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बुधवार, 30 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कहानी..... राखी की सौगंध


"अब चलो भी शुभि ..! बाज़ार चलने में देर हो रही है"शुभम ने गाड़ी स्टार्ट करते हुए घर के बाहर से , अपनी पत्नी शुभि को आवाज़ लगायी . 

"आ गयीं बस...!". कहते हुए शुभि अपना दुपट्टा संभालते हुए मेन गेट से बाहर निकली और गाड़ी में बैठ  गयी.रक्षा बंधन आने में अभी पूरे दस दिन थे, मगर शुभि चाहती थी कि सभी तैयारियां समय रहते पूरी कर  ली जाएँ.अत: वह आज राखी खरीदने शुभम के साथ बाज़ार जा रही थी. राखी की दुकान पर पहुँच कर  तीनों भाइयों और भतीजों के लिए राखी खरीदने के  बाद, वह भाभियों के लिए लेडीज़ राखियाँ पसंद करने लगीं, मोतियों  की लड़ी से सजी लटकन वाली लेडीज़ राखियां उसे बहुत प्यारी लगीं, उसने दुकानदार से कहा कि  "भैया..! ये वाली "दो....राखियाँ  दे दीजिए..... !" मगर ....दो ..शब्द जैसे उसके गले मे अटक गया......! 

   कुछ समय पहले तक शुभि के मायके में सब कुछ ठीक -ठाक था मगर अचानक छोटे भैया राहुल की गृहस्थी में उस वक़्त भूचाल आ गया ,जब उसकी पत्नी रंजना  ने  छोटी -छोटी बातों पर झगड़ा करना शुरू कर दिया, और एक दिन झगड़ा इतना बढ़ा कि वह रूठकर अपने मायके जा बैठी.तब प्रारंभ में सबको यही लगा कि पति- पत्नी का झगड़ा है ,आपस में ही सुलझा लेंगे, मगर धीरे- धीरे जब उसे गये पंद्रह दिन हो गये तब सबको स्थिति की गंभीरता का अनुमान लगने लगा.वह अपने साथ अपने पांच साल के बेटे  अंश को भी ले गयी थी.  घर के सब लोगों ने  रंजना को मनाने की  बहुत कोशिश भी , कई फोन  भी किए, उसके माता- पिता से भी बात की और छोटे भैया ने गलती न होते हुए भी उससे  माफी माँगी, मगर वह  अपने अहम् के कारण आने को तैयार  न थी,छोटे भैया तो जैसे बिलकुल ही टूट  गये थे,  वह अपने कमरे तक सीमित होकर रह गये थे.   माँ का स्वर्गवास तो पहले ही हो चुका था, एक ही मकान में रहते हुए भी तीनों भाइयों के चूल्हे अलग-अलग थे, पिताजी बड़े भैया के साथ रहते थे.अत: छोटे भैया कभी होटल पर या कभी खुद कच्चा -पक्का बनाकर खाना खा लेते थे,इसी प्रकार  धीरे -धीरे तीन महीने बीत चले थे.

   यह सब सोचकर राखी  की दुकान पर पर खड़ी  शुभि की आंखें गीलीं और मन भारी हो चला था. उसने खुद को संयत करते हुए, दुकानदार से कहा, सुनो भैया, ये वाली लेडीज़ राखियाँ  दो नहीं...तीन दे दीजिए ...! "

"मगर शुभि तीन ...!".. शुभम ने कुछ कहना चाहा तो शुभि ने अपनी पलकों को हौले से झपकाते हुए  उसे चुप रहने का संकेत किया.दुकान से निकलकर उसने शुभम से पोस्ट आफिस चलने को कहा, वहांँ जाकर उसने एक चिट्ठी लिखकर , राखियों के साथ भाभी के मायके के पते पर पोस्ट कर दीं 

  रक्षा बंधन का पावन दिन भी आ पहुंचा , शुभि अपने मायके मिठाइयाँ और राखियाँ लेकर पहुँच चुकी थी, दोनों बड़े भाइयों और भाभियों को राखी बांधने के बाद, छोटे भैया की कलाई पर राखी बांधने ही वाली थी कि.....तभी डोरबेल बज उठी,

 बड़ी भाभी ने गेट खोला तो सबके आश्चर्य की सीमा न रही. दरवाजे पर छोटी भाभी रंजना  भतीजे के साथ खड़ी थी.रंजना के एक हाथ में अटैची और दूसरे में चिट्ठी थी .अंदर आते ही रंजना, शुभि से लिपटकर रोने लगी, शुभि की आंखों से भी गंगा- यमुना बह चली थी.घर के सब लोग आश्चर्य में थे कि यह चमत्कार कैसे हुआ ?इस दौरान वह चिट्ठी रंजना के हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ी, जिसे उठाकर राहुल ने मन ही मन एक साँस में पढ़ डाला, चिट्ठी में लिखा था

प्रिय भाभी,

बहुत दिन हुए ....!अब नाराजगी छोड़कर अपने घर आ जाओ! भैया की किसी भी गलती की मैं माफी मांगती हूँ....माँ तो इस दुनिया में नहीं है ,मगर  मैंने हमेशा  आप में अपनी माँ को ही देखा है, आप के बिना मेरे भैया अधूरे  हैं और भैया के बिना मैं.... ! और  मैं इस अधूरेपन के साथ  रक्षा बंधन के इस  पावन  त्योहार  को नहीं मना सकती,आपको  इस राखी की  सौगंध...!वापस आ जाओ  भाभी ..... ‌!मैं राह देखूंगी...

आपकी 

शुभि

पत्र पढ़कर ,छोटे भैया राहुल की आंखों से खुशी के आंँसू बह चले थे  ..आज उन्हें अपनी इस छोटी बहन में  माँ का अक्स दिख रहा था. उसकी लायी राखी के  कच्चे  धागों ने उसके बिखरे हुए घर को रक्षा कवच के अटूट बंधन में जो बांँध दिया था.

शुभि ने हौले से रंजना को अलग करके आँसू पोछकर, मुस्कुराते हुए कहा "आओ भाभी.. पहले राखी बंधवा लो, शुभ मुहूर्त बीता जा रहा है..! "

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, 

मिलन विहार, 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का मुक्तक ....चाँद ने भी आज तो जय हिंद गाया है.


विजय इतिहास लिखकर चांद पर हमने दिखाया है, 

बना पहला जगत में देश ,भारत मुस्कुराया है, 

हमारे हौसलो की बात तो बस चांद से पूछो, 

सुना है चाँद ने भी आज तो जय हिंद गाया है.


✍️मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 16 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का एकांकी ....शहादत


पात्र-परिचय

बारिंद्र घोष

अरबिंद घोष

प्रफुल्ल कुमार चाकी उर्फ दिनेश चंद्र राय

खुदीराम बोस 

(सभी क्रांतिकारी) 

जार्ज किंग्सफोर्ड (सैशन जज) 

हाकिंस:अंग्रेज़ आधिकारी

कुछ अंग्रेज़ सैनिक।

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(अंक 1)

स्थान मिदनापुर युगांतर संस्था का गुप्त कार्यालय।

प. बंगाल ,  अप्रैल 1908

(दृश्य एक) -

(एक छोटे से कक्ष में मद्धम जलती लालटेन की रोशनी में एक बड़ी सी मेज के चारों ओर कुर्सियों पर बैठे, क्रांति कारियों के चेहरों पर ओज मिश्रित रोष झलक रहा है। कक्ष के एक कोने में एक छोटे स्टूल पर पानी से भरा घड़ा और उसके समीप ही एक गिलास रखा है तथा मेज पर कुछ महत्वपूर्ण कागज़ और पत्र पत्रिकाएं भी रखी हैं)।

बारिंद्र घोष (मेज पर से एक समाचार पत्र उठाकर, रोषपूर्ण स्वर में) : आज का अख़बार देखा?अंग्रेजो ने उस दुष्ट जज किंग्सफोर्ड को क्रांतिकारियों के कोप से बचाने के लिए मुजफ्फरपुर भेज दिया है सैशन जज बनाकर।

अरबिंद घोष (रोषपूर्ण स्वर में) : वो अत्याचारी जज कहीं भी चला जाये पर हमसे नहीं बच पायेगा। निर्दोष क्रांतिकारियों पर किये अत्याचारों का बदला हम उससे लेकर रहेंगे।

सभी क्रांतिकारी एक स्वर में : हाँ-हाँ, लेकर रहेंगे। ब्रिटिश साम्राज्य मुर्दाबाद . ..मुर्दाबाद...!! हिंदुस्तान ज़िंदाबाद.ज़िंदाबाद!! 

बारिंद्र घोष : तो ठीक है, सारी योजना आज ही बना ली जाये, ताकि समय रहते उस किंग्सफोर्ड को उसकी करनी का फल मिल जाये। (कुछ सोचते हुए) ... मगर इस काम मे बहुत खतरा है। जान की बाज़ी लगानी है। कौन उपयुक्त रहेगा ? तुम बताओ अरबिंदो.... ? 

(बात पूरी होने से पहले ही खुदीराम बोस सीना तानकर खड़े हो जाते हैं) 

खुदीराम बोस (जोश भरे स्वर में ) : मैं जाऊँगा मुजफ्फरपुर, उस पापी का अंत करने!!

अरबिंदो: मगर अभी तुम बहुत छोटे हो खुदीराम, हमारे पास और भी क्रांतिकारी हैं इस पावन कार्य हेतु ! ! 

खुदीराम बोस:छोटा हूँ तो क्या हुआ, मेरे सीने में आक्रोश की जो ज्वाला धधक रही है उसमें उस पापी को भस्म करने की पर्याप्त क्षमता है

बारिंद्र घोष : लेकिन अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है बच्चे..! ! मात्र अट्ठारह वर्ष... ! नहीं नहीं..!!. यह कदापि उचित न होगा। और फिर अगर तुम्ह कुछ हो गया तो तुम्हारी दीदी को क्या जवाब देंगे हम?? 

खुदीराम (ओजपूर्ण स्वर में) : मेरी दीदी तो हिंदुस्तान की वो बहादुर बेटी है जिसने स्वयं मुझे आज़ादी के इस पावन यज्ञ में आहूति के लिए सहर्ष भेजा है.... 

