गुरुवार, 22 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (4).... दिल जो कह न सका


 जून की छुट्टियाँ समाप्त होते ही शैक्षिक सत्र सन् 1966 - 67 का समापन होकर शैक्षिक सत्र सन् 1967 - 68  शुरू हो गया था और मैं अपने दो-तीन जोड़ी कमीज़,पायजामे और दो पटे के कच्छे एक थैले में ठूँस कर जुलाई के पहले सप्ताह में ही मुरादाबाद बुआ के पास पहुँच गया था। (पटा एक कपड़ा होता था, जिसमें लम्बी-लम्बी अलग-अलग रंग की धारियाँ होती थीं।इस कपड़े के अधिकतर घुटन्ने ही सिले जाते थे - घुटन्ना,कच्छा/अंडरवियर को ही कहा जाता था।) फूपा जी गंज बाजार में सब्जी मंडी के पास दूसरी और तीसरी मंजिल के मकान में रहते थे।उनके मकान  के सामने गाँधी आश्रम की दुकान थी। दुकान के ऊपर टंडन परिवार रहता था। फूपा जी और टंडन परिवार के बहुत घनिष्ठ संबंध थे।फूफा जी ने शाम को ही टंडन परिवार के बड़े लड़के गोपाल टंडन को बुला लिया। गोपाल टंडन हिन्दू डिग्री कॉलेज की किसी बड़ी कक्षा में पढ़ते थे। फूपा जी ने उनसे मेरे एडमिशन के लिए कहा। उन्होंने तपाक से कहा, हो जायेगा और मेरी अंकतालिका लेकर चले गए।अगले दिन आकर बोले कायस्थ पाठशाला में एडमिशन हो गया है। कायस्थ पाठशाला फूपा जी के घर से चहल-कदमी की दूरी पर कंपनी बाग के गेट से सटी हुई थी।

        अगले दिन गोपाल टंडन मुझे कायस्थ पाठशाला क्लास टीचर के हवाले करके वापस घर लौट गए और मैं अपने नए इंटर कॉलेज को निहारता रह गया। पूरा खुला हुआ मैदान। बीच में एक कोठी का भवन और पिछली दीवार से सटे टीन शेड के चार-पाँच कमरे - यही थी कायस्थ पाठशाला। अस्तु! मेरी पढ़ाई शुरू हो गई। मैं तो गाँव से आया छात्र था। कपड़े भी मुसे-मुसे रहते (सिलवट पड़े हुए) रहते थे। शहरी छात्र खिल्ली उड़ाते थे। मैंने एक साथ दो पढ़ाई शुरू कीं। एक तो कक्षा की और दूसरी शहरी परिवेश की। दोनों की पढ़ाई साथ-साथ चलती रही। मुझमें शहर प्रवेश करने लगा था और मैं रहन-सहन एवं बोलचाल तथा व्यवहार से शहरी छात्रों जैसा ही हो चला था। मुरादाबाद में रहकर पढ़ने के लिए यह पढ़ाई भी परम आवश्यक थी। शहर का सबकुछ अति शीघ्र ही मैंने अपने आचरण में ढाल लिया। धीरे-धीरे साल पूरा हुआ, परीक्षा हुई, रिजल्ट आया और मैं पास हो गया। कायस्थ पाठशाला में तो पढ़ना था नहीं सो मैं स्वयं ही कंपनी बाग में ही स्थित आर.एन. इंटर कॉलेज में एडमिशन के लिए चला गया। वहाँ आसानी से ही एडमिशन मिल गया।

        पढ़ाई शुरू हो गई।15 अगस्त आ गया।15 अगस्त को विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित था। विद्यालय के अँग्रेजी के अध्यापक श्री पी.एन.गौड़ कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। बीच कार्यक्रम में उन्होंने छात्रों से कहा - आप लोगों में से कोई बोलना चाहता है। मैं खड़ा हो गया और उन्होंने मुझे बोलने के लिए मंच पर बुला लिया। मैं जिस समय मंच पर पहुँचा उस समय तक विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री वेद प्रकाश गुप्ता जी मंच पर नहीं पहुँचे थे, बल्कि अपने कार्यालय में ही किसी कार्य में उलझे हुए थे। मैंने मंच पर उपस्थित सभी अध्यापकों को संबोधित करने के बाद बोलना शुरू किया। पंद्रह अगस्त के बारे में कुछ कहते हुए मैंने कहा कि राष्ट्रीय पर्व के इस अवसर पर हमारे प्रधानाचार्य महोदय कार्यक्रम में हमारे बीच उपस्थित नहीं है और आज भी विद्यालय के कार्यों में ही लगे हैं। यह सुनकर प्रधानाचार्य जी तत्काल मंच पर आ गए। पन्द्रह अगस्त को लेकर जो कुछ भी मेरे भीतर था,पाँच-सात मिनट मैंने वह सब बोला और अपने स्थान पर आकर बैठ गया। सबसे अंत में प्रधानाचार्य महोदय ने अपने संबोधन के बीच मुझे मंच पर बुलाकर मेरी पीठ थपथपाई और मंच से खूब प्रशंसा की। मेरे भीतर तो डर बैठा हुआ था,पर प्रधानाचार्य जी के संबोधन से जैसे मेरा भाग्य ही खुल गया।

          अंग्रेजी अध्यापक श्री पी.एन.गौड़ हमारी कक्षा को भी अंग्रेजी पढ़ाते थे। अगले दिन उन्होंने कक्षा को पढ़ाने के बाद जाते हुए मुझे अध्यापक कक्ष में बुलाया। मैं उनके कक्ष में गया। उन्होंने मुझसे कहा कि डीवेटर बनोगे। मैंने कह दिया - जी सर। उन्होंने मुझे विभिन्न विषयों पर भाषण देने के टिप्स दे-देकर मुझे 

दक्ष करके विद्यालय की ओर से वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भेजना शुरू कर दिया। दो-चार प्रतियोगिताओं में सहभाग करने के बाद मुझे पुरस्कार मिलने शुरू हो गए। मेरा हौसला बढ़ता गया और मैं भी आगे बढ़ता गया, यानी कि वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में मैं चल निकला। इंटर की कक्षा तक ही ऐसी स्थिति आ गई कि मैं जिस भी प्रतियोगिता में गया, पुरस्कार लिए बिना नहीं लौटा। विद्यालय खुश, विद्यार्थियों में अलग पहचान,बुआ और फूफा जी भी पुरस्कारों को देख-देख फूले नहीं समाते थे। आने-जाने वालों से मेरी प्रशंसा के ही पुल बाँधते। इंटर करते-करते प्रेम का बीजारोपण भी हो गया था और मैंने ओमप्रकाश केला का एक उपन्यास पढ़ लिया था। उपन्यास को पढ़कर मेरे भीतर अनायास यह भाव उपजा कि ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। इंटर की परीक्षाएँ समाप्त होने पर मुझे अपने गाँव जाना ही था। मैंने एक 360 पृष्ठ की कॉपी खरीदी,अपने गाँव ले जाने वाले सामान में रख ली और गाँव पहुँच गया।

             दो-तीन दिन आराम और साथियों के संग मटरगश्ती करने के बाद मैंने अपनी चौपाल पर बैठ कर साथ ले जाई गई कॉपी में लिखना शुरू कर दिया।

जो मन में आता मैं वही लिखता जाता। मुझे लिखते हुए मेरे गाँव के ही सत्यानंद अपने घेर में आते-जाते रोज देखते थे।सत्यानंद मेरठ में पढ़ते थे।वह मुझसे दो कक्षा आगे थे। निश्चित ही मुझसे योग्य और समझदार होंगे।एक दिन मेरे पास आकर बोले कि क्या लिखते रहते हो? मैंने कहा - " कुछ दिन रुको, फिर दिखाऊँगा

कि क्या लिखता रहता हूँ?" दस-बारह दिन में मैंने पूरी कॉपी भरली। कॉपी भी पूरी भर गई और मेरा लेखन भी पूरा हो गया। मुझे नहीं पता था कि मैंने क्या लिखा और मुझसे क्या लिखा गया है। लिखे हुए को दो-तीन स्वयं पढ़कर कॉपी मैंने सत्यानंद जी को सौंप दी। उन्होंने पढ़ने में चार-पांच दिन लगाए और एक दिन मुझे लौटाने आए तो बोले - " कारेन्द्र बधाई। तुमने बहुत अच्छा उपन्यास लिख दिया है, शुभकामनाएँ।" मैं अपने श्रम से प्रसन्न हुआ और कॉपी को कई बार चूम कर रख दिया। छुट्टियाँ समाप्त होते ही कॉपी को सुरक्षित साथ लेकर मैं मुरादाबाद पहुँच गया। मुरादाबाद पहुँच कर वह कॉपी मैंने किताबों की अलमारी में ही सँभाल कर रख दी। मैंने इंटर कर लिया 

और केजीके महाविद्यालय में बी.ए.प्रथम वर्ष में एडमिशन ले लिया। मैं विद्यालय जाने लगा। सबकुछ पहले जैसा चलने लगा। एक दिन विद्यालय से जब लौटा तो देखा बुआ जी अलमारी खकोड़ रहीं थीं।मैंने कुछ ध्यान नहीं दिया। अगले दिन सुबह को देखा तो बुआ जी उस कॉपी में से पन्ने फाड़-फाड़ कर अँगीठी सुलगा रहीं थीं। मैं कुछ कह नहीं पाया और भीतर से भी कुछ कहने की इच्छा नहीं हुई क्योंकि मुझे इसका आभास ही नहीं था कि मेरा क्या होम हो रहा है? बुआ 

जी की भी ग़लती नहीं थी।उन दिनों भरी हुई कॉपी रद्दी ही समझी जाती थी और सभी घरों में इसी काम आती थी।

       मेरी आँखों के सामने ही मेरा उपन्यास जल कर स्वाह होता रहा और मैं देखता रहा।उसे बचाने का मैंने कोई भी प्रयास नहीं किया। बुआ जी से कहता कि बुआ जी यह कॉपी काम की है तो वह कतई नहीं जलातीं। मेरी ही अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे। विधाता ने शायद मुझसे ही वह उपन्यास लिखवाना और मिटवाना दोनों मेरे भाग्य में लिखे थे। दोनों कार्य पूरे हो गए।लिखा भी ख़त्म और लिखे की कहानी भी ख़त्म।

आज तक कभी कोई मलाल इसलिए नहीं हुआ कि मैं अपने लिखे का मोल नहीं जानता था। और वैसे भी उपन्यास का नाम था - " दिल जो कह न सका।"

✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल: 9319086769 

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