रविवार, 28 मार्च 2021

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार चंद्रकला भागीरथी का गीत ----कान्हा संग होली खेलें राधा रानी


कान्हा संग होली।

खेलें राधा रानी।।

अबीर गुलाल कान्हा लगाये।

राधा इत उत दौडी जाये।

राधा को रंग भर मारे।

कनक पिचकारी।।

कान्हा संग होली ।

खेलें राधा रानी।।


गोपी संग ग्वाला धूम मचाये।

सब एक दूजे को रंग लगाये।

रंग भर भर मारे पिचकारी।।

कान्हा संग होली ।

खेलें राधा रानी।।


वृन्दावन में रास रचाये।

गोकुल में सब सुध बिसराये।

यशोदा मैया ढुढन जारी।

कान्हा संग होली

खेलें राधा रानी।

चन्द्र कला भागीरथी, धामपुर, जिला बिजनौर

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा की रचना ---- दही बड़े और गुंजिया खाकर होली में हम धूम मचाएं



सूरज उजला उजला घूमे दिन भी अब फूला न समाय 

धूप हवा में इतराती है मादक गंध जो फैली जाय ।

सर्दी की ठिठुरन की सी -सी हडियन को न और सताए

सूर्य देव की अनुकम्पा से धरती उपवन सी सरसाय ।

आया ऋतुराज बसन्त सुनो अवनि का आंचल लहराए 

होली खेलें अब मस्ती से ऋतु बसन्त सु मन हरषाए ।

दही बड़े और गुंजिया खाकर होली में हम धूम मचाएं

मुक्त रहें अब सभी नशे से होली की गरिमा न जाए ।

✍️ मनोरमा शर्मा , अमरोहा ।

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) की साहित्यकार रेखा रानी की रचना ----बरसाने की ओ री गुजरिया , हमको रंग लगिइयो आय


 बरसाने की ओ री गुजरिया , 

हमको रंग लगिइयो आय।

ओ कान्हा सुनो बात हमारी , 

धौंस काहू की सहती नाय।

जो चाहो  हमरे रंग रंगना,

 मोरे पिता से कहियो आय।

इत उत काहे तकते डोलो,

हाथ मांग लियो सीधे आय।

फ़िर भीजैगो तन - मन मेरौ,

 श्यामल रंग राधा रंग जाय।

रेखा लेकर प्रेमी पिचकारी,

अमर प्रीत की रीत निभाय।

✍️ रेखा रानी, गजरौला ,अमरोहा 

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार चंद्रकला भागीरथी की कविता ---रंगों के नशे में झूमते नर नार


 होली का है पर्व निराला।

सबके मन को हरने वाला।।


मीठे व्यंजनों की भरमार।

सभी के घरों मे आती बहार।।


कई रंगों की होती होली।

लाल, गुलाबी, नीली, पीली।।


कहीं फूलों से खिलती होली।

कहीं गुलाल पानी की धार।।


एक दूसरे के गले मिलकर।

सभी होते है मस्ती में चूर।।


एक दूसरे को देते बधाई।

प्यार करते है भर पूर।।


और मथुरा की महिलायें।

होली खेलती डंडे मार।।


गाने गाते ढोल नगाड़े बजाते।

रंगों के नशे में झूमते नर नार।।


पाप पर पुण्य की होती जीत।

भागीरथी कहती अपने गीत।।


होली का है पर्व निराला।

सबके मन को हरने वाला। 

✍️चन्द्र कला भागीरथी, धामपुर, जिला बिजनौर उतर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यन्त बाबा की रचना ----हमें वो नजरों से ही रंग गई .....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के दोहे --- मोबाइल पर ही सखे मलना अभी गुलाल ....


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कविता ------रंग -बिरंगे रंगों संग , होली लाई एक नई उमंग .....

रंग -बिरंगे रंगों संग ,

होली लाई एक नई उमंग ,

हर तरफ हुड़दंग मचा है भारी ,

इसलिए तो होली होती है न्यारी ,

      राग - द्वेष सब भूल जाते ,

      होली पर जब रंग लगाते ,

      हवा में एक खुमारी छाई ,

      चारों ओर मस्ती है छाई ,

गुंजिया ,कचरी की खुशबू से ,

चहु दिशाएँ महकी हैं ,

बिन इनके देखो प्यारे ,

होली की दावत भी अधूरी है ,

✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार,  मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा का गीत -------ये जीवन होली सा हो जाए ,बस हँसी , खुशी और ठिठोली हो


 

    उड़ने लगे जब सतरंगी रंग

              मन भी पहने प्रीत का रंग

    खुशियों की बाजे मृदंग

         

        "समझो जग की होली है" 

    

     सांझे हो जब सुख सबके

              और पीड़ा सबकी सांझी हो 

    "मैं"-"तुम" जब  "हम"  बन जाएंँ 

              हर इक जब हमजोली हो 

          

       "समझो जग की होली है" 

     

     जीवन के रंग बदरंग ना हों 

             मन में द्वेष की भंग ना हो

    कपट कलेश का संग ना हो 

            बस प्रेम की मिश्री घोली हो" 

         

         "समझो जग की होली है" 

    

    "मैं" हँसूंँ तो सारे मुस्कुराएँ

            "सब" हँसें तो मैं भी इतराऊँ

    जब सबने एक दूसरे में 

           इक-दूजे की सारी खुशियों में 

    अपनी ही जन्नत पा ली हो 

          

       "समझो जग की होली है" 

   

    कुछ भूलो भी , कुछ माफ़ करो 

            ये जीवन है , आगे तो बढ़ो 

    कोई पल इसका बरबाद ना हो 

            हर क्षण को बस रंगों से भरो 

     ग़र  इंद्रधनुष बन जाओ सब 

          

        "समझो जग की होली है" 

    

    "इस बार अबीर ना बरसाओ" 

          "ना गुलाल की मुझको चाहत है" 

   "इस बार दिलों में रंग घुले" 

         "और हर दिल पर कुछ ऐसा चढ़े" 

   "ये जीवन होली सा हो जाए" 

        "बस हँसी , खुशी और ठिठोली हो" 

       

       "तो समझो जग की होली है 

        तो समझो जग की होली है"

  ✍️ सीमा वर्मा, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ सुधा सिरोही की कविता ---- रंग बिरंगी आई होली


 

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु की ग़ज़ल -----आइए होली है मिलिए रंज दिल के भूल कर .....


