लाओ,
कलम और कागज
उस पर लिखो
भूखे -नंगों की चीख...
लूट खसौट का हिसाब....
मासूम परिंदों के
नोच डाले गए पर...
मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा तक मूल्यों के अवनमन के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों, राजनीतिक मद में चूर आसीन सत्तारूढ़ सरकार के निरंकुश पन से आहत, सबल द्वारा शोषित वर्ग की मार्मिकता को अपने व्यंग्य के माध्यम से समाज को सौंपने और उसकी उदासीनता को झझकोरते हुए सजग करने वाली लेखनी के स्वामी आदरणीय अशोक विश्नोई जी अपने सामान्य व्यवहार में भी मूलतः वही धार रखने वाले एक सम्मानित एवं साहित्यिक व्यक्तित्व हैं,....
आपके रचना कर्म के कैनवास में दूर तक जो दृश्य नजर आता है उसमें अधिकांशत सामाजिक परिवेश में पनपती अपने आसपास की तत्कालीन छोटी-छोटी किंतु असहनीय मानसिक पीड़ा दायी, विषम परिस्थितियां कुरीतियां एवं दोगलेपन को इंगित करती छींटाकशी के खिलाफ बड़े निर्भीक अंदाज में उस पर प्रहार करता प्रतीत होता है ....
यही विलक्षणता विश्नोई जी को साहित्य के क्षेत्र में अपने समकालीन साहित्यकारों से अलग इंगित करती है....अपने रचनाकर कर्म में विश्नोई जी की पैनी नजर से कोई भी स्वयं को बचा पाने में असमर्थ रहा है... तो चाहे फिर वह शोषण का हामी नामवर सत्ताधारी हो,समाजवाद, पूंजीवाद /बाजारवाद .. या सरकार द्वारा झुनझुने स्वरूप किए गए लुभावने वादे हो.. या उसके द्वारा आंकड़ों की बाजीगरी का खेल.. या सामाजिक कुरीति झेलते रिश्ते, आदरणीय दादा ने अपने व्यंग्य के माध्यम से प्रत्येक को आईना दिखाया है....
कुछ बानगिया दृष्टिगत हों-
आंकड़े,
आंकड़ों से टकरा गए..
कुर्सी के
नीचे आ गए
...
....__
गांधी जी ने,
"गांव को उठाना है"
नारा दिया,
हमारी सरकार ने
इसे कितना सार्थक किया,
अगले दिन हमने देखा..
गांव उठ चुके थे,
अब वहां मैदान शेष था!...
वास्तव में हृदयस्पर्शी संवेदना में गोता लगाए बिना ऐसा सृजन असंभव है, आर्थिक विसंगति का मुख्य कारण, पूंजीवाद में लिप्त हो सरकार द्वारा शोषित जनता के प्रतिकार के चलते एक आम नागरिक की व्यथा को उकेरती एक सशक्त रचना..
मैं
हवाई चप्पल पहनने वाला,
एक साधारण सा आदमी
अपना कार्य
कराने हेतु
चांदी का जूता,
कहां से लाता....? ??
प्रजातंत्र के हास को पूरी मुस्तैदी के साथ व्यक्त करती एक रचना का अंश...
उठाओ
एक कोरा कागज,
उस पर लगाओ निशान
बताओ उसका हाशिया....
दर्शाओ
मासूमों की चीख पुकार,
सजाओ... खूनी धब्बों से
तब देखो
बन जाएगा प्रजातंत्र की
पुस्तक का जीता जागता
"आवरण.."
यथा समाज में व्याप्त विसंगतियों, मानवीयता के गिरते मूल्यों का मार्मिक वर्णन...
अपने ही घर की
दहलीज पर बैठी
भूख से त्रस्त बुढ़िया,
दूर खड़े कुत्ते को
ललचाई दृष्टि से,
रोटी खाता देख रही है,..
और त्योहार पर
पाव छूती बहुओं को
"दूधो नहाओ पूतो फलो"
का आशीष दे रही है...._
राजनीति की वास्तविक दुर्दशा पर..
सिद्ध करो
कि देश की शांति अखंडता
को भंग करने के बाद भी
तुम्हारे... चरण क्यों पखारे जाते हैं ....?...आखिर क्यों??
अन्यान्य इसी प्रकार अन्नदाता किसान की दीन दशा... रोजगार की परिस्थिति के सम्मुख हताशा लिए चेहरे... एवं प्रकृति के दोहन पर सचेत करती व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से आदरणीय श्री अशोक विश्नोई जी ने अपनी लेखनी द्वारा समाज को उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत करते रहने का जो प्रशंसनीय एवं पुनीत योगदान दिया है वह समाज एवं साहित्य के क्षेत्र में चिरकाल तक अपना विशेष स्थान बनाए रखेगा मैं ईश्वर से उनके स्वस्थ ... दीर्घायु.. एवं प्रसन्न जीवन की प्रार्थना करता हूं...
** कृति : स्पंदन (काव्य)
रचनाकार : अशोक विश्नोई, डी-12, अवंतिका कालोनी, मुरादाबाद -244001 उत्तर प्रदेश, भारत
प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशन
नई दिल्ली -63
प्रथम संस्करण: 2018
मूल्य : 150₹
समीक्षक : मनोज वर्मा 'मनु'
C/o विद्या भवन
निकट रामलीला मैदान, लाइनपार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 63970 93523
बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएं