"हमारे लिए कितने कम हो जाएँगे ? "
"तुम जो चाहे दे दो ! "
"आप ही बता दीजिए । "
"अरे नहीं ! मैं दिल से कह रहा हूँ। तुम जितने चाहे दे दो।"
"नहीं ,आप ही बता दीजिए । "
...और फिर जीवनदास जी ने रुपए बता दिए ।
"मैं कल आपको रुपए दे जाऊँगा ।" -- महेश ने कहा ।
अगले दिन महेश ने सारी रकम जीवन दास जी को दे दी । अब केवल इतना रह गया था कि लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात बैंक जाकर सुविधानुसार जीवन दास जी लॉकर में रखी हुई कलाकृति को निकालकर उसे महेश को सौंप दें ।
कलाकृति अद्भुत और बहुमूल्य थी । केवल अद्भुत और बहुमूल्य ही नहीं बल्कि जीवन दास जी के पिताजी की भी एक निशानी कही जा सकती है । जीवन दास जी के पिताजी जाने-माने चित्रकार थे । न जाने कितनी पेंटिंग उन्होंने बनाई थीं। लेकिन जिस कलाकृति की चर्चा चल रही थी और जिसकी बिक्री का सौदा जीवन दास जी ने अपने रिश्ते के भतीजे महेश के साथ तय किया था ,वह उनकी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति मानी जाती है । इसी नाते जीवन दास जी को भी उस कलाकृति से बहुत लगाव था । वह उसे बेचना तो नहीं चाहते थे लेकिन अब परिवार में पहले जैसी न तो धन - दौलत थी और न ही आमदनी के साधन रह गए थे। मजबूर होकर जीवन दास जी ने कलाकृति के खरीदारों की तलाश की लेकिन किसी अनजान व्यक्ति को रुपए लेकर कलाकृति सौंपने का उनका मन नहीं कर रहा था। महेश के पास पैसा ही पैसा था । वह जीवन दास जी के पिताजी के खानदान का था और इस नाते उसकी रगों में भी वही खून बह रहा था ,जो जीवनदास में था । महेश ने कलाकृति खरीदने की इच्छा प्रकट की है, तो अपना जानकर सौदा काफी कम धनराशि में जीवन दास जी ने महेश के साथ तय कर दिया । परस्पर विश्वास था ,इसीलिए तो कलाकृति लिए बगैर ही पूरी धनराशि महेश ने जीवन दास जी के हाथों में सौंप दी थी।
धीरे-धीरे दिन बीतते गए । लॉकडाउन समाप्त हो गया , लेकिन जीवन दास जी ने कलाकृति महेश के पास नहीं पहुँचाई । जब समय ज्यादा बीता तो महेश ने एक दिन जीवन दास जी के घर पर आकर कहा " चाचा जी ! आप इतनी देर क्यों लगा रहे हैं ? कलाकृति अब मुझे दे दीजिए ।"
जीवन दास जी ने मुरझाई आँखों से कहा " महेश ! मैं कलाकृति नहीं बेचना चाहता । तुम अपने रुपए ले जाओ । "-इतना कहकर जीवन दास जी रुपयों की पोटली उठाकर महेश को देने के लिए अपने कमरे की ओर बढ़े ही थे कि महेश ने कहा " इस तरह से बिके हुए सौदे वापस नहीं किए जाते हैं । हम ने आप पर विश्वास करके पूरी धनराशि आपको सौंप दी और अब आप सौदे से मुकर रहे हैं । यह अच्छी बात नहीं है। बाजार का सिद्धांत होता है कि अगर कोई सौदे से इंकार करे और अपनी बात से पलट जाए ,तब उसे दुगनी धनराशि
देनी पड़ती है । आप मुझे दुगनी धनराशि दीजिए । "
"क्या कह रहे हो महेश ? आखिर तुम मेरे भतीजे हो । मेरे पास दुगनी धनराशि कहाँ से आएगी ? अगर दुगना पैसा होता ,तो मैं बेचने की सोचता ही क्यों ? सच तो यह है कि कलाकृति न बेचने पर और तुम्हें धनराशि वापस लौटाने के बाद मेरे सामने फिर वही पुराना आर्थिक संकट खड़ा हो जाएगा । " --यह बात कहते हुए जीवन दास जी जल के बाहर निकाली गई मछली की तरह तड़प रहे थे। वह समझ चुके थे कि अब बात घर की नहीं रह गई है।
रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफ़ा, रामपुर (उत्तर प्रदेश), मोबाइल 99976 15451
बेहद बारीकी के साथ मस्तिष्क में चलने वाले मनोभावों का मैंने इसमें चित्रण किया है । आदरणीय डॉक्टर मनोज रस्तोगी जी ने कहानी को सम्मान के योग्य माना । बहुत-बहुत आभार
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