दयानन्द गुप्त जी मुरादाबाद के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ अधिवक्ता थे। सन 1943 में प्रकाशित उनके काव्य संकलन "नैवेद्य" को पढ़ कर आश्चर्य होता है कि एक भावी अधिवक्ता की हिन्दी साहित्य में कितनी गहरी पैठ थी। 1943 के आसपास का समय वह समय था, जब हिन्दी साहित्य में छायावाद के तिरोभाव के पश्चात, प्रगतिवाद जन्म ले चुका था। यद्यपि श्री गुप्त जी ने स्वयं "नैवेद्य" के भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि "मुझे आप 'छायावादी' या 'प्रगतिवादी' कवियों की श्रेणी में बिठलाने की अनधिकार चेष्टा न करें " , परंतु फिर भी उक्त काव्य संग्रह में कवि की भाव, अनुभूति, भाषा, अभिव्यक्ति में छायावाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। नैवेद्य काव्य संग्रह में 52 गीतों/ कविताओं का संकलन है, जो खड़ी बोली व गेय शैली में लिखे गए हैं।परम्परागत अलंकारों के साथ ही पाश्चात्य अलंकारों, मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यर्थ व्यंजना का भी प्रयोग देखने को मिलता है।भाषा में लाक्षणिकता और कोमलकान्त पदावली का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।
गुप्त जी छायावादी कवियोँ की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है-
तुम क्या जानो प्रिय तुम क्या हो ?
सुषमा की भी प्रिय उपमा हो ।
कितनी भावतिरेकित करने वाली पंक्तियाँ हैं, देखिये-
प्रिय को क्या न दिया, हृदय ओ ।
प्रिय को क्या न दिया ?
उर सिंहासन पर आसन दे
फिर दृग जल अभिषेक किया ।
ये पंक्तियां अनायास ही राज्याभिषेक का दृश्य मूर्त कर देती हैं। कवि ने अपने हृदय सिंहासन पर अपनी प्रियतमा को आसीन कर दृग जल से उसका अभिषेक किया है, अब वही उसके हृदय की मल्लिका है।
छयावादी कवियों की प्रणय कथा असफलता में पर्यवसित होती है, अतः उनके विरह में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का हृदय विदारक चित्रण मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं में भी प्रेम का चित्रण मानसिक स्तर पर होने के कारण मिलन की अनुभूतियों की अपेक्षा विरहानुभूति का व्यापक चित्रण मिलता है।
“ विरहगान”, “मिलन”, “प्रेयसी से”, “प्रश्न” जैसी रचनाओं में विरह की इसी प्रकार की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गई है-
विरह करता झुलस मरु सा
प्राण की निर्जीव निधियाँ,
मिलन भर देती उन्हीं में
स्रोत सुखमय सुरँग सुधियाँ
× × × × × × × × × × ×
प्रीति यहाँ सखि फूस तापना
क्षण में लगी, बुझी क्षण में फिर।
विरह की अग्नि मरु भूमि की तरह झुलसा देती है, तो मिलन जीवन को खुशियों से सतरंगी बना देता है, फूस का स्वभाव ही है क्षण भर में आग पकड़ना और तुरंत ही बुझ जाना ।
कुछ क्षण का संयोग शाप है,
लगता विरह समान खटकने,
किस तरंग ने हमें मिला कर
छोड़ उदधि में दिया भटकने।
क्षणिक संयोग के फलस्वरूप विरह के समुद्र में असहाय भटकना कितना मर्मान्तक होता है । जैसे प्यासे को दिया गया एक घूँट पानी उसकी प्यास और बढ़ा देता है, उसी प्रकार क्षण भर का मिलन विहाग्नि और अधिक उद्दीप्त कर देता है।
हे प्रिय,
यौवन के कितने मर्मों को
छल विनोद में समझाती तू।
तप पर वर देने वाली सी
आती तू, फिर छिप जाती तू ।
प्रेमी का प्रेम एक तपस्या से कमतर नहीं है, जैसे किसी तपस्वी के तप से प्रसन्न हो उसका आराध्य उसे वर दे कर विलुप्त हो जाता है और साधक अपने आराध्य की स्मृति में व्यथित होता है, वैसे ही हे प्रिय तुम भी यौवन की उद्दात भावनाओं को जागृत कर विलुप्त हो जाती हो।
एक और प्रयोग देखिये-
बाँधो , भागा जाता यौवन।
समय, जरा का देख आगमन।
कब तक रुके ऋणी का वैभव
ब्याज सहित होगा चुकता सब
मानो यौवन ऋण है, जिसे ब्याज सहित चुकाते चुकाते व्यक्ति बुढ़ापे के द्वार तक पहुँच जाता है।
इस काव्य संग्रह में प्रकृति की भी अद्भुत छटाएँ देखने को मिलती हैं। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान।
छायावादी कवियों की ही भाँति गुप्त जी भी प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं। प्रकृति पर नारी चेतना का आरोप करते हुए गुप्त जी ने रात्रि व्यतीत होने व उषा के आगमन इस प्रकार चित्रण किया है-
उन्मुक्त गगन के चरण तले
अर्चन कर पल्लव पुष्प चढ़ा,
लुक छिप तुहीनों की लघुता में
निशि चली, आरती दीप बढ़ा,
घबरा डगमग पग बसन हिले।
बाजे नूपुर रुन रणन कणन,
संकुचित तन स्वेदित शरम शिथिल,
छूटी चंगेरी कुसुमों की
दोलित उरोज, द्रुत श्वास अनिल,
सौरभ के संयत खुले केश।
उपरोक्त छंद में “बाजे नूपुर रुन रणन कणन” अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण विशेष सौंदर्य लिए हुए है।
उन्मुक्त गगन में चारों ओर सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश प्रकृति को सराबोर कर रहा है। रात्रि में गिरी ओस की बूँदेँ उगते सूर्य के ललिमा युक्त किरणों का स्पर्श पाकर जैसे हिमकण में परिवर्तित हो चमकने लगती हैं।उषा रूपी नायिका नया सवेरा नई आशायें ले कर आती है।
नभ का कवि कल कण्ठ खुला,
कहती दिशि दिशि गा कोकिला,
उठ, उर उर की प्रिय कमला,
देखी प्राची ने लिया पहन,
तुङ्ग शुभ्र शारद शिखरों पर,
किरणों का कंचन हार निकर।
अम्बर के सीमान्त देश में,
शुभ सुहाग की रेखा सी,
मृदुल कपोलों पर लज्जा के
शत शत चुम्बन लेखा सी
× × × × × × × × × ×
सजनि! सुषुप्त विश्व के मुख ओर
अंकित कर तुहिनिल चुम्बन,
छिटकाती त्रिभुवन-अंचल में
हिमकन सी निज शुचि छविकन।
× × × × × × × × × ×
ऐ प्रभात सन्ध्ये! नव आशे!
उस अनन्त की छाया सी,
मौन सिन्धु के नील अंक में
सांध्य सुनहरी माया सी ।
शिशिर ऋतु की प्रातः में उदित सूर्य की हल्की गर्माहट लिए भीनी भीनी स्वर्णिम किरणें मानों प्रकृति को पीले रेशमी वस्त्र से आवृत कर देती हैं , देखिये--
अयि रस रंगिणि! शिशिर प्रात में
डाल घना मानिक , घूँघट,
रंगरलियाँ करती, निदाघ में
पहन रेशमी पीला पट।
सन्ध्या हो चुकी है, रात्रि का अवतरण हो रहा है, सन्ध्या की ललिमा मानों रात्रि रूपी नायिका की मेहँदी है और धीरे धीरे घिरने वाला अंधकार उसकी नीली साड़ी है, सुन्दर चित्रण--
प्राची में मन्द मन्द चुप चुप
घन नील आवरण रजनी,
लख सन्ध्या तन नूतन मेहँदी
बौरी सी उठी अनमनी।
× × × × × × × × ×
हंसता आया नव वयस इन्दु
मानिनी यामिनी विमना
नमित नयन, अखिली कलिका
निश्छल छवि सी मौन मना ।
वर्षा ऋतु की काली मेघमयी रात्रि , मानों वर्षा रूपी नायिका अपने काले मेघ रूपी सर्पों जैसे केशों को खोल कर अभिसार कर रही हो और वे विषधर सर्प इस ऋतु में यदा कदा दिखने वाले सुधामय चन्द्र से सुधा का पान करने हेतु अग्रसर हों ---
व्योम छाए मेघ काले
यामिनी ने खोल कुन्तल
आज विषधर नाग पाले
कर रहे शशि पात्र से पय सुधा का सुख पान ।
शरद ऋतु सबसे सुहानी ऋतु होती है। वर्षा ऋतु के चार मास बीत जाने पर सारी प्रकृति साफ सुथरी दिखती है, धूल कहीं दिखाई नहीं देती, चारों ओर पुष्प खिल उठते हैं। शरद ऋतु की रात्रि भी सुहानी हो उठती है, चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से युक्त हो कर पृथ्वी पर श्वेत चाँदनी बिखेरने लगता है। उस दुग्ध धवल शारदीय रात्रि का चित्रण गुप्त जी ने निम्न प्रकार से किया है --
उग उठे शत श्वेत सरसिज,
हँसी राका शारदीया,
अंग उपजा रजत मनसिज,
दुग्ध की सित सीप से निशि आज धोइ जान ।
उषाकाल व रात्रिकाल के अतिरिक्त कुछ ऋतुओं का वर्णन भी गुप्त जी ने किया है। ग्रीष्म के लम्बे, लू से तपते दिन, धरती पर अंगारे बरसते हैं और पृथ्वी के जीवन - रस जल को सोख लेते है--
तपते धूमिल भू, दीर्घ दिवस,
लेते लपेट लू केश-विवश,
सूखी काया औ जीवन रस
जल उठा वर्ष का विगत विभव
कर जेठ चिता पर हा हा रव,
नभ में अंगार ज्वार धाये।
ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है, नभ जो ग्रीष्म में अंगारे बरसा रहा था, पूरी धरती को जलमय कर देता है, चारों ओर हरियाली छा जाती है, ऐसा लगता है, जैसे वर्षा रूपी नायिका हरित पताका ले कर भ्रमण पर निकली हो। ऐसी पावस ऋतु का मनोहारी दृश्य देखिये-
वायु उपद्रव आज रच रहा,
बिछी सजल रपटन मग री
हरित केतु ले चली रूपसी,
फिसल न जाये कहीं पग री,
अनिल प्रकम्पित तन थर थर।
पावस पुलकित गात न कर।
मृत्यु सृष्टि का चिरन्तन सत्य है, इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन मृत्यु के आगोश में सोना ही पड़ता है, मृत्यु बिना किसी भेदभाव के सभी को अपने अंतर में समेट ही लेती है, इसी भाव को गुप्त जी ने “मृत्यु के प्रति” कविता में व्यक्त किया है-
इसके सम्मुख सबकी समता,
हो निर्धनता या हो प्रभुता
योगी, भोगी, सबसे ममता।
× × × × × × × × × ×
शत द्वार द्वार पर पा कर भी
भरती न कभी इसकी झोली,
कैसी भिक्षुका हठीली यह
टलती न कभी इसकी टोली।
जीवन के कुछ अन्य चिरंतन सत्यों को भी इस काव्य संग्रह में स्थान मिला है। एक विधवा के एकाकी व शापित जीवन का हृदयविदारक चित्रण “विधवा के प्रति” कविता में मिलता है-
सुख का प्रकरण परित्यक्त हुआ,
दुख परिधि बढ़ी, परलोक बसा,
उजड़ी नगरी उर की सुन्दर,
पतझर चिर घेरा डाल हंसा ।
× × × × × × × × × × ×
एकाकी जीवन, बिन सम्बल,
यात्रा सुदुर, पर घाट नहीं,
पतवार नहीं, रखवार नहीं,
नभ का तारक आधार नहीं।
माँ का स्थान हम सभी के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व रखता है, माँ प्रेम का स्रोत है, माँ प्रथम गुरु है, माँ संतान को संस्कारित करती है आदि आदि। इन्हीं सब भावनाओं को गुप्त जी ने भी अपनी रचना “माँ के प्रति” में व्यक्त किया है-
माँ शुभे स्नेह की आदि स्रोत
अविरल अस्वार्थ, निर्मल अजस्त्र,
आदर्श भावना भाव भूति
कल्याण मूर्ति, वरदान हर्ष।
माँ श्रेष्ठ प्रथम गुरु शिशु जग की
नव प्रकृति प्रगतियों की धात्री।
शिशु मन की चेतन रचना के
चित्रों के रंगों की दात्री।
गुप्त जी अपनी मातृभाषा हिन्दी का बहुत सम्मान करते थे। यद्यपि वे अंग्रेजी के भी प्रकांड पण्डित थे, परन्तु हिन्दी का उनके जीवन में विशिष्ट स्थान था, उनकी साहित्यिक रचनाएँ, काव्य व कहानी, इस तथ्य का प्रमाण हैं। गुप्त जी के छयावादी मूर्धन्य कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से गहरे सम्बन्ध थे।गुप्त जी के कहानी-संग्रह “मंजिल” की भूमिका निराला जी ने ही लिखी थी। उन्होंने लिखा-
“दयानन्द जी गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद हैं, आज के सुपरिचित कवि और कहानी लेखक; मुझ से मिले थे, तब कवि और कलाकार के बीज में थे। …….बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है। वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है।”
निराला जी के पत्र व चित्र आज भी गुप्त जी के सुपुत्र श्री उमाकान्त गुप्त जी के पास संरक्षित हैं। उसी माँ भारती के प्रति अपने उद्गार गुप्त जी ने इस प्रकार प्रकट किए हैं-
गीतों के मुक्ता बिखरा कर
माँ अंचल तेरा मैं भर दूँ
जीवन के मंजुल प्रभात में।
कर्ण -विवर में मद निर्झर भर,
माँ ओतप्रोत तुम को कर दूँ,
स्वर लहरी के मधु -प्रपात में
गुप्त जी के समय में संदेशों के आदान-प्रदान के लिए प्रचुर संख्या में टेलीफोन व मोबाइल तो थे नहीं, पत्र व्यवहार ही वन साधन था, जिसके माध्यम से अपनों की कुशल- क्षेम ज्ञात हो पाती थी। प्रेम- संदेश भेजने व प्राप्त करने का भी एकमात्र साधन डाकिया ही था। डाकिये की सभी को प्रतीक्षा रहती थी और डाकिया भी पूरी ईमानदारी से सभी के पत्रों को उन तक पहुंचाता था। गुप्त जी की दृष्टि भी तत्कालीन समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण किरदार पर पड़ी और उन्होंने उस पर भी एक कविता की रचना कर दी। प्रगतिवाद के प्रभाव को रेखांकित करती गुप्त जी की यह रचना है “डाकिया”, जिसमें उन्होंने डाकिये का जैसे शब्द-चित्र ही उकेर दिया है, साथ ही भाव- व्यंजना भी अद्वितीय है-
कितने उर के उद्गार लिए,
कितने रहस्य आभार लिए,
सन्देशों के ऐ नित वाहक!
तुम मेघदूत का कार्य किये!
× × × × × × × × × ×
सुरमई आँख, खाकी वर्दी,
आँखों पर लगी एक ऐनक,
हो कलम कान पर रखे हुए,
चमड़े का थैला लटकाये
घुटनों तक तुम पट्टी बाँधे,
पहने रहते देशी जूता,
भय से न तुम्हें छेड़े कोई,
लख उड़ जावे साहस बूता ।
गुप्त जी ने अपने यौवनकाल में जिस प्रकार के जीवन की कामना की थी, ईश्वर ने उनकी “विनय” सुन कर उन्हें उसी प्रकार का जीवन प्रदान किया । आज भी वे यश रूपी शरीर से हम सब के बीच जीवित हैं और उनके आत्मीयजन आज भी उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से स्मरण करते हैं-
प्रभु हो मेरा ऐसा जीवन।
रोता आया मैं इस जग में
हर्षित हँसते थे प्रियवर,
हँसता जाऊँ इस जीवन से
रोवे स्नेह अधीर जगत भर,
रहूँ विश्व की स्मृति में पावन।
कृति : नैवेद्य (काव्य)
प्रकाशक : प्राविंशियल बुक डिपो, चौक, इलाहाबाद
प्रथम संस्करण : वर्ष 1943
समीक्षक : डॉ. स्वीटी तलवाड़, पूर्व प्राचार्या, दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत