बुधवार, 29 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी --------जंगल..पहाड़..टीट की देवी


  ..."पैर मन मन के भारी हो रहे हैं"! ...
."अब नहीं चला जाता!! ".. ..." दाज्यू! अब तो चाय होनी चाहिए!!" 10 साल के कन्नू ने कहा... तभी जगदीश ने थैले में से चाय बनाने के लिए स्टोव ,माचिस और सामान निकाला ...
      जंगल में अंधेरा घिर आया था ... घने..
बीहड़  में.. अद्भुत दृश्य था बड़ा रहस्यमय
पक्षी और जानवर अपने- अपने ठिकानों पर चले गए थे थोड़ी देर पहले बहुत कोलाहल था परंतु अब तो उस निर्जन वन में 4 प्राणी थे जो सुबह 10:00 बजे टीट की देवी पर प्रसाद चढ़ाने के लिए घर से निकले थे 20 किलोमीटर की कठिन पैदल यात्रा !... पहाड़ पर कोई सड़क नहीं ... सिर्फ पगडंडी ऊपर से दुर्गम चढ़ाई......रास्ते में तरह-तरह की बाधाएं.... यद्यपि रास्ते में काफल ;हिसालु'; किल्मोड़ा के फलों से पेड़ लदे हुए थे और हम सभी उन फलों का रसास्वादन करते हुए चल रहे थे यात्रा बहुत सुंदर लग रही थी एक जगह बैठकर आम के अचार के साथ घर से लाए हुए पराठे खाए... झरने का शीतल जल पिया और आगे बढ़ गए फिर आया "जोंक वाला जंगल" जहां जमीन पर ,पेड़ों पर, पत्तियों पर,....सभी जगह जोंको से  भरी पड़ी थी शरीर पर चिपकी और खून चूसना शुरू जूतों के मौजों में घुस जाती और पता भी नहीं चलता साथ में नमक लेकर चल रहे थे दिलीप पंत के पैरों में जब जोर की चुभन महसूस हुई तो उसने जूता  ऊतारा देखा एक बहुत बड़ी जोंक  फूल कर मोटी हो गई थी- खून चूसते हुए ! बड़ी मुश्किल से उससे पीछा छुड़ाया नमक लगाकर मुझे भी कई जगह पर जोंक हमारे सभी के शरीर पर कई जगह खून चूस चुकी थीं.... मार्ग में आगे
    उसके बाद सीधी चढ़ाई की पगडंडी आई जरा सा पैर फिसला और हजारों फिट नीचे गहरी खाई में समा जाएंगे... परंतु फिर भी पहाड़ के सभी दृश्य बहुत खूबसूरत थे कभी-कभी साइड से दूर जंगल में हिरन और लकड़बग्घे  दिखाई दे जाते थे बहुत रोमांचक था....... "लो बन गई चाय!!!" जगदीश की आवाज पर मेरी तंद्रा भंग हुई...
.........सड़क के किनारे चाय की चुस्की लेते हुए जगदीश ने दिलीप पंत से कहा इतने बीहड़ बन में भी  "माई "अपनी भेड़ों के साथ अकेली ... "उस झोपड़ी में रहती है "!! "डर तो उसे बिल्कुल लगता ही नहीं" ! "वहां शेर भी आता है" ...."सब देवी की माया है" "शेर तो दुर्गा जी का वाहन है".... तभी अचानक पेड़ों के पीछे जोर की आहट हुई !!  फिर कन्नू के चीखने की आवाज आई....."दद्दा !जल्दीआओ" !! .... जल्दीआओ !!...आग!!!!!
.... हम तीनों डर गए तभी अंधेरे में तेज प्रकाश दिखाई दिया ....जलने की गंध भी बहुत तेज आ रही थी....!!!  हमने देखा कि वहां आग लगी है ...
     "आग कैसे लगी ?? ... स्टोव जलाने के बाद कन्नू माचिस ले गया था... बीड़ी की लत !!
"कन्नू ने बताया "मैंने जलती हुई तिल्ली पत्तों पर फेंक कर देखी थी "सोचा था  बुझा  दूंगा परंतु आग बड़ी तेजी से बढ़ती चली गई "दद्दा मुझे माफ कर दो अब ऐसा नहीं होगा".... जगदीश ने दो-चार झापड़ जड़ दिए..
      आग ने विकराल रूप धारण कर चुकी थी हम चारों ने मिलकर बुझाने का प्रयत्न किया मगर नहीं बुझा सके .....
      इन चीड़ के पेड़ों की छाल में तेल भी होता है इसलिए तेजी से आग बढ़ती चली गई!!
.... हम लोगों को ..."काटो तो ...
खून नहीं !."..ऐसी हालत हो गई वो तो अच्छा था कि रात के 7:00 बजे थे गहरा अंधेरा छा चुका था दूर-दूर तक निर्जन जंगल देवदार और चीड़ के बड़े-बड़े पेड़ छत्तर फैलाएं सीधे खड़े थे जड़ों में ढेरों पत्ते बिखरे हुए थे जिन पर शैतान कन्नू के बच्चे ने अपना यह दुर्लभ प्रयोग कर डाला ...एक तिल्ली माचिस की रगड़ी और फेंक दी ......... हम तीनों ने मिलकर बुझाने का बहुत प्रयास किया पानी भी नहीं था मिट्टी से ही कोशिश की ...परंतु आग काबू में नहीं आई ...अंत में हम ने निश्चय किया कि जल्दी जाएं..... टीट की देवी पर प्रसाद चढ़ाएं ... और सुबह अंधियारे में ही वापस घर लौट जाएं.... क्योंकि आग बढ़ती ही जा रही थी ..डर लग रहा था... पूरे जंगल को ही अपने आगोश में ना ले ले...