अरबिंदो : परंतु...?? 

खुदीराम ( हाथ जोड़कर ) : किंतु परंतु कुछ न कीजिये बड़े भाई, मैं फैसला कर चुका हूँ। उस पापी का अंत मेरे हाथों ही होगा। 

बारिंद्र घोष : ठीक है तो...। परंतु तुम अकेले नहीं जाओगे, प्रफुल्ल तुम्हारे साथ जायेगा। क्या कहते हो प्रफुल्ल?? 

प्रफुल्ल कुमार चाकी (गर्व से गाते हैं ) : बांधा कफ़न है सर से हमने वतन की खातिर, माँ भारती ने देखो हमको है फिर पुकारा  (हँसते हैं) नेकी और पूछ पूछ। सौ जन्म कुर्बान ऐ हिंद तुझ पर   ... ! ! 

बारिंद्र (लम्बी सांस छोड़ते हुए) : ठीक है साथियों ! तो तय हुआ प्रफुल्ल और खुदीराम इस काम को अंजाम देंगें। कल इसी वक़्त, इसी जगह  पुन:मिलते हैं नारा लगाते हैं..( वंदेमातरम्)

क्रांतिकारियों का समवेत स्वर गूंजता है - वंदेमातरम् वंदेमातरम... ।

(दृश्य 2 - समय दोपहर)

स्थान - मिदनापुर, युगांतर संस्था का कार्यालय

(सभी क्रांतिकारी कक्ष में मेज के चारों ओर बैठकर विचार विमर्श कर रहे हैं। तभी अरबिंदो घोष तेजी से कक्ष में प्रवेश करते हैं, उनके हाथ में दो काले रंग का थैले हैं)

अरबिंदो (थैले में से  दो पिस्तौल निकालते हैं) : ये लो प्रफुल्ल और खुदीराम हथियार!!! (फिर थैला खुदीराम को सौंपते हैं) यह लो खुदीराम। इसमें बम है, जो तुम्हें उस दुष्ट की गाड़ी पर फेंकना है। यह बम तभी सक्रिय होगा जब तुम इसका इस्तेमाल करना चाहोगे।

खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी आगे बढ़कर हथियार थाम लेते हैं और समवेत स्वर में नारा लगाते हैं : वंदेमातरम् वंदेमातरम्.....।    

 खुदीराम : ज़िंदा रहे तो जल्द ही मिलेंगे। (आगे बढ़कर सबके गले मिलते हैं)।

(अंक दो - दृश्य एक)

1908, अप्रैल, समय दिन का। 

स्थान - मुजफ्फरपुर जार्ज किंग्स फोर्ड का बंगला। खुदीराम व प्रफुल्ल कुमार बंगले के बाहर, पेड़ो के पीछे छुपकर बंगले की गतिविधियों पर नज़र रखते हुए, किंग्स फोर्ड के बाहर आने का इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ ही पलों में वह सफेद कपड़े पहने बाहर निकलता है)

खुदीराम बोस : लगता है यही जॉर्ज किंग्स फोर्ड है।

प्रफुल्ल कुमार : हाँ, यही है वह दुष्ट। चलो देखते हैं, कौन सी बग्गी से बैठेगा यह किंग्स फोर्ड।

(जल्दी-जल्दी सफेद घोड़े की बग्गी पर बैठता है और बग्गी चल पड़ती है।)

खुदीराम ::तो  कल का दिन तय हुआ। आओ चलें।

प्रफुल्ल : जी तो करता है कि इस पापी का अभी काम तमाम कर दूँ।

खुदीराम (प्रफुल्ल का हाथ अपने दोनो हाथों से थामते हुए) : जब इतना सब्र किया तो आज और कर लेते हैं। कल इसकी ज़िन्दगी का आखिरी दिन होगा। 

(दोनों अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते हैं।)

(दृश्य 2 ,)

(स्थान: मुजफ्फरनगर 30 अप्रैल उन्नीस सौ आठ। समय 8.00 बजे। घुप्प अंधेरे में मुजफ्फरपुर क्लब के बाहर प्रफुल्ल और बोस दोनो छुपकर किंग्स फोर्ड के बाहर आने का इंतज़ार कर रहे हैं)1

प्रफुल्ल (बड़बड़ाते हुए) : कब निकलेगा दुष्ट बाहर।

बोस : कोई घड़ी जा रही है। बस, बाहर आने ही वाला है। पिछले चार दिन से देख रहे हैं कि वह इसी समय बाहर निकलता है।

(तभी सफेद कपड़ों में दो साये क्लब से बाहर निकलते हैं और तेजी से चलते हुए सफेद घोड़े की बग्घी में बैठ जाते हैं।) 

प्रफुल्ल (तेजी से फुसफुसाते हुए) : लगता है आ गया। बोस !!  जल्दी करो, बचने न पाये वो।

(दोनों  पेड़ से कूदकर बग्घी के पीछे नंगे पाँव ही दौड़ पड़ते हैं और बग्घी को निशाना बनाते हुए बम फेंक देते हैं। ज़ोर के धमाके के साथ बग्घी के परखच्चे उड़ जाते हैं। दोनों कुछ पल रुककर जली हुई बग्घी के पास जाकर देखते हैं तो चौंक जाते हैं। ) 

प्रफुल्ल : हे भगवान! गजब हो गया। ये तो कोई और लोग हैं।

खुदीराम (निराशाजनक तरीके से सर को हिलाते हैं) : वह दुष्ट बच गया, पर कब तक बचेगा। इस बम की गूंज लंदन तक जायेगी। हिंदुस्तान का हर बच्चा प्रफुल्ल, चाकी और खुदीराम बन जायेगा तुझे मारने के लिए दुष्ट किंग्स फोर्ड! (दांत पीसते हुए)

(तभी बहुत से पद चापों की आवाज़ सुनकर दोनो क्रांतिकारी भागते हुए नारा लगाते हैं) : वंदेमातरम् वंदेमातरम्।

(चारों ओर से फायरिंग की आवाज़ आने लगती है लेकिन दोनों अंग्रेज़ सिपाहियों को मात देते हुए अंधेरे में लुप्त हो जाते हैं।) 

दृश्य 3 - 

बोकामा रेलवे स्टेशन (बिहार)।

1 मई, 1908 सुबह के चार बजे 

(रेलवे स्टेशन पर कम लोग ही हैं। प्रफुल्ल चाकी भागते हुए रेलवे स्टेशन पर आते हैं, चेहरा गमछे से आधा ढका है। खुदीराम  दूसरे रास्ते से पीछे आ रहे हैं। चार-पाँच अंग्रेज़ सिपाही सतर्कता से रेलवे स्टेशन पर मुसाफिरों पर नज़र बनाये हुए हैं।)

प्रफुल्ल (एक वेंडर से हाफंते हुए) : भाई रुको ज़रा...! यहाँ कहीं पानी मिलेगा क्या??? 

वेंडर(धीरे से बुदबुदाता है) :  मेरा नाम त्रिगुणायत है और बारिंद्र ने आप लोगों की सहायता के लिए मुझे आपके पीछे यहाँ भेजा था। यह लो  कलकत्ता का टिकट, ट्रेन आती होगी। (फिर अपनी टोकरी में छुपा कर रखे बरतन से पानी पिलाता है। इतने में ही दोनो अंग्रेज़ सिपाही दौड़ते हुए आते हैं, उन्हें देख प्रफुल्ल पानी पीना छोड़ तेज कदमों से आगे बढ़ने लगते हैं) 

पहला सिपाही : ऐ, रुको ज़रा।

(प्रफुल्ल अपनी चाल और भी तेज कर देते हैं, मगर बाकी सिपाही दौड़ कर प्रफुल्ल को चारों ओर से घेर लेते हैं। स्वयं को चारों ओर से घिरा देख प्रफुल्ल अपनी  कमर से पिस्तौल निकाल कर सिपाहियों पर फायरिंग कर देते हैं, तीन सिपाहियों घायल होकर नीचे गिर जाते हैं, अब पिस्तौल में आखिरी गोली बची है)।

प्रफुल्ल(कनपटी से रिवाल्वर सटाकर) : तुम जैसे पापियों के हाथों मरने से अच्छा मैं स्वयं ही मृत्यु का वरण कर लूँ। वंदेमातरम्......, वंदेमातरम्...... (कहकर ट्रिगर दबा देते हैं और धाँय की आवाज़ के साथ ही वह शेर  धरती पर गिर जाता है।) 

दृश्य - 4 : 

स्थान मुज़फ़्फ़र पुर जेल11अगस्त 1908

(खुदीराम को हथकड़ी लगाकर फांसी के तख्ते की ओर ले जाया जा रहा है, चेहरे पर अपूर्व तेज है, सफेद धोती कुरते पहने और हाथ में भगवद्गीता लिए कुछ गुनगुनाते हुए आगे बढ़ रहें हैं।) 

 हाकिंस: ये इंडिया का लोग भी अजीब होता है। छोटा बच्चा भी मरने के लिए कितना खुश हो रहा है। तुमको  डर नहीं लगता खुदीराम ? 

खुदीराम : डर ? (ज़ोर से हंसता है) डर कैसा? यह तो मेरा सौभाग्य है कि अपनी मातृभूमि पर अपने शीश का पुष्प चढ़ाने का अवसर मुझे इतनी जल्दी मिल गया। मैं धन्य हो गया। माँ भारती......( बेतहाशा हँसता है) 

हाकिंस (थोड़ा भयभीत होकर सकपका जाता है) : बस-बस। फाँसी का समय निकला जा रहा है। (थूक गटकता है) तुम्हारी कोई अंतिम  इच्छा ?

खुदीराम: हाँ है। 

 हाकिंस : क्या?

खुदीराम: जब भी जन्म लूँ, हिंदुस्तान की गोद मिले। (ऊपर की ओर देखते हुए) आता हूँ प्रफुल्ल! जेल के बाहर देख रहो हो न। कितने खुदीराम और प्रफुल्ल खड़े हैं। यह शोर सुनो चाकी, हमारी  शहादत व्यर्थ न होगी। देखो, देखो, बम की गूंज कितनी दूर तक गयी है, हा  हा हा !वंदेमातरम्.. ..वंदेमातरम्  !हिंदुस्तान ज़िंदाबाद..!! 

