सोमवार, 24 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग की अठारह मुक्तछंद रचनाएं । ये कविताएं हमने ली हैं उनके गद्य गीत संग्रह -'सांसों की समाधि' से । उनका यह संग्रह वर्ष 2013 में पार्थ प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की भूमिकाएं डॉ पूनम सिंह और राजीव सक्सेना ने लिखी हैं ।


 


















::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ---आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को



आप सुनो तो तान छेड़ दूं, मन के गीत सुनाने को

सर सर सर बहती है सरिता, मन के भाव जताने को 


चंदा ने चुनरी फहराई, तारों का मस्तक चूमा

इठलाई बलखाई नदिया,  देख नज़ारा मन झूमा 

कौन सुने अब मन की बातें, घर सागर के जाने को

आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।


पोर-पोर में पीर समाई, सुबक- सुबक नैना रोये

जब जब बरसे मेघा पागल, बैठे बैठे दिल खोये

बड़ी है आकुल मन की कश्ती, खुद ही मर मिट जाने को

आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।


मेरा जीवन उसका जीवन, किसका जीवन क्या कहना

रास रंग की देख तरंगे, अद्भुत हैं दिल में रखना

लहर लहर फिर लहर लहर है, सागर गंगा जाने को 

आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 23 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग के ग्यारह नवगीत । ये सभी नवगीत हमने लिए हैं वर्ष 2013 में पार्थ प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित उनके नवगीत संग्रह 'अपने-अपने सूरज' से । इस संग्रह में उनके 51 नवगीत हैं। संग्रह की भूमिका लिखी है जितेन्द्र जौहर ने ।


 (1)

बूढ़े-बड़े सभी

हर घर में

अब केवल सामान हैं

बहू-पोतियाँ

पोते कहते

जीवन में व्यवधान हैं


खाँस रही है

दादी, दादा

अदरक चटा रहे हैं

अम्मा को

बापू बुखार का

सीरप पिला रहे हैं


वर्षों से जो

रखे-संवारे

चूर हुए अरमान हैं


हीरोहोंडा

मोटर साइकिल

एक्टिवा स्कूटर

पोते यारों के संग

घूमे

कार इनोवा लेकर


कमर दर्द से

बाबा पीड़ित

जो घर की पहिचान हैं


मात-पिता से

बतियाने का

बेटे समय न पाते

सारी दुनिया घूमे

उनके पास नहीं आ पाते


फिर भी

मात-पिता को बेटे

सचमुच प्राण समान है


आज आदमीयत

रोती है 

फूट-फूट हर घर में

बूढ़ी छड़ी

हाथ में है बस

कोई नहीं सफर में


मौत सत्य है

सब कुछ झूठा

हम इससे अनजान हैं


(2)

कुनबे के अब अमन चैन पर

गिरती रोज़

बिजलियाँ

पच्छिम की

सभ्यता-संस्कृति

ओढ़े फिरें युवतियाँ


चकिया-चूल्हे

वासन-भाँडे

आपस में लड़ते हैं

आँगन-आँगन

देहरी-द्वारे

सुबह-साँझ भिड़ते हैं


कमरों में है हाथापाई

रोयें देख

खिड़कियां


भाई-भाई में अनबन है 

पिता-पुत्र में झगड़े 

माँ-बेटी

भाई-बहिना में

मनमुटाव हैं तगडे़


घर के धंधे चौपट 

गायब सुख की 

सभी तितलियाँ


उगीं नागफनियाँ

खेतों में

अरु खलियान धतूरे

बिटिया के 

व्याहन के सपने

फिर रह गये अधूरे


ऐसी दशा देख 

बरसातीं 

आंसू स्याम बदलियाँ


(3)

सुबह दुपहरी साँझ रात है 

चन्दा है दिनमान है 

घर खलियान खेत चौपालें 

गली-गली श्मशान है


लोकतंत्र है सब स्वतंत्र हैं 

न्यायपालिका बूढ़ी 

घर है एक कई चूल्हे हैं 

आँगन-आँगन दूरी


जिधर देखते अंधकार है 

डरावना सुनसान है


रक्षक ही भक्षक है अब तो 

कैसे लाज बचेगी 

तुलसी की अनछुई जिन्दगी 

कैसे हाय! कटेगी!


सभी जगह अब पसर रही है

गिद्धों की मुस्कान है


अपने-अपने सूरज 

अपने-अपने हाथों लेकर 

हमने हैं तय किए रास्ते 

खुद अपने ले देकर


गीता और बाइबिल के संग 

झुठला दिया कुरान है


गिद्ध-भेडिए स्वान-सियार मिल

 लाशें बाँट रहे हैं 

 खून सने लोथड़े माँस के

 दाँतों काट रहे हैं


चिडियों के घोसलों बीच में 

बाज बना मेहमान है

खरगोशों के भोले बच्चे 

थर-थर काँप रहे हैं

रेशम के बिस्तर में 

सोये काले साँप रहे हैं


बारूदी टीले पर सचमुच 

बैठा हुआ जहान है


(4)

खून चाहिए

इन्हें किसी का 

हो इनका या उनका


खूनी कुत्ते

छिपे हुए हैं

फूलों की हर क्यारी

हाथ लिए तेजाब

सुलगती ज्वाला

की चिन्गारी


निर्दयता से

रौंद रहे

बूटों से तिनका-तिनका


बच्चों के

हाथों में दें यह

बम्ब और हथगोले

जला रहे हैं

शहर-बस्तियाँ

धरती थर-थर डोले


इनका कोई

नहीं जहाँ में 

कहें जिसे यह अपना


फगवा गाते

गेहूँ बालें

लिए मटर की कलियाँ

बध करते

उनको जिनके

हाथों फूलों की डलियाँ


मौत सामने

खड़ी देख

सूरज का माथा ठनका


मानव सूरज

बीच बनाते

हैं ये रोज सुरंगें

मनुज देह को

काट बिगाड़ें

जैसे लाल पतंगे


प्यार प्रीति की दुनिया 

इनके बीच

हो गयी तिनका


(5)

गर्म ख़ून से

अपनी धरती

लाल हो रही है अब


स्नेह- प्यार के

झरने सूखे

कहीं नहीं है मंगल

साँसों की

चहुँ ओर बिछा

सन्नाटा काला जंगल


धरती माता

अपना धीरज

रोज खो रही है अब


किए मजहबों ने

पैदा हैं

ईश्वर अपने-अपने

दिखा रहे सारी जनता को

रंग-बिरंगे

सपने


लहुलुहान मानवता

यह सब देख 

रो रही है अब


मजहब का परिधान पहिन 

नर-गिद्ध भेड़िए आते 

अपने को

मानवता का

सच्चा हमदर्द बताते


मानव-सम्बन्धों की हत्या 

रोज हो रही है अब


(6)

मचा हुआ कोहराम तितलियों में

भोले अलियों में

रखी हुयी चिनगारी है अब 

फूलों में कलियों में


धुवाँ धमाकों चीखों हल्लों 

हंगामों से अपनी

भरा हुआ माहौल धरा का

 फैल रही बद अमनी


त्राहि-त्राहि- सी मची हुयी है 

धरा-गगन गलियों में


मरी तितलियों की लाशें 

टकराकर तेज पवन में 

रेत-रेत हो-हो गिरती 

जंगल उपवन आँगन में


तैर रहे हैं जीवित मुर्दे 

लाल-लाल नदियों में


शोर-शराबा आगजनी 

होती निर्मम हत्यायें 

चढ़ी हुयी आतंकी धनुषों

की है प्रत्यंचायें


ऐसा देखा गया नहीं है 

अब तक तो सदियों में


(7)

