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रविवार, 29 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (9).....कटना तो खरबूजे को ही है

   


डॉ. पी.सी.जोशी संभवतः सन् 1972 के मध्य तक के.जी.के.महाविद्यालय, मुरादाबाद के प्राचार्य रहे। उनके बाद मथुरा के प्रोफेसर डॉ. बी.एल. शर्मा प्राचार्य के पद पर आसीन हुए, पर वह भी अधिक दिन नहीं टिके। उनके बाद जब मैं सन् 1974 में एम.ए.प्रीवियस का विद्यार्थी था तब प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप प्राचार्य पद पर आसीन हुए।प्रबंधक ने उनकी नियुक्ति कार्यवाहक प्राचार्य के पद पर डॉ.बी.एल.शर्मा के पद छोड़ने के बाद की थी। सन् 1976 में प्रशासन के अधीन हुआ महाविद्यालय संभवतः सन् 1976-77 शैक्षिक सत्र के अंतिम दिनों में प्रबंधन समिति के हाथों में वापिस आ गया था।यद्यपि मेरी अस्थाई प्रवक्ता के पद पर पहली बार नियुक्ति प्रोफेसर मेजर पी.एन.टंडन के प्राचार्य रहते सन् 1976 के फरवरी माह में हो चुकी थी। मेरी यह अस्थाई नियुक्ति तत्कालीन महाविद्यालय के प्रशासक /जिलाधिकारी फरहत अली साहब के हस्ताक्षरों से एप्रूव हुई थी, जो केवल दो महीने के लिए ही थी। महाविद्यालय प्रबंध समिति के हाथों में आने पर प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप को हटा कर डॉ. आर.एम. माथुर प्राचार्य बना दिए गए। नवंबर सन् 1977 में मेरी पुनर्नियुक्ति डॉ.आर.एम.माथुर के रहते ही हुई और मुझे प्रबंधक के हस्ताक्षरों से नियुक्ति-पत्र मिला। मेरी उस दिन की खुशी अपार थी।

    मैं पिछले सत्र में नियुक्त होकर जब पहली कक्षा पढ़ाने गया, तो पूरी कक्षा भरी हुई थी। कक्षा के आगे का बरामदा भी खचाखच भरा हुआ था।इस स्थिति को देखकर उस दिन प्राचार्य मेजर पी.एन.टंडन की अनुपस्थिति में ऑफीसिएट कर रहे डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत मेरे कक्ष में आए और मुझे निर्देशित किया कि त्यागी पहले अटैंडेंस लो,तब पढ़ाओ। मैंने त्रिगुणायत सर से कहा कि सर आप चिन्ता मत कीजिए मैं सब सँभाल लूँगा।वह चले गए और मैंने अपना परिचय देते हुए कक्ष में एकत्रित छात्रों के समक्ष सामान्य वक्तव्य दिया। विद्यार्थी प्रभावित हुए और जो उस कक्षा के विद्यार्थी नहीं भी थे वह भी संतुष्ट होकर कक्षा से अपने आप ही बाहर निकलते गए तथा कक्षा में केवल अधिकृत  विद्यार्थी ही रह गए। तत्पश्चात मैंने अधिकृत विद्यार्थियों का संक्षिप्त परिचय जाना। पैंतालीस मिनट का घंटा भी पूरा होने को ही था, घंटा बज गया। मैंने विद्यार्थियों को कहा कि कल से पढ़ाई शुरू। अध्यापन के पहले दिन के पहले घंटे की इतिश्री इस प्रकार करके मैं बहुत प्रसन्न था।कई अन्य प्रोफेसर ने भी मुझे क्लास हैंडिल करते हुए देखा और मुझसे संतुष्ट हुए तथा मेरे कक्षा से बाहर आने पर उन सभी ने मुझे जमकर बधाई दी।

          दूसरे दिन मैं पूरी तैयारी के साथ कक्षा में गया और अपनी पूरी ऊर्जा से पढ़ाया। विद्यार्थियों की ओर से आई शंकाओं के समाधान भी संगत और सटीक सुझाए। विद्यार्थी प्रसन्न हुए। मेरे पढ़ाने की विद्यार्थियों में हुई प्रशंसा की कानाफूसी उड़ती हुई मेरे विभागीय वरिष्ठों और अन्य प्रोफेसर्स तक भी पहुँच गई। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे टाइम टेबल में विभागाध्यक्ष जी ने मुझे एक पीरियड एम.ए (प्रीवियस) और एक पीरियड एम.ए. ( फाइनल) का एलाट करके टाइम टेबल फाइनल कर दिया। मैं एम.ए. की दोनों कक्षाओं में गया तो विद्यार्थियों से जानना चाहा कि वह मुझसे क्या पढ़ना चाहते हैं? एम.ए.(प्रीवियस) के विद्यार्थियों ने कहा - "हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और "नई कविता' जिन्हें विद्यार्थियों को पिछले कई सत्रों से नहीं पढ़ाया गया था। एम.ए.(फाइनल) के विद्यार्थियों ने मुझसे "साहित्य शास्त्र और समालोचना" पढ़ाने का आग्रह किया।मेरे लिए यह कठिन तो था लेकिन असंभव नहीं था। मैंने पढ़ाने के लिए घर पर छ:-छ: घंटे पढ़ने में लगाए लेकिन छात्रों को शीशे जैसा करके पढ़ाया। विद्यार्थी मुझसे पढ़ने को लालायित रहने लगे। यहाँ तक की कुछ विद्यार्थी अपनी छठी कक्षा छोड़ कर 12 बजे ट्रम्बे से अमरोहा निकल जाते थे,वह भी कक्षा में आने लगे और मेरी वह कक्षा भी भर गई जिसमें कि सन्नाटा पसरा रहता था।

     अस्तु! प्रशासनिक व्यवस्था में जाने के बाद केजीके महाविद्यालय लगभग एक वर्ष में ही उस व्यवस्था से मुक्त होकर मैंनेजमैंट के हाथों में वापिस आ गया था। प्राचार्य डॉ.आर.एम.माथुर साहब इस उपलक्ष्य में एक भव्य आयोजन कराना चाहते थे।मैंनेजमैंट और प्राचार्य जी की योजना तत्कालीन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम डॉ.श्री एम. चेन्नारेड्डी जी को आमंत्रित करने की बनी। उन दिनों महामहिम महाविद्यालयों के दौरों पर खूब जा रहे थे और अध्यापकों की खाट जमकर खड़ी कर रहे थे, यहाँ तक कि कभी-कभी ऐसा कुछ भी बोल जाते थे जो उनके पद की गरिमा के लिए भी शोभनीय नहीं था। हमारे महाविद्यालय के प्रबंधन को भी महामहिम के कार्यालय से डेट मिल गई थी। संभवतः फरवरी अंत या मार्च प्रारंभ की डेट थी।जब महामहिम के कार्यक्रम को सफल बनाने पर जोरों पर मीटिंग्स हो रहीं थीं तो एक दिन मुझे भी मीटिंग में बुलाया गया। मैं गया, प्राचार्य जी ने मुझे विस्तृत कार्यक्रम से अवगत कराते हुए कहा कि कारेन्द्र तुम्हें इस कार्यक्रम में अपने मक्खन मुरादाबादी की भूमिका का निर्वहन करना है और एक कविता यह लक्ष करके पढ़नी है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों में एडमिनिस्ट्रेटर बैठाना उचित नहीं है क्योंकि संस्थाओं की अपनी साख गिरती है और उनका नियमित शिक्षण कार्य बाधित होकर पिछड़ता है। मैंने प्राचार्य जी को बताया कि सर,उस दिन तो मेरी प्रथमा बैंक की परीक्षा है। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किसने कहा कि तुम्हें अन्य कहीं नौकरी करने की आवश्यकता है। नौकरी में हो न।अब तुम कहीं नहीं जाने वाले। मैंने प्राचार्य जी का आदेश माना जबकि प्रथमा बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष मेरी हसनपुर मित्र मंडली के घनिष्ठ मित्रोँ में थे। अस्तु मैंने उस आयोजन के लिए रचना रच डाली। प्राचार्य कार्यालय में उपस्थित सभी ने सुनकर बहुत वाहवाही की। विद्यालय अपनी तैयारी में और मैं अपनी तैयारी में जुट गए। एक बड़े अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में सहभागिता जो करनी थी।

       वह दिन भी आया जब महामहिम महाविद्यालय में प्रविष्ट हुए और उनके प्रटोकोलीय सम्मान के साथ उनको महाविद्यालय के सभा भवन में ले जाया गया। उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया। प्रारंभ में कुछ औपचारिकताएं संपन्न हो जाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में सरस्वती वंदना और महामहिम के स्वागत गान के साथ भव्य आयोजन का  प्रारम्भ हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला के बीच ही मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। मेरी कविता में प्रबंध समिति का गुणगान और प्रशासनिक व्यवस्था पर कुछ प्रश्न उठाए गए थे।वह पूरी कविता मेरे पास आज कहीं भी नहीं है लेकिन जो उसका निचोड़ था उसके लिए ये पंक्तियाँ थीं -----

"क्या फर्क पड़ता है 

खरबूजा छुरे पर गिरे

या खरबूजे पर छुरा,

किसका भला होता है 

किसका बुरा।

कटना तो खरबूजे को ही है!"

इस रचना को पढ़कर मैं सभा भवन से बाहर निकल आया था। सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था। कुछ देर बाद मैं सभागार में लौट गया और सीट देखकर बैठ गया। भव्य कार्यक्रम का भरपूर आनन्द लिया।अब महामहिम की बारी थी। उन्होंने मेरी कविता की निन्दा करते हुए अपनी बात शुरू की और उस पर बोलते गए, निशाने पर मैं था। मुझे बाहर ड्यूटी पर तैनात एस.पी. साहब ने एक सिपाही को भेजकर बुलवाया। मैं बाहर आया और उनसे मुखातिब हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा कि मक्खन जी आप घर चले जाइए। महामहिम का कोई भरोसा नहीं है कि वह कहें कि इस कवि मास्टर को अरैस्ट कीजिए। मैं विद्यालय से घर चला आया। अगले दिन महाविद्यालय जाने पर मेरी खूब पीठ थपथपाई गई। वह दिन बीत गया, और दिन बीतते गए लेकिन महामहिम की इस झल्लाहट का केजीके इंटर कॉलेज के प्रवक्ता आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद खन्ना जब तक रहे तब तक मुझे देखते ही कहते - " कटना तो खरबूजे को ही है !" उन्होंने आजीवन इसका खूब आनन्द लिया। उनकी स्मृतियों को प्रणाम।

 ✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल : 9319086769 


सोमवार, 16 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (8).....शर्मिंदगी ओढ़ कर खिलखिलाए, हम दोनों


मैंने सन् 1970 के जून में आर.एन.इंटर कॉलेज, मुरादाबाद से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जुलाई माह में केजीके कॉलेज का स्नातक विद्यार्थी हो जाने के बाद जब वहाँ के बारे में जाना तो ज्ञात हुआ कि जिस महाविद्यालय में मैंने प्रवेश लिया है,वह कोई सामान्य महाविद्यालय नहीं है, बल्कि आगरा विश्वविद्यालय का ख्याति प्राप्त प्रथम श्रेणी का महाविद्यालय है, क्योंकि वहाँ के कला संकाय के सभी विभागों के अध्यक्ष उस समय उच्च कोटि के विद्वानों में गिने जाते थे। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप (हिन्दी), प्रोफेसर एच.एस.शर्मा (अंग्रेजी), डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत(संस्कृत), डॉ.आर.एम.माथुर (भूगोल), डॉ .बी.एस.वर्मा (राजनीति शास्त्र), डॉ.आर.के. टंडन (मनोविज्ञान), डॉ.बी.पी.कपूर (अर्थशास्त्र) और श्री रामौतार (सैन्य विज्ञान) विभागों के अध्यक्ष थे। ये सभी आगरा विश्वविद्यालय में अपने विषय के सर्वाधिक विद्वान प्रोफेसर्स माने जाते थे। इनमें से कई की प्रतिष्ठा तो देश में दूर-दूर तक ही नहीं बल्कि विदेशों तक फैली हुई थी।इन विभागाध्यक्षों के अलावा हिन्दी में डॉ. शिव बालक शुक्ल,अंग्रेजी में श्री एन.एल.मोइत्रा तथा श्री एन.के.मेहरा और सैन्य विभाग में अशोक आंवले के समकक्ष विद्वान उस समय कम ही रहे होंगे।

     तत्समय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.पी.सी.जोशी थे।संभवतः कुछ ही समय पूर्व उनकी नियुक्ति प्रो. महेन्द्र प्रताप जी के विपरीत वरीयता देकर की गई थी।सुना था कि वह बहुत योग्य व्यक्ति हैं। देखने में नाटे कद के आकषर्क व्यक्तित्व के व्यक्ति थे किन्तु उनकी गुटबाजी में विशेष रुचि थी। वह अब इस दुनिया में अब नहीं हैं, इसीलिए अब उनके विपरीत कुछ अधिक कहना ठीक नहीं है।पर,यह कहने में मुझे लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि उन्होंने हर जगह कार्य करने वाले लोगों में दो विचार धाराओं के व्यक्ति होने का लाभ उठाया। यहाँ भी स्टाफ में दोनों विचारों के लोग थे। कुछ प्रबन्धक के विरोधी भी थे,किन्तु अधिकतर प्रबन्धक के समर्थक ही थे। फिर भी प्राचार्य जोशी जी ने महाविद्यालय में विवाद पैदा कर ही दिया और एक आठ-दस लोगों का खेमा प्राचार्य के पक्ष में करके प्रबन्धक के विरूद्ध खड़ा कर दिया। दूर-दूर तक जो महाविद्यालय शान्तिपूर्ण माहौल में पढ़ाई के लिए प्रसिद्ध था, वह उखाड़-पछाड़ के लिए प्रसिद्ध होने लगा और इस सबकी चर्चाएँ सुनने को मिलने लगीं।

        अस्तु!मैंने प्रवेश लेने के बाद वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था और महाविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने के लिए स्थानीय महाविद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं और संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी करने जाने लगा था।  हमारे महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए "स्पीकर्स फोरम" का प्लेटफार्म था, जिसके अध्यक्ष अँग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.एच.एस. शर्मा थे। उन्होंने फोरम का मंत्री मुझे नियुक्त कर दिया था। कई छात्र फोरम के सदस्य नामित किए गए थे। जिनमें से भोला शंकर शर्मा, दिनेश टंडन, अशोक शर्मा,अनुकाम त्रिपाठी आदि प्रमुख थे। फिर भी बाहर की प्रतियोगिताओं में मुझे और भोला शंकर शर्मा को ही भेजा जाता था,क्योंकि हम दोनों एक टीम के रूप में स्थानीय स्तर पर विद्यालय के लिए कई शील्ड ला चुके थे। हम दोनों पर स्पीकर्स फोरम के अध्यक्ष प्रो. एच.एस.शर्मा जी को बड़ा  विश्वास था। उनके लिए हम दोनों वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के सर्वाधिक उपयुक्त प्रतिभागी थे। एक ओर महाविद्यालय प्राचार्य जी के अपने हितों को साधने में पतन के रास्ते की ओर बढ़ चला था,पर मैं और भोला शंकर शर्मा तो वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में शील्ड पर शील्ड लाकर महाविद्यालय का नाम रोशन करने में लगे थे।

       हमारे महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का कहीं से भी कोई निमंत्रण आता तो मैं और भोला शंकर तैयारी में लग जाते। मुझे और भोला को तैयारी के लिए अन्य किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ती थी बल्कि भोला मेरी सहायता करते थे और मैं उनकी।हम लोग एक-दूसरे से सवाल यह करते थे कि बताओ विषय के पक्ष में तुम क्या बोलोगे? इस प्रकार विषय के पक्ष और विपक्ष में हम एक दूसरे के विचार जानकर एक-दूसरे को अपने विचार सुझाते थे और वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए तैयार हो जाते थे।

               उस समय गोकुल दास कन्या महाविद्यालय सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए मुरादाबाद में अग्रणीय महाविद्यालय था। वहाँ की प्राचार्या डॉ. ज्ञानवती अग्रवाल भी इनमें बहुत रुचि लेती थीं और हम दोनों को तो अपनी छात्राओं जैसा ही महत्व देती थीं और दूसरों से भी हमारी भूरि-भूरि प्रशंसा  किया करती थीं।भोला शंकर शर्मा और मैं संभवतः एम.ए.के छात्र थे। मैं हिन्दी प्र.व. का छात्र था और भोला शंकर शर्मा एम .ए . द्वि .व. अर्थशास्त्र के। गोकुल दास कन्या महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का बड़ा आयोजन था। हमारा महाविद्यालय भी आमंत्रित था। महाविद्यालय का आथर्टी लेटर लेकर हम दोनों वहाँ पहुँच गए। गोकुल दास महाविद्यालय में प्रवेश करने पर प्राचार्या जी के सामने पड़ते ही हमने हाथ जोड़कर अभिवादन किया और आगे बढ़ने लगे। उन्होंने पुकारा मक्खन सुनो! मक्खन इसलिए की मैं मक्खन मुरादाबादी नाम से ख्यात होने लगा था,तो सबकी जुबान पर यही नाम चढ़ गया था।उनकी सुनो! सुनकर हम दोनों ठिठके और पीछे मुड़कर उनके समक्ष खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि अब तुम दोनों प्रोफेशनल डीबेटर हो गए हो। तुम्हारे मुकाबले में भला कौन खड़ा हो पाएगा? अब तुम दोनों को इन बच्चों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।हम दोनों ने उन्हें वचन दिया कि आदरणीया आज के बाद से।आज तो हम आ ही गए हैं। हमारे महाविद्यालय ने हमें प्रतिभाग करने भेजा है। उन्होंने गर्दन हिलाकर सहमति दी और हमने उस डीबेट में भाग लिया तथा शील्ड लेकर चले आए लेकिन मुझे लगता है कि उस दिन आदरणीया डॉ. ज्ञानवती अग्रवाल जी ने अपने कब्जे के सारे कोरे प्रमाण-पत्र हमारे नाम लिखकर हस्ताक्षर करके हम दोनों को सौंप दिए थे। क्या ऐसा होता है कहीं?हम नसीब वाले थे, हमारे साथ हुआ। गोकुल दास महाविद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने का वह दिन हमारा अंतिम दिन था।

       सन् 1974 में मैं और भोला शंकर आगरा 

विश्वविद्यालय की एक डीबेट में भाग लेने गए थे।हम समय से डीबेट में नहीं पहुँच पाए थे। हम जब पहुँचे थे डीबेट समाप्त हो चुकी थी।अगले दिन शिकोहाबाद के ए.के. डिग्री कॉलेज में डीबेट थी। हमें उसमें भी प्रतिभाग करना था। रात को हम आगरा रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में रहे। उस समय स्टेशनों पर इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी और न ही आज जैसी चैकिंग। हम रात को बड़े आराम से रहे और सुबह को तैयार होकर ट्रेन से शिकोहाबाद निकल लिए। डीबेट में हिस्सा लिया और शील्ड अपने महा विद्यालय के नाम कर ली।

            जो बात मैं बताने जा रहा हूँ, वह बात सन् 1976 की है। मैं सन् 1975 में एम.ए. करके फरवरी 1976 में केजीके महाविद्यालय में ही प्रवक्ता पद पर अस्थाई नियुक्ति पा गया था,जो थी तो मार्च तक ही पर वार्षिक परीक्षाओं के दवाब में जून तक चली थी। अगस्त 1976 में झाँसी से एक डीबेट का निमंत्रण आया था।उस समय डॉ.आर.एम.माथुर महाविद्यालय के कार्यवाहक प्राचार्य थे। मुझे और भोला शंकर शर्मा को झांसी  भेजने के लिए उनके आदेश पर हमारी तलाश हुई लेकिन तब  मैं और भोला शंकर शर्मा महाविद्यालय की किसी भी कक्षा के विधिवत छात्र नहीं थे। प्राचार्य जी के बुलावे पर हम दोनों उनके समक्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने तत्काल बड़े बाबू बिष्ट जी को बुलाया और आदेश दिया कि भोला शंकर शर्मा का एडमिशन हिन्दी प्रथम वर्ष में कर दो।और सुनो ! इनसे प्रवेश शुल्क नहीं लेना है। भोला जी बिना कुछ खर्च किए  ही महाविद्यालय के विधिवत छात्र हो गए। मैं, क्योंकि पीएचडी के लिए विश्वविद्यालय में एनरोल्ड हो चुका था तो महाविद्यालय का विधिवत छात्र हो ही गया था। इस प्रकार हम दोनों ही महाविद्यालय के विधिवत छात्र हो गए थे। हम दोनों के विवरणीय प्रपत्र तैयार कराए गए और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी को टीम मैनेजर बनाकर हमें उनके हवाले कर दिया गया। 

             हम दोनों ने खूब तैयारी की और निर्धारित डेट की प्रात: हम प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी के साथ झांसी पहुँच गए। डीबेट में हिस्सा लिया। बहुत बढ़िया परफॉर्म भी किया,पर हमरी टीम कोई स्थान न पा सकी। शायद भोला शंकर को सांत्वना पुरस्कार मिला था, ठीक से याद नहीं। वहाँ से खाली हाथ लौटने पर हम दोनों ने ही महसूस किया कि कभी-कभी ऐसा भी होता है,जैसा कि हुआ। हम दोनों ने इस पर चर्चाएं 

तो अक्सर बहुत बार की हैं, किन्तु कभी कोई टिप्पणी नहीं की। हमारे साथ गए प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी को अपने किसी व्यक्तिगत कार्य से अगले दिन तक वहीं रूकना था । हमारे रुकने की कोई व्यवस्था नहीं थी,इसीलिए हम देर रात की किसी ट्रेन से चलकर प्रातः ही आगरा पहुँच गए,क्योंकि वहाँ रुकने के लिए हमारे पास रेलवे के वेटिंग रूम का अच्छा अनुभव था। आगरा से मुरादाबाद के लिए ट्रेन रात को ग्यारह बजे के आसपास थी। स्टेशन पर पहले रुक ही चुके थे और अब भी स्टेशन के ही वेटिंग रूम में रुक गए।

                पूरा दिन काटना था। पैसा ट्रेन किराए से थोड़ा-बहुत ही अधिक हमारे पास था। जैसे-तैसे हमने दिन काटा और देर शाम को झुकमुका होने पर सामान लॉकअप में रखकर हम शहर के भ्रमण पर निकल लिए। घूमते-घूमते बैंड बजता हुआ सुनाई दिया। हम उसी दिशा में बढ़ लिए। बारात चढ़ रही थी।हम दोनों परस्पर ही हाय हैलो करते हुए बारात में सम्मिलित हो लिए और बारात के साथ ही भोजन करने के स्थान पर पहुँच गए। पेट में चूहे कूद रहे थे। बड़ी भूख लगी थी। नज़र प्लेट कांउटर पर थी कि जैसे ही कोई प्लेट उठाए तो हम भी प्लेटों पर झपटें। जैसे ही प्लेट किसी एक ने उठाई वैसे ही हम दोनों ने प्लेट उठाकर सलाद,अचार और चम्मच लेकर खाने के स्टाल्स पर जाकर खाना परोस लिया और दोनों ने आपस में बातें करते-करते छक कर खाया।उस समय बारात की खातिरदारी के लिए जनमासे में पान और सिगरेट भी हुआ करते थे। हमने दोनों ने मीठा पान भी खाया और दो -दो सिगरेट उठा कर जेब के हवाले कर लिए। सिगरेट मैं पीता था। भोला इस शौक में नहीं थे। उन्होंने यह जो किया अपने मुझ मित्र की सुखद यात्रा के लिए किया। बातें करते-करते हम दोनों पंडाल से ऐसे निकल आए जैसे कि हम ही सबसे महत्वपूर्ण बाराती हैं।वहाँ से रेलवे स्टेशन बहुत दूर नहीं था, चहल-कदमी करते हुए ही स्टेशन पहुँच लिए। लॉकअप से सामान लिया और टिकिट विंडो से मुरादाबाद का टिकट लेकर गाड़ी  आने के निर्धारित प्लेटफार्म पर पहुँचकर उसकी  प्रतीक्षा करने लगे।

        प्लेटफार्म की ओर आती हुई गाड़ी के इंजन की लाइट दिखाई दी। प्लेटफार्म पर बैठे,खड़े और चहल-पहल करते बतियाते प्रतीक्षा करते यात्रियों में हलचल शुरू हुई। गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर लगी और यात्रीगण बिब्बो में घुसने लगे। सबकुछ सहज था। कोई आपाधापी नहीं थी।उन दिनों पैसेंजर ट्रेनों में भीड़ भी नहीं होती थी। मैं और भोला भी एक डिब्बे में चढ़ गए। हमने खाली देखकर तीन वाली सीट पर अपना सामान रख दिया। उसके सामने वाली सीट के ऊपर की सामान रखने वाली सीट पर एक सज्जन चादर ओढ़े खर्राटों का आनन्द ले रहे थे।भोला शंकर शर्मा ने उनके पाँव की ओर खड़े होकर हल्की सी उनकी चादर 

खींच दी।वह तिलमिलाए और एक पैर भोला की तरफ झटक कर मारा। भोला को पैर नहीं लगा पर,वह कुछ करने ही वाले थे की चादर ओढ़े उन्होंने उठ बैठकर अपना मुँह उघाड़ दिया। भोला सँभले और उन्होंने अनजान बने रहकर कहा-" अरे! डीपू सर,आप।" हम दोनों शर्मिंदगी ओढ़ कर खिलखिलाए। महाविद्यालय में प्रोफेसर साहब को डीपू सर ही कहा जाता था।वह कुछ ऐसा-वैसा कहते किन्तु उन्होंने भी कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं दी और बोले - "अच्छा हुआ कि तुम लोग मिल गए। अब साथ-साथ मुरादाबाद पहुँचेंगे और हम प्रातः को साथ-साथ मुरादाबाद स्टेशन पर गाड़ी से उतर गए।

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

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गुरुवार, 12 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख....कक्षा बनी चौपाल

   


 बात उन दिनों की है जब महाराजा हरिश्चन्द्र महाविद्यालय में मैंने स्नातक कक्षा में नया -नया प्रवेश लिया था।

    कक्षाएं शुरू होने का पहला दिन था।हिंदी साहित्य का पीरियड था।जैमिनी साहब  हमारे अध्यापक थे।मैं और मेरे सहपाठी उनसे पहली बार रूबरू होने जा रहे थे।सभी बड़े रोमांचित थे। तभी जैमिनी साहब ने कक्षा में प्रवेश किया।उनके सुदर्शन व्यक्तित्व से सभी प्रभावित थे।

  अपने सभी छात्रों का परिचय प्राप्त करने के बाद वे बोले --"आज हम हिंदी साहित्य के इतिहास पर चर्चा करेंगे ।पहले यह बताइए आप में से किस -किसने आल्हा पढ़ा -सुना है ?" 

   दरअसल, जगनिक का लिखा 'आल्हखंड 'हमारे पाठ्यक्रम में था और हिंदी साहित्य के इतिहास यानी वीरगाथाकाल की चर्चा इसी ग्रंथ से शुरू होनी थी।

  बहरहाल, जैमिनी साहब द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कई हाथ ऊपर उठ गए ।हाथ उठाने वाले छात्रों में मैं भी शामिल था।

  जैमिनी सर ने सभी पर एक दृष्टिपात किया।उन्होंने फिर कहा --"अच्छा, कोई आल्हा की दो  -चार पंक्तियाँ सुनाएगा?" 

   अब तो पूरी कक्षा में एकदम सन्नाटा खिंच गया।

  "अरे,जब आप सभी ने आल्हा सुना है तो एक-दो पंक्तियाँ तो याद होंगी ही।अच्छा ,यह बताइए  कि गांव से कौन -कौन हैं ? शहर वालों ने तो आल्हा शायद न भी सुना हो ...." 

   प्रत्युत्तर में फिर कई हाथ ऊपर उठ गये ।

  "आप लोग सुनाइये आल्हा ..."

   लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से आये छात्रों को तो जैसे काठ ही मार गया था। एक तो पहला दिन और ऊपर से हिंदी साहित्य का पहला पीरियड ! ग्रामीण क्षेत्र के छात्र चुप बैठे रहे।जैमिनी सर ने उनके असमंजस और हिचकिचाहट को जैसे भांप लिया।

    वे बोले --"कोई बात नहीं ,  मैं सुनाता हूँ --

    "आल्हा -ऊदल बड़े लड़इया

     इनकी मार सही न जाय,

     एक को मारैं ,दुइ मार जावैं

     तीसरा खौफ खाय मर जाय.."

 जैमिनी सर ने बड़ी लय में और किसी प्रोफेशनल अल्हैत की शैली में जो आल्हा सुनाया तो एकदम समां बंध गया।

  बस , फिर क्या था!

  अभी तक संकोचवश चुप बैठे ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों के हाथ भी एक -एककर ऊपर उठने लगे --"सर , हम सुनाएं, सर हम सुनाएं ..."

  "हाँ- हाँ ...सभी सुनेंगें ...."

   

ग्रामीण छात्रों का सारा संकोच एकदम हवा हो गया।फिर तो एक -एककर  कई छात्रों ने अपने -अपने अंदाज में आल्हा शुरू कर दिया। 

    अल्हैती के सारे रिकॉर्ड टूट गए,कुछ समय के लिए हिंदी साहित्य की हमारी कक्षा जैसे गांव की चौपाल बन गयी। वीररस की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी।सभी ने आल्हा गायन का खूब आनंद लिया।

  जैमिनी सर यही तो चाहते थे --छात्र निस्संकोच अपनी बात कहना सीखें।आल्हा  तो एक बहाना था।

  अगले दिन जब जैमिनी सर ने वीरगाथा काल के बारे में  बताना शुरू किया तो सभी छात्रों ने इसमें बड़ी रुचि ली।मेरे जो सहपाठी हिन्दी साहित्य और इसके इतिहास को एक नीरस विषय मानते थे उनके लिए यह अनायास ही एक रोचक विषय बन गया।

 यह सन अस्सी की बात है ।अब से करीब तैंतालीस साल पुरानी   यह घटना मेरे छात्र जीवन की एक यादगार घटना बन गयी।यह हम छात्रों के लिए तो एक प्यारा सबक थी ही उन अध्यापकों के लिए भी एक सबक थी जो हिंदी साहित्य जैसे रोचक विषय को भी बेहद नीरस ढंग से या  फिर अकादमिक शैली में पढ़ाते हैं

  एक लंबा कालखंड व्यतीत होने के बाद आज जब मैं इस घटना का 'टोटल रिकॉल ' करता हूँ तो बरबस ही मेरे होठों पर एक मुस्कान आ जाती है और जैमिनी सर की याद एक मीठा दंश देने लगती है 


✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001,

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल -9412677565

सोमवार, 9 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (7 )...... तो क्या मैं मक्खन मुरादाबादी हुआ होता



सन् 1971-72 का शैक्षिक सत्र था। मेरी बी.ए.(प्र.व) की पढ़ाई चल रही थी। हुल्लड़ जी द्वारा प्रकाशित और संपादित मासिक पत्रिका " हास परिहास " में भाई अतुल टंडन (ए.टी.जाकिर) और कौशल कुमार शर्मा के साथ मैंने भी हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। दादा प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर आना-जाना और उनके परिवार में घुलना-मिलना आगे बढ़ने लगा था और इसके अतिरिक्त उस उम्र में कुछ युवाओं में जो गतिविधियाँ विकसित हो जाती हैं,वह भी संयमित भाव से विकसित होकर गतिशील थीं। मेरे कन्धों पर जो भी दायित्व थे, उन सभी का निर्वहन  भली-भाँति हो रहा था। 

     हास-परिहास में मुझ पर सर्कुलेशन मैनेजर का दायित्व था और अतुल टंडन (ए.टी.जाकिर) प्रबंध संपादक तथा कौशल कुमार शर्मा सह संपादक के दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। हुल्लड़ जी और हम तीनों के प्रयासों से "हास परिहास " कुछ ही महीनों में चल निकली थी। यहाँ तक की ए.एच.व्हीलर पर भी बिक्री के लिए एप्रूवल प्राप्त कर चुकी थी और ए.एच व्हीलर के बुक स्टॉल्स पर उपलब्ध थी। उस समय ए.एच.व्हीलर एक वह कंपनी थी जो पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के लिए रेलवे स्टेशनों पर बुक स्टाल्स की ठेकेदारी करती थी। उसका मुख्यालय इलाहाबाद में था। रोडवेज के बस अड्डों के  बुक स्टालों पर भी हास परिहास बिक्री के लिए अपना स्थान बनाने लग गई थी क्योंकि मुझ पर सर्कुलेशन मैनेजर का दायित्व था,तो मुझे पत्रिकाओं के गट्ठर लेकर बुक स्टाल्स पर पत्रिका पहुँचाने और हुई बिक्री की धनराशि कलेक्ट करने बस से आना-जाना पड़ता था। मैं हँसी-खुशी आता-जाता था और इसे खूब एन्जॉय भी करता था। इस सबके साथ पढ़ाई भी ठीक चल रही थी और कविताएँ भी ठीक-ठाक होने लग गई थीं।

         तीन दिसंबर 1971 को पाकिस्तान-भारत युद्ध शुरू हो गया था। देश में 'ब्लैक आउट' की घोषणा हो चुकी थी।प्रेम परिन्दों के लिए अच्छा समय था। सायं से लेकर प्रातः काल तक कोई लाइट नहीं जलती थी। अंधकार ही छाया रहता था।इसी का नाम 'ब्लैक आउट' था। इस ब्लैक आउट में मुझे भी कुछ नए अनुभव हो रहे थे,जो मेरी प्रेम कथा से सम्बंधित थे। अपनी प्रेम पींगें बढ़ रही थीं और भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना को खदेड़ कर उस पर चढ़ रही थी।16 दिसम्बर को पाकिस्तान की ओर से एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। युद्ध विराम की घोषणा के तत्काल बाद मुझसे एक रचना हुई - " ब्लैक आउट "।

     वह रचना मैंने अपने मित्रवत बड़े भाई अतुल टंडन ( ए.टी.ज़ाकिर ) को सुनाई। उन्होंने उसकी जमकर तारीफ की और कहा यह तो तुमसे हास्य-व्यंग्य की बहुत ही शालीन और श्रेष्ठ रचना हो गई है। माँ सरस्वती की विशेष कृपा हुई है, तुम पर।इस रचना से तुममें हास्य-व्यंग्य का कवि होने की संभावना बोल रही है, तुम हास्य-व्यंग्य के कवि हो जाओ। मैं शुरू में " अकेला " उपनाम लगाता था। उसके बाद " नवनीत " उपनाम लगाने लगा था।उस समय नवनीत उपनाम से ही तुकबंदियाँ करता था। मित्र भाई अतुल टंडन ( ए.टी.ज़ाकिर ) ने अपने आप ही हुल्लड़ मुरादाबादी की तर्ज़ पर मेरा नाम नवनीत के पर्याय मक्खन से " मक्खन मुरादाबादी " रख दिया और उन्होंने ही  जब इस रचना को यह कहकर हुल्लड़ जी को सुनावाया कि नवनीत जी अब " मक्खन मुरादाबादी " हो गए हैं। हुल्लड़ जी बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि यह अच्छा हुआ क्योंकि कि उन्होंने भी अपने नन्हें बेटे का नाम नवनीत रखा हुआ था। हुल्लड़ जी ने रचना सुनी और सुनकर मन से प्रशंसा कर मुझे खूब प्रोत्साहित किया।

       पाकिस्तान से युद्ध समाप्ति की घोषणा के बाद दिसम्बर अंत में "हास-परिहास" की ओर से टाउन हॉल, मुरादाबाद के विशाल प्रांगण में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। उस समय हास-परिहास की टीम में हुल्लड मुरादाबादी, कौशल शर्मा,ए.टी.ज़ाकिर और मेरे अतिरिक्त इंडस्ट्रीयल डिजाइन गैलरी के प्रबंधक रमेश चंद्र आज़ाद, प्रतिष्ठित एडवोकेट शैलेन्द्र जौहरी, स्टील के व्यापार में लगे कमल किशोर जैन और व्यापार में ही लगे सी.डी.वार्ष्णेय तथा महेन्द्र नाथ टंडन मुख्य रूप से जुड़े थे।इस टीम द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में हुल्लड़ मुरादाबादी जी ने मुझे भी नवोदित कवि के रूप में काव्य पाठ का अवसर प्रदान कर दिया। माँ सरस्वती की कृपा से ही " ब्लैक आउट "रचना हुई और माँ की कृपा से ही इतने विशाल श्रोता गण के समक्ष मुझे काव्य पाठ का अवसर मिल गया और मैं इतना जम गया जिसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी, मैंने तो बिल्कुल भी नहीं।

        मैं अगले दिन जब शहर में निकला तो मेरी ओर सड़क के दोनों ओर से उँगलियाँ उठ रही थीं कि देखो वह जा रहे हैं - " मक्खन मुरादाबादी "। बाजार में कई दुकानदारों ने मुझे बुलाया, बिठाया और खूब प्रशंसा की तथा चाय नाश्ते से बेहतरीन खातिरदारी भी। सब इतना खुश और गौरवान्वित थे कि मैं भी उनकी मनोभावनाओं की खुशियों में तैर गया। मुझे पहली बार लगा कि उँगलियाँ अच्छे कार्यों की ओर भी उठती हैं। परिणामत: कवि सम्मेलन में आए कवियों की संस्तुतियों पर मैंने बीसियों कवि सम्मेलन कर डाले। पहचान मिली और लिफाफे में धनराशि भी। मैं बी.ए.(प्रथम वर्ष) का छात्र कारेन्द्र देव त्यागी एक ही झटके में " मक्खन मुरादाबादी " हो गया और मुझे पुकारा जाने वाला संबोधन 'नवनीत' गायब हो चला।यहाँ तक कि मेरा मूल नाम कारेन्द्र देव त्यागी भी " मक्खन मुरादाबादी " के सामने पिछड़ने लगा और मैं हास्य-व्यंग्य कवि " मक्खन मुरादाबादी " होकर ख्याति पाने लगा।

     हर किसी के बनने और बिगड़ने के कुछ क्षण होते हैं। बनाने में अपने साथ होते हैं और बिगाड़ने में अपनों के ही कुछ हाथ होते हैं। बिगाड़ने वाले हाथों के चंगुल से जितनी जल्दी मुक्त हो जाओ, उतना अच्छा है । पर,यह भी गाँठ बाँध लेने वाली बात है कि बनाने वाले हाथों के स्मृति भरे पलों को पूजा की थाली में गणेश रूपा मिट्टी की डली को कलावा लपेट कर न रखो तो इससे बड़ी कृतघ्नता समाज में कोई दूसरी नहीं हो सकती। मुझे लेकर ही सोचिए,माँ शारदे ने यदि मुझसे " ब्लैक आउट " न लिखवाई होती और भाई ए.टी.ज़ाकिर ने मुझमें हास्य-व्यंग्य की संभावनाओं की परख करके मुझ " नवनीत " को "मक्खन मुरादाबादी " नाम न दिया होता तथा हुल्लड़ जी ने मुझे हास-परिहास के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में प्रस्तुति का अवसर न प्रदान किया होता, तो क्या मैं मक्खन मुरादाबादी हुआ होता?

 

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल: 9319086769 

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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (6).... दादा! एक्सटेंपोर साहित्यकार थे


 सन् 1970 जुलाई में केजीके पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में मैंने एडमिशन ले लिया। उन दिनों डिग्री कॉलेज में पढ़ने के गौरव और वैभव के अपने अलग ही ठाट-बाट थे। मैं अप-टू-डेट होकर इसे जीने के लिए हर दृष्टि से तैयार था।फूफा जी के पास रहकर जो चाचा जी सीडीओ ऑफिस में नौकरी करते थे,उनका सन् 1968 की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में  विवाह हुआ था। बारात में पहनने के लिए उन्होंने मेरे लिए भी एक जोड़ी पैंट और शर्ट बनवाए थे। तब से ही मेरे पहनावे में पैंट-शर्ट दाखिल हो चुके थे। फूफा जी बहुत टीप-टॉप रहने वाले व्यक्ति थे। खद्दर के धोती कुर्ता एक दम सफेद बुर्राक प्रेस हुए ही पहनते थे। उस समय लोहे की छोटी प्रेस उनके घर पर ही थी। मैंने प्रेस करना और प्रेस हुए कपड़े पहनना सीख लिया था। अब मैं डिग्री कॉलेज का विद्यार्थी था न।

          फूफा जी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उसी कॉलेज में पहूँच गया तो उन्हें देखने की इच्छा और भी बलवती हो गई।उसका एक कारण यह भी था, जिसकी चर्चा करना बहुत आवश्यक है।फूफा जी ने मुझे और फुफेरे भाई मुन्नू को हसनपुर तहसील के गंगेश्वरी गाँव एक पर्चा देकर कैलाश देव जी के पास भेजा। मैं और मुन्नू सुबह ही पहली गाड़ी से निकलने के लिए स्टेशन पहुँच लिए।जब हम स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी सीटी दे रही थी। चलने को एकदम तैयार थी।हम टिकिट बिना लिए भाग कर गाड़ी में चढ़ लिए। हमें गजरौला उतरना था। गाड़ी गजरौला जाकर रुकी और हम उतर कर बाहर निकलने वाले गेट की तरफ बढ़ लिए। यद्यपि लोग दाएँ-बाँए से भी अपने जाने पहचाने निकासों से भी निकल रहे थे, पर हमें इतनी अक्ल नहीं थी। हम निकासी गेट की ओर ही बढ़ते गए।गेट पर मुस्तैद टी.सी. महोदय ने हमसे पूछा लिया कि टिकिट?। टिकिट होता तो हम कुछ बोलते। टिकिट था नहीं तो हम कुछ बोले भी नहीं।टी.सी. महोदय ने हमें अपने बराबर में एक ओर को खड़ा कर लिया। टिकिट कलेक्शन का कार्य पूरा करने पर वह हमें अपने कमरे में ले गए।वहाँ उन्होंने हमसे प्रश्न किए। हमने उनके प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिए। क्या करते हो के उत्तर में हमने कहा कि हम विद्यार्थी हैं। उन्होंने तपाक से पूछा - ' कहाँ पढ़ते हो '? मैंने फटाक से कहा कि केजीके कॉलेज में।उनका प्रश्न था - ' किस कक्षा में?' मैंने कह दिया कि बी.ए.फर्स्ट में।उन्होंने पूछ लिया कि हिन्दी कौन पढ़ाता है? मैंने कहा - ' प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी।' इस उत्तर पर वह रुक गए। आगे अन्य कोई  प्रश्न नहीं किया और कहा - 'आगे से कभी बिना टिकिट मत चलना। तुम्हें इसलिए छोड़े देता हूँ कि मैं भी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का ही विद्यार्थी हूँ।' जान बची और लाखों पाए।हम झट से निकल बाहर को आए। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की ऐसी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान,जिसने हमें जेल जाने से बचवा दिया। इस घटना का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि उनका नाम मेरे हृदय में घर कर गया। मैं उनकी छवि को भी अपने हृदय में उतार कर बसाना चाहता था, इसलिए उनके दर्शन करने को उतावला था। एक दिन मित्र के इंगित करने पर कि वह हैं, प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी। मैंने दूर से ही उनके दर्शन कर लिए और इतने भर से ही मेरी मन मुराद पूरी हो गई। अब उनकी छवि ने भी मेरे हृदय में उतर कर घर कर लिया। इसके बाद से प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी मेरे हृदय से नहीं निकले। मैं उन्हें अपने भीतर लेकर जिया हूँ। उनके प्रति अपने इसी भाव के कारण मैंने अपनी  गीत कृति " गीतों के भी घर होते हैं " उनको  समर्पित करके अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। पर अभी तो उन्हें मात्र देखा भर था, उनसे परिचय शेष था और उनकी कक्षा में पढ़ना बाकी था।

