सोमवार, 20 मई 2024

मुरादाबाद की संस्था कला भारती की ओर से आयोजित काव्य गोष्ठी में रविवार 19 मई 2024 को वरिष्ठ गीतकार वीरेन्द्र 'ब्रजवासी' को कलाश्री सम्मान

 



महानगर मुरादाबाद के वरिष्ठ गीतकार वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी' को उनकी साहित्यिक साधना के लिए कला भारती साहित्य समागम, मुरादाबाद की ओर से रविवार 19 मई 2024 को आयोजित समारोह में कलाश्री सम्मान से अलंकृत किया गया। उपरोक्त सामान-समारोह एवं काव्य-गोष्ठी का आयोजन मिलन विहार स्थित आकांक्षा इंटर कॉलेज में हुआ। राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता बाबा संजीव आकांक्षी ने की। मुख्य अतिथि डॉ. प्रेमवती उपाध्याय एवं विशिष्ट अतिथियों के रूप में डॉ. बृजपाल सिंह यादव एवं रामदत्त द्विवेदी मंचासीन हुए। कार्यक्रम का संचालन आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने किया। 

    सम्मान स्वरूप वीरेन्द्र 'ब्रजवासी' को अंग-वस्त्र, मानपत्र एवं प्रतीक चिह्न अर्पित किए गए। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित आलेख का वाचन राजीव प्रखर एवं अर्पित मान-पत्र का वाचन योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा किया गया। 

      सम्मानित साहित्यकार वीरेन्द्र 'ब्रजवासी' की साहित्यिक यात्रा पर अपने विचार रखते हुए कार्यक्रम अध्यक्ष बाबा संजीव आकांक्षी ने कहा - "श्री ब्रजवासी सामाजिक जीवन से जुड़े हुए एक ऐसे संवेदनशील रचनाकार हैं जिनकी रचनाएं काव्य से जुड़े प्रत्येक  पाठक अथवा श्रोता के हृदय को गहराई तक स्पर्श कर जाती हैं।" 

 श्री ब्रजवासी की रचनाधर्मिता पर विशिष्ट अतिथि डाॅ. प्रेमवती उपाध्याय का कहना था - "अपनी पावन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से जुड़े रहकर, समाज के प्रत्येक वर्ग तक अपनी गहरी पैठ बनाना श्री ब्रजवासी जी के रचनाकर्म की विशेषता रही है।" 

विशिष्ट अतिथि डॉ. बृजपाल सिंह यादव ने कहा - "उनका रचनाकर्म जहाॅं एक ओर ब्रज की महान परम्परा के दर्शन कराता है वहीं दैनिक जीवन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी उनकी पैनी दृष्टि रहती है। वह समस्याओं की बात ही नहीं करते अपितु उनके यथासंभव हल भी प्रस्तुत करते हैं।"            उपरोक्त सम्मान समारोह में वीरेन्द्र 'ब्रजवासी' के सम्मान में एक काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन हुआ। काव्य-पाठ करते हुए सम्मानित साहित्यकार वीरेन्द्र ब्रजवासी ने कहा - 

माॅं का दिल कितना होता है, 

चिड़िया के जितना होता है। 

खुशियों में जितना खुश होता, 

दुख में उतना ही रोता है। 

भूख-प्यास को माॅं बच्चे की, 

किलकारी से पढ़ लेती है। 

ऑंचल से ढक कर बच्चे का, 

उदर दूध से भर देती है। 

काला टीका लगा नज़र की, 

चिंता से डरना होता है।"

 इसके अतिरिक्त अन्य उपस्थित रचनाकारों दुष्यंत बाबा, राजीव प्रखर, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, योगेन्द्र वर्मा व्योम, डॉ. मनोज रस्तोगी, मनोज मनु, ओंकार सिंह ओंकार, नकुल त्यागी, योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई, रमेश गुप्त, अभिनव चौहान, रामदत्त द्विवेदी, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, बाबा संजीव आकांक्षी, रघुराज सिंह निश्चल आदि ने भी विभिन्न सामाजिक मुद्दों को अपनी-अपनी  रचनाओं के माध्यम से उठाया। मनोज मनु द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।









































मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अंकन नवोदित साहित्यकार मंच की ओर से 19 मई 2024 को साहित्यकार कृष्णदयाल शर्मा का सम्मान


मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अंकन नवोदित साहित्यकार मंच के बैनर तले रविवार 19 मई 2024 को प्रताप सिंह हिन्दू गर्ल्स इंटर कॉलेज की प्रधानाचार्य सीमा शर्मा के लाजपतनगर स्थित आवास पर आयोजित कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण दयाल शर्मा को सम्मानित किया गया।

  कार्यक्रम की अध्यक्षता रानी शर्मा ने की।  वरिष्ठ बाल साहित्यकार राकेश चक्र विशिष्ट अतिथि रहे  तथा डॉ. सीमा शर्मा, डॉ प्रीति हुँकार, इन्दु रानी  और शुभम कश्यप अतिथि मंडल में रहे। कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्ज्वलन के बाद शुभम कश्यप द्वारा प्रस्तुत मां सरस्वती वंदना से हुआ।कार्यक्रम का संचालन राजीव प्रखर ने किया । इस अवसर पर सभी ने काव्य पाठ भी किया । 

रविवार, 12 मई 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का गीत ... कल सपने में आई अम्मा .


 

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' ने मातृ-दिवस की पूर्व संध्या पर 11 मई 2024 को आयोजित की काव्य-गोष्ठी

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से मातृ-दिवस की पूर्व संध्या पर 11 मई  2024 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन स्वतंत्रता सेनानी भवन पर हुआ। 

कवयित्री आकृति सिन्हा द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए रामदत्त द्विवेदी ने कहा .... 

माॅं ! तुम हो आंगन की तुलसी, 

सबके मन को हर्षाती हो। 

मुख्य अतिथि धवल दीक्षित ने कहा मां पर प्रस्तुत सभी रचनाओं की प्रस्तुति उत्कृष्ट रही।

  विशिष्ट अतिथि डॉ. पूनम बंसल के अनुसार - 

जीवन के तपते मरुथल में मां गंगा की धार है। 

अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर मां गीता का सार है। 

उसकी खुशबू हर  कोने में मां घर का श्रृंगार है।।

विशिष्ट अतिथि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा - 

लगता है तुम यहीं कहीं हो, छिपी हमारे पास।

 यदा कदा होता रहता है, माँ तेरा अहसास। 

 विशिष्ट अतिथि फक्कड़ 'मुरादाबादी' की अभिव्यक्ति थी - 

ममता ने आंचल फैलाया, 

दामन ने जग से दुबकाया। 

उठी लहर दर्द की जब भी, 

उसका चेहरा सामने आया।  

कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर ने अपनी पंक्तियों से सभी को भाव विभोर करते हुए कहा - 

क्या तीरथ की कामना, कैसी धन की आस। 

जब बैठी हो प्रेम से, अम्मा मेरे पास।। 

चीं-चीं करके भोर में, चिड़िया रही पुकार। 

अम्मा से कुछ कम नहीं, यह सुन्दर क़िरदार।। 

    वरिष्ठ कवि वीरेन्द्र बृजवासी ने कहा -

 मुझपे तुमपे या सारी दुनियाँ पे 

मां  भरोसा  कभी  नहीं  करती, 

तीर, तलवार   हों  या  संगीनें,

इनसे  तो माँ  कभी  नहीं डरती।

 सरिता लाल के भाव थे - 

जीवन के कुछ अधखुले पन्ने, जो एकाएक खुल जाते है़ं।

 उसके कुछ अनछुए आयाम, जो उसके पहलू से लिपट जाते हैं।

 डॉ. मनोज रस्तोगी के अनुसार - 

जीवन में पग-पग पर याद आती है माॅं।

 मन के आंगन को महका जाती है माॅं। 

योगेन्द्र वर्मा व्योम की इन पंक्तियों ने भी सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श किया - 

माँ का होना, मतलब दुनिया भर का होना है। 

तकलीफें सहकर भी सारे फर्ज निभाती है। 

उफ तक करती नहीं हमेशा ही मुस्काती है। 

उसका मकसद घर-आँगन में खुशबू बोना है।

 प्रो. ममता सिंह की अभिव्यक्ति थी - 

मेरी प्यारी मांँ ने मुझको 

जीवन का उपहार दिया। 

जाग जाग कर रात रात भर ,

ममता और दुलार दिया ।। 

विवेक निर्मल ने कहा - 

हो गया बूढ़ा मगर अब भी दुलारती है 

ओ लला कह कर मुझे अब भी पुकारती है।

 सुप्रसिद्ध शायर डॉ. मुजाहिद फ़राज़ का कहना था -

 ख़ुद भी आग़ोश में बचपन की वो जाती होंगी, 

माएँ जब लोरियां बच्चों को सुनाती होंगी। 

महबूब हो , बीवी हो,बहन हो कि हो बेटी, 

माँ जैसा मुहब्बत का समंदर नही देखा। 

 शायर ज़िया ज़मीर ने अपनी इस प्रस्तुति से सभी को भाव विभोर कर दिया -

 बांधना घर को इक धागे में कितना भारी है।

 इसमें तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी ही हुशियारी है। 

तुमको है मालूम पिरोना कैसा होता है, 

मां हो तुम और मां होना ऐसा होता है। 

कवि राशिद हुसैन के अनुसार -

 माॅं के आंचल की जब हम दुआ हो गए। 

सर बुलंदी से हम आशना हो गए। 

जब कभी माॅं की गोदी में सर रख दिया,

 गम मुकद्दर से अपने हवा हो गए। 

 रचना पाठ करते हुए कमल शर्मा ने कहा -

बचपन में रोते बच्चे पर आंचल सी बन जाती माॅं। 

सीने से हरदम चिपकाए, कितने लाड़ लड़ाती माॅं। 

कवयित्री आकृति सिन्हा के भाव इस प्रकार थे - 

जिसने जीवन दिया मुझे 

जो दुनियां में लायी मुझे। 

जिसकी दुआ से मिला सबकुछ मुझे‌, 

उस मातृ शक्ति को प्रणाम मेरा दे आशीर्वाद मुझे। 

कवि अमर सक्सेना के भाव थे - 

तिरंगे में लिपटा आऊंगा मैं, 

वीर बहादुर कहलाऊंगा मैं, 

वतन से मुहब्बत है मुझे, 

वतन के लिए मर जाऊंगा मैं 

योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा। 





































बुधवार, 8 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित डॉ राहुल अवस्थी का संस्मरणात्मक आलेख..... एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता था!

दादू नहीं रहे। दादू मतलब माहेश्वर तिवारी। आत्मीयता के अमलतास, हार्दिकता के हरसिंगार और नवगीतों के गुलमोहर। मिलते तो मिल कर रह जाते। अपनी-अपनी राह लेते तो उनका व्यवहार साथ-साथ सफ़र करता। ऐसा लगता कि उनके उत्ताल अट्टहासों का वेताल आपको विक्रमादित्य बना रहा है। कितने ही आयोजनों में हम सहभागी हुए। वे समकालीन साहित्य की सबसे वरिष्ठ 'साहित्यिक पीढ़ी' के प्रतिनिधि थे और मैं सबसे कनिष्ठ पीढ़ी से, परन्तु उनका व्यवहार आपको अहसासे कमतरी का शिकार होने से सुरक्षित रखता था जबकि कितने ही कंकड़ों को स्वयं को सुमेरु साबित करने में हर समय और हर तरह लगे पायेंगे। कबाड़ियों के स्वयंभूय युगावतार घोषित होने के युग में वे सहज श्रद्धास्पद, सुखद संयोग और सरल स्वर थे। साहित्य में सहज रुचि और कवि सम्मेलनों में रहते हुए इतना जाना कि उनके जैसे स्वरों का बना रहना ज़रूरी है अन्यथा एक दिन स्टेज के टोटकों, टुच्चे टाइप चुटकुलों और दमित इच्छाकुओं के ठनठनाते ठुमकों को ही हम एक दिन कविता मान बैठेंगे। छान्दस् विरोधी लॉबी में खड़े होकर भी उनका अछान्दस् की अपेक्षा छान्दस् बने रहना एक अलग ही नॉस्टैल्जिक अनुभव है। उनके बारे में थोड़ा-बहुत जानता तो पहले ही से था पूज्य गुरुदेव प्रोफ़ेसर भगवानशरण भारद्वाज के माध्यम से, किन्तु भेंट हुई पीजी की ज़रूरी पढ़ाई पूरी कर लेने के पश्चात। 

     पहली बार सितम्बर २००५ में उन्हें रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में मिला, देखा, सुना और सुनते ही वे याद हो गये – 

मेरे भीतर एक अभङ्ग जगाता है कोई 

बतियाता है हल्के सुर में  

उठती जैसे ध्वनि नूपुर में  

अङ्ग-अङ्ग में बैठा जैसे गाता है कोई  

अब नादों का घर हूँ केवल  

लगता स्वर ही स्वर हूँ केवल 

स्वर के कपड़े लाकर मुझे पिन्हाता है कोई। 

तक़रीबन इतना और ऐसा ही रचते थे वे। सुनाने की स्टाइल उनकी कभी न बदली। जैसा और जितना मैंने जाना। सारी बह्रें, सारी रचनाएँ वे एक ही तरह, एक ही धुन, एक ही अदा में गा लेते थे। उनका वाचन और गायन लगभग एक जैसा था। कथित क्रान्तिकारियों की जमात में इतना अहिंस्र और ऐसा सेक्यूलर सर्जक शायद ही कोई हुआ हो। लिखते तो इतना नपा-तुला कि तुला को तोलना-टटोलना पड़ता। स्वच्छन्दतावादियों के बीच वे एक चैलेञ्ज थे। उनका व्यक्तिगत व्यवहार भी छान्दस था। यह मैं अब भी कह रहा हूँ और तब भी कह सकता था, जब मैं पहली बार उनसे मिला था। तब मैं अपने शोधकार्य के सिलसिले में कविसम्मेलन देखना चाहता था क्योंकि जो सिनॉप्सिस राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा के सम्बन्ध में मैंने अभ्यर्पण हेतु तैयार की थी, उसमें एक अध्याय था ही यही – मञ्च और हिन्दी सिनेमा। रामपुर भी इसीलिये गया था डॉ. ब्रजेन्द्र अवस्थी के साथ। 

   २००८-०९ की बात होगी। हमारे विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम समिति की प्रमुख थीं मञ्जरीजी – डॉ. मञ्जरी त्रिपाठी। बात आयी तो मैंने तमाम विधाओं के साथ नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल की बात रखी। शास्त्रीय चाल के कुछ पुराने लोगों में ऐसी विधाओं के प्रति प्रतीति तब तक क्या, अब तक भी कम ही है और फिर उनके सामने कल का छोकरा था, पर मेरे नैष्ठिक और तार्किक अनुरोध को उन्होंने समझा। उन्होंने कहा – कैसे होगा सामग्री का काम, तो मैंने कहा कि रुहेलखण्ड में ही ऐसे लोगों की कमी नहीं और इस तरह नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल के लिये रुहेलखण्ड एक तरह पैरामीटर हो गया और उस समय जिन चार लोगों की रचनाएँ तुरन्त हाथ से लिखकर पेश कीं, वे नाम थे – डॉ.माहेश्वर तिवारी, डॉ. कुँअर बेचैन, दुष्यन्त कुमार और उर्मिलेश। "मेरे भीतर एक अभङ्ग जगाता है कोई" रचना चयन हेतु प्रस्तुत उन रचनाओं में से एक थी। बाद में पाठ्यक्रम जब राजकमल से छप कर आया तो उनमें किसी की कृपा से नीरजजी का नाम भी था। यद्यपि पैरामीटर रुहेलखण्ड का तय था। एनईपी २०२० के पाठ्यक्रम प्रस्ताव में भी माहेश्वरजी का नाम था, जैसा मेरे संज्ञान में है। बाद में वह हुआ, नहीं हुआ, नहीं पता!

    संस्मरणों के ज़खीरे थे वे – कभी भवानी दादा से शुरू होते तो कभी धर्मवीर भारती से, पर वे प्रायः असमाप्त होते थे। उनके समाहार का समय कभी न आया। अवाक् कर देने वाले और स्वयमेव बोल उठने वाले कितने ही अनसुने, अप्रत्याशित और अनसेंसर्ड संस्मरण उनसे सुनकर लिपिबद्ध किये जा सकते थे पर ईश्वर ने उतना और वैसा अवसर ही न दिया। हम अक्सर आकाशवाणी रामपुर में मिलते और तक़रीबन हर बार वही सीन क्रिएट होता – वे प्रोग्राम हेड या डायरेक्टर की टेबल के सामने संस्मरणों के आख्यान में समाधिस्थ होते और सब रह-रह कर हहा रहे होते। बीच-बीच में आने-जाने वाले लोग भी मौक़ा ए वारदात का रसाभास करते। उनका वारिष्ठ्य और उनका अपनत्व उन्हें अतिथिकक्ष से ऊपर उठा चुका था। उनके साथ आण्टी आतीं तो पूरी-पराठों के साथ चार तरह के अचार के चटखारे भी सभी में लगते। किसी गोपनीय कार्य के सिलसिले में हम एक समय जल्दी-जल्दी और कई-कई दिन साथ रहे। मैं उनसे दस तरह चुहलता या उनके अति मनभाये में से कुछ नॉटी टाइप पूछता तो आण्टी से कहते – तुम्हारा ये लड़का बड़ी रोचक दुष्टता करता है और फिर ख़ुद सब सुनाने लगते। आण्टी कहतीं कि कौन कम हो आप ही! तो टच्च से  साइड ले कर उँगलियों में चिरपिराती पुड़िया से मसाला मुँह में डालने लगते। वार्तालाप में सामने वाले के बोलते वक़्त उनका टपकता निरीह कौतूहल भाँपने का विषय था। ख़ुद बोलते तो इतना सौम्य और सादा कि कोई अनुमान न पाये कि कब उनका ठहाका उनके कहे का राज़फ़ाश करने वाला है। 

    जानबूझकर ख़ूब लड़कपन करता था उनसे। बड़ा रस आता था। बड़ों के सामने स्वयं को बच्चा बनाये रखना चाहिए। वे होते तो मञ्च चलाते और आनन्द आता था। पहले झिझकता था थोड़ा पर फिर खुलता चला गया और वे भी इसलिये तैयार रहते थे कि अब बिखेरेगा ये रायता। हिन्दी ग़ज़ल वाले मनोजजी आर्य के कई कार्यक्रमों की ऐसी स्मृति है। ऐसे लोग संयोजन में उनकी प्राथमिकता रहते थे। वे ऐसे नहीं रहे, जिसमें केवल लिक्खाड़ों को ही मुख्यधारा का माना जाता है। उनका महत्त्व दोनों जगह रहा। दादू मञ्च पर होते तो नये रँगरूट की तरह सबमें रमते। पन्तजी जैसे केश और पैण्ट कुर्ते के साथ राजेश खन्ना वाले वेश में वे जब पानमसाला से शोभित अपने असमय पोपले मुख से मुस्कुराते या ठहाके लगाते तो वात्सल्य लुटाते लगते। अक्तूबर या नवम्बर २०१२ में जब रामपुर में आकाशवाणी के आमन्त्रित श्रोताओं के समक्ष आयोजन में किशन सरोजजी से न जाने किस झोंक में कुछ अशोभन-असहज हो गया और उनका निशाना सञ्चालक के नाते मैं बना, तब  मेरी कसमसाती उग्रता और मनःस्थिति लखकर कितनी तरह और कई दिनों तक उन्होंने जितना समझाया, उससे उनके अभिभावकीय व्यक्तित्त्व की अनुभूति आज तक ऐसे अवसरों पर उनकी तरह होने की प्रेरणा देती है। उनकी सुनायी वे कहानियाँ कितनी रोचक थीं, जिन्होंने मुझे साधा।

मैं किसी भी पद्य, पद या गद्य को उनके ढङ्ग में गा लेता था और सबको सुनाकर मौज करता था। वे ख़ुद मज़े लेते थे। उनके एक गीत को लेकर मैं ख़ूब चुहल करता था और वे हर बार ठक्क से ठहाक उठते थे। उनका एक गीत है –

 एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है 

 बेज़ुबान छत-दीवारों को घर कर देता है  

ख़ाली शब्दों में आता है ऐसे अर्थ पिरोना 

गीत बन गया-सा लगता है घर का कोना-कोना  

एक तुम्हारा होना सपनों को स्वर देता है 

आरोहों - अवरोहों से समझाने लगती हैं  

तुमसे जुड़ कर चीज़ें भी बतियाने लगती हैं 

 एक तुम्हारा होना अपनापन भर देता है। 

इसे वे हर बार अतिरिक्त सौम्यता, मधुरता और सरलता के साथ गुनगुनाते-गाते और रसार्द्र होते हुए सुनाते थे। मैं जब इसे धमकाने वाले अन्दाज़ और रौद्र रस में सुनाता तो वे ऐसी मुद्रा बनाते मानो सहम गये हों और फिर रसभीनी मुखमुद्रा के साथ अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में मस्त तरीक़े से मधुर-मधुर अट्टहासते। बेज़ुबान छत-दीवारों वाले अपने ऐसे दादू व्यक्तित्त्व से विगत बार २०२२ के अगस्त में मुरादाबाद में मिला था, जब जश्नेज़ुबाँ का आयोजन अनुज अभिनव अभिन्न ने रखा था और उसके ठीक अगले दिन किसी कॉलेज में अकस्मात अनायास भेंट हो गयी थी। तबसे अनेक बार इच्छा हुई उनसे मिलने की। मुरादाबाद से निकला भी, लेकिन समय ही न निकला और ऐसा न निकला कि अब निकले भी तो न निकलूँ। अस्तु, अलविदा दादू! अगर आपकी वैचारिकी में कहीं स्वर्ग का अस्तित्त्व है तो जाइए, ज़रा वहाँ के लोगों को भी बेहद गम्भीर अन्दाज़ में बात करके ठक्क से ठहाके लगाना सिखाइए।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित डॉ सोनरूपा विशाल का संस्मरणात्मक आलेख गहरे-गहरे से पदचिह्न


15 सितंबर 2014 की शाम थी वो।शिव मिगलानी जी जो मुरादाबाद के प्रमुख व्यवसायियों में से एक हैं,सामाजिक तौर पर काफ़ी सक्रिय।उनके स्नेह की मैं सदा से पात्र रही हूँ।आज भी पार्किंसन की बीमारी से जूझते हुए अपने अस्थिर हाथों से फोन उठाकर कंपकपाती आवाज़ में मुझे मुरादाबाद आने का न्योता देना नहीं भूलते।ऐसे ही उस शाम उन्होंने मुझे याद किया 'एक शाम सोनरूपा के नाम' कार्यक्रम रखकर।जो मेरे गायन को दृष्टिगत रखकर रखा गया था। हमेशा से मेरा संगीत की ओर झुकाव रहा ही था।संगीत में ही शिक्षा भी ली।बाद में हिन्दी से पी. एच डी की।लेकिन 2010 से लेखन भी मेरे भीतर अंगड़ाइयां लेने लगा था।ये गंभीरता वाला था,इससे पहले बचपन वाला कविता प्रेम था मात्र।

उस कार्यक्रम के साथ मिगलानी जी ने सम्मान समारोह भी रखा था।कार्यक्रम के अध्यक्ष थे नवगीत के शिखर नामों में से एक आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी।विशिष्ट अतिथि थे प्रसिद्ध शायर आदरणीय मंसूर उस्मानी जी।

आज तक बहुत कम ऐसे मंच हुए हैं जिन पर अपनी प्रस्तुति को लेकर मैं शत प्रतिशत संतुष्ट हुई होऊँ।लेकिन उस दिन मैं भीतर से आह्लादित थी।श्रोताओं की प्रतिक्रिया तो थी ही अच्छी मुझे भी स्वयं महसूस हुआ कि सब ठीक था।सबकी प्रशंसा और फोटोज़ लेने इच्छा मुझे अभिभूत तो कर रही थी लेकिन सातवें आसमान पर पहुँचने वाला भाव न पनपा पा रही थी।मेरे ज़हन में ज़मीन जो रहती है।

कार्यक्रम के बाद सम्मान समारोह हुआ,उदबोधन,फोटो सेशन इत्यादि।तिवारी जी और उस्मानी जी से भी शाबाशी मिली।

इस सब के उपरान्त डिनर टेबल पर सौभाग्य से कुछ क्षण ऐसे मिले जिसमें मैं थी,माहेश्वर जी थे और ताई जी (माहेश्वर जी की पत्नी)।

माहेश्वर जी ने बहुत ही सौम्य स्वर में मुझसे कहा - बेटा ,एक बात कहूँ यदि बुरा न मानो।

मैंने कहा - जी ताऊ जी,बिल्कुल कहिये।

वो बोले - सोनरूपा कल ही 'सरस्वती सुमन' पत्रिका का डॉ. उर्मिलेश विशेषांक मुझे मिला है।तुम्हारी संपादन क्षमता ने मुझे बहुत प्रभावित किया और तुम्हारे सम्पादकीय ने भी।इधर यदा कदा पत्रिकाओं में भी तुम्हारे गीत और ग़ज़ल पढ़ता रहता हूँ।उसे देख मुझे लगता है तुम्हें लेखन ही पहचान देगा।संगीत नहीं।फिर अपनी पूरी परम्परा को भी तुम ध्यान में रखो।

'जी ताऊ जी।बिल्कुल।आपकी बात पर मैं सिर्फ विचार ही नहीं अमल भी करने की कोशिश करूँगी।' मैंने कहा।

तभी ताई जी ने एक छोटा सा वाक्य बोला -

'बेटा स्वर तुम्हारे बहुत पक्के हैं, आवाज़ भी मधुर।लेकिन ताऊ जी की बात पर ध्यान देना।'

दोनों ने मेरे सिर पर हाथ रखा और अपने लिए तैयार खड़ी गाड़ी में बैठ कर चले गये।

उस दिन मुरादाबाद से बदायूँ आते हुए मैं लगभग सारी बातों को भूल बस इसी बात को सोचती हुई घर तक आ गयी।

इस बीच मैंने उस शाम को भी दोहरा लिया जो पापा डॉ . उर्मिलेश के नवगीत संग्रह 'बाढ़ में डूबी नदी' के लोकार्पण के अवसर पर बदायूँ क्लब में सजी थी।लोकार्पण और संग्रह पर चर्चा के साथ-साथ पापा के गीतों को गाने का भी एक सेगमेंट रखा गया था।लोकार्पणकर्ता डॉ. माहेश्वर तिवारी थे।पापा और उनका बहुत घनिष्ठ संबंध रहा।

तब मेरे विवाह को लगभग दो तीन वर्ष हुए होंगे।उन दिनों थायरॉयड ने मुझे अपना घोर शिकार बनाया हुआ था।मेरी सधी आवाज़ अब काँपने लगी थी।साँस फूलती थी।वज़न 78 किलो पर पहुँच गया था।

पिता को बेटियां अपनी इन दुविधाओं से उस समय कब अवगत करवाती थीं।सो पापा का आदेश सिर माथे पर लिया मैंने कि तुम्हें भी मेरा एक गीत गाना है।

जैसा मुझे अंदेशा था वैसा ही हुआ।मैं पापा के सुंदर गीत के साथ बिल्कुल न्याय नहीं कर पाई।मेरे साथ ही बैठीं एक और गायिका जिन्होंने पापा की ग़ज़ल गायी थी ' उम्र की धूप चढ़ती रही और हम छटपटाते रहे ' बहुत मधुर गायी।एक थर्मस में वो अपने लिए गुनगुना पानी लाई थीं।जिसको देख मैं मन ही मन सोच रही थी कि देखो ये होता है अपने गले का ध्यान और अपने पैशन की कद्र।


अब कार्यक्रम अपने अंतिम पड़ाव पर था।माहेश्वर जी के हाथों हम सभी को स्मृति चिन्ह दिये जाने थे।

उस दो पल के समय में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा-बढ़िया गाया और मेहनत कर।


और जब सब याद आ ही रहा है तो मैं दैनिक जागरण के लिए नवगीतकार डॉ. योगेंद्र व्योम जी द्वारा माहेश्वर तिवारी जी का वो महत्वपूर्ण साक्षात्कार कैसे भूल सकती हूँ जिसमें उन्होंने तमाम प्रश्नों के उत्तरों में एक उत्तर गीत की बुनावट पर दिया है।।उनके गीत अधिकतर दो अंतरे के रहे।लेकिन उनका विस्तार असीमित था।शब्दों की मितव्यता उनके गीतों की ख़ासियत है।एक भी अतिरिक्त शब्द उनके गीतों में नहीं नज़र आता है।हर शब्द जैसे मोती सा जड़ा हुआ।बिम्ब अनूठे जो आसानी से कहीं पढ़ने में न आएं।ये साक्षात्कार आज भी मेरे संकलन में रखा हुआ है।

आज जब वो नहीं रहे तो पुन: ये सब स्मृतियाँ जीवंत हो उठी हैं।उसके बाद अनगित बार उनसे भेंट हुई।कई बार कवि सम्मेलनों के मंच पर भी।लेकिन अब ये सोनरूपा दो नावों में सवार नहीं थी।बस लिख ही रही थी वो।

उसने आईसीसीआर के इम्पेनल्ड आर्टिस्ट का रिन्युअल लेटर भी अब फाड़ कर फेंक दिया था।

मेरे गीत संग्रह के लोकार्पण पर भी आये वो।अब वो ठठा कर हँसते हुए कहते - ख़ूब लिख रही है अब।

'कोकिला कुल' किताब के उन्होंने कई लेखिकायें सुझाईं मुझे।

उनके घर का नाम हरसिंगार है।हरसिंगार जो मुझे बहुत प्रिय है उसी के चित्र से साथ स्मृतियों की ये ख़ुशबू आज पन्नों पर भी सहेज रही हूँ और यहाँ भी। दोपहर से लिखना शुरु किया अब शाम घिरने को है।सोच रही हूँ कि हमारे होने में कितने लोगों का होना शामिल होता है।


 ✍️ सोनरूपा विशाल

बदायूं

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते डॉ ओम निश्चल के दो गीत .......


कहां खो गए तुम

मुझे छोड़ कर के 

कहां छुप के बैठे हो

मुंह मोड़ कर के।

 

चलो आओ सम्मुख

 करो मुझसे बातें

 तो बातों से निकलेंगी

 कितनी ही बातें।

वो सदियों के रिश्ते

कभी जोड़ कर के।

कहां खो गए तुम

मुझे छोड़ कर के।


 अकेले हैं कितने

 तुम्हीं जानते हो 

 विकल वेदना मेरी

 पहचानते  हो 

जो वादे किए थे 

उन्हें तोड़ कर के।

कहां खो गए हो 

मुझे छोड़ कर के।


 उदासी का आलम 

 हमेशा न  होगा 

 कहीं  धूप  होगी 

 तो साया भी होगा 

भरोसा  न  तोड़ो 

ये मुंह मोड़ कर के।

कहां खो गए तुम

मुझे छोड़ कर के।

(2)

आई फिर एक और शोक की घड़ी

टूट  गई  एक  और गीत की कड़ी।


बिंबों की मालाएं

जैसे  बनफूल सी

झरती हैं धरती पर

महुए के फूल सी

भूल नहीं पाएंगे हम उनकी बंदिशें

यादों  में  उभरेगी  गीत  की लड़ी।


कवियों के कुल से 

उनका गहरा नाता था

छंदों का साथ रहे

यही उन्हे भाता था

याद बहुत आयेंगी जिंदादिल संध्याएं

बतकहियों, गीत  औ संगीत से भरी।


सरस्वती का आंगन 

कुछ सूना सूना है

उनकी अनुपस्थिति से

मन का दुख दूना है

कौन दुलारेगा अपनी आभा से गीत को

दुख  की   चादर   ओढ़े   वेदना  खड़ी।


हरसिंगार झरता था

ज्यों मन के आंगन में

इंद्रधनुष उग आता 

था नभ के दर्पण में

गीत कौन लिखेगा नदी की उदासी की

कौन  भला  फूंकेगा  लहरों  में बांसुरी।

✍️ ओम निश्चल 

नई दिल्ली

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी को याद करते हुए यश मालवीय का गीत


कोई किरन अकेली करती माहेश्वर को याद


टूट गया है गीतों वाला

बरसों का संवाद

कोई किरन अकेली करती

माहेश्वर को याद


हरसिंगार के फूल से आंसू

झर झर झरते हैं 

चुप रहकर भी जाने कितनी

बातें करते हैं 


सब कुछ सूना लगे

इलाहाबाद, मुरादाबाद


स्वप्न रेत के गीली आंखों में 

भर जाते हैं 

होठों पर लेकिन मीठी

वंशी धर जाते हैं 


धीरे धीरे हो जाता है

पीड़ा का अनुवाद


पोर पोर में जलती सी

समिधाएं होती हैं 

एक नहीं कितनी ही

गीत कथाएं होती हैं 


बदला बदला सा लगता है

छंदों का आस्वाद।


✍️ यश मालवीय