मुझे न अब सूरज की किरनों से 

बतियाना भाये 

मेरे बाहर-भीतर कोई 

तीखी अगनि जलाए


पीपल के पेड़ों पर उल्लू 

और गिद्ध बैठे हैं 

जीवित मुर्दे द्वारे-द्वारे 

दस्तक दे लेटे हैं।


सरसों के खेतों से अब 

कोई आवाज़ न आये


बदबूदार सड़ी मानव 

लाशें तैरें नदियों में 

मक्खी-मच्छर रहे भिनभिना 

हैं संकरी गलियों में


उतर रही खामोशी है 

झीना परिधान सजाये


मानवीय गुण स्नेह दया 

करुणा दुलार बीते हैं 

श्रद्धा प्यार मुहब्बत से 

अब सबके मन रीते हैं


जहरीली चल रही हवायें 

कली-फूल मुर्झाये


(8)

प्रजातंत्र में सभी घटक

सरकार बन गये हैं 

शासन के अधिकारी तो

परिवार बन गये हैं


राम -खुदा बन्दी हैं अब तो 

मन्दिर-मस्जिद में 

जली जा रही सारी दुनिया 

आतंकी जिद में


मानव के कर्तव्य सभी 

अधिकार बन गये हैं


वर्ण–भेद का सूरज जग में 

अब भी चमक रहा 

मानवीय संदेश एक पर 

निर्णय विमत रहा


धर्म सभी उपकार छोड़ 

हथियार बन गये हैं


गांधी और मंडेला दोनों 

बैठे हैं गुमसुम

मानवता के दुश्मन फिर भी

नाच रहे छमछम


हृदय हमारे फूल नहीं

तलवार बन गए हैं


(9)

नील झील में जब जब सूरज 

रो-रो डूबा है 

धुँधलाये क्षितिजों पर हमने

रंग सजाए हैं


दुख को भुला सपन सतरंगी

जीवन में बोये

दहशतगर्त हवाओं के

काले चेहरे धोये


बारूदों की छाया में भी 

फूल खिलाये हैं


वन-उपवन के फूल-फूल में

जब यौवन काँपा  

गंध चन्दनी के घर में

विषधर ने आँगन नापा


काले सन्नाटे के हमने

पंख जलाए हैं


जब-जब भी बिगड़ैल मौत की

 छायायें पसरें 

 आसमान में तड़प बिजलियाँ 

 धरती पर उतरें


सागर से मोती चुन-चुन

 झोली भर लाये हैं


उदासीन गीले आँगन का 

मन बहलाया है --

वीरानेपन की छत पर चढ़ 

शोर मचाया हैं


इन्द्रधनुष से गीत रंगीले 

हमने गाये हैं


(10)

कदम-कदम खानापूरी 

चहुँ ओर दिखावा है

सभी ओर मरुथल

पानी तो

सिर्फ छलावा है


पत्ते नुचे

टहनियाँ टूटी

कोपल बची नहीं

चैती कजरी के

स्वर मीठे

मिलते नहीं कहीं


कलियों की

मुस्कानों को

दहशत ने बाँधा है


बैसवारी की

घनी छाँव में

आँखें रोती हैं.

मिलते नहीं

गुलाबों की

पाँखों पर मोती हैं


नये भोर में

लम्हा-लम्हा

झरता लावा है।


पंख तितलियों के

चिड़ियों के

और पतंगों के

गली-गली

उड़ते हैं चिथड़े

मानव-अंगों के


फूलों की

लाशें ढो ढो कर 

दुखता काँधा है


गर्म हवाओं ने

जब-जब भी

झुलसाये सावन 

बाग-खेत

खलियान पोखरे

रेत हुए आँगन


हमने

औरों का दुःख अपने 

सुख से साधा है


(11)

शब्द-शब्द टूटा-फूटा 

अर्थ-अर्थ लंगड़ा लूला है

कैसे मन के 

गीत सुनायें!


आंगन -आंगन द्वारे-द्वारे

नफरत का अंकुर फूटा है

नभ ऊचें उड़ते-उड़ते 

गौरैया का पर टूटा है

 सूना-सूना जीवन अपना 

 फिर कैसे

घर बार सजायें


बादल जैसी भीगी साँसे 

भीतर चुभे दर्द की फाँसें 

बदल-बदल मौसम हत्यारे 

इस दुखिया जीवन में खांसें


चाट रही दीमक रिश्तों को 

कैसे मन की

बिथा बतायें


छाती फटी ताल की नदिया 

बार-बार हिलकी भरती है 

धूल नहाते मरी चिरैया 

सचमुच पानी से डरती है


चौखट-चौखट दहशत बैठी

कैसे 

चैती-सावन गायें


पड़े रेत पर शंख चीखते 

बार-बार पानी-पानी हैं 

इन्द्रधनुष हो गये सयाने 

रंग सबके सब बेमानी हैं


कण्ठ-कण्ठ सांपों की माला

कैसे

सोया बीन जगायें


::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822





मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) के साहित्यकार त्यागी अशोक कृष्णम की रचना --कितने बचकाने हो ?

 


मेरे, 

कंधे, पकड़ कर हिलाते हुए, 

छोटू बोला! 

क्यों पापा?

उम्र के, 

इस पड़ाव पर भी, 

तुम कितने बचकाने हो,

 हां!

हो तो हो! 

तुम बचकाने हो!

 उम्र के इस पड़ाव पर भी,

 और हद यह है, 

कि तुम समझते भी नहीं,  

कि, तुम बचकाने हो!

 तो, 

मैं ही, 

तुम्हें समझाएं देता हूं, 

कान में ही बताएं देता हूं, 

ऊंचा बनने की अप्राकृतिक जिद ने, 

तुम्हें बचकाना बना दिया है,

 और तुम समझते भी नहीं हो! 

कि तुम बचकाने हो,

 उम्र के इस पड़ाव पर भी,

 तुम कितने बचकाने हो!



 ✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्

 कुरकावली संभल

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 22 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की सजल ---सब गिरगिट राजनीति के, खेलेंगे हर दांव, जनता ही मारे पटकी, पदघात चुनाव में


नेता करने वाले हैं, आघात चुनाव में!

धन की होने वाली है, बरसात चुनाव में!


बात करेंगे बड़ी-बड़ी, मनहर व्यवहार में;

दिखला देंगे वोटर की, औकात चुनाव में!


मार कुंडली बैठे ज्यों, अजगर बाजार में;

मुखिया जी त्यों कर देंगे, प्रतिघात चुनाव में!


जादू नटवरलाल करें, अदभुत ही मंच पर;

भोली जनता पा जाती, सौगात चुनाव में!


रस्सी को सांप बनाकर, करें भेड़िए स्वांग;

भड़काते देशद्रोह हैं, बदजात चुनाव में!


बरसाती मेंढक बनकर, निकले हैं हर बार;

उछल - कूद से कर देते, दुर्घात चुनाव में!


गद्दारों की फौज करे, अनुशासन गांव में;

मक्कारों का हो जाता, उत्पात चुनाव में!


सब गिरगिट राजनीति के, खेलेंगे हर दांव;

जनता ही मारे पटकी, पदघात चुनाव में!


✍️डा. महेश ' दिवाकर '

'सरस्वती भवन'
12-मिलन विहार, दिल्ली रोड
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर  9927383777,  9837263411, 9319696216



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरणात्मक आलेख

 


