शुक्रवार, 28 मई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? -

 

       जब बच्चा दूसरी या तीसरी कक्षा में आ जाता है ,तब रिश्तेदार घर पर आने के बाद बच्चों को पुचकारते हुए उससे पहला सवाल यही करते हैं " क्यों बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? "

         यह सवाल कुछ इस अंदाज में किया जाता है ,जैसे प्रश्न पूछने वाले के हाथ में वरदान देने की क्षमता है अथवा बच्चे को खुली छूट मिली हुई है कि बेटा आज जो चाहो वह मांग लो तुम्हें मिल जाएगा ।

    कक्षा चार में बच्चों को अपने जीवन की न तो नई राह पकड़नी होती है और न ही  विषयों का चयन कर के किसी लाइन में जाना होता है । हमारे जमाने में कक्षा नौ में यह तय किया जाता था कि बच्चा विज्ञान-गणित की लाइन में जाएगा अथवा वाणिज्य - भूगोल - इतिहास पढ़ेगा ? कक्षा 8 तक सबको समान रूप से सभी विषय पढ़ने होते थे । लेकिन बच्चों से बहुत छुटपन से यह पूछा जाता रहा है और वह इसका कोई न कोई बढ़िया-सा जवाब देते रहे हैं । 

          दुकानदारों के बच्चे कक्षा आठ तक अनेक संभावनाओं को अपने आप में समेटे हुए रहते हैं । जिनकी लुटिया हाई स्कूल में डूब जाती है ,वह स्वयं और उनके माता-पिता भी यह सोच कर बैठ जाते हैं कि अब तो बंदे को दुकान पर ही बैठना है। उसके बाद इंटर या बी.ए. करना केवल एक औपचारिकता रह जाती है । 

        ज्यादातर मामलों में प्रतियोगिता इतनी तगड़ी है कि जो व्यक्ति जो बनने की सोचता है ,वह नहीं बन पाता । एक लाख लोग प्रतियोगिता में बैठते हैं ,चयन केवल दो हजार का होता है । बाकी अठानवे हजार उन क्षेत्रों में चले जाते हैं ,जहां जाने की वह इससे पहले नहीं सोचते थे ।

                   ले-देकर राजनीति का बिजनेस ही एक ऐसा है ,जिसमें कुछ सोचने वाली बात नहीं है  । नेता का बेटा है ,तो नेता ही बनेगा । इस काम में हालांकि कंपटीशन है ,लेकिन नेता जब अपने बेटे को प्रमोट करेगा तब वह सफल अवश्य रहेगा । अनेक नेता अपने पुत्रों को कक्षा बारह के बाद नेतागिरी के क्षेत्र में उतारना शुरू कर देते हैं । कुछ नेता प्रारंभ में अपने बच्चों को पढ़ने की खुली छूट देते हैं ।

             "जाओ बेटा ! विदेश से कोई डिग्री लेकर आओ । अपने पढ़े लिखे होने की गहरी छाप जब तक एक विदेशी डिग्री के साथ भारत की जनता के ऊपर नहीं छोड़ोगे ,तब तक यहां के लोग तुम्हें पढ़ा-लिखा नहीं मानेंगे !" 

       नेतापुत्र विदेश जाते हैं और मटरगश्ती करने के बाद कोई न कोई डिग्री लेकर आ जाते हैं । यद्यपि अनेक मामलों में वह डिग्री भी विवादास्पद हो जाती है । नेतागिरी के काम में केवल जींस और टीशर्ट के स्थान पर खद्दर का सफेद कुर्ता-पजामा पहनने का अभ्यास करना होता है। यह कार्य बच्चे सरलता से कर लेते हैं । भाषण देना भी धीरे-धीरे  सीख जाते हैं । 

               जनता की समस्याओं के बारे में उन्हें शुरू में दिक्कत आती है । वह सोचते हैं कि हमारा इन समस्याओं से क्या मतलब ? हमें तो विधायक ,सांसद और मंत्री बन कर मजे मारना हैं । लेकिन उनके नेता-पिता समझाते हैं :- "बेटा समस्याओं के पास जाओ।  समस्याओं को अपना समझो । उन्हें गोद में उठाओ । पुचकारों ,दुलारो ,फिर उसके बाद गोद से उतारकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो और वापस आकर प्रीतिभोज से युक्त एक बढ़िया - सी प्रेस - कॉन्फ्रेंस में जोरदार भाषण दो । चुने हुए पत्रकारों के, चुने हुए प्रश्नों के ,पहले से याद किए हुए उत्तर दो । देखते ही देखते तुम एक जमीन से जुड़े हुए नेता बन जाओगे ।"

           यद्यपि इन सारे कार्यों के लिए बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है । फिर भी कई नेताओं के बेटे राजनीति में असफल रह जाते हैं । इसका एक कारण यह भी होता है कि दूसरे नेताओं के बेटे तथा दूसरे नेता-पितागण उनकी टांग खींचते रहते हैं। यह लोग सोचते हैं कि अगर अमुक नेता का बेटा एमएलए बन गया तो  हमारा बेटा क्या घास खोदेगा ? राजनीति में प्रतियोगिता बहुत ज्यादा है । कुछ गिनी-चुनी विधानसभा और लोकसभा की सीटें हैं । यद्यपि आजकल ग्राम-प्रधानी का आकर्षण भी कम नहीं है । पता नहीं इसमें कौन-सी चीनी की चाशनी है  कि बड़े से बड़े लोग ग्राम-प्रधानी के लिए खिंचे चले आ रहे हैं । खैर ,सीटें फिर भी कम हैं। उम्मीदवार ज्यादा है । 

      कुछ लोग अपने बलबूते पर नेता बनते हैं । कुछ लोगों को उनके मां-बाप जबरदस्ती नेता बनाते हैं । कुछ लोगों को खुद का भी शौक होता है और उनके माता-पिता भी उन्हें बढ़ावा देते हैं । आदमी अगर नेता बनना चाहे तो इसमें बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं है। हालांकि टिकट मिलना एक टेढ़ी खीर होता है । फिर उसके बाद चुनाव में तरह-तरह की धांधली और जुगाड़बाजी अतिरिक्त समस्या होती है । पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है ,जो नेता-पुत्रों के लिए आमतौर पर कोई मुश्किल नहीं होती । आदमी एक-दो चुनाव हारेगा ,बाद में जीतेगा । मंत्री बन जाएगा । फिर उसके बाद पौ-बारह। पांचों उंगलियां घी में रहेंगी । पीढ़ी दर पीढ़ी धंधा चलता रहेगा। समस्या मध्यम वर्ग के सामने आती है। बचपन में उससे जो प्रश्न पूछा जाता है कि बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ,वह बड़े होने के बाद भी उसके सामने मुँह बाए खड़ा रहता है। नौकरी मिलती नहीं है ,बिजनेस खड़ा नहीं हो पाता ।

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर [उत्तर प्रदेश], मोबाइल 99976 15451

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