राजनीति के ठेले पर फिर,
बिकता हुआ ज़मीर।
चोरों से थी भरी कचहरी,
थी गलकटी गवाही।
दुबकी फाइल के पन्नो पर,
बिखरी कैसे स्याही।
मैली लोई वाला निकला
सबसे धनी फकीर!
जिम्मेदारी के बोझे से,
फटा बजट का बस्ता।
औनै पौनै दामों में तो,
दर्द मिले बस सस्ता।
बिके आत्मा टके सेर में,
टके सेर ही पीर।
अधिकारों का ढोल पीटती,
फर्ज़ भूलती नस्लें।
जातिवाद के कीट खा रहे,
राष्ट्रवाद की फसलें।
पाँच वर्ष के बाद बहाया,
घड़ियालों ने नीर।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
आपका ब्लॉग काफी समृद्ध है। मुरादाबाद की साहित्यिक धरोहर को अपने जिस तरह संजोया है वह अद्भुत है।
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏🙏 बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय । कृपया इसे फॉलो भी कीजिये ।
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