शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (6).... दादा! एक्सटेंपोर साहित्यकार थे


 सन् 1970 जुलाई में केजीके पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में मैंने एडमिशन ले लिया। उन दिनों डिग्री कॉलेज में पढ़ने के गौरव और वैभव के अपने अलग ही ठाट-बाट थे। मैं अप-टू-डेट होकर इसे जीने के लिए हर दृष्टि से तैयार था।फूफा जी के पास रहकर जो चाचा जी सीडीओ ऑफिस में नौकरी करते थे,उनका सन् 1968 की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में  विवाह हुआ था। बारात में पहनने के लिए उन्होंने मेरे लिए भी एक जोड़ी पैंट और शर्ट बनवाए थे। तब से ही मेरे पहनावे में पैंट-शर्ट दाखिल हो चुके थे। फूफा जी बहुत टीप-टॉप रहने वाले व्यक्ति थे। खद्दर के धोती कुर्ता एक दम सफेद बुर्राक प्रेस हुए ही पहनते थे। उस समय लोहे की छोटी प्रेस उनके घर पर ही थी। मैंने प्रेस करना और प्रेस हुए कपड़े पहनना सीख लिया था। अब मैं डिग्री कॉलेज का विद्यार्थी था न।

          फूफा जी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उसी कॉलेज में पहूँच गया तो उन्हें देखने की इच्छा और भी बलवती हो गई।उसका एक कारण यह भी था, जिसकी चर्चा करना बहुत आवश्यक है।फूफा जी ने मुझे और फुफेरे भाई मुन्नू को हसनपुर तहसील के गंगेश्वरी गाँव एक पर्चा देकर कैलाश देव जी के पास भेजा। मैं और मुन्नू सुबह ही पहली गाड़ी से निकलने के लिए स्टेशन पहुँच लिए।जब हम स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी सीटी दे रही थी। चलने को एकदम तैयार थी।हम टिकिट बिना लिए भाग कर गाड़ी में चढ़ लिए। हमें गजरौला उतरना था। गाड़ी गजरौला जाकर रुकी और हम उतर कर बाहर निकलने वाले गेट की तरफ बढ़ लिए। यद्यपि लोग दाएँ-बाँए से भी अपने जाने पहचाने निकासों से भी निकल रहे थे, पर हमें इतनी अक्ल नहीं थी। हम निकासी गेट की ओर ही बढ़ते गए।गेट पर मुस्तैद टी.सी. महोदय ने हमसे पूछा लिया कि टिकिट?। टिकिट होता तो हम कुछ बोलते। टिकिट था नहीं तो हम कुछ बोले भी नहीं।टी.सी. महोदय ने हमें अपने बराबर में एक ओर को खड़ा कर लिया। टिकिट कलेक्शन का कार्य पूरा करने पर वह हमें अपने कमरे में ले गए।वहाँ उन्होंने हमसे प्रश्न किए। हमने उनके प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिए। क्या करते हो के उत्तर में हमने कहा कि हम विद्यार्थी हैं। उन्होंने तपाक से पूछा - ' कहाँ पढ़ते हो '? मैंने फटाक से कहा कि केजीके कॉलेज में।उनका प्रश्न था - ' किस कक्षा में?' मैंने कह दिया कि बी.ए.फर्स्ट में।उन्होंने पूछ लिया कि हिन्दी कौन पढ़ाता है? मैंने कहा - ' प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी।' इस उत्तर पर वह रुक गए। आगे अन्य कोई  प्रश्न नहीं किया और कहा - 'आगे से कभी बिना टिकिट मत चलना। तुम्हें इसलिए छोड़े देता हूँ कि मैं भी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का ही विद्यार्थी हूँ।' जान बची और लाखों पाए।हम झट से निकल बाहर को आए। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की ऐसी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान,जिसने हमें जेल जाने से बचवा दिया। इस घटना का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि उनका नाम मेरे हृदय में घर कर गया। मैं उनकी छवि को भी अपने हृदय में उतार कर बसाना चाहता था, इसलिए उनके दर्शन करने को उतावला था। एक दिन मित्र के इंगित करने पर कि वह हैं, प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी। मैंने दूर से ही उनके दर्शन कर लिए और इतने भर से ही मेरी मन मुराद पूरी हो गई। अब उनकी छवि ने भी मेरे हृदय में उतर कर घर कर लिया। इसके बाद से प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी मेरे हृदय से नहीं निकले। मैं उन्हें अपने भीतर लेकर जिया हूँ। उनके प्रति अपने इसी भाव के कारण मैंने अपनी  गीत कृति " गीतों के भी घर होते हैं " उनको  समर्पित करके अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। पर अभी तो उन्हें मात्र देखा भर था, उनसे परिचय शेष था और उनकी कक्षा में पढ़ना बाकी था।

        यह इच्छा भी तब पूरी होती दिखी जब अपनी कक्षा के टाइम-टेबल में हिन्दी साहित्य का पीरियड तीन दिन प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के नाम आवंटित दिखा। वह दिन भी आ ही गया,जब मैं प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की कक्षा में मैं खड़ा होकर अपना परिचय दे रहा था। परिचय में फूफाजी का नाम आने पर मेरा परिचय पूरा हो गया और उन्होंने कहा कि चन्द्र दत्त जी को मैं भली भाँति जानता हूँ।बैठ जाओ।पूरी कक्षा के सभी छात्रों का संक्षिप्त परिचय होने के बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने अपने एक ही घंटे में कक्षा नहीं छोड़ी अपितु दो घंटे तक क्लास ली।उनका पढ़ाना एकदम अलग तरह का था। जिसका उद्देश्य किताब पढ़ाना कतई नहीं था बल्कि यह पढ़ाना था कि हम विद्यार्थी अपने विषय को पढ़ना सीख जाएँ और उसे पढ़ना सीखकर दूसरों तक पहुँचाना सीख जाएँ। पढ़ाई के साथ मूल्यांकन के लिए जुड़ी परीक्षा शायद इसीलिए ही है। दुर्योग से उस वर्ष मैं कड़ी मेहनत करने पर भी बी.ए.पार्ट वन में फेल हो गया। पुनः बी.ए.पार्ट वन में एडमिशन ले लिया। अब तक  कॉलेज में मेरा नाम मुझे पढ़ाने वाले शिक्षकों तक इस रूप में भी पहुँचने लगा था कि मैं कविता करता हूँ। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के संज्ञान में भी यह बात आ गई। एक दिन उन्होंने मुझसे स्वयं कहा कि कविता लिखते हो,मेरे घर "अंतरा" की गोष्ठी में आया करो।

        यह प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का मेरे प्रति उनके 

भीतर उमड़ा अगाध स्नेह ही था जिसने मेरा "अंतरा" में जाने का संकोच खत्म कर दिया। "अंतरा" की गोष्ठी दूसरे और चौथे रविवार को प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के कटरा नाज़ स्थित घर पर ही होती थी। जो मेरा देखा-भाला था, फिर भी मैं सन् 1971 के अगस्त माह के दूसरे या चौथे सोमवार को गया था,यह तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, पर मैं हुल्लड़ मुरादाबादी जी के साथ गया था, क्योंकि तब तक मैं उनके संपर्क में आ चुका था। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर पहुँचकर मैंने उनके चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम किया तथा उनके बाद अन्य वरिष्ठों के चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन वहाँ पर सभी आगंतुक प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का अभिवादन "दादा" कहकर कर रहे थे। उस दिन मुझे पहली बार पता लगा कि प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी को सभी लोग दादा संबोधन से ही पुकारते हैं। यहाँ तक कि उनके बच्चे वंदना, गोपाल, गोविंद और आरती भी। गोष्ठी में मेरी रचना को भी सराहना मिली और मुझे विशेष लाभ यह हुआ कि उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में से अधिकतर से मेरा परिचय एक साथ ही हो गया। फिर "अंतरा" की गोष्ठी में मेरी उपस्थिति नियमित हो गई। गोष्ठी में सबसे पहले पहुँचना और सबसे बाद में आना। गोष्ठी दिवसों के इन दोनों अंतरालों में दादा को सुनकर लाभान्वित हो लेना मेरी आवश्यक दिनचर्या बन गई, जिससे मैं दादा को जी भरके सुन सकने का सौभाग्य पा सका। हर महीने के इन दो दिनों में ही मैंने उनसे वह सुना जो किसी ने नहीं सुना।

        उन दिनों "अंतरा" में नियमित आने वाले सदस्यों

में पं.दुर्गा दत्त त्रिपाठी,अंबालाल नागर,क़मर मुरादाबादी, गौहर उस्मानी पं.मदन मोहन व्यास, कैलाश चन्द्र 'अधीर' सुरेश दत्त शर्मा 'पथिक', बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी',मनोहर लाल वर्मा,शील कुमार 'शील', ललित मोहन भारद्वाज, हुल्लड़ मुरादाबादी, अजय अनुपम प्रमुख थे। गौहर उस्मानी साहब के बाद मंसूर उस्मानी भी "अंतरा" की गोष्ठियों में आते रहे हैं। मुरादाबाद के अन्य रचनाकार भी समय-समय पर "अंतरा"  से जुड़ते रहे हैं। प्रवेश मिलने पर मैं नवप्रवेशी भी नियमित आने लगा ही था और मुरादाबाद आने पर आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी भी "अंतरा" में नियमित आने लगे थे। मेरी याद में मुरादाबाद की साहित्यिक परंपरा में ऐसी उच्च कोटि का कालखंड आजतक कभी नहीं रहा। मैं उस कालखंड की छाया में लम्बे समय तक अपने रचना-कर्म में पलकर रचना-धर्म के साँचे में ढला हुआ व्यक्ति हूँ, जिसने सभी से बहुत कुछ सीखा है।

       दादा! उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही,साथ ही वह उच्च कोटि के वक्ता भी थे।जो भी विद्याार्थी उनसे पढ़े या जिन व्यक्तियों ने भी उन्हें सुना उन सब पर उनका उच्च कोटि का ज्ञान उच्च कोटि में ही पहुँचा।वह जिस बहुमुखी और बहुआयामी प्रतीभा वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे, उसके लिए विलक्षण शब्द भी अपनी भावाभिव्यक्ति में सटीक प्रतीत नहीं होता। वह हर विषय पर खूब बोलते थे।बड़ा जमकर बहुत ही सटीक बोलते थे। कितने ही समय तक निर्बाध बोलते रहने की विद्वता उनमें विद्यमान थी। सृजनशीलता भी उनमें भरपूर थी, पर वह उसे कागज़ पर उतारने में बेहद उदासीन थे। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक विचार अकाट्य होता था।वह तार्किक नहीं थे अपितु विषयों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक जानकार थे। दादा को मैंने जितना भी सुना,उससे मुझे लगता था कि दादा वर्तमान नामधारी साहित्यकारों में से किसी से भी उन्नीस नहीं हैं। वह आपनी साहित्यिक निधि कागज़ पर उतार कर संचित करने वाले साहित्यकार न होकर साहित्य को उस ही की भाषा में अपनी वाणी की मिठास से सुधीजन के हृदय में उतार देने वाले साहित्यकार थे।अपनी छोटी सी साहित्यिक समझ के आधार पर मैं यह कहने में कतई संकोच नहीं करूँगा और न ही लेश मात्र भी हिचकूँगा कि दादा 'एक्स्टेंपोर' साहित्यकार थे। यदि मुझे हिन्दी साहित्य की विशद व्याख्या का सुअवसर मिला होता तो  उस कालखंड में 'एक्सटेंपोर' अर्थात 'आशु साहित्य' की खोजबीन और छानबीन करके उस कालखंड को  "प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप युग " नाम देने के हर संभव प्रयास और अपने स्तर के सारे यत्न किए होते।

          मेरी इस भावना को इस आलेख की ये अंतिम पंक्तियाँ निश्चित ही पुष्ट करेंगी। दादा के अध्ययन काल के सहपाठियों की मंडली में डॉ. शम्भू नाथ सिंह, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, डॉ. विजय देव नारायण साही, केशव चन्द्र वर्मा आदि जैसी साहित्य की महान विभूतियाँ थी,जो उस समय अपने-अपने क्षेत्र की सिरमौर थीं। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी क्या नहीं हो सकते थे? इनमें से विजय देव नारायण साही के अतिरिक्त मैं समय-समय पर इन सभी से मिला हूँ और मेरी इन सभी से दादा को लेकर खूब चर्चा हुई है। उनसे हुई चर्चा में एक बात सभी ने प्रमुखता से कही - " हमारी मित्र मंडली में सर्वाधिक योग्य विद्यार्थी का नाम महेन्द्र प्रताप था। 

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड,मुरादाबाद- 244001

मोबाइल: 9319086769 

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मंगलवार, 27 अगस्त 2024

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का आत्मकथात्मक संस्मरण.... नारियल के खोल में छलांग मारती संवेदना


जुलाई का महीना था स्कूलों में पढ़ाई चालू हो गई थी.  मैं जिस कक्षा में था उसमें कामर्स के टीचर श्री के.के.गुप्ता जी बड़ी ही तल्लीनता से पढ़ा रहे थे. मैं सबसे आगे की सीट पर बैठा था.  मैं क्योंकि अन्य विद्यार्थियों के मुकाबले क़द में कुछ छोटा था इसलिए मुझे आगे की सीट मिली थी और ‘बाई चांस’  यह वह सीट थी जो टीचर के एक दम सामने की थी.  टीचर ज़रा सा हाथ बढ़ा दें तो उनका हाथ मेरे गाल पर झांपड़ के नाम से आसानी से अलंकृत हो सकता था.  गुप्ता जी  बहुत ही अच्छा पढ़ाते थे. पढ़ाते समय उनकी तल्लीनता किसी भी साधक से कम नही थी.  अचानक ही पढ़ाते-पढ़ाते उनकी तल्लीनता तब टूटी जब उनकी गहरी नज़र मुझ पर पड़ी और कुछ देर तक ठहरी रही . फिर  वे अचानक ही मुझ पर गुस्सा होते हुए और लगभग चीखने के स्वर में बोले ---‘कुंअर बहादुर, तुम बहुत गंदे कपडे़ पहनकर आये हो.  इतने बड़े हो गए हो, नवीं क्लास में हो, तुम्हें इतनी समझ नहीं है कि इतने गंदे कपडे़ पहनकर स्कूल नहीं आया जाता.’.... 

मैंने सजग होकर अपने कपड़ों की ओर देखा, सचमुच वे बहुत ही गंदे थे. मैं आपको बता नहीं सकता कि उस वक्त मैं अपने कपड़ों को देखकर कितना शर्मिंदा हुआ था.  गुप्ता जी ने मुझे मेरे कपड़ों को लेकर इतना डांटा, इतना डांटा कि मैं भीतर-भीतर रो उठा था. मेरी हिचकी बंध गई थी.... मुझे लगा कि मैं कक्षा में ही जोर से रो पडूंगा, अतः मैंने क्लास से बाहर जाना ही उचित समझा. मैं झट  से अपनी सीट से उठा और क्लास से बाहर चला गया. क्लास के सभी लड़कों ने मुझे जाते हुए देखा,  मेरा मुंह नीचे को लटका हुआ था और आँखें भीगी हुई थीं. श्री गुप्ता जी भी हक्के-बक्के से रह गए थे….. 

 अचानक पीछे की सीट से एक लड़का खड़ा हुआ और टीचर जी को संबोधित करते हुए बोला---‘गुरु जी, आपने कुंअर को डाटकर अच्छा नहीं किया. यह मेरा पक्का दोस्त है. हम लोग साथ-साथ ही स्कूल आते हैं और साथ-साथ ही घर लौटते हैं. बहुत मेल-जोल है हमारा ...  वह  कहता जा रहा था--‘गुरु जी, आपको नही पता कि कुंअर बिना माँ-बाप का लड़का है.  उसके पिता जी तब नही रहे थे जब ये दो महीने का था,  माँ तब नहीं रही थीं जब ये सात साल का था.  जीजी और जीजा जी के यहाँ तब आ गया था जब यह दो साल का था.  अब चार साल पहले इसकी बहन की भी मृत्यु हो गई. अब केवल यह और  जीजा जी ही साथ-साथ रहते हैं. घर में कोई महिला नहीं है. ये खुद ही खाना बनाता है. बहुत कठिनाई में रहकर मेहनत से पढ़ रहा है. आठवीं कक्षा  मिडिल स्कूल से पास की है और फर्स्ट डिवीजन पास हुआ है..... 

यह लंबा लड़का मेरा दोस्त बिजेंद्र ही था जिसकी झिझक खुली हुई थी. मैं बहुत संकोची था. वह श्री के.के.गुप्ता जी से कहता जा रहा था. –‘मास्टर जी इसके पास दो जोडी कपडे हैं. एक जोड़ी धोकर अगले दिन के लिए तैयार कर लेता है. अब कई दिनों से बारिश हो रही है तो दूसरी जोड़ी वाले कपडे सूखे नहीं थे. इसे स्वयं संकोच भी था किन्तु स्कूल का नागा भी तो नहीं करना चाहता था....

मेरा यह दोस्त मेरे बारे में सब कुछ सच ही बोल रहा था..... 


 सचमुच जब प्रथम श्रेणी में मिडिल पास कर लेने के बाद अपने शहर चंदौसी के मिडिल स्कूल को छोड़ना पड़ा था तो मैं बहुत दुखी  हुआ था.... मगर यह स्कूल तो मुझे छोड़ना ही था क्योंकि यह तो था ही आठवीं क्लास तक.  उन दिनों हमारे शहर चंदौसी में जिस हाई स्कूल का बहुत नाम था वह था  बारह्सैनी हाई स्कूल.  अब तो इसका नाम चंदौसी इंटर कालिज हो गया है.  जब हम पढ़ते थे तो यह दसवीं क्लास तक था  श्री एस आर अत्री प्रिंसिपल थे . अब बारहवीं क्लास तक है.  इस स्कूल की  पढाई और इसका रिजल्ट अन्य सभी स्कूलों के मुकाबले सबसे अच्छा रहता था.  मेरे जीजा जी श्री जंगबहादुर सक्सेना जी का मन था कि मेरा एडमीशन इसी स्कूल में हो.   उन दिनों इस स्कूल में नवीं कक्षा में एडमीशन मुश्किल से ही मिलता था.  क्योंकि इस स्कूल के छठी कक्षा से पढने वाले विद्यार्थी जब आठवीं से नवीं कक्षा में आते थे तो नवीं कक्षा की सब सीटें भरी होती थीं.  अतः दूसरे स्कूल के नए विद्यार्थियों को प्रवेश मिलने में कठिनाई होती थी.  हाँ, आठवीं कक्षा में यदि कुछ लड़के फेल हो जाते थे और उनको नवीं कक्षा में एडमिशन नहीं मिलता था तो जो उनकी जगह खाली हो जाती थी. उसी खाली जगह को दूसरे स्कूल के विद्यार्थियों का एडमिशन करके भर लिया जाता था.  उस साल आठवीँ कक्षा में कई लड़के फेल हो गए थे इसलिए मुझे और मेरे दोस्त बिजेंद्र को एडमिशन मिल गया.  बिजेंद्र और मेरा दोस्ताना मिडिल स्कूल से ही था.  मेरी और उसकी दोस्ती का मूल आधार हमारे अभाव ही थे.  उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसकी माँ बच्चों की परवरिश करने के लिए दूसरों के घरों में रोटी बनाकर अपना घर चलाती थीं.  मैं भी बिना माँ-बाप का लड़का था और जीजा जी द्वारा पालित पोषित था . बहरहाल मेरा और मेरे दोस्त बिजेंद्र का एडमिशन इस स्कूल में हो गया. ...

 उन दिनों नवीं कक्षा से ही. साइंस, आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता था. जो संपन्न घर के बच्चे होते थे वे साइंस साइड लेते थे क्योंकि उनके माता-पिता का लक्ष्य अपने बच्चे को डाक्टर बनाना होता था., जो बिलकुल सामान्य घरों के बच्चे होते थे वे आर्ट्स और कामर्स में से किसी एक का चुनाव करते थे.  उन दिनों गरीब बच्चों के संरक्षक अधिकतर अपने बच्चों को कामर्स दिलवाते थे.  उनका यह विश्वास था कि कामर्स पढ़कर उनका बच्चा कम से कम क्लर्क तो बन ही जाएगा.  रोटी खाने के लिए तो पैसे क्लर्की करने पर भी मिल ही जायेंगे.  वैसे  उन दिनों सामान्यतः  न तो बच्चे ही इतने सचेत थे और न उनके माता-पिता जोकि  बच्चे के भविष्य को देखकर उन्हें आगे पढने के लिए सही साइड का चुनाव कर सकें या करा सकें .  साइड का चुनाव बिना सोचे-समझे हुआ करता था. दोस्त ने साइंस ली तो दूसरे ने भी साइंस ले ली.  उन दिनों बच्चों की दोस्ती ही साइड के चुनाव करने का आधार थी.  हमारे साथ भी यही हुआ.  लोगों ने जीजा जी को सुझाया कि कुंवर को कामर्स दिलवा दो.  इस तरह मैंने कामर्स साइड का चुनाव किया तो मेरे दोस्त बिजेंद्र ने भी कामर्स का ही चुनाव किया.  इस स्कूल में नये-नये आये थे इसलिए न तो हमारी कक्षा में पढने वाले हमें ठीक से जानते थे और न ही हम उन्हें. इसी प्रकार यहाँ के टीचर्स के लिए भी मैं और मेरा दोस्त बिलकुल  ही नये थे.   हम क्या हैं, कैसे हैं हमारे टीचर्स को भी हमारे बारे में कोई अनुमान नहीं था....

 बचपन से ही मैं  कभी भी स्कूल जाने की नागा नहीं करता था.  जीजा जी का डर और अपना स्वभाव मुझे  स्कूल खींचकर ले ही जाता था.  आंधी-पानी-बरसात, ठण्ड-गर्मीं, धूप-घाम  इनमें से  कोई भी मेरे  स्कूल जाने के क्रम में बाधा नहीं बन सकता था..... हुआ यह कि चंदौसी में लगातार आठ दिन ऎसी बारिश हुई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. कई कच्चे मकान ढह गए थे. रास्तों में पानी भर गया था. लेकिन न तो हमारे स्कूल की छुट्टी हुई और न ही हमारे स्कूल जाने की. ...उन दिनों मुझे सफ़ेद कपड़ों को पहनने का शौक था.  दो सफ़ेद पायजामे और दो सफ़ेद कमीजें थीं मेरे पास.  उन दिनों बच्चों पर इतने ज्यादा कपडे होते भी नहीं थे.  बड़े घरों के बच्चों के पास भी दो-तीन जोडी कपड़ों से ज्यादा नहीं होते थे.... मैं स्कूल से लौटने के बाद कुए पर जाकर अपने ये कपडे धो लेता था, जब वे सूख जाते थे तो पीतल के लोटे में अंगारे डालकर मैं इन कपड़ों पर प्रेस करके अगले दिन स्कूल पहनकर जाने के लिए चारपाई पर रख देता था....

 मगर अबकी बार तो बरसात रुक ही नहीं रही थी.  धूप ने दर्शन देने ही बंद कर दिए थे. मैंने एक दिन कपडे धोये तो वे बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर टंगे हुए दो दिन तक टप टप आंसू बहाते रहे और अपने आँसुओं को सुखा ही नहीं पाए.  मेरी एक मजबूरी तो यह थी कि मुझे स्कूल जाना ही था और दूसरी मजबूरी यह  थी कि जो कपडे दो दिन से पहन रहा था उन्हीं को पहनकर स्कूल जाना पड़ रहा था... उमस भरी गरमी के कारण कमीज के कालर पर पसीने का ऐसा जमावड़ा था कि उस बेचारे शर्म के मारे को खुद के चेहरे पर लगी कालिख को मुंह छुपाने की भी जगह नहीं थी.  गोरी- चिट्टी कमीज पर बरसात की बूंदों के तथा चपल चप्पल के छींटों के ऐसे-ऐसे दाग़ लग गए थे कि कई सारे बादल धोबी बनकर उन्हें धोने की कोशिश करें तो भी वे टस से मस न हों.  दागों की यही छाप मेरे पायजामे पर भी पूरी तरह से पड गई थी.  मेरे पायजामे और कमीज की सफेदी ने काले-काले धब्बों और दागों के वे ज़ुल्म झेले थे कि बेचारे अपनी कहानी अपने मौन से ही प्रकट कर पा रहे थे.  वे कह रहे थे देखने वालो हमें  देखना है तो अभी देख लो, कल जब हम नही रहेंगे तो मत कहना कि हमने आपको अपना चेहरा नहीं दिखाया था.  अपना दर्द तुम से नहीं कहा था....

 मेरी इस व्यथा-कथा से मेरे कामर्स के टीचर अनभिज्ञ थे.  किन्तु जब मेरे दोस्त बिजेंद्र ने कक्षा में खड़े होकर मेरे जीवन के बारे में उन्हें बताया तो वे बड़े गम्भीर हो गए. चश्में से झांकती हुई आँखें खामोश हो गई थीं.  पलकों पर कुछ गीलापन और  होठों पर कुछ कम्पन-सा झलक कर शांत हो गया था.  उनके मन में कुछ चल रहा है,  यह तो महसूस हो रहा था किन्तु क्या चल रहा है यह समझ में नही आ रहा था.  वे एक मिनट को खड़े के खड़े रह गए और फिर तुरंत ही क्लास की छुट्टी करके बड़ी तेजी से अचानक ही क्लास से बाहर निकल गए. ....

 बाहर आकर वे मुझे खोजने लगे...  तेज क़दमों से चलकर वे मुझे कभी इधर और कभी उधर, कभी यहाँ और कभी वहां  खोजते  रहे.  उनकी आखें मुझे तलाश कर रही थीं.  मगर मैं उन्हें मिल ही  नहीं रहा था .. कक्षा के विद्यार्थी भी तितर-बितर हो गए थे, मेरा दोस्त बिजेंद्र भी मेरी खोज में निकल पड़ा था.  सभी ने देखा कि मेरे टीचर श्री गुप्ता जी बड़े बेचैन और व्यग्र दिख रहे हैं.   एक अजीब सी छटपटाहट थी उनमें.  उनकी हालत उस नए-नए भोले तीरंदाज़ जैसी हो रही थी जिसने तीर चलाया तो किसी टीले पर था और ग़लती से उसका तीर किसी हिरन-शावक के दिल पर जा लगा हो.  उनकी तड़प में मासूम शिकारी और घायल हिरन दोनों की तड़प आ मिली थी.  उनकी तड़प दुगुनी होकर उन्हें विचलित कर रही थी....

 आखिरकार  मैं उन्हें मिल ही गया.  मैं बरामदे  के आखिरी कमरे के बाहर,  कोने में दीवार की तरफ मुंह किये हुए रो रहा था.  मेरी हिचकी बंधी हुई थी.  मेरे गाल आँसुओं से काफी गीले हो चुके थे.  मेरा रोना रुक नही रहा था.  मुझे बार-बार यह भी ध्यान आ रहा था कि इस प्रसंग के बारे में जब जीजा जी को पता चलेगा तो उन्हें कितना दुःख होगा. वे बेचारे पांचवां दर्जा पास, एक प्रिंटिंग प्रेस में मजदूरी करने वाले और किसान आदमीं जो हमेशा श्रम के पसीने की महक में ज़िन्दगी काटते रहे थे और जिन्होंने  पसीने से तर अपने कपड़ों को कभी भी तिरस्कार की नज़र से नहीं देखा था, वे कैसे इस घटना को बर्दाश्त करेंगे. वे भले ही कैसे भी रह लें, किन्तु वे  मुझे हमेशा साफ़-सुथरा ही  देखना चाहते थे, उन बेचारों को पता भी नहीं चला कि उन बरसात के दिनों में, मैं स्कूल कौन सी बेश-भूषा में जा रहा हूँ. वे अपने प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी पर चले जाते थे और मैं स्कूल. उन्होंने मेरे कपड़ों पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था. मगर स्वयं मुझे ग्लानि हो रही थी कि अगर उन्हें इस घटना का पता चला को वे कितने शर्मिंदा होंगे.... मेरे इस रूप में रहने  और दिखने में उनकी इज्ज़त का भी तो  सवाल था !....

 जब मैं दीवार की तरफ मुंह करके रो रहा था तब अचानक दो हाथ मेरे पाँव की तरफ आ गए. जिनके ये हाथ थे उनका सर  मेरे पांवों में झुका हुआ था. उनकी आवाज़ भी मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी. वे कह रहे थे ---‘ बेटा, मुझे माफ़ कर दे. मुझसे बड़ी ग़लती हो गई.... बेटा, मुझे तेरे बारे में  कुछ पता ही नहीं था. तू इतना दुखियारा है और मैंने तुझे जाने क्या-क्या कह दिया.  बिना माँ-बाप के बच्चे  को मैंने ऐसे रुला दिया,...  बेटा, उस टाइम न जाने मुझे क्या हो गया था.  देख, मैं अपने कहे और किये पर बहुत शर्मिंदा हूँ.... मुझे माफ़ कर दे बेटा,  मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई. ...’

 मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ये मेरे टीचर श्री के.के.गुप्ता जी ही थे. उनकी आँखों में मोटे-मोटे आंसू थे. उन्होंने रोते हुए मुझे कलेजे से लगा लिया.  जब उन्होंने मुझे कलेजे से लगाया तो मैं और जोर से रो पड़ा. सचमुच संवेदना जब गले लगती है तो वेदना और तडप उठती है. मैं भी उनसे चिपक गया था. और कह रहा था---‘नहीं गुरू जी, मेरे पाँव पड़कर ऐसा अनर्थ न कीजिये. आप मेरे गुरु हैं.  आपको  पूरा हक़ है मुझसे कुछ भी कहने का. फिर आप तो मेरी भलाई के लिए ही कह रहे थे. गलती मेरी ही है गुरु जी.’

वे बोले—‘ नहीं बेटा, ग़लती मुझसे हुई है.  इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं.  इसमें गलती करने वाला ही छोटा होता है.  भले ही मैं तेरा टीचर हूँ और उम्र में भी तुझसे बड़ा हूँ किन्तु आज मैं तेरे सामने बहुत छोटा पड गया हूँ.  सच में तू मुझसे बहुत बड़ा है.  मैं तुझे समझ नहीं पाया बेटा.’...मुझसे  गले मिलते हुए मेरी कमीज़ के दाग़ उनके कपड़ों पर भी लग गए थे मगर इस बात का उन्हें आभास ही नहीं था....फिर उन्होंने पहले मेरे आंसू पोंछे और फिर अपने भी . मुझसे बोले---‘सुनो, स्कूल की छुट्टी होने के बाद मुझे यहीं खड़े मिलना. जाना नहीं जब तक मैं न आ जाऊँ. ..

 गुरु जी के इस संवेदनशील व्यवहार की घटना पर अब विचार करता हूँ तो एक बहुत ही गहरी बात मेरी समझ में  आई है कि ‘पश्चाताप’ और ‘क्षमा’ ये दो शब्द केवल उन पर ही रहते हैं जिनके दिल में प्यार और मनुष्यता रहती है.  क्षमा वही कर सकता है जिसके ह्रदय में प्रेम है और अपनी ग़लती को ग़लती मानकर सच्चे मन से पश्चाताप भी वही करता है जो भीतर से मनुष्य है. जिसमें इंसानियत है...मैं सोचता हूँ कि क्या ऐसे भी टीचर होते हैं जैसे गुप्ता जी थे. ...

 आज मैं यह भी सोचता हूँ कि बड़ों की लगाईं हुई डाट भी कितनी अच्छी होती है.  सच बात तो यह है कि सद्भावना और अच्छे मन से लगाईं हुई बड़ों की डाट और किसी मीठे रस से भरी हुई बोतल के मुंह पर लगी हुई डाट, इन दोनों का काम एक जैसा ही है. ... बोतल की डाट खुलते ही जैसे कि बोतल में भरे मीठे रस के दर्शन करा देती है, तरलता के दर्शन करा देती  हैं,  ऐसे ही बड़ों की डाट के नीचे कोई न कोई मिठास छुपा रहता है, उनके मन की  तरलता छुपी रहती है.... बस इतना है कि उस समय हमारी ये बाहरी आँखें उस डाट के नीचे की मिठास और तरलता को देख नहीं पाती हैं,  हां, कुछ बड़े होने पर केवल वह डाट ही नहीं, वरन उस डाट के अर्थ भी खुलने लगते हैं और तब उस डाट के नीचे मिठास का लहलहाता सरोवर दिखाई देता है,  जिसकी एक-एक बूँद हमें तृप्त करती चलती है....करती है न ?...

 आज ये सारी बातें सोच रहा हूँ तो बहुत अच्छा लग रहा है मगर उस दिन तो मैं बेचारा बालक 

इतनी समझ कहाँ रखता था ?... उस दिन तो बस मुझे अपने टीचर की,  अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना था . स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी तो श्रद्धेय गुप्ता जी के आदेशानुसार मैं वहीं खड़ा मिला  जहां खड़े रहने के लिए वे मुझसे कह गए थे.  कुछ देर बाद श्री गुप्ता जी  उसी स्थान पर आ गए. उन्होंने मेरा हाथ थामा और बोले अब आगे से तुम कोई चिंता मत करना, कोई परेशानीं हो तो मुझे बताना. और हाँ,  अपने जीजा जी से भी मिलवाना... ऐसा कहते हुए वे मुझे अपने घर ले गए. घर पर उन्होंने अपनी पत्नी से मिलवाया. मेरी बहुत तारीफ़ करने लेगे. उन्हें मेरी ज़िन्दगी के बारे में बताया. बोले---‘बहुत होशियार बालक है....बहुत हिम्मत वाला है.’...उस वक़्त भी मैं वही गंदे और मैले कपडे पहने था. मगर अब सब कुछ बदल चुका था. उन्होंने मुझे बिना खाना खिलाये वापस नहीं भेजा. मेरे बहुत मना करने पर भी मुझे भोजन करना ही पड़ा.  दाल-चावल सब्जी और खीर. मुझे अभी भी याद है कि वे मुझे बड़े ही चाव से खाना खिला रहे थे. उनकी पत्नी भी बार-बार आ-आकर जबरदस्ती मेरी खीर की कटोरी में और खीर डाल जाती थीं. ...

 अचानक वे अपने कमरे में गये और दो मोटी-मोटी कापियां लेकर आये और मेरे हाथों में थमा दीं. मुझसे कहा कि इन्हें भी पढ़ना.  मैंने देखा कि ये केवल कापियां नहीं थीं, पांडुलिपियाँ थीं.  वे उन दिनों कामर्स विषय से जुड़ी दो किताबें लिख रहे थे और उन्हें छपने को दे रहे थे. ये कापियां उन्हीं किताबों की बहुत मेहनत से और स्वयं उनके हाथ से बहुत सुन्दर हस्तलेख में लिखी हुईं पांडुलिपियाँ थी... वे बोले अभी तुम इन्हें अपने पास ही रख लो.  इन्हें पढ़कर तुम्हारे और भी बहुत अच्छे नंबर आयेंगे.  मैं उन्हें लेकर खुशी-खुशी उनके घर से विदा हुआ. सचमुच इन्हें पढ़कर ही हाई स्कूल में मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ.  बाद में गुप्ता जी मेरे जीजा जी से भी मिले और उनसे माफी मांगते हुए बोले— ‘एक दिन तो मैंने आपके बच्चे को बहुत ज्यादा डाट दिया था.’...जीजा जी का उत्तर पाकर वे हैरत में थे. जीजा जी ने कहा था---‘ मास्टर जी, गुरु तो भावरूप में विद्यार्थी का दूसरा पिता ही होता है.  वह अगर डाटता है तो उसी की भलाई के लिए डाटता है.’...और तब जीजा जी और आदरणीय गुप्ता जी दोनों ही भीगी हुई आँखों से एक दूसरे के गले लग गए थे.  उस दिन मेरी इन दो आँखों ने चार आँखों के चार तीर्थस्थलों को आँसुओं का झरना बहाते हुए देखा था और उस संवेदना को भी देखा था जो कठोर नारियल के खोल में मीठा और तरल जल बनकर छलांग मार रही थी.....                                  

✍️ डॉ कुँअर बेचैन

रविवार, 25 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (5).... आवभगत ही जिनकी पूँजी थी

   


फूफा जी श्री चन्द्र दत्त त्यागी श्रीगंगा धाम तिगरी के रहने वाले थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।सामाजिक और राजनीतिक व्यक्ति थे। राजनीति में बहुत अधिक सक्रिय नहीं थे तो निष्क्रिय भी नहीं थे।संतुलित सक्रियता को जीने वाले बहुत ही भले व्यक्ति थे,भलमनसाहत के आदर्श और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी फूपा जी बाजार गंज के जिस मकान में रहते थे वह तीन मंजिला था। दूसरी और तीसरी मंजिल पर उनका रहन-सहन था और ग्रांउड फ्लोर पर मकान मालिक की आभूषणों की दुकान थी। दुमंजिले पर एक कमरा, कमरे के आगे लगभग उस ही के बराबर लॉबी थी और लैट्रीन तथा बाथरूम।तिमंजिले पर एक टीन शेडिड कमरा और टीन शेडिड रसोई थी तथा छोटा सा आँगन था।इस छोटी-सी जगह में फूफाजी और बुआ जी के छोटे-बड़े छः बच्चे तो रहते ही थे, फूफा जी के दो युवा भतीजे और मेरे एक चाचा जी भी वहीं रहते थे और अब एक मैं पहुँच गया था। ऊपर से चार-पांच मेहमान भी लगभग रोज़ ही आ जाया करते थे।ये सब ग्रामीण परिवेश के वह लोग होते थे जो अपने कार्यों से मुरादाबाद आए होते थे और समय से लौट नहीं पाते थे। बुआ जी बड़ी भली और नेक महिला थीं। आने-जाने वालों को देखकर कभी भी नाक-भौंह नहीं सिकोड़ती थीं अपितु आगंतुकों को देख कर उनका चेहरा खिल जाता था। मानों सबकी भरपूर सेवा ही उनका धर्म था। इस सेवा भाव से ही उनका परमानन्द बसता था। उनकी कोई मिसाल मिलना अब तो संभव है ही नहीं,उस समय भी असंभव ही था।

          एक कमरे,आँगन,टीन शेडिड एक कमरे और टीन शेडिड रसोई वाले मकान में इतने व्यक्तियों का रहना-सहना और आगंतुकों को भी समायोजित करके इस रहन-सहन को व्यवस्थित रखना कोई आसान कार्य नहीं था, पर इसे फूफा जी और बुआ जी के बेमिसाल आचरण से अपनी दिनचर्या में ढाल रखा था। यह सब वैसा ही था जैसा कि सुनने को मिलता रहता है कि कहीं जगह हो या न हो दिल में जगह होनी चाहिए।सब सध जाता है। मेरी दृष्टि में वह छोटा-सा मकान नहीं था अपितु बड़ा सा दिल था।

          बुआ जी लगभग सुबह से शाम तक चूल्हे पर ही चढ़ी रहती थीं। लेकिन वह इस बोझ को हँहते-हँसते सुबह से शाम तक ढोते-ढोते इतना हल्का कर लेती थीं कि उन्हें पता ही नहीं चलता था। वह पूजे जाने योग्य थीं किन्तु दिन भर औरों को जिमाते-जिमाते ही खुद जिम जाती थीं।एक झटके में सो जातीं थीं और एक झटके में उठ बैठती थीं। उनकी अपनी दिनचर्या थी।जिसका पूरा आनन्द लेकर जीतीं थीं,वह। उनके इस व्यवहार की चर्चा और प्रशंसा हर जगह होती मिल जाती थी।वह अद्भुत थीं। उनके जैसा होना नामुमकिन है। इतना संयम व्यवहार में ढाल लेना एक करिश्मा ही है।वह स्वयं भी एक करिश्मा ही थीं।

            जहाँ दाना-पानी मिलता है,पंछी वहाँ गिरते ही हैं। लोग भी वहीं आते-जाते हैं,जहाँ उनकी पूछ होती है, यानी कि आवभगत होती है। फूफा जी के यहाँ सभी आगंतुकों की आवभगत बड़े प्रेम से  होती थी, तभी तो वहाँ हर समय चहल-पहल रहती थी। वह घर हर समय हँसने-मुस्कराने से गुलजार रहता था। चाय के कप प्लेट उठते रहते थे और दूसरे लगते रहते थे। ऐसे ही सुबह से शाम हो जाती थी। बुआ जी को रसोई में और हम बच्चों - मेरी फुफेरी बहन कुसुम जो मेरे ही साथ की थी और छोटा फुफेरा भाई अनिल जिसे घर में मुन्नू कहा जाता था और मुझसे दो साल छोटा था,को - ऊपर से नीचे जीना चढ़ते-उतरते कब समय बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था। इस सबमें एक आंतरिक आनन्द को जीने के अभ्यस्त हो गए थे हम सब लोग। मैं और मुन्नू इस सबका आनन्द तो लेते ही थे, साथ ही एक और आनन्द का बड़े चाव से आनन्द लेते नहीं अघाते थे।

               इतनी आवभगत के लिए रसोई हर समय तैयार रहनी चाहिए,यानी कि रसोई में सभी आवश्यक सामान उपलब्ध रहना चाहिए,यह सब तो महीने का आता था तो रहता ही था। किन्तु सबसे पहली आवश्यकता तो चूल्हा सुलगा रहने की है।उसके लिए उस समय लकड़ी ही एकमात्र साधन थी। छुट-पुट आवश्यकता तो स्टोव से सँभाल ली जाती थी,पर हर समय चूल्हा गर्म रखने के लिए तो इन लकड़ियों का ही 

एकमात्र सहारा था ,क्योंकि कोयला उस समय इतना प्रचलन में नहीं था।बाकी सब साधन बाद के दिनों के हैं। फटी हुई (छेपट)लकड़ी टाल से आती थी। वह जलने योग्य सूखी नहीं होती थी,अपितु सदैव पर्याप्त गीली ही होती थी। ठेले वाला तिमंजिले तक चढ़ा जाता था और फिर शुरू होती थी - मेरी और मुन्नू की पारी।उस गीली और फटी हुई छेपट लकड़ी को रसोई और कमरे की टीन वाली छत पर सूखने के लिए चढ़ाना। हममें से एक छत पर चढ़ता था और एक नीचे से उसे पकड़ाता था।इस प्रकार उन लड़कियों को दोनों छतों पर सूखने के लिए रख दिया जाता था।यही क्रिया उन्हें उतारने में भी रहती थी। लेकिन यह मुश्किल कार्य था। रसोई और कमरे की छत पर जाने के लिए कोई सीढ़ी तो थी नहीं दोनों छतों पर चढ़ने के लिए एक-एक ओर से चार इंच की दीवार का सहारा था।चढ़ते हुए भी डर लगता था और ऊपर चढ़कर भी डर ही लगता था क्योंकि उस मकान की एक दिशा में तो सड़क थी, और शेष तीनों दिशाओं में एक-एक मंजिल के ही मकान बने हुए थे। ऊपर से नीचे को देखते थे तो रूह काँपती थी।हम दोनों भाइयों ने इस डर को दसियों वर्ष जिया है। किन्तु इसका भी अपना एक आनन्द था, जिसके लिए हम दोनों लकड़ी का हाथ ठेला आते ही इस आनन्द के लिए उत्सुकता से भर जाते थे और अपने कार्य पर लग जाते थे। कभी इससे बचते नहीं थे।

        फूफा जी और बुआ जी की इस आवभगत की क्षेत्र में बड़ी प्रशंसा होती थी। आवभगत ही उनकी पूँजी थी। उनकी आवभगत का ही यह परिणाम था कि किसी-किसी दिन मेहमानों की संख्या बढ़ जाती थी। जगह का अभाव तो था ही कभी-कभी कपड़ों का भी अभाव हो जाता था।ऐसी स्थिति में मैं और मुन्नू फूफा जी के बड़े भाई सम मित्र गणपति शर्मा जी के यहाँ सोने के लिए चले जाते थे। उनकी सिविल लाइन में बहुत बड़ी कोठी थी और उनके परिवार के सभी लोग फूफा जी के परिवार से बहुत लगाव रखते थे। महीने में मेरी और मुन्नू की कई-कई रातें वहीं गुज़रती थीं। प्रातः काल में जल्दी उठकर हम दोनों अपने घर आकर प्रातः कालीन कार्यों से निवृत्त होकर अपने-अपने स्कूल चले जाते थे। इस परिवेश में अपनी पढ़ाई इस लिए हो पाई है। क्योंकि पढ़ाई के लिए फूफा जी और बुआ जी दोनों ही प्रोत्साहित करते रहते थे। मुझ पर जितनी भी पढ़ाई है,यह उनके प्रोत्साहित करते रहने का ही परिणाम है।

       फूफा जी गंगा धाम तिगरी के रहने वाले थे।वहाँ पर प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है। फूफा जी क्योंकि राजनीतिक और सामाजिक व्यक्ति थे,इस कारण से प्रशासन पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी।मेले की व्यवस्थाओं में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी।सारा सरकारी अमला उनके ही मकान पर मीटिंग किया करता था और मेले की रूपरेखा को अंतिम रूप देता था। प्रशासन पर इतनी पकड़ के बावजूद ही फूफा जी वहाँ पर वह सारे प्रबंध करा सके जिससे कि तिगरी गंगा के कटान से बची रहे।तिगरी अपनी जगह सुरक्षित है तो इसलिए कि उसके लिए फूफा जी ने हर संभव प्रयास करके अपनी मातृभूमि की रक्षा की है। गंगा मेले का हम सबने भी कई बार खूब आनन्द लिया है। बुआ जी और फूफा जी अपने हर कार्य से सही में देवता तुल्य थे, जिन्होंने अपना सर्वस्व समाज की सेवा में ही झोंक दिया। कमाकर भी कुछ नहीं जोड़ा,जबकि मुरादाबाद से रामनगर को उनकी बस चला करती थी।

✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद- 244001

मोबाइल: 9319086769 

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संस्कार भारती की ओर से 23 अगस्त 2024 को नटराज पूजन उत्सव में साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार को किया गया सम्मानित, कवियों ने रचना पाठ कर किया मंत्र मुग्ध

  संस्कार भारती मुरादाबाद महानगर की ओर से शुक्रवार 23 अगस्त 2024 को आयोजित नटराज पूजन उत्सव में  वरिष्ठ साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार को साहित्य साधक सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर काव्य गोष्ठी का भी आयोजन किया गया। 

 महानगर के वृंदावन गार्डन मे आयोजित कार्यक्रम का शुभारंभ मंत्रोच्चार के मध्य नटराज प्रतिमा पर तिलक एवं पुष्पार्चन, संस्कार भारती के ध्येय गीत तथा राजीव प्रखर द्वारा मां सरस्वती वंदना से हुआ।

  महानगर अध्यक्ष डॉ काव्य सौरभ जैमिनी ने कहा कि लोककल्याण एवं लोकमंगल के लिए शिव ने नटराज रूप धारण किया था तथा सत्यम शिवम् सुंदरम की अवधारणा को साकार किया था । यही कलाओं का मूल है तथा संस्कार भारती इसी उद्देश्य को लेकर कार्य कर रही है। कलाएँ समाज का संस्कार प्रबोधन करती हैं।कलासाधक मनुष्य को संस्कारशील बनाने का कार्य करते हैं।  

  कार्यक्रम के संयोजक महानगर उपाध्यक्ष डॉ मनोज रस्तोगी ने डॉ पुनीत कुमार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला। अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा ....

है धर्म अहिंसा परम किंतु,

जब संकट स्वयं धर्म पर हो।

तब कैसे कोई चुप बैठे,

आसन्न मृत्यु जब सर पर हो।

इसलिए जाग, सब भ्रांति त्याग,

चेतन हो जा क्यों सोया है।

आघात बराबर जारी है,

हिंदुत्व अभी तक सोया है।

संचालन करते हुए प्रख्यात साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने कहा ....

ऋषि-मुनि संत-फ़क़ीर यह, कहते हैं अधिकांश।

आँखें ही होती सदा, भावों का सारांश।।

आँखों से बहने लगी, मूक-वधिर सी धार। 

जब यादों की चिट्ठियांँ, पहुँचीं मन के द्वार।। 

   चर्चित दोहाकार राजीव प्रखर का कहना था ...

मैं दर्पण में प्रेम से, झाॅंका जितनी बार। 

मन की सारी, उलझनें, डाल गयीं हथियार।। 

   वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा.... 

मॉम डैड कहने का चला चलन जबसे

चरणों में शीश नवाना भूल गए बच्चे

  प्रांतीय मातृशक्ति संयोजिका डॉ पूनम बंसल ने गीत और गजलें  प्रस्तुत कीं । विभाग संयोजक विवेक निर्मल ने गीत के माध्यम से ग्राम्य जन जीवन से जोड़ा।  डॉ पुनीत कुमार ने ईमानदारी की चादर और उग्रवाद के माध्यम से पैने कटाक्ष किए। मुख्य अतिथि प्रांत मंत्री डॉ राकेश जैसवाल रहे तथा संयोजन डॉ मनोज रस्तोगी ने किया ।आभार विवेक गोयल ने जताया।