क्या लिखूं.... कैसे लिखूं.... शब्द मौन हो जाते हैं... कलम रुक जाती है और स्मृति पटल पर लगभग तीस साल पहले के दृश्य एक-एक कर सजीव हो उठते हैं और मैं खो बैठता हूं अपनी सुध बुध । छात्र जीवन में देश के प्रख्यात साहित्यकारों का सान्निध्य मुझे मिलता रहा। धीरे-धीरे मेरे भीतर मुरादाबाद के साहित्य को पढ़ने की ललक पैदा हो गई और मैं मुरादाबाद के साहित्यकारों की कृतियों की खोज में लग गया। इस कार्य में महानगर के पुरातत्ववेत्ता साहित्यकार स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल जी ने मुझे प्रोत्साहित किया। उन्हीं दिनों स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के आलेख साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी और अमर उजाला में प्रकाशित होते थे। एक दिन अमर उजाला के रविवासरीय परिशिष्ट में स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी का आलेख मुरादाबाद के एक साहित्यकार की कृति के संदर्भ में प्रकाशित हुआ। इस आलेख में उनसे एक तथ्यात्मक भूल हो गई। वह कृति मेरे पास थी। मैंने भूल सुधार करते हुए एक पत्र अमर उजाला के संपादक राजुल माहेश्वरी जी को लिख दिया। प्रत्युत्तर में मेरे पास राजुल जी का पत्र आया जिसमें उन्होंने लिखा कि आपका पत्र सुरेंद्र मोहन मिश्र जी को भेज दिया है उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए आपका आभार व्यक्त किया है। बात आई -गई हो गई । वर्ष 1991 में मैंने मुरादाबाद के साहित्य पर प्रख्यात साहित्यकार डॉ उर्मिलेश शंखधार जी के निर्देशन में शोध कार्य करने का निर्णय लिया । शोधकार्य की रूपरेखा तैयार करते समय उन्होंने मुझसे कहा कि मुरादाबाद में मेरे गुरु सुरेंद्र मोहन मिश्र जी रहते हैं । उनके पास जाना और उनके चरण पकड़ कर बैठ जाना ।उनका आशीष अगर तुम्हें मिल गया तो समझो तुम्हारा शोध कार्य पूर्ण हो गया। इसे सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया और बार-बार राजुल जी को लिखा पत्र याद आने लगा। सुरेंद्र मोहन मिश्र जी से कैसे मिलूं.... वह मुझे अपना आशीष देंगे या नहीं । यह सोच विचार करते-करते कई माह गुजर गए । उन दिनों मैं दैनिक जागरण में कार्य कर रहा था । एक दिन गुरहट्टी चौराहा स्थित कार्यालय के नीचे खड़ा हुआ था कि मुझे श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र जी आते दिखाई दिए । मैं दौड़ कर उनके पास पहुंचा और उनके चरण स्पर्श कर अपना परिचय दिया। सुनते ही बोले- क्या तुम वही मनोज हो जिसने राजुल जी को पत्र लिखा था । सकुचाते हुए जैसे ही मैंने हां कहा... उन्होंने तुरंत मुझे सीने से लगा लिया और कहने लगे मेरी विरासत संभालने के तुम ही हकदार हो।  यह मेरा उनका प्रथम साक्षात परिचय था जो धीरे-धीरे प्रगाढ़ता में परिवर्तित हो गया और मैंने उनके घर जाकर अपना शोध कार्य पूर्ण किया। वह बड़े उत्साह से अपनी अलमारियों में से मुरादाबाद के अज्ञात साहित्यकारों की कृतियों की दुर्लभ पांडुलिपियों निकालते और उनके बारे में इमला बोलकर लिखवाते। यह क्रम कई दिन तक निरंतर चलता रहा । यही नहीं उन्होंने मेरे पूरे शोध प्रबंध को पढ़कर उसमें आवश्यक सुधार भी किए ( अपना शोध प्रबंध मैंने स्वर्गीय आचार्य क्षेम चन्द्र सुमन एवं श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र जी को ही समर्पित किया है)
 संस्मरण बहुत हैं ... उनके व्यक्तित्व के विषय में जितना लिखा जाए कम है। आज मुरादाबाद के साहित्य के संरक्षण और देश विदेश में प्रसार करने की दिशा में जो कुछ भी मैं कर रहा हूं उस के प्रेरणा स्रोत स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी ही हैं। उन्हीं के कार्य को आगे और आगे बढ़ाने का प्रयास मैं कर रहा हूं इन्हीं शब्दों के साथ उन्हें शत-शत नमन.....

✍️डॉ मनोज रस्तोगी
 8,जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की ग़ज़ल ---नए-नए फ़िरक़ों में बांटें जो 'ओंकार' हमें , सावधान उनसे रहना वे ढीठ पुराने हैं


बस्ती-बस्ती हमें ज्ञान के दीप जलाने हैं ।

हर बस्ती से सभी अंधेरे दूर भगाने हैं ।।


सबके मन में प्रीत जगाते गीत सुनाने हैं ।

भरें उमंगें हर मन में,वे साज़ बजाने हैं ।।


हरियाली ही हरियाली हो खेतों में सबके ,

श्रम करके ही हमें सभी उद्योग चलाने हैं ।।


खोज करेंगे नए-नए हम चाँद सितारों की ,

मानव हित को नए-नए औज़ार बनाने हैं ।।


मिले सभी को सुख-सुविधा सब शोषण मुक्त रहें,

इस धरती पर खुशियों के अंबार लगाने हैं ।।


खुशबूदार हवा हो जिनकी और रसीले फल ,

जीवन की बगिया में ऐसे पेड़ लगाने हैं ।।


महानगर से सड़क, गाँव,हर घर तक जाएगी ,

इस जीवन के सब के सब पथ सुगम बनाने हैं ।।


नए-नए फ़िरक़ों में बांटें जो 'ओंकार' हमें ,

सावधान उनसे रहना वे ढीठ पुराने हैं ।।


✍️ओंकार सिंह 'ओंकार' 

1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला , 

दिल्ली रोड , मुरादाबाद   244103

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक का नवगीत ---राजनीति के कुशल मछेरे, फेंक रहे हैं जाल


राजनीति के कुशल मछेरे,

फेंक रहे हैं जाल।


जिस घर में थी रखी बिछाकर,

वर्षों अपनी खाट।

उस घर से अब नेता जी का,

मन हो गया उचाट।

देखो यह चुनाव का मौसम,

क्या-क्या करे कमाल।                   


घूम रहे हैं गली-गली में,

करते वे आखेट।

लेकिन सबसे कहते सुन लो,

देंगे हम भरपेट।

काश!समझ ले भोली जनता,

उनकी गहरी चाल।


कुछ लोगों के मन में कितना,

भरा हुआ है खोट।

धर्म-जाति का नशा सुँघाकर,     

माँग रहे हैं वोट।

ऊँचा कैसे रहे बताओ,

लोकतंत्र का भाल।


नैतिक मूल्यों, आदर्शों को,

कौन पूछता आज,

जोड़-तोड़ वालों के सिर ही,

सजता देखा ताज।

जाने कब अच्छे दिन आएँ,

कब सुधरे यह हाल।

   ✍️ ओंकार सिंह विवेक

रामपुर, उत्तर प्रदेश, भारत



गुरुवार, 20 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार फरहत अली ख़ान का आलेख ....."श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र: एक नायाब शख़्सियत"

 


स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के बारे में मैंने पहले भी सुन रखा था, जिस से मुझे इतना इल्म हुआ था कि उन के पास बहुत पुरानी पांडुलिपियाँ और किताबें मौजूद थीं। इस के अलावा उन के बारे में जो कुछ भी जाना वो आज इस आयोजन के ज़रिए जाना। मंच पर शोहरत उन्हें एक हास्य-कवि के रूप में मिली, मगर उन में एक गीतकार की तड़प मौजूद थी। इस की वज़ाहत उन की किताब 'कविता नियोजन' में लिखी भूमिका से होती है, साथ ही डॉ. प्रेमवती साहिबा के उन के बारे में लिखे संस्मरण से भी यही बात ज़ाहिर होती है। उन्होंने 'पवित्र पँवासा' खण्डकाव्य रचा जो उन्हें एक अहम कवि के तौर पर स्थापित करता है। राजीव सक्सेना जी के आलेख से पता चलता है कि अपने खण्डकाव्य में उन्हों ने मक़ामी इतिहास को ख़ास जगह दी, ये उन की शख़्सियत का एक और नायाब पहलू है, जो सामने आता है।उन्होंने 'शहीद मोती सिंह' नाम से एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा, जो उन्हें उपन्यासकार के तौर पर पहचान देता है और उन्हें वृन्दावन लाल वर्मा जी जैसे ऐतिहासिक उपन्यासकारों की सफ़ में ले आता है।

इतिहास को जुनून की हद तक जीने की ये उन की ललक ही थी, जिस ने उन्हें एक ख़ास रचनाकार के तौर पर सँवारा और उन से वो सब लिखवाया जो अमूमन नहीं लिखा जाता है।

इंसानी तहज़ीब से मुहब्बत और उसे जानने-खोजने की चाहत ही ने उन्हें एक महान पुरातत्ववेत्ता बनाया।हमें उन से ये सब कुछ सीखने, अपने अंदर उतारने और सहेज कर रखने की ज़रूरत है।

✍️ फ़रहत अली ख़ान,

लाजपत नगर

मुरादाबाद 244001

मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा का योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों पर केंद्रित आलेख -- नवगीत वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित करने वाली एक मजबूत शाखा हैं योगेंद्र वर्मा व्योम

     


आधुनिक हिंदी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में पूरे देश के भीतर मुरादाबाद शहर को पहचान दिलाने वाले योगेन्द्र वर्मा व्योम  के नवगीतों से गुज़रना मतलब एक ताज़गी भरे नगर से गुज़रना है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण मैं उनके काव्य सृजन की प्रक्रिया का साक्षी रहा हूँ। वह इतनी खूबसूरती से और बड़ी बारीकी से ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतीक और प्रतिमान ढूँढ लाते हैं जिन्हें सामान्य कवि/ गीतकार की दृष्टि खोज ही नहीं पाती। यही उनके नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है।

         नवगीत की सबसे प्रमुख और प्रथम शर्त ही नयापन है।योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों में इस नयेपन की मिठास मिलती ही है। गीत और ग़ज़ल काव्य की अलग अलग विधाएँ हैं, दोनों का कथ्य और शिल्प बिल्कुल अलग है। ग़ज़ल के छंद विधान यानि कि क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर आदि का अभिनव प्रयोग कर नवगीत 'जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए' रचा गया है जिसमें ग़ज़ल विधा के व्याकरण का मानवीकरण करते हुए कथ्य का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया गया है-

जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए 

जोड़-जोड़कर रखे क़ाफ़िये सुख-सुविधाओं के

और साथ में कुछ रदीफ़ उजली आशाओं के

शब्दों में लेकिन मीठापन बोना भूल गए

सुबह-शाम के दो मिसरों में सांसें बीत रहीं

सिर्फ़ उलझनें ही लम्हा-दर-लम्हा जीत रहीं

लगता विश्वासों में छन्द पिरोना भूल गए

     

अनेक कवियों ने बरसात के मौसम पर केन्द्रित अनेक गीतों, ग़ज़लों, दोहों का सृजन किया है लेकिन बूँदों की आकाश से धरती तक की यात्रा और बूँदों का आपस में बतियाना व्योमजी के नवगीतों में ही मिलता है। उनके एक नवगीत 'मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है' पर दृष्टि पढ़ते ही महाकवि बाबा नागार्जुन के कालजयी गीत "बादल को घिरते देखा है" की स्मृति ताज़ा हो जाती है। इस नवगीत में वे बाबा नागार्जुन का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं-

मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है

इठलाते बल खाते हुए धरा पर आती हैं

रस्ते-भर बातें करती हैं सुख-दुख गाती हैं

संग हवा के खुश हो शोर मचाते देखा है

कभी झोंपड़ी की पीड़ा पर चिंतन करती हैं

और कभी सूखे खेतों में खुशियाँ भरती हैं

धरती को बच्चे जैसा दुलराते देखा है

         वे चीजों को रूपांतरित करने में सिद्धहस्त हैं। रूपांतरित कर देने के पश्चात रूपांतरण के मानकों का सटीक उपयोग करना बहुत ही कुशलता का कार्य है जो उनके नवगीतों में सहज रूप से दिखता है। मन को गाँव की संज्ञा में रूपांतरित कर देने जैसा प्रयोग पहले कभी कहीं देखने को नहीं मिलता। गाँव भले ही मन का हो लेकिन गाँव है तो चौपालें भी होंगी और गाँव है तो पंचायत भी होगी और चुनाव भी होंगे। मन के भाव और गाँव के वातावरण को शानदार अभिव्यक्ति दे रहा है उनका नवगीत-

तन के भीतर बसा हुआ है मन का भी इक गाँव

बेशक छोटा है लेकिन यह झांकी जैसा है

जिसमें अपनेपन से बढ़कर बड़ा न पैसा है

यहाँ सिर्फ़ सपने ही जीते जब-जब हुए चुनाव

चौपालों पर आकर यादें जमकर बतियातीं

हँसी-ठिठोली करतीं सुख-दुख गीतों में गातीं

इनका माटी से फ़सलों-सा रहता घना जुड़ाव

   

  रिश्तों के खोखलेपन या उनकी मर्यादा के चटक जाने का मार्मिक वर्णन उनके एक अन्य गीत "मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया" में भी देखने को मिलता है जिसमें मायके से मिलने वाली उपेक्षा से दुखी एक विवाहित लड़की के मनोभावों का हृदयस्पर्शी वर्णन है। दरअसल रिश्ते हमारे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी होते हैं उन्हें सहेज कर रखना सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी भी कारण से यह पूँजी व्यर्थ न जाए इसकी कोशिश लगातार रखी जानी चाहिए। रिश्तों को बनाए रखने के अनुरोध को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में अभिव्यक्त करते हुए वे खानदान के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति की भूमिका में नज़र आते हैं-

चलो करें कुछ कोशिश ऐसी रिश्ते बने रहें

बंद खिड़कियाँ दरवाज़े सब कमरों के खोलें

हो न सके जो अपने, आओ हम उनके हो लें

ध्यान रहे ये पुल कोशिश के ना अधबने रहें

यही सत्य है ये जीवन की असली पूँजी हैं

रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन हर पल गूँजी हैं

अपने अपनों से पल-भर भी ना अनमने रहें

       वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखने में आता है कि चिट्ठियाँ आनी-जानी बंद हो गई हैं। इसके लिए लोगों द्वारा अब चिट्ठियाँ लिखना बंद कर दिया जाना भी जिम्मेदार है और डाक विभाग द्वारा साधारण डाक के वितरण में बरती जा रही लापरवाही भी। इस सरकारी व्यवस्था की अव्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए मन की पीड़ा को नवगीत में वर्णित करने का प्रयोग विलक्षण है। बहुत ही खूबसूरत एकदम नए किस्म का नवगीत है यह। मैं इसको व्यंग्य-नवगीत की संज्ञा देना चाहूँगा-  

अब तो डाक-व्यवस्था जैसा अस्त-व्यस्त मन है

सुख साधारण डाक सरीखे नहीं मिले अक्सर

मिले हमेशा बस तनाव ही पंजीकृत होकर

फिर भी मुख पर रहता खुशियों का विज्ञापन है

गूगल युग में परम्पराएँ गुम हो गईं कहीं

संस्कार भी पोस्टकार्ड-से दिखते कहीं नहीं

बीते कल से रोज़ आज की रहती अनबन है

   

  कोई भी कवि अपनी कविता की विषयवस्तु अपने आसपास के वातावरण से ही खोजता है और उसे अपने ढंग से अपनी कविता में ढालता भी है। समाज में कभी मुहल्ला-संस्कृति भी थी जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते थे, फिर कॉलोनी-संस्कृति और अब अपार्टमेंट-संस्कृति प्रचलित है जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना तो दूर एक दूसरे से परिचित तक नहीं होते। क्या कॉलोनी के लोग भी किसी गीत की विषयवस्तु हो सकते हैं? मैं कहूँगा कि हाँ। ऐसा सिर्फ़ उनके यहाँ ही देखने को मिल सकता है। सिमटे हुए स्वार्थी जीवन की विद्रूपता का जैसा चित्रण इस नवगीत में हुआ है अन्यत्र दुर्लभ है-

अपठनीय हस्ताक्षर जैसे कॉलोनी के लोग

सम्बन्धों में शंकाओं का पौधारोपण है

केवल अपने में ही अपना पूर्ण समर्पण है

एकाकीपन के स्वर जैसे कॉलोनी के लोग

ओढ़े हुए मुखों पर अपने नकली मुस्कानें

यहाँ आधुनिकता की बदलें पल-पल पहचानें

नहीं मिले संवत्सर जैसे कॉलोनी के लोग

      यह कॉलोनी-संस्कृति संवादहीनता की वाहक बनकर कहीं न कहीं हम सबको ही प्रभावित कर रही है। और यही संवादहीनता आज के समाज की बड़ी समस्या बन गई है जिसका कुप्रभाव अवसाद के रूप में देखने को मिल रहा है। शब्दों को केंद्रबिंदु बनाकर लिखा गया व्योमजी का यह नवगीत बहुत मार्मिक बन पड़ा है-

अब संवाद नहीं करते हैं मन से मन के शब्द

हर दिन हर पल परतें पहने दुहरापन जीते

बाहर से समृद्ध बहुत पर भीतर से रीते

अपना अर्थ कहीं खो बैठे अपनेपन के शब्द

आभासी दुनिया में रहते तनिक न बतियाते

आसपास ही हैं लेकिन अब नज़र नहीं आते

ख़ुद को ख़ुद ही ढूँढ रहे हैं अभिवादन के शब्द

       

      1970 के दशक में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने व्यवस्था विरोध के लिए नारों का काम किया, आज भी आम आदमी की ज़बान पर दुष्यंत का कोई न कोई शेर ज़रूर रहता है। दुष्यंत कुमार की मशहूर ग़ज़ल- 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए' को उन्होंने अपने नवगीत की विषयवस्तु बनाया है। पहली बार किसी कवि के द्वारा दूसरे कवि और उसकी कविता को नवगीत जैसी विधा की विषयवस्तु बनाया जाना अपने आप में चमत्कृत कर देने जैसा प्रयोग है। जनवाद की पैरोकारी करता दुष्यंतजी के आगमन का आवाहन समेटे उनका यह नवगीत भी अपने आप में अनूठा है-

बीत गया है अरसा, आते अब दुष्यंत नहीं

पीर वही है पर्वत जैसी पिघली अभी नहीं

और हिमालय से गंगा भी निकली अभी नहीं

भांग घुली वादों-नारों की जिसका अंत नहीं

हंगामा करने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही

कोशिश भी की लेकिन फिर भी सूरत रही वही

उम्मीदों की पर्णकुटी में मिलते संत नहीं

        कोरोना काल में उपजीं भीषण विद्रूपताओं से आम आदमी आज भी रोज़ाना लड़ाई लड़ रहा है। इस कोरोना काल में लोग बीमारी से तो मरे ही भूख से भी मरे और बहुत लोगों का रोजगार भी खत्म हुआ। उस समय कड़ी धूप में पैदल अपने गांव की ओर चलते जा रहे प्रवासी मजदूरों का दृश्य आँखों में उतर आता है। इसी मंज़र को बेहद भावुक रूप में उन्होंने अपने नवगीत में अभिव्यक्त किया है, भूख जब रोटी के नाम खत लिखती है तो एक बेहद संवेदनशील दृश्य पैदा होता है। मेरी दृष्टि में इस कोरोना काल की व्यथा को समेटे इससे मार्मिक नवगीत कोई दूसरा नहीं हो सकता-

आज सुबह फिर लिखा भूख ने ख़त रोटी के नाम

एक महामारी ने आकर सब कुछ छीन लिया

जीवन की थाली से सुख का कण-कण बीन लिया

रोज़ स्वयं के लिए स्वयं से पल-पल है संग्राम

ख़ाली जेब पेट भी ख़ाली जीना कैसे हो

बेकारी का घुप अँधियारा झीना कैसे हो

केवल उलझन ही उलझन है सुबह-दोपहर-शाम

      'रिश्ते बने रहें' नवगीत-संग्रह के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों को पढ़कर मैं यह बात दावे से कह सकता हूंँ कि हिंदी साहित्य के इतिहास का चित्र बनाने वाला चित्रकार जब कभी नवगीत के वृक्ष का चित्रण करेगा तो मुरादाबाद का नाम दो विशेष कारणों से चित्र में प्रकाशित दिखाई देगा। प्रथम तो नवगीत वृक्ष की जड़ों में से एक साहित्य-ऋषि दादा माहेश्वर तिवारी और दूसरा नवगीत वृक्ष को पुष्पित पल्लवित करने वाली सबसे मजबूत शाखाओं में से एक योगेंद्र वर्मा व्योम। 


✍️ राहुल शर्मा

आफीसर्स कालोनी, रामगंगा विहार-1

काँठ रोड, मुरादाबाद- 244105

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9758556426

बुधवार, 19 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा का व्यंग्य ---एक स्वामीभक्त का पत्र


साहब जी ,

आपके गरिमामयी गमन के बाद ,यहां आपकी कर्मशाला रूपी कार्यालय में सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया और मैं जबरदस्त आर्थिक रूप से त्रस्त हो गया हूं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप अपने नए जिले में पहुंचकर पद पर आसीन हो चुके होंगे, क्योंकि आपके अंदर जो गुणों की खान है वह अद्वितीय है ,जिससे मैंने भी कुछ ग्रहण करने की कोशिश की थी। उन्हीं गुणों से मेरा गुजारा भी ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था।

 जब से आप गए हैं, तब से ऑफिस वाले दूसरे बाबुओं ने, मेरा जीना दुश्वार कर दिया है ,नए साहब की सेटिंग, मोटे चश्मे वाले बाबू से बन गई है क्योंकि दोनों ही हर शाम कांच की प्यालियों का स्वाद लेते हैं और आजकल सारी फाइलों पर उसी का कब्जा चल रहा है ।खैर मैं भी आपका चेला रहा हूं, निकाल लूंगा कोई बीच का रास्ता ,जिससे मेरा भी दाना पानी चलता रहे। वरना तो मेरी लक्जरी गाड़ी, मुझे मुंह चिढ़ाएंगी ,बच्चों के हॉस्टल वाले, मेरी राह ताकेंगे और घर में काम करने वाले दोनों नौकर, अपनी-अपनी पगार को तरस जायेंगे। छोटी-सी तनख्वाह में तो दाल-रोटी के सिवाय क्या खा पाऊंगा, साहब जी? आपकी छत्रछाया में तो मेरा सब-कुछ अच्छा चल रहा था, आप बहुत ही ईमानदारी से ,मेरी बाबूगिरी की कद्र करते हुए,जजिया कर के रूप में, निर्विवाद तरीके से, दस परसेंट कमीशन थमा देते थे और मैंने भी आपको कई मामलों में तो ,पूरा-पूरा हिस्सा ही दिलवाया था ।

आपकी कुर्सी की कसम, मैंने आप से छुपा कर कोई रिश्वत नहीं ली । आप ही बताओ कि आपाधापी भरे इस कलियुग में, मुझ जैसा निष्ठावान स्वामीभक्त मिल सकता हैं क्या?

 और हां ! इसी बात पर याद आया कि हमारे पड़ोसी वर्मा जी ,अपने झबरीले कुत्ते की स्वामीभक्ति का बहुत रौब झाड़ते थे ,एक दिन बंदर ने उन पर हमला बोल दिया तो उनका शहंशाह कुत्ता अंदर वाले कमरे में ,खाट के नीचे घुस गया और जब तक नहीं निकला ,जब तक कि वर्मा जी को इंजेक्शन लगवाने का इंतजाम पूरा न हो गया। बहुत  क्या कहना?  स्वामीभक्ति का दूसरा उदाहरण मुझ जैसा आपको नहीं मिलेगा। आपको याद होगा कि  आपके ट्रांसफर से चार दिन पहले ही, नियुक्ति प्रकरण में,ऑफिस में आकर नेताजी, कितनी बुरी तरह आपको डांट रहे थे और आप सर को नीचे झुका कर सुन रहे थे उनकी फटकार ।

 फिर मैंने ही आपका पक्ष लिया था और नेता जी को पलक झपकते ही शांत करके, पांच परसेंट पर पटा लिया था ।

फिर भी साहब जी , मैंने तो एक बात गांठ बांध रखी है कि बेईमानी का पैसा, जितनी ईमानदारी से और जितनी जल्दी, प्रत्येक पटल पर पहुंच जाता है उसका हिसाब उतना ही साफ-सुथरा रहता है ।