        यह इच्छा भी तब पूरी होती दिखी जब अपनी कक्षा के टाइम-टेबल में हिन्दी साहित्य का पीरियड तीन दिन प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के नाम आवंटित दिखा। वह दिन भी आ ही गया,जब मैं प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की कक्षा में मैं खड़ा होकर अपना परिचय दे रहा था। परिचय में फूफाजी का नाम आने पर मेरा परिचय पूरा हो गया और उन्होंने कहा कि चन्द्र दत्त जी को मैं भली भाँति जानता हूँ।बैठ जाओ।पूरी कक्षा के सभी छात्रों का संक्षिप्त परिचय होने के बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने अपने एक ही घंटे में कक्षा नहीं छोड़ी अपितु दो घंटे तक क्लास ली।उनका पढ़ाना एकदम अलग तरह का था। जिसका उद्देश्य किताब पढ़ाना कतई नहीं था बल्कि यह पढ़ाना था कि हम विद्यार्थी अपने विषय को पढ़ना सीख जाएँ और उसे पढ़ना सीखकर दूसरों तक पहुँचाना सीख जाएँ। पढ़ाई के साथ मूल्यांकन के लिए जुड़ी परीक्षा शायद इसीलिए ही है। दुर्योग से उस वर्ष मैं कड़ी मेहनत करने पर भी बी.ए.पार्ट वन में फेल हो गया। पुनः बी.ए.पार्ट वन में एडमिशन ले लिया। अब तक  कॉलेज में मेरा नाम मुझे पढ़ाने वाले शिक्षकों तक इस रूप में भी पहुँचने लगा था कि मैं कविता करता हूँ। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के संज्ञान में भी यह बात आ गई। एक दिन उन्होंने मुझसे स्वयं कहा कि कविता लिखते हो,मेरे घर "अंतरा" की गोष्ठी में आया करो।

        यह प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का मेरे प्रति उनके 

भीतर उमड़ा अगाध स्नेह ही था जिसने मेरा "अंतरा" में जाने का संकोच खत्म कर दिया। "अंतरा" की गोष्ठी दूसरे और चौथे रविवार को प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के कटरा नाज़ स्थित घर पर ही होती थी। जो मेरा देखा-भाला था, फिर भी मैं सन् 1971 के अगस्त माह के दूसरे या चौथे सोमवार को गया था,यह तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, पर मैं हुल्लड़ मुरादाबादी जी के साथ गया था, क्योंकि तब तक मैं उनके संपर्क में आ चुका था। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर पहुँचकर मैंने उनके चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम किया तथा उनके बाद अन्य वरिष्ठों के चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन वहाँ पर सभी आगंतुक प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का अभिवादन "दादा" कहकर कर रहे थे। उस दिन मुझे पहली बार पता लगा कि प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी को सभी लोग दादा संबोधन से ही पुकारते हैं। यहाँ तक कि उनके बच्चे वंदना, गोपाल, गोविंद और आरती भी। गोष्ठी में मेरी रचना को भी सराहना मिली और मुझे विशेष लाभ यह हुआ कि उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में से अधिकतर से मेरा परिचय एक साथ ही हो गया। फिर "अंतरा" की गोष्ठी में मेरी उपस्थिति नियमित हो गई। गोष्ठी में सबसे पहले पहुँचना और सबसे बाद में आना। गोष्ठी दिवसों के इन दोनों अंतरालों में दादा को सुनकर लाभान्वित हो लेना मेरी आवश्यक दिनचर्या बन गई, जिससे मैं दादा को जी भरके सुन सकने का सौभाग्य पा सका। हर महीने के इन दो दिनों में ही मैंने उनसे वह सुना जो किसी ने नहीं सुना।

        उन दिनों "अंतरा" में नियमित आने वाले सदस्यों

में पं.दुर्गा दत्त त्रिपाठी,अंबालाल नागर,क़मर मुरादाबादी, गौहर उस्मानी पं.मदन मोहन व्यास, कैलाश चन्द्र 'अधीर' सुरेश दत्त शर्मा 'पथिक', बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी',मनोहर लाल वर्मा,शील कुमार 'शील', ललित मोहन भारद्वाज, हुल्लड़ मुरादाबादी, अजय अनुपम प्रमुख थे। गौहर उस्मानी साहब के बाद मंसूर उस्मानी भी "अंतरा" की गोष्ठियों में आते रहे हैं। मुरादाबाद के अन्य रचनाकार भी समय-समय पर "अंतरा"  से जुड़ते रहे हैं। प्रवेश मिलने पर मैं नवप्रवेशी भी नियमित आने लगा ही था और मुरादाबाद आने पर आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी भी "अंतरा" में नियमित आने लगे थे। मेरी याद में मुरादाबाद की साहित्यिक परंपरा में ऐसी उच्च कोटि का कालखंड आजतक कभी नहीं रहा। मैं उस कालखंड की छाया में लम्बे समय तक अपने रचना-कर्म में पलकर रचना-धर्म के साँचे में ढला हुआ व्यक्ति हूँ, जिसने सभी से बहुत कुछ सीखा है।

       दादा! उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही,साथ ही वह उच्च कोटि के वक्ता भी थे।जो भी विद्याार्थी उनसे पढ़े या जिन व्यक्तियों ने भी उन्हें सुना उन सब पर उनका उच्च कोटि का ज्ञान उच्च कोटि में ही पहुँचा।वह जिस बहुमुखी और बहुआयामी प्रतीभा वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे, उसके लिए विलक्षण शब्द भी अपनी भावाभिव्यक्ति में सटीक प्रतीत नहीं होता। वह हर विषय पर खूब बोलते थे।बड़ा जमकर बहुत ही सटीक बोलते थे। कितने ही समय तक निर्बाध बोलते रहने की विद्वता उनमें विद्यमान थी। सृजनशीलता भी उनमें भरपूर थी, पर वह उसे कागज़ पर उतारने में बेहद उदासीन थे। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक विचार अकाट्य होता था।वह तार्किक नहीं थे अपितु विषयों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक जानकार थे। दादा को मैंने जितना भी सुना,उससे मुझे लगता था कि दादा वर्तमान नामधारी साहित्यकारों में से किसी से भी उन्नीस नहीं हैं। वह आपनी साहित्यिक निधि कागज़ पर उतार कर संचित करने वाले साहित्यकार न होकर साहित्य को उस ही की भाषा में अपनी वाणी की मिठास से सुधीजन के हृदय में उतार देने वाले साहित्यकार थे।अपनी छोटी सी साहित्यिक समझ के आधार पर मैं यह कहने में कतई संकोच नहीं करूँगा और न ही लेश मात्र भी हिचकूँगा कि दादा 'एक्स्टेंपोर' साहित्यकार थे। यदि मुझे हिन्दी साहित्य की विशद व्याख्या का सुअवसर मिला होता तो  उस कालखंड में 'एक्सटेंपोर' अर्थात 'आशु साहित्य' की खोजबीन और छानबीन करके उस कालखंड को  "प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप युग " नाम देने के हर संभव प्रयास और अपने स्तर के सारे यत्न किए होते।

          मेरी इस भावना को इस आलेख की ये अंतिम पंक्तियाँ निश्चित ही पुष्ट करेंगी। दादा के अध्ययन काल के सहपाठियों की मंडली में डॉ. शम्भू नाथ सिंह, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, डॉ. विजय देव नारायण साही, केशव चन्द्र वर्मा आदि जैसी साहित्य की महान विभूतियाँ थी,जो उस समय अपने-अपने क्षेत्र की सिरमौर थीं। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी क्या नहीं हो सकते थे? इनमें से विजय देव नारायण साही के अतिरिक्त मैं समय-समय पर इन सभी से मिला हूँ और मेरी इन सभी से दादा को लेकर खूब चर्चा हुई है। उनसे हुई चर्चा में एक बात सभी ने प्रमुखता से कही - " हमारी मित्र मंडली में सर्वाधिक योग्य विद्यार्थी का नाम महेन्द्र प्रताप था। 

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड,मुरादाबाद- 244001

मोबाइल: 9319086769 

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मंगलवार, 27 अगस्त 2024

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का आत्मकथात्मक संस्मरण.... नारियल के खोल में छलांग मारती संवेदना


जुलाई का महीना था स्कूलों में पढ़ाई चालू हो गई थी.  मैं जिस कक्षा में था उसमें कामर्स के टीचर श्री के.के.गुप्ता जी बड़ी ही तल्लीनता से पढ़ा रहे थे. मैं सबसे आगे की सीट पर बैठा था.  मैं क्योंकि अन्य विद्यार्थियों के मुकाबले क़द में कुछ छोटा था इसलिए मुझे आगे की सीट मिली थी और ‘बाई चांस’  यह वह सीट थी जो टीचर के एक दम सामने की थी.  टीचर ज़रा सा हाथ बढ़ा दें तो उनका हाथ मेरे गाल पर झांपड़ के नाम से आसानी से अलंकृत हो सकता था.  गुप्ता जी  बहुत ही अच्छा पढ़ाते थे. पढ़ाते समय उनकी तल्लीनता किसी भी साधक से कम नही थी.  अचानक ही पढ़ाते-पढ़ाते उनकी तल्लीनता तब टूटी जब उनकी गहरी नज़र मुझ पर पड़ी और कुछ देर तक ठहरी रही . फिर  वे अचानक ही मुझ पर गुस्सा होते हुए और लगभग चीखने के स्वर में बोले ---‘कुंअर बहादुर, तुम बहुत गंदे कपडे़ पहनकर आये हो.  इतने बड़े हो गए हो, नवीं क्लास में हो, तुम्हें इतनी समझ नहीं है कि इतने गंदे कपडे़ पहनकर स्कूल नहीं आया जाता.’.... 

मैंने सजग होकर अपने कपड़ों की ओर देखा, सचमुच वे बहुत ही गंदे थे. मैं आपको बता नहीं सकता कि उस वक्त मैं अपने कपड़ों को देखकर कितना शर्मिंदा हुआ था.  गुप्ता जी ने मुझे मेरे कपड़ों को लेकर इतना डांटा, इतना डांटा कि मैं भीतर-भीतर रो उठा था. मेरी हिचकी बंध गई थी.... मुझे लगा कि मैं कक्षा में ही जोर से रो पडूंगा, अतः मैंने क्लास से बाहर जाना ही उचित समझा. मैं झट  से अपनी सीट से उठा और क्लास से बाहर चला गया. क्लास के सभी लड़कों ने मुझे जाते हुए देखा,  मेरा मुंह नीचे को लटका हुआ था और आँखें भीगी हुई थीं. श्री गुप्ता जी भी हक्के-बक्के से रह गए थे….. 

 अचानक पीछे की सीट से एक लड़का खड़ा हुआ और टीचर जी को संबोधित करते हुए बोला---‘गुरु जी, आपने कुंअर को डाटकर अच्छा नहीं किया. यह मेरा पक्का दोस्त है. हम लोग साथ-साथ ही स्कूल आते हैं और साथ-साथ ही घर लौटते हैं. बहुत मेल-जोल है हमारा ...  वह  कहता जा रहा था--‘गुरु जी, आपको नही पता कि कुंअर बिना माँ-बाप का लड़का है.  उसके पिता जी तब नही रहे थे जब ये दो महीने का था,  माँ तब नहीं रही थीं जब ये सात साल का था.  जीजी और जीजा जी के यहाँ तब आ गया था जब यह दो साल का था.  अब चार साल पहले इसकी बहन की भी मृत्यु हो गई. अब केवल यह और  जीजा जी ही साथ-साथ रहते हैं. घर में कोई महिला नहीं है. ये खुद ही खाना बनाता है. बहुत कठिनाई में रहकर मेहनत से पढ़ रहा है. आठवीं कक्षा  मिडिल स्कूल से पास की है और फर्स्ट डिवीजन पास हुआ है..... 

यह लंबा लड़का मेरा दोस्त बिजेंद्र ही था जिसकी झिझक खुली हुई थी. मैं बहुत संकोची था. वह श्री के.के.गुप्ता जी से कहता जा रहा था. –‘मास्टर जी इसके पास दो जोडी कपडे हैं. एक जोड़ी धोकर अगले दिन के लिए तैयार कर लेता है. अब कई दिनों से बारिश हो रही है तो दूसरी जोड़ी वाले कपडे सूखे नहीं थे. इसे स्वयं संकोच भी था किन्तु स्कूल का नागा भी तो नहीं करना चाहता था....

मेरा यह दोस्त मेरे बारे में सब कुछ सच ही बोल रहा था..... 


 सचमुच जब प्रथम श्रेणी में मिडिल पास कर लेने के बाद अपने शहर चंदौसी के मिडिल स्कूल को छोड़ना पड़ा था तो मैं बहुत दुखी  हुआ था.... मगर यह स्कूल तो मुझे छोड़ना ही था क्योंकि यह तो था ही आठवीं क्लास तक.  उन दिनों हमारे शहर चंदौसी में जिस हाई स्कूल का बहुत नाम था वह था  बारह्सैनी हाई स्कूल.  अब तो इसका नाम चंदौसी इंटर कालिज हो गया है.  जब हम पढ़ते थे तो यह दसवीं क्लास तक था  श्री एस आर अत्री प्रिंसिपल थे . अब बारहवीं क्लास तक है.  इस स्कूल की  पढाई और इसका रिजल्ट अन्य सभी स्कूलों के मुकाबले सबसे अच्छा रहता था.  मेरे जीजा जी श्री जंगबहादुर सक्सेना जी का मन था कि मेरा एडमीशन इसी स्कूल में हो.   उन दिनों इस स्कूल में नवीं कक्षा में एडमीशन मुश्किल से ही मिलता था.  क्योंकि इस स्कूल के छठी कक्षा से पढने वाले विद्यार्थी जब आठवीं से नवीं कक्षा में आते थे तो नवीं कक्षा की सब सीटें भरी होती थीं.  अतः दूसरे स्कूल के नए विद्यार्थियों को प्रवेश मिलने में कठिनाई होती थी.  हाँ, आठवीं कक्षा में यदि कुछ लड़के फेल हो जाते थे और उनको नवीं कक्षा में एडमिशन नहीं मिलता था तो जो उनकी जगह खाली हो जाती थी. उसी खाली जगह को दूसरे स्कूल के विद्यार्थियों का एडमिशन करके भर लिया जाता था.  उस साल आठवीँ कक्षा में कई लड़के फेल हो गए थे इसलिए मुझे और मेरे दोस्त बिजेंद्र को एडमिशन मिल गया.  बिजेंद्र और मेरा दोस्ताना मिडिल स्कूल से ही था.  मेरी और उसकी दोस्ती का मूल आधार हमारे अभाव ही थे.  उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसकी माँ बच्चों की परवरिश करने के लिए दूसरों के घरों में रोटी बनाकर अपना घर चलाती थीं.  मैं भी बिना माँ-बाप का लड़का था और जीजा जी द्वारा पालित पोषित था . बहरहाल मेरा और मेरे दोस्त बिजेंद्र का एडमिशन इस स्कूल में हो गया. ...

