यह जेठ की एक भरी दोपहरी थी ---इतवार का एक अलसाया दिन ---मैं गहरी नींद में सोया था।
"राजीव जी, राजीव जी ...."
अचानक डोरबेल जोर से घनघना उठी।
मेरी निद्रा भंग हो गयी।
मैंने उठकर दरवाजा खोला।द्वार पर मेरे पड़ोसी और नगर के प्रसिद्ध बालसाहित्यकार शिव अवतार सरस जी खड़े थे।
"क्या कर रहे हैं?" शिव अवतार जी ने सवाल दागा।
"कुछ नहीं,सो रहा था ..."
"आइए, आज आपको बालसाहित्य की एक हस्ती से मिलवाता हूँ ..." सरस जी ने कुछ पहेली बुझाने वाले अंदाज में कहा।
"बालसाहित्य की हस्ती ?
"हाँ, बाल साहित्य की हस्ती! जल्दी चलिए... वे आपका इंतज़ार कर रहे हैं।"
मैं बिना चूं -चपड़ किये झटपट कपड़े बदलकर सरस जी के साथ हो लिया।
जब भी कोई साहित्यकार सरस जी के घर आते वे उनसे मेरी मुलाकात अवश्य कराते थे। पहले भी वे कई साहित्यकारों से मिलवा चुके थे।
बैठक में एक ऊँचे -लम्बे दृढ़काय और भव्य व्यक्तित्व वाले वृद्ध सोफे पर विराजमान थे।मैंने उनके ऊपर दृष्टिपात किया।
"दादा ,ये हैं राजीव सक्सेना --बच्चों के लिए कथाएं और विज्ञान लिखते हैं।बहुत छपते हैं ...." सरस जी ने कहा ।फिर दिग्गज जी की ओर संकेत करते हुए कहा --"आप हैं शहर के नामचीन कवि --दिग्गज मुरादाबादी जी ...."
"अरे मैं राजीव जी के बारे में अच्छी तरह से जानता हूँ,इनकी रचनाएं आजकल खूब छप रही हैं।शहर में इनकी बड़ी चर्चा है। मैं दिग्गज मुरादाबादी ..'
यह कहकर दिग्गज जी ने मुझे गले लगा लिया।
"हाँ, दादा !मैंने भी आपका नाम खूब सुना है।आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी जो आज पूरी हो गयी...." मैंने कहा।
सरस जी कुछ क्षणों के लिए अंदर चले गए। दिग्गज जी बोले --"राजीव जी,आजकल क्या लिख रहे हैं ? कुछ सुनाइये... कोई बाल कविता ?"
"दादा!मैं बालकविताएँ नहीं लिखता ।हाँ, किशोरावस्था में कुछ लिखी थीं, कुछ छपी भी हैं बड़ी पत्रिकाओं में,कुछ अमरउजाला में सेवक जी के साथ ..."
"हाँ-हाँ ,वही सुनाइये ..."
मैंने दिग्गज जी के आग्रह पर अपनी एक दो बाल -कविताएं उन्हें सुनाईं।
सुनकर दिग्गज जी बोले --"बढिया हैं,मजेदार भी और बालमनोभावों के अनुरूप भी।बस , कुछ छंद दोष है...."
"हाँ, दादा! दरअसल,ये कविताएं मैंने किशोरावस्था में रची थीं।तब छंद का ज्ञान मुझे नहीं था।अब मैं गद्य लिखता हूँ।"
फिर मैंने उनसे अपनी बालकविताएँ सुनाने का आग्रह किया।
बस, फिर क्या था !
जैसे मैंने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया या फिर किसी असाध्य वीणा के तार को छूकर साहस झंकृत कर दिया।
"तो सुनिए...."
