रविवार, 2 अगस्त 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को हस्तलिखित वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । बीती 26 जुलाई 2020 रविवार को आयोजित 212 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों रवि प्रकाश, श्री कृष्ण शुक्ल, मनोरमा शर्मा, मुजाहिद चौधरी , रामकिशोर वर्मा, कंचन लता पांडे, प्रवीण राही, सीमा रानी, सीमा वर्मा, राजीव प्रखर, अशोक विद्रोही, कमाल जैदी वफ़ा, त्यागी अशोक कृष्णम, संतोष कुमार शुक्ला , अशोक विश्नोई, दीपक गोस्वामी चिराग, डॉ पुनीत कुमार, अनुराग रोहिला, डॉ श्वेता पूठिया, प्रीति चौधरी, डॉ अशोक रस्तोगी, नृपेंद्र शर्मा सागर, डॉ ममता सिंह, डॉ मीरा कश्यप ,डॉ प्रीति हुंकार और डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा हस्तलिपि में प्रस्तुत रचनाएं------




























मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता-----गिरावट


राजनीति में
पता नहीं कैसा भूचाल आया
शेयर बाज़ार बुरी तरह लड़खड़ाया
फिर मुंह के बल गिर गया
अख़बार वालो को
जश्न मनाने का मौका मिल गया
उन्होंने इस समाचार को
मुखपृष्ठ पर स्थान दिया
क्या करें,क्या ना करें
इस पर लंबा ज्ञान दिया
न्यूज़ चैनलों की तो जैसे
लॉटरी खुल गई
पूरे दिन चलाने को
सनसनीखेज न्यूज़ मिल गई
सोशल मीडिया ने भी
इस मुद्दे को हाथो हाथ लिया
विरोध और समर्थन के आधार पर
देशभक्त और देशद्रोही खेमों में
पूरे देश को बांट दिया
रुपए में गिरावट पर भी
निरर्थक बहस जारी है
शायद हम में इतनी ही समझदारी है

दूसरी तरफ
सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों में
जबरदस्त गिरावट है
हम सब मूक दर्शक बने बैठे है
ना कोई शोर शराबा है
ना कोई सनसनाहट है
राजनेताओं का चरित्र भी
बराबर गिर रहा है
हमको खुली आंख से भी
नहीं दिख रहा है
संसद में बोली जाने वाली भाषा
निम्नतम स्तर पर है
फिल्मों में कहानी
और कवि सम्मेलनों में कविता
वेंटिलेटर पर है
शिक्षा की गुणवत्ता का ग्राफ
बराबर नीचे जा रहा है
सब पैसा कमाने में व्यस्त है
किसी को समझ नहीं आ रहा है

ये सब मात्र एक झलक है
गिरावट जीवन में
जन्म से मृत्यु तलक है
हमने रामायण महाभारत गीता
और वेद पुराण जैसे शास्त्रों से
अपना नया तोड़ लिया है
केवल और केवल
अर्थ शास्त्र से खुद को जोड़ लिया है
हमारी सोच में भी
गिरावट आने लगी है
हम सब स्वार्थी हो गए है
और भौतिक प्रगति ही
हमको भाने लगी है।

डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600

शनिवार, 1 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार मंसूर उस्मानी की ग़ज़ल --- इतने चेहरे थे उसके चेहरे पर, आईना तंग आ के टूट गया ....


"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 140 वीं जयंती पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक चर्चा


 वाट्स एप पर संचालित  साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा शुक्रवार 31 जुलाई 2020 को हिन्दी-उर्दू के प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 140 वीं जयंती पर  उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर साहित्यिक चर्चा की गई । इस चर्चा में मुरादाबाद के साहित्यकारों ने विचार व्यक्त किये ।
एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताया कि मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी शिक्षा फारसी और उर्दू पढ़ने से शुरू हुई। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा के पास करने के बाद वह एक स्थानिय पाठशाला में अध्यापक नियुक्त हो गए। 1910 में वह इंटर और 1919 में बी.ए. के पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। उनकी प्रसिद्ध हिंदी रचनायें हैं ; उपन्यास: ग़बन, गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कहानी संग्रह: नमक का दरोग़ा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, बालसाहित्य: कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ आदि। इस अवसर पर उन्होंने मुंशी जी के कालजयी उपन्यास 'ग़बन' का पहला अध्याय पटल पर प्रस्तुत किया।
वरिष्ठ कवि शचीन्द्र भटनागर  ने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर मानवीय संवेदना के रचनाकार मुंशी जी को शत-शत नमन करते हुए डॉ महेश मधुकर के दोहे प्रस्तुत किये -

धन्य बनारस का हुआ,छोटा लमही ग्राम।
प्रेमचन्द्र जन्मे जहाँ, उसको कोटि प्रणाम।।

पिता अजायबराय का,बेटा धनपत राय।
माता आनन्दी उसे,लिए गोद-दुलराय।।

शिवरानी देवी बनीं,पत्नी सौम्य स्वभाव।
रहे अभावों में सदा,झेला अर्थाभाव।।

सत्य, अहिंसा,न्याय से,था अन्तस भरपूर।
छल,फरेब दुर्भाव से,रहे हमेशा दूर।।

साधारण जन कृषक के,मन की समझी पीर।
संवेदन-आलेप से,सदा बंधाई धीर।।

उपन्यास सम्राट ने लिखीं कहानी श्रेष्ठ।
मानवीय संवेदना,पूरित करी यथेष्ठ।।

साहित्यिक आकाश में,दिनकर से द्युतिमान।
प्रेमचन्द्र श्रीमान थे,सचमुच चन्द्र समान।।
वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने मुंशी प्रेमचंद के फिल्मी दुनिया से जुड़ाव पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रेमचंद जी अपने जीवन के आखिरी दिनों में कुछ समय के लिए फिल्मी दुनिया से जुड़े रहे। उनके कई उपन्यास और कहानियों पर फिल्मों का निर्माण हुआ। प्रेमचंद जी ने फिल्मी कंपनियों के लिए कहानियां और संवाद आदि लिखे और एक फिल्म में काम भी किया। ''हंस ''और ''जागरण ''के प्रकाशन के कारण 1934 में उन पर बहुत कर्ज हो गया था परंतु पत्रिकाएं बंद नहीं करना चाहते थे। आमदनी का और कोई रास्ता नहीं था, उस समय बोलती फिल्मों का दौर प्रारंभ हो चुका था। अतः फिल्म कंपनियों  को ऐसे साहित्यकार की आवश्यकता थी जो उनके लिए कहानी संवाद लिख सके अतः 1934 में अजंता सैनी टोन मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद जी से ₹8000 सालाना मुआवजे की बात की और उन्होंने यह स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें कर्ज चुकाना था और पत्रिकाएं भी चलानी थीं। उन्होंने यह भी विचार किया कि वह अपनी बात फिल्मों के माध्यम से लोगों तक पहुंचा सकेंगे जो उपन्यास , कहानी के माध्यम से नहीं कर पा रहे थे। फिल्म से उनके विचारों का प्रसार प्रचार हो सकेगा। अतः वह जून 1934 में मुंबई चले गए लेकिन प्रारंभ में ही उन्हें कटु अनुभवों का सामना करना पड़ा  तथा उन्हें वह माहौल भी पसंद नहीं आया वह बनारस वापस आ गए। उनकी पहली फिल्म कहानी ''मजदूर'' या ''मिल मजदूर '' लिखकर पेश की परंतु फिल्म काट छांट कर पेश करनी चाही लेकिन रिलीज होने से पहले ही उस पर रोक लगा दी फिर बाद में ''मिल मजदूर ''नाम से प्रदर्शित की गई इस फिल्म में मुंशी प्रेमचंद जी ने मजदूर यूनियन के नेता की भूमिका भी निभाई थी दूसरी फिल्म ''शेर दिल ''या ''नवजीवन '' के नाम से बनी लेकिन यह फिल्म भी नहीं चली। धीरे-धीरे उन्हें आभास हो गया कि यहां पर उनका गुजारा नहीं है। वो कंपनियों के विचारों से सहमत नहीं हुए और वापस आ गए।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद  एक ऐसे साहित्यकार जिन्होंने साहित्य की उपयोगिता मानव जीवन और समाज के लिए मानते हुए अपना संपूर्ण रचना कर्म किया। उन्होंने आदमी-आदमी के बीच खाई पैदा करने वाली कुप्रथाओं, कुरीतियों, कुरुचियों और समस्याओं चाहे वे आर्थिक हो या सामाजिक या राजनीतिक पर खुलकर लिखा। उनकी कहानियों पर दृष्टि डाली जाए तो उन्होंने अपनी कहानी "अलग्योझा" में जहां घर के बंटवारे के दुष्परिणामों की ओर संकेत किया वहीं "ठाकुर का कुआं " में छुआछूत जैसी विकृत समस्या को उजागर किया। उन्होंने जहां दहेज की कुरीति पर "उधार" कहानी लिखी वहीं "धिक्कार" कहानी में विधवा जीवन का मार्मिक चित्रण किया "मंत्र" के जरिए जहां मानवीय चेतना को दर्शाया वहीं "कफन" में विकृत मनोवृति की तरफ भी इशारा किया।
वरिष्ठ जनवादी कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि 31 जुलाई का दिन उन सभी साहित्य रचनाकारों के लिए प्रेरणा दिवस के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है जो अपनी लेखनी का उपयोग सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने, मानव मूल्यों की स्थापना करने तथा अपने समय के युग आदर्श के अनुसार रचना कर्म करने में करना चाहते हैं। प्रेमचंद का युग सामंती शोषण में जर्जर ब्रिटिश हुकूमत के जुए के नीचे भारतीय बर्जुआ नवजागरण के चिंतन उन्मेष का युग था।भारतीय समाज में पाश्चात्य मानवतावादी चिंतन हिलोरे मार रहा था।अतः  पराधीन स्वतंत्रता की चाह रखने वाले  भारतीयों के मन में पुराने सामंती समाज के अनुशासन के खिलाफ विरोध तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों से आजादी प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा जोरों पर थी इस तरह एक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन है। प्रेमचंद ने अपने युग की आवश्यकता, आदर्श तथा साहित्यिक उत्तर दायित्व का निर्वहन करते हुए शोषित आम जनता का पक्ष लेकर सामंती कु संस्कार ,अंचल पन, धर्मीय कूपमण्डूकता,पुरातन धर्मी गलत परम्परा,आचार आचरण आदि सभी कुछ के ख़िलाफ़ लेखनी को तेज तलवार की तरह प्रयोग किया।साथ ही ब्रिटिश विरोधी मनोभावों को निर्मित करने के क्षेत्र में उन्होंने साहित्य के माध्यम से ऐसा प्रभाव छोड़ा कि वंग- भंग आंदोलन काल में रचित उनके "सोज़े वतन" नामक कहानी संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर लिया। प्रेमचंद ने देश के वृहत्तर राजनीतिक - सामाजिक आंदोलन में अपने आप को शामिल करके प्रतिरोध के संग्राम में सिपाही का फर्ज भी अदा किया और इस सक्रिय भूमिका ने उनको शोषित- पीड़ित समाज का और भी करीबी आदमी बना डाला। उनकी सभी कहानी -उपन्यासों में गरीबी के अत्याचार, अन्याय तथा जर्जर भारत के किसी न किसी पहलू का चित्र उकेरा हुआ है। प्रेमचंद का साहित्यिक व्यक्तित्व इतना विराट एवं विस्तृत है की सामाजिक जीवन का कोई भी पहलू उनकी लेखनी की परिधि से बाहर नहीं है।
डॉ मनोज रस्तोगी ने वरिष्ठ पत्रकार कुमार अतुल  का आलेख, "प्रेमचंद क्यों जरूरी हैं" प्रस्तुत किया - सोशल मीडिया पर प्रेमचंद के विषय में लेखों की बाढ़ देखकर सुखद अहसास होता है। यह लेखक के कालजयी होने का प्रमाण है। यह उनके लिए भी जवाब है जो हिंदी की मौत की घोषणा कर रहे हैं। आप लिखिए तो कुछ प्रेमचंद जैसा। लेकिन नाच न आवे आंगन टेढ़ा। पाठक किसी लेखक की रचना से जितना अपनापन महसूस करता है वह लेखक उतना ही कामयाब होता है । प्रेमचंद इस मामले में आधुनिक काल के हिंदी के इकलौते लेखक हैं जिनकी रचनाओं से सौ साल बाद भी जुड़ाव की अनुभूति करते हैं। प्रेमचंद की रचनाओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनके पात्र आपको आपके भीतर के इंसान को बचाए रखने की प्रेरणा देते हैं। आप उन रचनाओं की आदर्शवादिता पर सवाल खड़ा कर सकते हैं जैसा प्रेमचंद के आलोचकों ने किया भी लेकिन वक्त ने साबित किया है कि उनकी रचनाएं सर्वग्राही और सर्वकालिक हैं । प्रेमचंद की कहानियों की खासियत यह है कि लगता है कि अपने ही आसपास के लोगों की गाथाएं हैं। इसीलिए उनका ताना-बाना बहुत नैसर्गिक लगता है। प्रेम चंद की कहानियों में नारी पात्रों को बड़ा सम्मान दिया गया है। बड़े घर की बेटी अद्भुत कहानी है। आनंदी एक संपन्न जमींदार की बेटी थी। पढ़ाकू और सामान्य घर में शादी होने के बाद स्थितियां ऐसी बनती हैं कि उसका देवर उसे खड़ाऊं चलाकर मार बैठता है। भाई से अतिशय प्यार करने वाले आनंदी के पति के सामने बड़ी दुविधा रहती है। लेकिन अपने कथित उजड्ड भाई की जगह पत्नी का साथ देते हैं। वह घर छोड़कर जाना चाहते हैं। लेकिन आनंदी घर को टूटने से बचा लेती है। कहानी की बुनावट ऐसी है कि लगता है कि यह हर संयुक्त परिवार से जुड़ी घटना है। लेकिन हर घर में आनंदी नहीं है। घर टूट रहे हैं। आनंदी जैसी बहू की चाहत हर घर करने लगता है। जब साहित्य में किसी किरदार की समाज में लोग जरूरत महसूस करने लगे इससे बड़ी लेखकीय कामयाबी और क्या हो सकती है। आप इसे प्रेमचंद का कोरा यथार्थवाद कहकर  खारिज नहीं कर सकते। प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील रचनाकार ने बदलते वक्त के साथ कदमताल मिला कर कफन, पूस की रात जैसी कहानियां अथवा गोदान जैसा घोर यथार्थवादी उपन्यास लिखा तो यह स्वाभाविक ही था। लेकिन यह आदर्शवाद ही है जिसने प्रेमचंद को घर-घर का दुलारा लेखक बना दिया। प्रेमचंद की कहानियां अपने आप में एक संस्कार की पाठशाला हैं। इसलिए गुजरते वक्त के साथ वे और अनमोल तथा प्रासंगिक होती जाएंगी।
युवा कवियत्री डॉ रीता सिंह ने कहा कि हिन्दी साहित्य में उपन्यास सम्राट, कथा-कहानियों के गहरे मानसरोवर मुंशी प्रेमचंद का लेखन समाज के आदर्श व यथार्थ दोनों ही रूपों को प्रस्तुत करता है। विद्यार्थी जीवन में हम सभी ने प्रेमचंद की कहानियों का तन्मयता से रसास्वादन किया है । मंत्र, ईदगाह, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी आदि इन कहानियों के पात्र भगवान बड़ा कारसाज है को जीते डॉ चड्ढा व भगत, मेले की रौनकों में से दादी के लिये चिमटा खरीदने वाला नन्हा हामिद, किसान झूरी के हीरा-मोती, हिन्दू मुस्लिम मित्र अलगू चौधरी - जुम्मन शेख, पूस की रात की ठंड में कांपता हल्कू, शतरंज के खिलाड़ी मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली सभी इतने सजीव प्रतीत होते हैं कि मानो वे अपने आसपास ही हों। समाज के निम्न मध्यम वर्गीय किसानो और मजदूरों पर हो रहे शोषण की वेदना प्रेमचंद जी की कहानियों में जीवंत प्रतीत होती है। ‘पूस की रात’ में तो प्रेमचंद जी ने बङी कुशलता से निरुपित किया है कि इस दुनिया में हमें आत्मियता जानवरों से तो मिल सकती है किन्तु इंसानो से इसकी अपेक्षा नही करनी चाहिये ।
व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी ने सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन शैली को अपनाया । प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे जन सामान्य के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज में अछूत कहे जाने वाले पात्र नायक के रूप में हैं । उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी का सजीव चित्रण अपनी कहानियों व उपन्यासों में किया है। उनके उपन्यासों निर्मला , गबन , गोदान , सेवासदन , रंगभूमि आदि में दलित व नारी की दशा का यथार्थ सामाजिक चित्र प्रस्तुत हुआ है । ये दोनों ही विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने हैं ।