और तो और ,आॅडिटर भी फाइल से पहले नामा देखता है जिस कोटि के नामा होते हैं, उतनी ही पवित्र भावना से ,उस फाइल का लेखा-जोखा देखता है।

 खैर !आपसे क्या रोना, अपने मन की भड़ास  निकालने के लिए आपको पाती लिखी है, क्योंकि आपका फोन उसी दिन से बंद था और सरकारी नंबर को रिसीव न करने की, आपकी पुरानी आदत जो ठहरी ।

फिर भी मुझे यह अपेक्षा रहेगी कि आप मुझसे फोन जरुर करेंगे।अब तो अपनी सांठ-गांठ में और गांठ लगने की गुंजाइश भी नहीं बची। आपको वहां भी काफी बकरे मिल जाएंगे और मैं भी अपना खर्चा चलाने को,तलाश करने में जुटूंगा -"छोटे-छोटे मुर्गे"।

अपने-अपने कद और पद के अनुसार शिकार ढूंढेंगे, आखिर पूरी करनी है जिंदगी,और काटना है यह मनहूस जीवन,इन्हीं मुर्गे और बकरों के साथ।


आपका अपना

"परेशान आत्मा"


✍️अतुल कुमार शर्मा 

सम्भल, उत्तर प्रदेश, भारत

साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 13 से 15 जनवरी 2022 तक तीन दिवसीय ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन

  प्रख्यात पुरातत्ववेत्ता एवं साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 13 से 15 जनवरी 2022 को  तीन दिवसीय ऑन लाइन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। चर्चा में शामिल साहित्यकारों ने कहा कि मिश्र ने रुहेलखंड क्षेत्र के इतिहास को उजागर करने के साथ ही अनेक ऐसे अज्ञात साहित्यकारों की कृतियां खोजीं जो अतीत में दबी हुई थीं।

      मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के तहत आयोजित इस कार्यक्रम में संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में 22 मई 1932 को जन्मे सुरेन्द्र मोहन मिश्र का प्रथम काव्य संग्रह मधुगान वर्ष 1951 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1955 में उनके प्रकाशित दूसरे संग्रह 'कल्पना कामिनी' में श्रृंगार रस से भीगी रचनायें थीं। वर्ष 1982 में आपकी हास्य कविताओं का एक संग्रह कविता नियोजन' प्रकाश में आया । इसके अतिरिक्त वर्ष 1993 में बदायूं के रणबांकुरे राजपूत(इतिहास) ,वर्ष 1999 में हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह कवयित्री सम्मेलन, वर्ष 1997 में इतिहास के झरोखों से सम्भल (इतिहास) ,2001 में ऐतिहासिक उपन्यास शहीद मोती सिंह, वर्ष 2003 में मुरादाबाद जनपद के स्वतंत्रता संग्राम (काव्य),  मुरादाबाद व अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी(काव्य), पवित्र पंवासा (ऐतिहासिक खण्ड काव्य), मीरपुर के नवोपलब्ध कवि (शोध) तथा वर्ष 2008 में आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं (शोध) प्रकाशित हुईं । उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में हुआ।

       उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने बताया कि शाहजहांपुर के  स्वामी शुकदेवानंद महाविद्यालय में स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के नाम से संग्रहालय स्थापित है । इसके अतिरिक्त बरेली में पांचाल संग्रहालय और रामपुर रजा लाइब्रेरी में श्री मिश्र की पुरातात्विक धरोहर सुरक्षित है । उन्होंने मिश्र जी के अनेक प्रकाशित आलेख भी प्रस्तुत किये। 

प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा कि कीर्तिशेष पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने एक गीतकार से अलग एक विशुद्ध हास्य कवि के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। एक पुरातत्वविद के रूप में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। प्रख्यात शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मिश्र जी की मिसाल एक समंदर से दी जा सकती है जिसकी गहराई में बहुत कुछ छुपा हुआ है मगर वो खामोश है। 

 केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि सुरेन्द्र मोहन मिश्र जीवन की  कटुताओं के बीच कवि हृदय को जीवित रखने में सफल हुए हैं  वे इतिहासकार हैं तो पुरातत्ववेत्ता भी ,उपन्यासकार हैं तो कविता की मधुरता से ओतप्रोत भी । उनके गीतों में प्रकृति इठलाती है, नर्तन करती है, हृदय में माधुर्य भी घोलती है।

      डॉ अजय अनुपम, अशोक विश्नोई, डॉ कृष्ण कुमार नाज, लव कुमार प्रणय (चन्दौसी),  डॉ मक्खन मुरादाबादी, राजीव प्रखर,श्री कृष्ण शुक्ल, डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने संस्मरण प्रस्तुत कर स्मृतिशेष मिश्र के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला।

    कनाडा निवासी उनकी सुपुत्री प्रतिमा शर्मा ने कहा कि अपने ध्येय और जूनून  के लिए अपनी आरामदायक जीवन को परित्याग करने वाले, 18 साल की उम्र में अपना पहला काव्य ग्रन्थ लिखने वाले, 23 साल की उम्र में दुर्लभ पुरातत्त्व की वस्तुुओं का संग्रह और निजी पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना करने वाले मस्त, मलंग, पुरातत्ववेत्ता, कवि, लेखक और साहित्यकार थे।  

    मथुरा के प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) राजीव सक्सेना ने कहा  स्मृतिशेष मिश्र उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है।

 रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कि सुरेंद्र मोहन मिश्र  धुन के पक्के थे । कई -कई दिन तक पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं को खोजने में खपा देते थे और फिर उपेक्षित मिट्टी के टीलों, नदियों आदि से एक प्रकार से कहें तो अनमोल मोती ढूँढ कर लाते थे। 

दिल्ली के वरिष्ठ साहित्यकार आमोद कुमार ने कहा कि स्मृति शेष  सुरेन्द्र मोहन मिश्र मूल रूप से रागात्मक मधुरिम गीतों के गीतकार थे।

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने  उनके  बंद खिड़की और खामोशी एकांकी की चर्चा करते हुए कहा इसमें प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से एक नि:संतान दम्पत्ति के मनोभावों का सटीक प्रस्तुतिकरण बड़े ही कलात्मक ढंग से किया गया है।

      डॉ प्रीति हुंकार ने कहा कि उनकी रचनाओं में राष्ट्र की वन्दना ,प्रेम की पीड़ा ,संवेदना ,जीवन के विविध रूपों, ग्रामीण परिवेश प्रकृति का अद्भुत वर्णन के दर्शन होते हैं । 

डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि  स्मृतिशेष श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य जगत के ध्रुव तारे के समान थे ,जिनका प्रकाश युगों -युगों तक आने वाली साहित्यिक पीढ़ी का मिलता रहेगा। 

फरहत अली खान ने कहा उन्होंने अज्ञात साहित्यकारों की कृतियां खोजीं और उन्हें एक ख़ास रचनाकार के तौर पर सँवारा ।  इंसानी तहज़ीब से मुहब्बत और उसे जानने-खोजने की चाहत ही ने उन्हें एक महान पुरातत्ववेत्ता बनाया। 

     विप्र वत्स शर्मा, डॉ इंदिरा रानी, दुष्यंत बाबा, अमितोष शर्मा ( दिल्ली), रंजना हरित (बिजनौर), वीरेंद्र सिंह बृजवासी, विवेक आहूजा, अशोक विद्रोही, आदर्श भटनागर, रेखा रानी (गजरौला), रमेश अधीर, मनोरमा शर्मा, तिलक राज आहूजा, डॉ प्रदीप शर्मा, त्यागी अशोक कृष्णम आदि ने विचार व्यक्त किये। आभार उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने व्यक्त किया । 







मंगलवार, 18 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम के दोहे .....


शहद कभी तीखी कभी, फूलों में मकरंद ।

कस्तूरी के हिरन सी , अंग अंग में गंध ।।


मुख मंडल के तेज की , लाली सूरज लाल ।

तीरथ जैसी देह है , मन जैसे खड़ताल ।।


 छोटी-छोटी घंटियों , जैसा भोला प्यार ।

 लाल गुलाबी बह रही , सरिता जैसी धार ।।


जब से दर्शन दे दिए , मिटे सभी अवसाद ।

जन्म जन्म के मिल गया , कर्मों का परसाद ।।


हमने तो बस प्यार में , मार दिए थे फूल ।

 उनको ऐसे चुभ गए, जैसे हौ त्रिशूल ।।


किसने उनको कह दिया , पत्थर दिल गम गीन ।

झूठा यह अभियोग है , नहीं आप रंगीन ।।


किस दुश्मन ने है भरे, प्रिय तुम्हारे कान ।

ऐसा क्यों लगने लगा , नहीं जान पहचान ।।


 एक बताऊं मैं तुम्हें , लाख टके का सार ।

मुझसे बातें मत करो , हो जाएगा प्यार ।।


✍️ त्यागी अशोका कृष्णम

कुरकावली, सम्भल

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य -- चुनाव के मौसम में नाराज फूफा


इधर चुनाव का मौसम आया ,उधर फूफा नाराज होने लगे । एक शादी में दूल्हे के मुश्किल से दो-चार फूफा होते हैं । उनको मनाने में जो पसीने छूटते हैं ,वह तो दूल्हे का बाप ही जानता है । फूफा भी समझते हैं कि इस समय नाराज हो गए तो मनाने के लिए ससुराल से चार जनों का प्रतिनिधिमंडल जरूर आएगा । फिर उसके सामने मांगपत्र रखा जाएगा । फूफा नाक चौड़ी करके कहेंगे कि हमारा कोई मान-सम्मान ही नहीं रहा । हमारा भी तो एक एजेंडा है । हमें भी तो समुचित आदर मिलना चाहिए । यह क्या कि शादी हो रही है और हमारे लिए न नया सूट सिलवाया गया ,न हमें मफलर दिया गया और न जूते खरीदवाए गए । कुछ फूफा गले में सोने की चेन की मांग करते हैं । कहते हैं, हम शादी में तब तक भाग नहीं लेंगे, जब तक हमारे गले में सोने की मोटी चेन ससुर जी नहीं पहना देंगे !

         कुछ ऐसा ही हाल चुनाव के समय हो जाता है । सबसे ज्यादा बड़े वाले फूफा जी नाराज हैं । बड़े वाले फूफा अर्थात वह महारथी जिन्होंने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी का टिकट मांगा था, मगर नहीं मिला । अब फूफा बिखरे पड़े हैं । किसी की आँख से आँसू बह रहे हैं, किसी की आँखें अंगारे बरसा रही हैं। कोई अपने समर्थकों के साथ घिरा हुआ षड्यंत्र रच रहा है ,तो कोई अकेले में आत्ममंथन करने में व्यस्त है । कुछ लोग माइक के सामने हैं । कुछ माइक को देखकर  छह फीट पीछे हट जाते हैं । मगर मुंह खुले हुए हैं । यह तो जरूर कहते हैं कि हमारी ससुराल का मसला है , हम आपस में निपटा लेंगे। मगर कैसे निपटेगा, यह नहीं बताते।

         उधर बुआ सबसे ज्यादा दुखी दिखती हैं । उन्हें डर है कि कहीं रूठे हुए फूफा अपना गुस्सा उनके ऊपर न उतार दें अर्थात चालीस साल पुरानी शादी का समझौता टूट न जाए । बारात चलने को है । बैंड बाजे वाले आ चुके हैं लेकिन फूफा टस से मस नहीं हो रहे । कहते हैं ,हमारा मान-सम्मान दो कौड़ी का हो गया । ससुराल पक्ष उनकी आवभगत में लगा हुआ है । भैया ! मान जाओ । शादी के समय इतना नखरा नहीं करते । बहुत कर चुके ! अब रस्म पूरी हो गई ! तुम्हें रूठना था ,थोड़ी देर रूठे। अब ढंग के कपड़े पहनो ,दाढ़ी बनाओ ,बालों में तेल-कंघी करो और सज-संवर कर दूल्हे के बराबर में खड़े हो । नकली मुस्कान ही सही लेकिन फोटो में मुस्कुराते हुए नजर आओ !

                    कई लोग फूफा की समस्या से जूझने के लिए कुछ अलग क्रांतिकारी प्रकार के विचार रखने लगे हैं । उनका कहना है कि फूफाओं को चुनाव के समय मनाने की कोई जरूरत नहीं है । इन्हें इनके हाल पर छोड़ देना चाहिए । जब देखो तब कोई न कोई समस्या लेकर खड़े हो जाते हैं । जैसे कि दूसरी पार्टी वालों की सरकार बन जाएगी तो धरती पर स्वर्ग उतर आएगा ? तुम्हारा सांसद या विधायक अगर किसी दूसरी पार्टी का बन भी गया तो कौन से आसमान से तारे तोड़ कर ले आएगा ? अब तक किसी ने क्या कर लिया जो अब कर लेगा ? 

       लेकिन फूफा को तो सारा गुस्सा अपनी ससुराल पर ही उतारना है । हमारी पार्टी, हमारी सरकार ,हमारे नेता ,हमारा उम्मीदवार जब तक नाक न रगड़े ,तब तक हम वोट डालने नहीं जाएंगे । मतदाताओं में जो मठाधीश बैठे हुए हैं ,वह भी किसी फूफा से कम नहीं हैं। बहुत से मुद्दे हैं ,जिन पर आग जलाकर फूफागण खाना पका रहे हैं। कुछ फूफाओं को विरोधी पार्टी के लोग हवा दिए हुए हैं । इन्हें घर का विभीषण समझा जाता है । इन विभीषण-टाइप फूफाओं का संबंध अपनी ससुराल से ज्यादा दूसरों की ससुराल से है । विरोधी पक्ष की ससुराल वाले उनका भाव रोजाना बढ़ाते हैं । कहते हैं कि आपसे ज्यादा महान आदमी तो इस संसार में आज तक पैदा ही नहीं हुआ ! खेद का विषय है कि आपकी पार्टी ने आपके "फूफत्व" को कभी नहीं पहचाना ! 

          कुछ फूफाओं को सीधे-सीधे दूसरी शादी करने का निमंत्रण विरोधी पक्ष की ससुराल से मिल जाता है । कुछ फूफा नाराज होने के चक्कर में अपनी नाराजगी दिखाते-दिखाते जनता की निगाह में विदूषक की भूमिका निभाने लगते हैं । उनका खूब मजाक बनता है । लेकिन वह पहचान नहीं पाते । लोग कहते हैं कि फूफा ! अपने सिर पर दूल्हे की एक पगड़ी तुम भी पहन लो और फूफा सचमुच यह समझते हुए पड़ोसी द्वारा उपलब्ध कराई गई दूल्हे की पगड़ी पहनकर खड़े हो जाते हैं मानो वह पच्चीस साल के नवयुवक हों। पड़ोसी खूब मजे ले रहे हैं । कहते हैं वाह फूफा ! हाय फूफा ! डटे रहो फूफा ! कोई कहीं से एक मरियल सी घोड़ी ले आया है । फूफा उस पर बैठ जाते हैं । चार-छह लड़के ड्रम बजाते हुए उनका जुलूस निकाल देते हैं।

 ✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश), भारत

 मोबाइल 99976 15451

सोमवार, 17 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र पर केंद्रित संस्मरणात्मक आलेख ....

