दादू नहीं रहे। दादू मतलब माहेश्वर तिवारी। आत्मीयता के अमलतास, हार्दिकता के हरसिंगार और नवगीतों के गुलमोहर। मिलते तो मिल कर रह जाते। अपनी-अपनी राह लेते तो उनका व्यवहार साथ-साथ सफ़र करता। ऐसा लगता कि उनके उत्ताल अट्टहासों का वेताल आपको विक्रमादित्य बना रहा है। कितने ही आयोजनों में हम सहभागी हुए। वे समकालीन साहित्य की सबसे वरिष्ठ 'साहित्यिक पीढ़ी' के प्रतिनिधि थे और मैं सबसे कनिष्ठ पीढ़ी से, परन्तु उनका व्यवहार आपको अहसासे कमतरी का शिकार होने से सुरक्षित रखता था जबकि कितने ही कंकड़ों को स्वयं को सुमेरु साबित करने में हर समय और हर तरह लगे पायेंगे। कबाड़ियों के स्वयंभूय युगावतार घोषित होने के युग में वे सहज श्रद्धास्पद, सुखद संयोग और सरल स्वर थे। साहित्य में सहज रुचि और कवि सम्मेलनों में रहते हुए इतना जाना कि उनके जैसे स्वरों का बना रहना ज़रूरी है अन्यथा एक दिन स्टेज के टोटकों, टुच्चे टाइप चुटकुलों और दमित इच्छाकुओं के ठनठनाते ठुमकों को ही हम एक दिन कविता मान बैठेंगे। छान्दस् विरोधी लॉबी में खड़े होकर भी उनका अछान्दस् की अपेक्षा छान्दस् बने रहना एक अलग ही नॉस्टैल्जिक अनुभव है। उनके बारे में थोड़ा-बहुत जानता तो पहले ही से था पूज्य गुरुदेव प्रोफ़ेसर भगवानशरण भारद्वाज के माध्यम से, किन्तु भेंट हुई पीजी की ज़रूरी पढ़ाई पूरी कर लेने के पश्चात।
पहली बार सितम्बर २००५ में उन्हें रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में मिला, देखा, सुना और सुनते ही वे याद हो गये –
मेरे भीतर एक अभङ्ग जगाता है कोई
बतियाता है हल्के सुर में
उठती जैसे ध्वनि नूपुर में
अङ्ग-अङ्ग में बैठा जैसे गाता है कोई
अब नादों का घर हूँ केवल
लगता स्वर ही स्वर हूँ केवल
स्वर के कपड़े लाकर मुझे पिन्हाता है कोई।
तक़रीबन इतना और ऐसा ही रचते थे वे। सुनाने की स्टाइल उनकी कभी न बदली। जैसा और जितना मैंने जाना। सारी बह्रें, सारी रचनाएँ वे एक ही तरह, एक ही धुन, एक ही अदा में गा लेते थे। उनका वाचन और गायन लगभग एक जैसा था। कथित क्रान्तिकारियों की जमात में इतना अहिंस्र और ऐसा सेक्यूलर सर्जक शायद ही कोई हुआ हो। लिखते तो इतना नपा-तुला कि तुला को तोलना-टटोलना पड़ता। स्वच्छन्दतावादियों के बीच वे एक चैलेञ्ज थे। उनका व्यक्तिगत व्यवहार भी छान्दस था। यह मैं अब भी कह रहा हूँ और तब भी कह सकता था, जब मैं पहली बार उनसे मिला था। तब मैं अपने शोधकार्य के सिलसिले में कविसम्मेलन देखना चाहता था क्योंकि जो सिनॉप्सिस राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा के सम्बन्ध में मैंने अभ्यर्पण हेतु तैयार की थी, उसमें एक अध्याय था ही यही – मञ्च और हिन्दी सिनेमा। रामपुर भी इसीलिये गया था डॉ. ब्रजेन्द्र अवस्थी के साथ।
