रवि प्रकाश लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रवि प्रकाश लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की लघुकथा ----सिरफिरा

   


"दो लाख बीस हजार रुपए  की सौ कुर्सियाँ बैठेंगी । आपका सारा काम पूरा हो जाएगा । कुर्सी में ही लिखने की सुविधा वाली डेस्क भी रहेगी । अलग से मेज की जरूरत नहीं पड़ेगी ।"-फर्नीचर विक्रेता ने अपने शोरूम पर रखी हुई बहुत सी कुर्सियों में से एक कुर्सी को दिखाते हुए सरकारी विभाग के एक बड़े अधिकारी से कहा । अधिकारी को अपने विभाग के नवनिर्मित कॉन्फ्रेंस-हॉल के लिए सौ कुर्सियाँ खरीदनी थीं, जिनके लिए उचित दुकान तथा उचित दर की तलाश वह कर रहा था ।

      "देखिए भाई ! दो हजार दो सौ रुपए  की यह कुर्सी तो बहुत महँगी बैठ रही है । वैसे भी हमें अभी दो दुकानों की कोटेशन और लेनी हैं ।"- अधिकारी के इतना कहते ही फर्नीचर विक्रेता सजग हो गया ।

          कहने लगा - "कोटेशन में क्या रखा है ? बाकी दो कोटेशन भी हम ही दे देंगे और आपको भी खुश करेंगे ।"

        "वह तो हम समझ रहे हैं । मगर बाईस सौ रुपए की कीमत बहुत ज्यादा है । आपके खुश करने से भी काम नहीं बन पाएगा ।"

      "दस परसेंट आप को दे देंगे । अब तो ठीक रहेगा ?"

      "आप कुर्सियों की कीमत चालीस प्रतिशत कम कर दीजिए । फिर तीनों कोटेशन आप भी बना कर दे सकते हैं । हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।"

       " कैसी बातें कर रहे हैं साहब ? चालीस प्रतिशत कम करने के बाद क्या तो आपको बचेगा और क्या हमें बचेगा ?"

            "आप सोच लीजिए । आपको बचे तो हमें कुर्सियाँ बेच दीजिए और अगर कुछ नहीं बच रहा है तो हम दूसरी दुकान तलाश करें।"- अधिकारी का लहजा अब सख्त था।

       दुकानदार झुँझलाने लगा था । बोला "ठीक है । तीस प्रतिशत कम कर दूंगा। इससे ज्यादा नहीं हो पाएगा । आपकी समझ में आए ,तो हम से ले लीजिए ।"

    कुछ देर तक अधिकारी सोचता रहा। फिर बोला " चलो ! ऐसा करते हैं आपके हिसाब से कुर्सी की कीमत एक हजार पाँच सौ चालीस बैठ रही है आप चौदह सौ रुपए का रेट लगा दीजिए । कुर्सियाँ भिजवा दीजिए । हम आपको एक लाख चालीस हजार रुपए का चेक पेमेंट कर देंगे ।"

             दुकानदार ने एक मिनट सोचा । अधिकारी के चेहरे की तरफ कुछ पढ़ने की कोशिश की ,मगर जब पढ़ने को कुछ नहीं मिला तो बोला " ठीक है ! चौदह सौ में ही आप ले लीजिए । पाँच दिन बाद कुर्सियाँ पहुँच जाएँगी।"

        सौदा तय करके जब अधिकारी शोरूम से बाहर चला गया तो दुकानदार अपने सहकर्मी से दबी जुबान में कहने लगा  - "अजीब सिरफिरे आदमी से पाला पड़ा है। मुझे तो इसके दिमाग का एक पेंच ढीला नजर आता है ।

✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल फोन नम्बर 99976 15451

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य -हम दो हमारे एक

     


लोगों ने "हम दो हमारा एक" की नीति को गंभीरता से नहीं लिया । खुद सरकार ने जो ड्राफ्ट बनाया तो उसमें उसे गरीबी के साथ जोड़ दिया गया । जैसे "हम दो हमारा एक" योजना की आवश्यकता केवल गरीबों को हो ! 

       यह बात सही है कि गरीब लोग खुद एक से ज्यादा बच्चे कैसे पालेंगे ? उनका तो एक बच्चा भी सरकार की सब्सिडी पर पलेगा और सरकार अपनी सब्सिडी से किसी के दस बच्चे पाले ,इसमें घाटा सरकार का ही है । इसलिए गरीबों के मामले में "हम दो हमारा एक" की नीति लागू करने में सरकार का दीर्घकालिक फायदा है । यह दूरंदेशी से भरी हुई नीति है । पता नहीं क्यों कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं ? 

        जहां तक समृद्ध वर्ग का प्रश्न है ,उसको तो आंख मीच कर "हम दो हमारा एक" की नीति स्वीकार कर लेनी चाहिए । जितनी ज्यादा संपन्नता होगी ,उतना ही इस नीति को अपनाने से परिवार को लाभ पहुंचेगा। ज्यादातर परिवारों में जहां जमीन-जायदाद है, सिर-फुटव्वल इसी बात पर हो रही है कि किस भाई को कितना मिले ,किस बहन को कितना दिया जाए ? बड़े संपन्न घराने जमीन-जायदाद के बंटवारे को लेकर कोर्ट-कचहरी में उलझे हुए हैं । अगर "हम दो हमारा एक" की नीति पर वह लोग चले होते ,तो आज घरों में दीवारें खड़ी होने तथा अदालतों में चक्कर काटने की नौबत नहीं आती । क्या किया जाए ? जो गलती हो गई तो हो गई । अब दस बच्चे अगर परदादा ने परंपरा के अनुसार पैदा किए हुए हैं तो वह तो समस्या भुगतनी ही पड़ेगी । मगर आगे के लिए तो सीख ली जा सकती है ।

        पुराने जमाने में राजा महाराजाओं ने "हम दो हमारा एक" की नीति को अप्रत्यक्ष रूप से अपनाया था । अप्रत्यक्ष रूप से इसलिए कह रहा हूं कि उन्होंने अपने बड़े बेटे को रियासत का उत्तराधिकारी मान लिया। अब उसके बाद दस,बारह,पंद्रह जितने भी बच्चे होंगे ,वह सब उत्तराधिकार की लाइन से हट कर खड़े रहेंगे । इससे फायदा यह हुआ कि राजमहल दस टुकड़ों में बँटने से बच गया । अब रियासतें खत्म हो गईं और भूतपूर्व राजा - महाराजाओं की संपत्तियों को लेकर मुकदमेबाजी चल रही है । इन मुकदमेबाजियों के मूल में "हम दो हमारे अनेक" की गलती ही है । न एक से ज्यादा बच्चे होते ,न आपस में झगड़ते ,न अदालत में मुकदमे जाते और न राजमहल के बंटवारे होते ! 

               अब बेचारा एक राजमहल है । सौ कमरे हैं । दस उत्तराधिकारी हैं । अदालतों में सब चक्कर काट रहे हैं । किसी को दस साल हो गए ,किसी को बीस साल ,कोई पचास साल से तारीखों पर जा रहा है । अब अगर बँटवारा हो भी जाता है तो दस उत्तराधिकारियों में से हर एक के हिस्से में दस-दस कमरे आएंगे । दस कमरे तो फिर भी ठीक रहेंगे। लेकिन अब आप उन दस कमरों वालों के दस-दस उत्तराधिकारियों के बारे में सोचिए । उन्हें तो अपने हिस्से के राजमहल में फ्लेट बनाने की नौबत आ जाएगी।  साठ-सत्तर साल बाद राजमहल में जो राजपरिवार रहेंगे ,उनके "राजतिलक"- संदेश का कुछ इस प्रकार लोगों के पास मैसेज जाएगा :-

       *" महोदय ,अत्यंत हर्ष के साथ सूचित किया जा रहा है कि भूतपूर्व रियासत के भूतपूर्व राजकुमार का राज्याभिषेक अमुक तिथि को राजमहल के फ्लैट संख्या पिचहत्तर ( नौवीं मंजिल )पर किया जाएगा। सूक्ष्म जलपान अर्थात चाय और समोसे का भी प्रबंध है ।"* 

          क्या किया जाए ? अगर "हम दो हमारा एक" की नीति पर लोग नहीं चले तो भूतपूर्व  राजा-महाराजा और बड़े खानदानों तक में हालत खस्ता होने वाली है । एक बड़े उद्योगपति की तीन फैक्ट्रियां थीं। बेटे चार थे। चालीस साल से मुकदमा चल रहा है। कैसे बँटे ? अगर बच्चे चार की बजाए तीन किए होते तो कम से कम एक-एक फैक्टरी तो बांट लेते ! संपन्न लोगों को "हम दो हमारे एक" पर अत्यंत गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए । जमीन - जायदाद वाले संपन्न लोगों को एक बच्चा रखने की ज्यादा जरूरत है । उनका शांतिमय भविष्य इसी में निहित है।

✍️  रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश द्वारा प्रसिद्ध जनकवि बाबा नागार्जुन से 11 अगस्त 1990 को मुरादाबाद में लिया गया साक्षात्कार--आम आदमी की आवाज हैं नागार्जुन। यह सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) रामपुर ,उत्तर प्रदेश के अंक 15 अगस्त 1990 में प्रकाशित हुआ था।


 मैंने कहा : "बाबा ! मुझे खेद है कि मैं ३१ जुलाई को अपके बुलाने के बावजूद आपसे मिलने मुरादाबाद नहीं आ सका "

          " इसीलिए तो मैंने तुम्हें दोबारा याद किया।" वह मुस्कराते हुए कह उठे। इतना सुनते ही मेरे मन में जमा हुआ वह तमाम अपराध-बोध पिघलकर बह गया, जो उनके द्वारा प्रथम बार  स्वयं मिलने के लिए आमन्त्रित करने के बावजूद न जा पाने के कारण मुझमें लगातार बना हुआ था ।
         "मैं तुम्हें बराबर रुचि पूर्वक पढ़ता रहा हूँ, सहकारी युग में तुम्हारी रचनाएं मुझे हमेशा प्रभावित करती रही हैं। तुमने जो अपनी कहानियों की किताब मुझे भेजी थी. मैं उस पर विस्तार से राय देना चाहता था मगर हुआ यह कि पंजाब के एक सज्जन जो कि प्रखर वामपंथी है, उस किताब को ही मुझसे मांगकर ले गए ! बहुत बढ़िया लिख रहे हो ।" -वह प्रेम की बिना रुकी सरिता बने अपना आशीष दिये जा रहे थे। और, मैं आश्चर्य चकित था कि क्या सचमुच भाग्य मुझ पर इतना मेहरबान है कि हिन्दी कविता के शीर्ष पुरुष और साहित्य साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन बाबा नागार्जुन मेरे प्रति ऐसा उदार और आत्मीयता भरा भाव रखते हैं।
      मैं धन्य हो गया । हाँ ! यह नागार्जुन ही हैं। बाबा नागार्जुन ! अस्सी साल का एक नौजवान । पुराना पड़ गया पायजामा, अस्त-व्यस्त कुर्ता, बेतरतीब बिखरी हुई दाढ़ी-मूँछे और सिर के सफेद पड़ चुके बाल । थकी हुई आंखों में जब-तब दौड़ जाने वाली एक चमक। प्रायः निढालपन मगर फुर्ती में फिर भी कोई कमी नहीं। वह शांत होकर बात करते हैं , मगर घोर आवेश में आने से भी अछूते नहीं रहते। जो निश्छल और दिल खोलकर पवित्र हँसी वह हँस पाते हैं, आज की औपचारिकताओं भरी महफिलों के खोखले ठहाकों में कहाँ है ? वह सादा जीवन उच्च विचार की साकार प्रतिमा हैं। वह भारत के आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं -अपनी वेशभूषा से ,अपने विचारों से, अपनी बहुजनपक्षीय प्रतिबद्धताओं से । "संदर्श" पत्रिका का हृदयेश विशेषांक अपने हाथ में लिए हुए जब वह मुझे ग्यारह अगस्त की सुबह साढ़े आठ बजे मुरादाबाद में सुकवि और साहित्यकार गिरिराज सिंह के जिला सहकारी बैंक स्थित निवास के सुसज्जित कक्ष में पहली-पहल मिले, तो मैं उस बोने कद में मनुष्यता की विराटता को मापने का प्रयास ही करता रह गया | अहम् उन्हें छू तक नहीं गया है। छोटों को प्रेम से गले लगाना और बांहों में भरकर उनके सिर को अपने अमृतमय स्पर्श से जड़वत बना देने का जादू क्या होता है ,यह मैं उसी दिन जान पाया।
      बाबा नागार्जुन आजकल भ्रमण पर निकले हुए हैं। पांच सप्ताह बिहार रहे। फिर उत्तर प्रदेश में बनारस कुछ दिन रहे। इसी तरह नगर-नगर, गांव-गांव घूमना चल रहा है। वह इसी को शरीर की ऊर्जा का सार्थक उपयोग मानते हैं कि जब तक शरीर समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी है ,तभी तक उसका रहना सार्थक है।
                  इतनी उम्र में भी इस हद तक घूमना-फिरना क्या स्वास्थ्य के लिए उचित है ? -इम प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहते है कि लोग बुलाए बिना नहीं मानते और मेरा मन भी जाए बिना नहीं मानता। सच ही है कि बाबा नागार्जुन अपने जीवन की समस्त उर्जा को नई से नई पीढ़ी तक के रचनाकार से एकाकार करने के एक प्रकार के मिशन में लगे हुए हैं और जो स्वतंत्र, निर्भीक और सत्य-सम्मत अभिव्यक्ति उनके रचनाकार की विशेषता बन गई, उस रचनाधर्मी-ज्योति को वह सारे देश के असंख्य दिलों में धधकती हुई मशालों में बदलने के काम में लगे हुए हैं। इसके लिए वह अपने शरीर पर अत्याचार करने की हद तक आगे बढ़ चुके है। उनका मुरादाबाद आना और आसपास के रचनाकारों से सम्पर्क करके उन्हें प्रोत्साहित करने के साथ-साथ रचनाधर्मिता की एक नई ओजस्वी लहर उत्पन्न कर जाना इसी बात के प्रमाण हैं। अब उन्हें कानों से कम सुनाई पड़ता है। पढ़ने के लिए एक बड़ा-सा लेंस हाथ में रखते हैं। यूं उन्हें चश्मे से विरोध नहीं है। मगर कहने का अर्थ यह है कि आंखें कमजोर है, कान से कम सुनाई पड़ता है और दस- पन्द्रह मिनट बात करके ही जो व्यक्ति थोड़ी थकान महसूस करने लगता हो और जिसकी उम्र अस्सी के आस-पास हो गई हो, वह सिर्फ समाज के मानस को बदलने के शुद्ध साहित्यिक इरादे से स्थान-स्थान घूम रहा हो ,यह एक असाधारण बात है।
          "कैसी रचनाएं आज लिखी जानी चाहिए ?" मैंने प्रश्न किया। बाबा गंभीर हो गए। कहने लगे : "जो समय के अनुरूप हों और हमारे मौजूदा समाज में अपेक्षित बदलाव ला सकें। आज साहित्यकार यदि देश की स्थिति को बदलने में सार्थक सिद्ध नहीं हो रहा है तो इसका कारण यह है कि वह कहीं चारण की भूमिका निभा रहा है तो कहीं भांड बना हुआ है। लेखनी का जब तक सही-सही और निःस्वार्थ भाव से जन-मन को आंदोलित करने के लिए प्रयोग नहीं होता ,तब तक वह प्रभावशाली सिद्ध नहीं होती।
        देश की राजनीतिक स्थिति को देखकर बाबा बहुत चिंतित हैं । यद्यपि वह स्वयं को आशावादी बताते हैं मगर निराशा की गहरी अंधेरी खाइयाँ उनकी आंखों में झलकती हुई कोई भी झांक सकता है । वह कहते हैं "देवीलाल धृतराष्ट्र हो गए हैं । वह पुत्र-मोह में फंस गए हैं। उनके लिए घोटाला ही सब कुछ हो गया है। सारी राजनीति ऐसी ही हो रही है। सब तरफ कुर्सी की खुजली मची हुई है। कोई नेता ऐसा नहीं जो बिना कुर्सी पर बैठे देश की सेवा करने का इच्छुक हो। जिसे देखो, देश सेवा की खातिर कुर्सी के लिए झगड़ रहा है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ।" वह कहते हैं- "मगर यह सब देख कर मैं क्रुद्ध हो उठता हूँ तो देश के युवा वर्ग के आक्रोश की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। हमारे सारे स्वप्न व्यर्थ होते जा रहे हैं।"
                "मन्दिर और मस्जिद के झगड़ों के कारण देश की बिगड़ती स्थिति पर आप अपना मत प्रकट करेंगे ?" ऐसा आग्रह करने पर बाबा ने आवेशित होकर कहा कि आज जरूरत गरीबी, बेकारी और भूख के खिलाफ सारी जनता को एकजुट करके जोरदार आंदोलन छेड़ने की है। हिन्दू और मुसलमानों को कन्धा से कन्धा मिलाकर देश के निर्माण में सहभागी बनाने का माहौल पैदा करने की है, धर्म के नाम पर बौना चिंतन रोकने की जरूरत है। हजारों मन्दिर गाँव-गाँव, शहर-शहर में उपेक्षित पड़े है । उन्हें नजरन्दाज करके कोई धर्म का हित नहीं कर रहा है क्या ?
          बातों-बातों में बाबा कहीं एक बहुत गहरी बात कह गए। वह बोले: "विनोबा का अपन लोगों ने (हम लोगों ने) विरोध भी किया था, मगर जिस तरीके से उन्होंने अपने जीवन का अन्त किया वह मुझे बहुत प्रभावित करता है। जीवन के अन्तिम वर्षों में विनोबा का पवनार आश्रम पंडों का अड्डा बन गया था। यहाँ तक कि बिनोबा से भेंट करने के लिए आश्रम के पंडे दस-दस हजार रुपये की फीस मांगने लगे थे। यह स्थिति होती है कि जब किसी आदमी के नाम पर उसका दुरुपयोग होना शुरू हो जाता है और वह खुद कुछ नहीं कर पाता । ऐसे में जीवन का अंत ही एकमात्र विकल्प है ,जो विनोबा ने ठीक ही किया। इस तरह मेरा कहना यह है कि आदमी का जीना तभी तक सार्थक है ,जब तक उसके विवेक का जेनरेटर चालू है। जब उसका या उसके नाम का दुरुपयोग दूसरे लोग करने लगें, तो ऐसे में व्यर्थ जीते रहने का कोई औचित्य नहीं है।"
       करीब आधे घन्टे की मुलाकात में मैंने बाबा को अक्सर थका हुआ पाया, हालांकि हर बार अपनी थकान को वह एक अपराजेय उत्साह से जीतने में सफल रहते थे। बातचीत के शुरू में ही उन्होंने कहा था कि मैं थोड़ी-थोड़ी देर में ही थक जाता हूँ और लघुशंका न भी लग रही हो तो बहाना करने उठ जाता हूँ। यह कहने के ठीक पन्द्रह मिनट बाद वह लघुशंका के लिए उठ गए. जिसका मतलब साफ था कि अब बाबा को अधिक कष्ट देना उचित नहीं है। मगर, लौटकर आने के बाद उन्होंने कहा कि "भाई ! मै वाकई लघुशंका के लिए गया था । बैठो।" और, इस तरह बातचीत विश्राम-बिन्दु पर नहीं रुक पाई।
      बाबा नागार्जुन साहित्य की वह गंगा हैं ,जो स्वयं अपने भक्तों को आवाज देकर अवगाहन करने का सुख पहुंचाने की उदारता रखते हैं। उन जैसी सहजता अब दुर्लभ है।
    

✍️  रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश), भारत
मोबाइल 99976 15451

रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कुण्डलिया --पर्वत से दृढ़ तुम पिता


 सागर  से  गंभीर  तुम , नभ  जैसा  विस्तार 

पर्वत  से  दृढ़  तुम  पिता ,वंदन  है शत बार

वंदन   है   शत   बार ,  सदा  देते  ही  पाया 

घर को शुभ आकार ,मिली तुमसे ही काया

कहते  रवि कविराय ,स्वयं सिमटे गागर-से

चाह  रहे  संतान ,  बने  बढ़कर  सागर   से

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा , रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

बुधवार, 16 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ----दोषी कौन


" हजूर मेरी यही विनती है कि आप आदेश पारित करके कॉलोनी के सारे मकानों को चौबीस घंटे के अंदर ढहा दें, ताकि कानून का उल्लंघन करने वालों को एक सख्त संदेश जाए और फिर भविष्य में कोई भी अनधिकृत कॉलोनी बनी हुई नजर न आए।"

              " नहीं हजूर !  यह बहुत बड़ा अन्याय होगा । हमारे मुवक्किलगण कॉलोनी में पंद्रह साल से रह रहे हैं । बाकायदा रजिस्ट्री करा कर इन्होंने जमीनें खरीदी हैं । मकान बनाए हैं । अपने गाढ़े पसीने की कमाई को अपने आवास के तौर पर सजाया है । अब इन्हें बेघर कर देना इनके साथ ज्यादती होगी ।"

        "मगर गलत काम की सजा तो मिलेगी ही ! हम इसे नजरअंदाज कैसे कर सकते हैं ? फिर तो हर आदमी अवैध कब्जा करेगा, निर्माण करेगा और बाद में हमारे पास आकर यही कहने लगेगा कि हजूर हमें बेघर मत कीजिए ? " - जज साहब ने मुकदमे को सुनते समय बीच में टिप्पणी की ।

              प्रतिवादी पक्ष के वकील ने अपना तर्क रखा - "हजूर गलती किसकी है ,इस पर भी तो जाना पड़ेगा ? जब मकानों की रजिस्ट्री की जा रही थी तब सरकार का रजिस्ट्री दफ्तर था । सरकार के अधिकारी थे। उन्होंने यह देखने की तकलीफ क्यों नहीं की कि इन जमीनों की रजिस्ट्री पर सरकार को कोई आपत्ति तो नहीं है ?"

            "क्या मतलब "-जज साहब चौंके। यह तर्क उनके लिए अप्रत्याशित था ।

        "हजूर ! मेरा कहना यह है कि जब रजिस्ट्री हो रही थी तब सरकार की तरफ से "नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट" संलग्न होना चाहिए था । यह तो कोई बात हुई नहीं कि पंद्रह साल पहले रजिस्ट्री हुई और पंद्रह साल के बाद अब सरकार खड़ी हुई है और कह रही है कि यह रजिस्ट्री गलत है । सरकारी जमीन हमारी है । मेरा कहना है कि आप रजिस्ट्री के समय कहां थे ? "

               "मगर हजूर मैं आपत्ति करता हूं । सरकार पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता।" वादी के वकील ने कहना शुरू ही किया था कि जज साहब ने टोक दिया। "आपको आपत्ति करने का अधिकार नहीं है। प्रतिवादी अपनी बात को कहना चालू रखें ।"

        प्रतिवादी ने कहा "हजूर ! गलती सरकार की है । उसने कानून बनाया लेकिन यह नहीं देखा कि उस कानून का पालन सही ढंग से हो रहा है अथवा नहीं हो रहा है ? गलती प्रशासन की है जिसने सरकार के द्वारा बनाए गए कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया ।"

        "तो सजा आप के अनुसार शासन और प्रशासन के लोगों को मिलनी चाहिए ? " जज साहब ने सवाल किया।

     "नहीं हजूर ! अगर गुस्ताखी माफ करें और जान की सलामती की गारंटी दें तो एक बात कहूं ?"

                जज साहब ने मुस्कुराते हुए कहा- " निर्भय होकर अपनी बात कहो "।

         वकील साहब उत्साहित होकर कहने लगे " हजूर ! असली दोष तो आप की अदालत का है ।"

     सुनकर जज साहब कुर्सी पर से उछल पड़े । कहने लगे "क्या मतलब ? "

       वकील साहब ने कहा " हजूर ! आप की अदालत में पंद्रह साल से केस चल रहा है। इस बीच कॉलोनी में न जाने कितने मकान बनते चले गए । लोग रहने लगे और रहते-रहते वह वहां के निवासी बन गये हैं।"

       " मगर मेरे पास तो यह केस मुश्किल से छह  महीने पहले आया है । पंद्रह साल की बात आप कैसे कर सकते हैं ? "-जज साहब ने प्रश्न किया ।

      "मैं आपकी पर्सनल बात नहीं कर रहा । मैं सिस्टम की बात कर रहा हूं । सिस्टम में यह मुकदमा पंद्रह साल से पड़ा हुआ है। तारीखों पर तारीखें पड़ती रहती हैं । कोई सुनवाई नहीं ! कोई फैसला नहीं ! आज आप फैसला सुना देंगे ! बुलडोजर मकानों पर चल जाएगा । चारों तरफ मलबे का ढेर लग जाएगा । बेशक पेड़ काटकर इस जमीन को सीमेंट के जंगल में बदला गया था । लेकिन क्या मकान गिरा देने से फिर से हरे-भरे पेड़ वापस आ जाएंगे ? जरा सोचिए सिवाय बर्बादी के और क्या मिलेगा ? एक बसी-बसाई कॉलोनी गुजर जाएगी । आप कानून की अक्षरशः व्याख्या करते रहेंगे । उसकी आत्मा को नहीं पढ़ पाएंगे । इन निवासियों की चीख-पुकार ,आंसू और बेघर होने की व्यथा पढ़ने की कोशिश कीजिए और असली दोषी की तलाश करिए ? "

        जज साहब सोच में डूब गए और कहने लगे "असली दोषी मैं आपको कल बताऊंगा।" इसके बाद अदालत अगले दिन तक के लिए स्थगित हो गई ।

         .अगले दिन फिर अदालत लगी । जज साहब बेहद शांत मुद्रा में थे । आते के साथ ही उन्होंने अपनी जेब से एक कागज निकाला और अपने असिस्टेंट को पढ़ने के लिए कहा । आदेश दिया "जोरदार आवाज में पढ़ना ,ताकि सब लोग सुन सकें।"

        असिस्टेंट ने पढ़ना शुरू किया-" मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि असली दोषी वह सारे लोग हैं जिन्होंने पंद्रह साल से मुकदमे की तारीख पर तारीख पड़ने में योगदान दिया है । उन सब की खोज की जाए और उनको दंडित किया जाए ।"


✍️  रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा , रामपुर (उत्तर प्रदेश), मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 4 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----वरिष्ठ नागरिकों का जीने का अधिकार

     


वरिष्ठ नागरिकों को भला कौन पूछता है ? वरिष्ठ हो ,लेकिन गरिष्ठ भी तो हो ? अब न तुमसे कुछ खाना पच पाता है और न तुम देश को पच पा रहे हो । खाते पीते वरिष्ठ सामाजिक लोग भी वरिष्ठ नागरिकों को अब इसी दृष्टि से देखते हैं । घरों में तो वरिष्ठ नागरिकों को एक कोने में खटिया पर पड़े रहने का उपदेश देने वाले लोगों की संख्या समाज में पहले से ही कम नहीं है ।

     लेकिन इन सब में भी एक पेंच है । अगर वरिष्ठ नागरिक रिटायरमेंट के बाद पेंशन पा रहा है और पेंशन की रकम मोटी है तथा बाकी घर का खर्चा भी उस पेंशन की रकम से चलता है तो बुड्ढे की उम्र चाहे जितनी हो जाए ,उसको जिंदा रखने के लिए पूरा परिवार रात-दिन एक कर देगा । बूढ़े को मरने नहीं देगा । उसकी पेंशन को जिंदा जो रखना है ! कुल मिलाकर मामला उपयोगिता का है ।

      ले-देकर वह वरिष्ठ नागरिक रहमो-करम पर रह जाते हैं ,जिन बेचारों की जेब में पांच पैसे नहीं होते । केवल चालीस साल पुराने संस्मरण होते हैं या फिर समाज में बैठकर सुनाने के लिए चार उपदेश होते हैं । उपदेश कोई वरिष्ठ नागरिक के श्रीमुख से ही क्यों सुने ? उसके लिए गीता ,रामायण और न जाने कितनी बोध-कथाएं हैं । जरूरत है ,तो किताब खोलो और पढ़ लो । जो उपदेश कथावाचक लोग देते रहते हैं ,जब इन सब की किसी ने नहीं सुनी तो फिर लोग वरिष्ठ नागरिक की ही क्यों सुनेंगे ? 

          वरिष्ठ नागरिक अपनी जेब में हाथ डालता है ,तिजोरी खोलता है और बैंक की पासबुक को बार-बार जाकर बैंक में भरवाने का प्रयत्न करता है । लेकिन हर बार उसे निराशा ही हाथ लगती है । कहीं से पैसा आए ,तब तो बूढ़े व्यक्ति के हाथ में दिखेगा ? जब तक पैसा नहीं है ,वरिष्ठ नागरिक सिर्फ कहने के लिए वरिष्ठ हैं । खाते पीते वरिष्ठ सामाजिक लोग तो उनके बारे में निर्ममतापूर्वक यही कहेंगे कि बहुत जी लिए । अब दूसरों को जीने दो।

              इसलिए मेरी तो सलाह सब वरिष्ठ नागरिकों से यही है कि चाहे जैसे हो ,अपने हाथ-पैर सही सलामत रखो। चलते-फिरते रहो । दिमाग सही काम करता रहे । वरना अगर ठोकर लगी ,गिर पड़े  और हड्डी टूट गई तो कोई प्लास्टर बँधवाने वाला भी नहीं मिलेगा । चतुर लोग यही कहेंगे " इन हाथ-पैरों से बहुत चल चुके हो । अब व्यर्थ प्लास्टर पर खर्चा क्या करना ? "

          एक प्रश्न यह भी मन में उठता है कि वृद्ध-आश्रम या ओल्ड एज होम सही भी हैं या इनको भी बंद कर दिया जाए ? नौजवानों के लिए काफी पैसा बच जाएगा ? कितना अच्छा होता ,यदि भगवान ने मनुष्य की आयु सौ वर्ष के स्थान पर केवल साठ वर्ष की रखी होती । इधर आदमी वरिष्ठ नागरिक हुआ ,उधर अर्थी तैयार है । लेटो। हम शवयात्रा खुशी-खुशी शमशान लेकर जाते हैं। तुम नई पीढ़ी को चैन से जीने दो । 

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश ) मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 28 मई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? -

 

       जब बच्चा दूसरी या तीसरी कक्षा में आ जाता है ,तब रिश्तेदार घर पर आने के बाद बच्चों को पुचकारते हुए उससे पहला सवाल यही करते हैं " क्यों बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? "

         यह सवाल कुछ इस अंदाज में किया जाता है ,जैसे प्रश्न पूछने वाले के हाथ में वरदान देने की क्षमता है अथवा बच्चे को खुली छूट मिली हुई है कि बेटा आज जो चाहो वह मांग लो तुम्हें मिल जाएगा ।

    कक्षा चार में बच्चों को अपने जीवन की न तो नई राह पकड़नी होती है और न ही  विषयों का चयन कर के किसी लाइन में जाना होता है । हमारे जमाने में कक्षा नौ में यह तय किया जाता था कि बच्चा विज्ञान-गणित की लाइन में जाएगा अथवा वाणिज्य - भूगोल - इतिहास पढ़ेगा ? कक्षा 8 तक सबको समान रूप से सभी विषय पढ़ने होते थे । लेकिन बच्चों से बहुत छुटपन से यह पूछा जाता रहा है और वह इसका कोई न कोई बढ़िया-सा जवाब देते रहे हैं । 

          दुकानदारों के बच्चे कक्षा आठ तक अनेक संभावनाओं को अपने आप में समेटे हुए रहते हैं । जिनकी लुटिया हाई स्कूल में डूब जाती है ,वह स्वयं और उनके माता-पिता भी यह सोच कर बैठ जाते हैं कि अब तो बंदे को दुकान पर ही बैठना है। उसके बाद इंटर या बी.ए. करना केवल एक औपचारिकता रह जाती है । 

        ज्यादातर मामलों में प्रतियोगिता इतनी तगड़ी है कि जो व्यक्ति जो बनने की सोचता है ,वह नहीं बन पाता । एक लाख लोग प्रतियोगिता में बैठते हैं ,चयन केवल दो हजार का होता है । बाकी अठानवे हजार उन क्षेत्रों में चले जाते हैं ,जहां जाने की वह इससे पहले नहीं सोचते थे ।

                   ले-देकर राजनीति का बिजनेस ही एक ऐसा है ,जिसमें कुछ सोचने वाली बात नहीं है  । नेता का बेटा है ,तो नेता ही बनेगा । इस काम में हालांकि कंपटीशन है ,लेकिन नेता जब अपने बेटे को प्रमोट करेगा तब वह सफल अवश्य रहेगा । अनेक नेता अपने पुत्रों को कक्षा बारह के बाद नेतागिरी के क्षेत्र में उतारना शुरू कर देते हैं । कुछ नेता प्रारंभ में अपने बच्चों को पढ़ने की खुली छूट देते हैं ।

             "जाओ बेटा ! विदेश से कोई डिग्री लेकर आओ । अपने पढ़े लिखे होने की गहरी छाप जब तक एक विदेशी डिग्री के साथ भारत की जनता के ऊपर नहीं छोड़ोगे ,तब तक यहां के लोग तुम्हें पढ़ा-लिखा नहीं मानेंगे !" 

       नेतापुत्र विदेश जाते हैं और मटरगश्ती करने के बाद कोई न कोई डिग्री लेकर आ जाते हैं । यद्यपि अनेक मामलों में वह डिग्री भी विवादास्पद हो जाती है । नेतागिरी के काम में केवल जींस और टीशर्ट के स्थान पर खद्दर का सफेद कुर्ता-पजामा पहनने का अभ्यास करना होता है। यह कार्य बच्चे सरलता से कर लेते हैं । भाषण देना भी धीरे-धीरे  सीख जाते हैं । 

               जनता की समस्याओं के बारे में उन्हें शुरू में दिक्कत आती है । वह सोचते हैं कि हमारा इन समस्याओं से क्या मतलब ? हमें तो विधायक ,सांसद और मंत्री बन कर मजे मारना हैं । लेकिन उनके नेता-पिता समझाते हैं :- "बेटा समस्याओं के पास जाओ।  समस्याओं को अपना समझो । उन्हें गोद में उठाओ । पुचकारों ,दुलारो ,फिर उसके बाद गोद से उतारकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो और वापस आकर प्रीतिभोज से युक्त एक बढ़िया - सी प्रेस - कॉन्फ्रेंस में जोरदार भाषण दो । चुने हुए पत्रकारों के, चुने हुए प्रश्नों के ,पहले से याद किए हुए उत्तर दो । देखते ही देखते तुम एक जमीन से जुड़े हुए नेता बन जाओगे ।"

           यद्यपि इन सारे कार्यों के लिए बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है । फिर भी कई नेताओं के बेटे राजनीति में असफल रह जाते हैं । इसका एक कारण यह भी होता है कि दूसरे नेताओं के बेटे तथा दूसरे नेता-पितागण उनकी टांग खींचते रहते हैं। यह लोग सोचते हैं कि अगर अमुक नेता का बेटा एमएलए बन गया तो  हमारा बेटा क्या घास खोदेगा ? राजनीति में प्रतियोगिता बहुत ज्यादा है । कुछ गिनी-चुनी विधानसभा और लोकसभा की सीटें हैं । यद्यपि आजकल ग्राम-प्रधानी का आकर्षण भी कम नहीं है । पता नहीं इसमें कौन-सी चीनी की चाशनी है  कि बड़े से बड़े लोग ग्राम-प्रधानी के लिए खिंचे चले आ रहे हैं । खैर ,सीटें फिर भी कम हैं। उम्मीदवार ज्यादा है । 

      कुछ लोग अपने बलबूते पर नेता बनते हैं । कुछ लोगों को उनके मां-बाप जबरदस्ती नेता बनाते हैं । कुछ लोगों को खुद का भी शौक होता है और उनके माता-पिता भी उन्हें बढ़ावा देते हैं । आदमी अगर नेता बनना चाहे तो इसमें बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं है। हालांकि टिकट मिलना एक टेढ़ी खीर होता है । फिर उसके बाद चुनाव में तरह-तरह की धांधली और जुगाड़बाजी अतिरिक्त समस्या होती है । पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है ,जो नेता-पुत्रों के लिए आमतौर पर कोई मुश्किल नहीं होती । आदमी एक-दो चुनाव हारेगा ,बाद में जीतेगा । मंत्री बन जाएगा । फिर उसके बाद पौ-बारह। पांचों उंगलियां घी में रहेंगी । पीढ़ी दर पीढ़ी धंधा चलता रहेगा। समस्या मध्यम वर्ग के सामने आती है। बचपन में उससे जो प्रश्न पूछा जाता है कि बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ,वह बड़े होने के बाद भी उसके सामने मुँह बाए खड़ा रहता है। नौकरी मिलती नहीं है ,बिजनेस खड़ा नहीं हो पाता ।

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर [उत्तर प्रदेश], मोबाइल 99976 15451

सोमवार, 24 मई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----रामभरोसे तुम कौन हो ?


 तुलसीदास जी ने एक दोहा लिखा था जो इस प्रकार है:-

एक  भरोसो  एक  बल ,एक  आस विश्वास 

एक राम घनश्याम हित ,चातक तुलसीदास

                  अर्थात एक राम के भरोसे यह तुलसीदास है । यह रामभरोसे अपने आप में आस्था का परिचायक था । न जाने कितनी शताब्दियों से रामभरोसे ईश्वर के प्रति जनता के गहरे विश्वास को प्रतिबिंबित करता रहा । कब यह हास्य और व्यंग्य में बदल गया ,कुछ समझ में नहीं आता । राम पर भरोसा करना बुरी बात नहीं होती है । इसकी तो प्रशंसा होनी चाहिए । आदमी राम पर भरोसा करे और यह सोचे कि राम के भरोसे हम चल रहे हैं ,राम के भरोसे हमारा काम अवश्य होगा ,राम के भरोसे हम जीवित रहेंगे ,राम के भरोसे हम इस संसार में धन-संपत्ति सुख संपदा एकत्र करेंगे तो इसमें बुरा नहीं है ।

                   रामभरोसे का मतलब है एक आस्थावान व्यवस्था ,आस्था पर आधारित समाज ,ईश्वर के प्रति गहरी समर्पण भावना का परिचायक तंत्र । मगर अब रामभरोसे का मतलब अस्त-व्यस्त होने लगा । जो चीज जर्जर है उसे रामभरोसे कह दिया जाता है । जिस चीज में हजारों छिद्र हों, वह रामभरोसे कहलाती है । जहाँ कोई नियमबद्धता न हो ,वह रामभरोसे हो गया । जहाँ कुछ अता-पता न मिले वह रामभरोसे है । जिस के डूबने की आशंका ज्यादा है ,उसे रामभरोसे कहा जाता है । गरज यह है कि एक जमाने में जिसके साथ जीवन की आशा जुड़ती थी अब वह रामभरोसे शब्द मरण के साथ जुड़ कर रह गया है । 

      किसी को अगर किसी के आलसीपन को उभार कर टिप्पणी करनी है ,तो वह कह देता है कि भाई साहब ! आप तो रामभरोसे लग रहे हैं । सबसे बड़ी मुश्किल तो उन लोगों की आ गई जिनका नाम ही रामभरोसे है । वह बेचारे क्या करें ? सड़क पर जा रहे हैं और किसी ने बुला लिया कि "रामभरोसे ! जरा इधर तो आइए ! "

           अब सबकी नजरें उनकी तरफ उठ गईं और लोग देखने लगे कि अरे ! यही रामभरोसे हैं ! इन्हीं के ऊपर सारी व्यवस्थाओं का बोझ टिका हुआ है ! वह बेचारे अपनी सफाई देते फिरते हैं कि हम वह राम भरोसे नहीं है ,जो आप समझ रहे हैं । हम सही मायने में सही वाले रामभरोसे हैं। लेकिन कौन ,किसको ,कहाँ तक ,कितना समझाए ! रामभरोसे दुखी है । वह कोने में सिर झुकाए बैठा हुआ है । कह रहा है - "हमारे तो नाम का बंटाधार हो गया ! अब कौन अपना नाम रामभरोसे रखेगा ! " एक अच्छा - भला नाम देखते - देखते कुछ सालों में कितना बिगड़ जाता है ,यह रामभरोसे के उदाहरण से समझा जा सकता है ।

 ✍️रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ---- पहल


कॉलोनी के वाट्स एप ग्रुप पर एक मैसेज आता है। मैसेज भेजने वाली महिला का नाम ताराबाई है । वह लिखती हैं- "मैंने ऑक्सीजन का एक सिलेंडर पिछले एक सप्ताह से खरीद कर रखा हुआ है । सोचा था अगर जरूरत पड़ेगी तो घर पर रखा हुआ यह सिलेंडर काम में आ जाएगा। लेकिन अब सोचती हूं कि मैं तो स्वस्थ हूं लेकिन बहुत से अस्वस्थ लोगों को इस सिलेंडर की जरूरत होगी ।अतः जहां से यह सिलेंडर मैंने लिया है ,वहीं पर इसे वापस लौटाने जा रही हूं । इससे मुझे बहुत हल्का महसूस होगा तथा मौजूदा समय में देश के लिए यह मेरा छोटा - सा योगदान हो जाएगा।"

       मैसेज पढ़कर कॉलोनी में सभी के घरों में एक हलचल - सी होने लगी । काफी लोगों ने अपने - अपने घरों पर ताराबाई की तरह ही ऑक्सीजन के सिलेंडर स्टॉक में इसलिए रख रखे थे ताकि जरूरत पड़े तो काम आ जाएँ । रोजाना खबरें आ रही थीं कि ऑक्सीजन की कमी चल रही है। भयंकर मारामारी है। लेकिन अब ताराबाई के मैसेज में सबको सोचने पर विवश कर दिया ।

         थोड़ी देर बाद कॉलोनी के एक घर से ताराबाई ऑक्सीजन के सिलेंडर को जमीन पर हाथ से आगे बढ़ाते हुए सबको दिखाई दीं। वह अकेली आगे बढ़ती जा रही थीं। उनका लक्ष्य कॉलोनी के गेट तक पहुंचना था ,जहां से उन्हें एक ई -रिक्शा अथवा ऑटो पकड़ कर अपनी मंजिल तक पहुंचना था । लेकिन इससे पहले कि ताराबाई कॉलोनी के गेट पर पहुंचें, उनके पीछे कॉलोनी की दो और महिलाएं भी ऑक्सीजन के सिलेंडर हाथ से घुमाते हुए आगे बढ़ने लगीं। फिर तो धीरे-धीरे 10 - 12 स्त्री पुरुष अपने-अपने घरों से सिलेंडर निकालकर ताराबाई का अनुसरण करते हुए दिखाई पड़ने लगे । 

          ताराबाई एक ऑटो में बैठ कर जब जाने के लिए तैयार हुईं, तो उनके साथ 10- 12 लोग और भी थे । इकट्ठे सब लोग ऑटोकर के चले । जहां से ऑक्सीजन का सिलेंडर लिया था ,वहां पहुंचकर सबने देखा कि 20-  25 लोगों की भीड़ लगी थी । सब ऑक्सीजन के लिए चिंतित थे । जैसे ही ताराबाई ने सब के ऑक्सीजन के सिलेंडर  बाहर निकाले तो भीड़ में हलचल मच गई। लोग दौड़कर ताराबाई के पास आए ।

      "क्या यह खाली सिलेंडर हैं ? "- पहुंचते ही प्रश्न शुरू हो गए

"नहीं इन सब में ऑक्सीजन भरी हुई है ।

हमें इसकी जरूरत इस समय नहीं है । जब जरूरत होगी तब ले लेंगे । हम लोग इन्हें वापस लौटाने आए हैं।"

   "अरे ! हमें तो बहुत सख्त जरूरत है । आप देवता बनकर हमारे लिए आए हैं । हमें सिलेंडर दे दीजिए ! "-यह शब्द किसी एक के नहीं थे। पूरी भीड़ अब सिलेंडरों के आसपास गिड़गिड़ाते हुए मानों दया की भीख मांग रही हो । चटपट 10 - 12 सिलेंडर लोग लेकर चले गए । इसी बीच पीछे से दस-बीस सिलेंडर और आ गये। वह भी कालोनी के लोगों के ही थे। धीरे-धीरे सारी भीड़ को ऑक्सीजन के सिलेंडर मिल गए । कमी खत्म हो गई । अब पीछे से जब 20 - 25 सिलेंडर और आए तब उनको लेने वाला कोई नहीं था । वह भंडार में जमा करा दिए गए । भंडार के बाहर जो तख्ती लटकी हुई थी और जिस पर लिखा था " *ऑक्सीजन का स्टॉक खत्म हो गया है* ", वह हटा ली गई। 

       भंडार के गेट पर  पुलिस के दो सिपाही थे । उनमें से एक कहने लगा " अब किस बात की सुरक्षा ? अब तो गैस खूब आसानी से मिल रही है । "

       दूसरे सिपाही ने इत्मीनान से मोबाइल खोलकर समाचार देखना शुरू किया । फिर कहने लगा "अभी भी लोगों के दिमाग में ऑक्सीजन की कमी तो है। " 

✍️  रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) , मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ----क्षोभ


"हमारे लिए कितने कम हो जाएँगे ? "

"तुम जो चाहे दे दो ! "

"आप ही बता दीजिए । "

"अरे नहीं ! मैं दिल से कह रहा हूँ। तुम जितने चाहे दे दो।"

 "नहीं ,आप ही बता दीजिए  । "

          ...और फिर जीवनदास जी ने रुपए बता दिए ।

"मैं कल आपको रुपए दे जाऊँगा ।" -- महेश ने कहा ।

               अगले दिन महेश ने सारी रकम जीवन दास जी को दे दी । अब केवल इतना रह गया था कि लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात बैंक जाकर सुविधानुसार जीवन दास जी लॉकर में रखी हुई कलाकृति को निकालकर उसे महेश को सौंप दें ।

         कलाकृति अद्भुत और बहुमूल्य थी । केवल अद्भुत और बहुमूल्य ही नहीं बल्कि जीवन दास जी के पिताजी की भी एक निशानी कही जा सकती है । जीवन दास जी के पिताजी जाने-माने चित्रकार थे । न जाने कितनी पेंटिंग उन्होंने बनाई थीं। लेकिन जिस कलाकृति की चर्चा चल रही थी और जिसकी बिक्री का सौदा जीवन दास जी ने अपने रिश्ते के भतीजे महेश के साथ तय किया था ,वह उनकी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति मानी जाती है । इसी नाते जीवन दास जी को भी उस कलाकृति से बहुत लगाव था । वह उसे बेचना तो नहीं चाहते थे लेकिन अब परिवार में पहले जैसी न तो धन - दौलत थी और न ही आमदनी के साधन रह गए थे। मजबूर होकर जीवन दास जी ने कलाकृति के खरीदारों की तलाश की लेकिन किसी अनजान व्यक्ति को रुपए लेकर कलाकृति सौंपने का उनका मन नहीं कर रहा था। महेश के पास पैसा ही पैसा था । वह जीवन दास जी के पिताजी के खानदान का था और इस नाते उसकी रगों में भी वही खून बह रहा था ,जो जीवनदास में था । महेश ने कलाकृति खरीदने की इच्छा प्रकट की है, तो अपना जानकर सौदा काफी कम धनराशि में जीवन दास जी ने महेश के साथ तय कर दिया । परस्पर विश्वास था ,इसीलिए तो कलाकृति लिए बगैर ही पूरी धनराशि महेश ने जीवन दास जी के हाथों में सौंप दी थी।

             धीरे-धीरे दिन बीतते गए । लॉकडाउन समाप्त हो गया , लेकिन जीवन दास जी ने कलाकृति महेश के पास नहीं पहुँचाई । जब समय ज्यादा बीता तो महेश ने एक दिन जीवन दास जी के घर पर आकर कहा " चाचा जी ! आप इतनी देर क्यों लगा रहे हैं ? कलाकृति अब मुझे दे दीजिए ।"

          जीवन दास जी ने मुरझाई आँखों से कहा " महेश ! मैं कलाकृति नहीं बेचना चाहता । तुम अपने रुपए ले जाओ । "-इतना कहकर जीवन दास जी रुपयों की पोटली उठाकर महेश को देने के लिए अपने कमरे की ओर बढ़े ही थे कि महेश ने कहा " इस तरह से बिके हुए सौदे वापस नहीं किए जाते हैं । हम ने आप पर विश्वास करके पूरी धनराशि आपको सौंप दी और अब आप सौदे से मुकर रहे हैं । यह अच्छी बात नहीं है। बाजार का सिद्धांत होता है कि अगर कोई सौदे से इंकार करे और अपनी बात से पलट जाए ,तब उसे दुगनी धनराशि 

देनी पड़ती है । आप मुझे दुगनी धनराशि दीजिए । "

   "क्या कह रहे हो महेश ?  आखिर तुम मेरे भतीजे हो । मेरे पास दुगनी धनराशि कहाँ से आएगी ? अगर दुगना पैसा होता ,तो मैं बेचने की सोचता ही क्यों ? सच तो यह है कि कलाकृति न बेचने पर और तुम्हें धनराशि वापस लौटाने के बाद मेरे सामने फिर वही पुराना आर्थिक संकट खड़ा हो जाएगा । " --यह बात कहते हुए जीवन दास जी जल के बाहर निकाली गई मछली की तरह तड़प रहे थे। वह समझ चुके थे कि अब बात घर की नहीं रह गई है।

 रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफ़ा, रामपुर (उत्तर प्रदेश), मोबाइल 99976 15451

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का गोवा यात्रा वृतांत (4-7 फरवरी 2021) ----सागर में एक लहर उठी तेरे नाम की...

      


      गोवा में सागर देखा तो पहली बार पता चला कि जलराशि कितनी विशाल हो सकती है ! बात केवल विशालता की ही नहीं है । सागर के स्वभाव से परिचय तब हुआ, जब उसके तट पर कुछ देर बैठना हुआ। सागर तो शांत बैठ ही नहीं रहा था । हम शांत बैठे हुए सागर को देख रहे थे और समुद्र निरंतर शोर करता जा रहा था ।

  एक लहर उठती थी ..दूर से आती हुई दिखती थी .. फिर धीरे-धीरे पास आती थी और पानी का उछाल बन जाती थी । इसके बाद वह तट पर आकर बिखर जाती थी । जब तक यह लहर बिखरती और लहर का शोर समाप्त होता ,ठीक उससे ही पहले एक और लहर दूर से बनती हुई नजर आ जाती थी । वह लहर पहली वाली लहर की तरह ही आगे बढ़ती थी । जल की दीवार-जैसी धार में बदल जाती थी । पानी बिखरता था और तेजी के साथ तट पर चारों तरफ फैल जाता था । यह क्रम बराबर चल रहा था। एक मिनट के लिए भी ...और एक मिनट तो बहुत देर की बात है ,एक सेकेंड के लिए भी यह क्रम नहीं रुकता था। तब यह जाना कि सागर में लहर का उठना और बिखर जाना ...फिर उठना और फिर बिखर जाना, यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । इसमें किसी भी प्रकार का विराम अथवा अर्धविराम संभव नहीं है । समुद्र अपनी गर्जना करता रहेगा । लहरों को पैदा करेगा और लहर फैलकर फिर समुद्र में ही मिल जाएगी । यही तो समुद्र की विशेषता है।


 समुद्र में लहरों का उठना और बिखर कर फिर समुद्र में मिल जाना ,यह एक तरह की समुद्र की श्वास- प्रक्रिया है । जिस तरह मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी बिना साँस लिए जीवित नहीं रह सकता ,वह बराबर साँस लेता रहता है और छोड़ता रहता है, ठीक उसी प्रकार समुद्र के गर्भ से लहरें उत्पन्न होती हैं और फिर समुद्र में ही विलीन हो जाती हैं। यही समुद्र की जीवन - प्रक्रिया है । यही समुद्र के लिए जीवन का क्रम है। समुद्र की लहरों को जीवन की शाश्वत - प्रक्रिया के रूप में मैंने देखा । आखिर एक लहर का जीवन ही कितना है ! कुछ सेकंड के लिए अस्तित्व में आई और फिर सदा - सदा के लिए समुद्र में विलीन हो गई । न लहर की कोई अपनी अलग पहचान होती है और न उसका कोई अलग से नाम होता है ।

   हर लहर अपने आप में समुद्र ही तो है ! समुद्र ही लहर बनता है । समुद्र ही लहर के रूप में आगे बढ़ता है । लहर फिर समुद्र बनकर समुद्र में ही मिल जाती है । क्या हुआ ?  कुछ भी तो नहीं ! क्या जीवन और क्या मृत्यु ? एक क्रम चल रहा है ,अविराम गति से तथा जब तक समुद्र है तब तक यह क्रम चलता रहेगा । तट पर बैठकर हम इस दृश्य को निहारते हैं और अगर हमने इसे समझ लिया तो फिर लहरों में और समुद्र में कोई अंतर नहीं रहेगा । लहर उठना और मिट जाना ,यह एक साधारण सी बात हो जाएगी ।  क्या इसी का नाम *आत्मज्ञान* है ?

      आर्ट ऑफ लिविंग के कार्यक्रमों में इन पंक्तियों को हमने न जाने कितनी बार गाया और दोहराया होगा : 

 सागर में एक लहर उठी तेरे नाम की

 तुझे मुबारक खुशियाँ आत्मज्ञान की

          पर जब तक सागर प्रत्यक्ष न देखो और लहरों का दर्शन कुछ देर ठहर कर न करो ,कुछ भी समझ में नहीं आएगा । सारा मामला ही अनुभूतियों का है । अनुभूतियों की समृद्धि ही हमें धनवान बनाती है । इसी में जीवन का सारा सार छिपा हुआ है । समुद्र के तट पर सागर और लहर को देखकर जीवन का सार समझ में थोड़ा-थोड़ा आने लगा । थोड़ा-थोड़ा इसलिए क्यों कि न समुद्र की गहराई का हमें पता है और न इसकी विशालता का। जैसे आसमान अनंत है ,वैसे ही ज्ञान भी अनंत है । हम उसके किसी भी ओर -छोर का पता नहीं लगा सकते ।


 समुद्र के तट पर चार फरवरी 2021 को पहुँचते ही हमने पहली फुर्सत में सूर्यास्त के दर्शन किए । डूबता हुआ सूरज देखना स्वयं में एक खुशी का अनुभव होता है । लाल बहता हुआ अंगारे के समान सूर्य जब धीरे-धीरे नीचे आता है और समुद्र के जल में मानो विलीन हो जाता है ,तब पता चलता है कि जैसे समुद्र का पानी सूर्य की तेजस्विता को सोख कर और भी धनवान हो गया । लेकिन फिर यह बिखरी हुई ठंडी रोशनी का नजारा धीरे-धीरे गायब होने लगता है और अंधेरा फैलने लगता है ।

       अंधेरा होने से पहले ही सूर्यास्त की बेला में मैंने दो कुंडलियाँ ,जो यात्रा के दौरान लिखी थीं, पढ़कर तट पर सुनाईं और उन्हें मेरी पुत्रवधू ने वीडियो - रिकॉर्डिंग के द्वारा कैमरे में सुरक्षित कर लिया । एक कुंडलिया का शीर्षक था  'आओ प्रिय गोवा चलें' तथा दूसरी कुंडलिया का शीर्षक 'सागर और लहर' था

           समुद्र के जल से पैरों का स्पर्श होना एक विद्युत प्रवाह की घटना महसूस हुई । अपनी जगह मैं तो खड़ा रहा। मगर  समुद्र चलकर मेरे पैरों के पास आया । हल्का - सा झटका लगा ...और फिर सब कुछ सामान्य । समुद्र की ओर मैं थोड़ा और आगे बढ़ा । इस बार लहरों का प्रवाह कुछ तेजी के साथ महसूस हुआ । पैरों को समुद्र ने न केवल धोया बल्कि पैरों की मालिश भी की। मैं थोड़ा और आगे बढ़ा । इस बार लहरें एक दीवार की तरह सामने से आती हुई बिल्कुल निकट थीं। घुटनों तक उन्होंने मुझे भिगो दिया । मैं नेकर पहने हुए था । वह भी हल्का - सा भीग गया। पानी नमकीन था । मैंने दो बूँद चखकर देखा।

          सागर चरण पखारे --किसी कवि के कहे गए यह भाव दिमाग में गूँज रहे थे। मन ने किसी कोने से आवाज देकर कहा "अरे नादान ! यह तो किनारे पर खड़े हुए हो, इस कारण सागर तुम्हारे चरणों को धो रहा है। अन्यथा कहाँ तुम और कहाँ बलशाली समुद्र ! अगर टकरा गए तो फिर कहीं के नहीं रहोगे । छह फुट का आदमी सागर की अनंत गहराइयों के मुकाबले में कहाँ दिखेगा ? "

      मैंने दूर से ही सागर को प्रणाम करने में भलाई समझी । हमारे धन्य भाग्य जो हम तट पर आए और सागर स्वतः प्रक्रिया के द्वारा हमारे स्वागत के लिए अपने जल के साथ हमारे चरणों को धोने के लिए उपस्थित हो गया ।


    समुद्र के तट पर सूर्योदय का अनुभव भी अद्भुत रहा । हम सुबह - सुबह तट पर पहुँचे । सोचा ,आज सुबह की सुदर्शन क्रिया और ध्यान समुद्र के तट पर ही करेंगे । वहां पहुँचकर तब बहुत खुशी हुई जब देखा कि लगभग एक दर्जन व्यक्ति गोल घेरा बनाकर काफी दूर पर बैठे हुए थे तथा कुछ ऐसी क्रियाएँ कर रहे थे ,जिसका संबंध कहीं न कहीं किसी उत्साहवर्धक योग - साधना से जुड़ता है । मेरा अनुमान सही था। जब हम अपनी क्रिया पूरी करके समुद्र तट से वापस जाने के लिए मुड़े ,लगभग उसी समय योगाभ्यासियों का समूह भी वापस जा रहा था । एक तेजस्वी महिला ग्रुप में पीछे रह गई थीं अथवा यूँ कहिए कि वह पीछे- पीछे चल रही थीं। आयु पैंतीस-चालीस वर्ष रही होगी । चेहरे पर तेज था । मैंने पूछा " मैं यहाँ आर्ट ऑफ लिविंग की सुदर्शन क्रिया कर रहा था । क्या यहाँ आप लोग योग करने के लिए उपस्थित हुए हैं ? "

            वह कहने लगीं " हम लोग योग नहीं कर रहे थे बल्कि कोर्स कर रहे थे । हम लोग सूफी - मेडिटेशन कराते हैं । तीन - चार दिन का कोर्स रहता है । अगर आप कोर्स करने में रुचि लें तो हमसे संपर्क कर सकते हैं ।"

       इसके बाद न तो मैंने कोर्स करने की इच्छा प्रकट की और न उन्होंने अधिक बातचीत करने में दिलचस्पी दिखाई । बाद में वह महिला हमारे होटल/रिसॉर्ट में ही फिर दिखाई दीं। दरअसल जिस समुद्र तट की मैं बात कर रहा हूँ, वह हमारे होटल " बैलेजा बॉय द बीच " का ही समुद्र तट है । रिसॉर्ट के पास समुद्र का तट है तथा रिसॉर्ट से समुद्र तट तक जाने के लिए मुश्किल से पाँच मिनट का पैदल का रास्ता है ,जो खूबसूरत पेड़ों से घिरा हुआ तथा पक्के फर्श का बना हुआ है।


    समुद्र के तट पर मैंने अपनी सुदर्शन क्रिया तथा प्राणायाम आदि को दोहराया , जिन्हें मैं सितंबर वर्ष दो हजार सात से प्रतिदिन घर पर करता रहा हूँ। ध्यान में इस बार विशेष आनंद आया । ध्यान जल्दी लगा , अच्छा लगा और नारंगी रंग का प्रकाश बंद आंखों के सामने सौम्यता से खिलता हुआ उपस्थित था। यह प्रकाश जितना नजदीक नजर आ रहा था ,उतना ही दूर - दूर तक फैला हुआ था । मध्य में कभी ऐसा लगता था कि कुछ खालीपन है और कभी सब कुछ नारंगी प्रकाश से भरा हुआ लगता था । प्रकाश में किसी प्रकार की उत्तेजना अथवा चकाचौंध नहीं थी । अत्यंत शांत मनोभावों को यह नारंगी प्रकाश उत्पन्न कर रहा था । संसार से थोड़ा कटकर और थोड़ा जुड़े रहकर स्थिरता का यह भाव पता नहीं कितनी देर तक रहा । पाँच मिनट ..दस मिनट ..बीस मिनट ..कह नहीं सकता ? फिर उसके बाद सृष्टि की विराटता और भी निकट आ गई थी । सूफी मेडिटेशन की शिक्षिका से संवाद सुदर्शन क्रिया करने के बाद ही हुआ था ।

       समुद्र तट पर दस-बारह स्त्री-पुरुषों का एक अलग जमावड़ा थोड़ी दूर पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था । यह पचास-पचपन साल के व्यक्तियों का समूह था ,जिसमें कुछ लोग पैंसठ वर्ष के भी जान पड़ते थे । गोवा के समुद्र तट पर यह लोग भी हमारी तरह ही घूमने आए थे।

         पालोलिम और कोल्बा के समुद्र तटों पर भीड़भाड़ और चहल-पहल बहुत ज्यादा थी । कोल्बा के समुद्र तट पर हम दोपहर को गए थे । सिर पर हैट तथा आँखों पर धूप के चश्मे ने हमें सूरज की तेज गर्मी से बचा लिया अन्यथा आँखों का बुरा हाल हो जाता । यद्यपि नेकर पहने हुए थे फिर भी गर्मी सता रही थी । अधिक देर तक तट पर बैठना कठिन हो रहा था । समुद्र और जल के कारण कुछ ठंडक रहती होगी लेकिन उसका आभास न के बराबर था। जितनी देर समुद्र में पैर पड़े रहते थे, ठीक-ठाक लगता था । रेत पर आकर फिर वही झुलसती हुई गर्मी ! मगर सब आनन्द से घूम रहे थे । सबके चेहरे पर मस्ती और मौज का भाव था ।


 पालोलिम का समुद्री तट तो एक मेले के समान था । थोड़ी-बहुत एक बस्ती और बाजार बसा हुआ था । छोटा-मोटा शहर इसे कह सकते हैं । समुद्र का जल तो एक जैसा ही होता है ,लेकिन बेलेजा रिसोर्ट के समुद्र तट का जल कुछ ज्यादा साफ नजर आया। हो सकता है ,यहाँ भीड़ - भाड़ न होने के कारण अथवा मोटरबोट न चलने के कारण सफाई कुछ ज्यादा रहती हो। जो भी हो , समुद्र के तट का आनन्द समुद्र की लहरों में विराजमान होता है । यह लहरों का गर्जन ही इसे आकर्षण प्रदान करता है।

 गोवा यात्रा के दौरान आनन्द और मस्ती के क्षणों कुछ कुंडलियों की भी रचना हुई । प्रस्तुत हैं ---- 13 कुंडलियाँ

🌷  *(1) आओ प्रिय गोवा चलें* 🌷

आओ  प्रिय  गोवा चलें ,सागर तट के पास 

मैं तुममें मुझ में करो ,तुम खुद का आभास

तुम  खुद  का आभास ,सिंधु की फैली राहें

जितनी  दिखें  विराट , एक  दूजे  को  चाहें

कहते रवि कविराय , गीत लहरों सँग गाओ

रहो   सदा   स्वच्छंद ,  घूमने   गोवा  आओ

🌻 *(2) सागर और लहर* 🌻

सागर तट पर जब दिखा ,मस्ती का अंदाज

मैंने  पूछा  सिंधु  से ,  क्या  है  इसका  राज 

क्या  है  इसका  राज , सिंधु ने यह बतलाया

लहरें   मेरी  मुक्त ,  व्यक्त   करती  हैं  काया

कहते रवि कविराय , लहर हर खुद में गागर

सागर का प्रतिबिंब , समझिए  इसको सागर

🌸 *(3) वायुयान की सैर* 🌸

आओ  करते   हैं   चलें , वायुयान  की   सैर

ऊपर  से  धरती  लगे , लोक  एक  ज्यों  गैर

लोक  एक  ज्यों  गैर , बादलों  से  उठ  जाते 

नीचे   बादल  यान ,  उच्च  की   सैर   कराते

कहते  रवि कविराय ,सात लोकों तक जाओ

बादल  सारे  चीर , घूम  कर  वापस   आओ

🌹 *(4) सागर* 🌹

सागर  को  केवल  पता , होता  क्या तूफान

किसको  कहते  ज्वार  हैं ,आते  तुंग समान

आते  तुंग   समान ,  नदी   सागर  से  छोटी

झील  और   तालाब ,  खेलते  कच्ची  गोटी 

कहते रवि कविराय ,शेष सब समझो गागर 

जल अथाह भंडार ,नील -  नभ होता सागर

 *तुंग* =पहाड़

🍁 *(5) लहर में पाँव भिगोएँ* 🍁

तट  पर सागर के चलें ,सुनें सिंधु का शोर 

मैं  देखूंँ  तुमको  प्रिये , तुम प्रिय मेरी ओर 

तुम  प्रिय  मेरी ओर ,लहर में पाँव भिगोएँ

नयन - नयन  में  डाल , एक दूजे में खोएँ

कहते रवि कविराय ,नेह की भाषा रटकर

हम  पाएँ  उत्कर्ष , सिंधु के पावन तट पर

🏵️  *(6)मादक अपरंपार* 🏵️

आकर  गोवा  में  जिओ ,मस्ती का संसार

शहद  हवा  में ज्यों घुला ,मादक अपरंपार

मादक   अपरंपार ,  मधुर   रंगीन   अदाएँ

घने  नारियल वृक्ष , लहर  सागर  की पाएँ

कहते रवि कविराय ,सुहाना मौसम पाकर

 पहनो नेकर  रोज , स्वर्ग - गोवा में आकर

🍃🍂 *(7) सागर तट पर*🍂🍃 

परिचय सागर ने दिया ,कर के चरण पखार

बोला   बंधु   पधारिए ,  स्वागत   मेरे   द्वार 

स्वागत  मेरे  द्वार , कहा  हमने  बस काफी

आलिंगन  का  अर्थ ,  नहीं   पाएँगे   माफी 

कहते  रवि कविराय ,जिंदगी का होता क्षय

बलवानों  के  साथ , मित्रता  दुष्कर परिचय

🟡 🪴 *(8)लहर* 🪴 🟡

बहती जैसे  है  नदी , सदा - सदा अविराम

वैसे  ही  क्षण-भर कहाँ ,सागर को आराम

सागर  को   आराम ,  हमेशा  नर्तन  करता

घुमा-घुमा कर पेट , सिंधु आलस सब हरता

कहते रवि कविराय ,लहर सागर की कहती

मैं सागर की  साँस , जिंदगी  बनकर  बहती

✳️ *(9)देखा गोवा* ✳️

देखा गोवा हर जगह ,खपरैलों का भाव

संरक्षण  प्राचीन  का , भवनों  में है चाव

भवनों  में  है  चाव ,मनुज हरियाली गाते

वृक्ष नारियल बहुल , हर जगह पाए जाते

कहते रवि कविराय ,सिंधु है जीवन-रेखा

मस्ती का  अंदाज ,  अनूठा  तुझ में देखा

🌸 *(10)कैसीनो में लोग* 🌸

आते   पैसा  जीतने  ,  कैसीनो   में   लोग

गोवा में अद्भुत दिखा , किस्मत का संयोग

किस्मत  का  संयोग ,अंक पर दाँव लगाते

हर  चक्कर  के  साथ ,जुआरी खोते - पाते

कहते  रवि कविराय ,स्वप्न - नगरी में जाते

सैलानी   स्थानीय ,  रात   मस्ती   में  आते 

🌻 *(11)सिंधु गरजता* 🌻

सिंधु  गरजता  हर  समय , नदी  बह रही शांत

अपने-अपने भाव  हैं , दोनों  कभी  न  क्लांत

दोनों  कभी  न  क्लांत , एक  को शोर मचाना

दूजे  को  प्रिय  मौन ,  सत्य  जाना - पहचाना

कहते रवि कविराय ,सुकोमल पर चुप सजता

उच्छ्रंखल  बलवान , रात - दिन  सिंधु गरजता

*क्लांत* = थका हुआ

🟡 *(12) लहरें पहरेदार* 🟡

पहरेदारी    कर   रहीं ,  लहरें   चारों   ओर

सागर   में   घुसने   नहीं , पाए   कोई  चोर

पाए  कोई   चोर , शोर  हर  समय  मचातीं

सदा  सजग   मुस्तैद  , घूमती  पाई   जातीं

कहते रवि कविराय ,जागना हर क्षण जारी

पाओ   इनसे   ज्ञान ,  सीख  लो  पहरेदारी

🟡 *(13)आओ कैसीनो चलें*  🟡

व्याख्या जीवन की यही ,जीवन है टकसाल

आओ   कैसीनो   चलें ,  खेलें   कोई   चाल

खेलें   कोई   चाल , जीतकर   बाजी   आएँ

कुर्सी  पर  फिर  बैठ ,अंक  पर   दाँव लगाएँ

कहते रवि कविराय ,जिंदगी की यह आख्या

जुआ मस्तियाँ मौज ,मधुर साँसों की व्याख्या

*टकसाल* = जहाँ सिक्के ढलते हैं

✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल फोन नम्बर  99976 15451

सोमवार, 18 जनवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का हास्य व्यंग्य --बुरे फँसे नुकती के लड्डू की तारीफ कर के-

     


हुआ यह कि हलवाई की दुकान पर एक ग्राहक मिठाई माँगने के लिए आया। उसने कहा " कौन सी मिठाई ज्यादा अच्छी है?"

      ग्राहक क्योंकि जान पहचान का था । प्रश्न सहज रूप से किया गया था । इसलिए दुकानदार ने भी सहजता से कह दिया " नुकती के लड्डू अभी-अभी ताजा बन कर आए हैं। बहुत स्वादिष्ट हैं।"

    ग्राहक बोला " एक किलो तोल दीजिए।"

 दुकानदार ने डिब्बा उठाया।  लड्डू तोलना शुरू कर दिया । बस यहीं से बात बिगड़ गई। जैसे ही अन्य मिठाइयों को इस घटनाक्रम का पता चला ,वह आग-बबूला हो गयीं।

        मोर्चा सबसे पहले हलवे ने संभाला । उसने तुरंत अपने स्थान से उठकर काउंटर पर स्थान ग्रहण कर लिया और आँखें तरेर कर हलवाई से कहा " इतनी जल्दी बदल गए ? क्या तुम्हें वह दिन याद नहीं ,जब हमारे कारण ही तुम्हारा नाम हलवाई पड़ा था ? हलवा बेच-बेच कर तुमने अपनी दुकान में मशहूर कर ली और खुद हलवाई बन बैठे । हमें एक कोने में डाल कर आज इस लड्डू की तारीफ कर रहे हो । यह तो हर जगह गली-चौराहों पर थैलियों में बिकने वाली चीज थी ।आज तुम इसे अपने मुँह से सबसे बढ़िया मिठाई बता रहे हो ! हमारे इतिहास पर तुम्हारी निगाह नहीं गई ? "

            अब बारी नुकती की थी । उसने भी परात से बाहर आकर दुकानदार को डाँट- फटकार लगाई। बोली "हम छोटे लोग हैं, इसलिए तुमने हमारी उपेक्षा कर दी । जबकि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर रैलियों में हम ही बाँटे जाते हैं और राष्ट्रीय पर्व हमारे साथ ही मिलकर मनाया जाता है।"

         छोटे-छोटे पेड़े अब " हलवाई हाय - हाय "के नारे लगाने लगे । उनका कहना था " हमें तो लोग हल्का वजन होने के कारण सभी जगह खुशी-खुशी ले जाते हैं ,जबकि लड्डू इतना भारी होता है कि एक किलो में तीस-बत्तीस से ज्यादा नहीं चढ़ते। इतने भारी, आलसी और वजनदार लड्डू के मुकाबले में हम फिटफाट-पेड़ों को तुमने कोई महत्व नहीं दिया । यह तानाशाही नहीं चलेगी।" 

          जलेबी और इमरती उसी समय रोती हुई आ गईं। आंदोलन में उनके उतरने से रौनक आ गई । कहने लगीं " हम घी में तले जा रहे थे और चाशनी में डाले जा रहे थे। क्या हम फिर भी बासी हैं ? यह तो कोई आँख का अंधा भी देख कर बता देगा कि हम गरम-गरम कढ़ाई से निकल कर आए हैं । क्या हम ताजे नहीं हैं ? हम से ताजा भला और कौन हो सकता है ? "  सोन पपड़ी अपनी जगह नाराज थी। बात यहीं तक नहीं रुकी। लड्डुओं की दूसरी वैरायटी भी नाराज होने लगीं। उनका तर्क था " नुकती के लड्डू अगर अच्छे हैं तो हम बेसन और आटे के लड्डू क्या खराब हैं ? जरा सोचो एक से एक अच्छी वैरायटी के लड्डू दुकान पर तुम्हारी मौजूद थे और तुमने इस नुकती के लड्डू की ही तारीफ क्यों कर दी ? मेवा - खजूर का लड्डू सबसे बेहतरीन कहलाता है । तुमने उसकी भी उपेक्षा कर दी । क्यों..आखिर क्यों ? "

       दुकानदार अजीब मुसीबत में फँस गया था । ग्राहक घबराने लगा । बोला "साहब ! आप अपने मसले निपटाते रहो ,मैं तो जा रहा हूँ।" ग्राहक जब जाने लगा तो दुकानदार ने उसे रोका और मिठाइयों से कहा " तुम आपसी झगड़े में हमारी दुकान बंद करा दोगे।"

     फिर उसे अपनी गलती का एहसास भी हुआ । बोला " ! हाँ मुझे किसी एक की तारीफ नहीं करनी चाहिए थी। मेरी नजर में तुम सब बराबर हो ।"

     उसने ग्राहक से कहा "अब मसला सुलझाओ और जैसे भी हो ,दुकान से मिठाई तुलवाओ "

     ग्राहक बोला " ठीक है ! मिक्स - मिठाई कर दो । सब तरह की मिठाइयाँ एक - एक दो - दो पीस कर दो ।"

      दुकानदार ने ऐसा ही किया । ग्राहक और दुकानदार दोनों ने चैन की साँस ली। फिर इसके बाद ग्राहक जब घर पहुँचा तो पत्नी ने कहा " यह बताओ कि सब्जी कौन सी पसंद है । मैं जो आलू मटर की रसीली बनाती हूँ या फिर सूखी मटर की बनाती हूँ।जो कहो ,वही बना दूँगी ? "

         ग्राहक बेचारा अभी-अभी हलवाई के यहाँ से सर्वोत्तम मिठाई के झगड़े को सुनकर आया था । उसने उदासीन भाव से कह दिया "जो चाहे बना लो । मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ।"

       बस सुनकर पत्नी आग बबूला हो गई। बोली " तुम्हें तो मेरे हाथ की कोई चीज पसंद ही नहीं आती । जरा सी तारीफ करते हुए मुँह घिसता है ! जाओ ,बाहर जाकर खा लो। आज घर में कुछ नहीं बनेगा ।" पतिदेव की समझ में यह नहीं आ पा रहा था कि आखिर गलती कहाँ हुई ?

✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश ) मोबाइल_ 99976 15451

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की रचना ----आया नूतन वर्ष है , लेकर नवल प्रभात


आया  नूतन  वर्ष  है , लेकर  नवल  प्रभात

कहता  है  विस्मृत  करो ,विगत अँधेरी रात

विगत  अँधेरी  रात ,  एक   दुःस्वप्न सरीखी

यह  ऐसी  खूँखार , नहीं  पहले  थी   दीखी

कहते रवि कविराय ,चलो नव लेकर काया

लेकर नव-उत्साह ,जन्म समझो नव आया

 रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा

रामपुर (उत्तर प्रदेश)

मोबाइल 99976 15451 


 

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ---- पटाखों की लिस्ट


दीपक और उसके छोटे भाई अखिल ने मिलकर दीवाली के लिए खरीदे जाने वाले पटाखों की पूरी लिस्ट तैयार कर रखी थी। अनार ,फुलझड़ी, जमीन पर घूमने वाला सुदर्शन चक्र तथा साथ ही राकेट - बम ,चटाई - बम आदि की पूरी लिस्ट थी।  सोच रहे थे ,परसों जाकर आतिशबाजी मैदान से खरीद लाएँगे । इस समय कुछ सस्ती मिल जाएगी । लिस्ट दीपक के पास जेब में रखी हुई थी।

         घर से निकलकर कॉलोनी के गेट की तरफ वह बढ़ा ही था कि पड़ोस के खन्ना अंकल मिल गए । कहने लगे "बड़े भाई साहब की तबियत खराब है । उन्हें साँस लेने में तकलीफ है । "

     सुनते ही दीपक ने पहला काम राजेश जी की तबियत पूछने का किया । राजेश जी घर पर चारपाई पर अधलेटी अवस्था में थे।  दीपक को देखते ही उन्होंने कहा "आओ दीपक बेटा ! ठीक हो ? "

     दीपक ने कहा" मैं तो ठीक हूँ, लेकिन सुना है कुछ आपकी तबियत ठीक नहीं चल रही है ?"

     राजेश जी मुस्कुराए और कुछ कहने ही वाले थे ,तभी उन्हें खाँसी का फंदा लगा । काफी देर तक खाँसते रहे । चेहरा तमतमा गया ।  दीपक को यह सब देख कर बहुत दुख हो रहा था । फिर जब खाँसी शांत हुई तो राजेश जी ने कहा "बेटा ! अब इस उमर में यह सब तो चलता ही रहता है । आज सुबह ही घर में रसोई में कुछ सामान बनते समय धुँआ आँगन में फैल गया और उसके बाद से मुझे खाँसी का दौरा पड़ना शुरू हो गया है । कई दिन से यही स्थिति चल रही है। थोड़ा - सा भी धुँआ बर्दाश्त करने की स्थिति नहीं है।"

        दीपक ने सहानुभूति प्रकट की "धुँए से तो आपको परहेज करना ही चाहिए।"

         राजेश जी ने कहा "सवाल मेरे परहेज का नहीं है । सवाल तो हमारे आस-पड़ोस के परहेज का है ।"

       दीपक बोला "मैं समझा नहीं ।"

           राजेश जी ने कहा "अब दीवाली आने वाली है । लोग पटाखे खरीदेंगे ,लेकिन अगर वह यह सोच लें कि उनके पटाखों से जो धुँआ निकलेगा वह मेरे जैसे न जाने कितने लोगों को कितनी तकलीफ देगा, तो फिर मेरी समस्या का हल हो जाएगा ।"

            इतना सुनने के बाद दीपक से फिर वहाँ बैठा नहीं गया । वह चिंता की मुद्रा में बाहर निकला । कुछ दूर चला और फिर कूड़ेदान के पास पहुँचकर उसने अपनी जेब में रखा हुआ पटाखों की लिस्ट वाला कागज निकाला और उसके टुकड़े-टुकड़े करके कूड़ेदान में फेंक दिया 

 ✍️ रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)