(1)
मन का केवल भेद चाहिए
षड्यंत्रों की कमी नहीं है
चौसर पर हैं हम सब यारों
शकुनि पासा फेंक रहा है
कह द्रोपदी लाज की मारी
कलियुग आंखें सेंक रहा है
कहे क्या मन का दुर्योधन
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।
दूं क्या परिचय तुमको
क्या मैं इतिहास सुनाऊं
नाम, पता, आयु, शिक्षा
संप्रति की आस जगाऊं
पड़े हैं सांसों पर ताले
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।
इस बस्ती में अंगारों की
निंदा, छल, कपट खड़े हैं
आग, आग है इस सीने में
तन कर सभी तन खड़े हैं
रक्त सभी के खौल रहे हैं
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।।
(2)
कैसे कहें घनघोर तम है
सुनें व्यंजना मन है पल है
कौंध रहीं जो बिजली सारी
गरजा, बरसा, बिखरा जल है।
प्रतिध्वनि में ये गूंज किसकी
देख,भर रहा है कौन सिसकी
थाल आरती का लाई बदरी
फिर भी यहाँ उथल पुथल है।
बजती घण्टी, नाद शँख का
अंग अंग प्रतिदान अंक का
कह रही क्यों चारों दिशाएं
रिक्त आचमन, तल ही तल है।।
लबों पर सजी है अर्चना
तोड़ दी हैं सारी वर्जना
देख रहा यूँ हरि भी नभ से
धरती पर तो कल ही कल है।।
कोलाहल में फिर क्यों कौंधे
बिजलियाँ यहाँ मन की तन की
सबकी अपनी, यही व्यथा है
प्यासी धरती, नयन सजल है।।
(3)
मत पूछो किस तरह जिया हूं ।
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
इस दीपक के दस दीवाने
सबकी चाहत ओ’ उलाहने
जर्जर काया, पास न माया
कैसे कह दे धूप न साया
घर कहता है नई कहानी
बूढ़ी आंखें, सुता सयानी
मत पूछो किस तरह जिया हूं
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
मेरे राज़ हवा ही जाने
मेरे काज दवा पहचाने
नापी धरती, देखे सपने
उखड़ी सांसें, रूठे अपने
अब पैरों पर जगत खड़ा है
देखो तो, बीमार पड़ा है
मत पूछो किस तरह जिया हूं
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
गंगा मेरे तट पर आई
देख मुझे, रोई बलखाई
बोली-बोली हे ! गंगाधर
उलझे-उलझे क्यों ये अक्षर
मुझसे ले तू छीन रवानी
जीवन तो है बहता पानी
मत पूछो किस तरह जिया हूं।
कदम-कदम पर गरल पिया हूं।।
(4)
क्या कर लेगा कोई तुम्हारा, अड़े रहो
आकाशी बूँदों का, अस्तित्व नहीं होता
रात रात भर, जाग जाग कर
नयन क्यों खोवै
पल दो पल की नींद तुम्हारी
सपन क्यों बोवै
लेनी है यदि साँस धरा पर, अड़े रहो
रातों में सूरज का, तेजत्व नहीं होता।
जीती तुमने जंग हजारों
अपने कौशल से
अब क्यों हारा थका बैठा है
भीगे आँचल से
यही मिली है सीख हमें तो, डटे रहो
रण में कभी भीरु का, वीरत्व नहीं होता
छोड़ भी दे तू अब यह कहना
प्रभु की इच्छा
क्या गीता क्या रामायण, बस
मन की इच्छा
क्या कर लेगा काल तुम्हारा, खड़े रहो
आकाशी बूँदों का, सतीत्व नहीं होता।।
(5)
स्वर लपेटे व्यंजना के, गीत नहीं भाते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते
लेकर नागफनियां हमने, पीर बहुत गाई
गए जहां भी हम बंजारे, नीर बहुत पाई
उदासी के द्वार सजे हैं, मीत नहीं आते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।
आंसू भूले नैन की भाषा, कैसी बदरी है
चादर खींचे लाज-धर्म, कैसी गठरी है
मर्यादा के जंगल में अब, रीत नहीं बातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।.
लघु बहुत है तेरा-मेरा, नाता दुनिया का
भूल गये सब छंद यारा, गाना मुनिया का
गर्म-गर्म हैं सांसे अपनी, शीत नहीं रातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।।
(6)
अंकपत्र सा है यह जीवन
अंक सभी तो तोल रहे हैं
यहीं कमाया यहीं गंवाया
कोष सभी के बोल रहे हैं।
कॉपी में जीरो जब आया
ठिठका माथा, मन घबराया
अम्मा का था दूध बताशा
फिर क्या था, तू देख तमाशा
बनें यहीं जीरो से हीरो
पर अब कुछ भी याद नहीं है
जयति जयति बोल रहे हैं।।
अंकों की सब माया जननी
धन दौलत वो और चवन्नी
दो आने के दही बड़े थे
हलवा पूरी सभी पड़े थे
अब कार्ड में जीवन सारा
क्रेडिट क्रेडिट खोल रहे हैं।
अंक सभी अंकों से रूठा
घर का खाना, रूखा रूखा
इनकम सबकी बड़ी बड़ी है
फिर भी मुश्किल आन पड़ी है
आओ अपनी उम्र लगाएँ
थोड़ा तो हिसाब लगाएँ
रहा पहाड़ा सौ का जीवन
सब अपने में डोल रहे हैं।।
(7)
फट गया लो मेघ सावन
आ गया लो मेघ आंगन
कह रही चारों दिशाएं
यह कभी टिकता नहीं है
रूपसी तो रूप की है
यह कली तो धूप सी है
आज है पर कल नहीं है
कल भी एक पल नहीं है
पकड़े रहना आशाएं
वक़्त फिर मिलता नहीं है
बरसेगा इक दिन सावन
बोलेगा तुझको साजन
बूँद का इतिहास मन है
सर सर सर बहता तन है
भीगी भीगी अलकाएँ
जल वहाँ रुकता नहीं है।
देख ले तू चाँद यारा
मेघ में भी और प्यारा
यात्रा रुकती नहीं है
मात्रा गिनती नहीं है
तोड़ दे तू वर्जनाएं
मन कभी मरता नहीं है।।
(8)
कभी कभी तो आया कर
कभी कभी तो जाया कर
कहती विपदा, रात गई
नग़मे अपने गाया कर।।
अपने में ही मस्त रहा
सपने में ही त्रस्त रहा
दाना पानी, घर दफ्तर
जीवनभर यूँ व्यस्त रहा।।
खुद को भी समझाया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
कुछ पाना ,कुछ खोना क्या
समय समय को रोना क्या
रात कहे, तू सो जा री
तारों का फिर जगना क्या
जी को भी बहलाया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
छोड़ उदासी आगे बढ़
अपने हाथों क़िस्मत गढ़
जैसे रवि लिखे कहानी
ढूंढे शशि अमर जवानी
सागर सा लहराया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
(9)
जब मन्दिर में दीप कोई, आशा का भरता है
तेल, बाती, घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
थाल लेकर चले आस्था, वर्जित तन अभिमान
मैं बन जाऊं दीप शिखा, ज्योति ज्योति का दान
एक यही तो दीपक अपना, रोज मरता है
तेल बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
शुक्ल कृष्ण पक्ष मेरे द्वारे अतिथि बन ठहरे
उजले उजले वसन थे उनके, घाव बहुत गहरे
कौन समझाए इस दीप को, रोज बिखरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
अर्चना के जंगल में, शंख ध्वनि कैसी
मोर पंख ले नज़र उतारें, ग्रह दशा कैसी
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का, बाजार संवरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
(10)
लिख लेते हैं थोड़ा थोड़ा
कह लेते हैं थोड़ा थोड़ा
मत मानो तुम हमको कुछ भी
जी लेते हैं थोड़ा थोड़ा।।
दीप शिखा सी जले जिंदगी
खोने कभी और पाने को
बाहर बाहर करे उजाला
अंधियारा सब पी जाने को
मत मानो तुम उसको कुछ भी
जल लेते हैं थोड़ा थोड़ा
बस्ती बस्ती है शब्दों की
पढ़ी इबारत, मंजिल देखी
कुछ अंगारी, कहीं उदासी
आते जाते नस्लें देखीं
मत मानो तुम उनका कहना
पढ़ लेते हैं थोड़ा थोड़ा ।।
अभी वक्त है, थोड़ा सुन लो
अभी वक्त है, थोड़ा बुन लो
पल दो पल की प्राण प्रतिष्ठा
चली चांदनी, चंदा रूठा
मत मानो तुम इसको गहना
सज लेते हैं थोड़ा-थोड़ा ।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
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