ज़हालत इस क़दर भर दी गई इन नामाकूलों में।। हर एक के साथ ग़द्दारी सीखा दी है उसूलों में।।
न अपनी कौम के ही हो सके न देश दुनिया के।
खुद ही दीमक लगाते घूमते मज़हब की चूलों में।।
******
पत्थर पूजने वाले ही पत्थर खाएँ, आखिर क्यों?
जहरीले सापों से रिश्ता हम निभाएँ, आखिर क्यों?
फनों से ज़हर की थैली निकालो तोड़ डालो दाँत।
तुम्हारे पाले सांपों को हम गिनाएँ, आखिर क्यों?
✍️ संजीव आकांक्षी
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
- ------------------------
आप जानते हैं ,
मैं, गीत नहीं लिखता ।
सुख कब आते हैं ;
पीड़ा के आंगन में ।
रहा अकेला मैं ,
अपनों के कानन में ।
मेरा पका घाव ,
फिर भी नहीं रिसता ।।
छोटे से घर में ,
ईर्ष्या की दीवारें ।
बाहर से अच्छा ,
दिलों में दरारें ।
भोला मन है ये,
सदा रहा दबता ।।
विश्वासों पर ही तो,
दिन कम हो जाता ।
निजी आस्थाओं में ,
मन कहीं खो जाता।
भोर से भी अपना,
भ्रम नहीं मिटता ।।
पक्षी करते कलरव,
अच्छा सा लगता है।
सांझ ढले जब-जब,
भीतर डर लगता है।
करे क्या मानव,
ईमान यहां बिकता ।।
आप जानते हैं,
मैं, गीत नहीं लिखता ।।
✍️ अशोक विश्नोई
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------
आँसू में डूबा हुआ है जिसका संगीत
कैसे मैं पूरा करूँ जीवन का यह गीत
छोटी सी यह बाँसुरी राधा की है प्रान
प्रभु अधरों से लग गई भूली अपनी तान
मिट जाने से ही मिली सात सुरों की जीत
दुख बचपन से साथ है सुख तो है मेहमान
मोल न जाने हंसी का दुख से जो अनजान
अपनी तो है दर्द से जनम जनम की प्रीत
कदम कदम पर ठोकरें खाता है इंसान
गिरके भी संभले न जो वो मूरख नादान
शोलों को देता हवा यह जग की है रीत
क़िस्मत से लड़ना नहीं होता है आसान
आसमान छू लें कदम बस इतना अरमान
सपनों में ही हो गई लो सपनों की जीत
✍️ डॉ पूनम बंसल
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
---------------------------
हाथों में हैं आरियाँ,बातें हैं रसदार।
पीपल बोला आम से,देख मनुज व्यवहार।।
सच की गठरी बांध कर,उठे गिरे सौं बार।
कुछ कागज की नांव भी,पहुंच गईं उस पार।।
तुलना का प्रारंभ है,अपनेपन का अंत।
खो जाता आनंद तब,पीड़ा मिले अनंत।।
रिश्ते अपने हो गए,इसीलिए दो फाड़।
सच था मेरे साथ में,उनके पास जुगाड़।।
गिरगिट के रंग देखकर,कैसे हों हम दंग।
रंग बदलते मिल गए,हमको कई भुजंग।।
देख-देखकर रात दिन,फँसी गले में जान।
हिन्दुस्तानी सूरतें,मन हैं पाकिस्तान।।
पापी रावण कंस या,दुर्योधन बदमाश।
अहंकार की एक गति,होती मात्र विनाश।।
किस दुश्मन ने हैं भरे,यार तुम्हारे कान।
ऐसा क्यों लगने लगा,नहीं जान पहचान।।
चित्रकार ने भाग्य से,ऐसे हारी जंग।
सुंदर बनते चित्र पर,बिखर गए सब रंग।।
✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्
कुरकावली , सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
मो.+91 97190 59703
-----------------------------
लेकर फिर हाथ में वो मशालें निकल पड़े हैं
बेकुसूरों के घर वो जलाने निकल पड़े हैं
यह सोच कर उदास हैं चौराहों पर लगे बुत
हमारे शहर में वो लहू बहाने निकल पड़े हैं
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
Sahityikmoradabad.blogspot.com
------------------------------
बहुत दूर हैं पिता
किन्तु फिर भी हैं
मन के पास
पथरीले पथ पर चलना
मन्ज़िल को पा लेना
कैसे मुमकिन होता
क़द को ऊँचाई देना
याद पिता की
जगा रही है
सपनों में विश्वास
नया हौंसला हर पल हर दिन
देती रहती हैं
जीवन की हर मुश्किल का हल
देती रहती हैं
उनकी सीखें
क़दम-क़दम पर
भरतीं नया उजास
कभी मुँडेरों पर, छत पर
आँगन में आती थी
सखा सरीखी गौरैया
सँग-सँग बतियाती थी
जब तक पिता रहे
तब तक ही
घर में रही मिठास
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल-9412805981
-------------------------
तुमने नहीं किया तो किसी ने नहीं किया ।
कुछ दोस्तों ने हमसे किनारा नहीं किया ।।
इस हाथ ले के उसने उसी हाथ दे दिया ।
जब भी दुआएं मांगीं वो मक़बूल हो गई ।
मेरे खुदा ने मुझसे किनारा नहीं किया ।।
दुश्मन से मिल गए जब मोहब्बत के साथ हम ।
फिर दुश्मनों ने हमसे किनारा नहीं किया ।।
जब दोस्तों ने फर्ज निभाया तो रो पड़े ।
उन दोस्तों से हमने किनारा नहीं किया ।।
खुशबू की तरह गुल का निभाते रहे हैं साथ ।
साए से उनके हमने किनारा नहीं किया ।।
दुश्मन सा जब सुलूक किया हमसफर ने फिर ।
हमने भी दुश्मनी से किनारा नहीं किया ।।
गमगीन हैं चमन के मैं हालात देखकर ।
फिर भी चमन से हमने किनारा नहीं किया ।।
मुजाहिद ने फिर जहां को वफा की दिलायी याद ।
उसके अहद से हमने किनारा नहीं किया ।।
✍️ मुजाहिद चौधरी
हसनपुर अमरोहा
उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------------
सिर पर
छांव पिता की,
कच्ची दीवारों पर छप्पर..
आंधी-बारिश
खुद पर झेले
हवा थपेड़े रोके ,
जर्जर तन
भी ढाल बने
कितने मौके-बेमौके ,
रहते समय
जान नहीं पाते
क्यों हम सब ये अक्सर,..
सर पर छांव पिता की ,,...
जितनी
दुनियादारी जो भी
नजर समझ पाती है,
वही दृष्टि
अनमोल पिता के
साए संग आती है ,
जिससे, दुष्कर
जीवन पथ पर
नहीं बैठते थककर....
सिर पर छांव पिता की...
माँ का आंचल
संस्कार भर
प्यार दुलार लुटाता,
पिता
परिस्थिति की
विसात पर
चलना हमें सिखाता,
करता सतत प्रयास
कि बेटा होवे उस से बढ़कर,..
सिर पर
छांव पिता की
कच्ची दीवारों पर छप्पर...
✍️ मनोज'मनु'
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
----------------------------
ॲंधियारे अब ऐंठना, है बिल्कुल बेकार।
झिलमिल दीपक फिर गया, तेरी मूॅंछ उतार।।
मन की ऑंखें खोल कर, देख सके तो देख।
कोई है जो रच रहा, कर्मों के अभिलेख।।
कर लेने को हैं बहुत, बातें मेरे पास।
ओ दीवारो तुम कभी, होना नहीं उदास।।
बेबस भीखू को मिली, कैसी यह सौग़ात।
दीवारों से कर रहा, अपने मन की बात।।
चन्दा बिन्दी भाल की, तारे नौलख हार।
रजनी करके आ गयी, फिर झिलमिल शृंगार।।
छुरी सियासत से कहे, चिन्ता का क्या काम।
मुझे दबाकर काॅंख में, जपती जा हरिनाम।
गुमसुम बैठी रह गयी, बरखा-गीत बहार।
मेघा गप्पें मार कर, फिर से हुए फ़रार।।
आये जब अवसान पर, श्वासों का यह साथ।
तब भी लेखनरत मिलें, हे प्रभु मेरे हाथ।।
की पंछी ने प्रेम से, जब जगने की बात।
बोले मेंढक कूप के, अभी बहुत है रात।।
✍️ राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------
धरने पर बैठे किसानों के तंबुओं की तरह,
नहीं होती हैं कविताएं,
कि सरकार की सख्ती और हठधर्मिता के सामने,
यूं ही उखड़ जाएं।
या फिर तूफानों में उजड़ जाएं,
जंगलों की तरह,
या जल जाएं,
घास-फूस के छप्परों सी,
घुल जाएं जहरीली हवा में,
या दब जाएं ऑफिस की फाइलों सी।
मिल जाए जैसे दूध में पानी,
और कोहरे में छिप जाए,
सूरज की तरह,
कविता कविता है,
जो कभी नहीं मरती,
दिलों पर करती है राज,
एक रानी की तरह।
कविता की कीमत,
कीमती आदमी ही जानता है,
उस की आन-बान-शान को पहचानता है,
संस्कृति से इसका अटूट नाता है,
कविता किसी सभ्य समाज की निर्माता है।
कविता को विचारों का भूखंड चाहिए,
भाव रूपी ईटों की मजबूती चाहिए,
हो समस्या की सरियों का जाल,
कुंठा को तोड़ने वाली,
ऐसी रेती चाहिए।
फिर लगाकर सहानुभूति का सीमेंट,
मिटाया जाता है,
खुरदुरेपन का एहसास,
डाल दी जाती है, संस्कारों की छत,
और पहना दिया जाता है प्यारा-सा लिबास।
करके दुनिया का श्रंगार फिर,
दीनता का समाधान बन जाती है कविता,
और पहन संस्कृति का परिधान,
हर समस्या का निदान बन जाती है कविता।
✍️ अतुल कुमार शर्मा
सम्भल, उत्तर प्रदेश, भारत
-----------------------------------
राधा! मुरली श्याम की, कितनी हुई बड़भागी।
देख विभोर श्याम को, बोली ललिता अनुरागी।।
तुम तो राधा पुरइन पात, कियो कृष्ण रस गात।
अधरन पे वो रहत सदा, हरि छिटकें नही हाथ।।
तब ललिता से राधा कहें,दृग कंचन नीर बहाय।
ये माटी की गगरिया, अधजल छलकत जाय।।
हम अबला भोरी थोरी, सो सहज श्याम सुहाय।
जब हरि की दृष्टि पड़े,तो बंशी सौतन छुट जाय।।
✍️ दुष्यंत 'बाबा'
पुलिस लाइन, मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत
---------------------------------
मेघा आओ मेघा आओ
झोली में पानी भर लाओ
सूख रहे सब ताल तलैया
रौनक उनमें फिर दे जाओ ।
सड़क किनारे धूल उड़ी है
अाँगन में भी तपन बढ़ी है
हुआ दूभर बाहर निकलना
गरमी की बस मार पड़ी है ।
आकर अब तुम जल बरसाओ
धरती माँ को मत तरसाओ
बूँद बूँद भरकर कण कण में
रिमझिम रिमझिम मन हरसाओ ।
✍️ डॉ रीता सिंह
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
--------------------------
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख सब, इस भारत की आन।
आया ऐसा दौर अब, भूल गए पहचान।।
गए भूल पहचान हैं ,हम भारत की शान।
आया ऐसा दौर है, युद्ध लिया है ठान।।
बात धर्म की छेड़ कर, व्यर्थ करे अभिमान ।
आया ऐसा दौर क्यों, करते हैं अपमान।
मिल जुल कर सब एक हो ,बने हिन्द की जान।
आया ऐसा दौर क्यों,टकराओं की ठान।।
आया ऐसा दौर क्यों,बिखर रहे सब भ्रात।
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख सब, रखते एक बिसात।।
✍️ इन्दु रानी, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
---------------------------------
नफरत दिलों के बीच बढाती हैं सरहदें।
इंसान को हैवान बनाती हैं सरहदें।।
मालिक ने तो बख्शी थी कितनी हसीं दुनिया।
सीने पर इसके दाग लगाती हैं सरहदें।।
मालिक के बन्दों में नहीं है फ़र्क़ जरा सा।
है एक सा लहू और है एक सी काया।।
बंदों से खून बन्दों का कराती हैं सरहदें।
इन्सान को शैतान बनाती हैं सरहदें। ।
मालिक ने न बाँटा हवा पानी और बसेरा।
दी एक सी ही रात बख्शा एक ही सवेरा।।
हर रात में एक ख़ौफ़ बढ़ाती हैं सरहदें।
इंसान को शैतान बनाती हैं सरहदें।।
लेकिन भला क्या सरहदें कर देंगी दिल जुदा।
उसका बुरा क्या होगा जिसके दिल है प्यार का।।
कैसे जुदा करेंगी उनके दिल को सरहदें।
जो मानते नही हैं क्या होती हैं सरहदें।।
✍️ नृपेंद्र शर्मा
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------------
मेरे विरोधी ही,
मेरे अच्छे “मित्र” हैं..
और मुझसे सच्चा प्यार करते हैं,
जब अपने साथ छोड़ जाते हैं
जब अपने हमसे रूठ जाते हैं
उस समय की वेदना में,
शान्त जीव चेतना में
हंसकर अपने होने का इजहार करते हैं
मेरे विरोधी ही मेरे अपने हैं
और मुझे सदैव याद करते हैं
जब हार होती है,
और मैं टूट जाता हूँ
अकेला तन्हा, अपनी “किस्मत’ से रूठ जाता हूँ
तब मेरे विरोधी मुझे चिढ़ाते हैं
तब मेरे विरोधी मुझे उकसाते हैं
और मेरे बिखरे हुए
“अरमान” को पुनः जगाते हैं
मेरे विरोधी ही मेरी प्रेरणा हैं
और मुझ पर पक्का एतबार करते हैं
“अपनों” का आना, सिर्फ हवा का झोंका है..
“चिता” पर छोड़ आते समय
कितनों ने रोका है,
जो मेरे सुख में कम
और दुःख में ज्यादा याद करते हैं..
मेरे विरोधी ही हैं
जो मेरी हर पल बात करते हैं
मेरे विरोधी ही हैं
जो मेरे शरीर में , तेज रक्त प्रवाह कर
आसीम शक्ति का संचार करते हैं
✍️ प्रशान्त मिश्र
रामगंगा विहार,
मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------
क्यों फ़र्ज़-ओ-वाजीबात का मतलब नही पता ।
छोटों से इल्तिफ़ात का मतलब नही पता ।
सबका लहू सफेद है घर - घर हैं रंजिशें,
रिश्तों का मुआमलात का मतलब नही पता।
ठोकर में बाप दादा की दस्तार है पड़ी,
जन्नत की मालियात का मतलब नही पता।
बैठे बिठाए बाप की दौलत जिसे मिली,
उसको ही दाल भात का मतलब नही पता ।
बढ़के गले 'शुभम' ने सभी को लगा लिया,
उसको तो जात पात का मतलब नहीं पता।
✍️शुभम कश्यप 'शुभम'
मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश, भारत
एक से एक शानदार रचनाओं के गुलदस्ते सभी के कार्यक्रम को हमने ब्लॉग के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय सर प्रदान करने के लिए आभार आदरणीय डॉ मनोज रस्तोगी साहब
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏🙏🙏
हटाएं