शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (6).... दादा! एक्सटेंपोर साहित्यकार थे


 सन् 1970 जुलाई में केजीके पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में मैंने एडमिशन ले लिया। उन दिनों डिग्री कॉलेज में पढ़ने के गौरव और वैभव के अपने अलग ही ठाट-बाट थे। मैं अप-टू-डेट होकर इसे जीने के लिए हर दृष्टि से तैयार था।फूफा जी के पास रहकर जो चाचा जी सीडीओ ऑफिस में नौकरी करते थे,उनका सन् 1968 की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में  विवाह हुआ था। बारात में पहनने के लिए उन्होंने मेरे लिए भी एक जोड़ी पैंट और शर्ट बनवाए थे। तब से ही मेरे पहनावे में पैंट-शर्ट दाखिल हो चुके थे। फूफा जी बहुत टीप-टॉप रहने वाले व्यक्ति थे। खद्दर के धोती कुर्ता एक दम सफेद बुर्राक प्रेस हुए ही पहनते थे। उस समय लोहे की छोटी प्रेस उनके घर पर ही थी। मैंने प्रेस करना और प्रेस हुए कपड़े पहनना सीख लिया था। अब मैं डिग्री कॉलेज का विद्यार्थी था न।

          फूफा जी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उसी कॉलेज में पहूँच गया तो उन्हें देखने की इच्छा और भी बलवती हो गई।उसका एक कारण यह भी था, जिसकी चर्चा करना बहुत आवश्यक है।फूफा जी ने मुझे और फुफेरे भाई मुन्नू को हसनपुर तहसील के गंगेश्वरी गाँव एक पर्चा देकर कैलाश देव जी के पास भेजा। मैं और मुन्नू सुबह ही पहली गाड़ी से निकलने के लिए स्टेशन पहुँच लिए।जब हम स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी सीटी दे रही थी। चलने को एकदम तैयार थी।हम टिकिट बिना लिए भाग कर गाड़ी में चढ़ लिए। हमें गजरौला उतरना था। गाड़ी गजरौला जाकर रुकी और हम उतर कर बाहर निकलने वाले गेट की तरफ बढ़ लिए। यद्यपि लोग दाएँ-बाँए से भी अपने जाने पहचाने निकासों से भी निकल रहे थे, पर हमें इतनी अक्ल नहीं थी। हम निकासी गेट की ओर ही बढ़ते गए।गेट पर मुस्तैद टी.सी. महोदय ने हमसे पूछा लिया कि टिकिट?। टिकिट होता तो हम कुछ बोलते। टिकिट था नहीं तो हम कुछ बोले भी नहीं।टी.सी. महोदय ने हमें अपने बराबर में एक ओर को खड़ा कर लिया। टिकिट कलेक्शन का कार्य पूरा करने पर वह हमें अपने कमरे में ले गए।वहाँ उन्होंने हमसे प्रश्न किए। हमने उनके प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिए। क्या करते हो के उत्तर में हमने कहा कि हम विद्यार्थी हैं। उन्होंने तपाक से पूछा - ' कहाँ पढ़ते हो '? मैंने फटाक से कहा कि केजीके कॉलेज में।उनका प्रश्न था - ' किस कक्षा में?' मैंने कह दिया कि बी.ए.फर्स्ट में।उन्होंने पूछ लिया कि हिन्दी कौन पढ़ाता है? मैंने कहा - ' प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी।' इस उत्तर पर वह रुक गए। आगे अन्य कोई  प्रश्न नहीं किया और कहा - 'आगे से कभी बिना टिकिट मत चलना। तुम्हें इसलिए छोड़े देता हूँ कि मैं भी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का ही विद्यार्थी हूँ।' जान बची और लाखों पाए।हम झट से निकल बाहर को आए। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की ऐसी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान,जिसने हमें जेल जाने से बचवा दिया। इस घटना का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि उनका नाम मेरे हृदय में घर कर गया। मैं उनकी छवि को भी अपने हृदय में उतार कर बसाना चाहता था, इसलिए उनके दर्शन करने को उतावला था। एक दिन मित्र के इंगित करने पर कि वह हैं, प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी। मैंने दूर से ही उनके दर्शन कर लिए और इतने भर से ही मेरी मन मुराद पूरी हो गई। अब उनकी छवि ने भी मेरे हृदय में उतर कर घर कर लिया। इसके बाद से प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी मेरे हृदय से नहीं निकले। मैं उन्हें अपने भीतर लेकर जिया हूँ। उनके प्रति अपने इसी भाव के कारण मैंने अपनी  गीत कृति " गीतों के भी घर होते हैं " उनको  समर्पित करके अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। पर अभी तो उन्हें मात्र देखा भर था, उनसे परिचय शेष था और उनकी कक्षा में पढ़ना बाकी था।

        यह इच्छा भी तब पूरी होती दिखी जब अपनी कक्षा के टाइम-टेबल में हिन्दी साहित्य का पीरियड तीन दिन प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के नाम आवंटित दिखा। वह दिन भी आ ही गया,जब मैं प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की कक्षा में मैं खड़ा होकर अपना परिचय दे रहा था। परिचय में फूफाजी का नाम आने पर मेरा परिचय पूरा हो गया और उन्होंने कहा कि चन्द्र दत्त जी को मैं भली भाँति जानता हूँ।बैठ जाओ।पूरी कक्षा के सभी छात्रों का संक्षिप्त परिचय होने के बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने अपने एक ही घंटे में कक्षा नहीं छोड़ी अपितु दो घंटे तक क्लास ली।उनका पढ़ाना एकदम अलग तरह का था। जिसका उद्देश्य किताब पढ़ाना कतई नहीं था बल्कि यह पढ़ाना था कि हम विद्यार्थी अपने विषय को पढ़ना सीख जाएँ और उसे पढ़ना सीखकर दूसरों तक पहुँचाना सीख जाएँ। पढ़ाई के साथ मूल्यांकन के लिए जुड़ी परीक्षा शायद इसीलिए ही है। दुर्योग से उस वर्ष मैं कड़ी मेहनत करने पर भी बी.ए.पार्ट वन में फेल हो गया। पुनः बी.ए.पार्ट वन में एडमिशन ले लिया। अब तक  कॉलेज में मेरा नाम मुझे पढ़ाने वाले शिक्षकों तक इस रूप में भी पहुँचने लगा था कि मैं कविता करता हूँ। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के संज्ञान में भी यह बात आ गई। एक दिन उन्होंने मुझसे स्वयं कहा कि कविता लिखते हो,मेरे घर "अंतरा" की गोष्ठी में आया करो।

        यह प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का मेरे प्रति उनके 

भीतर उमड़ा अगाध स्नेह ही था जिसने मेरा "अंतरा" में जाने का संकोच खत्म कर दिया। "अंतरा" की गोष्ठी दूसरे और चौथे रविवार को प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के कटरा नाज़ स्थित घर पर ही होती थी। जो मेरा देखा-भाला था, फिर भी मैं सन् 1971 के अगस्त माह के दूसरे या चौथे सोमवार को गया था,यह तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, पर मैं हुल्लड़ मुरादाबादी जी के साथ गया था, क्योंकि तब तक मैं उनके संपर्क में आ चुका था। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर पहुँचकर मैंने उनके चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम किया तथा उनके बाद अन्य वरिष्ठों के चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन वहाँ पर सभी आगंतुक प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का अभिवादन "दादा" कहकर कर रहे थे। उस दिन मुझे पहली बार पता लगा कि प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी को सभी लोग दादा संबोधन से ही पुकारते हैं। यहाँ तक कि उनके बच्चे वंदना, गोपाल, गोविंद और आरती भी। गोष्ठी में मेरी रचना को भी सराहना मिली और मुझे विशेष लाभ यह हुआ कि उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में से अधिकतर से मेरा परिचय एक साथ ही हो गया। फिर "अंतरा" की गोष्ठी में मेरी उपस्थिति नियमित हो गई। गोष्ठी में सबसे पहले पहुँचना और सबसे बाद में आना। गोष्ठी दिवसों के इन दोनों अंतरालों में दादा को सुनकर लाभान्वित हो लेना मेरी आवश्यक दिनचर्या बन गई, जिससे मैं दादा को जी भरके सुन सकने का सौभाग्य पा सका। हर महीने के इन दो दिनों में ही मैंने उनसे वह सुना जो किसी ने नहीं सुना।

        उन दिनों "अंतरा" में नियमित आने वाले सदस्यों

में पं.दुर्गा दत्त त्रिपाठी,अंबालाल नागर,क़मर मुरादाबादी, गौहर उस्मानी पं.मदन मोहन व्यास, कैलाश चन्द्र 'अधीर' सुरेश दत्त शर्मा 'पथिक', बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी',मनोहर लाल वर्मा,शील कुमार 'शील', ललित मोहन भारद्वाज, हुल्लड़ मुरादाबादी, अजय अनुपम प्रमुख थे। गौहर उस्मानी साहब के बाद मंसूर उस्मानी भी "अंतरा" की गोष्ठियों में आते रहे हैं। मुरादाबाद के अन्य रचनाकार भी समय-समय पर "अंतरा"  से जुड़ते रहे हैं। प्रवेश मिलने पर मैं नवप्रवेशी भी नियमित आने लगा ही था और मुरादाबाद आने पर आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी भी "अंतरा" में नियमित आने लगे थे। मेरी याद में मुरादाबाद की साहित्यिक परंपरा में ऐसी उच्च कोटि का कालखंड आजतक कभी नहीं रहा। मैं उस कालखंड की छाया में लम्बे समय तक अपने रचना-कर्म में पलकर रचना-धर्म के साँचे में ढला हुआ व्यक्ति हूँ, जिसने सभी से बहुत कुछ सीखा है।

       दादा! उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही,साथ ही वह उच्च कोटि के वक्ता भी थे।जो भी विद्याार्थी उनसे पढ़े या जिन व्यक्तियों ने भी उन्हें सुना उन सब पर उनका उच्च कोटि का ज्ञान उच्च कोटि में ही पहुँचा।वह जिस बहुमुखी और बहुआयामी प्रतीभा वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे, उसके लिए विलक्षण शब्द भी अपनी भावाभिव्यक्ति में सटीक प्रतीत नहीं होता। वह हर विषय पर खूब बोलते थे।बड़ा जमकर बहुत ही सटीक बोलते थे। कितने ही समय तक निर्बाध बोलते रहने की विद्वता उनमें विद्यमान थी। सृजनशीलता भी उनमें भरपूर थी, पर वह उसे कागज़ पर उतारने में बेहद उदासीन थे। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक विचार अकाट्य होता था।वह तार्किक नहीं थे अपितु विषयों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक जानकार थे। दादा को मैंने जितना भी सुना,उससे मुझे लगता था कि दादा वर्तमान नामधारी साहित्यकारों में से किसी से भी उन्नीस नहीं हैं। वह आपनी साहित्यिक निधि कागज़ पर उतार कर संचित करने वाले साहित्यकार न होकर साहित्य को उस ही की भाषा में अपनी वाणी की मिठास से सुधीजन के हृदय में उतार देने वाले साहित्यकार थे।अपनी छोटी सी साहित्यिक समझ के आधार पर मैं यह कहने में कतई संकोच नहीं करूँगा और न ही लेश मात्र भी हिचकूँगा कि दादा 'एक्स्टेंपोर' साहित्यकार थे। यदि मुझे हिन्दी साहित्य की विशद व्याख्या का सुअवसर मिला होता तो  उस कालखंड में 'एक्सटेंपोर' अर्थात 'आशु साहित्य' की खोजबीन और छानबीन करके उस कालखंड को  "प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप युग " नाम देने के हर संभव प्रयास और अपने स्तर के सारे यत्न किए होते।

          मेरी इस भावना को इस आलेख की ये अंतिम पंक्तियाँ निश्चित ही पुष्ट करेंगी। दादा के अध्ययन काल के सहपाठियों की मंडली में डॉ. शम्भू नाथ सिंह, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, डॉ. विजय देव नारायण साही, केशव चन्द्र वर्मा आदि जैसी साहित्य की महान विभूतियाँ थी,जो उस समय अपने-अपने क्षेत्र की सिरमौर थीं। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी क्या नहीं हो सकते थे? इनमें से विजय देव नारायण साही के अतिरिक्त मैं समय-समय पर इन सभी से मिला हूँ और मेरी इन सभी से दादा को लेकर खूब चर्चा हुई है। उनसे हुई चर्चा में एक बात सभी ने प्रमुखता से कही - " हमारी मित्र मंडली में सर्वाधिक योग्य विद्यार्थी का नाम महेन्द्र प्रताप था। 

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड,मुरादाबाद- 244001

मोबाइल: 9319086769 

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