना गीत' दृष्टव्य है
" जिन्हें मनुहार मान कर गाया । .
जिनमें दूर कपट छल माया ।
मेरे नन्हे-मुन्ने गीत ।
याद तो आते होंगे मीत । "
जोशी जी स्वयं एक वेदज्ञ और ऋषि व्यक्तित्व होने के कारण भारत के स्वर्णिम अतीत से खासे प्रभावित रहे है। उनका सदैव यह विश्वास रहा है कि एक दिन आर्य संस्कृति या वैदिक संस्कृति पुनः अपने भव्य रूप में वापस आयेगी। शायद यूँ ही उनके गीतों में वैदिक कालीन सभ्यता और संस्कृति का विशद और सजीव चित्रण यत्र-तत्र विद्यमान है। दरअसल, भारत के स्वर्णिम अतीत का वर्णन करते हुए वे सामवेद के उद्गाता सरीखे दिखाई पड़ते हैं। उनका यह उद्गाता इस गीत में स्पष्ट मुखर हुआ है
"आओ बैठे उस धरती पर जहाँ यज्ञ का राज्य रहा है। अश्वमेध औं राजसूय के अग्निकुण्ड में आज्य बहा है। देवों के सहयोगी हम थे देव हमारे सहयोगी ।
सत्य अहिंसा वीरभाव युक्त का साम्राज्य रहा है। "
मूलतया ऋषि व्यक्तित्व होने के कारण और काफी हद तक भारत की प्राचीन वाचिक परम्परा से जुड़े होने के कारण जोशी जी ने अधिक मात्रा में साहित्य सृजन नहीं किया है। संभवतया उन्हें अपने व्यस्त जीवन में इसके लिए पर्याप्त अवकाश नहीं मिल सका। यद्यपि वे इतने समर्थ सर्जक है कि यदि चाहते तो दर्जनों ग्रन्थों का प्रणयन कर सकते थे। किन्तु उन्होंने 'स्वांतः सुखाय' जो भी रचा है उससे उनके 'क्लास' और व्यापक जीवन दृष्टि का परिचय तो मिल ही जाता है।
वयोवृद्ध होने के बावजूद डॉ० भूपति शर्मा जोशी आज भी युवकोचित ऊर्जा और उत्साह से भरपूर हैं। वे सदैव क्रियाशील और गतिमान रहते हैं नगर के साहित्यिक आयोजनों का वे लगभग एक स्थायी 'फीचर' है। सफल साहित्यिक आयोजनों के लिए उनकी उपस्थिति अनिवार्य और अपरिहार्य समझी जाती है। दरअसल, वे हिन्दी साहित्य जगत के 'प्राण' तत्व है।
(प्रस्तुत आलेख उस समय लिखा व प्रकाशित हुआ था जब डॉ भूपति शर्मा जोशी जी जीवित थे )
✍️ राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत