गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार एवं रंगकर्मी स्मृति शेष डॉ इंदिरा गुप्ता जिनकी आज है जन्मतिथि ---


गोकुलदास हिंदू कन्या महाविद्यालय में शिक्षा शास्त्र विभाग में रीडर पद से सेवानिवृत्त डॉ इंदिरा गुप्ता का मुरादाबाद महानगर के रंगमंच और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा । 23 अप्रैल 1939 को झांसी में जन्मी डॉ गुप्ता ने हिंदी व समाज शास्त्र विषय में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की।तदुपरांत एमए और पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपकी शिक्षा बनारस, इलाहाबाद व लखनऊ में संपन्न हुई 1962 में प्रवक्ता शिक्षा विभाग मेरठ में प्रथम नियुक्त हुई। सन 1999 में मुरादाबाद के गोकुलदास हिंदू कन्या महाविद्यालय से रीडर शिक्षाशास्त्र पद से सेवानिवृत्ति ली । बचपन से ही लेखन में अभिरुचि थी ।आपकी एक काव्य कृति अंतर्ध्वनि का प्रकाशन हो चुका है । शिक्षा सिद्धांत एवं शिक्षा मनोविज्ञान नामक दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं ,जो बीए के पाठ्यक्रम में स्वीकृत हुई। संगीत, साहित्य एवं रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा। आ काशवाणी के रामपुर केंद्र से आपकी वार्ताओं का प्रसारण भी हो चुका है ।आप ने सन 1984 में मंजरी नाट्य मंच की स्थापना की। इसके माध्यम से आप के निर्देशन में 13 नाटकों का सफल मंचन हुआ, इनमें दिल की दुकान , माधवी तथा विष्णु प्रभाकर कृत युगे युगे क्रांति की प्रस्तुति चर्चित रही ।मुरादाबाद के रंगमंच के क्षेत्र में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। महाविद्यालय में आयोजित होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनकी सक्रिय भागीदारी रहती थी । उनका मानना था कि लेखन क्षमता हो ना हो ,नहीं कवि हृदय सबके पास होता है । मनुष्य संवेदनशील प्राणी है ।भावों, उनके प्रवाह, उनकी शक्ति से वह अछूता नहीं रह सकता। यह शक्ति उसे भावों को जीने की क्षमता प्रदान करती है । उसकी विचारधारा शब्दों का कलेवर पहनकर धारा सी प्रवाहित हो जाती है। प्रकाश में आना न आना दूसरी बात है ना ही सब में एक श्रेणी में आ सकते हैं ।साहित्य की पंडित होने की इतनी आवश्यकता नहीं है । कल्पना ,ज्ञान, अनुभव की विविधता अधिक महत्वपूर्ण है ।आश्चर्य की बात है, गर्वोक्ति भी लग सकती है पर मुझे पंक्ति में आगे आने की, यश की लालसा नहीं रही ,जो किया स्वांत: सुखाय । उनका निधन 14 जून 2019 को हो गया था । प्रस्तुत हैं वाट्स ऍप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में साझा की गई उन्हीं की हस्तलिपि उनकी कुछ रचनाएं -----





















                ::::::::::;प्रस्तुति :::::::::::::

                डॉ मनोज रस्तोगी
                8, जीलाल स्ट्रीट
                मुरादाबाद 244001
                उत्तर प्रदेश, भारत
                मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कहानी ------- योद्धा


डा. रमेश का एक साथी कोरोना की चपेट में आकर अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से झूल रहा था।यह खबर पूरे शहर में आग की तरह फैल गयी थी।रमेश की  मेडिकल टीम में हालांकि सभी स्वस्थ थे फिर भी मेडिकल जाँच हुई और मेडिकल जाँच होने तक  घर में ही रहने का आदेश दे दिया गया। तीन  चार दिन  में समस्त टीम की मेडिकल रिपोर्ट निगेटिव आयी तो घर परिवार और विभाग वालों ने राहत की साँस ली।परंतु मेडिकल टीम के सभी योद्धाओं व  डा. रमेश का असली इम्तिहान तो अब शुरु हुआ था।यों तो सभी मेडिकल विभाग के  लोग किसी न किसी रूप में समाज के तिरस्कार का दंश झेल रहे थे परंतु  डा. रमेश के साथ तो हद ही हो गयी। एक दिन  हाई वोल्टेज के कारण रमेश के घर के  लगभग अधिकांश उपकरण फुँक गये थे।सबसे बड़ी आफत तो तब  आयी जब पता चला कि पानी का मोटर भी खराब हो गया है।कई जगह फोन मिलाये  पर कही से कोई सहायता न मिल पायी ,पुलिस का नम्बर भी लगातार व्यस्त जा रहा था।घर में लगा हैडपम्प उपयोग में न होने के कारण खराब हो चुका था ।
इस दौरान पूरे मोहल्ले में अफवाह उड़ गयी कि रमेश कोरोना  संक्रमित है।बस फिर क्या था मोहल्ले से होते होते आधे नगर में बिजली की तेजी से अफवाह फैल गयी कि डा रमेश के पूरे परिवार को ही कोरोना है।इन सब बातों से बेखबर रमेश निगेटिव रिपोर्ट आ जाने पर निश्चिंत होकर घर से बाहर मास्क व दस्ताने पहन कर बिजली वाले की तलाश में गया। पूरा दिन भाग दौड़ में गुज़र गया बड़ी मुश्किल से  शाम को एक इलेक्ट्रीशियन मिला। राम जाने.... वो इस अफवाह से अंजान था या ज़रूरतमंद ।वो तुरंत घर पर आ गया और बिजली के तमाम उपकरण ठीक कर दिये।पर मोटर ठीक न कर सका।बोला डाक साहब सुबह  आकर ठीक कर दूँगा।इसमें ज़रूरी सामान डलेगा।

खैर....दिमागी में कुछ शांति हुई कि चलो बिजली का सामान तो सही हुआ,वरना रात भर बिन पंखे के बच्चों के साथ कैसे रह पाते।मगर कोढ़ में खाज तो तब हुई जब वाटर प्यूरीफायर में भी पानी समाप्त हो गया ।रात में कम से कम दो लीटर पानी की ज़रूरत  तो पड़ती।जैसे तैसे पत्नी सुधा  ने खाना बनाया और पीने का पानी का वाटर कूलर लेकर,मास्क लगाकर सहज भाव से  पड़ोसन के दरवाजे पर जाकर आवाज़ दी,"गोलू...!गोलू....!!."पाँच छह बार में अंदर से पड़ोसन की उखड़ी हुई आवाज़ आयी,"हाँ...आती हूँ....।"
गेट पर आकर अंदर से झाँकते हुऐ बोली,"क्या हुआ भाभी जी?वाटर कूलर क्यों ले रखा है?"
"वो हमारा मोटर खराब हो गया है,सुबह तक ठीक हो जायेगा।...बस रात भर की बात है,अभी खाना भी नहीं खाया है,थोड़ा सा पीने का पानी चाहिए था.....
आप अपनी  किसी बाल्टी से ही ऊपर से मेरे वाटर कूलर में  घर के बाहर ही पानी डाल दीजिये।"
रमेश की पत्नी ने मुस्कुराते हुऐ सोशल डिस्टेंसिंग के लिहाज़ से कहा।
"पानी...!!!!ओहहहहह!!!पर मेरे यहाँ तो ऐसी कोई बाल्टी नहीं है,जिससे मैं पानी डाल दूँ।"पड़ोसन ने बहाना बनाया।
"कोई बड़ा बर्तन या भगोना तो होगा...?".सुधा ने उसकी कुटिलता से अंजान बनते हुए कहा।आखिर सुधा मुँह बनायेगी तो बच्चे और पति प्यासे ही रह जायेंगे।
"हाँ देखती हूँ....कोई बरतन हो तो.!..पर एक बात बताइये भाभी जी पूरे मौहल्ले में क्या चर्चा चल रही है...आपको कुछ पता नहीं है क्या?"पड़ोसन ने मुँह बिगाड़ते हुऐ कहा।
"क्या मतलब...कैसी चर्चा?"अब चौंकने की बारी सुधा की थी।
"यही की आप सब को कोरोना है....और आप सब घर के बाहर घूम रहे हो।मौहल्ले वाले बहुत नाराज़ हैं....कह रहे हैं पुलिस बुलायेंगे....और...."
और क्या....हमें पकड़वायेंगे..….है न?वाहहहहहह क्या बात है...जब आधीरात को हमारा गेट खटखटाकर दवाई लेने आते हैं तब नहीं सोचते....जब मुफ्त में इंजेक्शन लगवाने आते हैं तब नहीं सोचते....,कहती हुई सुधा फट पड़ी,"और उस दिन ताली और थाली बजाने की नौटंकी किसलिए कर रहे थे सब....?"इससे पहले सुधा कुछ और बोलती,पड़ोसन अंदर बरतन ढूँढने जा चुकी थी,जो शायद उसे पूरी रात मिला ही नहीं था।
 पलभर में सारे अहसान भुला दिये ...!! सुधा को विश्वास नहीं हो रहा था जब मौहल्ले के अनेक,परिवारों  का  अनेक बार मुफ्त में इलाज किया था।

सुधा अगले घर की ओर बढ़ी ,परंतु..... पता नहीं उसके गेट पर पहुँचने से पहले ही उस घर की लाइट बंद हो गयी थी।शायद पड़ोसी ने खिड़की से सुधा को आता देख लाइट बंदकर सोने का उपक्रम कर रहे थे। रात के साढ़े दस बज चुके थे।खाली वाटर कूलर,लटका हुआ मुँह लेकर सुधा घर आ गयी थी।

फिर...!!!फिर  धरती फटी न आसमान गिरा...!बच्चों के लायक एक डेढ़ गिलास पानी तो निकल आया था प्यूरीफायर में।खुद पति पत्नी बिन पानी के ही  थे।अपने बारे में अफवाहें व मौहल्ले वालों के नीच विचार सुनकर रमेश बाबू का मन क्षुब्ध हो गया था,जो लोग उसे देवता की तरह मानते थे,आखिर वही उसके दुर्दिन आने की आशंका मात्र से ही उसके शत्रु बन गये थे। वे सोचने लगे कि हम भी अगर अस्पताल से भाग जायें या मरीज़ों से नफरत करने लगें तो पूरी धरती पर कोई पानी माँगने वाला और पिलाने वाला भी  न बचेगा। सुधा ठीक ही कहती है ये समाज वैसा सुंदर  नहीं है जैसा हम सोचते हैं।समाज का असली चेहरा तो बड़ा विद्रूप है ,जो मुसीबत आने पर ही साफ साफ दिखता है।अपने बारे में ऐसी अफवाहें सुनकर कहीं और फोन करने की हिम्मत न बची थी।रमेश और सुधा दोनो की आँखे नम थीं,शायद आँख के आँसू  कोरोना योद्धाओं की प्यास बुझाने उनके गालों से बहकर होठ तक आने को आतुर थे।

 ✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ------- हम हैं मध्यमवर्ग



        "क्या बात है मम्मी ! इतनी गर्मी शुरू हो गई । अभी तक एसी नहीं चलाया ? "
    जब रोहित ने यह कहा तो उसकी माँ शीला ने अपने पति रजनीश की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखा । तुरंत रजनीश का जवाब आया" एसी को तो अब भूल ही जाओ। पंखे का बिजली का बिल भरना भी अब मुश्किल पड़ेगा ।"
     सुनकर रोहित और शीला दोनों के चेहरे लटक गए । सचमुच स्थिति बहुत खराब है। चालीस दिन के लॉकडाउन में दुकान की आमदनी ठप हो गई । एक पैसे की कमाई नहीं । बस यह समझ लो कि जो रुपए घर में थोड़े बहुत रखे रहते हैं ,उसी से खर्चा चल रहा है । अब यह भी कितने दिन चलेंगे ? दुकान का बिजली का बिल आ चुका होगा? घर का भी बिजली का बिल आएगा । चाहे दो महीने बाद दो या चार महीने बाद , लेकिन देना तो पड़ेगा ।  फिर , दुकान पर खरीदारी के लिए ग्राहक भी कौन से अधिक आ जाएंगे ? जब किसी की जेब में पैसा ही नहीं होगा , सब लाचार और मजबूर होंगे , तो विलासिता की वस्तुएं खरीदने कौन आएगा ?
     रजनीश के दिमाग में यही सब कुछ चल रहा था । " शीला ! सच कहूँ तो आने वाला समय बहुत संकट का है । पता नहीं कोरोना का यह दौर कितने महीने चलेगा और कब आमदनी शुरू होगी ? कब नुकसान की भरपाई होगी ? हो सकता है अब नगदी के बाद तुम्हारे जेवर बेचकर घर का खर्च चलाने की नौबत आ जाए !"
      आँसू यह कहते हुए शायद टपक ही जाते कि तभी मोबाइल की घंटी बजी। फोन उठाया तो उधर से दुकान के नौकर  की आवाज थी " बाबूजी ! अप्रैल के महीने का एडवांस अगर मिल जाता तो अच्छा रहता !"
     " हमारी तो खुद हालत खराब है । फिर भी हजार -पाँच सौ की अगर जरूरत हो तो दे सकता हूँ।" कहकर रजनीश ने फोन रख दिया
   " आप हजार रुपये कैसे दे देंगे ? घर में अब रुपए बचे ही कितने से हैं ? " रजनीश ने फोन रख दिया तो पत्नी ने प्रश्न किया ।
     "यह बात तो केवल मैं और तुम ही जानते हो । समाज में तो हम खाते पीते लोग कहलाते हैं । घर में एसी है। कार और स्कूटर मेंटेन कर रहे हैं । हम गरीब तो है नहीं और अमीर भी नहीं है। हम हैं मध्यमवर्ग ।"

 ✍️  रवि प्रकाश
 बाजार सर्राफा
 रामपुर
उत्तर प्रदेश भारत
 मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ----- मां का दंड


आज सुंदरवन नामक जंगल में दुनिया भर के जीव जंतुओं की सभा होने जा रही है. जीवों की सभी प्रजातियां यहाँ एकत्र हो रही हैँ, सिर्फ मनुष्य को छोड़ कर. सभी अपनी समस्याओं और शिकायतों के साथ उपस्थित हो रहे हैँ. आज की सभा की निर्णय कर्त्री होंगी माँ सृष्टि अथवा प्रकृति.
इस सभा का नेतृत्व चमगादड़ जी को दिया गया क्योंकि हाल ही में चाइनीज नामक दानव प्रजाति ने चमगादड़ समुदाय का अस्तित्व ही मिटा दिया.
यों  तो हर जीव समुदाय की मानव समुदाय के प्रति कोई ना कोई शिकायत है लेकिन छोटे जीव इस बात से परेशान की उनकी आबादी निरंतर कम हो रही है. मानव अपने निहित स्वार्थ के लिए जिस तरह जीव हत्या करता वो तरीका भी अलग ही है.
सभा प्रारभ  हुई. माँ प्रकृति सिंहासन पर आसीन हुई. सबने अभिवादन किया. हर एक जीव अपनी बात कहे. माँ प्रकृति ने कहा .
चमगादड़ गिलहरी कुत्ता  खरगोश सभी एक स्वर में बोले,"माँ क्या हम आपकी संतान नहीं है? क्यों आपने मानव अनुशासन नहीं सिखाया. जव  सृष्टि की थी तव सारे जीवों की आबादी  बराबर थी पर अब..............., मनुष्य इतना निर्दयी हो गया है हमारे नवजात शिशु भी सुरक्षित नहीं.
जो आयु हमें प्रदान की गई थी उतना जीवन तो हमें नसीब नहीं होता. फिर मौत भी इतनी बेदर्दी से की.......,
सिसक कर सभी रोने लगे. माँ से लगातार प्रश्न किये जा रहे पर वह चुपचाप सुन रही थी. आज पहली बार माँ को अपनी सबसे सुन्दर संतान के कुकर्मो की गाथा सुनाई पड़ी. वह तो समझ रही थी की सबसे विकसित स्थान के निवासी अधिक समझदार होंगे, 'पर........., अब आप चाहते क्या हैँ? माँ कातर स्वर में बोली. उन्होंने जैसा हमारे साथ किया वैसी मौत इंसान की भी हो. तभी उनको हमारे दर्द का अहसास होगा. एवमस्तु कहकर माँ प्रकृति उठी और बोली, "आज  मैं तुम्हारे अंतःकरण से निकली आह को एक माहमारी का रूप देती हूं. जो तुम्हारे अस्तित्व को खतरा बना मनुष्य तुमको हाथ लगाना भी भूल जायेगा. तुमको भोजन के रूप में खाकर वह जिसको भी छुएगा वही उस मौत के वायरस का शिकार हो जायगा. जो तुमको जीवन दान देंगे बही जीवित रहेंगे. इतना कहकर माँ प्रकृति अन्तर्ध्यान होगई.
✍️ डॉ प्रीति  हुंकार
मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की लघुकथा----- एक्सीडेंट



9:00 बज चुके थे  ठीक 9:30 बजे स्टाफ बस जागृति विहार पहुंच जाती है मुझे सामान रखकर स्टाफ बस पकड़नी होगी
     परंतु यह क्या..... जैसे ही चाबी के लिए मैंने सूटकेस में अपने लंच बॉक्स बैग को देखा  वह गायब था तुरंत पड़ोसियों की सहायता से ताला तोड़ा रिक्शा वाले को पैसे मांग कर दिए किसी तरह विदा किया  ....
    मैं नौचंदी में जैसे ही ट्रेन में घुसा थाउस  कंपार्टमेंट  में सिर्फ एक हीआदमी और था।
   मैं ऊपर की बर्थ पर लेटा था  ठीक सामने वाली सीट पर एक व्यक्ति लेटा था... यह सब बड़ा अजीब सा लग रहा था
..... मुझे बाशरूमं जाना था परंतु डर रहाथा कोई सूटकेस ना ले जाए लिये ट्रेन चलने का इंतजार करता रहा जब ट्रेन की रफ्तार तेज हो गई मैं वॉशरूम गया
......... जैसे ही बॉशरूम से वापस आया तो देखा वह आदमी गायब था परंतु मेरा सूटकेस वहीं रखा था इसलिए निश्चिंत होकर वर्थ पर लेट गया.... फिर यह सब कैसे हो गया... उसने बड़ी सफाई से सूटकेस का लांक खोलकर उसमें से लंच बॉक्स बाला छोटा बैग निकाल लिया था*****एक महीने बाद बाजार में अचानक वह आदमी दिखाई दिया... उसके हाथ में सुंदर सा पर्स था मुझे देखते ही वह तेज़ दौड़ने लगा मुझे ध्यान आया अरे यह तो वही आदमी है जो मुझे ट्रेन में मिला था मैं भी तेजी से उसके पीछे दौड़ा.... दौड़ते दौड़ते हम दोनों मेन रोड पर आ गये तभी अचानक सामने से आती हुई गाड़ी से उसकी टक्कर हुई मैं वहीं रुक गया वह गाड़ी के नीचे आ चुका था उसके हाथ वाला पर्स दूर जा गिरा था ......
     ....मैंने जैसे ही पर्स उठाया एक उम्रदराज महिला हांफते हुए आकर मेरे पास रुकी वह तेज़ हांप रही थी ...महिला बोली बेटे ये वैंग मेरा है इसमें मेरी जीवन भर की पूंजी है ये मुझसे छीन कर लिये जा रहा था... मैंने मदद के लिए बहुत लोगों से गुहार लगाई ... पकड़ो ...पकड़ो मुझे लूट लिया..... कोई तो पकड़ो..परंतु किसी ने मदद नहीं की .....मैं बहुत दूर से इसके पीछे दौड़ रही थी.... तुम्हारा लाख लाख शुक्रिया..... मैं स्तब्ध खड़ा देख रहा था एक ओर वह व्यक्ति खून से लथपथ प्राण छोड़ चुका था दूसरी ओर वह महिला कृतज्ञता से मेरी ओर देख रही थी... काफी भीड़ जमा हो चुकी थी ...भीड़ को चीरते हुए मैं बाहर निकला ईश्वर की लीला के विषय में सोचता हुआ जा रहा था कि हे ऊपर वाले तेरे खेल निराले.. तेरी माया  भी कितनी विचित्र है....       
                अशोक विद्रोही
                8218825541
        412  प्रकाश नगर, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की कहानी ----- कोरोना और मैं


        कोरोना, कोरोना, कोरोना ....................तंग आ गई हूं मैं इसकी दहशत से। यह बड़बड़ाते हुए आज मैंने कोरोना से मिलने का दृढ़ संकल्प लिया। मुँह पर मास्क लगाकर और हाथों में दस्ताने पहन कर मैं निकल पड़ी कोरोना से मिलने। गलियों को पार करते हुए मैं मुख्य सड़क पर आ गई। जहां लॉक डाउन के कारण कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। कहाँ मिलेगा यह कोरोना वायरस ? शायद अस्पताल के आस पास क्योंकि वहीं उसके प्रहार से संक्रमित लोग जाते हैं। उन्हें देखने के लिए निश्चित रूप से वह वहीँ होगा। यह सोच कर मैं अस्पताल पहुंच गई। मैंने इधर उधर देखा परंतु मुझे कोरोना दिखाई नहीं दिया। मैं पूरे दिन इधर उधर भटकती रही कि कोरोना यहाँ मिलेगा, वहां मिलेगा, पर कोरोना कहीं नहीं मिला। धीरे धीरे सूर्य अस्त होने लगा, मैं बहुत थक गई थी इसलिए सड़क किनारे एक बैंच पर बैठ गई। मैं बहुत हताश थी कि पूरा दिन गुजर गया परंतु कोरोना से भेंट नहीं हो पाई। अचानक एक अजीब सा प्राणी जो इस दुनिया का नहीं दिखता था, मेरे सामने आ गया और बोला, 'बताओ क्या काम है तुम्हे मुझसे'। मैने उस अजीब प्राणी को देखा और घबराकर पूछा कि कौन हो तुम ? उस प्राणी ने कहा कि मैं वही हूँ, जिसे तुम सुबह से ढूंढ रही हो "कोरोना वायरस ।" इतना सुनते ही मेरे पैर कांपने लगे, किसी तरह मैंने अपनी इंद्रियों को वश में करके तुरन्त मास्क ठीक किया और उससे एक मीटर की दूरी बना ली। कुछ समय लगा मुझे स्थिर होने में। फिर उसने मुझसे पूछा कि क्यों ढूंढ रही हो मुझे। इस पर मैंने गुस्से में कहा कि तुम्हें शर्म नहीं आती, पूरे विश्व को परेशान करके रख दिया है तुमने। अच्छी खासी चलती दुनिया को रोक दिया है  कितने ही निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया है तुमने। आज तुम्हारी वजह से सब घर में कैद होकर रह गए हैं। आदमी आदमी से डरने लगा है। क्यों परेशान किया है तुमने हम सब को। क्या बिगाड़ा है हमने तुम्हारा जो तुमने हम सबका जीना मुश्किल कर दिया है। यह सुन कर वह वायरस जोर जोर से हँसने लगा। हा हा हा ...................मैंने गुस्सा होते हुए पूछा कि क्यों हँस रहे हो। इस पर कोरोना ने कहा कि बस इतने से ही परेशान हो गए, आज जो तुम भुगत रहे हो, तुम्हारे अभिमान का नतीजा है। यह धरती जैसी तुम्हारी थी वैसी ही अन्य जीवधारियों की भी, परन्तु तुमने अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कितनी ही प्रजातियों को लुप्त कर दिया और कितनी ही प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर है।जो पेड़ पौधे तुम्हे जीवन देते हैं, तुम उनको ही काट देते हो। और क्या कहूँ मैं तुमसे। तुमने तो अपनी पवित्र पाविनी माँ समान गंगा को भी दूषित कर दिया, कभी अंधविश्वास के नाम पर तो कभी आध्यात्मिकता के नाम पर, इसको प्रदूषित करते रहते हो। बेजुबान जानवरों को अपने मनोरंजन के लिए कैद में रखते हो, आज जब तुम स्वयं कैद में हो तो महसूस करके देखो जरा इस पीड़ा को।
     कोरोना की इन बातों को सुनकर मेरी आँखें शर्म से झुक गई। मैंने हाथ जोड़ कर कोरोना से विनती की, कहा- अब हम ऐसा नहीं करेंगे, हमे इस बार माफ कर दो। तुमने हमारी आँखें खोल दी।
        मेरी आँखों मे पछतावे के आंसू देख कर कोरोना ने कहा कि यदि तुम प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़ छाड़ नहीं करोगे, उसे गंदा नही करोगे, वन्य प्राणियों से उनका रहने का स्थान नही छीनोगे ।उन्हें क़ैद में नही रखोगे तो मैं चला जाऊंगा। मैंने कहा , हम वादा करते हैं, हम वादा करते हैं, हम वादा करते हैं।
        अचानक मुझे लगा कि कोई मुझे जोर जोर से हिला रहा है, धीरे धीरे आवाज मेरे कानों तक पहुंच रही थी, मम्मी मम्मी, उठो उठो। मैं अचानक हड़बड़ाकर उठकर बैठ जाती हूं। क्या कोरोना और मैं स्वप्न में वार्तालाप कर रहे थे। बच्चे पूछ रहे थे कि क्या हुआ मम्मी। आप सोते हुए,हम वादा करते हैं, हम वादा करते हैं, क्यों चिल्ला रही थीं। मैने मुस्कुराकर बच्चों की तरफ देखा और कहा कि अब कोरोना हमेशा के लिए चला गया है, परन्तु इस वादे के साथ कि हम प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़ छाड़ नहीं करेंगे और पर्यावरण संतुलन को ध्यान में रखेंगे।इस धरती पर जितना अधिकार हमारा है उतना ही अन्य जीवधारियों का भी है।आओ बच्चों वादा करों।मम्मी हम आज से इस बात का ध्यान रखेंगे यह वादा करते है । मुझे उम्मीद है कि आप सब भी मेरे इस वादे को पूरा करने में अपना सहयोग देंगे।
 
  ✍️  प्रीति चौधरी
शिक्षिका
राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज
हसनपुर, जनपद अमरोहा, उ0 प्र0
मोबाइल फोन नंबर 9634395599

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ------- अपनापन


     एक बुढ़िया जो रोज स्टेशन के सामने वाली पटरी पर बैठी भीख मांगा करती थी कई दिनों से दिखाई नहीं दे रही थी । दीपू ने अपने दोस्तों से मालूम किया,''यार क्या बात है कई दिनों से वह बुढ़िया नहीं दिखाई दे रही है ?
     दीपू के मित्र हँसे औऱ व्यंग कसा,'' तू तो ऐसे परेशान हैं जैसे तेरी मां थी ।''
    ''दीपू ने जमीन की ओर देखते हुए धीरे से उत्तर दिया .... हां... मेरी मां ...जैसी ही थी ।'' क्योंकि वह मुझे हर माह फीस के पैसे देती थी । '' लेकिन तुम ------ तुम ------क्या हो ?''
 
अशोक विश्नोई
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा---- निखरे रंग


आज आसमान बहुत खुश था .होता भी क्यों नहीं मुद्दतों बाद अपने असली रंग रूप को जो देख रहा था . और पक्षी भी तो कलरव करते हुए उसके आगोश में सिमटने को आतुर थे .थोड़ी उड़ान भरने पर ही जो आँखों से ओझल या बहुत ही फीके से दिखाई देने लगते थे आज उनका दूर से बहुत दूर से इएक एक पंख गिना जा सकता था .
धुंध का दूर दूर तक नामो निशाँ नहीं था और पवन की शीतलता बदलते मौसम की गर्मी पर बभारी पहो रही थी .
नदी का पानी भी मुस्करा रहा था और लहरें अठखेलियां करती प्रतीत हो रही थीं सूरज की किरणें उन पर पपड़कर वातावरण को और खूबसूरत बना रही थीं .
फूल डालिओं पर लटके अपना निखरा हुआ यौवन दिखाकर भौरों को अपनी औतरफ आकर्षित कर रहे थे .
​पूरी प्रकृति खुश थी मंगल गीत गाने को आतुर सी प्रतीत हो रही थी .
​आसमान इतना स्वच्छ की दिन में भी तारे गिने जा सकते तथे
​जंगली और आवारा कहे जाने वाले जानवर बड़ी शान्ति से अपने दिन बिताने में मशगूल थे .
​यह संभव कैसे हुआ प्रकृति भी आश्चर्य चकित थी .फिर उसको पता चचला की अपनी बुद्धिमता के लिए प्रसिद्ध मानव पर प्रकृति के महामारी नामक दंश ने उसको घर में कैद रहने के लिए विवश कर दिया है .
​इसलिए प्रकृति आज कहकर सांस और अपने चमकीले रंगों की दुनियां में फिर से लौट आई है .

​ ✍️ राशि सिंह
​मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश,भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ---- जेबकतरी


अप्रैल का महीना था, शाम हो चली थी लेकिन अभी पर्याप्त प्रकाश था। सुदूर ग्रामीण इलाके के उस छोटे से रेलवे स्टेशन पर बस इक्का दुक्का ही लोग नज़र आ रहे थे।
सुरेश ने अपनी पेंट की पिछली जेब से अपना पर्स  निकालकर उसमें से एक पचास रुपए का नोट निकाला और पर्स वापस जेब में रखकर टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"बीस रुपये और दीजिये", टिकट बाबू ने उसके बताये स्टेशन को कम्प्यूटर में फीड करते हुए कहा।

"अच्छा सर अभी देता हूँ", कहते हुए सुरेश ने अपनी जेब में हाथ डाला लेकिन ये क्या उसकी जेब में तो उसका पर्स था ही नहीं!!!
सुरेश ने जल्दी-जल्दी अपनी सारी जेबें टटोल लीं लेकिन उसका पर्स कहीं नहीं था।

"अभी तो मैने पैसे निकाल कर पर्स मेरी जेब में...?",  याद करते हुए सुरेश ने फिर अपनी पैंट की पिछली जेब को झाड़ा।

"जल्दी कीजिये भाई", तब तक खिड़की से फिर टिकट बाबू की आवाज आयी।

"ज..जी..जी सर अभी लाता हूँ", कहकर सुरेश परेशान होता हुआ उस जगह आकर खड़ा हो गया जहां उसने पर्स निकाला था और वह इधर-उधर देखने लगा कि शायद कहीं गिर गया हो जेब में रखते वक्त, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।

"कहाँ गया मेरा पर्स??!!?", वह आँखें बंद करके कुछ सोचता हुए बुदबुदाया।

"ओह्ह!!" तभी अचानक उसे कुछ याद आया और वह एक तरफ दौड़ गया।

जल्दी उसने दौड़कर एक भिखारिन जैसी दिखने वाली लड़की को पकड़ा और उसे हाथ पकड़कर खींचता हुआ स्टेशन पर ले आया जो पटरी के सहारे अँधेरे में लगभग भागी हुई चली जा रही थी।
अब तक स्टेशन पर लाइट्स जल चुकी थीं और वहां अच्छा- खासा उजाला हो रहा था।

"ऐ लड़की कहाँ है मेरा पर्स? जो तूने मेरी जेब से निकाला था जब मैं टिकट लेने के लिए बढ़ रहा था", सुरेश चिल्लाकर उस लड़की से बोला।

"कौनसा पर्स साहब? मैंने तो कोई पर्स नहीं लिया", वह लड़की डरते हुए बोली।

"अच्छा झूठ बोलती है...! उस समय तू मेरे पास नहीं खड़ी थी",  सुरेश के तेवर और कड़े हो गए।

"मैं कब खड़ी थी साहिब मैं.. मैं तो.." उस लड़की की आवाज में अब सिसकियां सुनाई पड़ी, सुरेश उस लड़की को ध्यान से देखने लगा।

वह चेहरे से बहुत मासूम सी कोई तेरह-चौदह साल की लग रही थी, सांवला रँग, बड़ी आँखें, लंबे खुले बाल; उसने एक गन्दा सा फ्रॉक पहन रखा था,जो घुटनों के बस थोड़ा ही नीचे पहुंच रहा था। उसके पैरों में दो मेल की पुरानी चप्पल थीं।

किन्तु चेहरे से बच्ची लगने वाली ये लड़की जिस्म से किसी अठारह-बीस साल की महिला जैसी लग रही थी।
जी हाँ महिला क्योंकि उसके शरीर के कटाव समय से पहले ही उभर आये थे और उसका पेट... उसका पेट तो कुछ अलग ही संकेत दे रहा था।
सुरेश उसे देखकर चौंका की इतनी कम उम्र में ये...।

किन्तु अगले ही पल फिर सुरेश के मन मे पर्स का ख्याल आया और उसने फिर कड़क कर पूछा, बताती है या बुलाऊँ पुलिस को।

"बुला लो साहब जब हमने कुछ किया ही नहीं तो डरें क्यों", वह लड़की अब तन कर बोली और झपट्टा मार कर भागने लगी।
उसे सुबकते सुनकर उसे देखने के चक्कर में सुरेश की पकड़ उसके हाथ पर ढीली हो गयी थी और उसी का फायदा उठाकर वह भागने लगी।

"नहीं लिया तो फिर भागती क्यों है सा.. जेबकतरी", सुरेश ग़ुस्से गली देता हुआ उसके पीछे झपटा और कुछ ही कदम पर उसे पकड़ लिया।
इस बार सुरेश ने जब उस पर झपट्टा मारा तो उसका हाथ उस लड़की की छाती पर पड़ा और उसके हाथ में उसके फ्रॉक के साथ ही कुछ और भी चीज या गयी।

ये छोटी सी चीज बिल्कुल सुरेश के पर्स जैसी ही थी।
सुरेश का पर्स हमेशा कुछ पेपरों की वजह से बहुत मोटा हुआ रहता था और अब उसे अपना वही मोटा पर्स उसकी फ्रॉक के अंदर छिपा हुआ महसूस हो रहा था।

"तूने नहीं चुराया तो तेरे पास मेरा पर्स क्या कर रहा है? चोट्टी कहीं की, चल निकाल मेरा पर्स", सुरेश फिर से उसे झिड़कते हुए बोला, लेकिन इस बार उनसे इस 'जेबकतरी' को मजबूती से पकड़ा हुआ था।
इस सुनसान स्टेशन पर अभी तक इन दोनों के बीच अभी तक कोई नहीं आया था।

"मैंने कहा ना कि मैंने नहीं चुराया तुम्हारा पर्स साहब, ये तो मेरे पास मेरा कुछ समान है", इस बार वह लड़की कुछ तेज़ चीखकर बोली।
इतना तेज जैसे वह किसी दूर के व्यक्ति से बात कर रही हो या दूर खड़े किसी को सुनाना चाह रही हो।

"तेरे पास ही है मेरा पर्स, मैं अपना पर्स खूब पहचानता हूं; चल निकाल इसे", सुरेश फिर उस पर चिल्लाया।

"देखो साहब आपने मुझे गलत जगह पकड़ा हुआ है, आप छोड़ो मुझे नहीं तो..", अब वह लड़की सुरेश से डरने के स्थान पर लड़ने पर उतर आई थी।

"नहीं तो क्या? क्या करेगी तू... ", सुरेश उसकी बात सुनकर अपने हाथ को देखते हुए बोला, लेकिन उसने पर्स को नहीं छोड़ा।

अभी ये उलझ ही रहे थे तब तक एक पुलिस वाला सीटी बजाता इधर आता दिखाई पड़ा, उसके साथ ही एक व्यक्ति और था जो रेलवे का ही कोई कर्मचारी लग रहा था।
उन्हें आता देखकर लड़की की आंखों में खुशी की चमक आ गयी थी जिसे सुरेश नहीं देख पाया।

"क्या हुआ साहब, आपने इस भिखारन को ऐसे क्यों पकड़ रखा है?" पुलिस वाले ने आकर सुरेश से पूछा।

"हाँ- हाँ बताओ क्या बात है और किसी लड़की को ऐसे, इस तरह पकड़ना क्या आपको अच्छा लगता है? आप तो देखने में बहुत शरीफ लग रहे हैं तो फिर किसी लड़की के साथ ऐसे अंधेरे में छेड़छाड़...", वह दूसरा आदमी भी बोल पड़ा।

"इसने मेरा पर्स चुराया है हवलदार साहब, ये मेरे हाथ में मेरा पर्स है जो इसने अपने कपड़ों में..", सुरेश भी पुलिस के आने से सुरक्षित ही महसूस कर रहा था।
उसे पूरा विश्वास था कि पर्स बरामद होने पर पुलिस वाला उसकी बात जरूर समझेगा।

"अच्छा आप छोड़िए हम देखते हैं", पुलिस वाले ने उस लड़की का हाथ पकड़ते हुए कहा।

सुरेश ने उसका गिरेबान छोड़ दिया।

"क्यों बे साली मेरे इलाके में जेब काटती है??, चल निकाल क्या है तेरे पास", सिपाही उस लड़की को डाँटते हुए बोला।

"नहीं साहब, मैंने नहीं लिया कुछ भी; मेरे पास बस मेरा ही सामान है", वह लड़की अब पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी।
"अच्छा साली झूठ भी बोलती है, मैं खूब जनता हूँ तुम जे  जैसियों को, अभी चार डण्डे पड़ेंगे तो सब कुछ निकाल देगी",  सिपाही फिर उसे हड़काने लगा।
"चल तलाशी दे, अभी पता लग जाएगा क्या है-क्या नहीं तेरे पास", कहकर सिपाही ने उसे अपनी तरफ घुमाया जिससे सुरेश की तरफ उसकी पीठ हो गयी।
और सिपाही घुटनों पर बैठकर उसकी तलाशी लेने लगा।

"वैसे कितने रुपये होंगे आपके पर्स में और क्या-क्या सामान होगा?रंग क्या है आपके पर्स का? वो क्या है ना पता रहेगा तभी तो मिलान हो पायेगा की वह आपका पर्स है या इसका", तभी वह दूसरा आदमी सुरेश से बोला।

"कोई आठ सौ रुपए और कुछ कागज, मेरा कार्ड और एटीएम हैं मेरे काले पर्स में", सुरेश ने उसकी ओर देखकर जबाब दिया।

"मिल गया, तब तक पुलिस वाला हाथ में पर्स लेकर खड़ा हुआ। लेकिन ये तो लाल पर्स है साहब और इसमें तो कोई बीस-तीस रुपये पड़े हैं और खूब सारे कागज जिनकी वजह से ये मोटा हो रहा है; और तो इसमें कुछ नहीं है साहब।" पुलिस वाला उस लाल पर्स को पलटकर समान निकालते हुए बोला।

"लेकिन आपका पर्स तो काला था, और उसमें आठ सौ.." दूसरा आदमी याद करने का नाटक करते हुए बोला।

"हम समझते हैं आपकी परेशानी, आपका पर्स कहीं और गिर गया होगा। आप ऐसा करिए अपने पर्स का  ब्यौरा और अपना ऐड्रेस लिखकर दे दीजिए हम कल दिन में ढूंढकर देखेंगे और लोगों से पूछताछ करेंगे, अगर मिल गया तो आपके घर भिजवा देंगे", पुलिस वाला सहानुभुति दिखाते हुए बोला।

"वैसे आप कहीं जा रहे हैं या आ रहे हैं", दूसरे व्यक्ति ने पूछा।
"मैं जा रहा हूँ इसी गाड़ी से", सुरेश पता बताते हुए बोला।

"अरे  तब तो गाड़ी जाने वाली है, टिकट तो होगी आपके पास? अरे कहाँ से होगी आपका तो पर्स ही खो गया आप ये लीजिये ये सौ रुपये रखिये और जाइये, हम आपका सामान मिलते ही पोस्ट कर देंगे", पुलिस वाले ने अपनी जेब से सौ रुपये निकाल कर उसे देते हुए कहा।

गाड़ी जाने वाली थी इसलिए सुरेश भी कुछ ना कह सका और सौ रुपये पकड़कर धन्यवाद बोलते हुए टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"पर्स तो उसके पास ही था मेरा, मेरे हाथ अपने पर्स को खूब पहचानते हैं, लेकिन वह बदल कैसे गया और फिर उस लड़की ने कोई भी मर्दाना पर्स अपने सीने पर क्यों छिपाया हुआ था।
और ये पुलिस.. पुलिस वाले ने मुझे अपने पास से सौ रुपए दिए....
वह लड़की भी उसके आने पर ज्यादा ही अकड़ने लगी थी... कहीं ये सब मिले हुए??", सुरेश भागती हुई ट्रेन में विचार दौड़ा रहा था।
इधर ये दोनों लोग, तीन सौ रुपये लड़की को देकर दो-दो सौ अपनी जेब में रख चुके थे और अब बेशर्मी से लड़की के जिस्म को आपस में बांट रहे थे।
लड़की के चेहरे पर मजबूरी और बेबसी का दर्द साफ झलक रहा था।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा
मुरादाबाद
मोबाइल फोन नंबर ९०४५५४८००८

रामपुर की साहित्यकार रागिनी गर्ग की लघुकथा -----"प्रकॄति का परिवर्तित रूप"


मिहिका ने शाम को जैसे ही खिड़की खोलीं।उसकी आँखें प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर मुस्करा उठीं।वो खुद को एकदम तरोताजा महसूस करने लगी।
समुद्र एकदम शान्त और स्वच्छ था।हवा में एक अलग सी मीठी-मीठी सुगन्ध थी, जो मन को आह्लादित कर रही थी।
सूरज घर जाने को तैयार था,वह गगन में सिंदूरी छटा बिखेरे हुआ था।बादल आसमान से अठखेलियाँ कर रहे थे। कुल मिलाकर यह खूबसूरती शब्दों में बयाँ नहीं हो सकती।
मिहिका ने अपने पति विहान को आवाज  लगायी,"विहान!,विहान!जल्दी आओ देखो!कितना खूबसूरत नजारा है।"
विहान आया ,और मिहिका के साथ उस खूबसूरती का अवलोकन करने लगा।
विहान बोला-"मिहिका! सचमुच एक अलग ही अनुभूति हो रही है।वरना तो प्रदूषण की वजह से साँस लेना भी दुश्वार था।विषैली हवा के कारण यह खिड़की भी हमेशा बन्द रहती  थी। तुमने इसको आज बहुत दिनों बाद खोला है।"
"विहान क्यों भूलते हो?  यह विष भी तो हम मानवों ने ही प्रकृति में घोला है।भौतिकता की दौड़ में हम धरती माँ का नित स्वरुप बिगाड़ रहे हैं। टी.वी,ए.सी,कूलर ,फ्रिज, इन्टरनेट,मोबाइल आदि अलादीन के चिराग ( विज्ञान) द्वारा  प्रदत्त सारे उपकरण हमारी पृथ्वी के लिये अभिशाप बन गये हैं। मनुज अपने अहम में अंधा हो गया  था कि उससे ज्यादा ताकतवर और समझदार प्राणी पूरी सृष्टि में कोई नही है।इतना सब कुछ मिहिका एक साँस में बोल गई,
विहान ने कहा, "मिहिका! प्रकृति का हर छोटा से छोटा प्राणी भी उतनी शक्ति रखता है जितना कि एक बडा़ प्राणी रखता है। देखो न! एक अति सूक्ष्म,अदृश्य जीव ने सम्पूर्ण मनुष्य जाति को घर में  कैद कर उसकी गति को रोककर प्रकृति का जीर्णोद्धार किया है।इस कोरोना ने प्रकृति को खुशहाल बना दिया है।नदियाँ अविरल बह रही हैं।पशु- पक्षी स्वतन्त्र विचरण कर रहे हैं,हवा स्वच्छ हो गयी, जल  साफ होकर पीने योग्य हो गया है।फूल, पेड़,पौधे सब मुस्करा रहे हैं।कुल मिलाकर आज धरती ,गगन,चाँद ,तारे,पशु,पक्षी,सब खुश हैं।"यह प्रकृति का परिवर्तित रूप है ,जो बहुत समय बाद देखने को मिला है।"
 
✍️ रागिनी गर्ग
रामपुर
उत्तर प्रदेश,भारत
मोबाइल फोन न.-8077331027

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा --- छू लिया चांद



बुधवार, 22 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की बाल कहानी ----- नादान मोलू


   मोलू बंदर आज बहुत परेशान था   उसको समझ नहीं आ रहा कि  वह खुश कैसे  रहे? बह  आम के बाग में गया और एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूद कूद कर  उछल कूद करने लगा. इससे बहुत सारी   शाखाएं और अमरुद टूटकर नीचे गिर कर रोने लगे.
​ सबको कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मोलू को आखिर हो क्या गया है?
​ कई अमरुद तो बहुत छोटे छोटे थे जो और बड़े हो सकते थे परंतु  मोलू  की नादानी के कारण हो जमीन पर गिरे बिलख रहे थे.
​ उधर छोटू बाबू  और कालू बंदर मजे से अमरूद खा रहे थे पके पके  अमरूदों को भी आत्म संतोष हो रहा था.
​  मोलू की आंखें लाल हो रही थी गुस्से के मारे और चेहरा सुखा  सा  कोई रौनक नहीं थी चेहरे पर.
​  मोलू अक्सर बहुत गुस्सा करता था इससे उसके माता-पिता हमेशा दुखी रहते  थे की मोलू खुश क्यों नहीं रहता  और  बच्चों के साथ खेलता क्यों नहीं ?
​ उसकी गुस्से के कारण धीरे-धीरे उसके सभी मित्रों से दूर होते गए और  वह अकेला रह गया अब उसको बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था कोई भी उससे बात करने वाला नहीं था.
​ एक दिन वो   मोलू बंदर की मम्मी चंपा ने उसको अपने पास बैठाया और उसकी उदासी का कारण पूछा.
​   मोलूने उदास होते हुए कहा कि उससे कोई नहीं बोलता उसके सारे मित्र  उससे दूर रहते हैं .
​ मम्मी ने प्यार से  मोलू के सिर पर हाथ फेरा और समझाते हुए कहा कि उसको थोड़ा शांत रहना चाहिए अपने आसपास की चीजों से प्रेम करना चाहिए.
​ किसी को भी सताना नहीं चाहिए पेड़ पौधों को भी नहीं क्योंकि उनके भी दर्द होता है जब उनको हम बेरहमी से तोड़ते हैं तो वह तड़पते हैं.
​    मोनू अपनी मम्मी के बात सुन तो रहा था लेकिन ध्यान बिल्कुल नहीं दे रहा था.
​  थोड़ी देर बाद मम्मी अपने घर के काम करने  लगी और  मोलू ने टीवी चला कर टीवी देखना शुरू कर दिया.
​ लेकिन उसे टीवी देखना है बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था उसको अपने मित्रों के बहुत याद आ रही थी जो उससे बोलते नहीं थे.
​ उसने उठकर अपना मुंह धोया और शीशे में खुद को गौर से देखा उसके माथे की लकीरें गहरी हो रही थी क्योंकि वह बहुत गुस्सा करता था.
​ उसने अपने बाल बनाए और आंखों में काजल लगाया, फिर   वह  अपनी मम्मी के पास किचन में गया, मम्मी गीत गाते हुए खाना बना ​​ थी और पापा मुस्कुराते हुए उनकी रसोई में सहायता कर रहे थे.
​  मोलू को दोनों ने अनदेखा कर दिया क्योंकि वह किसी की बात तो मानता नहीं था हमेशा रोता चिल्लाता रहता था.
​ उसने मम्मी से मुस्कुराते हुए कहा कि क्या है उनकी कोई हेल्प कर सकता है.
​ मम्मी पापा दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने पहली बार   मोनू का बदला हुआ रूप देखा था.
​" नहीं  मोलू तुम कुछ मत करो बाहर जाकर बैठ जाओ मैं सब कुछ कर लूंगी!"
​ मम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा तो मोलू को एहसास हुआ कि हमें अपने सभी कार्य हंसते हुए ही करनी चाहिए.
​ कभी दूसरों पर गुस्सा नहीं करना चाहिए और हमेशा खुश रहना चाहिए.
​ इसके बाद मोलू ने खुश रहना से रहना शुरू कर दिया. उसके सभी मित्र फिर से उसके साथ खेलने लगे और पेड़-पौधे भी उससे खुश रहने लगे.

​  ✍️  राशि सिंह
​ मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
​( अप्रकाशित एवं मौलिक बाल कहानी)

वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। मंगलवार 21 अप्रैल 2020 को आयोजित बाल साहित्य गोष्ठी में प्रस्तुत की गई जितेंद्र कमल आनंद , डॉ प्रीति हुंकार , अशोक विद्रोही , नृपेंद्र शर्मा सागर , राजीव प्रखर ,श्री कृष्ण शुक्ल, सीमा रानी, अभिषेक रुहेला और मंगलेश लता यादव की बाल कविताएं


बच्चे तो बच्चे होते हैं
भोले-भाले दिल के सच्चे
धमा-चौकडी खूब मचाते
जब हँसते हैं लगते अच्छे

खेल-खिलौने, छीना-झपटी
हो बेकार ,कार है रपटी ।
इसका हँसना,उसका रोना
रोज़ चिढ़ाये कहकर नकटी

गुड़िया बहुत अभी है छोटी
नहीं चिड़ाओ कहकर मोटी
बंद सभी को घर में रहना !
बंद करो अब नल की टोटी।।

✍ जितेन्द्र कमल आनंद
रामपुर उ प्र, भारत
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मेरे घर का छोटा उपवन
अब हँसता है मुस्काता है.
उसको खुशियाँ नई मिलीं है
यह बात मुझे बतलाता है.

पहली बार साथियों मैंने
जी भर के उद्योग किया.
लॉक डाउन की अवधि में
समय का सदुपयोग किया.
हरे भरे पेड़ पौधों को नित
देख हृदय हर्षाता है.
उसको...........
थोड़े दिन की देखभाल में
मैने कितना कुछ पाया है.
फल फूलों के गहनों ने
बृक्षों को खूब सजाया है.
ताजे फल सब्जियों से अब
घर मेरा भर जाता है.
उसको........

✍ डॉ प्रीति हुंकार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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  शोर मचाता गोलू आया
             मेरे गुब्बारे भरवा दो
मेरी छोटी सी पिचकारी
             ठीक नहीं है लंबी ला दो
सारे बच्चे उधम मचाते
             रंग लगाते घूम रहे हैं
चीनू मीनू गुब्बारे ले
             मुझे मारने झूम रहे हैं
और देरअब नहीं रुकुंगा
           मुझसे भी इनको रंगवा दो
रंग बिरंगी इस होली में
           सब ने मुझे गुलाल लगाया
लाल हरा नीला और पीला
           रंग लगाना मुझको भाया
आओ मिलकर गुझिया खाएं
          पापड़ मठरी खूब उड़ाएं
होली की छुट्टी है भाई
          मिलकर सारे मौज मनाएं
होली का हुड़दंग बजेगा
               होली गाईं जाएंगी
रंगो के ही  संग संग
          सब नाराजी घुल जाएगी
                   
 ✍️ अशोक विद्रोही
 412 प्रकाश नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 8218825541
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आओ बच्चों तुम्हे सिखाएं खेल खेलने घर बैठे।
खेल सकेंगे इसको मिकलकर चाहे दो हों चाहे छः।।

पेपर लाओ एक बड़ा तुम चाहे टुकड़ा चार्ट का।
चल जाएगा कोई टुकड़ा भी एक मोटे गत्ते का।

मनपसंद रंग में तुम रंग लो और बनालो खाने सौ।
फिर कुछ करलो चित्र इकट्ठे अपनी पुरानी पुस्तक से।

हाथी घोड़ा शेर भेड़िया साँप और बिछु जो हो।
कुछ जादूगर परी फलों की और टोकरी भी लेलो।

चिपका लो तुम उन चित्रों  गए जो हम रहे बता।
कुछ पंक्ति भी लिखकर तुम इन खानों में लो चिपका।

पाँच नम्बर पर बैठा मेंढक, 10 पर कूद लगाएगा।
बैठा सात पर छोटा बिच्छू 2 पर वापस लाएगा

अगर बारह पर पहुंच गए तो सेब तुम्हे मिल जाएगा।
ख़ाकर सेब मिलेगी ताकत दुगुनी कदम (24)बढ़ाएगा।

सत्रह पर पाओगे घोड़ा जो जाए पच्चीस पर दौड़ा।
बाइस पर  मिले जादूगर खड़ा एक चल दे और बढ़ा।

मिले तीस पर काला नाग, कहे जाओ बीस पर भाग।
पैंतीस पर मिल जाये चुड़ैल, दो चांस  देगी बैठाय।

चालीस पर भेड़िया गुर्राये, बत्तीस पर दे तुम्हे भगाय।
पैंतालीस से पहुंचो साठ फलों की टोकरी गर मिल जाये।

पैंसठ पर मिल जाये परी, समझो चालें चार बढ़ी।
सत्तर पर  खूंखार बाघ, चार घर पीछे को भागे।

हाथी दादा अस्सी पर पहुंचेंगे दस घर आगे।
सत्तानवे पर शेर खड़ा, सीधे सत्तासी पर दे गिरा।

पिचानवे पर जो मिल जाये कार,
समझो हो गए सौ के पार।

✍️  नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008 
---------------------------------------------------

सुन्दर स्वप्न सजाओ बच्चो,
छुट्टी में इस बार।

पुस्तक बन कर तुम्हें पुकारें,
प्रेरक गाथाएं।
आने वाले कल की बनकर,
उजली आशाएं।
आगे तुम पर भी आना है,
कर्तव्यों का भार।
सुन्दर स्वप्न सजाओ बच्चो,
छुट्टी में इस बार।

कष्टों में भी डिगे नहीं जो,
कितने ही चेहरे।
कदम बढ़ाते गये राह पर,
कभी नहीं ठहरे।
अपनी प्रतिभा को ऐसे ही,
देते रहना धार।
सुन्दर स्वप्न सजाओ बच्चो,
छुट्टी में इस बार।

नवयुग के प्रतिनिधि बनकर तुम,
बढ़ते जाओगे।
राष्ट्र-प्रतिष्ठा में कितने ही,
चन्द्र लगाओगे।
ऐसा प्यारा कल लाने को,
हो जाओ तैयार।
सुन्दर स्वप्न सजाओ बच्चो,
छुट्टी में इस बार।

🙏 राजीव 'प्रखर'
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
----------------------------------------------------------

छोटू पापा से ये बोला, कब तक घर में बंद रहूँगा
बैठे बैठे ऊब गया हूँ, कब जाकर के मैं खेलूंगा।

पापा ने उसको समझाया, बाहर जाने में खतरा है।
बाहर कोरोना का संकट, जाने कहाँ कहाँ पसरा है।
कुछ दिन घर में बंद रहेंगे, इसकी कड़ी टूट जाएगी।
बाहर आने जाने पर से, पाबंदी भी हट जाएगी।
तो क्या मैं घर के अंदर ही, निपट अकेला पड़ा रहूँगा।
बैट बॉल, से दूर बताओ, घर में कब तक सड़ा रहूँगा।

घर में कहाँ अकेले हो तुम, मैं भी तो हूँ, मम्मी भी हैं।
घर में रहकर खेल खेलने, के कितने ही साधन भी हैं।।
कुछ दिन हमको दोस्त समझ लो, लूडो, बिजनैस, कैरम खेलो।
जब चाहे साथी बच्चों से, तुरत वीडियो चैटिंग कर लो।।
मान गया छोटू फिर बोला, अच्छा घर में ही खेलूँगा।
रोज हराऊँगा दोनों को, घर में तो मैं ही जीतूँगा।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
MMIG-69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद।
मोबाइल नं.9456641400
------------------------------------------------–--------

   
   रंग बिरंगे लेकर गुब्बारे
   जब फेरीवाला आता है
   मन में उठे धमाचौकड़ी
    जी भरकर ललचाता है |

    कभी नीला तो कभी पीला
    कभी गाेलू प्यारा बडा सजीला
    रंग  बिरंगी   तितली  जैसे
     उड़ उड़ जाये रंग रंगीला |

   ऊंचा ऊंचा उडने काे ज्याें
    हाेड़ लगाये ये  मिल  सारे
    कसकर यदि नही पकडे़
    तो दूर गगन में भागे प्यारे |

   नीला नीला मेरा प्यारे
    बाकी बचे सारे तुम्हारे
    इसकाे लेकर इठलाऊँगा
    फिर जी भर मौज मनाऊंगा |

   लेकर अपना गुब्बारा मै
   मित्र मंडली जाऊँगा,
     सबसे मस्तक ऊँचा करके
    अपनी जय बुलवाऊँगा |

✍🏻सीमा रानी
  अमराेहा
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कविता के माध्यम से *'हिन्दी व्याकरण'* के *'कारक एवं चिह्नों'* की जानकारी-

गोलू  बोला  सर  जी  हमको  एक  बात  बतलाओ,
होते  क्या हैं  'कारक' जल्दी  से हमको  समझाओ।

सर  जी  बोले   गोलू   बेटा   *'कारक'*  होते  आठ,
हिन्दी  में  ये   बहु  उपयोगी  बात   बाँधलो   गांठ।

पहले  *कर्ता* है   बतलाता  हमको  *ने*  का  चिह्न,
दूजा *कर्म*  बताता खुद *को* नहीं  किसी से भिन्न।

तीजा *करण* है कहता  *से, के द्वारा*  आओ  जाओ,
चौथा  *सम्प्रदान*  वर्णन  *के लिए*  लिखा ही पाओ।

पञ्चम *अपादान* कहता *से अलग*-थलग  हो  जाना,
छठवां है *सम्बन्ध* सभी तुम *का, की, के* बन जाना।

सप्तम *में, पे, पर'* कहता है यहाँ  *अधिकरण* कारक,
अष्टम अन्तिम *सम्बोधन* कहता  *हे, अरे*  विकारक।।

✍️ अभिषेक रुहेला
फत्तेहपुर विश्नोई, मुरादाबाद
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 कब तक बंद रहेंगे घर में बोली नन्ही मुनिया
मन करता है देखूँ पापा बाहर की अब दुनिया।

बोले पापा बढ़े प्यार से सुन प्यारी सी मुनिया
आयेगा वो दिन जल्दी ही जब घूमेगी तू दुनिया ।

बाहर बैठा ऐसा दुश्मन  डरी है सारी दुनिया
छूने भर से लग जाता है सुन  ओ मेरी मुनिया ।

नहीं समझ में आता घर में बैठी है सारी दुनिया
बंद किया बच्चों को खुद घूम रहा सारी दुनिया।

कोई नही इलाज अभी तक खोजे सारी दुनिया
क्या समझाउँ तूझको बेटा  छोटी है तू  मुनिया।

अच्छा पापा समझ गई कितनी बेबस है ये दुनिया
ढूंढ दवा  देगी एक दिन सब को नन्ही सी मुनिया।
     
  ✍️   मंगलेश लता यादव
जिला पंचायत कम्पाउंड
कोर्ट रोड मुरादाबाद
9412840699
9045031789

मुरादाबाद की साहित्यकार पूनम गुप्ता की कविता ---- सबसे बड़ा अदृश्य युद्ध है, आओ इससे दो-दो हाथ करें


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की गजल --- हंस की रातरानी सुनो, दो दिलों की कहानी सुनो ....


मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की बाल कहानी------ जादुई दाने


चिंटू आठ साल का एक बहुत प्यारा सा
 बच्चा था। वह कक्षा दो में पढ़ता था,
 परंतु दिन भर शैतानी करना और कार्टून देखना उसे बहुत पसंद था।जब भी उसके मम्मी पापा उसे पढ़ने के लिये टोकते तो वह मुँह बनाकर एक ओर बैठ जाता था,ज्यादा ज़ोर देने पर थोड़ा बहुत बेमन से पढ़ता फिर जल्द ही टी.वी. देखने बैठ जाता था।डाँट फटकार और प्यार से समझाने पर भी उस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था।उसका ट्यूशन भी लगवा दिया पर उसकी समझ में कुछ बात न आयी थी।धीरे धीरे परीक्षाएं नजदीक आ गयीं थीं। उसकी मम्मी मीनू और उसके पापा ,सुमित को  उसकी पढ़ाई को लेकर  बहुत चिंता होने लगी थी ।तब मीनू ने  एक तरकीब निकाली।
     अगले दिन जल्दी उठकर नहा धोकर पूजा पाठ करके उसने  कुछ चीनी के दाने मंत्र पढ़कर चिंटू को  दिये और कहा,"ये खा लो चिंटू। " ये क्या है मम्मी,?" चिंटू ने पूछा।"आप मन-मन में क्या बड़बड़ा रहीं थीं अभी ?"
"ये जादुई दाने हैं,इन्हें खाकर जो बच्चा लगातार रोज एक -एक घंटा सुबह शाम पढ़ाई करता है,वह क्लास में फर्स्ट आता है।"चिंटू की मम्मी ने गम्भीर भाव से कहा।
"अच्छा, ऐसा है तो मैं अभी खा लेता हूँ और पढ़कर देखता हूँ।"चिंटू ने आश्चर्य से कहा।
"पर हाँ....इन दानों को खाने के पश्चात
पूरे एक घंटे से पहले यदि पढ़ाई छोड़ दी तो  ये दाने असर नहीं करेंगें और जितना पढ़ा होगा वो भी भूल जाओगे।"
"अरे वाहहहहहह... ये तो मैं आज ही खा लेता हूँ और फिर देखता हूँ मेरे अलावा कोई और क्लास में कैसे फर्स्ट आता है।"
चिंटू ने अकड़ते हुऐ कहा।
" हाँ  पहले नहा तो लो...ये पवित्र दाने हैं...।"मुस्कुराती हुयी मीनू  बोली।
थोड़ी देर बाद चिंटू चीनी के दाने खाकर मीनू के निर्देशानुसार पढ़ने बैठ गया।पूरे एक घंटे बाद उठा और खेलने चला गया।शाम को भी उसने यही किया।यही क्रम रोज चलने लगा।धीरे धीरे परीक्षाएं भी सम्पन्न हो गयीं थीं।
आज चिंटू का रिज़ल्ट आना था।उसकी मम्मी घर के दरवाज़े पर चिंटू की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थीं।आज चिंटू के पापा भी उसके साथ स्कूल गये थे।जैसे ही दरवाजे पर चिंटू के पापा की स्कूटी रुकी,चिंटू दौड़कर अपनी मम्मी से लिपट गया और खुशी से चहकता हुआ बोला,"मम्मी आपके चीनी के जादुई दानो ने तो कमाल ही कर दिया,देखिये मैं पूरी क्लास में फर्स्ट आया हूँ!!"
मीनू उसके सर पर प्यार से हाथ फेरती हुई अंदर घर में ले आयी और माथा चूमते हुऐ बोली, शाबाश बेटा!!बहुत अच्छे!पर बेटा ये कमाल तुम्हारी मेहनत का है चीनी के दानो का नहीं।"
"क्या मतलब?"
"मतलब यह कि तुमने रोज दो घंटा पढ़ाई की इसीलिए तुम क्लास मे फर्स्ट आये।"
"पर आपने तो कहा था कि...."
"हाँ कहा था,पर मैं तुम्हें यही बताना चाहती थी  कि बेटा...  सफलता का एक ही रास्ता है,और वह है मेहनत। वह दाने तो मैने डिब्बे से निकाल कर यों ही दे दिये थे ।तुम ऐसे दो घंटे पढ़ने को तैयार नहीं थे।"मम्मी हँसते हुऐ बोलीं।
"ओहहहहह मम्मी,!!...आप कितनी अच्छी हो ! अब से मैं रोज दो घंटे पढ़ूँगा।"चिंटू अपने हाथ में लिये रिज़ल्ट और ट्राफी की ओर देखते हुए बोला।
"अरे भई माँ बेटा बातें ही करते रहोगे क्या?आओ मुँह तो मीठा कर लो,....और हाँ चिंटू....ये मुँह मीठा चीनी के दानो से नहीं..स्पेशल लड्डुओं से होगा"कहकर चिंटू के पापा जोर से हँसे और चिंटू के मुँह में एक लड्डू रख दिया। आज चिंटू मेहनत के फल को समझ चुका था और मीनू के चीनी के जादुई दाने आज लड्डू बनकर पूरे मौहल्ले में बँट रहे थे।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी ,जनपद सम्भल ( वर्तमान में मेरठ निवासी) साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार बेदिल की गजल ----नींदे तेरी, सपने तेरे, रातें तेरी अपना क्या, लुत्फ़ हमें तो रातों रातों ,जगने में मिल जाये है।


मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की रचना -- लॉक डाउन


हल    कोरोना   का   समझ   नहीं   आता ,
मानव   पर   हावी  आतंक   का  साया  है !
एक निराशा, एक थकन, एक बेबसी सी है ,
हर  आदमी  बेचैनी  की जद  में  आया   है !!

शासन  का  आदेश  है  दूरी  बनाकर   रहो ,
फिर   क्यों  सीसा   पत्थर  से  टकराया  है ?
विषाणु  कितना  हठी  है  जानते   हैं   सब ,
फिर  क्यों  लॉक डाउन नहीं  अपनाया   है ??

हवन , प्राणायाम  को भूल  गया  था   वह ,
आज  फिर  उसी  शरण में आ समाया  है !
करबद्ध  नमस्ते  पर  हंसता  था  हर  बार ,
आज  फिर मजबूरी  में वहीं लौट आया है !!

 ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी
अफजलगढ. बिजनौर
उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की कृति ' स्पंदन ' की मनोज मनु द्वारा की गई समीक्षा --- -- "मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा से उपजा सृजन है स्पंदन ".


लाओ,
 कलम और कागज
उस पर लिखो
भूखे -नंगों की चीख...
लूट खसौट का हिसाब....
मासूम परिंदों के
नोच डाले गए पर...
मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा तक मूल्यों के अवनमन के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों, राजनीतिक मद में चूर आसीन सत्तारूढ़ सरकार के निरंकुश पन से आहत, सबल द्वारा शोषित वर्ग की मार्मिकता को अपने व्यंग्य के माध्यम से समाज को सौंपने और उसकी उदासीनता को झझकोरते हुए सजग करने वाली लेखनी के स्वामी आदरणीय अशोक विश्नोई जी अपने सामान्य व्यवहार में भी मूलतः वही धार रखने वाले एक सम्मानित एवं साहित्यिक व्यक्तित्व हैं,....
    आपके रचना कर्म के कैनवास में दूर तक जो दृश्य नजर आता है उसमें अधिकांशत सामाजिक परिवेश में पनपती अपने आसपास की तत्कालीन छोटी-छोटी किंतु असहनीय मानसिक पीड़ा दायी, विषम परिस्थितियां कुरीतियां एवं दोगलेपन को इंगित करती छींटाकशी के खिलाफ बड़े निर्भीक अंदाज में उस पर प्रहार करता प्रतीत होता है ....
    यही विलक्षणता विश्नोई जी को साहित्य के क्षेत्र में अपने समकालीन साहित्यकारों से अलग इंगित करती है....अपने रचनाकर कर्म में विश्नोई जी की पैनी नजर से कोई भी स्वयं को बचा पाने में असमर्थ रहा है... तो चाहे फिर वह शोषण का हामी नामवर सत्ताधारी हो,समाजवाद, पूंजीवाद /बाजारवाद .. या सरकार द्वारा झुनझुने स्वरूप किए गए लुभावने वादे हो.. या उसके द्वारा आंकड़ों की बाजीगरी का खेल.. या सामाजिक कुरीति झेलते रिश्ते, आदरणीय दादा ने अपने व्यंग्य के माध्यम से प्रत्येक को आईना दिखाया है....
  कुछ बानगिया दृष्टिगत हों-
  आंकड़े,
आंकड़ों से टकरा गए..
कुर्सी के
नीचे आ गए
...
....__

गांधी जी ने,
 "गांव को उठाना है"
नारा दिया,
हमारी सरकार ने
इसे कितना सार्थक किया,
अगले दिन हमने देखा..
गांव उठ चुके थे,
अब वहां मैदान शेष था!...
      वास्तव में हृदयस्पर्शी संवेदना में गोता लगाए बिना ऐसा सृजन असंभव है, आर्थिक विसंगति का मुख्य कारण, पूंजीवाद में लिप्त हो सरकार द्वारा शोषित जनता के प्रतिकार के चलते एक आम नागरिक की व्यथा को उकेरती एक सशक्त रचना..

मैं
हवाई चप्पल पहनने वाला,
एक साधारण सा आदमी
अपना कार्य
कराने हेतु
चांदी का जूता,
कहां से लाता....? ??
प्रजातंत्र के हास को पूरी मुस्तैदी के साथ व्यक्त करती एक रचना का अंश...
उठाओ
एक कोरा कागज,
उस पर लगाओ निशान
बताओ उसका हाशिया....
दर्शाओ
मासूमों की चीख पुकार,
सजाओ... खूनी धब्बों से
तब देखो
बन जाएगा प्रजातंत्र की
पुस्तक का जीता जागता
"आवरण.."
यथा समाज में व्याप्त विसंगतियों, मानवीयता के गिरते मूल्यों का मार्मिक वर्णन...
अपने ही घर की
दहलीज पर बैठी
भूख से त्रस्त बुढ़िया,
दूर खड़े कुत्ते को
ललचाई  दृष्टि से,
रोटी खाता देख रही है,..
और त्योहार पर
पाव छूती  बहुओं को
"दूधो नहाओ पूतो फलो"
का आशीष दे रही है...._
राजनीति की वास्तविक दुर्दशा पर..
सिद्ध करो
कि देश की शांति अखंडता
को भंग करने के बाद भी
तुम्हारे... चरण क्यों पखारे जाते हैं ....?...आखिर क्यों??
अन्यान्य इसी प्रकार अन्नदाता किसान की दीन दशा... रोजगार की परिस्थिति के सम्मुख हताशा लिए चेहरे... एवं प्रकृति के दोहन पर सचेत करती व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से आदरणीय श्री अशोक विश्नोई जी ने अपनी लेखनी द्वारा समाज को उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत करते रहने का जो प्रशंसनीय एवं पुनीत योगदान दिया है वह समाज एवं साहित्य के क्षेत्र में चिरकाल तक अपना विशेष स्थान बनाए रखेगा मैं ईश्वर से उनके स्वस्थ ... दीर्घायु.. एवं प्रसन्न जीवन की प्रार्थना करता हूं...
                 
** कृति :   स्पंदन (काव्य)
रचनाकार : अशोक विश्नोई, डी-12, अवंतिका                          कालोनी, मुरादाबाद -244001                            उत्तर प्रदेश, भारत
प्रकाशक :   विश्व पुस्तक प्रकाशन
                  नई दिल्ली -63
प्रथम संस्करण: 2018
मूल्य      :   150₹
समीक्षक : मनोज वर्मा 'मनु'
               C/o विद्या भवन
              निकट रामलीला मैदान, लाइनपार
              मुरादाबाद 244001
               उत्तर प्रदेश, भारत
              मोबाइल फोन नंबर  63970 93523