 उन दिनों नवीं कक्षा से ही. साइंस, आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता था. जो संपन्न घर के बच्चे होते थे वे साइंस साइड लेते थे क्योंकि उनके माता-पिता का लक्ष्य अपने बच्चे को डाक्टर बनाना होता था., जो बिलकुल सामान्य घरों के बच्चे होते थे वे आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करते थे.  उन दिनों गरीब बच्चों के संरक्षक अधिकतर अपने बच्चों को कामर्स दिलवाते थे.  उनका यह विश्वास था कि कामर्स पढ़कर उनका बच्चा कम से कम क्लर्क तो बन ही जाएगा.  रोटी खाने के लिए तो पैसे क्लर्की करने पर भी मिल ही जायेंगे.  वैसे  उन दिनों सामान्यतः  न तो बच्चे ही इतने सचेत थे और न उनके माता-पिता जोकि  बच्चे के भविष्य को देखकर उन्हें आगे पढने के लिए सही साइड का चुनाव कर सकें या करा सकें .  साइड का चुनाव बिना सोचे-समझे हुआ करता था. दोस्त ने साइंस ली तो दूसरे ने भी साइंस ले ली.  उन दिनों बच्चों की दोस्ती ही साइड के चुनाव करने का आधार थी.  हमारे साथ भी यही हुआ.  लोगों ने जीजा जी को सुझाया कि कुंवर को कामर्स दिलवा दो.  इस तरह मैंने कामर्स साइड का चुनाव किया तो मेरे दोस्त बिजेंद्र ने भी कामर्स का ही चुनाव किया.  इस स्कूल में नये-नये आये थे इसलिए न तो हमारी कक्षा में पढने वाले हमें ठीक से जानते थे और न ही हम उन्हें. इसी प्रकार यहाँ के टीचर्स के लिए भी मैं और मेरा दोस्त बिलकुल  ही नये थे.   हम क्या हैं, कैसे हैं हमारे टीचर्स को भी हमारे बारे में कोई अनुमान नहीं था....

 बचपन से ही मैं  कभी भी स्कूल जाने की नागा नहीं करता था.  जीजा जी का डर और अपना स्वभाव मुझे  स्कूल खींचकर ले ही जाता था.  आंधी-पानी-बरसात, ठण्ड-गर्मीं, धूप-घाम  इनमें से  कोई भी मेरे  स्कूल जाने के क्रम में बाधा नहीं बन सकता था..... हुआ यह कि चंदौसी में लगातार आठ दिन ऎसी बारिश हुई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. कई कच्चे मकान ढह गए थे. रास्तों में पानी भर गया था. लेकिन न तो हमारे स्कूल की छुट्टी हुई और न ही हमारे स्कूल जाने की. ...उन दिनों मुझे सफ़ेद कपड़ों को पहनने का शौक था.  दो सफ़ेद पायजामे और दो सफ़ेद कमीजें थीं मेरे पास.  उन दिनों बच्चों पर इतने ज्यादा कपडे होते भी नहीं थे.  बड़े घरों के बच्चों के पास भी दो-तीन जोडी कपड़ों से ज्यादा नहीं होते थे.... मैं स्कूल से लौटने के बाद कुए पर जाकर अपने ये कपडे धो लेता था, जब वे सूख जाते थे तो पीतल के लोटे में अंगारे डालकर मैं इन कपड़ों पर प्रेस करके अगले दिन स्कूल पहनकर जाने के लिए चारपाई पर रख देता था....

 मगर अबकी बार तो बरसात रुक ही नहीं रही थी.  धूप ने दर्शन देने ही बंद कर दिए थे. मैंने एक दिन कपडे धोये तो वे बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर टंगे हुए दो दिन तक टप टप आंसू बहाते रहे और अपने आँसुओं को सुखा ही नहीं पाए.  मेरी एक मजबूरी तो यह थी कि मुझे स्कूल जाना ही था और दूसरी मजबूरी यह  थी कि जो कपडे दो दिन से पहन रहा था उन्हीं को पहनकर स्कूल जाना पड़ रहा था... उमस भरी गरमी के कारण कमीज के कालर पर पसीने का ऐसा जमावड़ा था कि उस बेचारे शर्म के मारे को खुद के चेहरे पर लगी कालिख को मुंह छुपाने की भी जगह नहीं थी.  गोरी- चिट्टी कमीज पर बरसात की बूंदों के तथा चपल चप्पल के छींटों के ऐसे-ऐसे दाग़ लग गए थे कि कई सारे बादल धोबी बनकर उन्हें धोने की कोशिश करें तो भी वे टस से मस न हों.  दागों की यही छाप मेरे पायजामे पर भी पूरी तरह से पड गई थी.  मेरे पायजामे और कमीज की सफेदी ने काले-काले धब्बों और दागों के वे ज़ुल्म झेले थे कि बेचारे अपनी कहानी अपने मौन से ही प्रकट कर पा रहे थे.  वे कह रहे थे देखने वालो हमें  देखना है तो अभी देख लो, कल जब हम नही रहेंगे तो मत कहना कि हमने आपको अपना चेहरा नहीं दिखाया था.  अपना दर्द तुम से नहीं कहा था....

 मेरी इस व्यथा-कथा से मेरे कामर्स के टीचर अनभिज्ञ थे.  किन्तु जब मेरे दोस्त बिजेंद्र ने कक्षा में खड़े होकर मेरे जीवन के बारे में उन्हें बताया तो वे बड़े गम्भीर हो गए. चश्में से झांकती हुई आँखें खामोश हो गई थीं.  पलकों पर कुछ गीलापन और  होठों पर कुछ कम्पन-सा झलक कर शांत हो गया था.  उनके मन में कुछ चल रहा है,  यह तो महसूस हो रहा था किन्तु क्या चल रहा है यह समझ में नही आ रहा था.  वे एक मिनट को खड़े के खड़े रह गए और फिर तुरंत ही क्लास की छुट्टी करके बड़ी तेजी से अचानक ही क्लास से बाहर निकल गए. ....

 बाहर आकर वे मुझे खोजने लगे...  तेज क़दमों से चलकर वे मुझे कभी इधर और कभी उधर, कभी यहाँ और कभी वहां  खोजते  रहे.  उनकी आखें मुझे तलाश कर रही थीं.  मगर मैं उन्हें मिल ही  नहीं रहा था .. कक्षा के विद्यार्थी भी तितर-बितर हो गए थे, मेरा दोस्त बिजेंद्र भी मेरी खोज में निकल पड़ा था.  सभी ने देखा कि मेरे टीचर श्री गुप्ता जी बड़े बेचैन और व्यग्र दिख रहे हैं.   एक अजीब सी छटपटाहट थी उनमें.  उनकी हालत उस नए-नए भोले तीरंदाज़ जैसी हो रही थी जिसने तीर चलाया तो किसी टीले पर था और ग़लती से उसका तीर किसी हिरन-शावक के दिल पर जा लगा हो.  उनकी तड़प में मासूम शिकारी और घायल हिरन दोनों की तड़प आ मिली थी.  उनकी तड़प दुगुनी होकर उन्हें विचलित कर रही थी....

 आखिरकार  मैं उन्हें मिल ही गया.  मैं बरामदे  के आखिरी कमरे के बाहर,  कोने में दीवार की तरफ मुंह किये हुए रो रहा था.  मेरी हिचकी बंधी हुई थी.  मेरे गाल आँसुओं से काफी गीले हो चुके थे.  मेरा रोना रुक नही रहा था.  मुझे बार-बार यह भी ध्यान आ रहा था कि इस प्रसंग के बारे में जब जीजा जी को पता चलेगा तो उन्हें कितना दुःख होगा. वे बेचारे पांचवां दर्जा पास, एक प्रिंटिंग प्रेस में मजदूरी करने वाले और किसान आदमीं जो हमेशा श्रम के पसीने की महक में ज़िन्दगी काटते रहे थे और जिन्होंने  पसीने से तर अपने कपड़ों को कभी भी तिरस्कार की नज़र से नहीं देखा था, वे कैसे इस घटना को बर्दाश्त करेंगे. वे भले ही कैसे भी रह लें, किन्तु वे  मुझे हमेशा साफ़-सुथरा ही  देखना चाहते थे, उन बेचारों को पता भी नहीं चला कि उन बरसात के दिनों में, मैं स्कूल कौन सी बेश-भूषा में जा रहा हूँ. वे अपने प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी पर चले जाते थे और मैं स्कूल. उन्होंने मेरे कपड़ों पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था. मगर स्वयं मुझे ग्लानि हो रही थी कि अगर उन्हें इस घटना का पता चला को वे कितने शर्मिंदा होंगे.... मेरे इस रूप में रहने  और दिखने में उनकी इज्ज़त का भी तो  सवाल था !....

 जब मैं दीवार की तरफ मुंह करके रो रहा था तब अचानक दो हाथ मेरे पाँव की तरफ आ गए. जिनके ये हाथ थे उनका सर  मेरे पांवों में झुका हुआ था. उनकी आवाज़ भी मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी. वे कह रहे थे ---‘ बेटा, मुझे माफ़ कर दे. मुझसे बड़ी ग़लती हो गई.... बेटा, मुझे तेरे बारे में  कुछ पता ही नहीं था. तू इतना दुखियारा है और मैंने तुझे जाने क्या-क्या कह दिया.  बिना माँ-बाप के बच्चे  को मैंने ऐसे रुला दिया,...  बेटा, उस टाइम न जाने मुझे क्या हो गया था.  देख, मैं अपने कहे और किये पर बहुत शर्मिंदा हूँ.... मुझे माफ़ कर दे बेटा,  मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई. ...’

 मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ये मेरे टीचर श्री के.के.गुप्ता जी ही थे. उनकी आँखों में मोटे-मोटे आंसू थे. उन्होंने रोते हुए मुझे कलेजे से लगा लिया.  जब उन्होंने मुझे कलेजे से लगाया तो मैं और जोर से रो पड़ा. सचमुच संवेदना जब गले लगती है तो वेदना और तडप उठती है. मैं भी उनसे चिपक गया था. और कह रहा था---‘नहीं गुरू जी, मेरे पाँव पड़कर ऐसा अनर्थ न कीजिये. आप मेरे गुरु हैं.  आपको  पूरा हक़ है मुझसे कुछ भी कहने का. फिर आप तो मेरी भलाई के लिए ही कह रहे थे. गलती मेरी ही है गुरु जी.’

वे बोले—‘ नहीं बेटा, ग़लती मुझसे हुई है.  इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं.  इसमें गलती करने वाला ही छोटा होता है.  भले ही मैं तेरा टीचर हूँ और उम्र में भी तुझसे बड़ा हूँ किन्तु आज मैं तेरे सामने बहुत छोटा पड गया हूँ.  सच में तू मुझसे बहुत बड़ा है.  मैं तुझे समझ नहीं पाया बेटा.’...मुझसे  गले मिलते हुए मेरी कमीज़ के दाग़ उनके कपड़ों पर भी लग गए थे मगर इस बात का उन्हें आभास ही नहीं था....फिर उन्होंने पहले मेरे आंसू पोंछे और फिर अपने भी . मुझसे बोले---‘सुनो, स्कूल की छुट्टी होने के बाद मुझे यहीं खड़े मिलना. जाना नहीं जब तक मैं न आ जाऊँ. ..

 गुरु जी के इस संवेदनशील व्यवहार की घटना पर अब विचार करता हूँ तो एक बहुत ही गहरी बात मेरी समझ में  आई है कि ‘पश्चाताप’ और ‘क्षमा’ ये दो शब्द केवल उन पर ही रहते हैं जिनके दिल में प्यार और मनुष्यता रहती है.  क्षमा वही कर सकता है जिसके ह्रदय में प्रेम है और अपनी ग़लती को ग़लती मानकर सच्चे मन से पश्चाताप भी वही करता है जो भीतर से मनुष्य है. जिसमें इंसानियत है...मैं सोचता हूँ कि क्या ऐसे भी टीचर होते हैं जैसे गुप्ता जी थे. ...

 आज मैं यह भी सोचता हूँ कि बड़ों की लगाईं हुई डाट भी कितनी अच्छी होती है.  सच बात तो यह है कि सद्भावना और अच्छे मन से लगाईं हुई बड़ों की डाट और किसी मीठे रस से भरी हुई बोतल के मुंह पर लगी हुई डाट, इन दोनों का काम एक जैसा ही है. ... बोतल की डाट खुलते ही जैसे कि बोतल में भरे मीठे रस के दर्शन करा देती है, तरलता के दर्शन करा देती  हैं,  ऐसे ही बड़ों की डाट के नीचे कोई न कोई मिठास छुपा रहता है, उनके मन की  तरलता छुपी रहती है.... बस इतना है कि उस समय हमारी ये बाहरी आँखें उस डाट के नीचे की मिठास और तरलता को देख नहीं पाती हैं,  हां, कुछ बड़े होने पर केवल वह डाट ही नहीं, वरन उस डाट के अर्थ भी खुलने लगते हैं और तब उस डाट के नीचे मिठास का लहलहाता सरोवर दिखाई देता है,  जिसकी एक-एक बूँद हमें तृप्त करती चलती है....करती है न ?...

 आज ये सारी बातें सोच रहा हूँ तो बहुत अच्छा लग रहा है मगर उस दिन तो मैं बेचारा बालक 

इतनी समझ कहाँ रखता था ?... उस दिन तो बस मुझे अपने टीचर की,  अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना था . स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी तो श्रद्धेय गुप्ता जी के आदेशानुसार मैं वहीं खड़ा मिला  जहां खड़े रहने के लिए वे मुझसे कह गए थे.  कुछ देर बाद श्री गुप्ता जी  उसी स्थान पर आ गए. उन्होंने मेरा हाथ थामा और बोले अब आगे से तुम कोई चिंता मत करना, कोई परेशानीं हो तो मुझे बताना. और हाँ,  अपने जीजा जी से भी मिलवाना... ऐसा कहते हुए वे मुझे अपने घर ले गए. घर पर उन्होंने अपनी पत्नी से मिलवाया. मेरी बहुत तारीफ़ करने लेगे. उन्हें मेरी ज़िन्दगी के बारे में बताया. बोले---‘बहुत होशियार बालक है....बहुत हिम्मत वाला है.’...उस वक़्त भी मैं वही गंदे और मैले कपडे पहने था. मगर अब सब कुछ बदल चुका था. उन्होंने मुझे बिना खाना खिलाये वापस नहीं भेजा. मेरे बहुत मना करने पर भी मुझे भोजन करना ही पड़ा.  दाल-चावल सब्जी और खीर. मुझे अभी भी याद है कि वे मुझे बड़े ही चाव से खाना खिला रहे थे. उनकी पत्नी भी बार-बार आ-आकर जबरदस्ती मेरी खीर की कटोरी में और खीर डाल जाती थीं. ...

 अचानक वे अपने कमरे में गये और दो मोटी-मोटी कापियां लेकर आये और मेरे हाथों में थमा दीं. मुझसे कहा कि इन्हें भी पढ़ना.  मैंने देखा कि ये केवल कापियां नहीं थीं, पांडुलिपियाँ थीं.  वे उन दिनों कामर्स विषय से जुड़ी दो किताबें लिख रहे थे और उन्हें छपने को दे रहे थे. ये कापियां उन्हीं किताबों की बहुत मेहनत से और स्वयं उनके हाथ से बहुत सुन्दर हस्तलेख में लिखी हुईं पांडुलिपियाँ थी... वे बोले अभी तुम इन्हें अपने पास ही रख लो.  इन्हें पढ़कर तुम्हारे और भी बहुत अच्छे नंबर आयेंगे.  मैं उन्हें लेकर खुशी-खुशी उनके घर से विदा हुआ. सचमुच इन्हें पढ़कर ही हाई स्कूल में मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ.  बाद में गुप्ता जी मेरे जीजा जी से भी मिले और उनसे माफी मांगते हुए बोले— ‘एक दिन तो मैंने आपके बच्चे को बहुत ज्यादा डाट दिया था.’...जीजा जी का उत्तर पाकर वे हैरत में थे. जीजा जी ने कहा था---‘ मास्टर जी, गुरु तो भावरूप में विद्यार्थी का दूसरा पिता ही होता है.  वह अगर डाटता है तो उसी की भलाई के लिए डाटता है.’...और तब जीजा जी और आदरणीय गुप्ता जी दोनों ही भीगी हुई आँखों से एक दूसरे के गले लग गए थे.  उस दिन मेरी इन दो आँखों ने चार आँखों के चार तीर्थस्थलों को आँसुओं का झरना बहाते हुए देखा था और उस संवेदना को भी देखा था जो कठोर नारियल के खोल में मीठा और तरल जल बनकर छलांग मार रही थी.....                                  

✍️ डॉ कुँअर बेचैन

रविवार, 25 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (5).... आवभगत ही जिनकी पूँजी थी

   


फूफा जी श्री चन्द्र दत्त त्यागी श्रीगंगा धाम तिगरी के रहने वाले थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।सामाजिक और राजनीतिक व्यक्ति थे। राजनीति में बहुत अधिक सक्रिय नहीं थे तो निष्क्रिय भी नहीं थे।संतुलित सक्रियता को जीने वाले बहुत ही भले व्यक्ति थे,भलमनसाहत के आदर्श और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी फूपा जी बाजार गंज के जिस मकान में रहते थे वह तीन मंजिला था। दूसरी और तीसरी मंजिल पर उनका रहन-सहन था और ग्रांउड फ्लोर पर मकान मालिक की आभूषणों की दुकान थी। दुमंजिले पर एक कमरा, कमरे के आगे लगभग उस ही के बराबर लॉबी थी और लैट्रीन तथा बाथरूम।तिमंजिले पर एक टीन शेडिड कमरा और टीन शेडिड रसोई थी तथा छोटा सा आँगन था।इस छोटी-सी जगह में फूफाजी और बुआ जी के छोटे-बड़े छः बच्चे तो रहते ही थे, फूफा जी के दो युवा भतीजे और मेरे एक चाचा जी भी वहीं रहते थे और अब एक मैं पहुँच गया था। ऊपर से चार-पांच मेहमान भी लगभग रोज़ ही आ जाया करते थे।ये सब ग्रामीण परिवेश के वह लोग होते थे जो अपने कार्यों से मुरादाबाद आए होते थे और समय से लौट नहीं पाते थे। बुआ जी बड़ी भली और नेक महिला थीं। आने-जाने वालों को देखकर कभी भी नाक-भौंह नहीं सिकोड़ती थीं अपितु आगंतुकों को देख कर उनका चेहरा खिल जाता था। मानों सबकी भरपूर सेवा ही उनका धर्म था। इस सेवा भाव से ही उनका परमानन्द बसता था। उनकी कोई मिसाल मिलना अब तो संभव है ही नहीं,उस समय भी असंभव ही था।

          एक कमरे,आँगन,टीन शेडिड एक कमरे और टीन शेडिड रसोई वाले मकान में इतने व्यक्तियों का रहना-सहना और आगंतुकों को भी समायोजित करके इस रहन-सहन को व्यवस्थित रखना कोई आसान कार्य नहीं था, पर इसे फूफा जी और बुआ जी के बेमिसाल आचरण से अपनी दिनचर्या में ढाल रखा था। यह सब वैसा ही था जैसा कि सुनने को मिलता रहता है कि कहीं जगह हो या न हो दिल में जगह होनी चाहिए।सब सध जाता है। मेरी दृष्टि में वह छोटा-सा मकान नहीं था अपितु बड़ा सा दिल था।

          बुआ जी लगभग सुबह से शाम तक चूल्हे पर ही चढ़ी रहती थीं। लेकिन वह इस बोझ को हँहते-हँसते सुबह से शाम तक ढोते-ढोते इतना हल्का कर लेती थीं कि उन्हें पता ही नहीं चलता था। वह पूजे जाने योग्य थीं किन्तु दिन भर औरों को जिमाते-जिमाते ही खुद जिम जाती थीं।एक झटके में सो जातीं थीं और एक झटके में उठ बैठती थीं। उनकी अपनी दिनचर्या थी।जिसका पूरा आनन्द लेकर जीतीं थीं,वह। उनके इस व्यवहार की चर्चा और प्रशंसा हर जगह होती मिल जाती थी।वह अद्भुत थीं। उनके जैसा होना नामुमकिन है। इतना संयम व्यवहार में ढाल लेना एक करिश्मा ही है।वह स्वयं भी एक करिश्मा ही थीं।

            जहाँ दाना-पानी मिलता है,पंछी वहाँ गिरते ही हैं। लोग भी वहीं आते-जाते हैं,जहाँ उनकी पूछ होती है, यानी कि आवभगत होती है। फूफा जी के यहाँ सभी आगंतुकों की आवभगत बड़े प्रेम से  होती थी, तभी तो वहाँ हर समय चहल-पहल रहती थी। वह घर हर समय हँसने-मुस्कराने से गुलजार रहता था। चाय के कप प्लेट उठते रहते थे और दूसरे लगते रहते थे। ऐसे ही सुबह से शाम हो जाती थी। बुआ जी को रसोई में और हम बच्चों - मेरी फुफेरी बहन कुसुम जो मेरे ही साथ की थी और छोटा फुफेरा भाई अनिल जिसे घर में मुन्नू कहा जाता था और मुझसे दो साल छोटा था,को - ऊपर से नीचे जीना चढ़ते-उतरते कब समय बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था। इस सबमें एक आंतरिक आनन्द को जीने के अभ्यस्त हो गए थे हम सब लोग। मैं और मुन्नू इस सबका आनन्द तो लेते ही थे, साथ ही एक और आनन्द का बड़े चाव से आनन्द लेते नहीं अघाते थे।

               इतनी आवभगत के लिए रसोई हर समय तैयार रहनी चाहिए,यानी कि रसोई में सभी आवश्यक सामान उपलब्ध रहना चाहिए,यह सब तो महीने का आता था तो रहता ही था। किन्तु सबसे पहली आवश्यकता तो चूल्हा सुलगा रहने की है।उसके लिए उस समय लकड़ी ही एकमात्र साधन थी। छुट-पुट आवश्यकता तो स्टोव से सँभाल ली जाती थी,पर हर समय चूल्हा गर्म रखने के लिए तो इन लकड़ियों का ही 

एकमात्र सहारा था ,क्योंकि कोयला उस समय इतना प्रचलन में नहीं था।बाकी सब साधन बाद के दिनों के हैं। फटी हुई (छेपट)लकड़ी टाल से आती थी। वह जलने योग्य सूखी नहीं होती थी,अपितु सदैव पर्याप्त गीली ही होती थी। ठेले वाला तिमंजिले तक चढ़ा जाता था और फिर शुरू होती थी - मेरी और मुन्नू की पारी।उस गीली और फटी हुई छेपट लकड़ी को रसोई और कमरे की टीन वाली छत पर सूखने के लिए चढ़ाना। हममें से एक छत पर चढ़ता था और एक नीचे से उसे पकड़ाता था।इस प्रकार उन लड़कियों को दोनों छतों पर सूखने के लिए रख दिया जाता था।यही क्रिया उन्हें उतारने में भी रहती थी। लेकिन यह मुश्किल कार्य था। रसोई और कमरे की छत पर जाने के लिए कोई सीढ़ी तो थी नहीं दोनों छतों पर चढ़ने के लिए एक-एक ओर से चार इंच की दीवार का सहारा था।चढ़ते हुए भी डर लगता था और ऊपर चढ़कर भी डर ही लगता था क्योंकि उस मकान की एक दिशा में तो सड़क थी, और शेष तीनों दिशाओं में एक-एक मंजिल के ही मकान बने हुए थे। ऊपर से नीचे को देखते थे तो रूह काँपती थी।हम दोनों भाइयों ने इस डर को दसियों वर्ष जिया है। किन्तु इसका भी अपना एक आनन्द था, जिसके लिए हम दोनों लकड़ी का हाथ ठेला आते ही इस आनन्द के लिए उत्सुकता से भर जाते थे और अपने कार्य पर लग जाते थे। कभी इससे बचते नहीं थे।

        फूफा जी और बुआ जी की इस आवभगत की क्षेत्र में बड़ी प्रशंसा होती थी। आवभगत ही उनकी पूँजी थी। उनकी आवभगत का ही यह परिणाम था कि किसी-किसी दिन मेहमानों की संख्या बढ़ जाती थी। जगह का अभाव तो था ही कभी-कभी कपड़ों का भी अभाव हो जाता था।ऐसी स्थिति में मैं और मुन्नू फूफा जी के बड़े भाई सम मित्र गणपति शर्मा जी के यहाँ सोने के लिए चले जाते थे। उनकी सिविल लाइन में बहुत बड़ी कोठी थी और उनके परिवार के सभी लोग फूफा जी के परिवार से बहुत लगाव रखते थे। महीने में मेरी और मुन्नू की कई-कई रातें वहीं गुज़रती थीं। प्रातः काल में जल्दी उठकर हम दोनों अपने घर आकर प्रातः कालीन कार्यों से निवृत्त होकर अपने-अपने स्कूल चले जाते थे। इस परिवेश में अपनी पढ़ाई इस लिए हो पाई है। क्योंकि पढ़ाई के लिए फूफा जी और बुआ जी दोनों ही प्रोत्साहित करते रहते थे। मुझ पर जितनी भी पढ़ाई है,यह उनके प्रोत्साहित करते रहने का ही परिणाम है।

       फूफा जी गंगा धाम तिगरी के रहने वाले थे।वहाँ पर प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है। फूफा जी क्योंकि राजनीतिक और सामाजिक व्यक्ति थे,इस कारण से प्रशासन पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी।मेले की व्यवस्थाओं में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी।सारा सरकारी अमला उनके ही मकान पर मीटिंग किया करता था और मेले की रूपरेखा को अंतिम रूप देता था। प्रशासन पर इतनी पकड़ के बावजूद ही फूफा जी वहाँ पर वह सारे प्रबंध करा सके जिससे कि तिगरी गंगा के कटान से बची रहे।तिगरी अपनी जगह सुरक्षित है तो इसलिए कि उसके लिए फूफा जी ने हर संभव प्रयास करके अपनी मातृभूमि की रक्षा की है। गंगा मेले का हम सबने भी कई बार खूब आनन्द लिया है। बुआ जी और फूफा जी अपने हर कार्य से सही में देवता तुल्य थे, जिन्होंने अपना सर्वस्व समाज की सेवा में ही झोंक दिया। कमाकर भी कुछ नहीं जोड़ा,जबकि मुरादाबाद से रामनगर को उनकी बस चला करती थी।

✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद- 244001

मोबाइल: 9319086769 

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बुधवार, 8 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित डॉ सोनरूपा विशाल का संस्मरणात्मक आलेख गहरे-गहरे से पदचिह्न


15 सितंबर 2014 की शाम थी वो।शिव मिगलानी जी जो मुरादाबाद के प्रमुख व्यवसायियों में से एक हैं,सामाजिक तौर पर काफ़ी सक्रिय।उनके स्नेह की मैं सदा से पात्र रही हूँ।आज भी पार्किंसन की बीमारी से जूझते हुए अपने अस्थिर हाथों से फोन उठाकर कंपकपाती आवाज़ में मुझे मुरादाबाद आने का न्योता देना नहीं भूलते।ऐसे ही उस शाम उन्होंने मुझे याद किया 'एक शाम सोनरूपा के नाम' कार्यक्रम रखकर।जो मेरे गायन को दृष्टिगत रखकर रखा गया था। हमेशा से मेरा संगीत की ओर झुकाव रहा ही था।संगीत में ही शिक्षा भी ली।बाद में हिन्दी से पी. एच डी की।लेकिन 2010 से लेखन भी मेरे भीतर अंगड़ाइयां लेने लगा था।ये गंभीरता वाला था,इससे पहले बचपन वाला कविता प्रेम था मात्र।

उस कार्यक्रम के साथ मिगलानी जी ने सम्मान समारोह भी रखा था।कार्यक्रम के अध्यक्ष थे नवगीत के शिखर नामों में से एक आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी।विशिष्ट अतिथि थे प्रसिद्ध शायर आदरणीय मंसूर उस्मानी जी।

आज तक बहुत कम ऐसे मंच हुए हैं जिन पर अपनी प्रस्तुति को लेकर मैं शत प्रतिशत संतुष्ट हुई होऊँ।लेकिन उस दिन मैं भीतर से आह्लादित थी।श्रोताओं की प्रतिक्रिया तो थी ही अच्छी मुझे भी स्वयं महसूस हुआ कि सब ठीक था।सबकी प्रशंसा और फोटोज़ लेने इच्छा मुझे अभिभूत तो कर रही थी लेकिन सातवें आसमान पर पहुँचने वाला भाव न पनपा पा रही थी।मेरे ज़हन में ज़मीन जो रहती है।

कार्यक्रम के बाद सम्मान समारोह हुआ,उदबोधन,फोटो सेशन इत्यादि।तिवारी जी और उस्मानी जी से भी शाबाशी मिली।

इस सब के उपरान्त डिनर टेबल पर सौभाग्य से कुछ क्षण ऐसे मिले जिसमें मैं थी,माहेश्वर जी थे और ताई जी (माहेश्वर जी की पत्नी)।

माहेश्वर जी ने बहुत ही सौम्य स्वर में मुझसे कहा - बेटा ,एक बात कहूँ यदि बुरा न मानो।

मैंने कहा - जी ताऊ जी,बिल्कुल कहिये।

वो बोले - सोनरूपा कल ही 'सरस्वती सुमन' पत्रिका का डॉ. उर्मिलेश विशेषांक मुझे मिला है।तुम्हारी संपादन क्षमता ने मुझे बहुत प्रभावित किया और तुम्हारे सम्पादकीय ने भी।इधर यदा कदा पत्रिकाओं में भी तुम्हारे गीत और ग़ज़ल पढ़ता रहता हूँ।उसे देख मुझे लगता है तुम्हें लेखन ही पहचान देगा।संगीत नहीं।फिर अपनी पूरी परम्परा को भी तुम ध्यान में रखो।

'जी ताऊ जी।बिल्कुल।आपकी बात पर मैं सिर्फ विचार ही नहीं अमल भी करने की कोशिश करूँगी।' मैंने कहा।

तभी ताई जी ने एक छोटा सा वाक्य बोला -

'बेटा स्वर तुम्हारे बहुत पक्के हैं, आवाज़ भी मधुर।लेकिन ताऊ जी की बात पर ध्यान देना।'

दोनों ने मेरे सिर पर हाथ रखा और अपने लिए तैयार खड़ी गाड़ी में बैठ कर चले गये।

उस दिन मुरादाबाद से बदायूँ आते हुए मैं लगभग सारी बातों को भूल बस इसी बात को सोचती हुई घर तक आ गयी।

इस बीच मैंने उस शाम को भी दोहरा लिया जो पापा डॉ . उर्मिलेश के नवगीत संग्रह 'बाढ़ में डूबी नदी' के लोकार्पण के अवसर पर बदायूँ क्लब में सजी थी।लोकार्पण और संग्रह पर चर्चा के साथ-साथ पापा के गीतों को गाने का भी एक सेगमेंट रखा गया था।लोकार्पणकर्ता डॉ. माहेश्वर तिवारी थे।पापा और उनका बहुत घनिष्ठ संबंध रहा।

तब मेरे विवाह को लगभग दो तीन वर्ष हुए होंगे।उन दिनों थायरॉयड ने मुझे अपना घोर शिकार बनाया हुआ था।मेरी सधी आवाज़ अब काँपने लगी थी।साँस फूलती थी।वज़न 78 किलो पर पहुँच गया था।

पिता को बेटियां अपनी इन दुविधाओं से उस समय कब अवगत करवाती थीं।सो पापा का आदेश सिर माथे पर लिया मैंने कि तुम्हें भी मेरा एक गीत गाना है।

जैसा मुझे अंदेशा था वैसा ही हुआ।मैं पापा के सुंदर गीत के साथ बिल्कुल न्याय नहीं कर पाई।मेरे साथ ही बैठीं एक और गायिका जिन्होंने पापा की ग़ज़ल गायी थी ' उम्र की धूप चढ़ती रही और हम छटपटाते रहे ' बहुत मधुर गायी।एक थर्मस में वो अपने लिए गुनगुना पानी लाई थीं।जिसको देख मैं मन ही मन सोच रही थी कि देखो ये होता है अपने गले का ध्यान और अपने पैशन की कद्र।


अब कार्यक्रम अपने अंतिम पड़ाव पर था।माहेश्वर जी के हाथों हम सभी को स्मृति चिन्ह दिये जाने थे।

उस दो पल के समय में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा-बढ़िया गाया और मेहनत कर।


और जब सब याद आ ही रहा है तो मैं दैनिक जागरण के लिए नवगीतकार डॉ. योगेंद्र व्योम जी द्वारा माहेश्वर तिवारी जी का वो महत्वपूर्ण साक्षात्कार कैसे भूल सकती हूँ जिसमें उन्होंने तमाम प्रश्नों के उत्तरों में एक उत्तर गीत की बुनावट पर दिया है।।उनके गीत अधिकतर दो अंतरे के रहे।लेकिन उनका विस्तार असीमित था।शब्दों की मितव्यता उनके गीतों की ख़ासियत है।एक भी अतिरिक्त शब्द उनके गीतों में नहीं नज़र आता है।हर शब्द जैसे मोती सा जड़ा हुआ।बिम्ब अनूठे जो आसानी से कहीं पढ़ने में न आएं।ये साक्षात्कार आज भी मेरे संकलन में रखा हुआ है।

आज जब वो नहीं रहे तो पुन: ये सब स्मृतियाँ जीवंत हो उठी हैं।उसके बाद अनगित बार उनसे भेंट हुई।कई बार कवि सम्मेलनों के मंच पर भी।लेकिन अब ये सोनरूपा दो नावों में सवार नहीं थी।बस लिख ही रही थी वो।

उसने आईसीसीआर के इम्पेनल्ड आर्टिस्ट का रिन्युअल लेटर भी अब फाड़ कर फेंक दिया था।

मेरे गीत संग्रह के लोकार्पण पर भी आये वो।अब वो ठठा कर हँसते हुए कहते - ख़ूब लिख रही है अब।

'कोकिला कुल' किताब के उन्होंने कई लेखिकायें सुझाईं मुझे।

उनके घर का नाम हरसिंगार है।हरसिंगार जो मुझे बहुत प्रिय है उसी के चित्र से साथ स्मृतियों की ये ख़ुशबू आज पन्नों पर भी सहेज रही हूँ और यहाँ भी। दोपहर से लिखना शुरु किया अब शाम घिरने को है।सोच रही हूँ कि हमारे होने में कितने लोगों का होना शामिल होता है।


 ✍️ सोनरूपा विशाल

बदायूं

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित अर्चना उपाध्याय का संस्मरणात्मक आलेख .......तीन लोगों का समूह था: अब शून्य है

 


बाल पत्रिकाओं से शुरु हुआ मेरा किताबी सफ़र परिपक्वता के साहित्य प्रेम में बदल गया था।

प्रेमचंद से नई वाली हिंदी तक बहुत कुछ पढ़ा- जाना।समय- समय पर छपना- छपाना,पुरस्कार, सम्मान, पत्रिका संपादन आदि बहुत कुछ पर ठहरना भी हुआ।

लेकिन कुछ तो अपने काम की व्यस्तता ने धीमा रखा तो बहुत कुछ साहित्यिक दुनिया की अकथित परिभाषाओं ने असर डाला।

सालों के लंबे समय तक……

फिर मुरादाबाद आना हुआ। यहाँ भी उत्कृष्ट साहित्यिक पृष्ठभूमि थी, लोगों से परिचय तो हुआ लेकिन बढ़ाने की इच्छा नहीं हुई।

आदरणीय माहेश्वर बाबूजी को कौन नहीं जानता, ना भर पाने वाली तकलीफ़ के साथ बाँट रही हूँ कि मैं इस शहर में रहकर भी लंबे समय तक उनसे नहीं मिली थी।एक बार किसी कार्यक्रम में जब उनसे भेंट हुई ।तब उन्हें और क़रीब से जाना-

समझा। उनकी सरलता ने मुझ पर स्थायी प्रभाव छोड़ा था।सब उन्हें सम्मान के साथ दद्दा कह कर संबोधित कर रहे थे और वो अपने सादगी भरे अतुल्य व्यक्तित्व के साथ सभी से जुड़े थे।उनकी मधुर मुस्कान में मिले आशीर्वाद का सम्मोहन आख़िरकार मुझे उनके घर तक खींच ही ले गया।उस दिन उनके फ़ोन पर पता समझाने से लेकर स्वागत तक के अपनेपन ने ही मानो एक स्थायी संबंध का इशारा कर दिया था। कमरे में रखी सरस्वती माँ की मूर्ति और कई सारे पुरस्कार उनका पुनः परिचय देना चाह रहे थे लेकिन मुझे वहाँ कोई बड़ा साहित्यकार नहीं मिला, बल्कि एक स्नेहिल अम्मा- बाबूजी का साथ था। जिनके पास निश्छल प्रेम का एक ऐसा समंदर था जिसमें से मुझे भी अनमोल मोती मिलने वाले थे।वह दिन और आज का दिन , उनका स्नेहपाश आजीवन के लिए मुझे जकड़ चुका था।बीतते समय के साथ लगभग हर दूसरे -तीसरे दिन की बातों ने हमारे रिश्ते पर पड़े साहित्यिक शुरुआत के झीने आवरण को हटा कर पारिवारिक स्निग्धता से ढक दिया। 

उन पति- पत्नी का प्रेम मित्रता के अनूठे स्वाद से भरा था । उनकी चुहल भरी बातें, एक दूसरे का ख़्याल, उपस्थित समय को मंदिर की घंटियों की झंकार जैसे गुंजायमान कर देता।

एक को फ़ोन करो तो वो दूसरे को ज़रूर थमा देता था, एक को मेसेज करो तो जवाब दूसरा देता। इसलिए

जल्दी ही मैंने हम तीनों का एक वाट्स एप ग्रुप बना दिया और उसका नाम रखा अम्मा- बाबूजी । उस दिन वो खिलखिला कर हंसे थे और बोले बिलकुल सही किया हमारी ‘बिट्टू ‘ने।इस संबोधन ने तो मुझे पचास छूती उम्र में भी घर की उस ठुनकती नन्ही बच्ची में बदल दिया जिसके पास ज़िद, दुलार, अधिकार और न जाने कितनी चीजों की अंतहीन सूची होती है और सब पूरी होती है।

जिस दिन वो अपने नए घर के एक कमरे को लाइब्रेरी में बदल रहे थे उस दिन उनके पास ढेरों बातें और एक मासूम उत्साह था ,तब क्या पता था कि जिस लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते हुए चाय पीना था वहाँ अब साथ होना भी आभासी है।

मुझे वापस लिखने- पढ़ने से उन्होंने ही जोड़ा।मेरे समूह और प्रयास की सराहना की,मेरी कविताओं - कहानियों को सुनते, मुझे सुझाव देते, साहित्य समर्पण के लिए प्रेरित करते, कभी अपना कोई गीत गाते या कभी अपना कोई संस्मरण सुनाते बाबूजी..

बातों - यादों का कोलाज़ बनाओ तो सब सीमित हो जाता है लेकिन जिए गए विस्तार को कुछ शब्दों में समेट लेना आसान है क्या? 

मेरे लिये तो नहीं।

बाबू जी की गिरती तबियत ने सभी को बेचैन कर दिया था, इस बार जब उन्हें मिलने गई थी तो सुस्त से लेटे थे, मैंने कहा बाबूजी ,ये नहीं चल पाएगा, और सचमुच थोड़ी देर में ही वो उठे , बातें की और बोले अगली बार आओगी तो मैं चलता दिखाई दूँगा,

पर ऐसे चले जाना तो तय नहीं हुआ था।मेरे दिये करौली बाबा के लॉकेट को तकिये के नीचे रखते थे। मैंने कहा कि मन्नत माँगी है आपके ठीक होने पर फिर जाऊँगी, तो बोले -“मुझे ले चलोगी ना।” मैंने कहा- पहले पूरा ठीक होना पड़ेगा।

मैं बाबूजी को ले जाना चाहती थी!

मैं उन्हें ले जाना चाहती हूँ!…


अम्मा बताती हैं कि नवरात्रों में पूजा- पाठ को लेकर बाबूजी बहुत संवेदनशील रहते थे, इस बार भी उन्होंने हवन के लिए पूछा था लेकिन इस बार ख़ुद को ही समिधा होना चुन लिया।अंतिम विदा में भी उनके चेहरे की ओर देखने का साहस मुझसे नही हुआ,

लेकिन तब भी तमाम अधूरे वादों- इरादों की तीखी छुअन मेरी आँखों में चुभ गई है।

अंतिम दिन भी अम्मा को नवरात्रि का पाठ करते,  सुनने वाले बाबूजी के बिना उनकी पूजा अब कभी पूरी हो पाएगी क्या?

इतने पास रहकर भी उनसे इतनी देर से मिल पाने का मलाल कभी मन से भुला पाऊँगी क्या?

एक झटके में पूरा जीवन एक प्रश्न बन जाता है, और हमारे पास कोई उत्तर नहीं होता।

जब तक गाड़ी मुड न जाए तब तक गेट पर खड़े रहने वाले बाबूजी क्या अब भी अपनी बिटिया को ऐसे विदा करेंगे!

अपनों से मिला दुःख बहुत बड़ा होता है, लेकिन बताने के लिए शब्द घट जाते हैं।जो उनसे मिला … जिया…उसे कहने- सुनने की अनुमति मुझे अब सिर्फ़ मन से मन तक ही महसूस हो रही है।

 मेरे इस वाट्स एप ग्रुप की शून्यता मेरे अंतिम समय तक नहीं भर पाएगी।

संस्मरण बाँटना तो स्मृति का अंश भर है, लेकिन पीड़ा उम्र भर की स्मृति।

बाबूजी की बिट्टू

 अर्चना उपाध्याय 









बुधवार, 3 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (2).... बचपन वहीं रमण जाता है



 मैंने पड़ोस के गाँव रझा से सन् 1962 में कक्षा पाँच पास करके अपने गाँव से पश्चिम में पाँच किमी दूरी पर स्थित गाँव सतूपुरा के जनता राष्ट्रीय विद्यालय में छठी कक्षा में प्रवेश ले लिया था। पढ़ाई के इसी सत्र की वार्षिक परीक्षा से पहले ही मेरे पिताजी का अपने तीन भाइयों से बँटबारा हो गया था अर्थात मेरे तीन चाचाओं ने मेरे पिताजी को न्यारा कर दिया था। उसी वर्ष मेरी बीबी (माँ) को टीबी की बीमारी होने का पता हम लोगों को एक वैद्य जी को दिखाने पर लगा था। चिंता पर चिंता सवार होकर मेरे पिताजी के सामने मुँह बाये खड़ी थी। न्यारे कर दिए जाने पर घर गृहस्थी के आवश्यक सामान जुटाना और बीबी की बीमारी का इलाज कराना पिताजी की उस समय की क्षमता से परे था। मुसीबत पर मुसीबत यह थी कि उन दिनों टीबी बेहद खतरनाक बीमारियों में शुमार थी और उसका इलाज भी मुश्किल ही था।आर्थिक हालात विपरीत होते हुए भी पिताजी मुझे और मेरी बीबी को अपने ऊपर आई आफ़त पर आफ़त का आभास तक नहीं होने देना चाहते थे। मुझे स्वयं को तो बीबी की इस बीमारी और पिताजी की मन:स्थिति का लेशमात्र भी आभास वैसे भी इसलिए नहीं था,क्योंकि उस आयु में न तो इतनी समझ होती है और न ही घर-परिवार के किसी इफ एण्ड बट से कोई लेना-देना होता है।बस, खाया-पीया, खेले-कूदे और मौज उड़ाई।यही तो बचपन है जिसमें बचपना ही सब कुछ होता है। माता-पिता की उन गंभीर परिस्थितियों में भी बचपन कितना निश्चिंत और उन्मुक्त रह लेता है, इसे आजतक जब-जब सोचा है तब-तब मेरी आँखें से तब तक के जमा आँसू बह निकले हैं।

       मैंने संघर्ष देखा भी है, किया भी है और जीया भी है। इसलिए मैंने तुलसी दास की "लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ" पंक्ति की पूँछ तभी से पकड़ रखी है जब यह पंक्ति कहीं से भी मेरे संज्ञान में नहीं थी। तभी तो पिताजी के सम्मुख आई विकट समस्या के समाधान की किरण तब दिखाई देने लगी,जब मंडी धनौरा के गाँव पेली वाली मेरी बड़ी मौसी ने पिताजी को यह सूचना भिजवाई कि रूपदेई (मेरी माँ) को यहाँ ले आओ। धनौरा सघन क्षेत्र के अस्पताल में नए डॉक्टर आए हैं, उनसे बात हुई है। उन्होंने कहा है,यहाँ भर्ती करा दीजिए। ईश्वर ने चाहा तो बिल्कुल ठीक हो जाएँगी।

      बीस मई को मेरा छठी कक्षा का परीक्षा परिणाम मिलना था। परीक्षा परिणाम मिला। कक्षा में मेरा पाँचवाँ नंबर था। बीबी और पिताजी के अंदर बैठी चिंता के बाबजूद भी मेरे परीक्षा परिणाम ने उनके चेहरों पर प्रसन्नता के भाव ला दिए थे।उन दिनों घर का बालक पढ़ने जाए और पढ़ने लायक निकल आए,यह किसी भी परिवार के लिए अपार खुशी की बात हुआ करती थी। मेरे परीक्षा परिणाम आने के दो-चार दिन बाद ही पिताजी इधर-उधर से कुछ पैसों का जुगाड करके बीबी और मुझे लेकर मौसी के गाँव पेली को चल दिए।आज तो मेरे गाँव से पेली एक-सबा घंटे में ही पहुँच जाते हैं, लेकिन तब? सुबह से शाम हो जाती थी। मेरे गाँव से पाँच किमी पहले दहपा जाना पड़ता था और दहपा घंटों इंतजार करके सम्भल से हसनपुर जाने वाली बस में बैठकर हसनपुर पहुँचना तथा हसनपुर से जुगाड़ू साधन से गजरौला पहुँचकर रेलवे स्टेशन तक पहुँचना और वहाँ पर दो बजे तक ट्रेन का इंतजार करना। दो बजे ट्रेन से चलकर धनौरा पहुँचना और धनौरा से पैदल या स्टेशन से सवारी लेने अथवा छोड़ने आए किसी की बैलगाड़ी या ताँगा जैसे साधन के मिल जाने पर पाँच किमी चलकर पेली पहुँचना। इस रास्ते और इन साधनों से हम शाम तक दिन-दिन में ही पेली पहुँच गए। रेल तो धनौरा आधा घंटे में ही पहुँच जाती थी।पर गर्मियों में लोग स्टेशन पर ही पेड़ों की छाँव में कुछ खा-पीकर आराम करके दुपहरी ढले ही गन्तव्य के लिए प्रस्थान करते थे। जिन्हें कुछ आवश्यक कार्य या कोई विवशता होती वे ही उस रास्ते की तपती रेत की यात्रा पर दोपहरी में ही चल पड़ते थे। रास्ते में धनौरा से पेली तक रेत ही रेत और रेत के टीले थे। मैदानी भागों में रहने वालों के लिए तो वही रास्ता सचमुच में थार का मरुस्थल ही था। चलते हुए पाँव उस तपते हुए रेत में अंदर धँसने और बाहर निकलने में और तेज से गति से क्रियाशील होकर मंजिल शीघ्र तय करने में खूब मदद करते थे।

          आज तो धनौरा से पेली को चलें तो धनौरा से अमरोहा जाने वाली सड़क पेली के एक किलोमीटर दाँई ओर से गुजरती है और एक सड़क पेली के बाँई ओर से होती हुई नौगांवा सादात को जाती है। इन दोनों ही सड़कों पर प्राइवेट बस सेवा उपलब्ध है। लेकिन,उस समय? उस समय पेली से धनौरा का रास्ता रेत की भूड़ों का ही रास्ता था। गर्मियों के दिनों में उन भूड़ों का रेत शाम ढले तक तपता ही रहता था और सुबह को भी आठ बजे से ही तपना शुरू हो जाता था। पाँव भुनते रहते थे और मंज़िल तय होती रहती थी।

         अस्तु!दो दिन बाद बीबी को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। चार-छह दिन पिता जी वहाँ रहे तो मैं और पिताजी दोनों ही बीबी के लिए दोनों समय का खाना सुबह को एक बार ही लेकर पेली से रोज़ धनौरा आते और शाम को वापस पेली लौट जाते। बीबी के इलाज के लिए पिताजी को और पैसों की व्यवस्था करने तथा  बँटबारे में थोड़ी-बहुत खेती की जो जमीन आई थी, उसे किसी को बटाई पर देने के लिए अपने गाँव जाना आवश्यक था। उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम अपनी बीबी के लिए रोज़ाना खाना ले जाया करोगे। मैंने उत्साह में भरकर ख़ुशी-खुशी कह दिया,हाँ।दो दिन बाद पिताजी गाँव चले गए और मैं रोज़ाना बीबी का खाना ले जाने लगा।सुबह आठ-नौ बजे तक पेली से चलता। एक-डेढ़  घंटे में अस्पताल पहुँचता और दिन ढले धनौरा से चलकर सूरज छिपने से पहले-पहले पेली पहुँच जाता। गर्मा-गर्म रेत का ठंडियाता वह सफ़र मेरे नन्हें पाँव तय करना दो-तीन दिन में ही सीख गए थे।

            बालपन की छोटी सी उस उम्र में न खेल-कूद और न ही बचपन की मटरगश्ती,बस पेली से धनौरा और धनौरा से पेली। बचपन की दिनचर्या इतने में ही सिमट कर रह गई थी। इतने दुखदाई समय में मन इसलिए प्रसन्न रहने लगा था कि बीबी की बीमारी में दिनों-दिन सुधार होने लगा था और वह शारीरिक रूप से सुधार के कारण मानसिक चिंता से प्रसन्नता की ओर लौट लगीं थीं।

           धनौरा अस्पताल 'सघन क्षेत्र' में स्थित था और सघन क्षेत्र धनौरा से चाँदपुर जाने वाली सड़क के बाँई ओर एक दम बाहर की साइड था। किसी भी चीज की आवश्यकता होने पर धनौरा की बजरिया तक जाना ही पड़ता था। और तो किसी चीज की आवश्यकता अस्पताल में पड़ती ही नहीं थी।हाँ,कपड़े धोने का साबुन या छोटा-मोटा कुछ सामान ले आने के लिए मैं अस्पताल से बजरिया दो-तीन बार जा चुका था। एक दिन बीबी ने मुझे एक चवन्नी देकर कहा जा बजरिया से तरबूज ले आ।मैं चवन्नी लेकर बजरिया को चल दिया। बजरिया में कई जगहों पर तरबूज के बड़े-बड़े ढेर लगे हुए थे।एक ढेर पर मैं रूक गया और अपनी पसंद का तरबूज छाँटने में लग गया। छोटे-बड़े कई तरबूजों के मैंने पैसे पूछे।कई तरबूज चार आने से अधिक के थे।तब तरबूज वाले ने ही मुझसे पूछा - "बेटा तुम्हें कितने पैसे वाला तरबूज चाहिए।" मैंने कहा - " मेरे पास तो एक चवन्नी है।" तरबूज वाले ने मुझे एक चार-पांच सेर का तरबूज निकाल कर दे दिया। मैंने तरबूज लिया और चवन्नी तरबूज वाले को देकर वापस चल दिया। तरबूज ले जाकर अस्पताल में बीबी को दे दिया। बीबी का ध्यान मेरे पाँव पर गया तो वह तपाक से बोलीं कि तेरे चप्पल कहाँ हैं? चप्पल पाँव में थे ही नहीं। मैं उदासी से भर गया। कंगाली में आटा जो गीला हो गया था। मैंने बीबी से कहा बीबी चप्पल तरबूज वाले के यहाँ ही रह गए। मुझे याद आ गया था कि मैं चप्पल उतार कर अपनी पसंद का तरबूज लेने के लिए तरबूजों के ढेर के चक्कर काट रहा था। मैं बीबी से कहकर बजरिया को अपने चप्पल ले आने के लिए चल दिया। तरबूज वाले के पास पहुँचा और उनसे मैंने कहा कि मेरे चप्पल यहाँ रह गए थे। उन्होंने कहा - देख लो बेटा! कहाँ रह गए थे? मैंने वहाँ अच्छी तरह से हर जगह देख लिया लेकिन चप्पल नहीं मिले और मैं वापस लौट आया। लौट कर बीबी की गोद में मुँह देकर लुढ़क गया और खूब रोया । बीबी भी मेरे रोने पर जी भर कर रोई।उस दिन चप्पलों का खो जाना, मेरे लिए मेरा तो बहुत कुछ खो जाना था।उस समय मेरे चेहरे पर घोर उदासी थी ही पर मेरे भीतर और भी घनघोर उदासी व्याप्त थी। मैं और बीबी दोनों ही तरबूज खाना भूलकर चप्पलों में ही खो गए। किसी चीज का किसी के लिए क्या महत्व होता है,वह ऐसे ही क्षणों में पता लगता है?उस दिन मुझे ऐसा लगा कि चप्पल क्या गए बड़ा सहारा चला गया। बड़ा सहारा इसलिए कि प्रतिदिन भूड़ो के गर्म रेत के रास्ते की यात्रा करने में ये चप्पल ही तो एकमात्र सहारा थे।अब जाने चप्पल कब नसीब होंगे,कैसे होंगे,कुछ भी पता नहीं।चप्पल मुझ पर नहीं थे पर मैं चप्पलों में ही पड़ा हुआ था। तरबूज न बीबी ने खाया और न ही मैंने । दोपहरी ढले मैं हर दिन की तरह रुआंसा सा पेली के लिए चल दिया। पेली पहुँचा तो मुझे उदास देख मौसी ने पूछा कारिनदर क्या बात है,बेटा। मैंने सारी कहानी सुनाई तो मौसेरे भाई-बहन और मौसी इतना हँसें कि उनकी उन्मुक्त हँसी ने मुझे भी हँसा दिया और मौसी ने ढाँढस बँधाया कि चिंता मत कर बाबले,चप्पल ही तो खोए हैं,मौसा-मौसी थोड़ी ही खोए हैं। तेरे मौसा जिस दिन धनौरा जाएँगे, तुझे चप्पल दिला देंगे या गाँव में फेरुआ आ गया तो मैं यहीं ले लुँगी तेरे नाप के। मैं अगले दिन नंगे पाँव बीबी का खाना लेकर गया तो मैंने बीबी को बताया कि मौसी ने कह दिया है कि वह मुझे चप्पल दिला देंगी। बीबी ने मुझे गले लगा लिया और तरबूज फाड़कर मुझे खिलाने लगीं साथ- साथ उन्होंने खुद भी खाया। मेरे पीछे-पीछे मौसा जी भी अस्पताल पहुँच गए और बजरिया ले जाकर मुझे चप्पल दिला लाए। शाम को मैं और मौसा जी पेली पहुँच गए और हमारे एक -डेढ़ घंटे बाद पिताजी भी अपने गाँव से अस्पताल होते हुए पेली पहुँच गए।

    पहले तो मेरे चप्पलों पर आपस में खूब बात हुई।मेरे खोए चप्पल मुझे गुदगुदाने की कहानी बन गए,

पर मेरी चिंता तो उड़नछू होकर नए चप्पलों का गौरव पाकर बल्लियों उछलने लगी थी। जुलाई आने को थी।मेरा स्कूल खुलने वाला था। मुझे अपने गाँव लौटना था। पिताजी ने पूछा - कारेन्द्र तुम अकेले गाँव चले जाओगे। मैंने उछल कह दिया,हाँ। और अगले दिन

पिताजी ने मुझे आधा टिकट लेकर धनौरा से गाड़ी

मैं बैठा दिया और खर्चे के लिए बीस रुपए देकर गाड़ी में बैठाकर घर के लिए विदा कर और मैं शाम को अपने घर पहुँच गया।

       घर पर दादी थीं और दो चाचा जी थे। न्यारे हो ही चुके थे। मुझे सभी का व्यवहार बदला-बदला लगा। मैं

सुबह को अपना बस्ता और कपड़े लेकर स्कूल चला गया। सतूपुरा स्कूल के एक किलोमीटर पर पेली नाम का ही एक गाँव है।वहाँ मेरी दो मौसियां थी। उनके घर भी बराबर-बराबर ही धे। दोनों घरों में कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता था। परस्पर मेल-जोल का अभूतपूर्व उदाहरण थे वह दोनों घर। मैं स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी मौसियों के यहाँ पहुँच गया।मैं मौसी के घर से ही स्कूल आने-जाने लगा। उधर जुलाई के अंत तक पिताजी भी बीबी को लेकर गाँव पहुँच गए और इस सूचना को अपने गाँव के अन्य छात्रों से जानकर मैं भी अपने गाँव चला गया। बीबी बिल्कुल ठीक होकर घर पहुँची थीं। दवाई आगे भी चलनी थी।

         एक दिन पिताजी और बीबी दोनों ने पूछा कि तू यहाँ आकर मौसियों के यहाँ क्यों चला गया। मैं उन्हें उनके प्रश्न का उत्तर तो नहीं दे पाया, लेकिन उत्तर तो मेरे पास था कि उपेक्षा के दर से लाड़,प्यार और दुलार के घर चला गया था। बचपन को यही तो चाहिए।यह जहाँ भी मिल जाता है, बचपन वहीं रमण जाता है।

        

✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

झ -28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद - 2440011

मोबाइल: 9319086769

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