शुक्रवार, 24 जून 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार (वर्तमान में जकार्ता, इंडोनेशिया निवासी ) वैशाली रस्तोगी की रचना ----मैं हूँ ना


अकेली पड़ गई 

एक बार एकांत में 

डूब गई गहरे में

कभी कुछ बनाने में

कहीं कुछ मिटाने में

विचारों की गंगा में

कभी डूबती,कभी उतर जाती 

खो जाती अपने हाथों,

कभी पा जाती प्रवासी

तभी कर जाती आदतन प्रवास

कुछ नहीं आया होगा रास 

कान के पास,कान में

किसी ने फुसफुसाया  

मैं हूं ना तेरे पास 

ऐसा ही आभास

जैसे है कोई मेरे पास,बहुत खास

सहसा,तंद्रा मेरी टूट गई 

जकड़न से छूट गई 

जगती नींद से जाग गई

मैं हूं ना,मैं हूं ना की 

अपार ताकत को पहचान गई

फिर मन की बगिया महक उठी 

झूम उठी खुश होकर 

हर कली खिल उठी 

अपने रास्ते चल पड़ी 

रुकी पड़ी,मेरी घड़ी

फिर चल पड़ी,फिर चल पड़ी। 

✍️वैशाली रस्तौगी

    जकार्ता (इंडोनेशिया)

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-06-2022) को चर्चा मंच     "गुटबन्दी के मन्त्र"   (चर्चा अंक-4471)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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  2. दो का साथ मिलता है रास्ता खुशगवार हो उठता है
    बहुत अच्छी कविता है रस्तोगी जी की

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