 ..... हम लोग पूरी तरह से थके हुए थे 15 किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे... अभी 5 किलोमीटर की यात्रा और करनी थी... जल्दी-जल्दी दौड़ जैसी चाल में तेज चलने लगे ...अब जान बचाने की पड़ी थी एक तो आग का डर .. दूसरे जंगली जानवरों का.... तीसरे बुरी तरह थक चुके थे... हिम्मत जुटाकर ऐसे चलने लगे जैसे पैरों में स्प्रिंग लग गए हों ****
         सामने जो पर्वत की चोटी दिखाई दे रही थी वहीं पर टीट की देवी का मंदिर था और मंदिर भी क्या था पहाड़ की चोटी पर एक नुकीले पत्थर की नोक  पर रखी हुई एक विशालकाय पत्थर की चट्टान ......उसी के नीचे कुछ मूर्तियां रखीं थीं । उसी स्थान का नाम टीट की देवी था... आस्था का केंद्र!
        ... जल्दी जाकर हमने झरने के पानी में लोटे से जल्दी-जल्दी स्नान किया
इतनी ऊंची चोटी पर पानी की धार!... सब कुछ अद्भुत और अकल्पनीय था .... उस पर इतना ठंडा पानी !.. ... बाप रे  !  कंपकंपी छूट रही थी.. जैसे तैसे हम उसी समय मंदिर चले गए...  माता की स्तुति की ...आरती करके प्रसाद चढ़ा कर नीचे जहां माई रहती थी एक कमरा और था जिसे धर्मशाला का नाम दिया गया था उसी में  हम आ गए  ।
     कल क्या होगा?? वन विभाग के लोग आएंगे? मैं ,दिलीप पंत ,जगदीश पांडे और कन्नू 4 लोग थे जो इस अरण्य अग्निकांड के लिए जिम्मेदार थे ... हम लोग जब दर्शन करने के लिए घर से चले थे तो कन्नू की मां ने कहा "यह तो आपका सामान उठा कर ले जाएगा ...कृपया इसको भी साथ ले जाओ बहुत दिनों से कह रहा है देवी माता के दर्शन करने के लिए"! वैसे भी लोग कहते हैं तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा ...इस करके हमने कन्नू को साथ ले लिया था !
        टीट की देवी के पहाड़ की चोटी से नैनीताल की लाइटें साफ दिखाई देती थी नींद नहीं आ रही थी ....
     ...जंगल की आग बहुत दिन तक चलती रहती है अगर एक बार लग जाए तो  बहुत सारी वन संपदा का विनाश कर देती है कितने ही जानवरों के, परिंदों के घर नष्ट हो जाते हैं ....
....... भोर के4:00 बजे होंगे हम जल्दी उठे फिर उसी बर्फीले पानी में किसी तरह स्नान किया फिर माता के दर्शन किए और तुरंत चल दिए ..... अंधेरे में हम निकल जाएंगे तो कोई जान भी नहीं पाएगा कि कौन आया था ..तभी रास्ते में वन विभाग के कुछ ऑफिसर और सिपाही वनरक्षक आते हुए हमें मिले और हमसे  पूछताछ करने लगे .... जंगल में आग कैसे लगी?? ...." आपको कुछ पता है कि कौन आया ?? कौन दुश्मन आया यहां पर ??  ...हमने साफ   झूठ बोल दिया" हमें कुछ पता नहीं!! हम तो  यहां देवी के स्थान पर 2 दिन से आए हुए थे ""!
      ....खैर वह संतुष्ट ना होते हुए भी आगे चले गए और हम उस रास्ते की पगडंडी पर तेजी से घर की ओर बढ़ चले दिल धक-धक कर रहा था उनसे बचने के बाद जान में जान आई...... परंतु ये क्या ???  ठीक जहां पर ...जंगल में आग लगी हुई थी उसी जगह पर ...एक बड़ा सा चीता बीच रास्ते में  बैठा हुआ था .... हम वहीं ठिठक कर खड़े हो गए हाथ जोड़ कर टीट की देवी माता को सच्चे मन से याद किया हे! मां दया करो तभी चमत्कार हुआ ! चीता रास्ते से चला गया !... घनघोर घटाएं... घिर आईं ... बारिश का मौसम होने लगा  हम लगभग दौड़ने से लगे ... और थोड़ी ही देर में मूसलाधार बारिश होने लगी .... हम रोमांचित और भावविभोर हो रहे थे हे ! मां !! तूने हमारी  सुन ली ...अब आग बुझ जाएगी !... जंगल बच जाएगा !! जीव जंतु बच जाएंगे !!! हम चारों को भीग रहे थे और जोर जोर से गा रहे थे ......
  "अम्बे ! तू है जगदंबे काली !! जय दुर्गे खप्पर वाली तेरे ही गुण गाएं ......!!!!!
     ‌    ‌ ..... आज भी जब याद आती है तो  रोंगटे खड़े हो जाते हैं ...ऐसी आग भी कभी नहीं देखी ..... और चमत्कार भी....

  अशोक विद्रोही
  82 12825 541
  412 प्रकाश नगर मुरादाबाद

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