जिंदगी की कशमकश में अब उलझ कर रह गए,
रंग क्या त्योहार क्या ये सब उलझ कर रह गए,,

फूल कलियां पेड़ पौधों पर बहारें खूब हैं,
पर यहां इंसान के करतब उलझ कर रह गए,,

आइए होली है मिलिए रंज दिल के भूल कर,
क्या अभी तक दूर ही साहब उलझ कर रह गए,,


जिंदगी की कशमकश में जब उलझ कर रह गए,
आप जो आसान थे वो सब उलझ कर रह गए,,

ज़ोम में जिस वक्त थे उस वक्त कुछ मसला न था,
अब हमें तौफ़ीक है.. पर अब उलझ कर रह गए,

जान कर ये बात.. किन हालात में वो शख्स था,
जो गिले-शिकवे थे जेरे लब उलझ कर रह गए,,

बस सियासत में पंगी फिरका परस्ती है यहां,
अब कहां इंसानियत मजहब उलझ कर रह गए,,

बस दरारें आ गई दोनों दिलों के दरमियां,
मुस्कुराने के सभी मतलब उलझ कर रह गए,,

जान ही ले ली हमारी आपके अंदाज ने,
 क्या कहें क्या ना कहें ये लब उलझ कर रह गए,,

और फिर कुछ भी न हल निकला मिरी तदबीर का,
हाथ में जितने थे सब करतब उलझ कर रह गए,,

सीखने भेजूं कहां बच्चे को मैं इंसानियत,
हाल ये  इस बात पर मकतब उलझ कर रह गए,
 
✍️ मनोज ' मनु  ' मुरादाबाद                       


 

शनिवार, 27 मार्च 2021

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) से डॉ अनिल शर्मा अनिल द्वारा संपादित अनियतकालीन ई-पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का होली विशेषांक 53 ( 25-03-2021)-----

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मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट का व्यंग्य -------नया रोजगार समाज सेवा


         "विश्व में दूसरे नम्बर की जनसंख्या का पोषण करने वाली भारतभूमि अनेक पोषक तत्वों से भरपूर है,अन्नपूर्णा है और प्रत्येक उद्यमी युवा कुटुम्बी के लिए इसके पास रोजगार के अवसर ही अवसर हैं।"

            श्रीमान चौबे जी अपना ज्ञान बखार रहे थे।वे ज्ञान का असीम भण्डार रखते हैं।समय तो उनका अपना लंगोटिया यार है,हर समय उनके पास रहता है।समय की नौकरी नामक सौत से उनका गौना अब तक नहीं हुआ है।इसीलिए शहर के हर आयोजन में वह समय के साथ होते हैं और हर आयोजन उनका यह कर्ज उन्हें नये-नये बकरों की भेंट के साथ चुकाता है।इन बकरों की बलि वे अपने नये समाज सेवा रूपी अनुष्ठान में चढ़ाते हैं।

            मुँह में हर वक्त चाशनी सी घुली रखने वाले,गली मोहल्लों की हर छोटी समस्या से लेकर वैश्विक राजनीति तक की बड़ी खबरों के विशेषज्ञ श्री चौबे जी,बेरोजगारी को समस्या नहीं मानते हैं, बेरोजगार को मानते हैं।उनकी दृष्टि में बेरोजगार का मतलब वह अकर्मण्य व्यक्ति है,जो अवसर भुनाने का सलीका नहीं जानता,जिसे समाज सेवा नहीं आती।उनके मत में आज के समय में समाज सेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं,पर उनके पड़ोसी गुप्ता जी को यह बात निपट विरोधाभासी लगती है।

            गुप्ता जी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक, नौकरीपेशा व्यक्ति हैं।बहुत ही नेक और सज्जन हैं।नौकरी और घर के कामों को निभाते हुए रोज शाम का थोड़ा समय चुरा कर चौबे जी के शरणागत होते हैं और देश की समस्याओं पर विलाप करते हैं। हालांकि उनका स्वयं का जीवन खुशहाल है।पर रोने की आदत का कोई क्या करे?अब सब चौबे जी तो होते नहीं कि बेरोजगारी के बावजूद हर हाल खुशहाल।

            एक दिन गुप्ता जी ने करूण स्वर में पूछा,"चौबे जी,आप ये बताइये जो व्यक्ति बेरोजगार हो,जिसके अपने रहने खाने का कोई जुगाड़ न हो,कोई जमा-पूंजी न हो।वह क्या समाज सेवा करेगा? मुझे आपकी यह अवसर ही अवसर वाली बात बिल्कुल समझ नहीं आती।"

            "भाई गुप्ता, तुम्हें....मैं समझ में आता हूँ?" चौबे जी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ गुप्ता जी की ओर देखा।गुप्ता जी ने हथियार डाल देने वाली दयनीय मुद्रा में हाथ जोड़कर कहा,"नहीं,प्रभु।" 

            "तो तुम्हारे बस का नहीं है इस गूढ़ तत्व को समझना।"चौबे जी ने गम्भीरता का भाव ओढ़ते हुए कहा फिर तुरन्त गला खराश कर आगे कहना जारी रखा," फिर भी तुम्हें वह गहन ज्ञान सांकेतिक बताने का प्रयास करता हूँ,जिसे भगवान कृष्ण भी गीता में वाचन से रह गये या यह कह सकते हैं उनकी इसी अनुकम्पा से मुझे इस कलियुग में यह ज्ञान बाँटने का अवसर मिला है।"

            गुप्ता जी गद्गद् होकर अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हुए और करबद्ध विनीत होकर चौबे जी की तरफ भक्तिसिक्त दृष्टि से देखने लगे।चौबे जी ने कृष्णवत् तर्जनी हवा में उठायी और समझाया,"सुनो गुप्ता!कलियुग में समाजसेवा से बड़ा कोई रोजगार नहीं।यह वह रोजगार है जिसमें केवल तुम्हारी वक्तृत्व कला ही तुम्हारी योग्यता है।तुम नि:संकोच याचना करने का गुण रखते हो तो यह तुम्हारी अतिरिक्त योग्यता है।बेरोजगार होना तुम्हारी पूँजी है,क्योंकि इस रोजगार के लिए जिस चीज की परम आवश्यकता है वह है समय और बेरोजगार के पास ही तो समय की उपलब्धता होती है।"

            "लेकिन निरा समय लगाने से क्या होगा,गुरूवर?",

          गुप्ता जी अभी भी अज्ञान रूपी अंधकार में घिरे हैं।लेकिन चौबे जी निर्विकार भाव से ज्ञान गंगा को अपने मुख कमण्डल से मुक्त करते हैं,"बेरोजगार केवल अपना समय लगाता है और रोजगार में लगे लोगों से प्रशस्ति पत्र और विशिष्ट अतिथि बनाये जाने के नाम पर धन उगाही करता है।"

"लेकिन कोई समझदार धनिक, बेरोजगार को अपना धन आखिर क्यों कर देगा?"गुप्ता जी अभी भी संशय के बादलों से घिरे हैं।पर चौबे जी तर्क की तलवार से इन बादलों को छाँटते हुए आगे बढ़ते हैं,"क्योंकि उन लोगों के पास समय नहीं है,पर समाजसेवा का मन है या यह कहिए विशिष्ट अतिथि बनने का और समाजसेवा का प्रशस्ति पत्र पाने का लालच तो है।इसी लालच के वशीभूत वे सहर्ष वह धनराशि समाजसेवा के बेरोजगार आयोजक को भेंट कर देते हैं,जिसका वह आग्रह करता है।" गुप्ता जी के चेहरे पर असहायता का भाव है,चौबे जी संकटमोचक बन इशारों से उन्हें समस्या रखने को कहते हैं।गुप्ता जी प्रश्न सरकाते हैं,"पर गुरुवर,यह धनराशि तो समाजसेवा में लग जायेगी फिर बेरोजगार को क्या फायदा होगा?" चौबे जी मुस्कुराते हुए गूढ़ रहस्य समझाते हैं,"गुप्ता जी,यह सहृदय बेरोजगार आयोजक आंँकड़ों के खेल में भी पारंगत होना चाहिए जिससे वह समाजसेवा की लागत,आयोजन का खर्च और अपनी अतिरिक्त कमाई सब आसानी से कुशलतापूर्वक मैनेज कर ले।इस तरह समाज सेवा रूपी रोजगार जहाँ बेरोजगार का पालन पोषण करता है वहीं अन्य रोजगार में लगे लोगों को भी कुछ मुद्राओं के खर्चे पर समाचार पत्रों के पृष्ठ पर महान समाजसेवी के रूप में छपने का आनन्द प्रदान करता है।इसीलिए तो मेरा गुरू मंत्र है, 'समाजसेवा मतलब चोखा धन्धा' "

            गुप्ता जी की आँखे अब खुल चुकी थी,उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया था और असीम संतोष की झलक उनके मुखमण्डल पर चमक रही थी।इस परमज्ञान के लिए गुरुदक्षिणा ही समझकर उन्होंने चौबे जी के आगामी निःशुल्क कम्बल वितरण के कार्यक्रम में सहभागिता शुल्क के रूप में 260 रूपये प्रति की दर वाले कम्बल हेतु 500 रूपये का एक करारा नया नोट अग्रेषित किया।चौबे जी ने बड़ी विनम्रता से राशि ग्रहण की और गुप्ता जी की पीठ थपथपाई।फिर उठकर कमरे की मेज पर रखे फ्लेक्स और प्रशस्ति पत्र में मोटे अक्षरों में कई सहयोगियों की सूची में श्री गुप्ता जी का भी नाम दिखाते हुए अर्थपूर्ण मुस्कान लुटायी।भावविभोर होकर यश सुख की कल्पना करते हुए अब गुप्ता जी अपने घर की ओर बढ़ चले थे।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का व्यंग्य ----अथ माला महात्म्य


आजकल प्रत्येक कार्यक्रम में माला की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कार्यक्रम का शुभारंभ भी सरस्वती जी को माला पहनाए बगैर नहीं होता। मंच पर बैठने वालों के गले में भी जब तक माला सुशोभित न हो तब तक कार्यक्रम की शुरुआत नहीं होती। यहाँ माला पहनने वाला ही नहीं माला पहनाने वाला भी खुद को कुछ विशेष समझने लगता है या यों कह लीजिए कि संतोष कर लेता है कि चलो पहनने वालों में नही तो पहनाने वालों में ही सही, नाम तो आया।  माला पहनाकर वह फोटू अवश्य खिंचवाता है ताकि सनद रहे।
जिन्हें माला पहनने पहनाने का सौभाग्य नहीं मिलता वह ऐसे ही नाराज नाराज से बैठे रहते हैं जैसे शादी वाले घर में फूफा रहता है। उनकी पैनी दृष्टि कार्यक्रम के संचालन व अन्य व्यवस्थाओं का छिद्रान्वेषण करने में लगी रहती है और संयोग से कुछ कमी रह गई तो उनकी आत्मा को परम संतोष की अनुभूति होती है। आखिर कार्यक्रम की निंदा का कुछ मसाला तो मिला।
कभी कभी माला पहनने वाले इतने अधिक हो जाते हैं कि कार्यक्रम के संचालक भी सभी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते, और असमंजस रहता है कि कहीं रामलाल की माला श्याम लाल के गले न पड़ जाये, असमंजस माला पहनाने वाले के चयन को लेकर भी रहता है कि कहीं माला पहनाने वाले और पहनने वाले में छत्तीस का आंकड़ा न हो, और यज्ञ की अग्नि में घी की आहुति पड़ जाए।
एक कार्यक्रम में ऐसी ही परिस्थिति से निपटने का संचालक महोदय ने बड़ा नायाब तरीका निकाला। उन्होंने  कहा माला पहनने वालों को ढूँढने में देर हो रही है इसलिये सबके नाम की मालाएं अध्क्षक्ष महोदय को पहना दी जायें और सभी माला पहनने वाले समझ लें कि उन्हें माला पहना दी गई।  भला ये भी कोई व्यवस्था हुई, हमारे नाम का माल्यार्पण भी हो गया, लेकिन जो दिखा ही नहीं वह कैसा माल्यार्पण।
आजकल एक परंपरा और चल पड़ी है। मंच पर काव्यपाठ करने वाले कवि जी की वाह वाह करने के साथ साथ बार बार आकर माला पहनाने वालों की होड़ लगी रहती है।  अब इतनी सारी मालाएं तो कोई मँगवाता नहीं है, अत: कविगणों की पहनी हुई मालाएं, जो परंपरानुसार कविगण गले से उतारकर सामने रख देते हैं, वही उठाकर काव्यपाठ करनेवाले कवि को पहना दी जाती है, वह भी बेचारा उस उतरी हुई माला को मजबूरी में पहन लेता है, और फिर उतारकर माइक पर लटका देता है, लेकिन माला भी इतनी ढीठ होती है कि थोड़ी देर बाद फिर गले पड़ जाती है। ऐसी मालाओं का कोई चरित्र नहीं होता। ये प्रत्येक माइक पर आनेवाले के गले पड़ जाती हैं।
इनके पास अपनी मूल गंध भी नहीं रहती हैं। विभिन्न गलों में पड़ते उतरते इनमें विभिन्न प्रकार के हेयर आयल, परफ्यूम, पान मसालों की गंध आने लगती है और जैसे जैसे कवि सम्मेलन आगे बढ़ता है, इनमें दारू से लेकर मुख से टपकी लार की भी गंध आने लगती है, कभी कभी माइक के स्टैंड पर लगा मोबिल आयल भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।
मुझे स्वयं ऐसी मालाओं से कई बार जूझना पड़ा है, जो जबरन गले पड़ती हैं। भला इनका भी कोई चरित्र है। लेकिन भाईसाहब ये सार्वजनिक रूप से गले पड़ती हैं, इनके साथ पहनाने वाले की आन बान और शान जुड़ी होती है, इसलिये इन्हें मजबूरी में पहनना भी पड़ता है। इन्हीं से कवि का स्टैंडर्ड भी पता चलता है। जितनी अधिक मालाएं गले में पड़ती हैं, उतना ही बड़ा कवि माना जाता है। कवि को भी यह भ्रांति रहती है कि संभवत: मालाओं की संख्या के अनुसार लिफाफे का आकार भी बढ़ जाये।
माला से जुड़ा हुआ ही एक और रोचक प्रसंग याद आ गया।
एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के संयोजन में एक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था।
उक्त कवि सम्मेलन के दौरान जब कविगण काव्यपाठ कर रहे थे तब एक सज्जन जो शायद आयोजन की व्यवस्था की निगरानी से जुड़े थे, माला लेकर धीरे धीरे सकुचाते मुस्कुराते हुए आते, और काव्य पाठ करते हुए कवि को माला पहनाकर चले जाते थे। 
इसी क्रम में जब एक कवियित्री काव्यपाठ कर रही थीं, तब भी वह माला लेकर मुस्कुराते हुए मंथर गति से आये और जब तक कवियित्री हाथ बढ़ाकर माला लेतीं, उन्होंनें माला उनके गले में डाल दी। कवियित्री जी भी थोड़ी असहज हुईं। इस अप्रत्याशित स्थिति को मंच से अध्यक्ष महोदय ने ये कहकर सम्हाला कि इन्हें शायद पता नहीं है कि महिलाओं को माला पहनायी नहीं जाती है बल्कि हाथ में सौंप दी जाती है।  आनंद तो तब आया जब उस के बाद स्वयं अध्यक्ष महोदय काव्यपाठ के लिये आये, जब वह काव्यपाठ कर रहे थे, तब वह फिर धीरे धीरे मुस्कुराते हुए आये और अध्यक्ष महोदय को माला पहनाने की बजाय उनके  हाथ में थमाकर चले गये।
यह देखकर दर्शकों में हँसी का फव्वारा छूट गया। वस्तुत: इतना हास्य तो हास्य कवियों की प्रस्तुति पर भी नहीं उपजा, जितना इस प्रकरण से उपजा।
वास्तव में माला आज के युग में प्रत्येक आयोजन की मूलभूत आवश्यकता बन गई है। इसलिये भूलकर भी माला की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रही बात हमारी तो हमें तो आज तक एक ही माला अच्छी लगी, जो शादी के समय हमारी श्रीमती जी ने पहनायी थी और जो आज तक उन्होंने संदूक में संभालकर रखी हुई है।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
MMIG - 69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास की कृति "हमारा घर" । उनकी यह कृति वर्ष 1978 में व्यास बन्धु प्रकाशन कटघर पचपेड़ा से प्रकाशित हुई थी । इसमें उनके सोलह गीत संगृहीत हैं । इसका मुद्रण प्रभायन प्रिंटर्स मुरादाबाद से हुआ था ।


 
 

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास के पांच मुक्तक ।ये प्रकाशित हुए थे मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के वर्ष 8, अंक 12 ,रविवार 15 फरवरी 1970 में .....


 

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बुधवार, 24 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास की कृति 'भाव तेरे शब्द मेरे' । यह कृति सन 1959 में व्यास बन्धु प्रकाशन, पचपेड़ा कटघर , मुरादाबाद से प्रकाशित हुई थी। इस की भूमिका प्रख्यात साहित्यकार डॉ हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखी है। इस गीत संग्रह में उनके 21 गीत संगृहीत हैं । इसका मुद्रण प्रतिभा प्रेस मुरादाबाद ने किया था ------



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सोमवार, 22 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की आज 22 मार्च को पुण्यतिथि है । प्रस्तुत है उनका एक गीत ---अनजाने ज्ञान को सुरक्षित रखने में ही, पुरखों का आंगन बिक जाये, तो क्षमा करना !! यह गीत हमें उपलब्ध कराया है उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने ....


जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने से पहले ही,

यदि स्वांसों का ऋण चुक जाये, तो क्षमा करना !!

आधा ही गायन रुक जाये, तो क्षमा करना !!!!


जीवन भर ये खारे आंसू ही बेचे हैं

सपन मोल लेने को,

कनक कन गला बेचे, मिट्टी के, पत्थर के 

रतन मोल लेने को !!


नये पथ बनाने में सुनो, वंशधर मेरे,

कुटिया का तृण-तृण बिक जाये, तो क्षमा करना !!


जब-जब भी पीड़ा से प्राण कसमसाते हैं

गान जन्म लेता है,

जब अपने पथ के ही, पत्थर ठुकराते हैं

ज्ञान जन्म लेता है !!


अनजाने ज्ञान को सुरक्षित रखने में ही,

पुरखों का आंगन बिक जाये, तो क्षमा करना !!


जो कुछ भी गा गये, यहां अनेक चातकगण

मेरा ही क्रंदन था,

यों तो मैं चंदा का चंदन भी छू लेता,

धरती का बंधन का  !!


मेरे जीवन भर के कर्ज़ को चुकाने में,

विधवा का कंगन बिक जाये, तो क्षमा करना !!!!

✍️  सुरेंद्र मोहन मिश्र.

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की रचनाएं ---. ये प्रकाशित हुई थीं मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित प्रदेश पत्रिका के वर्ष 4,अंक 7, रविवार 17 अक्तूबर 1965 में....-



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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ शिवनाथ अरोरा का गीत ---. यह गीत प्रकाशित हुआ था मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित प्रदेश पत्रिका के वर्ष 4,अंक 7, रविवार 17 अक्तूबर 1965 में....-



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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुमन कुमार जैतली का गीत ---जीवन कलिके ..... यह गीत प्रकाशित हुआ था मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित प्रदेश पत्रिका के वर्ष 3,अंक 20,रविवार 25 अप्रैल 1965 में....-



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रविवार, 21 मार्च 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । इस आयोजन में समूह में शामिल साहित्यकार अपनी हस्तलिपि में चित्र सहित अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं । रविवार 21 मार्च 2021 को आयोजित 245 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों रामकिशोर वर्मा, रेखा रानी,डॉ शोभना कौशिक, दीपा पांडेय, राजीव प्रखर, श्री कृष्ण शुक्ल, डॉ पुनीत कुमार, अशोक विद्रोही, अखिलेश वर्मा, वैशाली रस्तोगी,चंद्रकला भागीरथी और सन्तोष कुमार शुक्ल की रचनाएं......














 

शनिवार, 20 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास का गीत । यह गीत प्रकाशित हुआ था मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका' के वर्ष 1, अंक 14 ,रविवार 27 जनवरी 1963 में .....



 ::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से 20 मार्च 2021 को होली के उपलक्ष्य में ऑन लाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों डॉ अजय अनुपम, डॉ मक्खन मुरादाबादी, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ पूनम बंसल, श्रीकृष्ण शुक्ल, ओंकार सिंह विवेक, डॉ मनोज रस्तोगी, योगेन्द्र वर्मा व्योम, राजीव प्रखर, जिया जमीर, हेमा तिवारी भट्ट, मोनिका शर्मा मासूम, मीनाक्षी ठाकुर, डॉ रीता सिंह, दुष्यन्त बाबा और निवेदिता सक्सेना द्वारा प्रस्तुत की गईं रचनाएं ......


मन में थी उठती रही,

रह रह कर जो हूक।
हुरियारे मन सोचते,
अबकी रहे न चूक।।

मन में उठती हूक की
पिय तक गई तरंग।
मुखड़े से पहले खिला
नयनों-नयनों रंग।।

सूखे मौसम को मिली
सरस रंग सौगात।
बूढ़ी बूढ़ी कनखियां
बातों की बरसात।।

रंगों से ठंडी करें,
मद्धम मद्धम आग।
जो सबको निर्मल करे,
आओ खेलें फाग।।

✍️ डॉ. अजय 'अनुपम', मुरादाबाद
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होली मन से खेल ली
खिलकर आया खेल।
ऊपर हैं सकुचाहटें,
भीतर चलती रेल।।1।।

तन-मन होली खेलते,
निकले इतनी दूर।
वापस मन लौटा नहीं,
कोशिश की भरपूर।।2।।

खेल-खेल सब लौटते,
अपने-अपने द्वार।
सोचें तो, है दीखता,
हुआ प्रेम विस्तार।।3।।

मठरी,बर्फी,सेब की,
रही न तब औकात।
गुझिया जब करने लगी,
मथे दही से बात।।4।।

होली रस्ता प्रेम का,
रखता नहीं विभेद।
इसपर चल होता नहीं,
कभी किसी को खेद।।5।।

होली है त्योहार भी,
जीने का भी मंत्र।
बचे नहीं यदि प्रेम तो,
भटका सारा तंत्र।।6।।

मन से सबने रंग लिए,
हुए उमंगित गात।
तुम भीतर भुनते रहे,
दिन से बोली रात।।7।।

रंगों से तर हो लिए,
लगे पुलकने गात।
कौन कुलांचे मारता,
करने को दो बात।।8।।

हाथों के सौभाग्य ने,
मसले रंग-गुलाल।
अधर फड़कते रह गए,
लगी न उनकी ताल।।9।।

रंग चढ़ों के सामने,
फीके सब पकवान।
रिश्तों की सब गालियां,
होली का मिष्ठान।।10।।

होली की ये मस्तियां,
अद्भुत इनके सीन।
मीठी-मीठी भाभियां,
दीख रहीं नमकीन।।11।।

भाभी के हों भाव या,
फिर देवर के राग।
होली रंग पवित्र हैं,
नहीं छोड़ते दाग।।12।।

सब कुछ जग में प्रेम है,
होली का संदेश।
छोड़ो इसमें देखना,
जाति,धर्म, परिवेश।।13।।

होली पर यूं बोलता,
पानी पीकर रेत।
पकने को गेहूं चले,
हुए सुनहरे खेत।।14।।

होली ने मन कर दिया,
फुलवारी से बाग।
जमकर भीगे तर हुए,
बुझी न मन की आग।।15।।

ब्याहे गये अनेक थे,
क्वारे भी कुछ रंग।
सबमें उठे तरंग थी,
बिना पिये ही भंग।।16।।

प्रदूषण भी आये ले,
औने-पौने रंग।
बैठी मिली पवित्रता,
मचा नहीं हुड़दंग।।17।।

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी, मुरादाबाद
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कान्हा बरसाने मति अइयो,
ऐसी     लठामार   होरी  में,
ऐसी    लठामार   होरी   में,
जा   ब्रज   की  बरजोरी में।
        ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तेरे    संग     खेलिबे    होरी,
बरसाने    के    छोरा - छोरी,
लै-लै लट्ठ खड़ी सजधज के,
बन हुरियारिन ब्रजकी  गोरी,
मेरौ कह्यौ मानि मतिबनियो,
कलाकार        होरी       में।

रंगै  न कोरी चटक चुनरिया,
कंगन झूमर लहंगा  फरिया,
हाथ  न  आवै   हुरियारे  के,
काहू  की  चोली   घांघरिया,
रह-रह   लट्ठ  चलावें   गोरी,
लगातार        होरी        में।

टूटै  ढाल फूटि जाए हड़िया,
परै  लट्ठ ग्वारिन कौ बढ़िया,
भाजें  छोड़ि  छोड़ि हुरियारे,
रंग   भरी  मटुकी  गागरिया ,
पीपी भंग  भूलि जाएं सगरौ,
सदाचार       होरी          में।

तेरे  बिना  रंग  नाहि   भावै,
पर कान्हा तू इत मति आवै,
लै-लै लट्ठ कहें सब  ग्वारिन,
घेर लेउ  जब  कान्हा  आवै,
मेरौ    मन  घवरावै  कान्हा,
बार - बार      होरी       में।

तेरे   बिना   कौन   है   मेरौ,
फीकौ - फीकौ  लगै  सवेरौ,
कोटिक रंग  निछावर  तोपै,
मैं  राधा  तू   कान्हा    मेरौ,
कहूँ न  घायल  होय हमारौ,
महा      प्यार   होरी     में।
कान्हा  बरसाने मति,,,,,,,,
✍️ वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद,उ,प्रदेश
  मोबाइल फोन 09719275453
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रंग उड़ाती स्वप्न सजाती लो फिर आई है होली।
छिटक रही चहुँ ओर चाँदनी पूनम जाई है होली।।

फागुन का त्यौहार प्रेम का मन में है विश्वास लिए।
रूठों को हम आज मनाएं एक मिलन की आस लिए।
यादों में भी खूब भिगोती ये हरजाई है होली।।

गोरी की गालों पर लगकर रंग बड़े इतराते हैं।
नीला पीला हरा हुआ है मिल जुल कर बतियाते हैं।।
दिल से दिल की बात कराती अवसर लाई है होली।।

भीग रही है चूनर चोली बुरा न मानो होली है।
देवर भाभी जीजा साली सबने करी ठिठोली है।
रिश्तों की इस बरजोरी से लो शरमाई है होली।।

फूल खिले हैं टेसू के ये सरसों पीली फूल रही।
गन्ने पर गेहूं की बाली इठलाती सी झूल रही।
नफ़रत की जब जले होलिका तब मुस्काई है होली।। 

✍️ डॉ पूनम बंसल , मुरादाबाद ,मोबाइल 9412143525

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घनाक्षरी:

बरसाने की ये होली, करें जी कैसे  ठिठोली, सभी दिखें एक से ही, करें बरजोरी है।
केश कटी नारियां हैं, नर मूंछ मुंडे हुए,
कैसे जानें लट्ठ लिये, खड़ी कहाँ गोरी है।
जींस टाप धारे हुए, लिपे पुते मुख लिये, ये भी तो पता न चले, छोरा है या छोरी है।
कृष्ण ढूँढते ही रहे,  गोपियों ने रंग दिये, मल मल गाल कहें, होरी है जी होरी है।।
हैप्पी होली

गीतिका: बरसाने की होली

बरसाने में गए देखने, होली का हुड़दंग।
जम कर झूमे नाचे, गाये हुरियारों के संग।।

मादकता सी आज भर रहा, होली का ये रंग।
पाँव स्वतः ही लगे थिरकने, मानो पी हो भंग।।

रहे बजाते खूब साथ में, ढोलक और मृदंग।
कृष्ण बने बच्चों में बच्चे, किया खूब हुड़दंग।

छोरा समझ लगाया हमने, कस के जिसको रंग।
जींस टॉप में रही पड़ोसन, हुआ रंग में भंग।।

हुरियारिन के बीच दिखी जब बीबी थामे लट्ठ।
झटपट भगे छोड़कर चप्पल उतर गई सब भंग।।

जोगीया सा रा रा रा रा।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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दीवाली   के   दीप  हों  , या   होली   के   रंग,
इनका आकर्षण तभी ,जब हों प्रियतम संग।

रस्म  निभाने  को  गले , मिलते  थे  जो  यार,
अपनेपन  से  वे  मिले ,  होली  अबकी  बार।

होली  का  त्योहार  है , हो  कुछ  तो  हुड़दंग,
हमसे   यह   कहने   लगे ,  नीले - पीले  रंग।

महँगाई  ने  जेब  को ,जब  से  किया उदास,
गुझिया की जाती रही,तब से सखे  मिठास।

✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
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होली  के   पावन  पर्व पर,
आओ मिल सब गीत गाएं।
भेदभाव  छुआछूत भूलकर,
एक  सूत्र में सब बंध जाएं ।
प्रेम भाव से  सब होली खेलें,
रंग  अबीर गुलाल बरसाएं ।
आपस के सब झगड़े भूल,
आज गले से सब लग जाएं।
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नंबर 9456687822
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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मनके सारे त्याग कर, कष्ट और अवसाद ।
पिचकारी करने लगी, रंगो से संवाद ।।

रिश्तो की शालीनता, के टूटे तटबंध ।
फागुन ने जब जब लिखा, मस्ती भरा निबंध ।।

गुझिया से कचरी लड़े, होगी किसकी जीत ।
एक कह रही है ग़ज़ल, एक लिख रही गीत ।।

सुबह सुगंधित हो गई, खुशबू डूबी शाम ।
अमराई ने लिख दिया, खत फागुन के नाम ।।

तन मन में उल्लास के, फूटे अंकुर देख ।
सबने पढ़े गुलाल के, गंध पगे आलेख ।।

हर चेहरे से हो गई, सभी उदासी दूर ।
मन के भीतर जब बजा, फागुन का संतूर ।।

मस्ती और उमंग वो, आई जब जब याद ।
रंग सारे करने लगे, होली का अनुवाद ।।

फिर से भरने के लिए, रिश्तो में एहसास ।
रंगो की अठखेलियां, जगा रही विश्वास ।।

✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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मुक्तक
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स्नेह-प्रेम-सद्भाव के, सीख सुहाने ढंग।
सच्चे मन से फिर लगा, वही पुराने रंग।
दूर हटा त्योहार से, सभी बैर-विद्वेष,
मर्यादित रहकर मचा, होली का हुड़दंग।।
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दोहे
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आहत बरसों से पड़ा, रंगों में अनुराग।
आओ टेसू लौट कर, बुला रहा है फाग।।

गुमसुम पड़े गुलाल से, कहने लगा अबीर।
चल गालों पर खींच दें, प्यार भरी तस्वीर।।

ऐसी भटकी राह से, रंगों की बौछार।
लुकता-छिपता फिर रहा, अब है शिष्टाचार।।

फागुन लेकर आ गया, फिर अपना मृदुगान।
बैर-भाव अब बाँध ले, तू अपना सामान।।

बदल गई संवेदना, बदल गए सब ढंग।
पहले जैसे अब कहाँ, होली के हुड़दंग।।

गुझिया-पारे-पापड़ी, बड़े-समोसे-भात।
सबने जाकर पेट में, मचा दिया उत्पात।।

अपने फ़न में आज भी, प्यारे इतनी धार।
चुपके-चुपके जेब से, कर दें गुझिया पार।।

मरते-मरते भी रहे, मुख पर तेरा नाम।
ऐसी होली खेल जा, मुझसे ओ घन-श्याम।।

✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
मो. 8941912642
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क्या मोहब्बत का नशा रूह पे छाया हुआ है
अब के होली पे हमें उसने बुलाया हुआ है

वह जो खामोश सी बैठी है नई साड़ी में
उसने पल्लू में बहुत रंग छुपाया हुआ है

अपनी छज्जे से पलट रंग का पानी उस पर
तेरा दीवाना है, दहलीज़ पे आया हुआ है

अगली होली पे तुझे रंग लगाएंगे ज़रूर
पिछली होली से यही ख़्वाब दिखाया हुआ है

अब के होली पे लगा रंग उतरता ही नहीं
किस ने इस बार हमें रंग लगाया हुआ है

यह करिश्मा भी तो होली ने दिखाया है हमें
वो जो रुठा था गले मिलने को आया हुआ है

✍️ ज़िया ज़मीर, मुरादाबाद
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सभी आओ,चलो गाएँ,सुअवसर आज होली है।
छबीली है,रसीली है,असरकर आज होली है।

कहीं भीगी,कहीं सूखी,सजे रंगीन होकर के।
किशोरी हों कि वृद्धा हों, हुईं तर आज होली है।

"अरे जीजा,बुझे लट्टू",सलज ने जाके छेड़ा है।
चिढ़े जीजा,रंगें साली,रगड़कर आज होली है।

खड़े देवर रचे तिगड़म,लगाना रंग भाभी पर,
मगर भाभी,सयानी है,'नहीं घर' आज होली है।

बड़े दिन बाद आयें हैं,पिया जिसके विलायत से,
बहक चलती,मटक हंसती,संवरकर आज होली है

रहे क्यों कैद कमरों में,खिले सब रंग हैं बाहर।
चलो देखो,मशीनों से निकलकर आज होली है

न कोई हो,अलग मुझ से,अलग मैं क्यों दिखाई दूँ।
खिले सब रंग रंगोली,निखरकर आज होली है।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद
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फाल्गुन पर ऐसा चढ़ा, रंग सियासी यार
सत्ता को लेकर हुई, फूलों में तकरार

लगाने रंग दुनिया को , है निकला चांद पूनम का
नहाकर दूध से निखरा ये उजला चांद पूनम का
किये शिंगार सोलह चांदनी ने दिल लुभाने को
कि  बैरी चांदनी के दिल से खेला चांद पूनम का

✍️ मोनिका मासूम, मुरादाबाद
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आँखों में गुलाबी डोर,गाल लाल -लाल भए,
होलिया में गोरी देखो,भंग पिलाय रही।

दीखै नाहिं मोहे कछु,जबसे है आयी होली।
भर पिचकारी मोहे,रंग वो लगाय रही ,

नैनन में डूब तेरे ,भीग गये अंग-अंग
फिर काहे डार रंग,तन को भिगोय रही।

होली का खुमार छाया,लाल पीला रंग भाया
देख-देख मुखड़े को ,गोरी शर्माय रही।

खड़ा रह दूर -दूर, पास नहीं आना मेरे
दूँगी तुझे गारी आज ,यही बतलाय रही।

बरसाने की मैं नार,अजब ही चाल मेरी
रंगने से पहले ही, लट्ठ भी बजाय रही।

बरसाय भर -भर ,कोई पिचकारी रंग
भीग गयी चूनर तो ,काहे भन्नाय रही।

फाग में मचल जाये ,मन का मयूर देखो
होलिया में गोरिया ,जिया  भरमाय रही।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद ,
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होली आयी होली आयी
गुझिया पापड़ कचरी लायी
आलू चिप्स व मूँग बरी की
देखो घर - घर में है छायी ।
होली आयी......

गरम- कचौड़ी और पकौड़ी
सबने बहुत चाव से खायी
दही बड़े में चटनी मीठी
मुन्नी - मुन्ना को भी भायी ।
होली आयी.....

हरा - गुलाबी नीला - पीला
भर पिचकारी खूब चलायी
पास - पड़ोसी जो रूठे थे
हुई सभी की मेल मिलायी ।
होली आयी.....

✍️ डॉ. रीता सिंह, मुरादाबाद
-------------------------------------


इस होली साजन आ जाते,
दिल के मैल मिटा लेती मैं।।
उनको अपने रंग रंग लेती ,
या उनके रंग में रंग जाती मैं।।

कैसे विरह की रतिया कटती,
पिया बिना न सुहागिन लगती।
अरे! सखी मांग में सिंदूर लगाते,
उम्र भरको उनकी हो जाती मैं।।

उनके नाम का सुमरिन करती,
मीरा सी गलियों में मारी फिरती।।
अरे! सखी विष प्याला दे जाते,
अमृत समझ उसे पी जाती मैं।।

मैं नलिनी हिम पात की मारी,
विरह अग्नि जल हो गई कारी।
अरे! सखी सिर आंचल दे जाते,
फिर कली बन खिल जाती मैं।।

हीरे-मोती मैं कभी नही माँगी,
कभी न महल-दुमहला चाही।
अरे! सखी कुछ मांग तो करते
जान न्योछावर कर जाती मैं।।
✍️ दुष्यंत 'बाबा'
पुलिस लाइन, मुरादाबाद
------------------------------------- 




✍️निवेदिता सक्सेना, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ ज्ञान प्रकाश सोती की रचना । वह 'ठुंठ' उपनाम से कविताएं लिखा करते थे । प्रस्तुत रचना मुरादाबाद से राजनारायण मेहरोत्रा के सम्पादन में प्रकाशित 'प्रदेश पत्रिका'के प्रवेशांक रविवार 19 अगस्त 1962 में प्रकाशित हुई थी ।



 :::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) से डॉ अनिल शर्मा अनिल द्वारा संपादित अनियतकालीन ई-पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का महाशिवरात्रि अंक 50 ( 11-03-2021)-----

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सोमवार, 15 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार रश्मि प्रभाकर का गीत -----एक दूजे के भाव को समझें ,प्यार और तकरार हो ....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा की गीतिका ---वर्ष नूतन नवल खिल रहा है कमल-


 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता ----


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की गीतिका ------





 

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के मुक्तक


 

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) की साहित्यकार रेखा रानी का गीत


 

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की रचनाएं -----


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार के मुक्तक -----


 

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यन्त बाबा की कुण्डलिया ---- इस होली की आ गई देखो फुलरा दोज


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कविता ----हां, मैं बदल रही हूं ......