रविवार, 25 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- हिन्दी के विनम्र सेवक-डॉ० भूपति शर्मा जोशी। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।



वे प्राचीन ऋषियों जैसे दिखाई देते हैं-श्वेत श्मश्रू और धवल दाढ़ी छोटा कद, तेजस्वी चेहरा और मुस्कराती हुई आँखें। जब वे वेदमंत्रों का पाठ करते है या किसी साहित्यिक समागम की अध्यक्षता कर रहे होते हैं। तो अगस्त्य के कलियुगी संस्करण सरीखे जान पड़ते हैं। साक्षात सरस्वती ही उनकी जिह्वा पर विराजमान रहती हैं। ये हैं डॉ० भूपति शर्मा जोशी | अगस्त्य जैसे संकल्प और इच्छा शक्ति के धनी ।

    उन्होंने आजीवन हिन्दी प्रचार-प्रसार का व्रत धारण किया है और आयु के नवे दशक में भी पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ वे इसका निर्वाह कर रहे हैं। जैसे कभी अगस्त्य ने विंध्य के पार द्रविड़ और आर्येतर सभ्यताओं के मध्य वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया था ठीक उसी तरह डॉ० भूपति शर्मा जोशी ने देश-विदेश में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर इसे विश्वसनीय स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

    हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में जोशी जी का योगदान अप्रतिम है। आज जबकि भारत की सीमाओं के परे हिन्दी के प्रसार के लिए निर्मल वर्मा, बटरोही, अभिमन्यु अनत तथा विश्वयात्री प्रो० कामता कमलेश का उल्लेख किया जा सकता है, इन सबके बहुत पहले जोशी जी ने हिन्दी की कीर्ति पताका समस्त भूमण्डल में फहराने का 'कोलम्बस प्रयास किया था।

 दक्षिण अमेरिका के चिली, कोलम्बिया, अर्जेण्टीना, पेरू और पनामा में, साथ ही उत्तरी अमेरिका के संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको में न केवल भारतवंशियों के बीच बल्कि हिस्पानी सभ्यताओं में देवभाषा और देवसंस्कृति का प्रचार जोशी जी ने किया और उन्हें हिन्दी का सम्यक ज्ञान कराया। उन्होंने आर्य होने के दंभ में जीने वाले जर्मन और साहसी डचों को भी हिन्दी का ज्ञान कराया हिन्दी प्रसार के लिए इन देशों की यात्रा करते हुए जोशी जो अनेक यूरोपिय विद्वानों और भारत विद्यानुरागी लोगो के सम्पर्क में आये। हिन्दी के लिए अपनी विश्वयात्राओं के संस्मरण जोशी जी आज भी बड़े चाव से साहित्यिक आयोजनों के मध्य सुनाते हैं।

     डॉ० जोशी ने हिन्दी के लिए पीढ़ियां तैयार की हैं। उन्होंने विदेशियों को न केवल हिन्दी का अक्षर ज्ञान कराया है बल्कि इसकी वैज्ञानिकता और व्यवहारिकता से भी पाश्चात्य जगत को अवगत कराया है। यह जोशी जी के भगीरथ प्रयासों का ही सुफल है जो डॉ० लोढार लुत्शे सहित अनेक विश्वविश्रुत विद्वान हिन्दी ज्ञानार्जन के साथ-साथ साहित्य सृजन के लिए भी प्रेरित हुए। आज विदेशियों द्वारा भी विपुल मात्रा में हिन्दी का साहित्य रचा गया है। कभी हिन्दी के नाम पर नाक-भौह सिकोड़ने वाले और इसे एक समय गंवारों या जाहिलों की भाषा समझने वाले अमेरिकी लोग भी अब इसे सीखने के लिए विवश हो गये है।

    डॉ० जोशी ने विदेशियों के साथ-साथ देश में भी हिन्दी अध्यापकों की पूरी खेप तैयार की है। वे लम्बे समय तक भारत के उत्तर पूर्वी प्रान्तों में अधिकारियों को हिन्दी सिखाते रहे है। उन्होंने कोचीन और डिब्रूगढ़ में बड़ी संख्या में अधिकारियों को हिन्दी भाषा का व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया है। दरअसल, भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग का बीजारोपण जोशी जी के भीतर बचपन में ही हो गया था जो आज एक विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। संकल्प के धनी जोशी जी ने बाल्यकाल में हिन्दी को विश्वजनीन भाषा का रूप देने का संकल्प किया था, वह आज फलीभूत हो चुका है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जोशी जी आजीवन एक कार्यपुरुष रहे है, उन्होंने 'वार्तापुरुष' जैसा व्यवहार कभी नहीं किया है।

       जोशी जी केवल हिन्दी के विनम्र सेवक ही नहीं है। उनके विराट किन्तु सरल व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। डॉ० जोशी में हिन्दी प्रचार-प्रसार और शिक्षण के साथ अनुवाद जैसा उपेक्षित और प्रायः गौण समझा जाने वाला काम भी किया है। जोशी जी बंगला, असमिया और मलयालम जैसी दुरुह भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन कर कतिपय प्रमुख कृतियों का अनुवाद कर हिन्दी जगत से इनका परिचय कराया है। उन्होंने प्रसिद्ध असमिया उपन्यास 'सपोन जोतिया माँगे, बंगला के पद्य नाटक

'मीरा 'बाई' और मलयालम की कतिपय कविताओं का पद्यानुवाद कर अपनी विलक्षण मेधा का परिचय दिया है।

   जोशी जी बहुभाषाविद होने के साथ-साथ स्वयं भी उच्च कोटि के मौलिक सर्जक हैं। उन्होंने हिन्दी में अनेक गीतों का प्रणयन किया है जो न केवल छन्द या शिल्प की दृष्टि से बल्कि कथ्य के स्तर पर भी अद्वितीय है। उन्होंने लोकजीवन, लोकआख्यानों और लोकपरम्पराओं पर आधारित अनेक मौलिक गीतों का सृजन किया है और कृष्ण की बाललीलाओं का अपनी पद्य रचनाओं में सजीव और मनोहारी चित्रण किया है।

   जोशी जी ने बालगीतों में भी अभिनव प्रयोग किये है। उनके बालगीत रुढ़ अर्थों में रचे गये बाल गीतों से अलग है। जोशी जी के बालगीत केवल बालकों के लिए नहीं है बल्कि बड़े भी समान रूप से उनसे रस ग्रहण कर सकते है। दरअसल, जोशी जी के बालगीत बड़ों की दृष्टि से बच्चों को लक्ष्य करके लिखे गये गीत है। यहाँ उनका एक 'नन्हा मुन्ना गीत' दृष्टव्य है

" जिन्हें मनुहार मान कर गाया । .

जिनमें दूर कपट छल माया ।

मेरे नन्हे-मुन्ने गीत ।

याद तो आते होंगे मीत । " 

जोशी जी स्वयं एक वेदज्ञ और ऋषि व्यक्तित्व होने के कारण भारत के स्वर्णिम अतीत से खासे प्रभावित रहे है। उनका सदैव यह विश्वास रहा है कि एक दिन आर्य संस्कृति या वैदिक संस्कृति पुनः अपने भव्य रूप में वापस आयेगी। शायद यूँ ही उनके गीतों में वैदिक कालीन सभ्यता और संस्कृति का विशद और सजीव चित्रण यत्र-तत्र विद्यमान है। दरअसल, भारत के स्वर्णिम अतीत का वर्णन करते हुए वे सामवेद के उद्गाता सरीखे दिखाई पड़ते हैं। उनका यह उद्गाता इस गीत में स्पष्ट मुखर हुआ है

"आओ बैठे उस धरती पर जहाँ यज्ञ का राज्य रहा है। अश्वमेध औं राजसूय के अग्निकुण्ड में आज्य बहा है। देवों के सहयोगी हम थे देव हमारे सहयोगी ।

सत्य अहिंसा वीरभाव युक्त का साम्राज्य रहा है। "

  मूलतया ऋषि व्यक्तित्व होने के कारण और काफी हद तक भारत की प्राचीन वाचिक परम्परा से जुड़े होने के कारण जोशी जी ने अधिक मात्रा में साहित्य सृजन नहीं किया है। संभवतया उन्हें अपने व्यस्त जीवन में इसके लिए पर्याप्त अवकाश नहीं मिल सका। यद्यपि वे इतने समर्थ सर्जक है कि यदि चाहते तो दर्जनों ग्रन्थों का प्रणयन कर सकते थे। किन्तु उन्होंने 'स्वांतः सुखाय' जो भी रचा है उससे उनके 'क्लास' और व्यापक जीवन दृष्टि का परिचय तो मिल ही जाता है।

  वयोवृद्ध होने के बावजूद डॉ० भूपति शर्मा जोशी आज भी युवकोचित ऊर्जा और उत्साह से भरपूर हैं। वे सदैव क्रियाशील और गतिमान रहते हैं नगर के साहित्यिक आयोजनों का वे लगभग एक स्थायी 'फीचर' है। सफल साहित्यिक आयोजनों के लिए उनकी उपस्थिति अनिवार्य और अपरिहार्य समझी जाती है। दरअसल, वे हिन्दी साहित्य जगत के 'प्राण' तत्व है। 

(प्रस्तुत आलेख उस समय लिखा व प्रकाशित हुआ था जब डॉ भूपति शर्मा जोशी जी जीवित थे )

✍️ राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत


शनिवार, 24 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश की काव्यकृति -ईश अर्चना ।यह कृति वर्ष 1995 में ईश प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की गई थी। इसकी भूमिका लिखी है श्री सुरेश दत्त शर्मा पथिक जी ने ।



पूरी कृति पढ़ने के लिए क्लिक कीजिए

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::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी, 8 जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता ----गुरु की तलाश


 हमने एक

सड़क छाप ज्योतिषी को

अपनी जन्म कुण्डली दिखाई

उसने गम्भीरता पूर्वक

येे बात बताई

तुम्हारी कुण्डली में

गुरु का स्थान खाली है

लगता है गुरु तुमसे नाराज़ है

किसी गुरु के शरणागत हो जाओ

यही इसका एकमात्र इलाज है


हमने उसकी बात

दिल से लगा ली

गुरु की तलाश में

चारों ओर दृष्टि डाली

इंटरनेट पर उपलब्ध

सारी जानकारी खंगाली

किस गुरु की पोस्ट पर

कितने लाइक हैं

कितने हैं फॉलोअर

कितने और कैसे कमेंट्स हैं

समाज के किस वर्ग में है पॉपुलर

जो गुरु ज्यादा डिमांड मेेें थे

कुछ जेलों में बंद थे

कुछ रिमांड मेेें थे

कुछ गुरुओं के उपदेश

ऑनलाइन उपलब्ध थे

लेकिन उनके महंगे

और उलझाऊ अनुबंध थे

हमारी मध्यम वर्गीय मानसिकता ने

हम में भर दी हताशा

डिस्काउंट के चक्कर में

गुरुओं की सेल का समाचार

हमने हर जगह तलाशा

हमने सोचा

सस्ता मिल जाए तो

सेकेंड हैंड गुरु से भी

काम चला लेंगे

जैसे तैसे उसका खर्चा उठा लेंगे

लेकिन गारंटी देने को

कोर्इ नहीं था तैयार

सबने लिख कर लगा रखा था

फैशन के दौर में

गारंटी की बात करना है बेकार

हम इसी सोच मेेें थे डूबे

अचानक हमको मिल गए

पूंजीपति मित्र दूबे

बोले

हर तरह के गुरुओं को

अपनी जेब में रखता हूं

तुम चाहो तो एक दो को

तुम्हारी जेब में भर सकता हूं

हमको उनका प्रस्ताव

बिल्कुल नहीं जंचा

हमको लगा

अपनी कमजोर जेब में

भारी भरकम गुरुओं को

सम्भाल नहीं पाऊंगा

और बड़े मित्र का बड़ा अहसान

जिन्दगी भर उतार नहीं पाऊंगा

इसी ऊहापोह में

एकदिन अचानक

स्वप्न मेेें भगवान पधारे

बोले वत्स

बेकार की बातों में

खुद को मत उलझा रे

तू जिन्हें ढूंढ रहा है

वो गुरु नहीं गुरु घंटाल हैं

अपने शिष्यों के पैसों से

मालामाल हैं

तेरा गुरु,तेरे अंदर है

बस उसको मानना है,पहचानना है

उसे पाने का एकमात्र मार्ग

ध्यान है,धारणा है,साधना है

जिस दिन तुम्हारे अंदर का

गुरु जाग जायेगा

तुमको हर व्यक्ति में

गुरु नजर आएगा

प्रकृति का हर कण

तुमको कुछ ना कुछ सिखाएगा

पृथ्वी सहनशीलता सिखायेगी

फूल मुस्काना

फलों से लदे पेड़ सिखायेंगे

विनम्र होकर झुक जाना

सूरज और चन्दा

बिना किसी भेदभाव के

काम करना सिखायेंगे

नदी और समुंदर

शोषण के बजाय

पोषण का पाठ पढ़ाएंगे

समय सिखायेगा

हमेशा गतिमान रहना

क्या अब भी

किसी और गुरु की जरूरत है

हृदय पर हाथ रख

सच सच कहना,सच सच कहना।


✍️ डाॅ पुनीत कुमार, मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की कविता ----लक्ष्य


कलयुगी धनुंरधर ने

बाण छोड़ा परन्तु

निशाना चूक गया

तभी, उसने 

एक महात्मा को देखा

तो पूछा

भगवन इसका रहस्य

बताइये,

निशाना क्यों चूका

समझाइये,

महात्मा ने प्रश्न किया

बच्चा

तुम्हारा गुरु कौन है ?

लक्ष्य क्या है ?

मैं तभी कुछ कह सकूंगा

तुम्हारे सन्देह को 

दूर कर सकूँगा

वह बोला

आज के युग में गुरु

की आवश्यकता नहीं

लक्ष्य क्या होता है

इसका मुझे पता नहीं

महात्मा मुस्कराये

बोले,ऐसे ही अभ्यास

करते रहो,मेरे बच्चे

देश के तुम आधार हो ,

अंधे युग के सच्चे कर्णधार हो।

 ✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद

              

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी)आमोद कुमार का गीत ---बीत जायेगी पीड़ा रजनी, सुखद सवेरा फिर आयेगा


मत रो साथी मृदु हास से अधरों का श्रंगार करो तुम,

बीत जायेगी पीड़ा रजनी,सुखद सवेरा फिर आयेगा।


बिन विछोह के सफ़र अधूरा,

रह जाता है प्यार के पथ मे,

एक सुख और एक दुःख है,

दो पहिए जीवन के रथ मे,

नयन तुम्हारे दुख आयेंगे,अश्रु को मुस्कान बना लो,

थकन मिटेगी सूने पथ की,मिलन बसेरा फिर आयेगा।


ये सच है कि बीते दिनो की,

याद पग पग पर आ जाती,

न जीवन ही जी पाते हम,

न कभी मृत्यु आ पाती,

पर जो पथ अपनाया उसके, फूल भी अपने शूल भी अपने,

पतझर स्वयं चला जायेगा,बसंत सुनहरा फिर आयेगा।


आँसुओं को आँचल दे दो,

हर दुखी को चूम लो तुम,

नेह की ज्योत जगाकर,

नेह मे ही झूम लो तुम,

मत निराश हो मीत मेरे,सागर की लहरों से खेलो,

पतवार चलाते ही जाना तुम,पास किनारा फिर आयेगा।

 ✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, सी -520, सरस्वती विहार, पीतमपुरा, दिल्ली -34, मोबाइल फोन नंबर  9868210248

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का चर्चित गीत--- याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन-कलश भरे जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे.... जिसे संगीतबद्ध किया है बाल सुंदरी तिवारी एवं उनकी छात्राओं ने

 


मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर की साहित्यकार रचना शास्त्री की कविता ----पाँचों बेटे आये थे पिता के मरने में, और निपटा गये तीन दिन में ही पिता के बरस भर के सारे क्रिया कर्म


कल चाचा के जाने के महीना भर बाद 

घर आई थी पड़ोसिन चाची, 

आँखें नम थी बताते हुए कि, 

पाँचों बेटे आये थे पिता के मरने में, 

और निपटा गये तीन दिन में ही 

पिता के बरस भर के सारे क्रिया कर्म ।

तेरहवीं से लेकर अंत्येष्टि तक के ,

बाँट गये आपस में सारी जायदाद और चाचा का बैंक बैलेन्स भी ।

अलग शहरों में बड़ी नौकरियों पर हैं पाँचों 

फिर नहीं मिलती जल्दी से छुट्टी इसीलिए ..।

        सामने वाली ताई भी

बताती है कि, 

आठ घंटे की ड्यूटी के साथ 

चार घंटे ओवर टाइम करता है बेटा, 

ताकि माँग सके बाॅस से छुट्टी

दीवाली पर घर आने के लिए।

बेटियाँ भी तीज पर न आ सकेंगी, 

दामादों के संग ऊँची नौकरियों पर हैं 

दोनों, जाते हैं अलग- अलग गाड़ियों में, 

अलग-अलग शहरों के, 

अलग-अलग दफ्तरों में ।

        दोनों मिल कभी बैठती हैं तो 

सुनाती हैं मुझे, 

बैटरी से चलने वाले 

बेजान खिलौनों से खेलते हैं नाती पोते,

कार्टून चैनल देखते हैं 

नहीं सुनते उनकी कहानियाँ। 

आया दूध पिलाती है उन्हें 

मैले लगते हैं 

दादी के झुर्री भरे हाथ,

छू लेने पर धोते हैं डिटाॅल से।

सुनाते वक्त उभरता है 

एक स्थायी खालीपन दोनों की धुँधलाती आँखों में,

जिसके बोझ तले 

दब सा जाता है मेरा वजूद, 

मैं  दोनों हाथों से थाम लेती हूँ दरकता हिया, 

और लगा लेती हूँ

दोनों बेटों को कलेजे से 

एक हूक सी उठती है...


मेरे बच्चों! 

तुम शहर तो जाना, 

पर वहाँ रहना मत 

पढ़ कर लौट आना अपने गाँव। 

तुम सूरज के संग जगना 

तुम चंदा के संग सोना, 

तुम खेलने देना अपने बच्चों को 

धूप,धूल और ओस के संग

दौड़ने देना उन्हें गायों के बच्चों के संग, 

तुम इतने संवेदनशील होना, 

कि कहीं से आने पर 

तुम्हारी आवाज सुनकर 

रँभाने लगे आँगन की गैया,

उछलने लगे बछड़ा 

हरिया उठे सारा घर।


हाँ मेरे बच्चों! 

तुम मत बनना 

किसी करोड़पति के 

लखपति नौकर, 

तुम मालिक बनना 

अपने खेत खलिहान का 

हाँ मालिक बनना तुम .....।

✍️ रचना शास्त्री,  बिजनौर


शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज वर्मा मनु का क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के जन्मदिवस 23 जुलाई पर गीत---

 


जगरानी के,और मेरी 

 भारत माता के पूत, 

 ..तुम्हें शत बार नमन है....,


    है पंडित! आज़ाद,

    क्रांति के दूत,

..तुम्हे शत बार नमन है,,...


बिस्मिल,वीर भगत संग मिलकर

काकोरी से नींव हिला दी,

किस अदम्य साहस से  तुमने

अंग्रेजों को  धूल चटा दी,


जब तक जिए..

क्रांति प्रण धारा-

 डिगे न भर एक सूत, 

 .तुम्हें शत बार नमन है,,...


   है पंडित! आज़ाद,

   क्रांति के दूत 

   तुम्हें शत बार नमन है....,,


उम्र  पच्चीस बामनी सीना,

परमोजस्सवी, परम प्रवीना,

अंत समय तक जिए निकंटक

मुश्किल किया ब्रिटिश का जीना,


चंद्र नाम.. पर,

तेज़ अपरिमित-

पौरुष भरा अकूत,

..तुम्हें शत बार नमन है...,


  है पंडित! आज़ाद,

  क्रांति के दूत,

  तुम्हें शत बार नमन है...,

✍️ मनोज वर्मा 'मनु ', मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ----जब जब भी मेरे पास गिलहरी आती है ....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की ग़ज़ल ----वादों की फ़ेहरिस्त दिखाई और तक़रीरें छोड़ गए 


 

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के बारह नवगीत....













 :::::::::::::प्रस्तुति::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' की ओर से मुरादाबाद का साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन 22 जुलाई 2021 को काव्य गोष्ठी एवं संगीत संध्या का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के तत्वावधान में सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के 82वें जन्मदिन तथा उनकी रचनाधर्मिता के 66 वर्ष पूर्ण होने पर 22 जुलाई 2021 को काव्य गोष्ठी एवं संगीत संध्या का कार्यक्रम "पावस-राग" का आयोजन नवीन नगर स्थित 'हरसिंगार' भवन में किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा बालसुंदरी तिवारी एवं उनकी संगीत छात्राओं- लिपिका, कशिश भारद्वाज, संस्कृति, प्रवर्शी और सिमरन द्वारा प्रस्तुत संगीतबद्ध सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात उनके द्वारा सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई- 'बादल मेरे साथ चले हैं परछाई जैसे/सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे'। और 'डबडबाई है नदी की आँख/बादल आ गए हैं/मन हुआ जाता अँधेरा पाख/बादल आ गए हैं।

गोष्ठी में यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने पावस गीत पढ़ा-

एक चिड़िया डाल पर

कौन शायद इस तरह हम हैं

धूप के अक्षर समय के भाल पर

 कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ . मक्खन 'मुरादाबादी'  ने गीत प्रस्तुत किया---

 मैं हुआ जिस गीत से

 फिर गीत वह मुझसे हुआ

 ठीक से बांधें चलो अब

  गीत गाड़ी का जुआ।

 मुख्य अतिथि वरिष्ठ ग़ज़लकार डा. कृष्ण कुमार नाज़ ने ग़ज़ल पेश की --

 वादों की फ़ेहरिस्त दिखाई और तक़रीरें छोड़ गए

वो सहरा में दरियाओं की कुछ तस्वीरें छोड़ गए 

रामचरितमानस, रामायण, भगवद्गीता, वेद, पुराण

 अभिनंदन उन पुरखों का, जो ये जागीरें छोड़ गए

     कार्यक्रम का संचालन कर रहे योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पावस गीत प्रस्तुत किया- 

     बूँदों ने कुछ गीत लिखे हैं

     चलो गुनगुनायें

     हरी दूब से, मिट्टी से

     अपनापन जता रहीं

     कई-कई जन्मों का अपना

     नाता बता रहीं

     सिखा रहीं कैसे पत्तों से

     बोलें-बतियायें

      कवयित्री विशाखा तिवारी ने रचना प्रस्तुत की-

      आज व्याकुल धरती ने

      पुकारा बादलों को

      मेरी शिराओं की तरह

      बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं

     वरिष्ठ कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की-

      नहीं गूंजते हैं घरों में 

      अब सावन के गीत

      खत्म हो गई है अब 

      झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत

      नहीं होता अब हास परिहास

      दिखता नहीं कहीं 

      सावन का उल्लास 

 चर्चित दोहाकार राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए- 

       प्यारी कजरी साथ में, यह रिमझिम बौछार

       दोनों मिलकर कर रहीं, सावन का शृंगार

       जब तरुवर की गोद से, खग ने छेड़ी तान

       सावन चहका ओढ़ कर, बौछारी परिधान

  कवि मनोज 'मनु' ने ग़ज़ल सुनाई- 

  आपकी याद चली आई थी कल शाम के बाद

  और फिर हो गई इक ताज़ा ग़ज़ल शाम के बाद

  तू  है  मसरूफ, कहां दिन में मिले वक्त तुझे

  तू किसी रोज़ मिरे साथ निकल शाम के बाद कवयित्री अन्जना वर्मा ने सुनाया- 

  दुनिया के इस रंगमंच पर

  सभी रोल कर जाते हैं

  होठों पर मुस्कान सजाकर

  दिल के दर्द छिपाते हैं

  ग़ज़लकार राहुल शर्मा ने सुनाया-

   क्यूँ मेरी ज़रूरत पे ही हर बार अचानक

   हर शख्स नज़र आता है लाचार अचानक

   जीवन के तमाशे को तमाशे की तरह देख

   झटके से बदल जाएँगे किरदार अचानक

 कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने सुनाया-

 चलो मौत की खटिया

 खड़ी करते हैं

 क्यों न ये शुरुआत हम सब

 अपने दिमाग के दालान से करें 

  डा. चन्द्रभान सिंह यादव ने विचार पेश किए- वसंत मौसम की युवा अवस्था है तो पावस बचपना।बच्चे के   हँसने,रोने  और चिल्लाने जैसा है वर्षा, कड़ी धूप और बिजली का चमकना।वर्षा की बूदें वनस्पतियों के साथ मनुष्यों के जीवन के लिए  जरूरी हैं। 

 कवि प्रत्यक्षदेव त्यागी ने सुनाया- 

 क्यों हमेशा तू ही पकाये खाना

 और मैं बस खाऊँ

 कार्यक्रम संयोजक आशा तिवारी एवं समीर तिवारी द्वारा प्रस्तुत आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम विश्राम पर पहुँचा।















:::::प्रस्तुति::::::::

योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

संयोजक- संस्था 'अक्षरा', मुरादाबाद

मोबाइल-9412805981







मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन 22 जुलाई पर प्रत्यक्ष मिश्रा का आलेख


धूप में

जब भी जले हैं पाँव

घर की याद आई

नीम की
छोटी छरहरी
छाँह में
डूबा हुआ मन
द्वार का
आधा झुका
बरगद : पिता
माँ : बँधा आँगन
सफर में
जब भी दुखे हैं घाव
घर की याद आई

यह शहर का
शोरगुल
वह गाँव का
सूता-परेता
आग में झुलसी हुई
तुलसी
धुएँ में
जया-जेता
रेत में
जब भी थमी है नाव
घर की याद आई

इस गीत के रचनाकार  यश भारती पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी का आज जन्मदिन है, जो माहेश्वर तिवारी जी के करीबी रहे हैं वे अच्छे से जानते होंगे कि, सब उन्हें दादा कहते हैं। हमारे दादा आज 81 वर्ष के हो चुके हैं, लेकिन उनके नवगीत आज भी बिल्कुल ताजगी भरे हैं।
     18 मार्च 2021 का दिन मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा। इस दिन मुरादाबाद के हिन्दू कॉलेज में हिन्दी परिषद की बैठक में विशेष अतिथि के रूप में दादा शामिल हुए थे। इस बैठक में हिन्दी परिषद के अध्यक्ष के रूप में मुझे दादा के करकमलों से सम्मानित होने और उन
     का उद्बोधन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उन दिनों कृषि कानूनों का विरोध भी आवेग पर था। दादा ने अपने उद्बोधन में कहा -"कि जब-जब सत्ता निरंकुश होगी, तब-तब ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना -'सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है' गूंजेगी। आज सरकारें अपने खिलाफ सुनना नहीं चाहती, पत्रकारिता का गला घोट दिया गया। उपनिवेशवाद से लेकर हम आज यहां तक आए हैं, इसमें ना जाने कितने लेखकों, पत्रकारों, कवियों और समाजसेवियों ने अपनी भूमिका निभाई , केवल इसलिए कि हमें ऐसी सरकारों की जरूरत थी !!
(बर्फ होकर
जी रहे हम तुम
मोम की जलती इमारत में
इस तरह
वातावरण कुहरिल
धूप होना
हो रहा मुश्किल
जूझने को
हम अकेले हैं
एक अंधे महाभारत में’
दादा का यह गीत आज के माहौल को बताने के लिए काफी है। )

अपने सम्बोधन में आगे दादा ने आगे कहा था- कविता, सत्ता की निरंकुशता का पर्दाफाश करती है, आपातकाल लगने पर जैसे दुष्यंत कुमार की गजलें मुंहजुबानी गायी जाती थी ,जरूरत पड़ने पर ऐसा दोहराया जा सकता है। दादा कहते हैं , कविता में कवित्व महाप्राण अंग है, जो उसकी नींव है। यदि कविता में कवित्व मर जाए, तो कवि को हम जिन्दा कह सकते हैं क्या ?? कदापि नहीं!!
हर आदमी हथियार लेकर युद्ध नही करता। युद्ध संसाधनों का नहीं, साहस का काम है। सच्चा रचनाकार कालजयी होता है, जो हमेशा-हमेशा के लिए अपने पाठको में जीवित रहता है। पाठक, किसी भी लेखक के स्तम्भ होते हैं समय की मांग है, कि लेखको को अपने पाठको से संवाद करना चाहिए, ताकि लेखन को आवश्यकतानुसार मोड़ा जा सके। लेखक समाज की वह नींव है, जिस पर इमारत खड़ी की जाती है। यदि भविष्य को सुधारने के लिए लेखक सख़्त हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत भविष्य को बिगाड़ नहीं सकती।
    कविता की भाषा के बारे में दादा ने कहा कि, कविता की भाषा केवल एक होती है वो है- संवेदना। कविता का मतलब केवल छंद होना नहीं है। हर वो लाइन कविता है जिसमें संवेदना शामिल होती है। जिस कवि में यह गुण विद्यमान है, उसके लिए कविता लेखन वरदान है।
      हमारे निवेदन पर उन्होंने अपना एक चर्चित गीत भी सुनाया था ---- 
एक तुम्हारा होना
         क्या से क्या कर देता है,
बेजुबान छत दीवारों को
         घर कर देता है ।

ख़ाली शब्दों में
         आता है
ऐसे अर्थ पिरोना
गीत बन गया-सा
         लगता है
घर का कोना-कोना

एक तुम्हारा होना
        सपनों को स्वर देता है ।

आरोहों-अवरोहों
         से
समझाने लगती हैं
तुमसे जुड़ कर
        चीज़ें भी
बतियाने लगती हैं

एक तुम्हारा होना
       अपनापन भर देता है ।

आज उनके जन्मदिन पर मुझे उनके कई गीतों का स्मरण हो रहा है ----
‘याद तुम्हारी जैसे कोई
कंचन-कलश भरे
जैसे कोई किरन अकेली
पर्वत पार करे
लौट रही गायों के संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के संग-संग मेरे
माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह उभरे
जैसे कोई हंस अकेला
आंगन में उतरे’

     हिन्दी के विख्यात गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र को उक्त गीत बहुत पसंद था, उन्होंने होशंगाबाद के एक कवि सम्मेलन में इस गीत की काफी प्रशंसा की थी ।
  उनका ये गीत आज की स्थितियों-परिस्थितियों की ओर संकेत करता है -----
आने वाले हैं
ऐसे दिन आने वाले हैं
जो आँसू पर भी
पहरे बैठाने वाले हैं
आकर आसपास भर देंगे
ऐसी चिल्लाहट
सुन न सकेंगे हम अपने ही
भीतर की आहट

शोर-शराबे ऐसा
दिल दहलाने वाले हैं’
-------------------
सोये हैं पेड़
कुहरे में
सोये हैं पेड़।

पत्ता-पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है

लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत-बहुत
         रोये हैं पेड़।

जंगल का घर छूटा,
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में

बेघर होकर जीते
सपनो में खोये हैं पेड़।


✍️  प्रत्यक्ष मिश्रा , गाँव बांसली, पोस्ट - पीपली कलां , थाना - रजबपुर , ब्लाक - गजरौला ,  जिला अमरोहा
ईमेल - prataykshmishra@gmail.com
फोन - +917351225572




मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- व्याख्या एक फ़िल्मी गाने की !!!!

 


किसी भी फ़िल्मी गाने की व्याख्या हमने कभी सही ढंग से नहीं की. एक तो इन गानों के पीछे बजते हुए पार्श्व संगीत ने हमेशा परेशान किये रखा कि जंगल में, जहां आजकल जंगली जानवर भी रहने से घबराते हैं, संगीतकार अपने तान-तमूरे लेकर कैसे पहुंच जाते हैं कि हीरो या हीरोइन के गाने में कोई कमी ना रह जाये ? कई गाने तो ऐसे होते हैं कि जिनको हीरो जो है, वो हीरोइन की शान में गाता है और कई ऐसे होते हैं, जिन्हें ग़म नाम की कोई बीमारी होने की वजह से वह गाने के लिए अपने घर से दूर जंगलों में जाकर गाना ही उन्हें मुनासिब समझता है. इन गानों में बेवफाई, मिलने आने का वादा करके भी ना आना, याद का लगातार आना और दुनिया के ज़ालिम होने जैसी सूचनाएं होती हैं. इन गानों को हीरो किसी भी सुनसान लगने वाली ऐसी जगह पर जाकर गा लेता है, जहां अभी तक प्लॉटिंग नहीं हुई है और किसानों की ज़मीनें मौज़ूद है.

    साठ और सत्तर के दशक की फिल्मों के गाने तो ऐसे होते हैं कि उन्हें जितनी बार सुनो, उतनी बार कई सारे सवाल खड़े हो जाते हैं. मसलन. एक गाना है, ” लो, आ गयी, उनकी याद, वो नहीं आये ? ” गाने में कोई कमी नहीं है, मगर हम इसे जब भी सुनते हैं, तो अफ़सोस होता है कि जिसे आना चाहिए था, कम्बख्त वह तो आया नहीं, याद पहले आ गयी. अब हीरोइन याद से कब तक काम चलाएगी ? हीरो या तो किसी लोकल ट्रेन से आने की वजह से अपने निर्धारित समय से कई घंटे लेट हो गया है या फिर उसकी याद में इसी किस्म का गाना गाने वाली कोई और मिल गयी है तो उसने सोचा होगा कि चलो, इसका गाना भी सुनते चलें. कुछ भी हो सकता है. आना-जाना किसी के हाथ में है कि गाना गाकर याद किया तो हाज़िर ?

    ” लो, आ गयी उनकी याद…..” गाना अपने शबाब पर है. संगीतकार सारे साथ चल रहे हैं कि पता नहीं कौन सा सुर बदलना पड़ जाये ? गाने वाली गाये जा रही है, ” लौ थरथरा रही है, अब शम्मे-ज़िन्दगी की, उजड़ी हुई मोहब्बत, मेहमाँ है दो घड़ी की……. ” शम्मे-ज़िन्दगी की यानि वह ज़िन्दगी, जिसकी पोज़ीशन अब शम्मां की तरह की हो गयी है, उसकी लौ जो है, वह थरथरा रही है और वो जिसके एवज़ में सिर्फ़ याद ही हमेशा आ पाती है, अभी तक नहीं आ पाया है, इसलिए गाना संगीतकारों सहित अपने अगले पड़ाव पर पहुंच जाता है. जंगली जानवरों से भरे सुनसान जंगल में हीरोइन इतना नहीं थरथरा रही, जितनी उसकी ज़िन्दगी की शम्मां की लौ थरथरा रही है. आज उसके ना आ पाने की वजह से उसकी मोहब्बत बेमौसम बरसात में हुई बारिश की वजह से उजड़ी फसल की तरह उजड़ गयी है और अब सिर्फ़ दो मिनट में गाना ख़त्म होने तक की ही मेहमाँ है, उसके बाद वह अपने घर और यह अपने घर, मगर वह जो कम्बख्त हीरो है, वह अभी तक नहीं आ पाया है.

    यही नहीं, कई गाने ऐसे हैं, जिनको हम जब भी गुनगुनाते हैं तो कई किस्म के कई सवाल आ खड़े होते हैं हमारे सामने और हम उनकी व्याख्या अपने ढंग से कर डालते हैं. एक सवाल और था जो बचपन से हमारे ज़हन में कौंधता रहा है कि फिल्मों में गाने गाकर ही अपनी बात कहने की कौन सी तुक है और जब गाने गाये ही जा रहे हैं तो संगीतकार उनके साथ क्यों चल रहे होते हैं ? वे अपने गाने गायें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं, मगर उनमें इस किस्म की बातें तो ना कहें कि ” उजड़ी हुई मुहब्बत मेहमाँ है दो घड़ी की…..” एक बार अगर महबूब नहीं आ पाया तो मुहब्बत उजड़ गयी ? आज अगर कोई महबूब ना आ पाए तो अपनी मुहब्बत को उजड़ने से बचाने के लिए महबूबा फ़ौरन किसी दूसरे महबूब को मोबाइल करके बुला लेगी. पहले ऐसी बात नहीं थी. लानत है उस ज़माने की मुहब्बत पर.

     ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---जुल्मों से भी आँख मिलाकर नहीं आँख है मींची। संस्कृतियों के गले न काटे मुरझी थिरकन सींची।।


माल नहीं हम औने-पौने

लगी-उठाई फड़ के।

पेड़ पुरातन सभ्य समाजी

नस्से देखो जड़ के।।


इन साँसों में बसी न हिंसा

मुनिजन इनमें रहते।

धड़कन और शिराओं में बस

वेद-मंत्र ही बहते।।

पावन शब्द-दूत ही भेजे

जब भी दुश्मन कड़के।


रौंदी नहीं सभ्यता कोई

सदा उद्धरण बोये।

जब-जब भी मानवता सिसकी

परवत हमने ढोये।।

आहत धड़कन कहीं मिली तो

हम भी भीतर फड़के।


जुल्मों से भी आँख मिलाकर

नहीं आँख है मींची।

संस्कृतियों के गले न काटे

मुरझी थिरकन सींची।।

बीन-बान कर सदा पिरोये

मोती बिखरी लड़ के।


कभी व्यवस्था करी न बंधक

कभी न उल्लू साधे।

लोकतंत्र की निर्मलता के

बने नहीं हम बाधे।।

छाया देते सड़ी तपन को

ठहरे वंशज बड़ के।


✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, झ-28, नवीन नगर

कांठ रोड, मुरादाबाद,पिनकोड: 244001

मोबाइल: 9319086769

ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com

बुधवार, 21 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचीन्द्र भटनागर के नवगीत संग्रह 'त्रिवर्णी' की अशोक विद्रोही द्वारा की गई समीक्षा --- मन मोह लेने वाली अनमोल धरोहर है त्रिवर्णी

 त्रिवर्णी, शचींद्र भटनागर जी द्वारा रचित अनमोल कृति है। प्रस्तुत पुस्तक में 1960 से 1970 के मध्य लिखी गई पुस्तक "खंड खंड चांदनी से 18 गीत,उसके बाद 1970 से 1995 के मध्य लिखी गई पुस्तक" हिरना लौट चलें " से 20 गीत "ढाई अक्षर प्रेम के" से 16 गीत संकलित हैं सभी नवगीतों में अंतर्मन की जीवन अनुभूतियों का बहुत ही सुंदर चित्रण है रचनाएं छंदबद्ध है काव्य सौंदर्य की अनुभूति प्रत्येक गीत से फूटती प्रतीत होती है। जीवन संघर्ष एवं जिजीविषा के आत्मसात प्रतिबिंब ,मिथक, संकेत स्पष्ट होते हैं । सामाजिक विद्रूपताओं विसंगतियों का पर्दाफाश करती हुई मन: स्थितियों को गीतों में पिरोया गया है जिन तीन पुस्तकों से गीत संकलित किए गए हैं ,खंड खंड चांदनी, ,हिरना लौट चलें, और ,ढाई आखर प्रेम के, वह एक लंबे कालखंड में बदलती परिस्थितियों का समय रहा है जिसको बड़े ही सुंदर ढंग से कवि ने  उत्कृष्ट शब्द चयन लेखन में प्रस्तुत किया है

खंड खंड चांदनी से उद्धरित जनसंख्या नियंत्रण को दर्शाता गीत देखिए 

आओ हम रोपें दो पौधे फुलवारी में 

इतने ही काफी हैं 

छोटी सी क्यारी में 

हर पौधे की अपने सपनों की बस्ती हो अपनी कुछ धरती हो

 अपनी कुछ हस्ती हो 

हर पौधे के द्वारे गर्वीली गंध रुके 

बासंती यानों पर उड़ता आनंद रुके 

भटनागर जी ने  जनसंख्या विस्फोट पर  इसी गीत के उत्तरार्ध  में लिखा है --

भीड़ भरी बस्ती में लूट हुआ करती है

 सब कुछ कर सकने की 

छूट हुआ करती है

कोई व्यक्तित्व वहां उभर नहीं पाता है 

संवर नहीं पाता है 

उभर नहीं पाता है

 धूप नहीं मिलती है ,वायु नहीं मिलती है उपवन के उपवन को आयु नहीं मिलती है सारे पौधे 

सूखे सूखे रह जाते हैं

 प्यासे रह जाते हैं 

भूखे रह जाते हैं

जो बदलाव समाज में होते हैं उनको परिलक्षित  करते हुए वह लिखते है -----

हर दिशा से

आज कुछ ऐसी हवाएं चल रही है 

आदमी का आचरण बदला हुआ है 

इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर 

बात मन से

 मन नहीं करता यहां पर

हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है 

कि जिसको देखकर

सागर स्वयं डरता यहां पर 

कल्पना विध्वंस की करता यहां पर

दिन ठहर गया  गीत में वह कहते हैं---

अभी-अभी इमली के पीछे 

दिन ठहर गया 

रोक दिया वाक्य 

जो विराम ने

 पत्तों के पीछे से 

झांक लिया लंगड़ाते धाम ने

जैसे मुड़कर देखा हो 

सजल प्रणाम ने

लंबाए पेड़ 

पात शाखाएं

 छायाएं दिशा दिशा नापतीं

एक सलेटी साड़ी पर


एक और गीत देखिए ------

अंधकार उतरा

पिघल गया सूर्यमुखी रूप 

बिल्लोरी जल में 

एक लहर सोना मढी

एक लहर मूंगे जड़ी 

एक लहर मोथरी छुरी 

जैसे हो सान पर चढ़ी 

शाम के लुहार ने 

तपा हुआ लोहखंड 

अग्नि से निकाला

पल भर में बुझा हुआ दिवस पड़ा काला

कितना सुंदर प्रकृति चित्रण इस गीत में किया है 

मनोभावों को गीत  में उतारते हुए वह लिखते हैं-----

 पूस की रात

कांप रही कोने में रात पूस की 

धवलाई किरणों को 

कुतर गई सांझ

 गोधूली ओढ़

 मौन पीछे दीवार सिटी सीढ़ी से 

उतर गई सांझ 

और किसी वृद्धा सी दुबक गई 

डरी डरी 

रीढ़ झुकी कटिया भी पूस की 

कांप रही कोने में रात पूस की


कवि जो देखता है उसके मन की व्यथा गीतों में अनायास ही फूट पड़ती है ----

मेरा दर्द कि मैं न गांव ही रह पाया 

न शहर बन पाया 

लुप्त हुई

कालीनों जैसी

खेत खेत फैली हरियाली

बीच-बीच में पगडंडी की शोभा वह

मन हरने वाली

अब न फूलती सरसों 

डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं

तन मन की जो थकन मिटा दे 

वह शीतल से ठौर नहीं हैं

सबको छांह बांटने वाला 

मैं न सघन पाकर बन पाया

और गांव से शहर की ओर होने वाले पहले पलायन पर कवि ने लिखा

गांव सारा चल दिया 

जाने किधर 

हम निमंत्रण को तरसते रह गए

रुक गई वे दुध मुंही किलकारियां 

मौन भाषा चिट्ठियों की खो गई

थम गईं

रिमझिम फुहारें सांवनी 

गंध सोंधी मिट्टियों की खो गई

 --------------------------

कल तक जलजात जहां गंध थे बिखेरते

उग  आया वहीं पर 

सिवारों का जंगल 

इस कदर अंधेरा है 

विष भरी हवाएं हैं 

पार पहुंच पाना भी लगता है मुश्किल 

हम इतनी दूर 

चले आए हैं बिन सोचे 

आज लौट जाना भी लगता है मुश्किल 

सोचा था पाएंगे हम बयार चंदनी 

किंतु मिला कृत्रिम 

व्यवहारों का जंगल

संवेदनशील देखिएगा.... कवि कहता है-

औरों के क्रूर आचरण

कई बार कर लिए सहन 

अपनों का अनजानापन 

मीत सहा नहीं जाता 

सूरज को 

छूने की होड़ लिए वृक्षों से 

 कहीं नहीं मिलतीं 

मनचाही छायाऐं 

ऊंचे उठने की लघु ललक लिए बिटपों की 

बौनी रह जाती हैं 

अनगिनत भुजाएं

एक गीत और देखिएगा-

गंध का छोर मिलेगा

 हिरना लौट चलें 

अभिनंदन करती 

आवाजों के शोर बीच 

भाव मुखर एक भी नहीं 

सभी यंत्र चालित हैं 

बोलते खिलौने हैं

जीवित स्वर ही एक भी नहीं 

इन ऊंचे शिखरों पर 

बहुत याद आता है 

बादल बन बन बगियों में घिरना 

लौट चलें

अंत में कुछ गीत "ढाई आखर प्रेम के" से देखिएगा--

एक आकर्षण 

अगरु की गंध में 

भीगे नहाए क्षण

 मलय की छांव छूकर

लौट आए प्रण 

फिर भी मौन हूं मै

वह तरल निर्वाधिनी गति 

रुक गई 

एक ऊंचाई 

थरा तक झुक गई 

और मेरी दृष्टि 

हो आई गगन के पार 

गंधिल निर्जनो में 

विमल चंदन वनों में

एक आकर्षण 

अतल गहराइयों तक 

डूब आया मन 

खिंचावों में घिरा 

मेरा अकेलापन

फिर भी मौन हूं मैं

और देखिए कवि की संवेदना----

कोलाहल जाग गया 

सांसों के गांव में 

निमिष निमिष भीग गया 

रसभीने भाव में 

ऊंघ रहा है इस क्षण

उनमन सा एक सुमन एक कली जागी 

ऐसी कुछ बात हुई 

बनकर ज्यों छुईमुई

सोई है एक डगर एक गली जागी

अंत में एक गीत और --

जाने फिर मिले 

या न मिले खुला गगन कहीं 

यह नीला नीला आकाश सरल मन सा

आओ कुछ देर यहां बैठे हम ठहरें

     यदि शचीन्द्र भटनागर जी को, उनकी संवेदनाओं को जानना है तो यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए।



कृति : त्रिवर्णी (नवगीत संग्रह)

रचनाकार  : शचीन्द्र भटनागर

प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत

संस्करण  :  प्रथम 2015

मूल्य : ₹300 


समीक्षक
: अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर,  मुरादाबाद, 8218825541 



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रेम प्रकाश बंसल की काव्य कृति 'ऋतुराज के बहाने' के अंश । उनकी यह कृति अन्नपूर्णा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा 6 फरवरी 2003 को प्रकाशित हुई थी । इसकी भूमिका लिखी है यशभारती माहेश्वर तिवारी ने .....







::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


 

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता की कविता---बुढ़ापे को नजदीक आने न दें , जवानी आसानी से जाने न दें


थोड़ी शोख़ियाँ 

थोड़ी मस्तियाँ 

थोड़ी तालियाँ 

थोड़ी गालियाँ 

थोड़ी शरारतें

थोड़ी शिकायतें 

थोड़ी अदावतें 

थोड़ी हरारतें 

बुढ़ापे को नजदीक आने न दें 

जवानी आसानी से जाने न दें 

सोलह शृंगार

नए से विचार 

थोड़ा नक़द 

थोड़ा उधार 

थोड़ा क़ायदा 

थोड़ा फ़ायदा 

थोड़ा वायदा

फैला रायता 

बुढ़ापे को हरदम कहें अलविदा 

जवानी की मस्ती रहेगी सदा 

थोड़ी आशिक़ी 

थोड़ी बेवफ़ाई 

थोड़ी दिलजोई

थोड़ी लड़ाई 

कभी घूमना 

कभी तान सोना 

कभी गपबाज़ी

कभी आँखें भिगोना 

करो ग़र बुढ़ापा फटकेगा नहीं 

सफ़र खूबसूरत अटकेगा नहीं 

कभी पेग अंग्रेज़ी 

कभी मीठी लस्सी 

कभी मस्त चखना 

कभी दारू कच्ची 

कभी खुल ठहाके 

कभी थोड़ी तन्हाई 

कभी महफ़िलें 

कभी प्रिय से जुदाई 

नकारात्मक सोच कभी आने न दें

दिल अपना किसी को दुखाने न दें 

कभी जंगलों में 

तो सागर किनारे 

कभी दोस्तों में 

कभी अपने सहारे 

कभी दोस्ती भी 

कभी दुश्मनी भी 

कभी आशनाई 

कभी दिल्लगी भी 

यह जज़्बा कभी कम होने न दें 

बुढ़ापे को हावी होने न दें

✍️ प्रदीप गुप्ता                                                    B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के दो गीत - 'रूप तुम्हारा कोमल-कोमल' और 'दुनियाभर का खेल-तमाशा'

 


1- रूप तुम्हारा कोमल-कोमल


            रूप तुम्हारा कोमल-कोमल, 

            प्रीत तुम्हारी निर्मल-निर्मल

            अधरों पर मुस्कान मनोरम, 

            लगती है पावन गंगाजल


पुलकित कर देता है मुझको, 

संग तुम्हारे बातें करना 

शब्दों में ढलकर वाणी से, 

बहता है फूलों का झरना 

            सारी सृष्टि तुम्हारी ही छवि 

            और तुम्हारी ही अनुगामी 

             तुम पुरवाई-सी सुखदायी, 

             वर्षा की बूँदों-सी चंचल


अपना भाग्य सराहे पल-पल, 

उर-आँगन का कोना-कोना 

लगता है जग-भर पर तुमने, 

कर डाला है जादू टोना 

            तुम आकर्षण की मूरत हो, 

            तुम देवी हो सम्मोहन की

             सागर-सी भी मर्यादित हो, 

             नदिया-सी भी हो उच्छृंखल


भावों ने सीखा है तुमसे, 

उत्सुक होकर पेंग बढ़ाना 

चिंतन के उन्मुक्त गगन में, 

इंद्रधनुष बनकर मुस्काना

            मगर तुम्हारे स्वप्न हठीले, 

            यूँ भी करते हैं बरजोरी 

            खटकाते रहते हैं अक्सर, 

            मन के दरवाज़े की साँकल


2  - दुनियाभर का खेल-तमाशा 


             दर्शक बनकर देख रहा हूँ 

             दुनियाभर का खेल-तमाशा 

             आस कहीं पाई चुटकीभर 

             और कहीं पर घोर निराशा 


जिस क्षण मुश्किल हो जाता है 

अपनों से सम्मान बचाना 

मन को बोझिल कर देता है 

संबंधों का ताना-बाना 

               कैसे आख़िर पहचानूँ मैं 

               चेहरों से ऐसे लोगों को 

               भेष बदलकर हो जाते जो 

                पल में तोला, पल में माशा 


सब चेहरों पर सजे मुखौटे 

सबने चढ़ा रखे दस्ताने 

भ्रम का ओवरकोट पहनकर 

बरबस लगते हाथ मिलाने 

                भाषा की मर्यादा तजकर

                अनुशासन का पाठ पढ़ाते

                बोली में विष घोल रहे हैं 

                रख दाँतों के बीच बताशा 


सज्जनता का करें प्रदर्शन 

साधारण क्या, नामचीन भी 

किंतु निकलते हैं भीतर से

निपट खोखले, सारहीन भी 

                 शिष्टाचार छपा है इनके 

                 रँगे-पुते चेहरों पर, लेकिन-

                 गाढ़े मेकप के पीछे से

                  झाँक रही है घनी हताशा


✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'

सी-130, हिमगिरि कालोनी

कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.

मोबाइल नंबर  99273 76877