एक के बाद एक बालकविताओं का पाठ शुरू हो गया।उन्होंने अपनी प्रसिद्ध बालकविता --'सर्कस' और 'दीवाली' सहित अनेक कविताओं का पाठ एक सांस में कर डाला।एक के बाद एक कविता।दिग्गज जी रौ में बहते हुए कविता पाठ कर रहे थे और में कुछ स्तब्ध और ठगा -सा या कहूँ कि सम्मोहित -से उनका काव्य पाठ सुन रहा था।
जल्दी ही एक 'ट्रांस 'मेरे ऊपर हावी होने लगी।समय कुछ क्षणों के लिए जैसे ठहर गया।एक पल के लिए तो मुझे लगा कि शायद महाप्राण कवि निराला की आत्मा न सही तो उनकी छाया अवश्य दिग्गज जी के चेहरे पर आ विराजी है।कविता पाठ करते हुए उनका चेहरा एक अनोखी आभा से उद्दीप्त हो उठा था।
मेरे लिए दिग्गज जी को सुनना सचमुच एक आह्लादकारी अनुभव था,एक कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव।
दिग्गज जी का कविता पाठ समाप्त हुआ। हम जैसे किसी आभासी दुनिया से निकलकर वापस अपनी दुनिया में आये।
दिग्गज जी ने केवल बालकविताएँ ही नहीं बल्कि अपने चुनिंदा गीत भी सुनाए--सब एक से बढ़कर एक,कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेमिसाल।सचमुच दिग्गज जी एक सच्चे कवि थे,कृत्रिमता या आडंबर से बिल्कुल दूर।अंदर बाहर से बिल्कुल एक।
कविता पाठ समाप्त हुआ तो उन्होंने पूछा --"कहिए,राजीव जी!कैसी लगीं मेरी कविताएं?"
"दादा,शब्द नहीं मिल रहे हैं मुझे यह बताने के लिये।"
फिर तो मेरे उनके बीच खूब साहित्यिक चर्चा हुई,विशेषकर नगर के कुछ कथित गीतकारों के बारे में और नगर के साहित्यिक परिदृश्य पर भी।
यह दिग्गज जी से मेरा पहला साक्षात्कार था -उनके कवि से पहला परिचय जिसका श्रेय निश्चित ही सरस जी को जाता है।
मेरी और दिग्गज जी की तरंग -दै धर्य मिल गई।मेरी और उनकी सोच और चिंताएं बालसाहित्य को लेकर समान थीं।
फिर तो दिग्गज जी से अनगिनत बार मिलना हुआ।जल्दी ही वे मेरे परिवार के सदस्य बन गए --बिल्कुल अपने और घर के बुजुर्ग जैसे।मेरे घर में उनका सम्मान मेरे पिता से भी ज्यादा था और मेरी जीवन संगिनी सुनीता राजीव उन्हें अपने ससुर यानी मेरे पिता से भी ज्यादा सम्मान देती थीं जबकि पुत्र ईशान भी उनसे खूब बतियाता था।ईशान के आग्रह पर उन्होंने न केवल कई बालकविताएँ रची थीं बल्कि बहुधा वह उनकी नई बालकविताओं का प्रथम श्रोता भी होता था।अगर रोजाना न सही तो प्रत्येक इतवार को उनका आगमन मेरे घर होता था।वे हमारे लिए एक ऐसे अतिथि थे जिनके आगमन की बड़ी उत्कंठा से प्रतीक्षा रहती थी और मेरा परिवार सदैव उनके स्वागत को तत्पर रहता था --दिग्गज जी का व्यक्तित्व था ही कुछ ऐसा -विराट किन्तु स्नेहिल और निरभिमानी।
दिग्गज जी से बालसाहित्य के विभिन्न पहलुओं को लेकर बड़ी घनघोर और विचारोत्तेजक चर्चाएं होती थीं जिसमें हम दोनों ही नहीं बल्कि कभी -कभी मेरा परिवार यानी मेरी पत्नी पुत्र भी सक्रिय रूप से भाग लेते थे।जिससे बालसाहित्य के प्रति हमारी 'आइडियोलॉजी'और दृष्टि का भी विस्तार हुआ और अपनी रचनाधर्मिता को नई धार या नए तेवर देने में सहायता मिली।
तो यह थी दिग्गज जी से मेरी पहली मुलाकात जो सदैव के लिए मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी।
यूं दिग्गज जी से जुड़ी ढेरों यादें हैं जो मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं-जिन्हें मैं पटल पर गाहे -बगाहे साझा करता रहूँगा।
एक तुम ही तो वाणासुर हो....
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एक रविवार --मैं घर में कुछ अनमना और उदास बैठा था।
"ईशान.....!"
तभी घर के दरवाजे पर दिग्गज जी की धीमी आवाज सुनाई पड़ी।
आवाज पहचानते ही मेरी सारी उदासी एकदम उड़न -छू हो गयी।दिग्गज जी का सान्निध्य मिलने और उनसे बतियाने की बात सोचते ही मैं एक अनोखे उत्साह से भर उठा।
देर तक गप्पबाज़ी यानी साहित्यिक चर्चा के बाद दिग्गज जी बोले --"राजीव जी,मुरादाबाद में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष, जो प्रदेश शासन के मुखिया भी हैं , आ रहे हैं।उनका आगमन पर एक विशाल जनसभा होगी।मुखिया जी जनसभा को संबोधित करेंगे।पार्टी के ज़िला अध्यक्ष ने मुझसे आग्रह किया है कि कवि जी नेता जी के आगमन पर आपको भी जनसभा में कविता पाठ करना है।फिर नेता जी द्वारा आपको सम्मानित किया जाएगा।बताइए,आपका क्या कहना है?मुझे नेता जी की जनसभा में जाना चाहिए या नहीं?"
"हाँ -हाँ, दादा!जरूर जाना चाहिए...भला , हज़ारों की भीड़ और प्रदेश के मुखिया के सामने कविता पाठ करने का इससे बढिया मौका और कब मिलेगा !आप नेता जी की जनसभा में जरूर जाइये ..."
"तो इसका मतलब यह कि आपकी सहमति है ?!"
"हाँ, दादा ..."
दिग्गज जी जब भी कोई नया काम करते मुझसे विचार -विमर्श अवश्य करते ।यद्यपि मैं उनकी संतान की उम्र का था तथापि वे मेरा बहुत सम्मान करते थे और अपने प्रत्येक निर्णय में सम्मिलित अवश्य करते थे।
आखिर नेता जी की जनसभा का दिन आ पहुंचा।
भव्य मंच सजा था।जनसभा में हज़ारों की भीड़ नेता जी को सुनने के लिए आयी थी।दिग्गज जी भी मंच पर मौजूद थे।ज़िला अध्यक्ष ने उन्हें भी मंच पर बैठाया था।
नेता जी का भाषण शुरू हुआ।
नेता जी खूब हड़के -भड़के ।अपनी जांघों पर ताल ठोककर लोगों को हड़काने के अंदाज में खूब गरजे -बरसे । परशुराम जैसी उनकी भाव-भंगिमाएं देखकर उपस्थित जन समुदाय चकित और हैरान था।
नेता जी के इस कोप का एक कारण था।दरअसल,उन दिनों नेता जी की प्रेस यानी मीडिया से पंगेबाजी चल रही थी। उनकी पार्टी के गुंडों ने मीडिया संस्थानों के दफ्तरों में जमकर नेताजी के समर्थन में तोड़फोड़ और मीडिया कर्मियों से अभद्रता भी की थी ।उधर मीडिया ने भी नेता जी के प्रति मोर्चा खोल रखा था।
इस पृष्ठभूमि में नेता जी ने लोगों को जलील करने के अंदाज में खूब अपनी भड़ास निकाली थी।
नेता जी का भाषण समाप्त हुआ तो ज़िला अध्यक्ष को दिग्गज जी की याद आयी ।
ज़िला अध्यक्ष ने मंच से दिग्गज जी से नेता जी के सम्मान में कविता पाठ का आग्रह किया।
"नहीं-नहीं,नेता जी का भाषण हो चुका है।अब मेरे कविता पाठ का कोई औचित्य नहीं है ..."दिग्गज जी ने विनम्रतापूर्वक कहा।
"आइए तो,कोई कविता सुनाइए। नेता जी भी आपकी कविता सुनना चाहते हैं।" दिग्गज जी को संकोच करते देखा तो ज़िला अध्यक्ष ने पुनः दिग्गज जी से आग्रह किया।
"आइये -आइये ,कवि जी।हम भी आपकी कविता सुनेंगे।कोई भी कवि जी की कविता सुने बिना नहीं जाएगा।सभी लोग बैठे रहें..." इस बार नेता जी ने स्वयं माइक थामकर घोषणा की तो लोग उत्कण्ठवश दिग्गज जी की कविता सुनने के लिए ठहर गए।
उधर दिग्गज जी कुछ असमंजस में थे कि कविता सुनाएं या न सुनाएं?
दरअसल,दिग्गज जी को नेता जी का ताल ठोंककर जनता को ललकारने वाले और जलील करने वाले पहलवानी अंदाज में भाषण देना मन ही मन अखर गया था।
दिग्गज जी बेहद संवेदनशील किस्म के व्यक्ति तो थे ही कुछ -कुछ आशुकवि भी थे।जिस समय नेता जी भाषण दे रहे थे उनकी भाव -भंगिमा को लक्ष्य कर दिग्गज जी ने मंच पर बैठे -बैठे ही एक बेहद धारदार और तीखी व्यंग्य कविता रच डाली थे किंतु वे इसे नेता जी के सामने सार्वजनिक रूप से सुनाने के इच्छुक नहीं थे।
दिग्गज जी ने नेता जी का कविता सुनाने का आग्रह विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया।
इस बार नेता जी कुछ तल्ख अंदाज में बोले --"कवि जी ,हम कह रहे हैं।आप सुनाइये अपनी कविता।सब आपकी कविता सुनेंगे।"
"ठीक है,सुनाता हूँ" यह कहकर दिग्गज जी ने कविता आरंभ की --"नेता जी चिंघाड़ रहे थे
एक -एक को मारूंगा,
जो भी मेरे आड़े आया
उसको ही संहारूंगा....."
बस, दिग्गज जी का इन पंक्तियों के उच्चारण करना था कि नेता जी के कान खड़े हो गए ।वे मन ही मन ही कुछ आशंकित हो गए --'पता नहीं यह कवि अब आगे क्या कहेगा?इसका क्या भरोसा -क्या कह दे?जरूर यह मेरे बारे में ही कविता पढ़ रहा है..."
नेता जी जब तक दिग्गज जी की मंशा भाँपते तब तक दिग्गज जी ने अपनी कविता आगे बढ़ा दी --
"भीड़ में से कोई बोला-
वाह नेता जी ,क्या कहने हैं
एक तुम ही तो वाणासुर हो
बाकी सब चूड़ी पहने हैं..."
दिग्गज जी ने ज्यों ही ये पंक्तियां सुनायीं नेता जी के चेहरे पर स्याही बिखर गई।मंच को तो जैसे सांप सूंघ गया।कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया।
दिग्गज जी ने अपनी कविता के जरिये अपना काम कर दिया था।उन्होंने एक सजग और निर्भीक साहित्यकार होने का दायित्व निभाते हुए सत्ता के मुंह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया था वह भी अपने अंदाज में और प्रदेश शासन के मुखिया के मुंह पर और भरे मंच पर।
जनता ने दिग्गज जी की कविता का खूब आनंद लिया और जोरदार करतल ध्वनि कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।कुछ शोहदों ने जोरदार सीटियां भी बजायीं।
आखिर दिग्गज जी ने जनता के मन की बात कविता के जरिये और वह भी बेहद सारगर्भित और सटीक ढंग से कह दी थी।उन्होंने लेटिन अमेरिकी कवि पाब्लो नेरुदा के अंदाज में एक सच्चे जनकवि के तौर पर जान आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दी थी और सत्ता के असली चरित्र को भी कुछ ही क्षणों में उजागर कर दिया था।
बस , फिर क्या था।!
कुछ क्षणों के लिए मंच पर अफरा-तफरी मच गई।नेता जी अपनी धोती संभालकर फुर्ती से मंच से नीचे की ओर भागे।
दिग्गज जी ने अपनी एक छोटी -सी कविता से ही नेता जी के करीब एक घंटे के भाषण पर पानी फेर दिया ।यह होती है कविता की शक्ति और एक सच्चे ,प्रखर और निर्भीक कवि की पहचान।
जनसभा समाप्त हुई और दिग्गज जी सीधे मेरे कार्यालय आये।
उन्होंने मुझे सारा घटनाक्रम विस्तारपूर्वक सुनाया।
"राजीव जी,कहीं मेरे खिलाफ कोई कार्रवाई तो नहीं होगी?मुझे बंद तो नहीं कर देंगे?"उनके चेहरे पर घबराहट साफ दिखाई दे रही थी।
"नहीं दादा।आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा।अगर आपके खिलाफ कोई कार्रवाई की भी गयी तो यह अपने लिये गड्ढा खोदने वाली बात होगी ...आप चिंता न करें।चाय पियें और मेरे साथ घर चलें।" मैंने कहा तो उन्हें ढांढ़स बंधा और वे मेरे साथ मेरे घर चले आये।
मीडिया ने इस घटना पर खूब चुटकी ली।अगले दिन कई समाचार पत्रों ने दिग्गज जी की इस छोटी कविता से ही पंक्तियां लेकर सुर्खियां बना दीं --
"एक तुम ही तो वाणासुर हो -कवि ने दिखाया आईना"
"बाकी सब चूड़ी पहने हैं --दिग्गज मुरादाबादी"
सभी अखबारों ने करीब इसी तरह के शीर्षक टिकाए थे।
यह घटना यादगार बन गयी।
बाद में मैं और दिग्गज जी ही नहीं बल्कि मेरे परिवारीजन भी इस घटना को लेकर बहुत दिनों तक आनंदित होते रहे।जो साहस दिग्गज जी ने दिखाया था वह आज सचमुच दुर्लभ है, कम से कम साहित्यकारों के लिए तो दुर्लभ है ही।
नीरज जी को पत्र
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एक दिन की बात ---दिग्गज जी बड़े उत्साह के साथ मेरे घर आये।
"राजीव जी,राजीव जी!आप नीरज जी को एक पत्र लिखिये...अभी...."दिग्गज जी ने काफी उत्तेजित स्वर में कहा।
"कौन नीरज जी दादा?" मैंने पूछा।
"अरे वही अपने गोपालदास नीरज...."
"लेकिन उन्हें पत्र क्यों दादा?"
"यह देखिये...."उन्होंने अपने छोटे -से बैग में संभालकर रखा एक कागज मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा।
"यह पांचजन्य अखबार में छपी नीरज जी की कविता -'कश्मीर'है...इसमें छंद की ढेरों अशुद्धियां हैं...."
नीरज जी और छंद दोष !यह बात सचमुच मेरी कल्पना के बाहर थी।
"दादा ,यह कैसे हो सकता है?भला नीरज जी जैसा देश का सबसे बड़ा गीतकार छंद की गलती कैसे कर सकता है ?जरूर प्रिंट में गलती हुई होगी..."
"नहीं,ये प्रिंट की गलती नहीं है।नीरज जी ने इस कविता में मात्राओं की भारी गड़बड़ की है।उनसे मात्राएं गिनने में गलती हुई है।आप उन्हें इस विषय में पत्र लिखिए..."
दिग्गज जी ने पांचजन्य अखबार के उस पृष्ठ पर छपी कविता पर जगह -जगह पेंसिल से निशान लगा रखे थे जहां नीरज जी से मात्राओं की गलती यानी छंद दोष हुआ था।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है?मैं हतप्रभ था।
"आप उन्हें पत्र लिखिए ..."इस बार दिग्गज जी ने एक पोस्टकार्ड मेरी ओर बढाते हुए कहा।वे पोस्टकार्ड भी अपने साथ लाये थे।
"म.म..मैं ..भला मैं क्यों लिखूँ नीरज जी को पत्र?आप क्यों नहीं लिखते उन्हें पत्र ?"मैंने सहज प्रश्न किया।
दरअसल ,मैं नीरज जी जैसे देश के शीर्षस्थ कवि/गीतकार को उनके छंद दोष को इंगित करते हुए पत्र लिखने में मन ही मन खासा हिचकिचा रहा था ।मुझे डर था कि कहीं वे मुझसे कुपित न हो जाएं।आखिर वे समकालीन साहित्यजगत की सबसे बड़ी हस्ती थे।
"बात दरअसल यह है कि लिखते हुए मेरे हाथ हिलते हैं,मेरा राइटिंग भी अच्छा नहीं है।आपका राइटिंग सुंदर और संतुलित है और आपके पास बढिया भाषा भी है..."दिग्गज जी ने कहा।
कुछ क्षणों के लिये मैं सोच में डूब गया।यह बात सही थी कि कुछ भी लिखते हुए वृद्धावस्था के कारण दिग्गज जी के हाथों में कंपन होता था।वे लंबा ड्राफ्ट नहीं लिख सकते थे।
मैं बड़े असमंजस में था--दिग्गज जी को इनकार भी नहीं करना चाहता था और नीरज जी को उनके छंद दोष के बारे में पत्र लिखते हुए मुझे संकोच भी हो रहा था।
"ठीक है दादा ,लिख दूँगा नीरज जी को पत्र ..किन्तु आज नहीं कुछ दिन बाद।'
मैंने उन्हें टालने की गरज से कहा।
बेचारे दिग्गज जी!कुछ क्षणों के लिए उदास हो गए।
बात आई -गयी हो गयी।लेकिन दिग्गज जी ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा।वे जब भी मिलते मुझे कश्मीर कविता के विषय में नीरज जी को पत्र लिखने के लिए प्रेरित करते।
आखिर बहुत हीला-हवाली और ना -नुकर के बाद मैंने एक दिन नीरज जी को पत्र लिख ही डाला।
अपने पत्र में मैंने विचलित कर देने वाली किन्तु संयत और शालीन भाषा का उपयोग किया था --ऐसी भाषा कि नीरज जी मेरे पत्र का उत्तर देने के लिए विवश हो जाएं।
यह पत्र भी मैंने दिग्गज जी सामने ही लिखा था।
दिन गुजर रहे थे।इस बीच दिग्गज जी मुझसे बराबर नीरज जी के पत्रोत्तर की जानकारी करते रहे।
आखिर एक दिन इंतजार खत्म हुआ।नीरज जी ने मुझे पत्र का उत्तर भेज ही दिया।
नीरज जी ने प्रारम्भ में तो कश्मीर कविता के विषय में जान -बूझकर अनभिज्ञता प्रकट करने की कोशिश की किन्तु अंत में चुपके से गलती को बड़ी सहजता से स्वीकार भी कर लिया।
आखिर दिग्गज जी सही साबित हुए।
मैंने उन्हें नीरज जी का पत्र दिखाया तो उनके चेहरे पर अनायास ही एक वक्र मुस्कान तैर गयी--एक विजयी मुस्कान!
मैं इसे नीरज जी का बड़प्पन या महानता ही कहूंगा कि देश का शीर्षस्थ कवि होने के बावजूद उन्होंने मुझे पत्र का उत्तर दिया अन्यथा आज का कोई अहंकारी कवि तो इतनी जहमत भी न करता।
अस्तु ,दिग्गज जी और नीरज जी से जुड़ी ये घटना एक यादगार बन गई और नीरज जी का उनके स्वयं के हस्तलेख में लिखा पत्र मेरे साहित्यिक खजाने की एक अमूल्य निधि बन गया जो आज भी मैंने बड़े यत्न से संजो रखा है।
भरत मिलाप
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इतवार का दिन और शाम का समय था।
पूरा दिन निकला जा रहा था और दिग्गज जी का कहीं अता -पता नहीं था।मेरा मन ढेरों आशंकाओं से घिरा हुआ था --'क्या हुआ दिग्गज जी आज क्यों नहीं आए?कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है.....'
मैं चिंतित -सा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
ठीक तभी दरवाजे पर लगी घंटी घनघना उठी।
'आ गए दिग्गज जी ।'सोचता हुआ में उत्कंठापूर्वक दरवाजे की ओर भागा।
यह क्या !
दरवाजे पर शहर के पुरानी पीढ़ी के कवि /गीतकार राजेंद्रमोहन शर्मा 'श्रृंग' जी खड़े थे।
मैं कुछ क्षणों के लिए चकित -सा उन्हें देखता रहा।दरअसल,श्रृंग जी अयाचित मेरे घर आये थे--बिना किसी कोई पूर्व सूचना के और वह भी पहली बार।
औपचारिक अभिवादन और रस्मी बातचीत के बाद श्रृंग जी ने पूछा --"और ...दिग्गज जी से कब से मुलाकात नहीं हुई है?"
"दादा ,यूं तो उन्हें आज ही आना था ,लेकिन पता नहीं अभी तक क्यों नहीं आये हैं?कहीं नाराज हो गए हों तो कह नहीं सकता।वैसे आज तक ऐसा हुआ नहीं है..."
वैसे दिग्गज जी चाहे सारी दुनिया से नाराज हो जाएं लेकिन मुझसे कभी नहीं रूठे।फिर भी 'क्षणे रुष्टा ,क्षणे तुष्टा' वाले उनके स्वभाव को दृष्टिगत करते हुए मैंने श्रृंग जी से कह दिया ।
तभी दरवाजे पर धीमी आवाज सुनाई दी --'"ईशान !
आवाज पहचानते मुझे देर न लगी ।यह सचमुच दिग्गज जी ही थे।
दिग्गज जी ने ज्यों ही श्रृंग जी को देखा तो उनके चेहरे पर एक भली मुस्कान तैर गयी --"अरे श्रृंग जी आप !आजकल कहाँ रह रहे आप ?"
"यही सवाल में आपसे करूंगा दादा...मुझे आपसे बड़ी शिकायत है... आप मिलते ही नहीं है कहीं शहर में।मैंने कहाँ -कहाँ नहीं ढूंढा आपको ...कई बार आपके घर भी गया लेकिन मेरा दुर्भाग्य आपके दर्शन ही नहीं हुए।फिर पता चला कि आप रविवार को राजीव जी के घर अवश्य जाते है सो आज मैं यह सोचकर चला आया की कम से कम यहां तो आपसे मुलाकात हो ही जाएगी।आप नहीं जानते दादा की में आपसे मिलने के लिए कितना व्यग्र और परेशान रहा हूँ..."
"मैं भी आपसे मिलने को बेताब था....अब शिकायत दूर कर लेते हैं...आइए गले मिलते हैं...."
यह कहकर दिग्गज जी ने श्रृंग जी को गले लगा लिया।
फिर दोनों के सब्र का बांध जैसे टूट पड़ा। दोनों कवियों की आंखों से अनायास ही आंसू बहने लगे।
' एक-दूसरे से मिलने की इतनी उत्कंठा,इतनी व्यग्रता!'
दोनों कुछ क्षणों तक यूं ही एक -दूसरे के गले लगे रहे।
"दादा,यूं इतने दिनों तक दूर न रह करो...आपकी बहुत याद आती है।" श्रृंग जी ने कुछ लरजते हुए स्वर या भर्राई हुई -सी आवाज में कहा।
"अब मिलते रहेंगे..."
मैं हतप्रभ -सा मुंह बाए शहर के दो बूढ़े कवियों का यह भरत मिलाप देख रहा था।यह सचमुच मेरे लिए बिल्कुल नया और अनोखा अनुभव था।कुछ क्षणों के लिए मुझे भी कुछ न सूझा। सही बात तो यह है कि यह अप्रत्याशित भरत मिलाप देखकर मैं स्वयं भी स्तब्ध था।दिग्गज जी और श्रृंग जी ,दोनों की आयु मेरे पिता से भी ज्यादा थी और दोनों यूं गले लगे थे जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों के मेले में बिछुड़े दो भाई बहुत लंबे अरसे बाद मिल रहे हों।
"पापा, मम्मी पूछ रही हैं कि कितने कप चाय बनेगी?" मेरे बेटे ने बैठक में प्रवेश करते हुए पूछा तो दोनों संयत होकर अलग हो गए।
क्या बेमिसाल पीढ़ी थी !
एक दूसरे -से मिलने , बोलने -बतियाने की यह व्यग्रता भला अब लोगों में कहां दिखाई पड़ती है?
बरसों गुजरने के बाद आज जब स्वयं को 'साहित्यकार ' कहने वाले लोगों को अपने चेहरे पर मुखौटे चढ़ाए और मुस्कानों का जाल बिछाए भीतरघात करते देखता हूँ तो उन दो बूढ़े कवियों (दिग्गज जी और श्रृंग जी) के भरत मिलाप की यह घटना बरबस मुझे याद आ जाती है जिसका मैं अनायास ही साक्षी बना।फिर यादों का प्रोजेक्टर मेरे मानस पटल पर अपनी गहरी छाया डालने के बाद चुप हो जाता है
✍️राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो0-9412677565
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