कोरोना काल में
हमारे ठाठ ही ठाठ थे
किसी न किसी
आभासी पटल पर
आएदिन हो रहे
काव्य पाठ थे
याद नही उनको
कितने लोग सुनते थे
लेकिन हर
काव्य पाठ के बाद
हमको डिजिटल
सर्टिफिकेट मिलते थे
हम उनको
अपने पैसों से प्रिंट करा
महंगे से महंगे
फ्रेम में जड़वाते थे
फिर उनको
अपने घर में सजाते थे
लेकिन
अधिक नही चल पाया
आत्म प्रशंसा का जुनून
इसने कर डाला
हमारी सारी बचत का खून
इतना ही नहीं
इसने हमारे हर कमरे को
हर दीवार को,हर कौने को
भर दिया
और हमको
हमारे ही घर से
बेघर कर दिया
✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
आदर्श कॉलोनी रोड
मुरादाबाद 244001
M 9837189600
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-10-2022) को "गयी बुराई हार" (चर्चा अंक-4575) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार आपका ।
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