२००८-०९ की बात होगी। हमारे विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम समिति की प्रमुख थीं मञ्जरीजी – डॉ. मञ्जरी त्रिपाठी। बात आयी तो मैंने तमाम विधाओं के साथ नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल की बात रखी। शास्त्रीय चाल के कुछ पुराने लोगों में ऐसी विधाओं के प्रति प्रतीति तब तक क्या, अब तक भी कम ही है और फिर उनके सामने कल का छोकरा था, पर मेरे नैष्ठिक और तार्किक अनुरोध को उन्होंने समझा। उन्होंने कहा – कैसे होगा सामग्री का काम, तो मैंने कहा कि रुहेलखण्ड में ही ऐसे लोगों की कमी नहीं और इस तरह नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल के लिये रुहेलखण्ड एक तरह पैरामीटर हो गया और उस समय जिन चार लोगों की रचनाएँ तुरन्त हाथ से लिखकर पेश कीं, वे नाम थे – डॉ.माहेश्वर तिवारी, डॉ. कुँअर बेचैन, दुष्यन्त कुमार और उर्मिलेश। "मेरे भीतर एक अभङ्ग जगाता है कोई" रचना चयन हेतु प्रस्तुत उन रचनाओं में से एक थी। बाद में पाठ्यक्रम जब राजकमल से छप कर आया तो उनमें किसी की कृपा से नीरजजी का नाम भी था। यद्यपि पैरामीटर रुहेलखण्ड का तय था। एनईपी २०२० के पाठ्यक्रम प्रस्ताव में भी माहेश्वरजी का नाम था, जैसा मेरे संज्ञान में है। बाद में वह हुआ, नहीं हुआ, नहीं पता!
संस्मरणों के ज़खीरे थे वे – कभी भवानी दादा से शुरू होते तो कभी धर्मवीर भारती से, पर वे प्रायः असमाप्त होते थे। उनके समाहार का समय कभी न आया। अवाक् कर देने वाले और स्वयमेव बोल उठने वाले कितने ही अनसुने, अप्रत्याशित और अनसेंसर्ड संस्मरण उनसे सुनकर लिपिबद्ध किये जा सकते थे पर ईश्वर ने उतना और वैसा अवसर ही न दिया। हम अक्सर आकाशवाणी रामपुर में मिलते और तक़रीबन हर बार वही सीन क्रिएट होता – वे प्रोग्राम हेड या डायरेक्टर की टेबल के सामने संस्मरणों के आख्यान में समाधिस्थ होते और सब रह-रह कर हहा रहे होते। बीच-बीच में आने-जाने वाले लोग भी मौक़ा ए वारदात का रसाभास करते। उनका वारिष्ठ्य और उनका अपनत्व उन्हें अतिथिकक्ष से ऊपर उठा चुका था। उनके साथ आण्टी आतीं तो पूरी-पराठों के साथ चार तरह के अचार के चटखारे भी सभी में लगते। किसी गोपनीय कार्य के सिलसिले में हम एक समय जल्दी-जल्दी और कई-कई दिन साथ रहे। मैं उनसे दस तरह चुहलता या उनके अति मनभाये में से कुछ नॉटी टाइप पूछता तो आण्टी से कहते – तुम्हारा ये लड़का बड़ी रोचक दुष्टता करता है और फिर ख़ुद सब सुनाने लगते। आण्टी कहतीं कि कौन कम हो आप ही! तो टच्च से साइड ले कर उँगलियों में चिरपिराती पुड़िया से मसाला मुँह में डालने लगते। वार्तालाप में सामने वाले के बोलते वक़्त उनका टपकता निरीह कौतूहल भाँपने का विषय था। ख़ुद बोलते तो इतना सौम्य और सादा कि कोई अनुमान न पाये कि कब उनका ठहाका उनके कहे का राज़फ़ाश करने वाला है।