 


रामपुर प्रदर्शनी कवि सम्मेलन 1985 में मैंने श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र का काव्य पाठ सुना था ।  हास्य कविता की रचना तथा उसके द्वारा जनता को हंसा पाना अपने आप में आसान नहीं होता । इस क्षेत्र में जहां एक ओर काव्य- कौशल में निपुणता जरूरी होती है ,उससे भी बढ़कर कविता की प्रस्तुति मायने रखती है । सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के काव्य पाठ का अंदाज इस प्रकार का रहता था कि श्रोता बरबस उनकी कविता का आनंद उठाते थे और वाह-वाह किए बगैर नहीं रह पाते थे। लंबे समय तक एक हास्य कवि के रूप में सुरेंद्र मोहन मिश्र जी हिंदी के श्रोता-संसार में जाने जाते रहे। वास्तव में देखा जाए तो व्यक्ति की आंतरिक आनंदमय स्थितियां उसे किसी अन्य दिशा की ओर प्रेरित करती हैं, लेकिन संसार में रहते हुए उसे कोई दूसरा रास्ता ही पकड़ना पड़ जाता है । बाहर से केवल एक हास्य कवि दिखने वाला यह व्यक्ति भीतर से एक गंभीर शोधकर्ता तथा गीतकार था। शोधकर्ता भी कोई साधारण कोटि का नहीं। मन का मौजी । कई-कई दिन तक पुरानी वस्तुओं की खोज में जुटा रहने वाला और यह कहने का साहस रखने वाला कि पिताजी मैं तो सरस्वती का आराधक हूं ,मुझे धन से क्या लोभ ? उनकी पुस्तक "कविता नियोजन" की कविताएं पाठकों को हंसाने और गुदगुदाने में समर्थ तो है किंतु कवि द्वारा लिखित भूमिका ने भीतर तक हिला कर रख दिया । अपनी भूमिका में कवि ने लिखा है :- "मंच की सफलता पाने के लिए मैंने बहुत हल्की हास्य कविताएं भी लिखीं और एक दिन मैंने देखा कि मेरे अंदर का गीतकार धीरे-धीरे मर रहा है । आप विश्वास करें ,मैंने अपने उस गीतकार को यूं ही मरने दिया। जनता के ठहाके और देर तक गूंजने वाली हास्य ध्वनियों को आखिर कब तक मेरा कोमल गीतकार बर्दाश्त करता ! उसे मरना ही पड़ा ।" श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र मंच के सफल हास्य कवि थे लेकिन उनका उदाहरण हमें बताता है कि वह भीतर से कितने गंभीर सृजन के लिए समर्पित थे। श्रोताओं के मध्य एक हास्य कवि के रूप में उनकी सीमित छवि जो बन गई थी ,वह उससे कोसों दूर थे। मंच पर जिसे जिस रूप में बाजार स्वीकार कर लेता है ,वह उसी सांचे में ढल कर आगे बढ़ता रहता है किंतु इससे उसके मूल व्यक्तित्व का परिचय प्रायः पीछे छूट जाता है। सुरेंद्र मोहन मिश्र जी के साथ भी यही हुआ । वह मूलतः हास्य कवि नहीं थे। अपनी अभिव्यक्ति क्षमता के कारण उन्हें इस रूप में मंच पर उतरना पड़ा । लेकिन इतिहास में उनकी भूमिका गंभीर गीतकार और समर्पित शोधकर्ता के रूप में ही सदैव स्मरण की जाएगी । रामपुर रजा लाइब्रेरी के दरबार हॉल में दिनांक 15 जनवरी 2022 शनिवार को स्मृति शेष श्री सुरेंद्र मोहन मिश्र के पुरातात्विक संग्रह का अवलोकन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ । रजा लाइब्रेरी का दरबार हॉल स्वयं में एक ऐतिहासिक धरोहर है । विशाल हॉल राजसी वैभव को प्रदर्शित करता है । और क्यों न करे ? यहीं पर रियासत के विलीनीकरण से पहले तक शाही दरबार लगा करता था । संभवतः जिस स्थान पर शासक का सिंहासन स्थित रहता होगा ,ठीक उसी स्थान पर सुरेंद्र मोहन मिश्र पुरातात्विक संग्रह काँच की एक प्रदर्शन-पेटिका में दर्शकों के अवलोकनार्थ रखा हुआ था। अधिकांश वस्तुएं ईसा पूर्व की हैं। यह आमतौर पर मिट्टी की बनी हुई है । सुरेंद्र मोहन मिश्र जी धुन के पक्के थे । कई -कई दिन तक पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं को खोजने में खपा देते थे और फिर उपेक्षित मिट्टी के टीलों, नदियों आदि से एक प्रकार से कहें तो अनमोल मोती ढूँढ कर लाते थे।  


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सराफा

रामपुर,उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 16 जनवरी 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख.....सुरेन्द्र मोहन मिश्र का बहुआयामी व्यक्तित्व


अवशेषों और पुरातत्वों की खोज में ,यायावरों की भांति, अपनी संस्कृति और सभ्यताओं को सहेजने, सवांरने के लिए कोई यथार्थ का दामन थामे इतिहासकार तो हो सकता है, परन्तु कल्पना के पंख लगा प्रकृति के हास - उल्लास के गीत गाते,नवयौवन के मधुर कल्पना लोक में विचरते कवि  होना उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचायक बन जाता है ,जहाँ इतिहासकार होना ,व्यक्तित्व के रूखेपन को दर्शाता है वहीं इतिहासकार होकर कवि के कवित्व को बनाये रखना सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी की कल्पनाशीलता जैसे सारी बातों का खण्डन कर रही हो । लेखक का हास्य रुप सबको दिखता है, परन्तु उस कठोर यथार्थ के भीतर बहते मीठे स्रोत को पहचानना हर किसी के वश में नहीं, लेकिन सुरेन्द्र मोहन जीवन की इन सारी कटुताओं के बीच कवि हृदय को जीवित रखने में सफल हुए हैं । वे इतिहासकार हैं तो पुरातत्ववेत्ता भी ,उपन्यासकार हैं तो कविता की मधुरता से ओतप्रोत भी ।उनके गीत मात्र हास भर नहीं है, उनके यहाँ प्रकृति इठलाती है, नर्तन करती है, हृदय में माधुर्य भी घोलती है--

दृग सम्मुख ये विशाल भूधर /ओढ़े है चांदी की चादर /**** झर-झर झरते शुचि निर्झर से / सरिता की लहरों के स्वर से /****** खग रव से मुझको गान मिला /मुझको मेरा उपहार मिला 

अल्पावस्था से ही उनको कविता का उपहार मिला समय के साथ वह प्रौढ़ होता चला गया। प्रेम और श्रृंगार के गीत रचते -रचते कवि कब सांसारिक दुखों से बोझिल हो नैराश्य से भर उठा --

  बनकर कितने स्वप्न मिटे हैं मेरे 

जल -जलकर कितने दीप बुझे हैं मेरे 

जग का ठुकराया प्यार तुम्हें मैं क्या दूँ

संसार के मिथ्या  प्रेम और आडम्बर से ऊबकर कवि कब लौकिक से पारलौकिक हो गया कि वह ईश्वर को प्रिय मान उन्हीं में अपने जीवन के सौंदर्य को तलाशने लगा --

 मेरे दुर्दिन में जब प्रियतम आते हैं 

नयनों में आ आंसू बन बह जाते हैं 

मेरे उर के कोमल छाले भी 

नभ के तारे बनकर मुस्काते हैं  

इस प्रकार जीवन के विविध रूपों को तलाशते हुए उदारमना कवि सुरेन्द्र मोहन जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं ,उनमें इतिहासकार की भांति खरा यथार्थ है तो कल्पनाशीलता भी । इतिहास की वीथिका में विचरते हुए उनका कवि मन कभी भी थकता नहीं है ,ऐसा एक विराटमना व्यक्ति अपने जीवन में निरंतर कालजयी रचनाओं के साथ हमारे बीच अपनी उपस्थिति बनाने में सफल हो सका है तो वे हैं सुरेंद्र मोहन मिश्र ,यहीं उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता भी है ---

 तेरे रंगीन विश्व में मुझे बहुत छला गया 

मिलन उम्मीद का विहग उड़ा कहीं चला गया 

सभी तो स्वार्थ में पले न बन सका कोई मेरा 

न जाने कौन विषमयी सुरा मुझे पिला गया 

अपने विविध आयामों में आभा बिखेरता वह महान व्यक्तित्व अपनी रचनाओं के साथ चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा  ।

✍️ डॉ मीरा कश्यप

अध्यक्ष हिंदी विभाग

के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत