गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता..... डिजिटल काव्यपाठ


कोरोना काल में

हमारे ठाठ ही ठाठ थे

किसी न किसी

आभासी पटल पर

आएदिन हो रहे

काव्य पाठ थे

याद नही उनको

कितने लोग सुनते थे

लेकिन हर 

काव्य पाठ के बाद

हमको डिजिटल

सर्टिफिकेट मिलते थे

हम उनको

अपने पैसों से प्रिंट करा

महंगे से महंगे

फ्रेम में जड़वाते थे

फिर उनको

अपने घर में सजाते थे

लेकिन

अधिक नही चल पाया

आत्म प्रशंसा का जुनून

इसने कर डाला

हमारी सारी बचत का खून

इतना ही नहीं

इसने हमारे हर कमरे को

हर दीवार को,हर कौने को

भर दिया

और हमको

हमारे ही घर से

बेघर कर दिया


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

आदर्श कॉलोनी रोड

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी की लघु कहानी......मुल्ला उमर का वहम


मुल्ला उमर बहुत  ही वहमी किस्म का इंसान था। वैसे तो वह खूब हट्टा-कट्टा इकहरे बदन का गोरा चिट्टा इंसान होते हुए भी बीमारी का वहम पाले रहता। उसकी खुराक भी ऐसी कि नौजवानों को भी पीछे छोड़ दे। फिर भी उसके दिमाग में यही फितूर रहता कि हो न हो मेरा शरीर पूरी तरह  स्वस्थ नहीं है। बस इसी उधेड़ बुन में घरवालों से नई से नई चीजें बनवाकर खाता रहता। घर वालों के समझाने पर भी वह कुछ समझने को तैयार न होता। ज्यादा कुछ कहने पर घरवालों को ही उल्टा सीधा कहने लगता।

    एक दिन वह एक पहुंचे हुए दरवेश हनीफ मियां के पास पहुँचा। आदाब अर्ज़ के पश्चात उसने मियां जी से कहा कि हे दरवेश, मुझे हर वक्त ऐसा क्यों लगता रहता है कि मेरे भीतर कोई बड़ी बीमारी पल रही है। मैं जिससे भी पूछता हूँ वह यही कहकर 

टाल देता है कि तुम बिल्कुल ठीक हो। कहीं से भी बीमार नहीं लगते। यह तो केवल तुम्हारे मन का वहम है वहम, और वहम का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं।,,,,

    क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं दरवेश जी। दरवेश जी मुस्कुराकर बोले। बेटा,, यदि तुम इस वहम से छुटकारा ही पाना चाहते हो तो, जैसा मैं कहूँ  वैसा करो। तुम्हारी शंका का समाधान तुम्हें अवश्य ही मिल जाएगा।

    उमर ने कहा मोहतरम आपका हुक्म सर आंखों पर।

आप जो कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा। दरवेश ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा। बेटा, तुम अभी जाकर दुनियाँ के माने-जाने किसी अस्पताल में उसके मुख्य द्वार से प्रवेश करके वहाँ के सभी वार्डों में ज़ेरे इलाज मरीजों को ध्यान से देखते हुए अस्पताल के पिछले दरवाज़े से बाहर निकल जाना। तुम्हें तुम्हारी बीमारी का तुरंत समाधान मिल जाएगा।

    उमर ने वैसा ही किया और  एक जाने-माने अस्पताल के मुख्य द्वार से प्रवेश करके उसके भिन्न-भिन्न वार्डों से गुजरते हुए आगे बढ़ने लगा।

   सबसे पहले हड्डी वार्ड का नज़ारा देखकर उसका दिल ही बैठने लगा। उसने देखा कोई रो रहा है, कोई बेहोश पड़ा है। किसी की टांगें शिकंजे में कसी हुई हैं, तो किसी की टांगों को वजन लटकाकर ऊपर उठा रखा है।किसी का पूरा शरीर ही पट्टियों से बंधा हुआ है।

       थोड़ा और आगे बढ़ा तो उसने देखा डॉक्टर लोग एक मरीज के सीने को ज़ोर-ज़ोर से दबाकर उसे साँस दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। उसने दिल पक्का करके एक डॉक्टर से पूछा आप ऐसा क्यों कर रहे हैं। तो डॉक्टर ने बताया भैया, इसका दिल कोई हरकत नहीं कर रहा है। दिल को चालू करने के लिए ऐसा करना पड़ता है। चल गया तो ठीक वर्ना,,,,,,,कह नहीं सकते। मुँह व नाक में कई नालियां देखकर उसने आगे बढ़ना ही ठीक समझा।

     इस तरह वह कभी आंखों,कभी दांतों, कभी टी.बी. वार्ड तो कभी चीर फाड़ कर रहे डॉक्टरों के शल्य चिकित्सा कक्ष में दूर से ही झांकते हुए अल्लाह- अल्लाह करता हुआ आगे बढ़ गया। रास्ते में हर एक डॉक्टर के पास मरीजों की लंबी-लंबी लाइनें देखकर जल्दी से बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगा। पूछते-पाछते वह अस्पताल के बाहर आकर सोचने लगा कि पीर साहब ने ठीक ही कहा था। अब मुझे  पूरा यकीन हो गया है कि मुझे कोई बीमारी नहीं है ।

   मुल्ला उमर ने दरवेश जी के साथ-साथ सभी घरवालों को आदाब करते हुए अपने ऊपर परवरदिगार के रहमोकरम की सराहना करते हुए सभी से कहा कि बेवजह वहम करना बहुत बड़ी नासमझी है भाई।

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर  9719275453

                    

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की कहानी .....अधूरा डाक्टर

   


 रोजी मैडम प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद अपनी नई कोठी में आराम से जीवन ब्यतीत कर रहीं थीं। समय काटने के लिए उन्होंने बी०एस०सी०/एम०एस०सी० के छात्र- छात्राओं को 'फिजिक्स' विषय की कोचिंग पढ़ाना शुरु कर दिया था। उनके पास अनेक छात्र और छात्राएं पढ़ने आतीं थीं । उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी।

           उन्हें वैसे तो सभी छात्र-छात्राओं से बहुत लगाव था परन्तु सचिन को वह बहुत अधिक पसंद करतीं थीं। सचिन की मेहनत-लगन और व्यवहार से वह बहुत प्रभावित थीं। दिनों-दिन सचिन के प्रति उनका लगाव बडता गया। सचिन ने प्रथम श्रेणी में बी०एस०सी० पास किया था। उसे एम०एस०सी० में यूनिवर्सिटी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था। अब तो उन्होंने ठान लिया था कि सचिन के नाम के आगे 'डाक्टर' लगवाना है।

           रोजी मैडम अपनी कोठी में अकेली रहतीं थीं। वह अभी तक अविवाहित थीं। यद्यपि उनके पास घर के काम के लिए नौकर-चाकर थे। फिर भी वह प्राय: अपने निजी कार्य सचिन से ही करातीं थी। धीरे-धीरे वह सचिन के साथ उसकी मोटर साईकिल पर पीछे बैठ कर अपने बैंक के कार्य व बाजार के कार्य के लिए भी जाने लगीं। उन्हें सचिन के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता। लोगों को उनका साथ घूमना अखरने लगा था। सब अपनी-अपनी तरह से बातें बनाने लगे थे। बातें होने लगीं और दूर तक फैलती गई। अचानक एक दिन बिना पूर्व सूचना के रोजी मैडम के बडे भाई व भाभी उनके घर पर आ धमके। काफी दिनों तक उनके मध्य वाद-विवाद चला। उन्होंने सचिन के रोजी मैडम के घर आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने  सचिन को आरोपित करते हुए पुलिस से लिखित में शिकायत भी कर डाली। सचिन बहुत डर चुका था।आखिर विवादों से बचने के लिए  भारी मन से सचिन हमेशा के लिए शहर छोड़ कर चला गया।

              इस बात को काफी वर्ष बीत चुके थे। सचिन ने अकेले ही अपने आप को सम्हाला। अपना संघर्ष जारी रखा।अब उसने अपना छोटा सा परिवार बसा लिया था जिसमें उसकी 'लेक्चरर' पत्नी व एक 15 वर्षीय बेटी जहान्वी थी। सचिन सरकारी विभाग में 'साइंटिस्ट' के पद पर बडा अधिकारी बन चुका था।उसने रोजी मैडम के सपने को साकार करने के लिए नौकरी के साथ-साथ अपनी 'डाक्टरेट' भी पूरी कर ली थी। एक दिन वह अपने परिवार के साथ घूमने जा रहा था। रास्ते में उसे अपना पुराना शहर दिखा तो उससे रहा न गया। उसे अपनी 'रोजी मैडम' के साथ बिताये एक-एक पल याद आने लगे।वह उन्हें कभी नहीं भूला था और न ही कभी भूल पायेगा। सचिन ने अपनी गाडी़ शहर के अंदर रोजी मैडम की कोठी की तरफ मोड़ ली। सचिन आश्चर्य से बोल उठा -"अरे यह क्या, यहां तो सब कुछ बदल चुका है, कोठी की जगह आलीशान तीन मंजिला भवन ! " वह भोंचक सा भवन को एकटक देखता रहा। अगले ही पल वह सब कुछ समझ चुका था। भवन में बडे-बडे अक्षरों में लिखा था-              

"सचिन एण्ड रोजी इंस्टीट्यूट आफ साईन्सेज" 

    सचिन ने स्टेयरिंग पर माथा टिकाया और आंसुओं की झडी़ लगा दी। सचिन की पत्नी और बेटी जहान्वी कभी एक-दूसरे को देखते कभी सचिन को।                        

✍️ धनसिंह 'धनेन्द्र'

चन्द्र नगर, 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा ...जख्म


घर के बाहर ढोल नगाड़े बज रहे थे ।सभी घर परिवार के सदस्य और नाते रिश्तेदार थिरक थिरक कर नाच रहे थे ।पूरा घर नए रंग बिरंगे गुब्बारों से सजाया गया था ।

गाड़ी से बाहर पैर रखने से पहले ही सासू मां ने फूल बिछा दिए मुक्ता के।

वह आश्चर्य चकित हो सबको देख रही थी ।निहाल ,उसके पति भी तो कैसे उसको सहारा देने में लगे हुए थे ।

"परिस्थितियों का गुलाम होता है इंसान भी ।"मुक्ता ने मन ही मन सोचा।

"न ईमान न धर्म और न ही गैरत ।"

उसकी दोनों फूल सी आठ और दस साल की बेटियां भी नाच रहीं थीं ।अचानक सभी की लाडली हो गईं वो ।

"अब इनके उपर का ढक्कन आ गया तो , ये भी प्यारी लगने लगेगी ।"दादी सास ने दांत निपोरते हुए कहा तो सभी हां में हां मिलाने लगे ।ऐसा नहीं था कि वो सब अशिक्षित थे लेकिन सिर्फ कहने भर के कागजी शिक्षित थे शायद ।

मुक्ता की गोद से झट से सासू मां ने पोते को ले लिया और उसकी बलैया लेने लगीं। 

"ये सभी वही लोग हैं जो मेरी दोनों बेटियों के होने पर मेरे पास तक नहीं फटके थे ।"सोचकर मुक्ता का मन घृणा से भर आया उसके जख्म फिर से हरे हो गए ।

दरवाजे पर पहुंचने से पहले ही उसने अपनी दोनों बेटियों को गले से लगा लिया और सुबकने लगी ।

वह यादों के आगोश में चली गई ।

जब दोनों बेटियों के जन्म के बाद वह घर आई थी तब घर में मानो सन्नाटा सा पसर जाता था ।

दूधमुही बेटियों को कोई छूता तक नहीं था । सभी घर में मुक्ता की तरफ मुंह बनाकर बात करते ।निहाल तो बहुत दिनों तक कमरे तक में नहीं आए और आज ......

"अरे बहु चलो तुम्हारी आरती होगी ।"सासू मां चिल्लाई ।

मुक्ता ने दोनों बेटियों को आगे कर कहा ।

"इनकी कर दोगी तो मेरी ही हो जायेगी ।"

सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।निरुत्तर ।

✍️ राशि सिंह

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल )निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का आलेख..... संसार की सबसे प्राचीन मातृ-उपासना'। उनका यह आलेख दिल्ली से प्रकाशित प्रसिद्ध मासिक पत्रिका 'कादम्बिनी' के अगस्त 1983 के अंक में प्रकाशित हुआ था।






 ✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ....संवेदनशीलता


सुबह के आठ बजे थे।कबूतरों ने आना शुरू कर दिया था।लेकिन आज छत पर दाना पानी नहीं था।कबूतरों ने उत्सुकतावश इधर उधर देखा।

नीचे आंगन में ,कपड़े में लिपटा हुआ,किसी का मृत शरीर रखा था।कबूतरों ने उसे फौरन पहचान लिया।अरे !यह तो वही इंसान है,जो उनको रोज दाना खिलाता था। उनमें आपस में कुछ खुसर पुसर हुई और धीरे धीरे छत पर कबूतरों की भारी भीड़ इकट्ठा हो गई।सब शांत बैठे थे और उनकी आंखों में आसूं स्पष्ट देखे जा सकते थे।

आंगन में भी दो चार लोग आ चुके थे, लेकिन शोर शराबा बढ़ता जा रहा था।

✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

आदर्श कॉलोनी रोड

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य...... बुरे फँसे टिकट माँगकर


 जब हमने साठ-सत्तर कविताएं लेख आदि लिख लिए तो हमारे मन में यह विचार आया कि एमएलए के चुनाव में खड़ा होना चाहिए। पत्नी से जिक्र किया। सुनते ही बोलीं" कौन सा भूत सवार हो गया ?"

     हमने कहा "भूत सवार नहीं हुआ है। वास्तव में चुनाव उन लोगों को लड़ना चाहिए जो देश और समाज के बारे में चिंतन करते हैं और देश समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।"

       पत्नी ने कहा "देश और समाज की चिंता तो केवल नेता लोग करते हैं। तुम तो केवल कवि और लेखक हो।"

       हमने कहा" कवि और लेखक ही तो वास्तव में देश के सच्चे नेता होते हैं ।"

      इसके बाद पत्नी बोलीं" जो तुम्हारे दिल में आए, तुम करो। लेकिन चुनाव लेख और कविताओं से नहीं लड़े जाते । इसके लिए नोटों की गड्डियों की आवश्यकता होती है।"

      हमने कहा "यह पुराने जमाने की बातें हैं। अब तो विचारधारा के आधार पर समाज में जागृति आती है। वोट बिना डरे वोटर देता है और जो उसे पसंद आता है उसे वोट दे देता है। इसमें पैसा बीच में कहां से आता है?"

     पत्नी बोलीं" ठीक है, जो तुम समझो करो । लेकिन मेरे पास एक पैसा भी चुनाव में उड़ाने के लिए नहीं है। तुम भी ऐसा मत करना कि घर की सारी जमा पूँजी उड़ा दो, और बाद में फिर पछताना पड़े ।"

    हमने कहा "ऐसा कुछ नहीं होगा । हमारे पास अतिरिक्त रूप से छब्बीस हजार रुपए हैं। इतने में चुनाव सादगी के आधार पर बड़ी आसानी से लड़ा जा सकता है।"

        लिहाजा हमने एक प्रार्थना पत्र तैयार किया और उसमें अपनी 60-65 कविताओं और लेखों की सूची बनाकर संलग्न की तथा पार्टी दफ्तर में जाने का विचार बनाया । टाइप करने- कराने में सत्तर रुपए खर्च हो गए फिर उसकी फोटो कॉपी बनाई उसमें भी बीस रुपए खर्च में आए । पार्टी दफ्तर के जाने के लिए ई रिक्शा से बात की ।

               "कहाँ जाना है ?"

     हमने कहा " पुराने खंडहर के पास जाना है ।"

       सुनकर रिक्शा वाले ने हमारे चेहरे को दो बार देखा और कहा "वहाँ न रिक्शा जाती है , न ई रिक्शा । वहां तो कार से जाना पड़ेगा आपको।"  

   हमें भी महसूस हुआ कि हम जो सस्ते में काम चलाना चाहते थे , वह नहीं हो सकता। खैर, एक हजार रुपए की आने -जाने की टैक्सी करी और हम पार्टी- दफ्तर में पहुंच गए  ।वहाँ पहुंचकर कार्यालय में नेता जी से मुलाकात हुई। बोले" क्या काम है ?"

   हमने कहा" चुनाव लड़ना है ! टिकट चाहते हैं।"

          नेताजी मुस्कुराने लगे। बोले" चुनाव का टिकट कोई सिनेमा का टिकट नहीं होता कि गए और खिड़की पर से तुरंत ले लिया। इसके लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है ।और फिर आपके पास तो जमा पूंजी ही क्या है ?"

   हमने कहा" यह हमारा प्रार्थना पत्र देखिए। हम ईमानदार आदमी हैं । चुनाव जीत कर दिखाएंगे । छब्बीस हजार रुपए हमारे पास कल तक थे ।आज पच्चीस हजार रुपये रह गए हैं।"

      पच्चीस हजार रुपए की बात सुनकर नेताजी का मुँह कड़वा हो गया लेकिन फिर भी बोले "आप प्रार्थना पत्र दे जाइए। जैसे और प्रार्थना पत्रों पर विचार होता है, वैसे ही आपके प्रार्थना पत्र पर भी विचार हो जाएगा।"

    हम समझ गए, यह टालने वाली बात है। हमने कहा "इंटरव्यू कब होगा ? "

     बोले" इंटरव्यू नहीं होता। जब आवश्यकता होगी, आपको बुला लिया जाएगा ।"

      नेता जी से मिलकर बाहर आकर हम थोड़ी देर घूमते रहे । फिर हमें दो छुटभैये मिले। उन्होंने इशारों से हमें एक कोने में बुलाया और पूछा" टिकट की जुगाड़ में आए हो?"

   हमने कहा " हाँ...लेकिन जुगाड़ में नहीं आए हैं ।"

       "कोई बात नहीं। हम आपको टिकट दिलवा देंगे। 2 पेटी का खर्च है। टिकट हम आपके हाथ में रख देंगे"

      हमने कहा "हमारे पास तो कुल पच्चीस हजार रुपए बचे हैं। छब्बीस हजार रुपये थे। इसमें से  एक हजार रुपए आने - जाने में खर्च हो गए"

     उन दोनों ने हमारे चेहरे की तरफ देखा और कहा" आप भले आदमी लगते हो। हम आपका काम पच्चीस हजार रुपए में ही कर देंगे।"

                       हमने कहा" पच्चीस हजार रुपए  खर्च करके अगर टिकट मिलेगा तो फिर उसके बाद हम चुनाव कहाँ से लड़ेंगे? चुनाव लड़ने के लिए भी तो हमें कार में आना- जाना पड़ेगा ?"

       दोनों छुटभैयों ने माथे पर हाथ रखा और बोले "आप कितने रुपए खर्च करना चाहते हैं?"

    हमने कहा "हम आधा पैसा टिकट लेने पर खर्च कर सकते हैं ।"

      वह.बोले "बहुत कम है, कुछ और बढ़ाइए ?"

                इसी बीच नेताजी ने हमें बुला लिया । कहा"आज ही टिकट  की मीटिंग होगी। उसमें प्रति व्यक्ति के हिसाब से बारह जनों की  तीन सौ रुपये की स्पेशल थाली आएगी । तीन हजार छह सौ रुपये का पेमेंट कर दीजिए ।"

     हमने कहा "अगर हमारा आवेदन पत्र नहीं आता ,तो क्या आप लोग भूखे रहते?"

     नेताजी बोले "आपको तो अभी टिकट भी नहीं मिला और आप इतना रूखा व्यवहार कर रहे हैं ।"

      हमने बात बिगड़ती हुई देखी तो छत्तीस सौ रुपये नेताजी के हाथ में रख दिए। कहा "हमारा टिकट पक्का जरूर कर देना "

   वह बोले "आपका ध्यान क्यों नहीं रखेंगे? जब आप स्पेशल थाली के लिए खर्च करने में पीछे नहीं हट रहे हैं, तो हम भी आपको टिकट दिलवाने का पूरा- पूरा ख्याल रखेंगे।"

      नेताजी को छत्तीस सौ रुपये  सौंपकर हम बाहर आए तो वही दोनों छुटभैये खड़े हुए थे । हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । हमें एकांत में ले गए और बोले "नेताजी के स्तर से कुछ नहीं होगा । सारा जुगाड़ हम लोगों के माध्यम से ही होना है ।"

    हमने कहा "अब तो हमारे पास छब्बीस हजार रुपये की बजाय केवल इक्कीस हजार रुपये बचे हैं ।"

     वह बोले "कोई बात नहीं । आधे अपने पास रखो तथा आधे अर्थात साढ़े दस हजार रुपये की धनराशि आप हमें दे दो । हम आप का टिकट पक्का करने की गारंटी लेते हैं।"

        हम खुश हो गए और हमने अपनी जेब से साढ़े दस हजार रुपये निकालकर दोनों छुटभैयों के हाथ में पकड़ा दिए । दोनों छुटभैये बोले" ठीक है ,अब आप परसों आ जाना। आपको हम टिकट की खुशखबरी सुना देंगे ।"

     बचे हुए साढ़े दस हजार रुपये लेकर हम अपने घर वापस आ गए। उसके बाद फिर पार्टी कार्यालय में जाकर नेताजी से  अथवा दोनों छुटभैयों से मुलाकात करने की हिम्मत नहीं हुई । कारण यह था कि छुटभैयों से तो पता नहीं मुलाकात हो या न हो, लेकिन नेताजी मिलने पर फिर यही कहेंगे " भाई साहब !  बारह  लोगों की स्पेशल थाली के तीन हजार छह सौ रुपये  जमा कर दीजिए ।आप के टिकट के लिए प्रयास जारी हैं।"

     जब एक-दो दिन हमने चुनाव न लड़ पाने का शोक मना लिया तब पत्नी ने समझाया "देखो ! तुम्हारे पास केवल छब्बीस हजार रुपये थे, जबकि चुनाव छब्बीस लाख रुपए से कम में नहीं लड़ा जाता ।  छब्बीस हजार रुपये जेब में लेकर भला कोई चुनाव लड़ने के लिए निकलता है ? यह तो वही कहावत हो गई कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने । साठ-सत्तर साल तक जोड़ना और जब छब्बीस लाख रुपये फूँकने के लिए इकट्ठे हो जाएं तब चुनाव लड़ने की सोचना।"

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश , भारत

मोबाइल 999 761 5451

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-मोरल सपोर्ट

             श्यामा ड्यूटी से थकी हारी घर लौटी थी।उसका सिर बहुत जोरों से दर्द कर रहा था।हाथ मुंह धोकर और कपड़े बदलकर आज वह सीधे अपने कमरे में जाकर लेट गयी।तभी उसकी बुजुर्ग सास ने कमरे में आकर पूछा, "क्यों बेटा आज खाना नहीं खायेगी?" "नहीं, मम्मी जी!आज भूख तो नहीं लग रही,पर सिर में बहुत दर्द हो रहा है।सोच रही हूँ थोड़ा आराम कर लूं तो शायद ठीक हो जाये।" "ठीक है बेटा,तू आराम कर ले।" यह कहकर वह बाहर के कमरे में चली आयीं।

     श्यामा की आंख लगी ही थी कि उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी।उसने ध्यान दिया तो बाहर के कमरे से आवाज़ आ रही थी।उसकी 10 साल की बेटी रो रही थी और उसकी दादी उसे चुप करा रही थी।श्यामा झट से उठकर कमरे की ओर गयी तो सास की आवाज सुनकर ठिठक गयी,"चुप हो जा मेरे बच्चे।देख तेरी मम्मी अभी ड्यूटी से थकी घर लौटी है और थोड़ा आराम कर रही है।तू मुझे बता क्या बात हुई? दादी सुनेगी अपने बच्चे की बात।"

      दादी ने उसे अपनी गोद में बैठा लिया था और अब वह चुप होकर दादी के सीने से लगी अपनी किसी सहेली की शिकायत दादी से कर रही थी।श्यामा के सिर का दर्द मानो छू हो गया था।अचानक उसकी सहेली मीना की सालों पहले कही बातें उसके दिमाग में घूम गयी,"श्यामा,हर्षित से कह कर अपनी जेठानी की तरह तू भी अपना मकान अलग क्यों नहीं कर लेती।आखिर तेरी खुशियां,तेरी जिन्दगी,तेरी आजादी भी कुछ है या नहीं।अरे इन बूढ़े सास ससूर की सेवा करते करते ही तेरी जिन्दगी न बीत जाये तो कहना।मेरी एक बात गांठ बांध ले,कमान अपने हाथ में हो तभी जीवन के लुत्फ उठाये जा सकते हैं वरना... जी मम्मीजी...जी पापा जी... कहते हुए ही पूरी जिन्दगी कट जायेगी।हा हा हा....." किटी में शामिल सभी सहेलियों के ठहाकों के स्वर उसके कान में गूंजने लगे थे। अचानक उसका ध्यान टूटा और उसने कमरे में देखा कि अभिलाषा दादी के पिचके कपोलों पर अपने प्यार की मुहर लगा रही थी और कह रही थी,"आई लव यू दादी!आप कितनी अच्छी हो।सारी प्राब्लम ही साल्व हो गयी,अब मैं नताशा के चिढ़ाने पर रोऊंगी ही नहीं तो वह भी मुझे चिढ़ाएगी नहीं,है न।" 

      श्यामा दादी पोती के स्नेहिल आलिंगन को मंत्रमुग्ध हो देख रही थी कि तभी फिर किसी के सुबकने की आवाज उसके कानों में पड़ी।यह आवाज भूतकाल के एक वृतांत से थी जो सहसा श्यामा की आंखों के सामने से गुजर गया था।उसकी सहेली मीना घंटों जार जार रोने के बाद अब जोरों से सुबक रही थी।आखिर अपनी 12 साल की बेटी को फांसी के फन्दे पर लटका देखकर कौन मां इस तरह न रोयेगी? काश कोई एक बड़ा तो घर पर होता जो कामकाजी माता पिता के घर में न होने पर मोबाइल के जाल में फंसे इन मासूम बच्चों को मोरल सपोर्ट दे पाता,जो तिल भर की समस्या को ताड़ में न बदलने देता,जो प्यार की बाड़ से ऐसी तमाम घटनाओं को रोके रखता।लोगों की तरह तरह की ये सारी बातें अब मिश्रित होकर ज़ोर ज़ोर की भिन्नभिन्नाहट का रूप ले चुकी थी।

      श्यामा एक झटके से वर्तमान में लौटी।कमरे में दादी पोती अब भी मीठा मीठा कुछ बतिया रहे थे।दादा जी,पोते अमन के साथ मार्केट से सब्जियां लेकर आ चुके थे।"बहु! एक कप चाय मिल जाएगी क्या?" पापा जी ने श्यामा को आवाज दी। इससे पहले कि श्यामा कुछ कहती मम्मी जी ने पापा जी से कहा,"रूको मैं बना लाती हूं चाय।आज श्यामा की तबियत ठीक नहीं है।"

मम्मी जी कुर्सी से उठ ही रही थी कि श्यामा ने हर्ष मिश्रित आवाज में उन्हें आश्वस्त किया,"अब मैं ठीक हूं मम्मी जी।आप बैठो मैं चाय बना कर ला रही हूं।"

    किसी फिल्म की हैप्पी एंडिंग का मधुर संगीत फिर श्यामा की कल्पना में गूंजने लगा था।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा--सन्मति


 एक शराबी ने इतनी पी रखी थी कि उसे यह भी होश नहीं था कि वह कौन है बस सड़क पर खड़ा होकर अपनी ही धुन में बड़बड़ा रहा था ,मैं यहां का राजा हूँ तुम सब मेरी प्रजा हो । साली कहती है पैसे नहीं हैं तुम्हें दूँ या बच्चों को पढ़ाऊँ ,साली बच्चे गये भाड़ में।आज बताता हूँ उसे---।

       वह इतनी ज़ोर- ज़ोर से बड़बड़ा रहा था कि कहीं दूर से आती भजन की आवाज़ भी दब रही थी बस हल्की हल्की आवाज सुनाई पड़ रही थी

       ईश्वर अल्लाह तेरे नाम

       सबको सन्मति दे भगवान 

       ईश्वर अल्लाह तेरे नाम----।।

✍️ अशोक विश्नोई 

          



मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार राम किशोर वर्मा के इक्कीस दोहे ....

 


राह सत्य की है कठिन, मगर चले श्रीराम ।

हुआ नहीं दूजा कभी, यों जग करे प्रणाम ।। 1।।


गुण-ही-गुण दिखते हमें, सीता जी हों राम ।

गाँठ बाँध लें एक गुण, जीवन तब अभिराम ।।2।।

  

जैसे को तैसा करें, तब होगा कल्याण ।

रावण या फिर कंस पर, बरसे यों ही बाण ।।3।।

 

दो अक्टूबर को मिले, हमको दो ही लाल ।

लाल बहादुर एक था, दूजा मोहन लाल ।।4।।

 

देवी के सम्मुख सभी, नतमस्तक हैं आज ।

कर्म सदा ऐसे करें, माता को हो नाज ।।5।।


देवी का संदेश यह, करिए मत उपहास ।

काम-क्रोध मद-लोभ का, भी रखिए उपवास ।।6।।


बल-शक्ति का हो गया, जिसको भी अभिमान।

धूल-धूसरित हो गया, निश्चित इक दिन मान ।।7।।


देवी जी आदर्श हैं, भारत माँ की मात ।

नारी का सम्मान यों, जग में अनुपम बात ।।8।।


कन्या-पूजन भी यहाँ, देता यह संदेश ।

देवी के हर रूप का, करें मान जो वेश ।।9।।

  

बड़़भागी दर्शन हुए, श्री राधे घनश्याम ।

चरण शरण में लीजिए, द्वार तुम्हारे 'राम' ।। 10।।

  

नवदेवी -आराधना, मात-शक्ति का मान ।

दया दृष्टि रखती सदा, करते जन गुणगान ।।11।।


दुष्ट दलों के नाश का, देती माँ संदेश ।

भक्त शक्ति पूजन करें, जितने उनके वेश ।। 12।।

 

देवी की आराधना, तभी सफल है जान ।

नारी का सम्मान हो, माता को दें मान ।।13।।

  

घर-बाहर या देश में, चहुंदिशि हा-हाकार ।

'शांति दिवस' संदेश है, स्वार्थ रहित व्यवहार ।।14।।


विश्व चकित हैरान है, भारत-गतिविधि देख ।

नित्य खींचता यह नयी, सबसे लम्बी रेख ।।15।।

 

राम-नाम जीवन-मरण, यह जीवन-आधार ।

मुक्त होय संसार से, मिलता हरि का द्वार ।।16।।


बाल रूप में कृष्ण को, माता रहीं दुलार ।

इससे वह अनभिज्ञ हैं, यह जग- तारणहार ।।17।।


एक हाथ तलवार हो, दूजे में यदि ढाल ।

आँख उठा सकता नहीं, हो कोई भी लाल ।।18।।

  

तिरंगा न झुकने दिया, दे दी अपनी जान ।

ओढ़ तिरंगे का कफन, और बढ़ा दी शान ।।19।।


रूप बदल ले चीज जो, गुण रसायनिक जान ।

चीनी पानी में विलय, ऐसे ही सब मान ।।20।।


बदल सके नहिँ रूप को, गुण भौतिक यह जान ।।

दही बने जब दूध से, दही यही गुण मान ।। 21।।

  

✍️ राम किशोर वर्मा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह 'ओंकार' के पांच दोहे


सेवक बनकर राम का, किया राज का काज।

भाई हो तो भरत सा, कहता सभी समाज ।।

भाई हो तो भरत-सा, जिसका निश्छल प्यार ।

कुश आसन पर बैठकर, करता था दरबार ।।

जनसेवा करता रहा, सरयू तट के पास ।

भाई हो तो भरत-सा, तजा महल का वास।।

राज-काज करता रहा,धारण कर सन्यास।

भाई हो तो भरत-सा, त्यागे भोग-विलास।।

राजा होकर भी सदा, भोगा था वनवास ।

भाई हो तो भरत-सा, बना राम का दास ।।


✍️ ओंकार सिंह ओंकार 

1-बी-241बुद्धिविहार, मझोला,

मुरादाबाद 244103

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की पांच बाल कविताएं .....


 1- आलसी सोनू

कुर्सी बोली चटर पटर,

"जल्दी जल्दी काम को कर।"

सोनू ऊंघ रहे थे भाई,

कैसे देता उसे सुनाई?

तभी मेज ने टॉप हिलाया।

"अब तक पाठ न क्यों दोहराया?

कछुए की जो चाल चलोगे

कैसे आगे,कहो रहोगे।"

कॉपी और रबर चिल्लाये,

"ये सोनू क्यों बाज न आये।"

कुर्सी,मेज,रबर,कॉपी संग,

बोले पेन्सिल सोनू है दंग।

तब सोनू ने ले जम्हाई,

आँखे पुस्तक पर जमाई। 

पड़ न जाये फिर से डाँट।

जल्दी याद किया सब पाठ।

2-नये जमाने की लोरी

लल्ला लल्ला लोरी

दूध की बोतल भरी

दूध न पीना मुन्ने को

गाना चाहे सुनने को

माँ गाना न जानती

मोबाइल में छानती

मोबाइल अब ऑन है

"राजा बेटा कौन है"

लल्ला लल्ला लोरी

दूध की बोतल भरी

दूध में है बोर्नवीटा।

पीने वाले हैरी,रीटा।

अव्वल हरदम आते हैं।

टीवी में दिखाते हैं।

देखो टीवी ऑन है,

"बोलो अव्वल कौन है"

3-नयी दुनिया

चंदा मामा दिन में होंगे,

रात को सूरज आयेंगे।

चिड़िया तैरेगी पानी में,

मगर पेड़ पर गायेंगे।

भैंसें पतली,मोटी बकरी,

गाय हरी,नीली होगी।

रेंगेगा घोड़ा जमीन पर,

कछुए दौड़ लगायेंगे।

आम खेत में बिछे उगेंगे,

शर्बत की बारिश होगी।

पेड़ों पर लटकी जलेबियाँ,

बच्चे तोड़ के खायेंगे।

गुड़िया गुड्डे बंटी के हैं,

बैट-बॉल मुनिया लेगी।

अदल बदल हम देंगे सब कुछ 

दुनिया नई बनायेंगे।

4-बिल्ली मौसी बिल्ली मौसी

बिल्ली मौसी बिल्ली मौसी

मेरे घर तुम आ जाना।

धमा चौकड़ी करते चूहे,

उनको सबक सिखा जाना।

कपड़े,खाना,कॉपी,पुस्तक

इन दुष्टों के साये हैं।

नहीं सलामत रहा यहाँ कुछ,

सब पर दाँत चलाये हैं।

चूहेदानी रखी हुई है,

शैतानी पर जारी है।

कुतर गये हैं टाई मेरी,

अब जूतों की बारी है।

रात भर बिस्तर में भी ये

उछल-कूद करने आते।

गहन नींद में सोते मुझको,

डरा,उठाकर छिप जाते। 

प्यारी मौसी अच्छी मौसी

अब जल्दी से आओ तुम।

पिद्दी चूहे शेर हो रहे,

इनको हद में लाओ तुम।

5-रेनी डे

"स्कूल आज न जाऊँ मम्मी,सूरज भी नहीं आया है।

काला बादल गश्त लगाता,डर से दिल थर्राया है।

छतरी की तीली निकली थी,ठीक नहीं करवायी हो।

रेनकोट भी फटा हुआ है,नया नहीं तुम लायी हो।

भीग गया जो मैं पानी में,आफत तुम पर आयेगी।

बैठे बिठाए फिर बीमारी,बिल पर बिल बढ़ाएगी।

देख कभी वह काले बादल,खतरा मोल न लेती है।

सूरज की माँ कितनी अच्छी,रेनी डे कर देती है।


✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मंगलवार, 4 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के तेरह दोहे


शिक्षा वह जो मनुज को, रखे कूप मण्डूक।

दी जाती खम ठोक के, हुई बड़ी है चूक।।1।।


लगता शायद हो चुका, भाईचारा नष्ट।

ध्यान सभी का तब गया, लगे सताने कष्ट।।2।। 

                  

आता रहता है सदा, नफ़रत को ही ताव।

तार-तार इसने किया, सामाजिक सद्भाव।।3।।


धुले कहाँ हैं आजतक, अभी पुराने घाव।

समरसता फिर लूटकर, धन्य हुए अलगाव।।4।।


माँ दुर्गा कल्याणिनी, सिद्ध करो सब काम।

सभी बढ़ाएँ देश का, गौरव बिना विराम।।5।।

                

दुनिया में बस कोख ही, सर्वश्रेष्ठ है काव्य।

लिखे पुत्र से भाग्य को, बेटी से सौभाग्य।।6।।


जिनके अब हो ही चुके, लाइलाज सब रोग। 

बचा सकें केवल उन्हें, योग और संयोग।।7।।


वर्तमान भटकाव में, धुँधला जहाँ भविष्य।

युवा बने कब तक रहें, उस भाषा के शिष्य।।8।।


होती अच्छी अति नहीं, जितनी लो कर देख।

स्वच्छ भाव ही लिख सके,पढ़ने लायक लेख।।9।। 


ओछे फिर-फिर पीटते, बस अपना ही ढोल। 

जब निकली आवाज तो, खुली ढोल की पोल।।10।।


चीते आए देश में, लगे भड़कने लोग।

शायद ऐसे द्वेष से, मिटते कुछ के रोग।।11।।


नफ़रत नफ़रत जाप से, कर सबको बदनाम।

फिर होता मिलकर इसे, फैलाने का काम।।12।।


यदि अपने ही पास में, रसद न हो भरपूर।

मंज़िल फिर है भागती, यात्राओं से दूर।।13।।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

 झ-28, नवीन नगर

 काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल:9319086769


मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की बाल कहानी ...चतुर चीनू


कक्षा तीन मे पढ़ने वाला, नौ साल का चीनू बहुत ही नटखट  था.दिन भर उछलकूद करना और अपने से दो साल छोटी बहन को छेड़ना, उसकी आदत थी. परंतु वह पढ़ाई में बहुत तेज होने के साथ साथ,इतनी सी उम्र में ही कठिन से कठिन समस्या को भी एक पल में हल कर देता था. उसकी चतुराई का लोहा, उसकी कक्षा के सहपाठी, तथा कक्षा के समस्त अध्यापक भी मानते थे. दादा-दादी की तो आँखों का तो वह तारा था.

एक बार  चीनू के घर  पता नहीं कहाँ से बहुत सारे चूहें आ गये.उन चूहों ने सबकी नाक में दम कर दिया.रोज ही तरह- तरह के नुकसान करने लगे. यह देख  कर चीनू की दादी जी ने चीनू की माँ को चूहेदानी लगाने की सलाह दी, परंतु  चूहेदानी में एक चूहे के फंँसने के बाद, बाकि चूहे सचेत हो गये और चूहेदानी के पास तक नहीं फटके.

 थक हार कर चीनू के दादा जी बाज़ार से चूहे मार दवाई ले आये और चीनू की मांँ को घर के कोनो, बैड व अलमारियों के नीचे तथा जहाँ -जहाँ वे चूहे छुप जाते थे, वहाँ- वहाँ  वह दवाई रखने को दे दी. दवाई खाकर चूहे मरने  तो लगे, परंतु मरकर उनमें से बदबू आने लगी थी और फिर  इतने बड़े घर में उनके मृत  और बदबूदार शरीर को ढूँढकर, फेंकना भी बड़ा मुश्किल हो गया था.

 तब एक दिन चीनू के पापा जी ने चीनू से हँसते हुए कहा, " चीनू! वैसे तो तुम बहुत बुद्धिमान बनते हो, पर मुझे लगता है कि ये चूहें तुमसे भी ज्यादा बुद्धिमान हैं, इन्हें घर से भगाकर दिखाओ तो जानें....! " चीनू  अपनी प्रशंसा से उत्साहित होकर, हंँसता हुआ बोला, "अभी लीजिए, पापा जी !..आपने पहले क्यों नहीं बताया कि आपसे  चूहें सँभल नहीं रहे...! मैं अभी दो मिनट में सारे चूहें भगा देता हूँ" इसपर चीनू की मम्मी बोलीं, "ओहो.. चीनू.. कुछ ज्यादा ही बोल गये हो, इतने दिन से हम लोग  तो चूहों को भगा नहीं पाए और तुम दो मिनट में भगा दोगे! भई वाहह हह..!!. कोई जादू है क्या? "चीनू ने मुस्कुरा कर कहा, " हाँ मम्मी जी...जादू ही समझ लीजिए...!, बस आप देखती  रहिए.! !क्या होता है? "

इतना कहकर चीनू अपनी खिलौने वाली अलमारी में से रिमोट कंट्रोल वाली मिनी कार ले आया, जिसे चलाने पर रंग -बिरंगी बत्तियों के साथ- साथ हूटर भी बजता था अब .उसने अपनी उस खिलौना कार को नीचे फर्श पर रख दिया और रिमोट से बटन दबाकर पूरे घर के बैड, अलमारियों और फर्नीचर के नीचे दौड़ाने लगा. जैसे ही कार हूहूहूहू की आवाज़ निकालती हुई, अलमारियों और बैड के नीचे  लाल- हरी बत्ती जलाती, दौड़ना शुरू हुई तो अलमारियों के नीचे, और फर्नीचर के पीछे दुबके  सारे चूहे  घबरा गये, उन चूहों ने  शायद पहली बार   ऐसा  अजीबोगरीब प्राणी  देखा था, जो रोशनी के साथ- साथ भयानक आवाज़ भी  निकाल रहा था.अत: सारे चूहों में भगदड़ मच गयी और वे निकल- निकल कर घर से बाहर भागने लगे.यह देख कर चीनू ज़ोर- ज़ोर से हँसने लगा और छुटकी   भी तालियाँ बजा -बजाकर  नाचने लगी.चीनू की यह चतुराई देखकर  चीनू के पापा जी ने चीनू को गोद में उठा लिया और चीनू के .दादा- दादी और मम्मी भी  खुश होकर चीनू की बलैया  लेने लगे.

✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


रविवार, 2 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम द्वारा दो अक्तूबर को काव्य-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार दो अक्तूबर को मिलन विहार में एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया।   

         कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार रामदत्त द्विवेदी ने कहा - 

वृद्धजनों की ऑंखों से यदि, 

जिस दिन भी ऑंसू  आ जायें। 

धर्म तुम्हारा भी उस दिन ही, 

उस ऑंसू के सॅंग बह जाये।

         मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ रचनाकार ओंकार सिंह ओंकार ने अपनी ग़ज़ल से सभी को आह्लादित किया - 

प्यार का संसार में विस्तार होना चाहिए।‌ 

नफ़रतों का बंद कारोबार होना चाहिए।। 

सत्य जीवन का सदा आधार होना चाहिए।

 झूठ का टिकना यहाॅं दुश्वार होना चाहिए।।

         विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में गीत प्रस्तुत करते हुए कहा -

उड़ रही गंध ताजे खून की, 

बरसा रहा जहर मानसून भी, 

घुटता है दम अब, 

बारूदी झोंको के बीच

       गोष्ठी का संचालन करते हुए राजीव प्रखर ने कहा -

चुप्पी साधे देख रहे क्यों, 

कंसों की मनमानी।

हे गोविंदा, फिर कर जाओ,

थोड़ी सी शैतानी। 

      सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपनी दोहों से वर्तमान परिस्थितियों को जीवंत कर दिया - 

बदल रामलीला गई, बदल गए एहसास। 

'राम' आजकल दे रहे, 'दशरथ' को वनवास।। 

ना पहले-से हैं 'भरत', ना पहले से 'राम'। 

स्वार्थसिद्धि में हो गया, अपनापन नीलाम।।

     कवि नकुल त्यागी ने भी सभी को सोचने पर बाध्य किया - 

     परिस्थितियां विपरीत हो और युक्ति न चले कोई , सभी नेताओं का हथियार है गांधी।‌ 

     कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने नवगीत प्रस्तुत हुए कहा - 

महॅंगाई ने जबसे पहनी, 

अच्छे दिन की अचकन। 

ठंडा चूल्हा, चौके की बस, 

करता रहा समीक्षा। 

कंगाली में गीला आटा, 

लेता रहा परीक्षा। 

     कवयित्री इन्दु रानी की अभिव्यक्ति इस प्रकार रही - 

ध्यान सिया, मन मात हैं, करते प्रभु आह्वान।

 रावण के संहार का, दो माते वरदान।।

      कवि जितेन्द्र जौली ने हास्य रस की फुहार छोड़ते हुए कहा - 

सब रहते हैं मुझसे परेशान जाने क्यों।

लोग कहते हैं मुझको शैतान जाने क्यों।। 

अरे! एक मच्छर ही तो मारा था मैंने, 

पड़ गया नाम मेरा पहलवान जाने क्यों।। 

      युवा कवि प्रशांत मिश्र की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

      जिसकी रिक्शा से स्कूल गए, वो छोटी जाति का हो जाता है। 

      इस अवसर पर रूपचंद मित्तल ने मधुर कण्ठ से रामचरितमानस की चौपाईयों का  पाठ किया। रामदत्त द्विवेदी ने आभार-अभिव्यक्त किया। 










:::::प्रस्तुति:::::

राजीव 'प्रखर'

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की रचना .. गांधी जी ने दिया जगत को

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ट्रस्टीशिप-उपहार है (गीत) 

_________________________

गॉंधी जी ने दिया जगत को, ट्रस्टीशिप-उपहार है 

                          (1)

समझें हम यह मिला हुआ धन सब ईश्वर की माया 

नाशवान है दीख रही सुंदर बलशाली काया 

चार दिवस के लिए हाथ में, सबके यह संसार है 

                                (2)

मालिक नहीं धनिक समझें उस धन का जो है पाया 

यह समाज की सिर्फ अमानत जो हाथों में आया 

नहीं धनिक को कुछ विलासिता, करने का अधिकार है 

                             (3)

ट्रस्टीशिप के पथिक राष्ट्र-श्री जमनालाल बजाज थे 

भामाशाह बने आजादी के मानो सरताज थे 

कर्मयोग यह है गीता का, प्रेरक एक विचार है 

गॉंधी जी ने दिया जगत को, ट्रस्टीशिप-उपहार है

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा, 

रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के रंगकर्मी,चित्रकार एवं साहित्यकार स्मृति शेष डॉ ज्ञान प्रकाश सोती ’ठुंठ’ की कविता .... गांधी जयंती । यह कविता हमने ली है वर्ष 1964 में हिंदी साहित्य निकेतन द्वारा प्रकाशित साझा काव्य संग्रह 'तीर और तरंग 'से। मुरादाबाद जनपद के 39 कवियों के इस काव्य संग्रह का संपादन किया था गिरिराज शरण अग्रवाल और नवल किशोर गुप्ता ने ।


अरे सुनो !

कल शाम सड़क पर, 

गली - गली कूचे - कूचे में

स्टेशन पर,

दोराहों पर,

चौराहों पर,

मटक मटक कर, 

फुदक फुदक कर,

खूब कड़क कर,

कहता था तस्वीरों वाला ।

सुनो, मुसाफिर जाने वालों !

कल को गाँधी दिवस मना लो ।

चार आने में गाँधी ले लो,

आठ आने में गांधी ले लो,

एक रुपये में गाँधी ले लो

पाँच रुपये में गाँधी ले लो

खड़े पोज़ में,

पड़े पोज़ में,

मरे पोज़ में,

हँसे पोज़ में,

नमक बनाते,

सूत कातते,

झन्डा लेकर गोरों को फटकार बताते;

राम नाम धुन गाते-गाते 

अन्त समय का;

जैसा चाहो मिल सकता है,

एक आने में भी मिलता है, 

दो पैसे में भी मिलता है । 

तभी अचानक सोचा मैंने 

जन्म दिवस है कल बापू का 

ले लो कुछ तस्वीरें तुम भी, 

दीवारें भी सज जायेंगी, 

कुछ बातें भी सध जायेंगी; 

यह अवसर है रोब जमा लू, 

और छिपा लूं अपनी काली करतूतों को ।

एक आड़ तो हो जायगी 

गांधी की इन तस्वीरों से;

बापू के आदर्श बता कर 

जो चाहूँगा कर सकता हूँ, 

अपनी कोठी भर सकता हूं। 

भोली जनता क्या समझेगी दूरन्देशी ? 

पर बापू

तुम तो जानोगे सारी बातें

सारी घातें, 

जो इनके पीछे होती हैं ।

भूल चुके हैं हम सारे आदर्श तुम्हारे 

जिनके द्वारा आज हमें 

अधिकार मिला है आज़ादी का

सच पूछो तो याद किया करते हम दो दिन

जन्म दिवस पर, 

मरण दिवस पर,

और टाँग देते हैं तुमको

कमज़ोरी पर आड़ लगाने ।

और मेरे बापू

तुम कितने उदार कितने अच्छे हो,

इस मँहगाई के युग में भी कितने सस्ते हो ?

बापू !

मन में मैल न लाना

क्षोभ न लाना ।

हम भारतवासी वर्षों से ही ऐसे हैं

मन से खोटे हैं ।

सच पूछो तो बेपेंदी के लोटे हैं |

जन्म दिवस पर आज तुम्हारे,

कोटि कोटि कन्ठों से तेरा अभिनन्दन है |

✍️ ज्ञान प्रकाश सोती ’ठुंठ’

::::::::प्रस्तुति::::;:

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फ़ोन 9456687822

शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

यादगार चित्र : मुरादाबाद के साहित्यकार हुल्लड़ मुरादाबादी को राष्ट्रपति भवन में सम्मानित करते तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा । यह चित्र है शुक्रवार 20 मई 1994 का ।


 ::::::::प्रस्तुति :::;;;;;

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

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मोबाइल फोन नंबर 9456687822



मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल के साहित्यकार स्मृति शेष रामकुमार गुप्त की काव्य कृति "ज्वाला" । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1943 में प्रकाशित हुआ था । द्वितीय संस्करण वर्ष 1951 में प्रकाशित हुआ । इस कृति में उनकी चौदह कविताएं हैं । हमें यह कृति उपलब्ध कराई है वर्तमान में बरेली निवासी उनकी सुपौत्री स्वाति गुप्ता जी ने .....

 


पूरी काव्य कृति पढ़ने के लिए क्लिक कीजिए 

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::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी 

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गुरुवार, 29 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ........ पिता का श्राद्ध

     


पिता का श्राद्ध है आज…

     निकेत बड़े श्रद्धा भाव से पूजा पाठ की तैयारियों में लगा है…और पत्नी रसोई में विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में व्यस्त है…श्वसुर की पसंद का मटर पनीर, कोफ्ते, बूंदी का रायता,मेवे पड़ी मखाने की खीर, शुद्ध गोघृत का सूजी का हलवा,उड़द की दाल की कचोड़ियां आदि आदि।

     मां का कमरा रसोई से कुछ दूर है। उच्च रक्तचाप व मधुमेह की रुग्णा मां की दो कदम चलने में ही श्वास फूलने लगती है। बार-बार कण्ठ शुष्क हो जाता है और बार बार प्यास लगती है। और थोड़ी-थोड़ी देर में मूत्र त्याग की इच्छा होने लगती है। अन्य दिनों में तो बेटा अथवा पौत्र उन्हें शौचालय ले जाकर मूत्र विसर्जन करा लाते थे…परंतु आज तो कोई भी उनके समीप नहीं आया…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…जिन्हें मरे हुए आज पूरे पांच वर्ष हो चुके हैं…प्रति वर्ष उनका श्राद्ध मनाया जाता है…सुस्वादु व्यंजन उनके नाम पर पंडित और कौए को खिलाए जाते हैं। पंडित पूजा पाठ का उपक्रम करता है, दक्षिणा लेता है और सामान की पोटली बांधकर घर ले जाता है…बस हो गया श्राद्ध…

     वह अलग की बात है कि जब तक वे जीवित रहे तब तक पुत्र और पुत्रवधू दोनों ही उनकी घोर उपेक्षा करते रहे। उनकी पसंद के सुस्वादु व्यंजन तो क्या सामान्य भोजन के लिए भी तरसाया जाता था…

     मधुमेह की रुग्णा होने के कारण मां को भूख सहन नहीं हो पाती…हर दो घण्टे पर उन्हें कुछ न कुछ खाने के लिए चाहिए, वरना उन्हें कमजोरी और चक्कर महसूस होने लगते हैं।

     लेकिन आज तो उन्हें सुबह से कुछ भी नहीं मिला…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…बेटा और बहू तैयारियों में व्यस्त हैं न…श्राद्ध के विधि विधान में कोई कमी न रह जाए…किसी भी तरह पितर न रुष्ट होने पाएं…

    भूख बड़ी तेजी से सता रही है उन्हें…टकटकी बांधे वे निरंतर रसोई की ओर निहार रही हैं…हर आहट पर उन्हें लगता है कि  कुछ खाने को मिलने वाला है…इस मध्य हांफती-कांपती वे कई बार शौचालय हो आयी हैं और लौटते हुए तिर्यक दृष्टि से वे रसोई में भी झांक आयी हैं।

     जब उन्हें लगा कि यदि कुछ देर उन्हें खाने को कुछ न मिला तो रक्त शर्करा शून्य हो जाएगी और वे मूर्छित हो जाएंगी। तो उन्हें बहू से याचना भाव से कहना ही पड़ा– "बहू!भूख सहन नहीं हो रही…रात का ही कुछ रखा हो तो वही खाने के लिए दे दे!"

     बहू की त्योरियां चढ़ गयीं – "मां जी कुछ तो धीरज रखा करो!आज पिताजी का श्राद्ध है तो बिना पूजा पाठ किए, बिना पंडित जी को भोग लगाए आपसे कैसे झुठला दें? पुण्य कार्य में विघ्न बाधा डालकर क्यों अनर्थ करने पर तुली हुई हो?"

     पौत्र को उनसे कुछ सहानुभूति हुई तो वह उन्हें आश्वस्त करने आ पहुंचा – "अम्मा! पापा पंडित जी को बुलाने गये हैं बस आने ही वाले होंगे। जैसे ही पंडित जी को भोग लगाया जाएगा वैसे ही सबसे पहले मैं आपका थाल लेकर आऊंगा।"

     उनके मन में आशा की एक नन्ही सी किरण जगी । और वे अपने बिस्तर पर लेटी मुख्य द्वार की ओर अनिमेष निहारने लगीं…पुत्र के पंडित जी के साथ आने की प्रतीक्षा में…

     किंतु पुत्र अकेला ही बाहर से ही  तीव्र स्वर में कहते हुए भीतर घुसा चला आया – "पंडित जी को आने में कुछ देर लगेगी क्योंकि वे अन्य घरों का श्राद्ध निपटाने गये हैं।इन लोगों के लिए कोई एक घर तो होता नहीं जो सुबह से ही जाकर जम जाएं,दस घर जाना होता है। कहीं चेले चपाटों को भेज देते हैं कहीं खुद जाते हैं। हमारे घर तो वे स्वयं ही आएंगे,हमारा श्राद्ध कर्म अच्छी तरह जो निपटाना है। यहां से उन्हें दक्षिणा भी अच्छी मिलती है।"

     मां जी के मन में टिमटिमा रहा आशा का नन्हा दीप भी बुझ गया…पता नहीं पंडित जी कब आएंगे?...कब तक उन्हें इस भूख से तड़पना होगा?

     साहस जुटा कर वे किसी भिक्षुणी की भांति पुत्र के सामने गिड़गिड़ाने लगीं – "बेटा!तू मेरे मरने के बाद भी तो मेरा श्राद्ध कर्म करेगा ही न,तो वह श्राद्ध मेरे जीते जी कर ले! बेटा बहुत जोर की भूख लगी है,बस तू मुझे दो सूखी रोटी दे दे! चाहे मेरे मरने के बाद मुझे कुछ मत देना खाने के लिए।"

     पुत्र की भृकुटि वक्र हो गयी– "अम्मा! तुम भी हर समय कैसी कुशुगनी की बातें करती रहती हो? पंडित जी को जिमाने से पहले तुम्हें कैसे जिमां दें? क्यों हमसे घोर पाप कराने पर तुली हो? जब इतनी देर रुकी हो तो थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं क्या?"

     मां जी की आंखों में अश्रु छलछला आए…अपने रक्तांश से ऐसे तिरस्कार की तो उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं थी।

     लड़खड़ाते बोझिल से कदमों से वे अपनी कोठरी में घुसीं और निढाल सी, निष्प्राण सी ओंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ीं।सिकुड़ी आंखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित हो पड़ी…और पता नहीं कब तक होती रही?

     कुछ समय उपरांत पंडित जी बाहर से ही शोर मचाते हुए घर में प्रविष्ट हुए – "जल्दी करो भाई! मुझे और घरों में भी जाना है।"

     पूजा पाठ की औपचारिकता पूर्ण होते ही पंडित जी के सामने सारे व्यंजनों से सजा थाल लाया गया तो उन्होंने क्षणिक दृष्टिपात थाल पर करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा –"ऐसा करो यजमान!इसे खाने का मेरे पास वक्त नहीं है,अभी और भी घर निपटाने हैं। इसमें दक्षिणा रखकर इसे मेरे घर दे आओ! भगवान तुम्हारे पिता की आत्मा को संतृप्त रखे।"

     पंडित जी के जाने के बाद मां जी को सुस्वादु व्यंजनों से भरा भोजन  थाल पहुंचाया गया…

     किंतु यह क्या?...मां जी तो तब तक उसे ग्रहण करने की स्थिति में ही नहीं रही थीं…शायद उन्हें मधुमेही संज्ञाशून्यता ने आ दबोचा था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 8077945148

गुरुवार, 22 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी दस गीत

 


(1)

मन का केवल भेद चाहिए 

षड्यंत्रों की कमी नहीं है  


चौसर पर हैं हम सब यारों

शकुनि पासा फेंक रहा है

कह द्रोपदी लाज की मारी

कलियुग आंखें  सेंक रहा है 

कहे क्या मन का दुर्योधन

षड्यंत्रों की कमी नहीं है। 


दूं क्या परिचय तुमको

क्या मैं इतिहास सुनाऊं

नाम, पता, आयु, शिक्षा

संप्रति की आस जगाऊं

पड़े हैं  सांसों पर ताले

षड्यंत्रों की कमी नहीं है।


इस बस्ती में अंगारों की 

निंदा, छल, कपट खड़े हैं

आग, आग है इस सीने में 

तन कर सभी तन खड़े हैं

रक्त सभी के खौल रहे हैं

षड्यंत्रों की कमी नहीं है।। 


(2)

कैसे कहें घनघोर तम है

सुनें व्यंजना मन है पल है

कौंध रहीं जो बिजली सारी

गरजा, बरसा, बिखरा जल है। 


प्रतिध्वनि में ये गूंज किसकी

देख,भर रहा है कौन सिसकी

थाल आरती  का लाई बदरी

फिर भी यहाँ उथल पुथल है। 


बजती घण्टी, नाद शँख का

अंग अंग प्रतिदान अंक का

कह रही क्यों चारों दिशाएं

रिक्त आचमन, तल ही तल है।। 


लबों पर सजी है अर्चना

तोड़ दी हैं सारी वर्जना

देख रहा यूँ हरि भी नभ से

धरती पर तो कल ही कल है।।


कोलाहल में फिर क्यों कौंधे

बिजलियाँ यहाँ मन की तन की

सबकी अपनी, यही  व्यथा है

प्यासी धरती, नयन सजल है।।


(3)

मत पूछो किस तरह जिया हूं ।

कदम-कदम पर गरल पिया हूं


इस दीपक के दस दीवाने 

सबकी चाहत ओ’ उलाहने 

जर्जर काया, पास न माया 

कैसे कह दे धूप न साया 

घर कहता है नई  कहानी

बूढ़ी आंखें,  सुता सयानी


मत पूछो किस तरह जिया हूं

कदम-कदम पर गरल पिया हूं


मेरे राज़ हवा ही जाने

मेरे काज दवा पहचाने

नापी धरती, देखे सपने

उखड़ी सांसें, रूठे अपने

अब पैरों पर जगत खड़ा है

देखो तो,  बीमार पड़ा है


मत पूछो किस तरह जिया हूं

कदम-कदम पर गरल पिया हूं


गंगा मेरे तट पर आई

देख मुझे, रोई बलखाई

बोली-बोली हे ! गंगाधर

उलझे-उलझे क्यों ये अक्षर

मुझसे ले तू  छीन रवानी

जीवन तो  है बहता पानी


मत पूछो किस तरह जिया हूं। 

कदम-कदम पर गरल पिया हूं।।


(4)

क्या कर लेगा कोई तुम्हारा, अड़े रहो

आकाशी बूँदों का, अस्तित्व नहीं होता


रात रात भर, जाग जाग कर

नयन क्यों खोवै

पल दो पल की नींद तुम्हारी

सपन क्यों बोवै

लेनी है यदि साँस धरा पर, अड़े रहो

रातों में सूरज का, तेजत्व नहीं होता।


जीती तुमने जंग हजारों

अपने कौशल से

अब क्यों हारा थका बैठा है

भीगे आँचल से

यही मिली है सीख हमें तो, डटे रहो

रण में कभी भीरु का, वीरत्व नहीं होता


छोड़ भी दे तू अब यह कहना

प्रभु की इच्छा

क्या गीता क्या रामायण, बस

मन की इच्छा

क्या कर लेगा काल तुम्हारा, खड़े रहो

आकाशी बूँदों का, सतीत्व नहीं होता।


(5)

स्वर लपेटे व्यंजना के, गीत नहीं भाते

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते


लेकर नागफनियां हमने, पीर बहुत गाई

गए जहां भी हम बंजारे, नीर बहुत पाई

उदासी के द्वार सजे हैं, मीत नहीं आते

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।


आंसू भूले नैन की भाषा,  कैसी बदरी है

चादर खींचे लाज-धर्म, कैसी गठरी है

मर्यादा के जंगल में अब, रीत नहीं  बातें

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।.


लघु बहुत है तेरा-मेरा, नाता दुनिया का

भूल गये सब छंद यारा, गाना मुनिया का

गर्म-गर्म हैं सांसे अपनी, शीत नहीं रातें

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।।


(6)

अंकपत्र सा है यह जीवन

अंक सभी तो तोल रहे हैं

यहीं कमाया यहीं गंवाया

कोष सभी के बोल रहे हैं। 


कॉपी में जीरो जब आया 

ठिठका माथा, मन घबराया 

अम्मा का था दूध बताशा

फिर क्या था, तू देख तमाशा

बनें यहीं जीरो से हीरो 

पर अब कुछ भी याद नहीं है

जयति जयति बोल रहे हैं।।


अंकों की सब माया जननी

धन दौलत वो और चवन्नी

दो आने के दही बड़े थे

हलवा पूरी सभी पड़े थे

अब कार्ड में जीवन सारा

क्रेडिट क्रेडिट खोल रहे हैं। 


अंक सभी अंकों से रूठा

घर का खाना, रूखा रूखा

इनकम सबकी बड़ी बड़ी है

फिर भी मुश्किल आन पड़ी है

आओ अपनी उम्र लगाएँ

थोड़ा तो हिसाब लगाएँ

रहा पहाड़ा सौ का जीवन

सब अपने में डोल रहे हैं।।


(7)

फट गया लो मेघ सावन 

आ गया लो मेघ आंगन 

कह रही चारों दिशाएं 

यह कभी टिकता नहीं है


रूपसी तो रूप की है

यह कली तो धूप सी है

आज है पर कल नहीं है

कल भी एक पल नहीं है

पकड़े रहना आशाएं

वक़्त फिर मिलता नहीं है


बरसेगा इक दिन सावन

बोलेगा  तुझको साजन

बूँद का इतिहास मन है

सर सर सर बहता तन है

भीगी भीगी  अलकाएँ

जल वहाँ रुकता नहीं है।


देख ले तू चाँद यारा

मेघ में भी और प्यारा

यात्रा रुकती नहीं है

मात्रा गिनती नहीं है

तोड़ दे तू वर्जनाएं

मन कभी मरता नहीं है।।


(8)

कभी कभी तो आया कर

कभी कभी तो जाया कर

कहती विपदा, रात गई

नग़मे अपने गाया कर।।


अपने में ही मस्त रहा

सपने में ही त्रस्त रहा

दाना पानी, घर दफ्तर

जीवनभर यूँ व्यस्त रहा।।

खुद को भी समझाया कर

नग़मे अपने गाया कर।। 

 

कुछ पाना ,कुछ खोना क्या

समय समय को रोना क्या

 रात कहे, तू सो जा री

तारों का फिर जगना क्या

जी को भी बहलाया कर

नग़मे अपने गाया कर।।


छोड़ उदासी आगे बढ़

अपने हाथों क़िस्मत गढ़

जैसे रवि लिखे कहानी

 ढूंढे शशि अमर जवानी

सागर सा लहराया कर

नग़मे अपने गाया कर।।


(9)

जब मन्दिर में दीप कोई, आशा का भरता है

तेल, बाती, घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


थाल लेकर चले आस्था, वर्जित तन अभिमान

मैं बन जाऊं दीप शिखा, ज्योति ज्योति का दान

एक यही तो दीपक अपना, रोज मरता है

तेल बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


शुक्ल कृष्ण पक्ष मेरे द्वारे अतिथि बन ठहरे

उजले उजले वसन थे उनके, घाव बहुत गहरे

कौन समझाए इस दीप को, रोज बिखरता है

तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


अर्चना के जंगल में, शंख ध्वनि कैसी

मोर पंख ले नज़र उतारें, ग्रह दशा कैसी

धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का, बाजार संवरता है

तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


(10)

लिख लेते हैं थोड़ा थोड़ा

कह लेते हैं थोड़ा थोड़ा

मत मानो तुम हमको कुछ भी

जी लेते हैं थोड़ा थोड़ा।।


दीप शिखा सी जले जिंदगी

खोने कभी और पाने को

बाहर बाहर करे उजाला

अंधियारा सब पी जाने को 

मत मानो तुम उसको कुछ भी

जल लेते हैं थोड़ा थोड़ा


बस्ती बस्ती है शब्दों की

पढ़ी इबारत, मंजिल देखी

कुछ अंगारी, कहीं उदासी

आते जाते नस्लें देखीं

मत मानो तुम उनका कहना

पढ़ लेते हैं थोड़ा थोड़ा ।। 


अभी वक्त है, थोड़ा सुन लो

अभी वक्त है, थोड़ा बुन लो

पल दो पल की प्राण प्रतिष्ठा

चली चांदनी, चंदा रूठा

मत मानो तुम इसको गहना

सज लेते हैं थोड़ा-थोड़ा ।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

मेरठ

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 21 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम के सात गीत । ये गीत हमने लिए हैं उनके वर्ष 2022 में प्रकाशित गीत संग्रह "दर्द अभी सोए हैं" से.....


1 ....अब हम ख़ुद बाबा-दादी हैं

अब हम खुद बाबा-दादी हैं 

कल आदेश दिया करते थे, आज हो गए फ़रियादी हैं


माँ से जन्म, पिता से पालन, नई फसल को व्यर्थ हो गया 

संयम को बंधन कहते हैं, भोग प्यार का अर्थ हो गया

 दो पल के आकर्षण को ही जन्म-जन्म की प्रीति समझते 

जाने किसने ऐसी बातें इन बच्चों को समझा दी हैं


भीषण कोलाहल के भीतर असमय सोना, असमय खाना 

मोबाइल से कान लगाए यहाँ खड़े हों वहाँ बताना 

अपने को ही भ्रम में रखना, सच को हौले से धकियाना 

छोटे-बड़े सभी की इसमें देख रहे हम बरबादी हैं।


आना-जाना, सैर-सपाटा, गाड़ी से भरना फ़र्राटा

 अपने लिये न सीमा व्यय की, घर माँगे तो कहना घाटा , 

सब कुछ जिन्हें दे दिया, उनको पलभर का भी समय नहीं है 

हमने ही उलझनें हमारी, खुद अपने सर पर लादी हैं


2.....परिवर्तन तो परिवर्तन है


आएगा ही परिवर्तन तो परिवर्तन है


अब कुत्ते- बंदर आपस में मित्र हो गए 

भाषा में गाली के शब्द पवित्र हो गए 

चाहो या मत चाहो सुनना है मजबूरी 

बोल सिनेमा रहा, लोक- प्रत्यावर्तन है


जैसा देख रहे पर्दे पर, वही करेंगे 

कोमल मन में जब अनियंत्रित भाव भरेंगे 

देह मात्र उपभोग्य रहेगी, कहना क्या है , 

जो जैसा है वही दिखा देता दरपन है


अंतरिक्ष में खोज रहे हैं नए धरातल 

गढ़ता है विज्ञान सोच में नित्य हलाहल 

ईश्वर दृश्य-अदृश्य कर्मफल ही अवश्य है 

जीवन नश्य, यही कहता भारत दर्शन है


3......दुनिया सोने की


मिट्टी से भी कमतर है दुनिया सोने की


संबंधों का अर्थ किसी को क्या समझाना

 बिखरा-बिखरा है सामाजिक ताना-बाना 

घर जिससे घर है, उसका अनमना हुआ मन

 पति-पत्नी के बीच विवशता है ढोने की


कल की आशा में संसार जुटा है सारा

घर आकर सब सुख पाते, बाबू, बंजारा 

पिता देख बच्चों की हरकत को घुटता है

माँ को आशंका रहती बेटा खोने की


शिक्षा, नैतिकता सब कुछ व्यापार हो गया 

अस्थिर हुए चरित्र, निभाना भार हो गया 

रहे मनीषी खोज कि हम सुधरें, जग सुधरे 

क्या संभव है, संभावना कहाँ होने की


4.......सबमें ऐसी डील हुई


नेता- पुलिस-प्रशासन, सबमें ऐसी डील हुई 

कर्फ्यू में बारह से दो तक की ही ढील हुई


गेंद और पाली के पीछे दो लड़के झगड़े 

उलझ गए छुटभैये, टोपी वाले ग्रुप तगड़े 

रोज़गार रुक गया, आ लगी नौबत फ़ाक़ों की

 जिसमें बच्चे पढ़ते थे, वह बैठक सील हुई


बदचलनी में धरे गए हैं दर्जी- पनवाड़ी 

ब्राउन शुगर बेधड़क बेचे अंधा गुनताड़ी 

पुलिस माँगती हफ्ता, नेता लगा उगाही में 

शांति न होगी भंग, किसी पर कहाँ दलील हुई


बड़े दिनों में हत्या के नोटिस तामील हुए 

बच्चे-बूढ़े, मर्द-औरतें, सभी ज़लील हुए 

बरसों चली जाँच को जाने किसने लीक किया 

बीती आधी सदी, कोर्ट में पुनः अपील हुई


5......हाथों से निकली जाती बाज़ी है


जागो रे ! हाथों से निकली जाती बाज़ी है

हर बेटे को अपने पापा से नाराज़ी है


जिसको देखो रोना रोता है महँगाई का 

पर सबका खर्चा सुन्दरता पर चौथाई का 

सबकी चिंता बना प्रदूषण है लेकिन फिर भी 

त्योहारों पर खूब फूटती अतिशबाज़ी है


महानगर में चौबीसों घंटे चलते होटल 

आमदनी से ज़्यादा घर के खर्चे का टोटल 

कपड़ों या चरित्र दोनों की रही न गारंटी 

दो दिन पहले कटी हुई सब्जी भी ताज़ी है


हुआ कमाई का धंधा है अब बीमारी भी 

कुर्सी जैसी अब बिकती है रिश्तेदारी भी

 राजनीति की तरह सभी के पास मुखौटे हैं 

 हँसकर ‘हाय-हलो' करना भी अब अल्फ़ाज़ी है


6.......बिना तेल के कब चलती है


बिना तेल के कब चलती है गाड़ी भी सरकार


दो थानों की सीमाओं में फूल रही है लाश 

जब तक हुई काम्बिंग तब तक दूर गए बदमाश

 रपट लिखाने से डरता है अब तो चौकीदार


जब तक ढूँढे जाते अफ़सर, दफ्तर और वकील

 दीवारों पर कोर्ट कराता नोटिस की तामील 

जब मिलती तारीख़, दरोगा हो जाता बीमार


बिकता मंगलसूत्र, कलाई के कंगन, पाज़ेब

हर दिन भरती ही जाती है मुंशी जी की जेब 

सीट मलाई वाली पाते मंत्री जी हर बार


7.......किसे पता है


किसे पता है क्यों, कब देगा कंधा कौन किसे


बदल रहे हैं नई सदी में सब रिश्ते-नाते 

राम-राम बंदगी न होती अब आते-जाते 

अर्थ-स्वार्थ की चक्की में सारे संबंध पिसे


कहने-सुनने की बातें आपस में बंद हुईं 

स्वर बहके, मर्यादा की कंदीलें मंद हुईं 

सहमे कौतूहल लज्जा के जर्जर वस्त्र चिसे


अपनेपन का पानी आँखों से भी उतर गया 

अहंकार का चूहा मुस्कानें तक कुतर गया 

कतरन से घर भरे, ढूँढती ममता उसे-इसे


✍️ डॉ अजय अनुपम

विश्रान्ति 47, श्रीराम विहार, कचहरी मुरादाबाद-244001 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन : 9761302577

:::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन 9456687822