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने मुंशी प्रेमचंद के हिंदी-उर्दू साहित्य के महान कथाकार और नाविल निगार मुंशी प्रेमचंद को ख़िराजे अकी़दत पेश करते हुए उनके पुत्र अमृतराय द्वारा लिखित एक पैराग्राफ़ प्रस्तुत किया - "यह लाहौर है और 1935 चल रहा है,उर्दू के मुनफ़रिद ड्रामा निगार इम्तियाज़ अली ताज ने प्रेमचंद को चाय पर बुलाया है। प्रेमचंद लाहौर की गलियों-बाजा़रों में चक्कर लगाने के बाद दिन ढले इम्तियाज़ अली ताज के घर पहुंचते हैं। प्रेमचंद के कपड़ों पर सिलवटें पड़ी हुई हैं,उन्होंने मामूली कपड़े की धोती और मोटे कपड़े का कुर्ता पहन रखा है इम्तियाज़ अली ताज के घर के बाहर 100 से ज़्यादा कारें खड़ी हुई हैं, एक से एक बढ़िया। मेहमानों में जज,बैरिस्टर, डॉक्टर और प्रोफेसर सभी हैं। शहर के बड़े-बड़े लोग बुलाए गए हैं और जब उन लोगों को बताया गया कि यह मामूली कपड़े पहनने वाला आदमी ही प्रेमचंद्र है तो उन्हें बड़ी मुश्किल से इस पर यक़ीन आया। हैरत की बात है कि इस मामूली और सादे से देहाती के लिए शहर के सरकरदा लोग इंतज़ार में थे।"
युवा कवियत्री हेमा तिवारी  हेमा तिवारी भट्ट  ने कहा कि प्रेमचंद के नारी पात्र भारतीय आदर्श के पोषक हैं। सात वर्ष की उम्र से ही मातृ सुख से वंचित पुनः विमाता के दुर्व्यवहार से संतप्त, बाल विवाह और विधवा विवाह दोनों ही स्थितियों के भुक्तभोगी रहे महान कथाकार और उपन्यासकार प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में नारी पात्रों का चित्र जिस जीवंतता से किया है, वैसा अन्यत्र नजर नहीं आता। केवल कथानक की मांँग पर नारी पात्र का सृजन करना ही उनका लक्ष्य नहीं लगता, बल्कि उनकी हर स्त्री पात्र के पीछे भारतीय विचारधारा झलकती है। इसीलिए उनके उपन्यासों और कहानियों में हम प्राय:नारी के उन रूपों का समृद्ध परिचय पाते हैं,जो भारतीय आदर्शों का पोषण करती हैं।प्रेमचंद के लेखन में नारी को जीवन की चरम शांति भारतीय आदर्शों के अनुपालन में ही मिली है। प्रेमचंद नारी को प्रेम की शक्ति का रूप मानते हैं।वह नारी के अंदर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, तपस्या, बलिदान, प्रगतिशीलता, कर्तव्य ज्ञान, सेवा पवित्रता आदि सभी उदार भावों को देखते हैं और इन भावों को उन्होंने विभिन्न नारी पात्रों में जगह जगह पर चित्रित करके दिखाया भी है।भारतीय आदर्श के अनुरूप हर स्त्री में वह माँ तत्व को प्रमुख मानते हैं। गोदान, प्रतिज्ञा, निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, सेवासदन आदि उपन्यास हों या ठाकुर का कुआंँ, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, पूस की रात आदि कहानियांँ हों, प्रेमचंद ने अपनी स्त्री पात्रों को भारतीय आदर्शों के अनुरूप प्रस्तुत किया है। वह स्वीकारते हैं कि नारी के गुण श्रेष्ठ होते हैं,तभी वे लिखते हैं - 'जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएं तो वह कुल्टा बन जाती है'(गोदान)। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में नारी के हृदय की भी गहराई से पड़ताल की हैं, जहाँ उन्हें मिठास भी मिली और कड़वाहट भी। उन्होंने अपने पाठकों को इन दोनों ही रुपों से मिलवाया है। उनके स्त्री पात्र एक और जहां भारतीय आदर्श प्रस्तुत करते हैं वहीं वह उन स्त्री पात्रों को भी सामने रखते हैं जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हैं, मुखर हैं, मॉडर्न हैं। परंतु अंततः वह भारतीय आदर्श की सर्वोच्चता को ही उस पात्र के हृदय परिवर्तन या व्यवहार परिवर्तन से सिद्ध कर देते हैं।
युवा शायर और कहानीकार फरहत अली खान ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद अकेले ऐसे साहित्यकार हैं जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में पहली पंक्ति के साहित्यकारों में गिना जाता है। हिंदी में इन्हें जहाँ हिंदी साहित्य का टर्निंग पॉइंट माना जाता है और युग-प्रवर्तक के तौर पर देखा जाता है, वहीं उर्दू में जब मंटो, बेदी, इंतेज़ार हुसैन, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, क़ुरअतुल ऐन हैदर, बलवंत सिंह सरीखे साहित्यकारों का नाम लिया जाता है तो साथ में प्रेमचंद का नाम भी रखा जाता है। प्रेमचंद के तमाम साहित्य का केंद्रीय विषय है- 'मानवीय मूल्य'। उन्होंने कमज़ोरों और दर्द-मंदों के लिए आवाज़ उठाई, उन की वकालत की, उन की पीड़ा और दुर्दशा बयान की। साथ ही ताक़तवर और धनवान लोगों द्वारा ग़रीबों पर किए जा रहे अत्याचारों की सच्ची तस्वीर समाज के सामने रखी। कहानी कहने में तो उन्हें महारत हासिल थी। अल्फ़ाज़ और मुहावरों का इस्तेमाल बहुत ख़ूबी के साथ करते थे। उन का बयान अच्छे-अच्छों की नब्ज़ पकड़ लेता है। बयान में वो सादगी और मिठास कि एक-एक जुमला शौक़ की इंतेहा के सबब ख़ुद को दस-दस बार पढ़वा ले जाए। ज़बान की ऐसी मिसालें कम-कम ही मिलती हैं। मुमकिन है कि ज़बान की ये चाशनी उन्हें हिंदी के साथ-साथ उर्दू भाषा पर भी बराबरी से पकड़ होने के सबब हासिल हुई हो। हिंदी जगत में प्रेमचंद से पहले और बाद में भी बहुत अच्छे-अच्छे साहित्यकार आए। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी तमाम ख़ूबियों के सबब अपने बाद के साहित्यकारों और साथ ही पाठकों पर भी जिस तरह गहरा असर छोड़ा उस की कोई दूसरी नज़ीर नहीं मिलती।
मुरादाबाद के युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने अपने दोहों के ज़रिए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की -

हिन्दी-उर्दू में चले, अगर अदब की बात
प्रेमचन्द के नाम से, ही होगी शुरुआत

परियों-जिन्नों से किया, कहानियों को मुक्त
प्रेमचन्द ने सब लिखा, निज अनुभव से युक्त

जो रचकर "सोज़-ए-वतन", छेड़ दिया संग्राम
अंग्रेज़ों के भाल पर, बल पड़ गए तमाम

इस समाज का हूबहू, गए चित्र वे खींच
अब भी होरी मर रहे, पेशोपस के बीच

होरी, घीसू, निर्मला, ये जो रचे चरित्र
इस समाज का वास्तविक, प्रस्तुत करते चित्र

बापू जब आगे बढ़े, लेकर क्रांति-मशाल
खड़े हुए संग्राम में, प्रेमचन्द तत्काल

प्रेमचन्द की ज़िन्दगी, बीती बीच अभाव
उनका मगर समाज पर, गहरा पड़ा प्रभाव


::::::::प्रस्तुति::::::

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन और संचालक,
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद।
मो0 - 7017612289

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो.महेन्द्र प्रताप का गीत - जब से मन में नई प्रीति जागी है ....यह गीत लगभग 62 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है केजीके महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 1957-58 में ।



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दयानंद गुप्त की कविता ----- यह कविता दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका "भारती" के श्री दयानंद गुप्ता स्मृति विशेषांक 1983-84 से ली गई है।


:::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 29 जुलाई 2020

मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफा की कहानी --- महँगा बकरा


          ईदुलजुहा का त्योहार आने में अब चंद दिन बचे थे. कई दिन से  अखबारों में ऐसी  खबरें आ रही थी कि बरेली में बिका दो लाख का बकरा, शकील कुरेशी ने खरीदा एक लाख 60 हजार का कटरा , कुर्बानी के जानवरों के दाम बढ़े, बरबरा और  सफेद बकरों की डिमांड अधिक आदि- आदि खबरे रोज़ अखबारों की सुर्खियां बन रही थी। टी वी चैनलों पर भी इस टाइप की खबरे प्रमुखता से दिखाई जा रही थी।
   मोहल्ले के बच्चों में भी बकरों को लेकर प्रतिस्पर्धाये हो रही थींं। कोई कहता - ' मेरा बकरा सबसे तगड़ा है।'तो कोई कहता-'मेरा बकरा सबसे ऊंचा है।' तो कोई अपना बकरा महँगा होने की बात कहकर गर्व से अपना सीना फुलाता लेकिन यह सब बातें सुन सुनकर जाहिदा बेगम घुली जा रही थी गरीब जाहिदा ने अब से दो साल पहले अपने अब्बू  से बकरी का एक बच्चा लिया था  कि इसे पाल पोसकर बड़ा करेगी और साल दो साल बाद बकरीद पर अच्छे पैसों में बेचेगी  मगर अब बकरे को देख- देखकर  उसकी उम्मीद नाउम्मीदी में बदलने लगी थी। अपनी गरीबी के कारण वह बकरे की अच्छी तरह खिलाई- पिलाई नही कर सकी थी। जिससे उसका बकरा भी उसकी तरह हड्डियों का ढांचा नज़र आता था उसे यही चिन्ता खाये जा रही थी कि आखिर हड्डियों के इस ढांचे जैसे बकरे के कौन अच्छे पैसे देगा और अगर बकरा अच्छे पैसों का नही बिका तो वह बीमारी से जूझ रहे आदिल के अब्बू का इलाज कैसे कराएगी? एक साल  से अदा न कर सकी मकान का किराया कैसे अदा करेगी और आदिल  के स्कूल की फीस कैसे देगी  सब सोच सोचकर उसका कलेजा मुँह को आ रहा था।
      बुझे मन से उसने बकरे की रस्सी खोलकर आदिल को थमाते हुए कहा कि बेटा पड़ोस के गुलशन मियां साप्ताहिक पैठ बाज़ार जा रहे है तुम भी उनके साथ चले जाओ यह बकरीद से पहले का आखरी बाज़ार है जो भी पैसे मिले आज  इसे बेच ही आना क्योंकि आगे इसे पालने की हमारी हैसियत नही है बाज़ार में चारा बहुत महंगा है हम इसके लिये चारा कहाँ से ला पाएंगे? कहते हुए उसकी आंखें आंसुओ से गीली हो गई  गुलशन मियां के साथ आदिल बकरा लेकर पैठ बाजार पहुच गया।
          बाजार में एक से एक सजे धजे और मोटे ताजे बकरे नजर आ रहे थे ग्राहकों की भी भारी भीड़  थी जो कुर्बानी के लिये महंगे से महंगे दामों पर मोटे और लंबे चौड़े और ऊंचे बकरे खरीद रहे थे लेकिन उसके दुबले पतले बकरे की ओर तो लोग सिर्फ निगाह डालकर आगे निकल जाते कोई दाम तक नही पूछ रहा था। जैसे- जैसे समय बीत रहा था बाजार भी खाली होता जा रहा था आदिल का दिल बैठा जा रहा था कि बिना बकरा बेचे वह घर जाएगा तो माँ कितना दुखी होगी गुलशन मियां भी उससे घर चलने को कहने लगे थे लेकिन वह 'अंकल कुछ देर और, कुछ देर और' कहकर रोके हुए था तभी उसके पास सफेद शेरवानी पहने उसी के मोहल्ले के शिराज़ साहब आकर रुके और उसके हाथों पर नोटो की गड्डी थमाते हुए उससे बकरा उनके सुपुर्द करने को कहने लगे। हैरत से आदिल की आंखे फ़टी की फटी रह गयी उसे यकीन नही हो रहा था कि उसके दुबले पतले बकरे के कोई इतने अच्छे पैसे दे सकता है वह खुश होता हुआ घर आ गया बकरे के इतने अच्छे दाम देखकर  जाहिदा के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी उसने दोनों हाथ आसमान की ओर  उठाकर खुदा का शुक्र अदा किया।
      उधर शिराज साहब बकरा लेकर घर पहुँचे तो बकरा देखकर सब घर वालो के मुंह बन गए सायमा बोली-' पापा आप यह कितना दुबला बकरा लाये है?' अमन का कहना था -'यह तो हड्डियों का ढांचा है।' अब बारी अमन की अम्मी की थी कहने लगी-' शायद तुम्हारे पापा को किसी ने फ्री में दे दिया होगा या हजार पांच सौ में ले आये होंगे यह तो त्यौहार पर भी कंजूसी करते है.  तभी तो बकरे के दाम भी नही बता रहे' चारो तरफ से ताने तिशने सुनने के बाद शिराज साहब से रहा नही गया चीखकर बोले-' हाँ मैं कंजूस हूं! तभी  तो यह बकरा दस हजार में खरीदकर लाया हूं।' ' दस हजार का ?।'सब के मुंह से एक साथ निकला  'दो हजार का बकरा दस हजार में?' सबने हैरतजदा होते हुए पूछा शिराज साहब ने फिर बोलना शुरू किया -'हाँ दस हजार में, जानते हो क्यों?इसलिये की यह बकरा अपने ही मोहल्ले की उन जाहिदा बेगम का है जिनके शौहर काफी दिनों से बीमार है। जाहिदा बेगम खुद्दार है वह किसी गैर से मदद मांगना अपनी शान के खिलाफ समझती है बकरीद पर अल्लाह की राह में कुर्बानी दी जाती है लेकिन कुर्बानी का मतलब दिखावा नही है, अल्लाह सबकी नियत से वाकिफ है। वह सब जानता है.  सिर्फ बकरा ज़िब्ह करके उसका गोश्त खा लेना या अपने यार दोस्तो रिश्तेदारों में बांट देना ही सच्ची कुर्बानी नही है, बल्कि भूखे- प्यासों, गरीब- मोहताजों की मदद करना उनके चेहरे पर खुशी लाना ही अल्लाह की राह में सच्ची कुर्बानी है. हम इस बकरे से भी कुर्बानी अदा कर सकते है और ज्यादा पैसे में खरीदकर मैने कोई दिखावा नही किया है. बल्कि एक जरूरतमंद की इस तरह से मदद की है।' शिराज साहब की बातें सब घर वाले दम बख़ुद होकर सुन रहे थे उनकी बातें सुनकर सभी के सीने शिराज साहब को प्यार भरी नजरों से देखकर चौड़े हो रहे थे।

कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी , सम्भल
 9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा--------घर का अर्थशास्त्र


दावत से लौटते ही पुष्पा ने अपने सात साल के
बेटे नितिन को पीटना शुरू कर दिया।उसके पति
रमेश ने बीच बचाव करते हुए पूछा 'अरे,क्यों
मार रही हो बेचारे को "
''आइसक्रीम की वजह से '
"चार आइसक्रीम ही तो खाई हैं।बच्चे तो
आइसक्रीम ज्यादा खाते ही है।'
"चार ही खाई है,इसीलिए मार रही हूं।और
ज्यादा खानी चाहिए थीं।रोज आइसक्रीम की  जिद करता रहता है। वहां फ़्री की मिल रही थी तो
इससे खाई नहीं गई"
   
डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद -244001
M - 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघु कथा---सिसकियाँ


        तुमसे टाइम से तैयार भी नही हुआ जाता ,बताया था न कि शाम को पार्टी में जाना है।बिलकुल गँवार औरत ही पल्ले पड़ गयी है............चटाक चटाक ..........ज़ोरदार आवाज़ .......
उसने अपनी आँखो को गहरे काजल से सज़ा लिया पर चेहरे पर उँगलियो के निशान अब भी दिख रहे थे ।जिन्हें छुपाने के लिए मेकअप का एक कोट और लगाना पड़ा।
आ गए आप लोग ,हम सब आप दोनो का ही इंतज़ार कर रहे थे ।आप दोनो को इस पार्टी में बेस्ट कपल के लिए चुना गया है ।बहुत बहुत बधाई .........
चारों तरफ़ बधाई देने के लिए भीड़ जमा हो गयी और सिसकियाँ कही गले में ही रूँध गयी।
                   
प्रीति चौधरी
गजरौला
ज़िला-अमरोहा

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी --------जंगल..पहाड़..टीट की देवी


  ..."पैर मन मन के भारी हो रहे हैं"! ...
."अब नहीं चला जाता!! ".. ..." दाज्यू! अब तो चाय होनी चाहिए!!" 10 साल के कन्नू ने कहा... तभी जगदीश ने थैले में से चाय बनाने के लिए स्टोव ,माचिस और सामान निकाला ...
      जंगल में अंधेरा घिर आया था ... घने..
बीहड़  में.. अद्भुत दृश्य था बड़ा रहस्यमय
पक्षी और जानवर अपने- अपने ठिकानों पर चले गए थे थोड़ी देर पहले बहुत कोलाहल था परंतु अब तो उस निर्जन वन में 4 प्राणी थे जो सुबह 10:00 बजे टीट की देवी पर प्रसाद चढ़ाने के लिए घर से निकले थे 20 किलोमीटर की कठिन पैदल यात्रा !... पहाड़ पर कोई सड़क नहीं ... सिर्फ पगडंडी ऊपर से दुर्गम चढ़ाई......रास्ते में तरह-तरह की बाधाएं.... यद्यपि रास्ते में काफल ;हिसालु'; किल्मोड़ा के फलों से पेड़ लदे हुए थे और हम सभी उन फलों का रसास्वादन करते हुए चल रहे थे यात्रा बहुत सुंदर लग रही थी एक जगह बैठकर आम के अचार के साथ घर से लाए हुए पराठे खाए... झरने का शीतल जल पिया और आगे बढ़ गए फिर आया "जोंक वाला जंगल" जहां जमीन पर ,पेड़ों पर, पत्तियों पर,....सभी जगह जोंको से  भरी पड़ी थी शरीर पर चिपकी और खून चूसना शुरू जूतों के मौजों में घुस जाती और पता भी नहीं चलता साथ में नमक लेकर चल रहे थे दिलीप पंत के पैरों में जब जोर की चुभन महसूस हुई तो उसने जूता  ऊतारा देखा एक बहुत बड़ी जोंक  फूल कर मोटी हो गई थी- खून चूसते हुए ! बड़ी मुश्किल से उससे पीछा छुड़ाया नमक लगाकर मुझे भी कई जगह पर जोंक हमारे सभी के शरीर पर कई जगह खून चूस चुकी थीं.... मार्ग में आगे
    उसके बाद सीधी चढ़ाई की पगडंडी आई जरा सा पैर फिसला और हजारों फिट नीचे गहरी खाई में समा जाएंगे... परंतु फिर भी पहाड़ के सभी दृश्य बहुत खूबसूरत थे कभी-कभी साइड से दूर जंगल में हिरन और लकड़बग्घे  दिखाई दे जाते थे बहुत रोमांचक था....... "लो बन गई चाय!!!" जगदीश की आवाज पर मेरी तंद्रा भंग हुई...
.........सड़क के किनारे चाय की चुस्की लेते हुए जगदीश ने दिलीप पंत से कहा इतने बीहड़ बन में भी  "माई "अपनी भेड़ों के साथ अकेली ... "उस झोपड़ी में रहती है "!! "डर तो उसे बिल्कुल लगता ही नहीं" ! "वहां शेर भी आता है" ...."सब देवी की माया है" "शेर तो दुर्गा जी का वाहन है".... तभी अचानक पेड़ों के पीछे जोर की आहट हुई !!  फिर कन्नू के चीखने की आवाज आई....."दद्दा !जल्दीआओ" !! .... जल्दीआओ !!...आग!!!!!
.... हम तीनों डर गए तभी अंधेरे में तेज प्रकाश दिखाई दिया ....जलने की गंध भी बहुत तेज आ रही थी....!!!  हमने देखा कि वहां आग लगी है ...
     "आग कैसे लगी ?? ... स्टोव जलाने के बाद कन्नू माचिस ले गया था... बीड़ी की लत !!
"कन्नू ने बताया "मैंने जलती हुई तिल्ली पत्तों पर फेंक कर देखी थी "सोचा था  बुझा  दूंगा परंतु आग बड़ी तेजी से बढ़ती चली गई "दद्दा मुझे माफ कर दो अब ऐसा नहीं होगा".... जगदीश ने दो-चार झापड़ जड़ दिए..
      आग ने विकराल रूप धारण कर चुकी थी हम चारों ने मिलकर बुझाने का प्रयत्न किया मगर नहीं बुझा सके .....
      इन चीड़ के पेड़ों की छाल में तेल भी होता है इसलिए तेजी से आग बढ़ती चली गई!!
.... हम लोगों को ..."काटो तो ...
खून नहीं !."..ऐसी हालत हो गई वो तो अच्छा था कि रात के 7:00 बजे थे गहरा अंधेरा छा चुका था दूर-दूर तक निर्जन जंगल देवदार और चीड़ के बड़े-बड़े पेड़ छत्तर फैलाएं सीधे खड़े थे जड़ों में ढेरों पत्ते बिखरे हुए थे जिन पर शैतान कन्नू के बच्चे ने अपना यह दुर्लभ प्रयोग कर डाला ...एक तिल्ली माचिस की रगड़ी और फेंक दी ......... हम तीनों ने मिलकर बुझाने का बहुत प्रयास किया पानी भी नहीं था मिट्टी से ही कोशिश की ...परंतु आग काबू में नहीं आई ...अंत में हम ने निश्चय किया कि जल्दी जाएं..... टीट की देवी पर प्रसाद चढ़ाएं ... और सुबह अंधियारे में ही वापस घर लौट जाएं.... क्योंकि आग बढ़ती ही जा रही थी ..डर लग रहा था... पूरे जंगल को ही अपने आगोश में ना ले ले...
 ..... हम लोग पूरी तरह से थके हुए थे 15 किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे... अभी 5 किलोमीटर की यात्रा और करनी थी... जल्दी-जल्दी दौड़ जैसी चाल में तेज चलने लगे ...अब जान बचाने की पड़ी थी एक तो आग का डर .. दूसरे जंगली जानवरों का.... तीसरे बुरी तरह थक चुके थे... हिम्मत जुटाकर ऐसे चलने लगे जैसे पैरों में स्प्रिंग लग गए हों ****
         सामने जो पर्वत की चोटी दिखाई दे रही थी वहीं पर टीट की देवी का मंदिर था और मंदिर भी क्या था पहाड़ की चोटी पर एक नुकीले पत्थर की नोक  पर रखी हुई एक विशालकाय पत्थर की चट्टान ......उसी के नीचे कुछ मूर्तियां रखीं थीं । उसी स्थान का नाम टीट की देवी था... आस्था का केंद्र!
        ... जल्दी जाकर हमने झरने के पानी में लोटे से जल्दी-जल्दी स्नान किया
इतनी ऊंची चोटी पर पानी की धार!... सब कुछ अद्भुत और अकल्पनीय था .... उस पर इतना ठंडा पानी !.. ... बाप रे  !  कंपकंपी छूट रही थी.. जैसे तैसे हम उसी समय मंदिर चले गए...  माता की स्तुति की ...आरती करके प्रसाद चढ़ा कर नीचे जहां माई रहती थी एक कमरा और था जिसे धर्मशाला का नाम दिया गया था उसी में  हम आ गए  ।
     कल क्या होगा?? वन विभाग के लोग आएंगे? मैं ,दिलीप पंत ,जगदीश पांडे और कन्नू 4 लोग थे जो इस अरण्य अग्निकांड के लिए जिम्मेदार थे ... हम लोग जब दर्शन करने के लिए घर से चले थे तो कन्नू की मां ने कहा "यह तो आपका सामान उठा कर ले जाएगा ...कृपया इसको भी साथ ले जाओ बहुत दिनों से कह रहा है देवी माता के दर्शन करने के लिए"! वैसे भी लोग कहते हैं तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा ...इस करके हमने कन्नू को साथ ले लिया था !
        टीट की देवी के पहाड़ की चोटी से नैनीताल की लाइटें साफ दिखाई देती थी नींद नहीं आ रही थी ....
     ...जंगल की आग बहुत दिन तक चलती रहती है अगर एक बार लग जाए तो  बहुत सारी वन संपदा का विनाश कर देती है कितने ही जानवरों के, परिंदों के घर नष्ट हो जाते हैं ....
....... भोर के4:00 बजे होंगे हम जल्दी उठे फिर उसी बर्फीले पानी में किसी तरह स्नान किया फिर माता के दर्शन किए और तुरंत चल दिए ..... अंधेरे में हम निकल जाएंगे तो कोई जान भी नहीं पाएगा कि कौन आया था ..तभी रास्ते में वन विभाग के कुछ ऑफिसर और सिपाही वनरक्षक आते हुए हमें मिले और हमसे  पूछताछ करने लगे .... जंगल में आग कैसे लगी?? ...." आपको कुछ पता है कि कौन आया ?? कौन दुश्मन आया यहां पर ??  ...हमने साफ   झूठ बोल दिया" हमें कुछ पता नहीं!! हम तो  यहां देवी के स्थान पर 2 दिन से आए हुए थे ""!
      ....खैर वह संतुष्ट ना होते हुए भी आगे चले गए और हम उस रास्ते की पगडंडी पर तेजी से घर की ओर बढ़ चले दिल धक-धक कर रहा था उनसे बचने के बाद जान में जान आई...... परंतु ये क्या ???  ठीक जहां पर ...जंगल में आग लगी हुई थी उसी जगह पर ...एक बड़ा सा चीता बीच रास्ते में  बैठा हुआ था .... हम वहीं ठिठक कर खड़े हो गए हाथ जोड़ कर टीट की देवी माता को सच्चे मन से याद किया हे! मां दया करो तभी चमत्कार हुआ ! चीता रास्ते से चला गया !... घनघोर घटाएं... घिर आईं ... बारिश का मौसम होने लगा  हम लगभग दौड़ने से लगे ... और थोड़ी ही देर में मूसलाधार बारिश होने लगी .... हम रोमांचित और भावविभोर हो रहे थे हे ! मां !! तूने हमारी  सुन ली ...अब आग बुझ जाएगी !... जंगल बच जाएगा !! जीव जंतु बच जाएंगे !!! हम चारों को भीग रहे थे और जोर जोर से गा रहे थे ......
  "अम्बे ! तू है जगदंबे काली !! जय दुर्गे खप्पर वाली तेरे ही गुण गाएं ......!!!!!
     ‌    ‌ ..... आज भी जब याद आती है तो  रोंगटे खड़े हो जाते हैं ...ऐसी आग भी कभी नहीं देखी ..... और चमत्कार भी....

  अशोक विद्रोही
  82 12825 541
  412 प्रकाश नगर मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी -----'मजाक '


​       वह बहुत देर से अपनी स्टडी चेयर पर बैठा टेबल लैम्प पर बार बार आते औरफिर लौट जाते पतंगे को देख रहा था उसको नहीं पता की इसको पतंगा कहते हैं क्योंकिउसनेकभी इस शब्द का अर्थ जानने की चेष्टा ही नहीं की क्योंकि आजकल के बच्चों को वैसे भी एक ही बर्ड याद रहता है 'इन्सेक्ट 'उनके पास समय ही नहीं अपने इर्द गिर्द घूमती दुनियां और प्राणियों का निरीक्षण करने की जानने और समझने .
​बचपन से ही पेरेंट्स द्वारा या फिर स्कूल टीचर द्वारा उनकी कैटेगिरी निश्चित कर दी जाती है .
​टेलेंटेड ,मल्टीटेलेंटेड या फिर एवरेज वो उनके हुनरपर ध्यान न देकर सिर्फ स्कूल से प्राप्त प्राप्तांकों से निर्धारित किया जाता है .
​निशानी कई दिनों से महसूस कर रही थी की उसका बेटा रक्षक कई दिनों से उदास सा है .
​बिलकुल खामोश सा हो गया है .यह बड़ी बात है की उसको ऐसा एहसास हुआ की उसके बेटे के साथ कोई समस्या है ...वह उससे खुद से या फिर परिवार से कुछ छिपा रहा है नहीं तो आजकल सब अपनी अपनी वव्यस्ताओं में इतने व्यस्त हैं की अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं है .
​हमेशा मुस्कराता ररक्षक एकदम शांत सा हो गया गुमशुदा सा .
​जब भी निशानी कुछ पूछने की कोशिश करती वह चिढ जाता .
​"मम्मी प्लीज मुझे अकेला छोड़ दीजिये I"
​निशानी को लगता बोर्ड है इस बार इसलिए पढ़ाई का दबाब ज्यादा है इसलिए वह चुप हो जाती .
​"बेटा स्टडी में कोई प्रॉब्लम हो तो ट्यूशन वगैरह ले लो ...एग्जाम पास हैं और तुम कुछ पढ़ते ही नहीं हमेशा परेशान से रहते
​हो I"
​निशानी ने बेटे का हाथ अपने हाथ में लेकर प्यार से कहा .लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चिढ सा गया यह देखकर निशानी फिर से परेशान हो गई .
​रक्षक का इतना रूखा व्यवहार निशानी को भीतर ही भीतर खाये जा रहा था .Iइतना खुशदिल लड़का कैसा मुरझा सा गया है .
​कितने सपने देखे हैं उसने और रक्षक के पापा ने बेटे को लेकर सब धुंधलाते से प्रतीत होते हैं .
​माँ अपने बच्चे की परेशानी को एकदम भांप जाती है ऐसे में निशानी कोई अपवाद नहीं थी .
​कुछ महीनों से उसने नोट जरूर किया था की जब भी रक्षक का फोन आता वह उठकर बाहर चला जाता बात करने .नहीं तो पहले ऐसा नहीं था अक्सर उसके फ़िरेन्ड्स का फोन आता तो वह अपने मम्मी पापा के सामने ही बात करता रहता .
​धीरे धीरे उसके फोन आने बंद से हो गए थे .चूंकि वह क्लास का सबसे होशियार लड़का था ऐसे में उसके फ़िरेन्ड्स उससे कई टॉपिक्स सोल्व करने के लिए कॉल करते रहते थे .
​निशानी बैठी कोई बुक पढ़ रही थथी और रक्षक के पापा न्यूज पेपर रक्षक उनके पास आया और कहने लगा .
​"मम्मी मुझे इस बार एग्जाम नहीं देना "
​"लेकिन क्यों ?"मम्मी पापा एक साथ आश्चर्य से बोले .
​"बस मेरा मन नहीं I"
​"लेकिन कोई तो वजह होगी ?"इस बार पापा बोले .
​"मैं कुछ नहीं कर सकता ..."मैं बेकार हूँ ..."
​कहते हुए रक्षक फफक कर रो पड़ा निशानी की भी आँखें भर आईं .
​"बेटा बताओ बेटा बात क्या है तभी तो हम सबको पता चलेगा तुम्हारी हैल्प करेंगे I"Iइस बार पापा बोलै .
​"पापा वो स्नेहा है न "
​"तुम्हारी दोस्त ?"
​"जी पापा जी ...उसने मुझे धोखा ....I"कहते हुए रक्षक रो पड़ा .एक पल के लिए मम्मी पापा सन्न रह गए की उनका बीटा कितने बड़े दर्द से गुजर रहा था और उनको पता भी नहीं .
​यह उम्र का पड़ाव ही ऐसा होता है किशोरावस्था जहां बच्चे विपरीत लिंग की तरफ आकर्षित होते हैं और उस आकर्षण को प्रेम समझ बैठते हैं .यह बहुत ही नाजुक दौर होता है उम्र का .
​"पूरी बात बताओ  I"निशानी ने स्नेह से उसकी कमर पर हाथ फेरते हुए कहा तो रक्षक थोड़ा शांत हुआ .
​"मम्मी वो मुझसे कहती थी की वह मुझे बहुत चाहती है क्योंकि उसके पेरेंट्स का आपसी रिश्ता अच्छा नहीं .घर में क्लेश रहता है अगर मैंने उसका साथ नहीं दिया तो वह सूइसाइड कर लेगी Iऔर इस तरह से मैं स्टडी से अपना ध्यान हटाकर हमेशा उसी के बारे में सोचता रहता ...लेकिन !"
​"लेकिन क्या ?"
​"लेकिन अब कुछ दिनों से उसने मुझसे बात करनी बंद कर दी और फिर एक दिन उसने ममुझसे कहा की उसने अपने एक दोस्त से मुझे टॉप न कआने देने की क्लास में शर्त लगाईं थी I"रक्षक ने भर्राये गगले से कहा .सुनकर निशानी और उसके पापा सन्न रह गए .
​"वो लड़की तुम्हारी दोस्ती के काबी ही नहीं थी बेटा .तुम उसको लेकर परेशान क्यों हो जिसने तुम्हारे इमोशंस के साथ खिलबाड़ किया तुम्हारा मजाक बनाया ?"निशानी ने बेटे को समझाते हुए कहा .अब रक्षक थोड़ा और शांत हुआ .
​उसके पैरेंट्स ने उस पर और अधिक ध्यान देना और दोस्ताना व्यवहार करना बढ़ा दिया कुछ हीदिनों में रक्षक शांत हो गया .
​वह एग्जाम में बैठा और अच्छे से पढ़ाई की .
​रिजल्ट बाले दिन टॉप पर उस लड़की का फोटो देखकर वह मुस्करा दिया क्योंकि उसकी दोस्ती सफल जो हो गई थी और उस झूठी लड़की का हश्र वह खुद था .
​सच्ची दोस्ती बस दोस्त का भला चाहती है और कुछ नहीं हाँ आज भी शायद उसके मम्मी पापा के मन में उस लड़की के लिए कड़बाहट हो और शायद पूरी जिंदगी रहे .


​राशि सिंह
​मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश








मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा --------- लक्ष्मी


          जेठ जी गांव में जाकर बड़े ताव में बोले "अब,दूसरा भी बेटा हुआ है ,हमारी घर वाली बड़ी लक्ष्मी आई है।देखो ,सब अच्छा ही हो रहा है ।मकान भी बन गया ।हम शहर में भी पहुँच गए।मजे से कट रही है जिंदगी ।"रसोई में चाय बना रही अवनि अपने लक्ष्मी होने पर संशय में थी ।70हजार की उसकी महीने की कमाई और उसके पति की 72हजार की कमाई किसी की नजर में नहीं थी ।एक बेटी को जन्म देने वाली अवनि  स्वयं में लक्ष्मी होने के कुछ प्रमाण खोजने में लगी थी ।

डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की लघुकथा--------- - फूल सी बेटी

      
कई बार अखबार पढ़ कर सिहर सा जाता हूं।  बहू बेटियों की अस्मिता घर की चारदीवारी में भी सुरक्षित नहीं हैं। उम्र में बढ़ती बेटी को लेकर कभी कभी मेरे मन में भी बुरे ख्याल आने लगते थे । उसकी सुरक्षा को लेकर मैंने एक युक्ति निकाली।।      एक महीने तक घर में जो भी आगंतुक आए, उनको मैं अपने बागीचे में लेकर जाता और अपनी बेटी को उनकी  फूलों के प्रति व्यवहार को  देखने को कहता।
कुछ आगंतुक फूलों को निहारते,तो कोई दूर से देखता ,कोई देखकर उनकी तारीफ करता ,तो किसी ने फूल तोड़ा और मसलकर खुशबू सूंघी  जबकि किसी ने फूल को टहनी से तोड़कर अपने हाथ में ले लिया, तो किसी आगंतुक ने फूल की तारीफ कर यह कहा यह फूल यूं ही खिलते रहे और आपके उपवन को सुंदर बनाए रखें और तो और उन जनाब ने  मुझसे भी यह  कहा  कि आप भी इन फूलों को छूने की कोशिश ना करें ताकि फूल जब खिले तो पूरा घर उसकी खुशबू से महक उठे। इस तरीके से मेरी बेटी  पूरे महीने लगभग सारे नजदीकियों , रिश्तेदारों के फूलो के प्रति व्यवहार को देखती और परखती रही।एक महीने बाद मैंने बेटी से पूछा कि  इस एक महीने में तुम्हें किसका  कौन सा व्यवहार  सबसे ज्यादा फूलों  के प्रति  उत्तम लगा । बेटी ने दूर से फूलों को निहारने वालों की तारीफ की और उसके व्यवहार को ही उत्तम बताया।
फिर मैंने उसे समझाया  प्यारी बेटी तुम्हें अपने आप को इसी तरीके से फूल  समझना है और  उनके व्यवहार को देखते हुए तुम्हे उनसे नजदीकियां या दूरी बनाकर रखनी है।

प्रवीण राही
मुरादाबाद