जानबूझकर ख़ूब लड़कपन करता था उनसे। बड़ा रस आता था। बड़ों के सामने स्वयं को बच्चा बनाये रखना चाहिए। वे होते तो मञ्च चलाते और आनन्द आता था। पहले झिझकता था थोड़ा पर फिर खुलता चला गया और वे भी इसलिये तैयार रहते थे कि अब बिखेरेगा ये रायता। हिन्दी ग़ज़ल वाले मनोजजी आर्य के कई कार्यक्रमों की ऐसी स्मृति है। ऐसे लोग संयोजन में उनकी प्राथमिकता रहते थे। वे ऐसे नहीं रहे, जिसमें केवल लिक्खाड़ों को ही मुख्यधारा का माना जाता है। उनका महत्त्व दोनों जगह रहा। दादू मञ्च पर होते तो नये रँगरूट की तरह सबमें रमते। पन्तजी जैसे केश और पैण्ट कुर्ते के साथ राजेश खन्ना वाले वेश में वे जब पानमसाला से शोभित अपने असमय पोपले मुख से मुस्कुराते या ठहाके लगाते तो वात्सल्य लुटाते लगते। अक्तूबर या नवम्बर २०१२ में जब रामपुर में आकाशवाणी के आमन्त्रित श्रोताओं के समक्ष आयोजन में किशन सरोजजी से न जाने किस झोंक में कुछ अशोभन-असहज हो गया और उनका निशाना सञ्चालक के नाते मैं बना, तब मेरी कसमसाती उग्रता और मनःस्थिति लखकर कितनी तरह और कई दिनों तक उन्होंने जितना समझाया, उससे उनके अभिभावकीय व्यक्तित्त्व की अनुभूति आज तक ऐसे अवसरों पर उनकी तरह होने की प्रेरणा देती है। उनकी सुनायी वे कहानियाँ कितनी रोचक थीं, जिन्होंने मुझे साधा।
मैं किसी भी पद्य, पद या गद्य को उनके ढङ्ग में गा लेता था और सबको सुनाकर मौज करता था। वे ख़ुद मज़े लेते थे। उनके एक गीत को लेकर मैं ख़ूब चुहल करता था और वे हर बार ठक्क से ठहाक उठते थे। उनका एक गीत है –
एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है
बेज़ुबान छत-दीवारों को घर कर देता है
ख़ाली शब्दों में आता है ऐसे अर्थ पिरोना
गीत बन गया-सा लगता है घर का कोना-कोना
एक तुम्हारा होना सपनों को स्वर देता है
आरोहों - अवरोहों से समझाने लगती हैं
तुमसे जुड़ कर चीज़ें भी बतियाने लगती हैं
एक तुम्हारा होना अपनापन भर देता है।
इसे वे हर बार अतिरिक्त सौम्यता, मधुरता और सरलता के साथ गुनगुनाते-गाते और रसार्द्र होते हुए सुनाते थे। मैं जब इसे धमकाने वाले अन्दाज़ और रौद्र रस में सुनाता तो वे ऐसी मुद्रा बनाते मानो सहम गये हों और फिर रसभीनी मुखमुद्रा के साथ अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में मस्त तरीक़े से मधुर-मधुर अट्टहासते। बेज़ुबान छत-दीवारों वाले अपने ऐसे दादू व्यक्तित्त्व से विगत बार २०२२ के अगस्त में मुरादाबाद में मिला था, जब जश्नेज़ुबाँ का आयोजन अनुज अभिनव अभिन्न ने रखा था और उसके ठीक अगले दिन किसी कॉलेज में अकस्मात अनायास भेंट हो गयी थी। तबसे अनेक बार इच्छा हुई उनसे मिलने की। मुरादाबाद से निकला भी, लेकिन समय ही न निकला और ऐसा न निकला कि अब निकले भी तो न निकलूँ। अस्तु, अलविदा दादू! अगर आपकी वैचारिकी में कहीं स्वर्ग का अस्तित्त्व है तो जाइए, ज़रा वहाँ के लोगों को भी बेहद गम्भीर अन्दाज़ में बात करके ठक्क से ठहाके लगाना सिखाइए।