साज़िश में बैठी है साज़िश
साज़िश गहरी है।
और हमारी भलमनसाहत
गूंगी बहरी है।।
आगबबूला हर कोशिश का
पता नहीं चलता।
तार गया सौहार्द हमें जो
आज नहीं फलता।।
घर में आकर समरसता के
माचिस ठहरी है।
मकसद सारे लगे ताक में
करते निगरानी।
शुभम् शिवम् पर जैसे भी हो
फिर जाए पानी।।
रोग निरंतर बढ़ता जाता
मौसम ज़हरी है।
हुई अराजक दुष्ट हवाएँ
उधम मचाती हैं।
महक रहे इस चन्दन वन में
आग लगाती हैं।।
और दखल देने में लगती
विफल कचहरी है।
✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड, मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
संपर्क:9319086769
बहुत ही सुंदर रचना
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