(फांसी का फंदा चूमकर अपने गले में डाल लेते हैं। ) 

हाकिंस (आश्चर्य मिश्रित भाव से) : सचमुच भारत का हर बच्चा शेर है।

(नेपथ्य में खुदीराम अमर रहे, प्रफुल्ल चाकी अमर रहे... वंदेमातरम् की आवाज़ गूंजती है। परदा गिरता है।)


✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत




 

गुरुवार, 10 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का व्यंग्य .... लाल टमाटर


रसोई घर में खड़े -खड़े मैं अचानक ही अच्छे दिन के ख्यालों में खो गयीं, जब मेरे किचन में टमाटर सड़ते ..म...म..... मेरा मतलब है कि रखे रहते थे.

बीस रुपये किलो टमाटर खरीद -खरीद कर न जाने कितनी बार टमाटर की चटनी, साॅस थोक में बनाकर रखी है. रोज नये -नये व्यंजनों की खुश्बू से महकती रसोई को न जाने महँगाई डायन की कैसी नज़र लगी कि नालायक  टमाटरों को लेकर ऐसी  उड़ान  छल्ली बनी  कि नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही है.

टमाटर की  चढ़ती रंगत और यौवन देखकर, घमंडी सेब -अनार तो पहले ही हीनभावना की झुर्रियों से ग्रसित होकर वृद्ध आश्रम की ओर रवाना हो चुके हैं.

उधर  रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन भोजन खा- खाकर बच्चों के मुँह उतरे हुए हैं, जिन्हें देख -देखकर कलेजा मुंँह को आ रहा है, कह रहे हैं कि हे माता जी !!आपने सावन के नाम पर सब्जी में प्याज तो पहले ही डालनी बंद कर दी थी, जीरा आठ सौ रुपये किलो बताकर सब्जी में जीरा भी नहीं डाल रहीं थीं . अब टमाटर भी बंद करके सब्जी की जीरो फिगर बना दी है.

 बार- बार ,चीख -चीखकर सवाल पूछ रहे हैं मुझसे, क्या है सब्जी  में ? लप्पू  सी सब्जी की झींगुर सी शक्ल है,इसे खायेगें हम !ऐसी सब्जी खिला-  खिलाकर हमें हीरो से जीरो  बना दिया है

उफ्फ़ ये मजबूरी !! एक एकअब इन्हें कौन समझाए  कि बेटा टमाटर के चक्कर में बजट ,कब से  घर के बाहर गेट पर ही  जीभ निकाले औंधे मुंँह पड़ा हुआ है.  हे सब्जियों के शंहशाह!, रंगबिरंगी चटनियों के  सम्राट , हे रक्ताभ ! हे !रक्त को बढ़ाने वाले.!...काहे... ?काहे गरीब का रक्त सुखाते हो? हे पिज़्ज़ा-  वर्गर की शान बढ़ाने वाले! हे !मोमोज  की नारंगी चटनी के स्वाद! !   देखिएगा !!..आपके बिना दम आलू  कैसे  बेदम होकर ज़मीन पर पड़ा अपनी अंतिम सांसे ले  रहा है, काजू -कोफ्ता आपके अभाव में अपने अस्तित्व  की रक्षा करते- करते,कब का वीरगति को   प्राप्त हो  चुका है.शाही -पनीर का शाही तख्त आपके सहारे के बिना अपने चारो पाये तुड़वाकर धड़ाम हो चुका है, गोभी- आलू को तो मानो लकवा ही मार गया और मुल्तानी छोले - चावल तो  आपके  वियोग मे  संभवतः मुल्तान को ही निकल लिये, काफी दिन से दिखाई  ही नहीं दिये.वैसे भी आजकल एक देश से दूसरे देश चोरी छिपे निकलने का नया  मौसम शुरू हो चुका है. हे सुंदर मुखड़े और खट्टे स्वाद वाले क्या  आपको ज्ञात नहीं कि दाल -मखनी  आपके  बिना वेंटिलेटर पर है और आलू- टमाटर की सदाबहार सब्जी तो मुझसे रूठकर ऐसी गयी है कि शायद अब  किसी भंडारे में ही जी भर कर मिलेगी वो भी अगर  बाँटने वाले ने पूड़ी पर रखकर  न दी तो....! वरना सारी सब्जी तो पूड़ी ही सोख लेंगीं.... !अरे जब भंडारा कर ही रहे हो तो क्यों दो चार थैली भर कर नहीं  देते लोगों को.! 

हे !सबसे बड़े महंगाई सम्मान से विभूषित, कमल के समान कांतिमान!!लाल टमाटर..!!.आपके बिना दाल -फ्राई का तड़का  लड़खड़ाते हुए अपनी अंतिम सांस तक आपको पुकारता रहा,परंतु  आपका कठोर हृदय फिर भी  नहीं पसीजा.  क्या तहरी के चावल, आलू,मटर -गोभी,   की चीखें भी आपको विचलित  नहीं कर सकीं ? आपके बिना वे किस प्रकार  दुर्गति को प्राप्त हुए ,  यह भी ज्ञात नहीं आपको?उन्हें क्या मालूम था कि आप जैसे सस्ते,हर मौसम में उपलब्ध  होने वाले ,अपनी औकात भूलकर सातवें आसमान पर जाकर ऐसा बैठ जायेगें  कि नीचे ही नहीं उतरेगें.    

टमाटरों की भारी किल्लत देखते हुए, कल  मैने अपनी दो चार पुरानी- धुरानी  कविताएँ, हिम्मत करके घर के बाहर बने  चबूतरे पर खड़े होकर  आते- जाते लोगों को सुनाने का   प्रयास भी किया ,मगर मजाल क्या ...!!किसी ने मेरी तरफ टमाटर उछालना तो दूर  ठीक से सुना भी नहीं मुझे ..., मूर्ख !!गैर साहित्यिक कहीं के...!! और तो और अपने हाथ की सब्जी का थैला दुबकाते हुए , नजरें नीची  किये चुपचाप मेरे सामने से ही निकल गये.. . !! अरे टमाटर  थैले में होते ,तभी  तो उछालते न  मेरी तरफ.....!!. कंगले कहीं के...!! हुँहहह... "

 हे सब्जियों की पवित्र आत्मा !!क्यों त्योहारों पर नाटक कर रहे हो, बात को समझो न टमाटर जी, अगर नीचे नहीं उतरे तो मेहमानों के सामने बहुत ज्यादा नाक कट जायेगी. अपनी दूर की बहनों लौकी- तोरई को देखो ज़रा... !!बेचारी कितनी सज्जन हैं, ज़रा भी भाव नहीं खातीं  कभी..!!और आज तक कभी नखरे भी नही किये उन्होंने ,..!!बेचारी हर परिस्थिति में शांत ही रहती हैं.और  बाज़ार में बैंगन के भुर्ते की आत्महत्या के बाद  तो आपके बिना बची -खुची सारी सब्जियांँ भी अज्ञात वास को चली गयीं हैं, तबसे यही लौकी तोरई रसोई घर में डटी हुई हैं.अभी टमाटर जी के चित्र के समक्ष यह  विनती चल ही रही थी कि  थी कि तभी बाहर से सब्जी वाले की आवाज आयी, 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

ले लो जिसकी जेब में माल

मैं दौड़कर गेट पर गयीं और  गेट की झिर्रियों में  टमाटरों के दिव्य दर्शन हेतु अपनी आँखें टिकायीं  ही थीं कि सब्जी वाले की पैनी निगाहें झिर्रियों को भेदते हुए, मेरी आंखों पर पड़ गयीं. उसने  कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए और ज़ोर से आवाज़ लगानी शुरू कर दी.. 

टमाटर लाल, टमाटर लाल

कहाँ छुपे सारे कंगाल

मैं सकपकाकर पीछे हट गयीं.पता नहीं सब्जी वाला सब्जी बेच रहा था या जले पर नमक छिड़क रहा था,  खैर...!मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोकते हुए अंदर की ओर भागी और गुस्से में अपनी कविताओं की डायरी को  आग के हवाले कर दिया... "जाओ! दफ़ा हो जाओ!जब तुम टमाटर तक न ला सकीं तो पुरस्कार क्या खाक़ लाओगी*! और टमाटर वाले की आवाज़ दूर होती जा रही थी... टमाटर लाल, टमाटर लाल, कहाँ छुपे सारे कंगाल... ले लो जिसकी जेब में माल

✍️मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद

मंगलवार, 27 जून 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के गीत संग्रह "मेघ गोरे हुए सांवरे" की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा ....सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे ,प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते गीत

 सृष्टि के आरंभ में जब चारो ओर मौन था, नदियों का जल मूक होकर बह रहा था. पक्षी गुनगुनाते न थे.भँवरे गुंजन न करते थे .पवन भी मौन होकर निर्विकार भाव से बहती थी, प्रकृति के सौंदर्य के प्रति मानव मन में भावनाएँ शून्य थीं , तब सृष्टि के प्रति  मानव की यह उदासीनता देखकर भगवान शिव ने अपना डमरू  बजाकर नाद की उत्पत्ति  की,  और फिर ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार माँ शारदे ने  अपनी वीणा को बजाकर  मधुर वाणी को जन्म दिया.जिसके फलस्वरूप नदियाँ कलकल करने लगीं ,पक्षी चहचहाने लगे. बादल गरजने लगे, पवन सनन- सनन  का शोर मचाती इधर से उधर बहने लगी. हर ओर गीत - संगीत बजने लगा. मानव मन की भावनाएँ मुखरित होकर शब्दों का आलिंगन करने लगीं तथा स्वर और ताल की लहरियों पर नृत्य करते गीत का अवतरण हुआ. तबसे लेकर आज तक गीत लोकजीवन का अभिन्न अंग  बने हुए हैं. गीत मानव मन की सबसे सहज व सशक्त अभिव्यक्ति है ही, इसके अतिरिक्त    काव्यपुरुष की कंचन काया से उत्पन्न विभिन्न विधाओं की रश्मियों में  सबसे चमकदार व अलंकृत विधा भी  गीत ही है.गीत  का उद्देश्य केवल मानव मन को आनंदित  करना ही नहीं है,अपितु  लोक कल्याण भी है. लोककल्याण हेतु ज्ञान का रूखा टुकड़ा पर्याप्त नहीं था .अतः  जनमानस के स्मृति पटल पर  ज्ञान को चिर स्थायी रखने हेतु , रूखे ज्ञान को विभिन्न रसों व छंदो में डुबोकर गीत के रूप में प्रस्तुत किया गया . इसी क्रम में डॉ अर्चना गुप्ता जी का यह गीत संग्रह " मेघ गोरे हुए साँवरे" इस उद्देश्य  की पूर्ति मे सफल जान पड़ता है.

आपका यह गीत संग्रह ,शिल्प की कसी हुई देह में छंदो के आकर्षक परिधान पहने, पूरी  सजधज के साथ  आपको  गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर  रहा है.गीतमाला का आरंभ पृष्ठ 17 पर  माँ शारदे की वंदना से होता है

कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ

लाई हूँ मैं भावनाओं के सुगंधित हार मांँ

ओज भर आवाज में तुम सर गमों का ज्ञान दो

गा सकूँ गुणगान मन से भाव में भर प्रान दो

कर सकूँ अपने समर्पित मैं तुम्हें उद्धार माँ

कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ

गीत कवयित्री डॉ अर्चना गुप्ता जी अपने शीर्षक गीत पृष्ठ संख्या 21 गीत नं. 2  "मेघ गोरे हुए सांवरे" से ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती हैं. जब एक प्रेयसी के कोरे मन पर प्रियतम  की सांँवरी छवि अंकित होती है, तब मन की उमंगें मादक घटाएँ बन कर बरस- बरस  कर गाने लगती हैं.. 

मेघ गोरे हुए सांवरे

देख थिरके मेरे पांव रे

बह रही संदली सी पवन

आज बस मे नही मेरा मन

झूमकर गीत गाने लगीं

स्वप्न अनगिन सजाने लगी

कल्पनाओं में मैं खो गयी

याद आने लगे गाँव रे

देख थिरके मेरे पाँव रे.

डॉ अर्चना गुप्ता जी की पावन लेखनी जब भावों के रेशमी धागों में शब्दों के  मोती पिरोकर ,गीतों का सुकोमल हार तैयार करती है ,तब एक  श्रृंगारिक कोमलता अनायास ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती है... पृष्ठ नं.22पर  "प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे" गीत की पंक्तियाँ  देखिएगा.. 

पोरुओं से उन्हें हम उठाने लगे

अश्रु भी उनको मोती के दाने लगे

जब पिरोया उन्होंने प्रणय डोर में

प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे

संयोग  और वियोग , दोनो ही परिस्थितियों में कवयित्री ने प्रेम की उत्कंठा को बड़े यत्नपूर्वक संजोया है.प्रेम की मार्मिक अभिव्यक्ति, जब होठों के स्थान पर आंखों से निकली तो दुख और बिछोह  की पीड़ा के खारेपन  ने आपकी लेखनी की  व्यंजना शक्ति   को और भी अधिक मारक बना  दिया है.पृष्ठ नं. 55 पर  गीत संख्या 32 के बोल इस प्रकार हैं.

बह रहा है आंख से खारा समंदर

ज़िन्दगी कुछ इस तरह से  रो रही है

रात की खामोशियाँ हैं और हम हैं

बात दिल की आँसुओं से हो रही है

नींद आंखों मे जगह लेती नहीं है

स्वप्न के उपहार भी देती नहीं है

जग रहे हैं हम और दुनिया सो रही है

बात दिल की आंसुओं से हो रही है

मगर श्रृंगार लिख कर ही आप ने अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं की है.. आपकी लेखनी जीवन की  सोयी हुई आशा को झंझोड़ती है और उसे उठकर,कर्तव्य पथ पर चलने का आह्वान भी करती है . पृष्ठ संख्या 47 पर गीत सं.25 की पंक्तियाँ देखिएगा... 

पार्थ विकट हालात बहुत है मगर सामना करना होगा

अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनों से लड़ना होगा

समझो जीवन एक समर है, मुख मत मोड़ो सच्चाई से

लड़ना होगा आज समर में, तुमको अपने ही भाई से

रिश्ते- नाते, संगी- साथी, आज भूलना होगा सबको

और धर्म का पालन करने, सत्य मार्ग पर चलना होगा

अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनो से लड़ना होगा

डॉ. अर्चना गुप्ता जी का नारी सुलभ मन  कभी प्रेयसी बन कर लाजवंती के पौधे सा सकुचाया तो , कभी मां बनकर बच्चों को दुलारता दिखता  है . कभी पत्नी बनकर गृहस्थी की पोथी बांँचता  है, तो कभी बहन बनकर भाई के साथ बिताये पल याद कर भावुक हो उठता है और जब यही मन बेटी बना तो पिता के प्रति प्रेम, स्नेह, आदर, और कृतज्ञता की नदी बन भावनाओं के सारे तटबंधों को तोड़ , गीत बनकर बह चला.पृष्ठ संख्या 65 पर  गीत संख्या 38 हर बेटी के मन को छूती रचना अति उत्कृष्ट श्रेणी में रखी जायेगी .गीत की पंक्तियाँ बेहद मार्मिक बन पड़ी हैं... 

मेरे अंदर जो बहती है, उस नदिया की धार पिता

भूल नहीं सकती जीवन भर, मेरा पहला प्यार पिता

मेरी इच्छाओं के आगे, वे फौरन झुक जाते थे

मगर कभी मेरी आँखों में, आँसू देख न पाते थे

मेरे ही सारे सपनों को देते थे आकार पिता

भूल नहीं सकतीं जीवन भर मेरा पहला प्यार पिता 

आपकी कलम ने जब देशभक्ति की  हुंकार भरी तो भारतीय नारी के आदर्श मूल्यों का पूरा चित्र ही गीत के माध्यम से खींच दिया, जब वो अपने पति को देश सेवा के लिए  हंँसते- हँसते  विदा करती है..तब. पृष्ठ संख्या 113 ,गीत संख्या 76 पर ओजस्वी कलम बोल उठती है

जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना

राह देखूंगी तुम्हारी शीघ्र ही तुम लौट आना

सहचरी हूँ वीर की मै , जानती हूँ धीर धरना

ध्यान देना काम पर चिंता जरा मेरी न करना

भाल तुम माँ भारती का, नभ तलक ऊंचा उठाना

जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना

 इसी क्रम में एक नन्ही बच्ची के माध्यम से एक सैनिक के परिवार जनो की मन: स्थिति पर लिखा गीत पढ़कर तो आंखे स्वयं को भीगने से नहीं रोक पायीं.... पृष्ठ संख्या 121 ,गीत संख्या 82..

सीमा पर रहते हो पापा, माना मुश्किल है घर आना

कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मै बस ये बतलाना

दादी बाबा की आंखों में, पापा सूनापन दिखता है

मम्मी का तकिया भी अक्सर मुझको गीला मिलता है

देख तुम्हारी तस्वीरों को, अपना मन बहलाते रहते, 

गले मुझे लिपटा लेते ये, जब मैं चाहूँ कुछ समझाना

कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मैं बस ये बतलाना

इसी क्रम में आपकी लेखनी ने जब तिरंगे के रंगों को मिलाकर माँ भारती का श्रृंगार किया तो अखंड भारत की तस्वीर जीवंत हो उठी .पृष्ठ संख्या 117 पर .हिंदुस्तान की शान में  लिखा ,भारत सरकार द्वारा दस हजार रूपये. की धनराशि से पुरस्कृत  गीत नं. 79 आम और खास सभी पाठकों से पूरे सौ में सौ अंक प्राप्त करता प्रतीत होता है.गीत के बोल हैं... 

इसकी माटी चंदन जैसी, जन गन मन है गान

जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान

है पहचान तिरंगा इसकी, सबसे ऊंची शान

जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान

सर का ताज हिमालय इसका, नदियों का आँचल है

ऋषियों मुनियों के तपबल से, पावन इसका जल है

वेद पुराणों से मिलता है, हमें यहाँ पर ज्ञान

जग में सबसे प्यारा है ये, अपना हिंदुस्तान

इसके अतिरिक्त वक्त हमारे भी हो जाना, ये सूर्यदेव हमको लगते पिता से, कुछ तो अजीब हैं हम, ओ चंदा कल जल्दी आना, पावन गंगा की धारा, मैं धरा ही रही हो गये तुम गगन. आदि गीत आपकी काव्यकला का उत्कृष्ट प्रमाण देते हैं.

डा. अर्चना जी के गीतों की भाषा -शैली सभी मानकों पर खरी उतरती हुई,आम बोलचाल की भाषा है,शब्द कहीं से भी जबरन थोपे  हुए प्रतीत नहीं होते हैं. आपकी लेखनी पर- पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति करने में भी सफल रही है. सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे सभी गीत गेयता, लय, ताल व संगीत से अलंकृत हैं.प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते, उत्सवों को मनाते, प्रकृति के सानिध्य में अध्यात्म की वीणा बजाते और देश सेवा को समर्पित गीतों का यह संग्रह , सुंदर छपाई, जिल्द कवर पर छपे मनभावन वर्षा ऋतु के चित्र के साथ रोचक व प्रशंसनीय बन पड़ा है . मेरा विश्वास है कि  डा. अर्चना गुप्ता जी के ये साँवरे सलोने गीत हर वर्ग के  पाठकों का मन मोह लेंगे.


कृति
: मेघ गोरे हुए सांँवरे (गीत संग्रह) 

कवयित्री : डॉ अर्चना गुप्ता

प्रकाशक : साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा 201301

प्रकाशन वर्ष : 2021

मूल्य : 299₹


समीक्षक
: मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 



शनिवार, 10 दिसंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का नवगीत ..... प्रेम के टुकड़े हुए हैं, काम के उन्माद में

 


प्रेम के टुकड़े हुए हैं

काम के उन्माद में


साधुओं के रूप में

भेड़िये छलने लगे हैं

नग्न रिश्ते हो रहे हैं

वासना के कूप में 

क्यों भरोसा बुलबुलों को

हो रहा सय्याद में 


लग रहे माँ-बाप दुश्मन 

गैर लगता है सगा 

सभ्यता का क़त्ल करके

दे रहे खुद को दगा

कंस बैठा हँस रहा है

आजकल औलाद में 


हो रहे लिव इन रिलेशन

के बहुत अब चोंचले

भुरभुरी बुनियाद पर मत

घर करो तुम खोखले 

सात फेरों की शपथ अब

हो नहीं परिवाद में 


✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का नवगीत ..... पुते चुनावी रंगों में फिर, गिरगिटिया अय्यार


पुते चुनावी रंगों में फिर

गिरगिटिया अय्यार


उल्लू और गधे आपस में 

जमकर हिस्सेदार बने 

दीन धर्म के ही सौदे को 

जगह- जगह बाज़ार तने 

लेकर लच्छे वाले भाषण 

दल -बदलू तैयार


चमकीले रैपर में लिपटे 

वादों के दिन झूम रहे

हर वोटर को शीश नवाते 

हाथ जोड़ते घूम रहे 

घुटनों के बल बैठ रहे हैं 

बड़े- बड़े किरदार


मंदिर - मस्जिद पर मुद्दों के 

काले बादल छाये हैं 

राजनीति का चोला पहने 

भेड़ - भेड़िये आये हैं 

लोकतंत्र है जन के हित में 

भली करें करतार

✍️ मीनाक्षी ठाकुर 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की बाल कहानी ---- बत्तख का बच्चा

 


सोना बत्तख अपने दोनों बच्चों सोनू और मोनू के साथ एक बड़ी सी झील में रहती थी.उस झील का पानी बहुत  ही साफ और नीले रंग का था . उस झील में बहुत सुंदर- सुंदर  लाल और सफेद रंग के कमल के बड़े- बड़े फ़ूल खिले  हुए थे. सोना बत्तख बच्चों को लेकर झील के किनारे- किनारे ही तैरती रहती थी, झील के बीच में या अधिक दूर तक नहीं जाती थी, क्योंकि झील के बीच में एक बहुत ही  बड़ी और खतरनाक  मछली रहती थी, जो बत्तखों के छोटे बच्चों को पकड़ कर खा जाया करती थी.लेकिन वह झील के किनारे वाले पानी में नहीं आती थी, क्योंकि यहाँ पर बत्तखों के बहुत सारे परिवार आपस में मिलजुल कर रहते थे.अत: किसी भी बड़ी मछली के इस ओर आने पर सब बतखें एक साथ मिलकर, उस पर अपनी चोंच से हमला बोलकर उसे भगा देतीं थीं.

    सोना बत्तख के दोनो बच्चे बहुत सुंदर और मोती जैसे सफेद रंग वाले थे.सोनू जहाँ समझदार था, वहीं मोनू बहुत ज़िद्दी, लापरवाह  और नटखट था .वह किसी बड़े का कहना भी नहीं मानता था.सोना ने  दोनो बच्चों को झील के बीच में न जाने की सख्त़ हिदायत दे रखी थी.एक दिन सोना दोनो बच्चों को झील के किनारे बैठाकर शाम के भोजन का इंतजाम करने अपनी सहेलियों के साथ थोड़ी देर के लिए कहीं चली गयी. जाते- जाते ,सोनू और मोनू से झील के अंदर जाने को मना कर गयी. लेकिन सोना के जाते ही मोनू चुपके से झील के पानी में उतर गया और अकेला तैरने लगा. उसे तैरने में बहुत मज़ा आ रहा था.रंग -बिरंगे कमल के फूलों को देखता हुआ, वह कब झील में बीचो -बीच पहुँच गया, उसे पता ही नहीं चला.जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ से किनारा बहुत दूर था.उसे मोनू और सोना कहीं नज़र नहीं आ रहे थे.

 अब तो वह घबरा कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगा. तभी उसने एक बड़ी सी मछली को अपनी ओर आते देखा. यह वही खतरनाक मछली थी, उसे देख वह भय से थर- थर काँपने लगा. तभी, उसे अपने पीछे से  एक  बड़ी मीठी सी आवाज सुनाई दी, "घबराओ मत प्यारे बच्चे..!आओ मेरे ऊपर बैठ जाओ..! जल्दी करो..!"उसने पीछे मुड़कर देखा तो एक सफेद रंग का बड़ा सा कमल का फ़ूल , उसे बुला रहा था.अतः मोनू तुरंत कूद कर उस कमल के फूल पर अपने शरीर को सिकोड़ कर बैठ गया.

वह बड़ी मछली जब  उधर आयी तो सफेद रंग के कमल के फूल पर छिपे हुए सफेद बत्तख के बच्चे को नहीं देख पायी.इस प्रकार दोनो,  एक रंग के होने के कारण उस मछली को चकमा देने में सफल हो गये.

  थोड़ी देर में कमल का फ़ूल मोनू को लेकर तैरता हुआ, किनारे पर ले आया, जहाँ सोना और सोनू, मोनू के लिए बहुत परेशान हो रहे थे. मोनू को घर वापस आया देखकर वे दोनों बहुत खुश हुए, और सफेद कमल को उसकी दयालुता के लिए धन्यवाद दिया. मोनू ने भी अपनी माँ सोना से  माफी माँगी और  वादा किया कि वह अब कभी  भी बिना बताये, घर से अकेला कहीं नहीं जायेगा और बड़ों का कहना मानेगा.अब तीनों मिलकर पहले की तरह खुशी -खुशी रहने लगे.


✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की बाल कहानी ...चतुर चीनू


कक्षा तीन मे पढ़ने वाला, नौ साल का चीनू बहुत ही नटखट  था.दिन भर उछलकूद करना और अपने से दो साल छोटी बहन को छेड़ना, उसकी आदत थी. परंतु वह पढ़ाई में बहुत तेज होने के साथ साथ,इतनी सी उम्र में ही कठिन से कठिन समस्या को भी एक पल में हल कर देता था. उसकी चतुराई का लोहा, उसकी कक्षा के सहपाठी, तथा कक्षा के समस्त अध्यापक भी मानते थे. दादा-दादी की तो आँखों का तो वह तारा था.

एक बार  चीनू के घर  पता नहीं कहाँ से बहुत सारे चूहें आ गये.उन चूहों ने सबकी नाक में दम कर दिया.रोज ही तरह- तरह के नुकसान करने लगे. यह देख  कर चीनू की दादी जी ने चीनू की माँ को चूहेदानी लगाने की सलाह दी, परंतु  चूहेदानी में एक चूहे के फंँसने के बाद, बाकि चूहे सचेत हो गये और चूहेदानी के पास तक नहीं फटके.

 थक हार कर चीनू के दादा जी बाज़ार से चूहे मार दवाई ले आये और चीनू की मांँ को घर के कोनो, बैड व अलमारियों के नीचे तथा जहाँ -जहाँ वे चूहे छुप जाते थे, वहाँ- वहाँ  वह दवाई रखने को दे दी. दवाई खाकर चूहे मरने  तो लगे, परंतु मरकर उनमें से बदबू आने लगी थी और फिर  इतने बड़े घर में उनके मृत  और बदबूदार शरीर को ढूँढकर, फेंकना भी बड़ा मुश्किल हो गया था.

 तब एक दिन चीनू के पापा जी ने चीनू से हँसते हुए कहा, " चीनू! वैसे तो तुम बहुत बुद्धिमान बनते हो, पर मुझे लगता है कि ये चूहें तुमसे भी ज्यादा बुद्धिमान हैं, इन्हें घर से भगाकर दिखाओ तो जानें....! " चीनू  अपनी प्रशंसा से उत्साहित होकर, हंँसता हुआ बोला, "अभी लीजिए, पापा जी !..आपने पहले क्यों नहीं बताया कि आपसे  चूहें सँभल नहीं रहे...! मैं अभी दो मिनट में सारे चूहें भगा देता हूँ" इसपर चीनू की मम्मी बोलीं, "ओहो.. चीनू.. कुछ ज्यादा ही बोल गये हो, इतने दिन से हम लोग  तो चूहों को भगा नहीं पाए और तुम दो मिनट में भगा दोगे! भई वाहह हह..!!. कोई जादू है क्या? "चीनू ने मुस्कुरा कर कहा, " हाँ मम्मी जी...जादू ही समझ लीजिए...!, बस आप देखती  रहिए.! !क्या होता है? "

इतना कहकर चीनू अपनी खिलौने वाली अलमारी में से रिमोट कंट्रोल वाली मिनी कार ले आया, जिसे चलाने पर रंग -बिरंगी बत्तियों के साथ- साथ हूटर भी बजता था अब .उसने अपनी उस खिलौना कार को नीचे फर्श पर रख दिया और रिमोट से बटन दबाकर पूरे घर के बैड, अलमारियों और फर्नीचर के नीचे दौड़ाने लगा. जैसे ही कार हूहूहूहू की आवाज़ निकालती हुई, अलमारियों और बैड के नीचे  लाल- हरी बत्ती जलाती, दौड़ना शुरू हुई तो अलमारियों के नीचे, और फर्नीचर के पीछे दुबके  सारे चूहे  घबरा गये, उन चूहों ने  शायद पहली बार   ऐसा  अजीबोगरीब प्राणी  देखा था, जो रोशनी के साथ- साथ भयानक आवाज़ भी  निकाल रहा था.अत: सारे चूहों में भगदड़ मच गयी और वे निकल- निकल कर घर से बाहर भागने लगे.यह देख कर चीनू ज़ोर- ज़ोर से हँसने लगा और छुटकी   भी तालियाँ बजा -बजाकर  नाचने लगी.चीनू की यह चतुराई देखकर  चीनू के पापा जी ने चीनू को गोद में उठा लिया और चीनू के .दादा- दादी और मम्मी भी  खुश होकर चीनू की बलैया  लेने लगे.

✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मंगलवार, 6 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार के ग़जल संग्रह ' आओ! खुशी तलाश करें ' की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा......रश्मियाँ बिखेरतीं आशावादी ग़जलें

ग़ज़ल शब्द सुनते ही कानों में मिठास घुल जाती है और लगता है हम किसी  मनोरम स्थान पर झरने के नज़दीक एकांत में बैठकर प्रकृति की मधुर स्वर लहरियों में कहीं खो से गये हैं.ग़ज़ल  का हर शेर स्वयं में एक पूर्ण कविता, एक कहानी लिये होता है. इसी क्रम में   महानगर मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार जी का  ग़जल संग्रह ' आओ! खुशी तलाश करें 'मुरादाबाद की ग़ज़ल यात्रा में एक संगीत का दरिया बनकर प्रवाहित हुआ है.

आपके ग़ज़ल संग्रह   का शीर्षक ही 'आओ! खुशी तलाश करें ' जीवन से भरपूर  व आशावादी दृष्टिकोण लिए हुए पाठकों के  समक्ष  प्रस्तुत हुआ है.आपकी  ग़ज़लों ने परंपरागत शैली से हटकर मानव मन की पीड़ा को स्पर्श करते हुए, उस पीड़ा को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास किया है.   वस्तुतः आपके ग़ज़ल संग्रह की प्रथम ग़ज़ल  ही   सूर्य की प्रथम किरण की भाँति सकारात्मकता का सवेरा लिए  अवसादों के अँधियारों को धूल चटाने में सक्षम  प्रतीत होती है .  संग्रह   का शीर्षक ही 'आओ! खुशी तलाश करें ' जीवन से भरपूर  व आशावादी दृष्टिकोण लिए हुए पाठकों के  समक्ष  प्रस्तुत हुआ है.आपकी  ग़ज़लों ने परंपरागत शैली से हटकर मानव मन की पीड़ा को स्पर्श करते हुए, उस पीड़ा को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास किया है.   वस्तुतः आपके ग़ज़ल संग्रह की प्रथम ग़ज़ल  ही   सूर्य की प्रथम किरण की भाँति सकारात्मकता का सवेरा लिए  अवसादों के अँधियारों को धूल चटाने में सक्षम  प्रतीत होती है . चंद शेर देखिएगा.. 

" ग़मों के बीच से आओ खुशी तलाश करें

अँधेरे चीर के हम रोशनी तलाश करें

खुशी को अपनी लुटाकर खुशी तलाश करें

सभी के साथ में हम ज़िन्दगी तलाश करें"

एक अन्य ग़ज़ल के चंद शेर प्रस्तुत हैं

 "मैं गीत में वो सुखद भावनाएँ भर जाऊँ

कि छंद छंद में बनकर खुशी उतर जाऊँ

हटा सकूँ मैं रास्तों से सभी काँटों को

हर एक राह पे फूलों सा मैं बिखर जाऊँ"

आप के सहज, सरल और निश्चल हृदय की परिक्रमा करती एक अन्य ग़जल नि:संदेह  उच्च विचारों की गरिमा के परिधान पहने सामाजिक हितों व संस्कृति के चरण पखारती प्रतीत होती है.इस ग़ज़ल के चंद शेर मतले सहित बेहद शानदार बन पड़े हैं. यथा.

 "अरूण को सवेरे नमन कर रहा हूँ

मैं उन्नत स्वयं अपना तन कर रहा हूँ

लिखूँ मैं सदा जन हितों की ही बातें

विचारों का मैं संकलन कर रहा हूँ"

आपने अपनी ग़ज़लों को शिल्प के  कठोर बंधन में बांधकर भी मन के भावों के तन पर लेशमात्र भी खरोंच  नहीं आने दी है. आपकी कलम के अनुभवी दृष्टिकोण ने इंसानी स्वभाव का बहुत सधा हुआ मूल्यांकन भी किया है.और तंज भी किया है. आपकी ग़ज़लों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपने इस संग्रह में हिंदी के शुद्ध शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है . उर्दू के शब्दों के जबरन प्रयोग को आपने दरकिनार किया है.यह हिंदी  साहित्य के लिए एक सुखद  प्रयोग है  साथ ही नैतिकता के जिस शिखर को आपकी ग़ज़लों ने स्पर्श किया है वह विरले ही देखने को मिलता है. इस क्रम में कुछ शेर प्रस्तुत हैं

"सुख तो औरों को मिला लेकिन श्रमिक को वेदना

जबकि उसके श्रम  से सुख के पुष्प विकसित हो गए"


"किया है उसने किसी खल का अनुसरण मित्रों

कि जिससे बिगड़ा है उसका भी आचरण मित्रों"


  "बुरे समय में अगर किसी के जो भी साथ निभायेगा

खुशियाँ उसके पाँव छुएंगी वो हरदम मुस्काएगा.

कष्ट पड़े चाहे जितने भी मलिन नहीं साधु होगा

जैसे जैसे स्वर्ण तपेगा  और निखरता जायेगा"


"काम आए जो दूसरों के सदा

वो ही बड़े महान होते हैं

बढ़ती जाती है ज़िम्मेदारी भी

जबकि बच्चे जवान होते हैं"


"काम बन जाते हैं बिगड़े भी सरल व्यवहार से

मान जाते हैं बड़े रूठे हुए मनुहार से"

संघर्ष और मुश्किलों में भी सदैव मुस्कुराती आपकी गज़लें आज के आभासी युग में पाठकों के लिए और भी अधिक प्रेरणास्रोत बन जाती हैं, आपकी ग़ज़लों में महबूब की बेवफाई का रोना धोना नहीं है और न ही फालतू के शिकवा शिकायत हैं वरन्  प्रेम के सकारात्मक पहलू ही आपकी ग़जलों के आभूषण बने हैं.आपकी ग़ज़लें देश की फिक्र करती हैं तो आम आदमी की पीड़ा के साथ ही  महबूब से भी गुफ्तगू करती हैं. रुमानियत और खुरदरे धरातल दोनो का ख़याल  रखते  आपके अशआर अद्भुत हैं  एक बानगी देखिए.. 

"मिल जाए उनका प्यार तो खुशियाँ मिलें सभी

उनके करम के सामने टिकते हैं ग़म कहाँ"

और . . . 

"साथ तुम्हारे होने भर से

मंगल है मेरे जीवन में

मन में कसक रह गयी अबकी

भीग न पाए इस सावन में"

यथार्थ के धरातल पर उगे आम आदमी की पीड़ा के स्वर भी आपकी ग़ज़लों में बखूबी दिखते हैं.. 

"दिल लरजते  हैं सभी, महंगाई की रफ़्तार देख

होश खो देते हैं कितने आजकल बाज़ार देख"


"बैचेन किया है सबको रोज़ी के सवालों ने

तूफान उठाया है रोटी के निवालों ने"


"इस दौर में ये कौन सा कानून चल गया

जो रोजगार को भी यहाँ के निगल गया

पानी को पी के जिसके बुझाते थे प्यास सब

नाले में गंदगी के वो दरिया बदल गया"

आतंकवाद  पर भी आपकी कलम खूब चली है.. 

"नफरत को मुहब्बत मे बदलने नहीं देते

है कौन जो दुनिया को संभलने नहीं देते"

आपके भीतर का देश प्रेमी अपने अशआरके ज़रिए नौजवानों के हृदय में देश भक्ति की अलख  जगाने में भी सफल रहा है.. 

"जिसको वतन से प्यार है, अहले वतन से प्यार है

मेरी नज़र में दोस्तों! काबिले ऐतबार है"

"ज़ात, मज़हब, धर्म के झगड़े मिटाने के लिए

आओ सोचें बीच की दीवार ढाने के लिए "

 कहा जाता है कि आइना अपनी तरफ से कब बोलता है, इसी  क्रम में  सौम्यता और सादगी से परिपूर्ण और सबका हित चाहती आपकी ग़ज़लें देश, दुनिया, राजनीति, आम जनता और महबूब के मन के भावों को ही  परावर्तित करती प्रतीत होती है. समर्पण की भावना को लेकर प्रारंभ हुई आपके  इस ग़जल संग्रह की यात्रा  ,स्वर कोकिला कीर्ति शेष लता मंगेशकर जी को शब्दाजंलि पर आकर समाप्त होते हुए अपने साथ अनेक भावों को समेटकर पाठकों के हृदय के तट स्थल छोड़ देती है,अंत में आपको ग़ज़ल संग्रह की बधाई प्रेषित करते हुए, आपके ही एक शेर से अपनी बात समाप्त करती हूँ.

"दर्द की सबके लिए दिल में चुभन ज़िंदा रहे

मुझमें सबके दुख मिटाने की लगन ज़िंदा रहे."


कृति : आओ! खुशी तलाश करें (ग़ज़ल संग्रह)

रचनाकार : ओंकार सिंह 'ओंकार'

प्रकाशन : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष : 2022

मूल्य : 250₹

समीक्षक : मीनाक्षी ठाकुर

 मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर के दो नवगीत .......


(एक) महँगाई

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महॅंगाई ने जबसे पहनी,

अच्छे दिन की अचकन।


ठंडा चूल्हा, चौके की बस,

करता रहा समीक्षा।

कंगाली में गीला आटा, 

लेता रहा परीक्षा।

जाग  रही है भूख अभी भी,

ऊँघ  रहे सब बरतन।


मीटर चालू बत्ती गुल तो,

ठलवे  हैं अँधियारे।

जिसकी आमद होय अठन्नी,

वो क्या रुपया वारे।

बिजली बिल को देख बढ़ी है,

 हर गरीब की धड़कन।


राशन की कीमत भी जबसे, 

बढ़कर ऊपर उछली।

अवसादों में घिरे बजट की, 

 टूटी  हड्डी-पसली।

सब जन मिलकर ढूँढ रहे हैं, 

अब विकास की कतरन।

(दो)  सर्वश्रेष्ठ अभिनय-

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सर्वश्रेष्ठ अभिनय जीवन का,

होता  केवल खुश दिखना।


सुख की मंज़िल पाने को  हर,

दुख की दुखती रग पकड़ी।

फिर भी उलझन के जालों को,

बुने गयी मन की मकड़ी।

कठिन प्रश्न से इस जीवन का,

मुश्किल है उत्तर लिखना।


ज़िम्मेदारी के काँटों पर,

कब फुर्सत की सेज सजी।

ख्वाहिश के हर व्यंजन वाली,

 मेज रह गयी सजी -धजी।

अमृत -मंथन करके भी ,पर,

 पड़ जाता विष ही चखना।


यदा कदा ही सही, कहीं पर,

जुगनू अब भी दिखते हैं।

घोर  अँधेरे के  सीने पर,

चमकीले क्षण लिखते हैं।

हमने भी जी को सिखलाया,

उम्मीदें पाले रखना।


  मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत



गुरुवार, 21 जुलाई 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का एकांकी ---चिंगारी । यह एकांकी ’साहित्यिक मुरादाबाद’ द्वारा आयोजित लघु नाटिका / एकांकी प्रतियोगिता के कनिष्ठ वर्ग में प्रथम स्थान पर रहा ।


पा
त्र परिचय..

मातादीन : (खलासी) 

मंगलपांडे : (अंग्रेजी फौज में भारतीय सैनिक)

काली पलटन के दो अन्य सैनिक : इब्राहिम और राम सरन

जेम्स मैथ्यू : अंग्रेज अधिकारी


               (  अंक 1) 


दृश्य एक, समय दोपहर

( मेरठ छावनी परिसर ,मार्च सन् 1857 ) 


(  मातादीन, छावनी में पसीने से तरबतर पानी पीने की दिशा में जा रहा है, तभी रास्ते में मंगल पांडे जिनके हाथ में पानी का लोटा है, उसे मिलते हैं ) 

मातादीन : राम राम पांडे जी! (गले में पड़े गमछे से पसीना पोंछता हुए) 

मंगलपांडे : राम -राम, क्या हालचाल हैं ? 

मातादीन : अच्छे है जी, आप बताओ... ? 

मंगलपांडे : (अपनी मूंछों को ताव देते हुए) हम भी मज़े में  हैं... कल अखाड़े में एक गोरे को पछाड़ा  है.. ससुर का नाति बहुत जोस दिखा रहा था... ! ! 

मातादीन : कभी हम से भी पहलवानी आज़माओ तो जाने कितना जोस है तुम्हारे बाजुओ में ?? ( हंसते हुए, कमीज की आस्तीनों को ऊपर चढ़ाता है) 

मंगलपांडे : बस.... !बस! दूर ही रहो हमसे! 

मातादीन :  (व्यंग्य पूर्वक) अच्छा जी? लो हो गये दूर.(.. कूदकर  उल्टा ही एक कदम पीछे हट जाता है) ) चलो हमें बहुत प्यास लगी है... तनिक अपने लोटे से पानी तो पिलवाई दो । (...हंसता है) 

मंगलपांडे: (आक्रोशित होते हुए) ऐ !! दूर रह हमसे...!!

हमारा धर्म भ्रष्ट करेगा क्या ?? होश में रह!! 

(उनकी यह झड़प सुनकर आसपास खड़े दो भारतीय सिपाही  (काली पलटन) , आ जाते हैं।) 

इब्राहिम : क्या हुआ मंगल भैया? किस बात पर भड़क रहे हो? 

मंगलपांडे : ज़रा इस मातादीन को तो देखो, कह रहा है कि अपने लोटे से पानी पिला दें... इसे..!!. हुंह हमार लोटे को हमारे अलावा कोई छू भी नहीं सकता!! 

रामसरन : अरे!!मंगल भैया... छोड़ो भी... !!इस माता दीन  को तो यही काम है बस.... फौज में खलासी क्या हुई गवा... खुद को फौज का बड़ा अफसर समझने लगा है...! कहता है मैं जो कहता हूँ, मुंह पर कहता हूँ... !! 

मंगलपांडे : फौज में है तो सबका ईमान धर्म भ्रष्ट करेगा क्या? जात पात भी कोई चीज़ है भाई... 

(यह सब सुनकर माता दीन का चेहरा गुस्से में लाल पड़ गया) 

माता दीन : (उपहास उड़ाने वाले स्वर में, जोर से चीखा) ऐ पंडत!! बड़ा चुटिया धारी ब्राह्मण बना फिरते हो!!! जब बंदूक चलाते समय मुहं से गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस खींचते हो तब तुम्हारा ईमान धर्म कहाँ चला जाता है..... हा हा हा..... शायद पानी पीने.... !!! 

मंगलपांडे : (चीखते हुए) माता दीन!!!!!!! ज़बान को लगाम दे, बदतमीज़!! वरना.....!! 

माता दीन : (बीच में ही रोकते हुए) वरना...वरना क्या कर लोगे ??? मारोगे मुझे..?(आंखें फाड़ते हुए) अरे मैनै अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना है... !! वो जो फैक्ट्री है न कलकत्ते में...!!...ऊ में क्या क्या होता है ... ??  सब जानते हूं...!!गाय और सुअर की चर्बी.... ! ! 

(माता दीन की बात पूरी होने से पहले ही.. मंगलपांडे बीच में ही चीख पड़़ता है) 

मंगलपांडे : (गुस्से से आंखें लाल करते हुए, दांतों को पीसते हुए )  बस कर मूरख....!!अगर ये बात  गलत साबित  हुई तो... !!तो तेरी खोपड़ी इसी बंदूक से उड़ा दूंगा

माता दीन: (कमर पर दोनो हाथ टिकाकर  भवों  को चढ़ाते हुए)  अच्छा जी...!!और अगर सच हुई तब? तब क्या करोगे पंडत??? 

मंगलपांडे : (सीना ठोकते हुए)तब !!तब दुनिया देखेगी... एक चुटिया धारी पंडत का अंग्रेज़ों से इंतकाम....  कि एक  ब्राह्मण का धर्म भ्रष्ट करने का क्या अंजाम होता है....इतिहास बार बार याद करेगा . इस पंडत को..... !!! सदियां नाम पुकारेंगे मंगल पांडे का...!! सदियां...... (पागलों की तरह बेतहाशा चीखता है) 

मातादीन : अगर ऐसी बात है,तो सुन पंडित ध्यान से...!!. जब जब  इतिहास तेरा नाम दोहरायेगा... तो उसमें एक नाम और जुड़ेगा....!! और वो होगा..मातादीन  का....!! (अपना सीना ठोकता है) तू अगर बारूद का ढेर है तो मैं उस बारूद की चिंगारी बनूंगा...हिंदुस्तान तेरे साथ मातादीन का नाम भी उसी इज्जत से लेगा... जिस इज्जत से तुझे याद करेंगा पंडित!!! फिर तेरा धर्म.. मेरा धर्म.. एक राष्ट्र धर्म बन कर इतिहास में अमर हो जायेगा... और हाँ (  भावुक होता हुए) गाय और सुअर की चर्बी वाली बात गलत निकली तो मातादीन का सर हाज़िर है्..शौक से उड़ा देना! (सिर झुकाता है) 

(उसकी यह बात सुनकर मंगलपांडे भावुक हो जाते हैं और आगे बढ़कर मातादीन को गले से लगा लेते हैं, दोनों की आंखों से गंगा-जमुना बह निकलती है) 

उनकी यह बातें सुनकर बाकी दो सैनिक भी साथ में नारा लगाते हैं...  तेरा धर्म- मेरा धर्म... हम सबका धर्म.. राष्ट्र धर्म.... ( नेपथ्य में विप्लव के स्वर गूंजने लगते हैं.) 

दृश्य दो : 8 अप्रैल, 1857, बैरकपुर छावनी, 

समय: सुबह दस बजे

(अंग्रेज अधिकारियों की हत्या व बग़ावत फैलाने के ज़ुर्म में मातादीन और मंगलपांडे को फांसी की सजा हो जाती है) 

जान मैथ्यू : (उपहास भरे स्वर मेंं) मंगलपांडे कुछ बोलोगे नहीं अब...? 

मंगलपांडे: (हंसते हुए गाते हैं) है आरज़ू ये मेरी तेरी ज़मी ही पाऊँ, सातो जनम ही चाहे आना पड़ेगा दोबारा (झुककर हिंद की मिट्टी चूमते हैं.. ) सुनो...जल्लादों !!मातादीन की लगायी चिंगारी से मंगलपांडे  नाम की मशाल तुम्हारी हुक़ूमत  को जलाकर राख कर देगी.. (भावुक होते हुए) मातादीन अब स्वर्ग में ही मिलेंगे दोस्त... . (  ऊपर आकाश की ओर देखते हुए ज़ोर से नारा लगाते हैं) वंदेमातरम्..... (जल्लाद के हाथ से फांसी का फंदा लेकर खुद अपने गले में डाल लेते हैं..) 

(नेपथ्य में विप्लव का बिगुल और भी तेजी से बज उठता है) 

जय हिंद..... जय हिंद...जय हिंद

( नाटक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है) 

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के लघुकथा संग्रह सपनों का शहर की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा....जीवन की कड़वी सच्चाई उजागर करती हैं अशोक विश्नोई की लघुकथाएं

  लघुकथा  गल्प साहित्य के वृक्ष पर लगने वाला वह फल है जो आकार में  अत्यंत लघु होने के बावजूद अत्यंत स्वादिष्ट होता है, और   जिसे चखकर लंबे समय तक पाठकों के मुख से वाहहहहह  वाहह निकलता रहता है,अर्थात गागर में सागर भरना लघुकथा शिल्प की प्रथम शर्त है, इसके अतिरिक्त कथानक की कसावट, गंभीरता,  विषयों की गूढ़ता ,पात्रों का  सशक्त चयन,   तीव्र बेधन क्षमता,वक्रोक्ति व उद्देश्य की पूर्ति में सफल होना इसके प्रमुख अंग  होते हैं.

आज के व्यस्ततम समय में पाठकों के पास समय की प्रतिबद्धता का नितांत अभाव है तथा वह अपनी मानसिक उर्जा लंबी कहानियों को पढ़ने में व्यय करने से बचना चाहता है , परंतु साथ ही कुछ रोचक व संघर्ष पूर्ण  भी पढ़ना चाहता है . 

 ऐसे समय में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित व " सुबह होगी", "संवेदना के स्वर" और  "स्पंदन "जैसी कृतियों के लेखक  अशोक विश्नोई ने अपने अनुभव की बारीक सुई से विभिन्न कथानकों को यथार्थ के धरातल से उठाकर लघुकथाओं के शिल्प  से जो *सपनों का शहर* तैयार  किया है वह  अद्भुत है और अपने उद्देश्य की पूर्ति में पूर्णतः सफल हुआ है. श्री अशोक विश्नोई ने गीत, कविता हाइकु, कहानी,आलेख, मुक्त छंद, मुक्तक लेखन तो किया ही है साथ ही लघुकथा लेखन में भी आपको महारथ हासिल  है     पाठकों के लिए  यह पुस्तक ’ सपनों का शहर’ बहुत ही प्रासंगिक हो जाती है जब वह स्वयं को विभिन्न पात्रों के रूप में परिस्थितियों से जूझते हुए देखता है और स्वयं को उक्त कथानक का हिस्सा समझने लगता है .

  आपकी कथाओं के पात्र व कथानक किसी भी दृष्टि से आरोपित नहीं लगते. प्रतीत होता है कि वे हमारे इर्द गिर्द से ही लिए गये हैं. आपने अपनी लघु कथाओं के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों, बुराइयों, भ्रष्टाचार, राजनीति, टूटते परिवार, खोखले रिश्तों, बेरोजगारी और समाज में व्याप्त गरीबी को उजागर करने के साथ साथ हमारे समाज पर पड़ रहे आधुनिकता के साइड इफेक्ट्स  भी दर्शाए हैं . लघुकथा..दरकती नींव इसका सशक्त उदाहरण है. जहाँ आधुनिकता की चपेट में आकर  गुरु और शिष्य के संबंध भी पतन की ओर अग्रसर होते दिखाई देते हैं

    संग्रह की शीर्षक लघुकथा ’सपनों का शहर’  देश के युवाओं के संघर्षरत जीवन की कड़वी सच्चाई है, जहाँ अथक परिश्रम   व योग्यता से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात भी तमाम  डिग्रियाँ  रिश्वत रूपी वज़न के अभाव में मात्र कागज़ का टुकड़ा बनकर रह जाती हैं, इस लघुकथा के माध्यम से  आपने एक ओर बिना तकनीकी ज्ञान के कोरा किताबी ज्ञान की  निरर्थकता को रेखांकित किया है  तो दूसरी ओर सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर भी अंगुली उठायी है.डिग्री जलाकर पोरवे गरम करने का दृश्य युवा पीढ़ी की रोजगार  प्राप्त न कर पाने की कुंठा व तनाव का चरमोत्कर्ष  है.

आपकी लघुकथाएँ तीव्र हास्य व्यंग्य का पुट लिए हँसाती हैं, चौंकाती हैं और फिर अंत में सामाजिक विद्रूपताओं के विरोध में भीतर ही भीतर तिलमिलाने पर विवश कर देती हैं.इसी क्रम में  लघुकथा "नेता चरित्र " जहाँ नेताओं के चरित्र को उजागर करती है, वहीं भीतर तक गुदगुदाती है और शालीन हास्य को जन्म देती है, जब मूर्च्छित पड़े नेता जी उदघाटन का नाम सुनते ही चैतन्य हो जाते हैं और पूछते है," कहाँ आना है भाई और कब आना है? 

   आपने नारी जाति के प्रति समाज के पूर्वाग्रह को भी अपनी कथाओ मे दर्शाया है, जहाँ  पर स्त्री और   पर पुरुष के संबंधो को  बस हेय दृष्टि से ही देखा जाता है,  आपने लघुकथा "फैसला "के माध्यम से ऐसे  ही लोगों के मुँह पर तमाचा  मारा है, जब पंचायत लाजो देवी पर  लांछन लगाती है तब युवक का यह कथन ," यदि फैसला हो चुका हो तो क्या  मै अब अपनी बहन को ले जा सकता हूँ? "यह संवाद युवक के मुख से निकलकर उन समस्त लोगों का सर शर्म से झुका देता है, जो समाज के तथाकथित ठेकेदार बनते हैं और पवित्र रिश्तों को भी आरोपित करने से नहीं चूकते

लघुकथा "आदमी " की यह पंच लाइन,खासी  प्रभावित करती है जब फकीर कहता है"  सेठ जी कुछ देर को आप ही आदमी बन जाइए". यह पंच लाइन पाठकों को सहसा ही " वाहहहहह  गजब" कहने को विवश कर देती है . साथ ही यह पंक्ति पाठकों को लंबे समय तक झकझोरती रहेगी और हो सकता है कि कुछ निष्ठुर हृदय भी इस कथा को पढ़कर आदमी बन जाएँ, यही साहित्य की जीत भी है, यदि साहित्य को पढ़कर समाज की सोच को नयी दिशा मिले तो यह साहित्यकार की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है.

 इसके अतिरिक्त आपने समाजिक व आर्थिक विषमताओं को व्यंगात्मक शैली के द्वारा बड़ी चतुरता से प्रस्तुत किया है, गुलामी, बिसकुट का पैकेट,माँ, परिस्थितियाँ ऐसी ही लघुकथाएँ हैं.

. इस क्रम में विशेष रूप से अतिथि देवो भव तथा मजबूरी ऐसी ही कथाएँ हैं जो गरीबी में बिन बुलाए मेहमानों के आने पर  कंगाली में आटा गीला जैसी परिस्थितियों के बीच फँसे पात्रों को ऐसे रास्ते सुझाती हैं कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे. विषम परिस्थितियों में भी जीवन को सहजता प्रदान करना यह आपकी लघुकथाओं की विशेषता बन पड़ी है.

इसके अलावा नेकी का फल, इंसानियत, रक्तदान महादान आदि लघुकथाएं  मानवता व आदर्शवाद का पाठ पढ़ाती  हैं

लघुकथा अधिकार में  पात्र रमा का अपने शराबी पति से यह कहना   कि,  ,"जब हमारी सरकार ने आदमी और औरत को बराबर का दर्जा दे रखा है, औरतें नौकरी करती हैं तब मैं इस काम में आपका साथ क्यों न दूँ"ऐसा कहकर वह अप्रत्यक्ष रूप से  पुरुष के अहं पर चोट करते हुए समस्या का समाधान ढूँढते  हुए  अपने पति को मद्यपान की लत से छुटकारा दिलाने में एक नवीन प्रयोग करती  दिखती है.

आकार में लघु और कथा के सम्पूर्ण  तत्वों को अपने में समाहित किए अंत में अपने वृत को पूरा  करता आपका यह साहित्यिक दर्पण  पाठकों को अवश्य ही प्रभावित करेगा , ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है.





कृति : सपनों का शहर (लघु कथा संग्रह)

 लेखक : अशोक विश्नोई  

 प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशन, नई दिल्ली

 प्रथम संस्करण : 2022

 पृष्ठ संख्या -103

 मूल्य : 250 ₹

 

समीक्षक

मीनाक्षी ठाकुर

 मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश

भारत






बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर के तीन नवगीत


( एक )  

कल सपने में आई अम्मा

कल सपने में आई अम्मा,

पूछ रही थी हाल।


जबसे  दुनिया गई छोड़कर,

बदले घर के ढंग।

दीवारों को भी भाया अब,

बँटवारे का रंग।

सांझी छत की धूप बँट गयी,

बैठक पड़ी निढाल।


आँगन की तुलसी भी सूखी,

गेंदा हुआ उदास।

रिश्तों को मधुमेह हो गयी,

फीका हर उल्लास।

बाबू जी का टूटा चश्मा,

करता रहा मलाल।


घुटनों की पीड़ा से ज़्यादा,

दिल की गहरी चोट।

बीमारी का खर्च कह रहा,

 बूढ़े में  ही खोट।

बासी रोटी से बतियाती,

बची खुची सी दाल।

 

कल सपने में आई अम्मा,

पूछ रही थी हाल।


 ( दो )

 अधरों पर  मचली है पीड़ा

अधरों पर मचली है पीड़ा

कहने मन की बात।


आभासी नातों का टूटा

दर्पण कैसे जोड़ूँ?

फटी हुई रिश्तों की चादर  

 कब तक तन पर ओढ़ूँ

पैबंदों के झोल कर रहे

खींच तान, दिन- रात।


रोपा तो था सुख का पौधा

 हमने घर के द्वारे

सावन -भादो सूखे निकले

बरसे बस अंगारे

हरियाली को निगल रही है,

कंकरीट की जात।


तिनका-तिनका, जोड़- जोड़कर

 जिसने नीड़ बनाया

विस्थापन का दंश विषैला

उसके हिस्से आया।

 टूटे  छप्पर  की किस्मत में 

 फिर आयी  बरसात।


(तीन) 

आस का उबटन

अवसादों के मुख पर जब भी,

मला आस का उबटन।


उम्मीदों के फूल खिलाकर,

हँसती हर एक डाली।

दुखती रग को सुख पहुँचाने,

चले पवन मतवाली।

अँधियारे ने बिस्तर बाँधा,

उतरी ऊषा आँगन ।

अवसादों के मुख पर ...


पाँवों में  पथरीले कंकर

चुभकर जब गड़ जाते,

 मन के भीतर संकल्पों के 

ज़िद्दीपन अड़ जाते।

पाने को अपनी मंज़िल फिर

थकता कब ये तन- मन !

अवसादों के मुख पर जब भी...


जब डगमग नैया के हिस्से

आया नहीं किनारा,

ज्ञान किताबी धरा रह गया

पाया नहीं सहारा।

अनुभव ने पतवार सँभाली

 दूर हो गयी अड़चन ।

अवसादों के मुख पर जब भी

मला आस का उबटन।


✍️ मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001,

उत्तर प्रदेश, भारत 


 

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का नवगीत ----अधिकारों का ढोल पीटती / फर्ज़ भूलती नस्लें / जातिवाद के कीट खा रहे / राष्ट्रवाद की फसलें / पाँच वर्ष के बाद बहाया / घड़ियालों ने नीर


 राजनीति के ठेले पर फिर,

बिकता हुआ ज़मीर।


चोरों से थी भरी कचहरी,

थी  गलकटी गवाही।

दुबकी फाइल के पन्नो पर,

बिखरी कैसे स्याही।

मैली लोई वाला निकला

सबसे धनी फकीर!


जिम्मेदारी के बोझे से,

फटा  बजट का बस्ता।

औनै पौनै दामों में तो,

दर्द  मिले बस सस्ता।

बिके आत्मा टके सेर में,

टके सेर ही पीर।


अधिकारों का ढोल पीटती,

फर्ज़  भूलती नस्लें।

जातिवाद के  कीट खा रहे,

राष्ट्रवाद की फसलें।

पाँच वर्ष के बाद बहाया,

घड़ियालों ने नीर।


✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत