सोमवार, 13 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के 10 गीतों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा----


        वाट्सएप पर संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 11 व 12 जुलाई 2020 को मुरादाबाद के विख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी के दस गीतों पर ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा दस गीत पटल पर प्रस्तुत किये गए-----

*गीत - 1*

शहरों से जो
मिली चिट्ठियां
गांव - गांव के नाम ।
पढ़ने में बस
आंसू आये
अक्षर मिटे तमाम ।।
           हर चिट्ठी पर
           पुता मिला है
           धूल - गर्द का लेप ।
           शारीरिक सब
           भाषाओं की
           बिगड़ गई है शेप ।
           यात्राओं की
           पीड़ाओं से
           कहां अभी आराम ।।
           शहरों से जो-------।।
मेहनत करके
अर्जित करना
जिया एक ही राग ।
लिख आईं ये
भाग सभी के
लिखा न अपना भाग।।
जिनके बल पर
वैभव , उनके
भूले - बिसरे     नाम ।
शहरों से जो---------।।
           आशाएं थीं
           सब आयेंगी
           होकर मालामाल ।
           गांव दुखी हैं
          दुख के मारे
          सोच - सोच कर हाल।।
          वज्रपात ने
          कौड़ी - कौड़ी
          करके भेजे दाम ।
          शहरों से जो-----।

*गीत : 2*

हर दोपहरी बाट जोहती
है वृक्षों की छांव ।
चल देहात नगर से, जाने
कब लौटेंगे गांव ।।
खंडहर के सन्नाटों से जा
मांगे अन्धा भीख।
आकर झोली में पड़ती पर
दो दो मुट्ठी चीख ।।
लेकर आशा घोर निराशा
लौटे उल्टे पांव ।
सब देहात------।।
चमक दमक ने हम सबकी ही
आंखें दी थीं फोड़ ।
गुणा भाग सब और घटाना
ठीक नहीं था जोड़।।
जो सपनों में महल बुने सब
उल्टे लगते दांव ।
सब देहात------।।
ताल तलैया कुएं पोखरे
गई नदी तक सूख ।
मिड-डे मील पढ़ाने निकला
ले सुरसाई भूख ।।
मूल बुलाता सूद बिना सब
आओ अपने ठांव।
सब देहात -------।।

*गीत : 3*

ठहर सतह पर रुक मत जाना
मन से मन को छूना ।
भीतर भीतर बजती रहती
कोई पायल मुझमें ।
प्रेम परिंदा घर कर बैठा
होकर घायल मुझमें।।
परस भाव से अपनेपन के
पन से पन को छूना ।
ठहर---------------।।
अंतर्मन में चाह उमगना
दुविधा भर जाता है ।
कुछ-कुछ जी उठता है भीतर
कुछ-कुछ मर जाता है।।
आगा पीछा सोच समझकर
तन से तन को छूना ।
ठहर---------------।।
घने अभावों में मुट्ठी भर
भावों का मिल जाना।
चिथड़े-चिथड़े पहरन के ज्यों
दो कपड़े सिल जाना।।
उल्लासों के मेले छड़ियां
कन से कन को छूना ।
ठहर----------------।।

*गीत : 4*

मौसम जब मनचले हुए तो
डांट दिए रितुओं ने मौसम।
ड्योढ़ी ड्योढ़ी यौवन आहट
जात उमंगित न्यारी न्यारी ।
हाव भाव में भरी चुलबुली
मिसर उठी पतियाती क्यारी।।
सूंघ महकते संवादों को
सांट दिए रितुओं ने मौसम।
डांट दिए------------------।।
उमड़ घुमड़ कर रस आया तो
रसने अधर,अधर को आए ।
कातर कातर सहमे सहमे
नीचे पड़ कर नयन लजाए।।
सोच समझ कर इस भाषा को
चांट दिए रितुओं ने मौसम।
डांट दिए-----------------।।
मनमौजी  मनमाने पंछी
बहुत मनाए पर कब माने।
चुपके छुपके देखभाल कर
चुगने लगे प्रेम के दाने ।।
विपरीती परिणाम दिखे तो
फांट दिए रितुओं ने मौसम ।
डांट दिए------------------।।

*गीत- 5*

*गीत पेड़ से गुज़रा*
 
अमरूदों को कुछ तोतों ने
कुतर कुतर फिर,कुतरा।
दुख दारुण हो टपक टपक कर
पेड़ गीत से गुज़रा।।
टहनी टहनी अपना दुखड़ा
कहती फिरती रो कर।
पगलाई वह लुटी पिटी सी
अपना सबकुछ खोकर।।
तड़क भड़क कर हार गईं पर
तोता एक न सुधरा।
पेड़ गीत से गुज़रा ।।
पत्तों में भी खुसर फुसर यह
जो थे रतन छिपाए।
हम रखवाले तो भी उनको
रक्ष नहीं कर पाए।।
क़ौम दगीली आज हुई है
हर पत्ता नाशुकरा।
पेड़ गीत से गुज़रा।।
सहमी सहमी कलियां बोलीं
धर्म हमारा खिलना।
उन्हें मुबारक उनकी करनी
जिनसे छल ही मिलना।।
हाथ छुआएं अब तोड़ेंगी
उन छैलों के थुथरा।
पेड़ गीत से गुज़रा ।।
       
*गीत - 6*

आस पास में इसीलिए तो
रहती चहल पहल है।
पीड़ाओं को लगता,मेरा
घर आनन्द महल है।।
मिलता कब है लाचारी को
सम्मान जनक आसन।
भोर हुए से दिन ढलने तक
करती चौका बासन।।
मेरे घर में इनके ही तो
मन का सुखद महल है।
घर आनन्द महल है।।
घर से निकलूं तो मिल जाती
भिखमंगी मजबूरी।
धर्मपरायण मर्मशास्त्र भी
चलें बनाकर दूरी।।
मेरे दर पर इन दुखियों की
होती रही टहल है।
घर आनन्द महल है।।
थक हारी पड़ जातीं कुछ तो
फुटपाथी बिस्तर पर।
तम को गाने लग जातीं फिर
अपना सगा समझकर।।
इनकी भूकंपी सांसों की
मुझ तक रही दहल है।
घर आनन्द महल है।

*गीत : 7*

बाहर हैं,पर दिखे नहीं हों
ये सबके भीतर होते हैं।
मानो या मत मानो लेकिन
गीतों के भी घर होते हैं।।
गीत लोक के वंशज ठहरे
हर मौसम में गाये जाते।
कभी कभी तो खुलते पूरे
कभी कभी सकुचाये जाते।
पानी पानी पानी मांगे
जब जब गान मुखर होते हैं।
गीतों के------------------।।
मचले जो ये रीति रंग में                             
रचने में ही लीन हो गए।
भक्त हुए तो ऐसे जिनके
प्राण बांसुरी बीन हो गए।।
भटके को जो राह दिखादें
इनमें इतर असर होते हैं।
गीतों के----------------।।
चलते चलते घर पाने को
गीत अगीत प्रगीत हुए हैं।
पी ली नीमों की ठंडाई
तब जाकर नवगीत हुए हैं।।
दिशाहीन रसपानों की ये
रचते धुकर पुकर होते हैं।
गीतों के ------------------।।

*गीत : 8*

मोबाइल के नोट पैड की
खिलकर आई भीत।
दक्ष पोरुए टाइप करके
चले गए कुछ गीत।।
चंद्रयान से चली चांदनी
उतरी तम के द्वार ।
किरणयान का टिकिट कटा तम
पहुंचा पल्ली पार।।
दिवस रात सब अभिनय करके
ऐसे जाते बीत ।
दक्ष पोरुए----  ।।
मन विह्वल में कतरे पर के
उठते नहीं उड़ाव ।
पर कतरों का षड्यंत्रों से
गहरा बहुत जुड़ाव।।
इनकी ढाल बनी दृढ़ रहती
ग़जट हुई हर नीत।
दक्ष पोरुए-------।।
आय योजना तो उसमें को
कितने पड़ते कूद।
गाय दुखी है हर खूंटे पर
देना पड़ता दूध।।
शिष्टाचारित मन से होती
भ्रष्टाचारित जीत।
दक्ष पोरुए-------।।

*गीत : 9*

यह जो चीनी गुब्बारा है
इसकी हवा निकालो ।
बहुत पतंगें उड़ लीं इसकी
उनका अब उड़ना क्या।
इसका मांझा इसकी गर्दन
और अधिक करना क्या।
कंधे बहुत उचकते इसके
उनका खवा निकालो।
इसकी--------------।।
         जितनी पैठ बनाई इसने
         बाजारों में अपने।
         अपनी बढ़ा दुकानें कर दो
         लंगड़े दूषित सपने।।
         फूं - फूं बड़ी दिखाता
         फिरता
         फूं - फूं सवा निकालो।
         इसकी---------------।।
दूध न देती आसानी से
नये ब्यांत की झुटिया।
जबरन भी यदि दुहना चाहो
खाली रहती लुटिया ।।
रवेदार बनता फिरता है
इसका रवा निकालो ।
इसकी--------------।।
          चीलें चमगादड़ चूहे सब
          जिसके तोते-मिट्ठू।
          अपने घर ही भरे पड़े हैं
          इस शातिर के पिट्ठू।।
          एक बार ही फंद कटें सब
          ऐसी दवा निकालो।
          इसकी----------- ।।

*गीत : 10*

किया उजागर कोरोना ने
आडम्बर का बौनापन।
बिंदी जैसी सेवाओं के
सूरज जैसे विज्ञापन।।
चुग्गा होता जिनका हिस्सा
जाल तने रहते उनपर।
अर्थमुखी खा उसको जाते
बाने में ताना बुनकर।।
बनकर बन्दर सब गांधी के
गड्डी गिनते नियमासन।
बिंदी जैसी------------।।
डाल डाल पर हावी होकर
लुक में अपने रहता है।
इर्द गिर्द का मौसम चाहे
किलच किलच कर डहता है।।
इन जैसों की लाबिंग तगड़ी
साधा सबने ऊंटासन।
विंदी जैसी-----------।।
स्कूलमुखी सड़कें तो देखो
लिप्त पड़ीं हुड़दंगों में ।
कहां मिलेगा अनुशासन जो
रहा संटियों अण्डों में ।।
ब्रेन खिड़कियां कैसे खोले
पड़ा रिटायर मुर्गासन।
बिंदी जैसी----------।।
इन गीतों पर चर्चा करते हुए प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा कि हिंदी की हास्य व्यंग्य कविता में पिछले  दशकों में तेजी से अपनी पहचान बना चुके डॉ. मक्खन मुरादाबादी अपने ढंग के अकेले रचनाकार हैं ।पिछले दिनों आये उनके पहले संग्रह से इसकी  पुष्टि होती है ।इस बीच उन्होंने गीतलिखना शुरू किया है  ।उन्होंने अपने लेखन का आरम्भ छंदोबद्ध रूप से किया यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता ।जिन हास्य व्यंग्य के कवियों ने  अपना लेखन गीतकार के रूप में किया उनमें स्व.सुरेंद्र मोहन मिश्र ,श्री सुरेश उपाध्याय तथा सुरेंद्र दुबे से मेरा परिचय रहा ।इन लोगों  ने सिर्फ आस्वाद बदलने के लिए नहीं बल्कि रचनात्मक दबाव के तहत गीत के आंगन में गाते गुनगुनाते रहे ।इस बीच प्रवीण शुक्ल की गुनगुनाहट के स्वर सुनाई देने लगे हैं ।मक्खन मुरादाबादी की गीत के घर आमद नई है  ।मक्खन ने पटल पर प्रस्तुत अपने गीतों में  कुछ खूबसूरत  बिम्बों के प्रयोग किये हैंजो उनके भीतर बैठे गीत कवि की संभावनापूर्ण आश्वस्ति को बल देते हैं।
 वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि गीत हमेशा गीत ही है। लय के साथ भावों की प्राणवत्ताही उन्हें पाठक/श्रोता के मन के भीतर तक सम्प्रेषित करती है। गीत कार अपने परिवेश को जीता है तब गीत रचना होती है। मक्खन जी ने गीत में समकालीन समाज की सुखद परिस्थितियों के साथ विद्रूप का भी सुंदर चित्रण किया है। एकदम नवीन खरेऔर ताज़ा तरीनबिम्ब मक्खन जी को गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में ले जा रहे हैं। आगे क्याहोताहै इसकी प्रतीक्षा काव्य जगत करेगा। मैं भी उनमें शामिल हूं। मक्खन जी को हार्दिक बधाई के शब्द कम पड़ रहे हैं।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि आदरणीय डॉ.मक्खन मुरादाबादी जी के गीतों को पढ़ कर नि:शब्द हूँ। हम अब तक उन्हे सशक्त समर्थ और उत्कृष्ट व्यंग्यकार और हास्य कवि के रूप ही जानते हैं। आज उनके दस गीतों को पढ़ कर महसूस हुआ कि उनका गीतकार कितना समर्थ और सशक्त है। अब तक उनकी व्यंग्य की चुटीली सुनारों वाली चोट पर गीतों की मधुरता की यह लोहारी चोट बहुत मनोहारी है। व्यंग्य पर सशक्त पकड़ रखने वाले ख्याति प्राप्त कवि ने गीतों में  विस्मयकारी इतिहास रच दिया है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि आदरणीय मक्खन जी भी छंदमुक्त से छन्दयुक्त कविता की तरफ़ आए और इस यात्रा के आरंभ में ही शानदार गीतों की रचना की। लोगों ने उनकी छंदमुक्त कविताएं तो पढ़ी और सुनी हैं, लेकिन यह पहला अवसर होगा, जब लोग उनके गीत भी पढ़ेंगे। चूंकि मक्खन जी व्यंग्य कवि हैं, इसलिए उनके गीतों में भी सशक्त व्यंग्य के दर्शन होते हैं। उनके यहां आम आदमी की दौड़-धूप, उसकी समस्याएं और उन समस्याओं का निदान आसानी से देखा जा सकता है। उन्होंने शब्दों को भाषा की दृष्टि से नहीं, बल्कि उपयोग की दृष्टि से देखा है, इसीलिए उनके यहां अंग्रेज़ी, उर्दू आदि के अतिरिक्त देशज शब्द भी प्रचुर संख्या में मिलते हैं।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने कहा कि सब की तरह मैंने भी मक्खन जी को हमेशा एक व्यंग्य के कवि के रूप में देखा और सुना है।लेकिन अब उन्हें एक गीतकार के रूप में पढ़ कर अचम्भा भी नहीं हुआ।क्योंकि असल चीज़ सृजन है। मक्खन जी के गीत पढ़ कर यह कहीं नहीं लगता कि वह इस डगर के नए मुसाफिर हैं।हाँ उन की व्यंग्यात्मक शैली गीतों में भी झलक पड़ती है।और यह होना स्वाभाविक भी है।क्योंकि व्यंग्य उनका पहला प्यार जो ठहरा। गीत का ख़्याल मन में आते ही सोई हुई सी रक्तकोशिकाओ में एक प्रवाह सा महसूस होता है। ठहरी हुई ज़िन्दगी में एक लहर सी उठती है। अब अगर मक्खन जी के गीतों को पढ़ा जाए तो वह इस कसौटी पर पूरे उतरते हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी का नया काव्य रूप गीतकार। लगता है कि गीतों की पायल उनके मन में बहुत पहले से ही बजती रही है।  इसका आभास तो बीते साल ही प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन पर आयोजित पावस गोष्ठी में उस समय हो गया था जब उन्होंने श्रंगार रस का एक गीत सुनाया था। पटल पर प्रस्तुत उनके सभी 10 गीत मन को भीतर तक छू लेते हैं। उनके अंतर्मन रूपी घर में बरसों से सकुचाए बैठे गीत अब खुलकर मुखर हो गए हैं और मोबाइल फोन के नोटपैड पर थिरकने लगे हैं। मानों या मत मानों उनके गीतों में वही कसमसाहट ,तिलमिलाहट, पैनापन ,नीम की ठंडाई, संवेदना, भावविह्वलता दिखाई देती है जो उनकी व्यंग्य कविताओं में है।
वरिष्ठ कवि डॉ शिशुपाल मधुकर ने कहा कि मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के रचनाकारों की समीक्षा कार्यक्रम के क्रम में डॉ कारेंद्र देव त्यागी उर्फ मक्खन मुरादाबादी जी के दस नवगीत पढ़ने को मिलना एक अप्रत्याशित घटना है।अप्रत्याशित इसलिए कि अभी तक हमने उनका यह रूप कभी नहीं देखा।कवि गोष्ठियों या मंचों पर उन्होंने हमेशा गद्यात्मक व्यंग रचनाओं का ही पाठ किया है।अचानक इतने गंभीर और उत्कृष्ट शैली में नवगीतों की रचना अपने आप में अविश्वस्नीय सी लगती है। बड़ा ही सुखद लगा कि मक्खन जी ने गीत की दुनिया में सशक्त रूप से धमाकेदार एंट्री की है।सभी दस गीतों को कई बार पढ़ा।सभी गीत नवगीत की सभी शर्तों को उत्कृष्ट रूप से पूरा करते है।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि  मेरे अग्रज आदरणीय मक्खन भाई साहब जी के गीतकार के रूप के नये अवतार को नमन करती हूं। उनके सशक्त गीतों पर कुछ समीक्षा कर सकूँ अभी इस काबिल नहीं हूं ।हाँ गीतों को पढ़कर बहुत आनंदित हूं और हृदय की अतल गहराइयों से अपनी अनंत शुभकामनाएं प्रेषित कर रही हूं।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि आदरणीय डॉ. मक्खन मुरादाबादी के सभी 10 गीतों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी यह अभिनव गीत-यात्रा भी लोकरंजन से लेकर लोकमंगल तक की वैचारिक पगडंडियों से होती हुई निरंतर आगे बढ़ी है। उनके गीतों में वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति के साथ-साथ गीत के परंपरागत स्वर में लोकभाषा के शब्दों की मिठास भरी सुगन्ध भी है। व्यंग्य कविता-यात्रा की पांच दशकीय अवधि में प्रचुर मात्रा में मुक्तछंद में कविताई करने वाला लेकिन हर क्षण कविता के हर स्वरूप को जीने वाला रचनाकार जब अचानक छंद की ओर लौटता है और वह भी गीत की ओर तो सभी का चौंकना भी स्वभाविक है और गीत की शक्ति का स्वप्रमाणित होना भी।
युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि डॉ मक्खन मुरादाबादी उन्होंने सिद्ध कर दिया कि गुणवत्ता की चमक कभी फीकी नहीं होती उत्पाद चाहे जो भी हो। एक ही झटके में उन्होंने आवरण उतारा तो  व्यंग कवि के भीतर बैठे एक अद्भुत, विलक्षण, कल्पना तीत रूप से रहस्यमयी गीतकार के दर्शन हुए जिसकी आभा ने सभी की आंखों को चौंधिया दिया।  पटल पर प्रस्तुत मक्खन जी के दसों गीत अपनी गीतात्मकता में बेजोड़ हैं, लेकिन मुझे सबसे अधिक चमत्कृत किया उनकी गांव की मिट्टी में सनी भाषा ने। यह वह भाषा है जो इतनी सादा और देसी है कि  उसे समझना अपने आप में कभी-कभी बड़ा क्लिष्ट  होता है। आप देशज हुए बिना उसे न तो महसूस कर सकते हैं और न ही समझ सकते हैं।
कवि श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि दादा के सभी गीत पढ़ने के बाद यह भी प्रतीत होता है कि सभी गीत अभी के लिखे हुए हैं। उनके गीतों में भी उनकी व्यंग की शैली स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है जो स्वाभाविक भी है। अपने दसों गीतों में मक्खन जी ने विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। प्रवासी मजदूर हों, प्रेम हो, शोषण  हो, अभाव ग्रस्त जीवन हो, चीन द्वारा सीमाओं पर अतिक्रमण के कारण उत्पन्न आक्रोश हो, या आपदकाल में सरकारी सहायता और घोषणाओं की वास्तविकता के धरातल पर स्थिति हो, हर विषय पर गीतों के माध्यम से आपने सशक्त अभिव्यक्ति की है। कुल मिलाकर सभी गीत वर्तमान परिस्थितियों से उत्पन्न सामाजिक परिदृश्य को अभिव्यक्ति देते हैं।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि  आदरणीय डॉक्टर मक्खन मुरादाबादी जी जोकि हास्य व्यंग के सशक्त हस्ताक्षर हैं,उनके द्वारा रचित नवगीत पढ़कर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है। परंतु मुझे कोई आश्चर्य इसलिए नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि एक हास्य व्यंग का कवि जितनी खूबी के साथ अपनी बातों को इशारों इशारों में कहने पर पकड़ रखता है अर्थात प्रतीकों और बिंबो के प्रयोग करने का हुनर रखता है उसके लिए नवगीत कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि इन दोनों चीजों की प्रधानता ही गीत को नवगीत बनाती है। आदरणीय मक्खन जी इसमें सिद्धहस्त हैं। ये ऐसे नवगीत हैं जो हम जैसे साहित्य के विद्यार्थियों को बहुत कुछ सीखने और समझने का अवसर प्रदान करते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि  चूँकि श्रद्धेय मक्खन जी मूलतः एक व्यंग्य कवि हैं, यही कारण है उनके इन उत्कृष्ट गीतों में पूरी गंभीरता के साथ व्यंग्य का पुट भी दृष्टिगोचर होता है। बिंदी, गांधी बन्दर, सूरज जैसे विज्ञापन, चीनी गुब्बारा जैसे सशक्त एवं अनोखे बिंबों से सजी एवं आम जनमानस की भाषा से ओतप्रोत उनकी ये अभिव्यक्तियाँ यह दर्शा रही हैं कि उनके भीतर एक उत्कृष्ट गीतकार भी रहता है, जो उनके गौरवशाली रचना कर्म के इस मोड़ पर, सशक्त रूप से हमारे सम्मुख आया है। ये गीत इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि अब दादा मक्खन जी की लेखनी से उत्कृष्ट गीतों की भी एक ऐसी अविरल धारा अपनी यात्रा का शुभारंभ कर चुकी है जो वर्तमान एवं भावी दोनो ही पीढ़ियों को प्रेरित करेगी।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि मुझे लगा था कि दादा की व्यंग्य कविताएं पढ़ने को मिलेंगीं लेकिन जिस तरह देश भर में पिछले कुछ दिनों से अप्रत्याशित घटित हो रहा है उसी तरह इस पटल पर भी हो गया। ख़ैर दादा की लेखनी का ये नया रूप भी बहुत अच्छा है। हर गीत अलग तेवर और कलेवर का है।
समीक्षक डॉ अज़ीमुल हसन ने कहा कि आदरणीय डॉ मक्खन  मुरादाबादी काव्य के  आसमान पर चमकता हुआ एक ऐसा तारा हैं जिसकी चमक से व्यंगात्मक काव्य में मुरादाबाद सदा जगमगाता रहा है। आपके गीत वर्तमान समाज का दर्पण हैं जो समाज को उसका सही प्रतिबिम्ब दिखाने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। समाज पर व्यंग का एक ऐसा आघात है जिससे समाज अपने भीतर झाँकने पर विवश हो जाता है। हमें आशा है कि हमारा समाज आपके गीतों से सदा लाभान्वित होता रहेगा।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि श्री कारेन्द्र देव त्यागी जी के गीत अप्रत्याशित भले ही हों पर उनके उच्च गुणवत्तायुक्त होने पर संशय किया ही नहीं जा सकता। वह हमेशा कहते रहे हैं कि मैं छंद के बारे में अधिक नहीं जानता या मैं छंद में नहीं लिखता लेकिन जब छंदबद्ध उनके गीत पटल पर आए तो लगा कि वास्तव में किसी विधा का ज्ञाता होने का दम्भ भरना और किसी विधा को सचमुच आत्मसात कर लेना दोनों ही कितनी अलग बातें हैं। भाव पक्ष हो अथवा कला पक्ष दोनों ही दृष्टि से आदरणीय मक्खन जी के गीत श्रेष्ठ हैं।
युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि  आदरणीय मक्खन मुरादाबादी आपके गीत एक नहीं कई कई बार पढ़े। जितनी बार पढ़े, हर बार नवीन गूढ़ रहस्य नज़र आये। नये विम्ब दिखे। आपके अद्भुत गीतों की चमकदार माला देखकर आँखें विस्मित हैं,अभी तक जब भी गीत पढ़े वे प्रिय, प्रियतमा ,साढ़, सावन ,भादो,प्रृकति चित्रण, विरह वेदना पर ही अधिकांशतः केंद्रित होते  देखे हैं,शायद प्रथम बार ऐसे गीत पढ़ने को मिले हैं, जिनमें मन की पीड़ा व्यंग्य के तरकश से निकलकर घातक मार करती हुई लक्ष्य प्राप्त करती है। मुझे गीतों के बारे में बहुत कुछ नहीं पता परंतु इतना अवश्य ही पता चल गया कि गीत इतने सादगी भरे भी हो सकते हैं। निःसंदेह आपके ये गीत हर मौसम में गाये जायेंगे।
डॉ ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि मुझे कहने दीजिए कि कहीं से ऐसा नहीं लग रहा कि ये गीत किसी ऐसे रचनाकार ने लिखे हैं जिसने कई वर्षों से गीत नहीं लिखे या कभी गीत लिखे ही नहीं। गीतों की भाषा में और गीत का जो रंग है जो रूप है वो हमें गांव की तरफ ले जाता है। अक्सर गीतों के शब्दों में और शब्दों के बीच जो ख़ामोशी है, उसमें हमें गांव की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खु़शबू महसूस होती है। गांव और शहर का जो रिश्ता है। वो खट्टा भी है और मीठा भी। जिसमें आशा भी है और निराशा भी, वह इतनी मज़बूती और इतने रचाव के साथ इन गीतों में बयान किया गया है कि देखते ही बनता है। गीत लिखते हुए किसी तरह के काव्यात्मक तकल्लुफ़ का कोई प्रयोग नहीं किया गया है। ज़ुबान आसान है, बहुत मुश्किल नहीं है। क्योंकि व्यंग के कवि हैं इसलिए गीतों में कहीं-कहीं व्यंग भी बहुत खूबसूरती से परोसा गया है। लेकिन वह इतना शुगर कोटेड है कि निगलते हुए कड़वाहट का एहसास नहीं होता।

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद 244001
मो० 7017612289

रविवार, 12 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व पर "प्रगति मंगला" संस्था एटा द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा .....


प्रगति मंगला साहित्यिक संस्था एटा के तत्वावधान में ऑनलाइन  साहित्यिक परिचर्चा के क्रम में  शनिवार 11 जुलाई 2020 को राष्ट्रकवि उमाशंकर राही वात्सल्य धाम वृन्दावन के संयोजन व संचालन में मुरादाबाद के ख्याति लब्ध कवि व पुरातत्व वेत्ता स्वर्गीय श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के कृतित्व व व्यक्तित्व पर परिचर्चा आयोजित की गयी। मुख्य अतिथि  मथुरा के वरिष्ठ साहित्यकार डा. रमाशंकर पाण्डेय तथा विशिष्ट अतिथि मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी रहे ।अध्यक्षता एटा के वरिष्ठ समालोचक व चिन्तक आचार्य डा. प्रेमीराम मिश्र ने की।
 
संस्था के संस्थापक कवि बलराम सरस ने सभी आगन्तुक अतिथियों व वक्ताओं का स्वागत करते हुए संस्था की गतिविधियों और आयोजन की रूपरेखा पर प्रकाश डाला।
संयोजक उमाशंकर राही ने श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र का परिचय दिया।उन्होंने बताया कि सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को मुरादाबाद जिले के चन्दौसी में हुआ था। वह बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। मात्र चौदह वर्ष की अवस्था में ही आपका दार्शनिक गीतों का पहला संग्रह 'मधुगान' पूर्ण हो गया था। 15 अप्रैल 1955 में शादी के दूसरे दिन ही मिश्र जी ने संग्रहालय की स्थापना की।फक्कड़ स्वभाव के व्यक्ति थे मिश्रा जी। झोला डालकर निकल पडते थे पुरातात्विक चीजों को ढूंढ़ने। मंचो पर बेशक हास्य कवि के रूप में विख्यात थे किन्तु वह मूलतः गीतकार थे।
मुख्य वक्ता चन्दौसी के श्री अतुल मिश्र ने  श्री सुरेन्द्र मोहन के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि सुरेन्द्र मोहन मिश्र का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि मुरादाबाद के विशाल कवि सम्मेलन में प्रख्यात ओजस्वी कवि बालकवि बैरागी ने कहा था "मैं या मालवा का कोई कवि जब चन्दौसी के स्टेशन से गुजरता है तो सबसे पहले इस पावन धरती की मिट्टी को अपने माथे से लगाता है। जानते हो क्यों? क्योंकि उस सुरेंद्र की धरती है जिसने खुद जलकर सैकड़ों दियों को रोशनी दी है।" हास्यकवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र कवि साहित्यकार के अतिरिक्त पुरातत्ववेत्ता भी थे।उनका पहला पुरावशेष एक हस्तलिखित ग्रन्थ था जो वे मुरादाबाद के एक पुराने कुएं से निकाल कर लाए थे।इसके बाद तो प्रागमौर्य, मौर्य,गुप्त और कुषाण कालीन पुरावशेष उन्हें आकर्षित करने लगे। कवि सम्मेलन से लौटने के पश्चात वह खंडहर ,वीरानों और प्राचीन टीलों से पुरावशेष एकत्रित करने निकल पड़ते थे।
 मुरादाबाद के  वरिष्ठ साहित्यकार डा. मनोज रस्तोगी ने  श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के जन्म, शिक्षा व काव्ययात्रा पर विस्तार से प्रकाश डाला।उन्होंने बताया  कि सुरेन्द्र मोहन की पहली कवित्रा मात्र सोलह वर्ष की उम्र में दिल्ली के दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई थी।व्यवसायी पिता लक्ष्मी उपासक थे और वह सरस्वती उपासक ।पिता पुत्र में यही वैचारिक संघर्ष रहता था।1951 में उनका पहला संग्रह मधुगान 1955 में कल्पना कामिनी प्रकाशित हुए।इसके बाद वह पुरातत्व के क्षेत्र में आ गये।उन्होंने ग्रन्थों को शोध का विषय बनाया।उन्होंने एकांकी नाटक भी लिखे।
 कवि मंजुल मयंक (फीरोजाबाद) ने सुरेन्द्र मोहन मिश्र के साथ काव्यमंचो की यात्रा के संस्मरण ताजा किये।मंजुल ने बताया एक दम गोरा चिट्टा चेहरा, छरहरा वदन ,खूबसूरत बोलती हुई आंखें ऐसा चमत्कारी व्यक्तित्व था उनका।
नई दिल्ली की आशा दिनकर आस ने कहा  एक महान गीतकार, शानदार कवि, पुरातत्ववेत्ता की जीवनी से परिचित कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आदरणीय सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी की अद्भुत लेखन शैली और देश की प्राचीन धरोहरों की सुरक्षा के लिए  किये गए अनन्य प्रयासों को सादर नमन ।
गाजियाबाद की कवियत्री सोनम यादव ने कहा कि साहित्य के साधक, प्रकृति के चितेरे, अद्भुत व्यक्तित्व के धनी आदरणीय श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी को जानकर, पढकर बहुत अच्छा लगा ऐसे अविस्मरणीय चरित्र हमारे पथ प्रदर्शक है हम उस परंपरा के अनुयायी हैं यह सब सोच कर ह्रदय रोमांचित हो जाता है
 नोएडा के साहित्यकार डा. सतीश पाठक ने भी अपने संस्मरण साझा करके जहां अपनी स्मृतियों को ताजा किया वहीं स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्त्व पर भी रोशनी डाली ।
     
 मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डा. रमाशंकर पाण्डेय (मथुरा)ने कहा कि हास्य की रसधार बहाने वाले हास्यावतार सुरेन्द्र मोहन मिश्र गीतकार भी अच्छे थे।सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने हास्य का विषय बनाया।कम शब्दों में बहुत कुछ कह देना श्रोताओं को तरंगायित कर देना यह उनकी विशेषता थी।वे श्रोता को सीधे कविता से जोड़ते थे। उनके प्रभाव शाली व्यक्तित्व का असर उनकी कविताओं में भी दिखता था।
अध्यक्षीय उद्बोधन में आचार्य डा. प्रेमीराम मिश्र ने कहा -प्रगति मंगला साहित्यिक मंच देश के चर्चित सुविख्यात कवियों पर परिचर्चा आयोजित कर सराहनीय कार्य कर रहा है। इसी क्रम में स्व. श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व व कृतित्व पर चर्चा कर उन्हें नयी पीढ़ी के साहित्कारों व कवियों से परिचित कराया है। सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी जैसे पुरातात्त्विक चेतना से संगुफित कवि की कालजयी स्मृतियों को साकार करने का सुअवसर मिला।मैं यह जान कर आश्चर्यचकित हूं कि एक हास्य व्यंग्य का कवि पुरातात्विक जिज्ञासा का इतनी अधिक दीवानगी के साथ जीवन भर निर्वाह करता रहा। काव्यनाटक के अतिरिक्त उनकी पुरातात्विक महत्व की दुर्लभ 60पाण्डुलिपियाँ उनके कृतित्व का प्रमाण है।
अन्त में संस्था की पटल प्रशासक व साहित्यकार श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ गुना (मध्य प्रदेश) ने सभी आगन्तुकों का आभार व्यक्त किया।
             

शनिवार, 11 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उनके सुपुत्र अतुल मिश्र का आलेख------" कभी नहीं मर सकते मेरे पापाजी" !!



 
"मैं या मेरे मालवा का कोई कवि जब चंदौसी के स्टेशन से गुज़रता है, तो वह सबसे पहले इस पावन धरती की मिटटी को अपने माथे से लगाता है !! जानते हैं क्यों ?? क्योंकि यह उस 'सुरेन्द्र' की धरती है, जिसने खुद जलकर सैकड़ों दीयों को रोशनी दी है !!"
आज से क़रीब पचास साल पहले हमारे नगर के एक विशाल कवि-सम्मलेन में प्रख्यात ओजस्वी कवि श्री बाल कवि वैरागी जी ने जब ये शब्द कहे, तो एक बाल-श्रोता के रूप में मैं सिर्फ़ सोचता रह गया ! क्या मैं वाकई इतने महान पिता का पुत्र हूँ ? बस, उसी दिन से मुझे अपने पापाजी को समझने की जिज्ञासा तीव्र हो गयी थी ! अपने असामान्य कार्यों की वजह से वे मुझे कभी इस गृह के प्राणी नहीं लगे !
हमारी दादी जी बताती थीं  कि "उनके पैदा होते ही ज्योतिषियों ने कह दिया था की यह बच्चा असाधारण है और ऐसे विचित्र काम करेगा, जो दुनिया के लिए असाधारण होंगे ! हो सकता है कि यह सन्यासी हो !!" इस बात ने हमारे बाबा साहब की चिंता को और बढ़ा दिया और वे तमाम ऐसे यत्न करने लगे कि उनके इस बेटे को इस दुनिया से विरक्ति ना हो ! वे एक बेहद कलाप्रेमी, मगर कुशल व्यापारी थे और अपने बेटे से भी यही अपेक्षा रखते थे !
छात्रावस्था तक पापाजी ने खूब काव्य-लेखन किया ! अपने दार्शनिक गीतों का पहला संग्रह- 'मधुगान' उन्होंने चौदह वर्ष की आयु में पूर्ण किया ! 15 अप्रैल 1955 में पापाजी की शादी की गयी कि वे वैराग्य और दर्शन से दूर रहें ! शादी के ठीक दुसरे दिन से उनके जीवन में चमत्कार होने शुरू हो गए ! बचपन में जिन दुर्लभ और प्राचीन चीजों को वे अपनी इतिहास की किताबों में सिर्फ देखते थे, उन्हें पाने की उनकी लालसा पूरी हुई !
शादी के दूसरे दिन से ही उनके संग्रहालय की स्थापना हुई और बकौल, पापाजी- "ऐसा लगा, जैसे मेरे सारे सपने पूरे होने को हैं !!" पहला पुरावशेष एक हस्तलिखित ग्रन्थ था, जो वे मुरादाबाद के एक पुराने कुऐं से निकालकर लाये थे !!
इसके बाद तो प्रागमौर्य, मौर्य, गुप्त और कुषाण कालीन प्राचीन पुरावशेष जैसे उनको निमंत्रित करने लगे और फिर वे कवि-सम्मेलनों से लौटकर खंडहर, वीरानों और प्राचीन टीलों से पुरावशेष एकत्रित करने निकल पड़ते थे !
प्रख्यात कवि डा.हरिवंशराय बच्चन जी पापाजी की पुरातात्विक खोजों के बारे में तब अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते थे और एक युवा कवि द्वारा किये जा रहे अद्वितीय कार्यों से प्रभावित होकर वे दो बार चंदौसी भी आये ! पापाजी के जीवन से प्रभावित होकर वे हमेशा उनसे अपने पुरातात्विक संस्मरण लिखने को कहा करते थे ! उन्हें एक कल्पनाशील कवि का तथ्यपरक पुराविद होना कुछ दुर्लभ लगता था ! लेकिन पापाजी को इतना वक़्त भी कभी नहीं मिला कि वे अपने जीवनकाल में ऐसा कर पाते ! अपने अंतिम दिनों में वे मुझसे यह कहने लगे थे कि "मेरे बाद तुम मेरे संस्मरण ज़रूर लिखना !" उनके जाने के बाद से में खुद को तैयार कर रहा हूँ कि मैं ऐसा करके उनकी और बच्चनजी की यह इच्छा पूरी कर सकूं !
"मैंने इसे अपनी इच्छा-शक्ति से बनाया है," जैसे वाक्य जब पापाजी मेरे बारे में अपने मित्रों से कहते थे, तो मैं सोच में पड़ जाता था ! क्या वाकई मैं उन्हें देखकर इतना मन्त्र-मुग्ध रहता था कि उनके बताये रास्ते पर ही चलने को बाध्य था ?? वे एक चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी थे ! अधखुले नेत्र, उन्नत ललाट, इत्रयुक्त कुरता-पाजामा और मस्ती वाली चाल उनकी ख़ास पहचान थी ! शायद यही वजह थी कि रास्ता चलते सन्यासियों को भी मैंने उनके पैर छूते देखा था ! मैं आज भी उनको शरीर के रूप में नहीं देखता हूँ !
वे एक ऐसी आत्मा हैं, जो अभी भी अपने संग्रह के आसपास ही हैं ! एक ऐसा संग्रह, जिसे देखकर विद्वान् इसे देश का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह मानते थे, मगर सन 2008 में NMMA ( National Mission For Manuscript And Antiqueties ) द्वारा किये गए सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर मैं आज इसे दुनिया का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रह मानता हूँ ! उनके इस संग्रह में ईसा पूर्व 4000 से लेकर ब्रिटिश और मुगलकाल तक के दुर्लभ पुरावशेषों की कुल संख्या किसी भी संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं से अधिक ही निकलेगी ! पापाजी के नाम से एक संग्रह विश्व प्रसिद्द रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में भी प्रदर्शित है !
पापाजी को हमने घर पर बहुत कम देखा था ! कवि-सम्मेलनों से लौटने के बाद वे अपनी यात्राओं पर निकल पड़ते थे ! अनजान बीहड़ों में उन्होंने हज़ारों किलोमीटर की यात्राये पैदल और साइकिलों से पूरी कीं ! रूहेलखंड के पांच जिलों के सैकड़ों प्राचीन ध्वंसावशेष उन्होंने पहली बार इस दुनिया के लिए खोज निकाले ! 35-40 वर्षों तक उनका यह क्रम चलता रहा ! प्राचीन इतिहास में एम.ए. करने के बाद इन पुरावशेषों में मेरी दिलचस्पी तेज़ी से बढ़ने लगी और अखबारों को साप्ताहिक लेख लिखने का मैटर भी मुझे मिल गया ! बचपन में जो काम मुझे फालतू के लगते थे, उनका अध्ययन और मनन शुरू हो गया ! पीएचडी के लिए शोध-कार्य भी बहुत किया, मगर दिल्ली की पत्रकारिता के चक्कर में वह अधूरी रह गयी !
 
बचपन में हम देखते थे कि पुरातत्व के विद्वान्, राजनेता और बड़े अधिकारी पापाजी से मिलने आते ही रहते थे ! डा.वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. कृष्णदत्त वाजपेयी, डा.रमेश चन्द्र शर्मा, कैप्टन शूरवीर सिंह जैसे बहुत से नाम मुझे आज भी याद हैं ! सबसे बड़ी बात यह थी कि पापाजी को प्राचीन अज्ञात कवियों को खोजना और उन पर अपने लेख लिखने का बहुत शौक था ! वे सुबह ठीक चार बजे उठा जाया करते थे और फिर शाम तक उनका निर्वाध लेखन चलता था ! कवि-सम्मलेन और यात्राएं कम करने के बाद क़रीब 25 वर्षों में उन्होंने दुर्लभ विषयों पर 60 से अधिक पुस्तकें पांडुलिपियोँ के रूप में तैयार कर दीं ! मैं अब जल्दी ही इनके प्रकाशन की व्यवस्था करवा रहा हूँ !
लिखने को तो पापाजी के बारे में इतना है कि मैं इस जन्म में तो पूरा नहीं लिख पाऊंगा ! हाँ, इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि हमारा यह देश इस मामले में  दुर्भाग्यशाली है कि हम किसी भी प्रतिभा को तभी समझना शुरू करते हैं, जब वह हमारे बीच अपने अनुभव बांटने के लिए मौजूद नहीं रहती ! पापाजी के तमाम कार्यों का सही मूल्यांकन किया जाए, तो दुनिया में कोई दूसरा ऐसा पुरातत्ववेत्ता पैदा नहीं हुआ, जिसने इतना विशाल संग्रह किया हो और जो कवि, लेखक और एक अच्छा इंसान भी हो ! मेरे पापाजी कभी नहीं मर सकते, यह विश्वास मुझे इसलिए भी होने लगा है कि आज नहीं तो कल लोग जब उनके कार्यों को देखेंगे तो दांतों तले उंगलियाँ दबा लेंगे ! यह मैं कह रहा हूँ, क्योंकि मैं उनके कार्यों की गहराई और उपयोगिता से अच्छी तरह परिचित हूँ ! वे आज भी मेरे आसपास ही हैं, क्योंकि वे कभी मर ही नहीं सकते !



अतुल मिश्र
श्री धन्वंतरि फार्मेसी,
मौ. बड़ा महादेव
चन्दौसी
जनपद सम्भल

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की कहानी ------ सुकून की तलाश

   
                                                                    शाहिना, "मैं तुम्हारी रोज रोज की चख चख से तंग आ गया हूं। मै तुम्हे कितनी बार बता चुका हूं। कि मै बाहर नही जाऊंगा। अपने देश मे ही रहूंगा। फिर हमारा यहां भी अच्छे से गुजारा हो ही रहा है। खुदा ने हमे सब कुछ तो दिया है। अपना मकान है दोनों वक़्त चैन से खाना मिल रहा है।  हमारे अपने सब यहीं है। यह हमारा वतन है हम यहां से कही बाहर नही जाएंगे"। दानिश की बात खत्म हुई तो शाहिना ने फिर कहना शुरू कर दिया -"देखिये जी, यहां रहकर आपने अभी तक क्या कर लिया। अभी तक मकान पर प्लास्टर तक नही करा पाये। यहां दस हजार की मास्टरी में क्या कर लेंगे। फिर अपनी रूबी भी अब दस साल की हो गई है। आठ साल बाद उसकी भी शादी करनी है। पड़ोस की सफिया को देखिये बेटी की कैसी धूमधाम से शादी की है इतना दान दहेज दिया है। कि अभी तक मोहल्ले में चर्चा है। हर बाराती को भी पांच- पांच हजार के गिफ्ट दिए है ।उनकी पूरी फैमिली दस साल से अमेरिका में है। अगर आप भी कनाडा चले गये होते तो हमारे पास भी आज सब कुछ होता। मेरे भाई तो आपको बुला ही रहे थे अपने मोहल्ले की कितनी फैमलिया विदेश में है। कोई इंग्लैंड कोई दुबई कोई जर्मनी तो कोई फ्रांस में है सबके कैसे ठाट- बाट है साल दो साल में जब भी कोई फैमिली यहां आती है तो उनके ठाट- बाट के सामने मैं शर्मिंदगी महसूस करती हूं। कितनी कीमती और आधुनिक ड्रेस पहने होती है उनकी बीवियां और सोने से तो वह लधी हुई होती है । देखिये, मै अपने चचेरे भाई से बात करती हूं वह आपको अमेरिका का वीजा भेज देगा। आप इस बार अपने स्कूल के मैनेजर से साफ कह दीजिये की इस सेशन के बाद आप उनके यहां नही जाएंगे वो किसी और का इन्तज़ाम कर लें"। शाहिना की बाते सुनकर दानिश को उलझन होने के साथ गुस्सा भी आ रहा था। लेकिन वह घर को जहन्नुम नही बनने देना चाहता था इसी लिये सब सहन कर रहा था। लेकिन बार बार अपना फैसला शालीनता के साथ सुना देता था कि - "वो अपने मुल्क से बाहर नही जायेगा"। दानिश और शाहिना की बाते चल ही रही थीं कि डोर बैल बजी एक बारगी तो दोनों ने सुनकर अनसुना कर दिया लेकिन जब दो तीन बार बैल बजी तो दानिश गुस्से से कौन है भई! कहता हुआ पहुँच गया दरवाजे पर सूटबूट पहने आंखों पर कीमती चश्मा चढ़ाये अमेरिकन अटैची हाथों में लिये एक व्यक्ति खड़ा था ।दानिश ने हैरत से उसे देखा तो वह व्यक्ति बोल पड़ा- "अरे दानिश!  मुझे नही पहचाना? मैं, तेरा बचपन का दोस्त आबिद। अबे, हम दोनों साथ साथ पढ़ते थे। साथ साथ खेलते थे। बागों में कैसी मस्ती करते थे। लड़कियों को इम्प्रेस करने के लिये कैसे- कैसे हतकण्डे अपनाते थे।"  अबे आबिद? तू, कहते हुए दानिश ने उसे खुशी से गले लगा लिया। 'चल अंदर आ' कहते हुए वह उसे घर के अंदर ले आया शाहिना दोनों को हैरत से देख रही थी उसे हैरतजदा देखकर दानिश ने कहा- "शाहिना, यह मेरा बचपन का दोस्त आबिद है ।हम दोनों बरेली में साथ साथ पढ़ते थे। बाद में इसके मामा ने इसे इंग्लैंड बुला लिया और मै पापा के रिटायरमेंट के बाद यहां रामपुर आ गया।" आओ आबिद, थक गये होंगे फ्रेश हो लो। शाहिना, 'तुम फटाफट चाय बनाओ' आबिद फ्रेश होकर आया तो सबने साथ बैठकर चाय पी दानिश ने शाहिना से उसका परिचय कराते हुए कहा कि - "यह मेरी बीवी है शाहिना और यह मेरी बेटी रूबी और यह मेरा बेटा मूनिस"।  आबिद ने एक निगाह शाहिना पर डाली और उसकी खूबसूरती को देखता ही रह गया दानिश ने उससे मजाक करते हुए टोका "अबे नियत खराब मत करना मेरी एक ही बीवी है" आबिद ने हाऊ स्वीट! कहते हुए दानिश की ओर देखते हुए कहा- "यार तू बड़ा नसीब वर है कि तेरी इतनी खूबसूरत बीवी और बच्चे है"। शाहिना ने शरमाकर नज़रे नीची कर ली "अब तू बता तेरी बीवी कैसी है, कितने बच्चे है।" दानिश ने आबिद से पूछा आबिद ने गहरी सांस लेते हुए कहना शुरू किया - "यार, विदेश जाकर मैंने पैसा जरूर कमाया मगर फैमिली का सुकून मुझे नही मिला।  मामा ने मेरी शादी लखनऊ की एक फैमिली की लड़की  रेहाना से कराई थी पाश्चातय सभ्यता में ढली रेहाना शादी के बाद से ही मुझसे बात- बात पर झगड़ा करती मेरी कोई बात नही मानती थी। नाईट क्लबो में जाना उसका रोज का शगल बन गया था एक साल में ही उसने मुझे छोड़कर एक जर्मन से शादी करली। मैने दूसरी शादी सुरैय्या से की उससे मेरे एक बेटी हुई लुबना  मैं पैसा कमाने और बीवी की फरमाइशें पूरी करने में लगा रहा। लुबना की तरफ ध्यान ही नही दे पाया और उसने एक अंग्रेज से शादी कर ली मैंने सुरैय्या को इसका दोष दिया तो वह भी मुझसे लड़कर चली गई लुबना ने भी मुझे दकियानूसी सोच का बताते हुए मुझसे सम्बन्ध तोड़ लिया। मै कई वर्षों से वहाँ अकेला रह रहा था अकेला पन मुझे जब बहुत खलने लगा तो मै 'सुकून की तलाश' में अपने वतन लौट आया यहां लोगो मे प्यार है। अपनापन है। वहाँ जैसी खुदगर्ज़ी नही है। यहां मेरे बीवी बच्चे न सही रिश्तेदार तो है सच है यार, अपना देश अपना होता है यहां की मिट्टी की खुशबू में भी अपनेपन का एहसास होता है। तू बहुत खुशनसीब है यार, तेरी प्यारी सी फैमिली है।  काश! मुझे पहले यह बात समझ मे आ जाती की जिंदगी में पैसा ही सब कुछ नही होता।  तो आज मेरी भी फैमिली होती और मै भी सुकून की जिंदगी जी रहा होता।"  शाहिना हैरत से  आबिद की बातें सुन रही थी और उसके जाने के बाद शाहिना दानिश के कंधे पर सर रखे कह रही थी -'दानिश, तुम्हारे दोस्त ने मेरी आँखें खोल दी है। अब मै कभी तुमसे बाहर जाने को नही कहूंगी। हम यही रहकर अच्छे से अपने बच्चो की परवरिश करेंगे।'  दानिश ने प्यार से शाहिना के सर पर हाथ फेरा तो निदामत से उसकी आँखों से आंसू बह निकले।

कमाल ज़ैदी "वफ़ा"
सिरसी( सम्भल)
9456031926

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

रामपुर के साहित्यकार राम किशोर वर्मा की कहानी ------कहानी का प्रभाव


 "शैतान सिंह आज मैंने अजीब कहानी पढ़ी ।" - मनुज ने पार्क में टहलते हुए बात करना शुरू किया ।
      "कैसी कहानी? " -शैतान सिंह ने जिज्ञासा भरे स्वर में कहा - " चल कहानी सुना।"
        मनुज ने टहलते हुए कहानी कहना शुरू की और बोला समाज को क्या परोस रहे हैं आज के लेखक - " एक वरिष्ठ नागरिक युगल घर में अकेले रह रहे थे क्योंकि उनका पुत्र अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ नौकरी करने के कारण बाहर बड़े शहर में रह रहा था । पुत्री का विवाह कर दिया था।
     सुबह दूध वाला आया और उसने दरवाजा खटखटाया । घंटी बजायी मगर दरवाजा नहीं खुला तो उसने पड़ौसी से पूंँछा कि आज बहुत देर तक घंटी बजाने के बाद भी दरवाजा नहीं खुल रहा है। जबकि खिड़कियांँ खुली दिख रही हैं ।
     पड़ौसी ने बताया कि मैंने तो रात नौ बजे बात की है । कहीं जाने के बारे में भी नहीं बताया था उन्होंने।
      पड़ौसी ने भी घंटी बजायी और आवाज भी लगायी । मगर कोई उत्तर नहीं मिला ।
       पड़ौसी ने अपने आसपास के कई लोगों को दरवाजा न खोलने के बारे में बताकर उन्हें भी बुला लिया । सभी ने संशयभरी आवाज़ लगाई । मगर अंदर से कोई उत्तर नहीं मिला।
     सभी ने एक राय होकर जैसे-तैसे दरवाजा खोला तो अंदर देखकर सब भौंचक्के रह गये। दोनों अलग-अलग कमरों में लहूलुहान मृत पड़े थे। घर का सामान यथावत रखा हुआ था। कुछ भी बिखरा हुआ नहीं था। सभी के मुंँह से यही निकला कि किसी ने बेरहमी से हत्या की है।
यह तो भले लोग थे । इन्होंने कभी ऊंँची आवाज़ में बात तक नहीं की किसी से । इनका कौन शत्रु हो सकता है?
      सबसे पहले पड़ौसियों ने उनके बेटे को मोबाइल से घटना की सूचना दी । फिर पुलिस को सूचना दी गई । पुलिस ने घटनास्थल का निरीक्षण करके अपना मत बताया कि यह किसी नज़दीकी या रिश्तेदार का ही काम हो सकता है क्योंकि अलमारी वगैरह का कोई ताला नहीं टूटा था और सब कुछ यथावत रखा हुआ था।
     ड्राइंगरुम में रखे चाय के खाली कप और मीठा-नमकीन से पुलिस की जांँच में यह निश्चित हो गया कि यह किसी घनिष्ठ परिचित या रिश्तेदार का ही काम है जो रात को यहां आया होगा ।
     बेटे ने भी किस से भी दुश्मनी न होना पुलिस को बताया ।
      पुलिस का शक सही निकला । जांँच -पड़ताल में सगे दो भतीजों का हत्या में लिप्त होना पाया गया । दोनों बेरोज़गार थे। पढ़े-लिखे थे। पिता की इतनी हैसियत नहीं थी कि वह कोई दुकान ही करवा देते । ताऊ मालदार और जमीन-जायदाद वाले थे । उनके बेटे ने बड़े शहर में रहकर अपना फ्लैट खरीद लिया था । यही लालच भतीजों को हत्या करने के लिए प्रेरित किया । दोनों पकड़े गए और जेल में डाल दिये गये । और कहानी यहीं खत्म हो गयी ।
   शैतान सिंह बोला -  "सही तो लिखी है कहानी। जो समाज में घटित हो रहा है वही लेखक ने लिखा है। इसमें समाज को परोसने जैसी तुम्हें क्या बात लगी?"
  मनुज बोला - "बेरोजगार भतीजों द्वारा लालच के वशीभूत होकर अपने सगे ताऊ की हत्या करने का संदेश समाज में क्या प्रभाव छोड़ेगा?" सोचो शैतान सिंह ।
 मनुज ने कहा -" मेरी राय में ऐसी कहानियांँ नवयुवकों पर अच्छा प्रभाव नहीं ड़ालतीं । हो सकता है बहुत से शातिर युवक इससे प्रेरित होकर किसी और तरीके से इसी राह पर चल पड़े तो क्या होगा?"
 शैतान सिंह बोला - "तेरी सोच ही अलग है मनुज । समाज के सामने वह भी आना चाहिए जो समाज में हो रहा है । उसका प्रभाव बाद की बात है ।"
   मनुज ने कहा इस बात को समझने के लिए एक और कहानी सुन - "हमने एक कहानी अपने कोर्स में पढ़ी थी । एक बाबा थे। उनके पास एक घोड़ा था । घोड़ा बहुत तेज दौड़ने वाला अच्छा स्वस्थ था। डांँकुओं को घोड़े की प्रसिद्धि पता थी । डांँकुओं ने बाबा से घोड़ा लूटने की योजना बनाई ।
   एक दिन बाबा घोड़े पर सवार होकर जंगल से गुज़र रहे थे। रास्ते में एक डांँकू लेटकर लोटपोट होकर कराहने लगा । बाबा ने घोड़ा रोक कर डांँकू से पूंँछा - "क्या तकलीफ़ है?" तभी डांँकू उत्तर देने की बजाय उठा और झपट कर घोड़े पर सवार होकर घोड़ा ले उड़ा । बाबा देखते रह गए ।
   जैसे-तैसे बाबा अपने आश्रम पहुंँचे । साथ में घोड़े के न होने का कारण बाबा जी ने चेलों को बताया कि डांँकू घोड़ा छीनकर ले गये । यह नहीं बताया कि मैंने उसकी तबियत खराब देखकर उसकी मदद के लिए घोड़ा रोका था । यह भी इसलिए नहीं बताया कि लोग सड़क पर पड़े किसी वास्तविक तबीयत खराब पड़े व्यक्ति की मदद करना छोड़ देंगे ।"
 मनुज ने शैतान सिंह से पूंछा -"अब भी समझा बाबाजी का उद्देश्य या नहीं?"
   इसीलिए मैं भी कहता हूं कि समाज में ऐसी घटनाएं होती तो हैं पर उनको समाज में नहीं परोसना चाहिए । इससे समाज पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता ।
  शैतान सिंह बोला -" पर ऐसी घटनाओं को इस प्रकार लिखना चाहिए जिससे समाज को लगे कि ऐसा करने से भला होने वाला नहीं है।"
    मनुज शैतान सिंह की बात पर जोर से हंँसा और बोला -" बहुत टहल हो गयी । अब घर चलें।"
       
राम किशोर वर्मा
रामपुर
         

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की कहानी ------बदलाव


       सुधीर बाबू- हैलो.... राजू ,काका (माखन लाल) कहां है.. बात करा , उनकी तबीयत तो ठीक है ना। आज पार्क में भी टहलने नहीं आए।।
राजू - जी साहब मैं बाबूजी को आपके कॉल का बता कर आ रहा हूं ,पर साहब सुबह से बाबूजी ने अपने कमरे का दरवाजा नहीं खोला है।
राजू थोड़ी देर बाद आकर फोन उठाया
और बोला
साहब, बाबूजी का कमरा अंदर से बंद है,काफी दरवाजा खटखटाने पर भी कोई सुगबुगाहट नहीं......जाने क्या हुआ... दरवाजा नहीं खोल रहे हैं । साहब आप आ जाए ,मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।मुझे तो  डर लग रहा है ।
सुधीर बाबू- राजू तुमको याद है, कुछ हुआ हो तो बता....। राजू - बस ,सुबह राहुल भैया का बाबूजी के पास फोन आया और फिर बाबूजी बहुत तेज चिल्ला चिल्ला कर बात कर रहे थे। मानो नाराज हो रहे हो भैया पर।
राजू तू डर मत मैं आ रहा हूं ।
राहुल माखनलाल का इकलौता बेटा है और अपने जॉब की वजह से जम्मू में ही रहने लगा था। माखन लाल कभी-कभी उसके पास आते जाते रहते थे। दो घर छोड़कर ही सुधीर बाबू का भी घर था और माखनलाल और सुधीर बाबू दोनों ही कॉलेज के समय से ही पक्के दोस्त हैं। रिटायरमेंट के बाद दोनों ने आसपास ही घर बना लिया।
जैसे ही सुधीर बाबू घर आए राजू को दरवाजे पर बैठा हुआ पाए।
तेजी से सुधीर  बाबू माखन के कमरे की ओर गए और दरवाजे को जोर जोर से खटखटाया ,पर अंदर से कोई आवाज नहीं आने पर राजू और सुधीर बाबू ने मिलकर दरवाजे को तोड दिया । सामने पंखे से लटके माखनलाल ......माखन...कहते हुए दौड़कर गोद में सुधीर बाबू ने उठा लिया और माखन को  सहारा दिया। राजू और सुधीर बाबू  ने मिलकर माखन बाबूजी को  नीचे उतारा। माखन लाल की सांसे चल रही थी ,मानो आत्महत्या की कोशिश थोड़ी देर पहले की गई हो ...राजू दौड़ कर रसोई से पानी लेकर आया , बाबूजी को पानी पिलाकर ,आंखों पर पानी कि  छिंट मारी। सुधीर बाबू उनके सिरहाने बैठ गए और राजू पैर के पास...बिछावन के नीचे।
कुछ 15 मिनट बाद बाबूजी रोते रोते बैठ गए और सुधीर को जोर से से गले लगा कर फुट  फुट कर रोने लगे ।सुधीर बाबू ने राजू की तरफ इशारे में कमरे से बाहर चले जाने को कहा। क्या हुआ ....माखन ,क्या बात हो गई ....बच्चे की तरह क्यों हो रहा है ,बात बता । माखन - राहुल ने शादी कर ली है और वो भी दूसरे जाति की लड़की के साथ और शादी के बाद मुझे फोन करके बताया। मेरी सारी आज तक की इज्जत उसने एक झटके में खत्म कर दिया,...दोस्त। क्या शक्ल लेकर  मैं तुझसे मिलने आता,कैसे अब बाहर घूम सकता हूं। आज तक सर उठा कर जिया हूं ।पर,राहुल ने सब खत्म कर दिया । अब सगे संबंधियों को भी क्या जवाब दूंगा।लोगों के ताने सुनने पड़ेंगे। उसके मां के बाद इसे मा बाप दोनों का प्यार  दिया है मैंने। जाने क्या कमी रह गई। तू ही बता दोस्त ,मरू नहीं तो और क्या करू।
सुधीर ने माखन से-  अगर तू मुझसे पूछ रहा है तो मै बोलता हू।  तू तो पहले कहानी में  या फिल्मों में अगर ऐसा कुछ पढ़ते या देख लेते थे तो बुरा नहीं मानते थे। खुद ही कहते थे कि जात पात से हमें ऊपर उठकर अब सोचना है ,जीना है । अब फिर ...अब ऐसा क्यों ...क्यों? क्यों इस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पा रहे हो। घर की बहू है  वो और मुझे भरोसा है,जैसा राहुल पढ़ा लिखा है.. लड़की भी पढ़ी लिखी होगी ,संस्कारी होगी ।जाओ मिलो और अपनाओ उनको।  एक नई रोशनी फैलाओ और एक नया उदाहरण पेश  करो । पता है माखन -  *हमें बदलाव* *पसंद है पर अपने घर से* *नहीं* ...बस यह सुनते ही माखन के अंदर हिम्मत आ गई......, आंखों में एक बदलाव से लड़ने की हिम्मत । और सुधीर ने एक बात और कहा -  दोस्त माखन याद है मुझे (अच्छी तरीके से ) पार्क में तुमने ही अभिनेता  सुशांत कि  आत्महत्या पर कहा था, जिंदगी में  कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं जिसका  आत्महत्या  उपाय हो.... फिर अपनी बात से तुम कैसे पलट सकते हो? जो आदर्श तुमने मानसिक स्तर पर रखे है,उसे वास्तविक भूमि पर भी फलीभूत करों,दोस्त....

प्रवीण राही
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी------ - कुत्ते


               वो चार थे । बड़े - बड़े , भारी बदन के , रोज  चौराहे के पास खड़े मिलते थे । दूर से आते जाते  दिख जाते थे , अक्सर मैं कतरा कर निकलने की कोशिश करती पर सामना हो ही जाता था । नज़र पड़ते ही पूरे शरीर में एक अजीब सी कंपक॔पी सी छिड़ जाती थी । उनकी लाल - लाल आँखों से हर वक्त वहशत टपकती रहती थी । ऐसे घूरते थे मानों मौका पाते ही झपट पड़ेंगे ।
          मैं बेज़ार आ चुकी थी , दिन - रात ऐसे दहशत के साथ भी कोई  कैसे जी सकता था । बाहर आना - जाना तो लगा ही  रहता था ,  पर हर बार अगर खौफ ही मन पर छाया रहे तो हिम्मत टूट जाती थी । अक्सर मैं काम टाल जाती , कुछ बहाने बनाती , कभी - कभी तो झूठ का भी सहारा लिया की बाहर जाने से बच जाऊँ  । पर मजबूरी थी , इस मोहल्ले में आए अभी कुछ ही वक्त हुआ था । पति सुबह के निकले रात गए घर घुसते थे । पीछे रह जाते मैं , माँ जी और मेरा छोटा सा बेटा । अब घर बाहर की सारी जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर थी । ऐसे में इन चारों का , हर वक्त का सामना मेरी नींदें उड़ा रहा था ।
       पति बेचैनी से करवट बदलते देखते तो पूछते - " क्या परेशानी है ?"    "क्या नए घर में मन नहीं लग रहा ?"      "अब तुम्हारी ही ज़िद थी इस मौहल्ले में आकर रहने की , थोड़ा वक्त गुज़र जाने दो , अभ्यस्त हो जाओगी ।" ऐसे में मैं उन्हें क्या बताती ।
       पर एक दिन मैं हिम्मत हार गई , राशनवाले से रोजमर्रा का सामान लेकर घर की तरफ बढ़ी ही थी कि उनमें से एक पीछे - पीछे चल पड़ा , मैंने कदम तेज़ कर दिए । दो चार कदम बाद लगा कि सारे के सारे हैं , बस मेरी घिग्घी बँध गई । तेज़ - तेज़ चलने के कारण साँसें उखड़ रहीं थीं , टाँगें काँप रहीं थीं पर घर की चौखट आने तक मैं थमी नहीं । माँ जी दरवाज़ा खोलने को आईं  तो उन्हें लगभग ढकेलते हुए अंदर किया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया । वो मेरी हालत देखकर बाहर झाँकने को हुईं तो मैंने चिल्लाकर कहा  "नहीं माँ दरवाजा मत खोलना बाहर वो चारों  ...........।" बेचारी माँ जी मेरी घबराहट को देख सकपका कर रुक गईं । गहरी आँखों से मुझे देखती हुई मेरे  लिए पानी लेने चली गईं । मैंने सोफे पर बैठ सिर पीछे टिका लिया ।
     "पानी ले - ले बिटिया ", माँ  का स्पर्श कंधे पर पाते ही सब्र का बाँध टूट गया । मैं रोती रही और वो सहलातीं रहीं । ना कोई प्रश्न किया,  ना ही कुछ पूछा , मानो स्वयं ही सबकुछ समझ गईं ।
        रात को पतिदेव कुछ पल माँ जी के साथ जरूर बिताते थे , उनके कमरे से लौटे तो चिंतित स्वर में बोले - " तुम्हें मुझे जरूर बताना चाहिए था ।"  "जानती तो हो आजकल शहर का हाल ।"    "कोई भी जगह शरीफों के रहने लायक नहीं रह गई ।"  "अब अपनी इज्जत अपने हाथ है ।"   "ये कुत्ते तो हर जगह फैले पड़े हैं ।"   मेरी आँखों में प्रश्न देख , वो दिलासा देते हुए बोले -"कल ही प्रधानजी से बात करता हूँ कि मोहल्ले में बहु - बेटियाँ हैं "    "ऐसे में इन वहशी जानवरों का यहाँ क्या काम "   "इन्हें तो सीधा पुलिस के हवाले कर देना चाहिए ।"   आक्रोश से हाँफने लगे थे वो ।
  "पर कुत्तों को तो मवेशी खाने  (पशुओं की सुरक्षा केलिए बना सरकारी विभाग) वाले लेकर जाते हैं ना? "
 मेरे प्रश्न पर उन्होंने कुछ अचरज से मेरी तरफ देखा और बोले "तुम कौन से कुत्तों से डर रही थी ?" और पूरी बात समझ आते ही वो राहत की साँस लेकर बोले "अरे वो कुत्ते!!!  उन्हें तो एक- दो बार रोटी डाल दोगी तो वो ना ही पीछा करेंगे ना भौंकेंगे । मैं तो किन्हीं और कुत्तों की सोच कर डर गया था।"  पल भर में ही चिंता और  आक्रोश की जगह उनके चेहरे पर सुकून छा गया और उन्होंने आँखें बंद कर लीं । मैं भी आँखें मूँद कर अगले दिन की योजना के लिए हिम्मत जुटाने लगी ।।   

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी -----' टूटा सितारा'


​      ऑटो से उतर कर​  नीता तेज कदमों से ऑफिस की ओर बढ़ी जा रही थी, आज फिर 10 मिनट लेट हो गई थी   पूरे रास्ते उसके मन में  द्वंद चलता रहा था.
​ जब भी  नीता किसी छोटे बच्चे को रोते हंसते हुए देखती उसके भीतर की ममता तड़प उठती थी.
​ समय की   ठोकर और विपरीत परिस्थितियों ने उसे बहुत ही मजबूत बना दिया था परंतु    वह एक स्त्री थी और उसके भीतर  भी एक कोमल हदय था .
​  थोड़ी लेट तो हो गई थी सभी उसकी तरफ देख रहे थे  वह नजरें चुराते हुए जाकर अपनी सीट पर बैठ गई.
​ फिर भी उसको ऐसा लग रहा था मानो सभी उसकी  तरफ ही देख रहे हो.
​" मैम बॉस ने आपको केबिन में बुलाया है!"
​" जी!" कहते हुए  वह उठकर बॉस के  केबिन की ओर चली गई.
​  बॉस पता नहीं क्या-क्या समझा रहे थे उसके समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, या यह कहा जाए कि उसका मन था ही नहीं वहां पर तो अतिश्योक्ति नहीं होगा.
​ उसका मन अभी भी बाहर नुक्कड़ पर रो रहे बच्चे के पास ही था, जो बैठा अकेला रो रहा था. नीता का हृदय चीत्कार कर उठा था.
​ इसी उम्र का तो है उसका बेटा रोहन बिल्कुल उसी की तरह मासूम निश्चल जिसे परिस्थितियों ने उसको उससे दूर कर दिया.
​ "क्या हुआ नीता कोई प्रॉब्लम है क्या?" बॉस ने फिर कहा.
​ "नहीं सर ऐसी कोई बात नहीं है!"
​" अब तुम जा सकती हो!"
​" जी!" कहती हुई नीता केबिन से बाहर आकर अपनी सीट पर बैठ गई.
​ नीता का काम में बिल्कुल मन नहीं लग रहा था आज... उसने अपना मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगी. मगर अगले ही पल उसकी उंगलियां फिर से रुक  गई.
​ उसने गहरी सांस लेते हुए मोबाइल एक तरफ रख दिया और फिर से काम करने लगी.
​ तभी बराबर वाली सीट पर बैठी अलका अपने बेटे से बात करने लगी थी फोन पर.
​" हां बेटा मैंने तुम्हारे लिए कटलेट्स  बनाए है तुम खा लेना... और दोपहर को दाल चावल दादी को बिल्कुल परेशान मत करना!"  सुनकर नीता का मन भर आया उसकी आंखों में आंसू आ गए.
​ रोहन कैसा होगा पता नहीं... कोई उसका ध्यान रखता भी हो गया नहीं?
​  अतीत को कितना भी भुलाना चाहो मगर वह कभी पीछे नहीं छोड़ता और अगर मैं अपनी औलाद से जुड़ा हुआ हो तो तो बिल्कुल नहीं.
​ नीता टेबल पर सिर रख कर लेट गई और उस मनहूस घड़ी को कोसने  लगी जब उसने   निशांत से प्रेम विवाह करने का निश्चय किया था.
​ घर वालों में कितना समझाया था कि लड़का तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है लेकिन उसके ऊपर तो प्रेम का भूत सवार था उसने किसी की एक न सुनी और अपनी मर्जी से निशांत से कोर्ट मैरिज कर ली.
​ थोड़े दिन बाद ही निशांत ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया.  नौकरी छोड़कर घर में ही पड़ा रहने लगा और बहुत अधिक ड्रिंक करने लगा था उसके साथ मारपीट हुई करने लगा था. और इस समय उसकी मम्मी उसका साथ देती थी.
​ जब है पेट से हुई तो उसे खुशी हुई कि शायद अब रोहन बदल जाए लेकिन उसकी हरकतें तो दिन  ब दिन और ज्यादा बद से बदतर  गई.
​​
​ बेटे रोहन के जन्म के बाद भी उसके व्यवहार में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि और ज्यादा मारपीट करने लगा था. इससे तंग आकर  नीता ने उसको छोड़ने का फैसला कर लिया.
​ इस पर निशांत ने उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया और बेटे को उसको देने से साफ इनकार कर दिया   वह जानता था कि  नीता अपने बेटे के बिना नहीं रह पाएगी और 1 दिन लौट कर जरूर वापस  आएगी.​
​​ नीता ने अपना सिर उठाया और फिर से काम में लग गई लेकिन वह अपने मन में  अब यह निश्चय कर  चुकी थी कि अपने बेटे  रोहन से दूर नहीं  रहेगी.
​ उसने फिर से फोन उठाया और नंबर डायल कर लिया फोन उसके सासू मां ने उठाया था.
​  जब उसने बात करने को कहा अपने  बेटे से  तो उसकी  सास ने उसको गालियां देनी शुरू  कर  दी.
​  नीता का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा मैं उठकर बॉस की केबिन में गई और उनसे कहा कि सर आज उसे जरूरी काम से बाहर जाना इसलिए आज हाफ डे के बाद  चली जाएगी.
​ बॉस ने कहा कि आज तो छुट्टी नहीं मिल पाएगी कल  पूरे  दिन की लीव ले  लेना .
​ नीता ने हां में गर्दन हिलाई और वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गई.
​ शाम को वह घर गई और झटपट अपना बैग लगाया 1 घंटे का रास्ता था उसके ससुराल का और उसके कमरे का.
​ उसने अपने ससुराल के डोर बेल बजाई तो दरवाजा उसके साथ में खोला.
​ " अब क्यों आई हो जाओ यहां से.. !"सास ने मुंह बनाते हुए का.
​"  यहां रहने कौन आया है?" नीता ने तपाक से कहा.
​ इतने में रोहन भी वहां आकर खड़ा हो गया और मम्मी मम्मी  कहता हुआ  नीता से चिपट गया.
​ नेता ने उसको अपने सीने से लगा लिया और बार-बार उसके मुंह  और हाथों को दुलारने  लगी.
​" अब  यह मेरे साथ रहेगा!" नीता ने  रोहन को गोदी में उठाते हुए.
​ और कुछ भी बिना बोले बाहर निकल  गई.
​ उसकी सास  चिल्लाती हुई उसके पीछे  भागी  लेकिन  नीता ने मुड़कर नहीं देखा.
​  अब हर प्रकार की कानूनी लड़ाई लड़ने  के लिए तैयार थी.

​राशि सिंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की कहानी -----पिता समान भाई

               
    ‘’पापा, आज कालेज से लौटते समय आप किताब वाले से निबंध मंजूषा ले आना,  मुझे लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी में सोच रही हूँ निबंध का अभ्यास भी साथ साथ करती चलूँ।’’
दीप्ति ने कालेज जाने के लिए साइकिल साफ़ करते हुए अपने पिता राम स्वरूप से कहा। ’’ठीक है ,बेटा और कुछ’’ रामस्वरूप के प्रश्न के उत्तर में दीप्ति ने न में सिर हिलाया तो राम स्वरूप ने अपनी साइकिल कालेज की तरफ़ दौड़ा दी।
 राम स्वरूप क़स्बे के एक राजकीय इंटर कालेज में हिंदी के अध्यापक थे। उनका बड़ा बेटा दीपक जो एम एससी गणित से पढ़ाई पूरी कर के नेट की तैयारी में जुट गया था। बेटी दीप्ति बीए फ़ाइनल में थी। दीप्ति मेधावी छात्रा थी वह हमेशा कक्षा में अव्वल आती थी। उसका सपना अधिकारी बनने का था इसलिए वह लोक सेवा आयोग की तैयारी में अभी से जुट गयी थी।
    राम स्वरूप की चाहे तनख्वा  कम थी पर वह बेटी की तैयारी के सामने पैसों की तंगी को नही आने देता थे। सब अध्यापको ने धीरे धीरे स्कूटर ले लिया परंतु वह अपनी साइकिल के साथ ही खुश थे। पत्नी ने एक बार कहा भी कि स्कूटर ले लो। बहुत दूर पड़ता है कालेज तो उन्होंने कहा एक बार बच्चे कामयाब हो जाए उसके बाद ही कुछ सोचेंगे।
      कालेज से लौटते समय उन्होंने स्टूडेंट बुक डिपो से निबंध मंजूषा खरीदी और घर की ओर चल दिये । अचानक तेज़ गति से सड़क पर दौड़ती कार रामस्वरूप की साइकिल को रौंदती हुई चली गयी। हादसा होते ही भीड़ जमा हो गई । लोग आनन-फानन में उन्हें अस्पताल ले जाने लगे कि रास्ते में ही मास्टर साहब ने दम तोड़ दिया। उनकी मृत्यु से पूरे घर में हाहाकर मच गया।
    राम स्वरूप राजकीय कालेज में थे जिस कारण दीपक को मृतक आश्रित में पिता की जगह नौकरी मिल गयी परन्तु बीएड न होने के कारण उसे कालेज में लिपिक के पद पर नियुक्ति मिली।
   दीप्ति जब कभी पिता को याद कर रोती तो दीपक कहता -बड़ा भाई भी पिता समान होता है तू क्यों चिंता करती है।  मैं तो
डिग्री कालेज में शिक्षक नहीं बन सका लेकिन तुझे अधिकारी जरूर बनाऊंगा ।
 धीरे धीरे एक साल गुज़र गया। दीप्ति की ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी हो गयी। इसबार भी वह हमेशा की तरह अव्वल रही। अब वह अपने सपने को पूरा करने के लिए लोक सेवा आयोग परीक्षा की तैयारी में जी-जान से जुट गयी। वहीं दीपक के लिए एक अच्छा रिश्ता आया और बिना देर किए माँ ने उसकी शादी कर दी। दीपक ऋचा जैसी सुन्दर पत्नी को पाकर बहुत खुश था।ऋचा ने घर में आते ही सब पर अपना होल्ड कर लिया। दीपक के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा था।
    एक दिन ऋचा ने  शिकायत भरे लहजे में दीपक से कहा - "आपकी बहन पूरे दिन किताबों में ही लगी रहती है। अगले घर जायगी। कुछ काम काज घर का भी सीखना आना  चाहिए।’’  दीप्ति किताब पढ़ते पढ़ते ऊब भी जाते हैं इसलिए थोड़ा घर का काम भी कर लिया करो। दीपक ने समझाने के लहजे में दीप्ति से कहा। ठीक है भैया- कहते हुए दीप्ति ने कहा, भैया मुझे लोक सेवा आयोग की परीक्षा देनी है । उसकी तैयारी के लिए एक किताब की जरूरत है 460 रुपये की आएगी। इतना सुनते ही ऋचा बोली कोई किताब नहीं आ रही है।  अभी तुम्हारी शादी भी करनी है सारे घर का बोझ इनके कंधों पर ही आ गया है।
पर भाभी केवल 460 रुपए की तो बात है, धीमे से दीप्ति ने कहा।
क्यों..?  पैसे पेड़ पर उगते हैं क्या। सारा  दिन ये मेहनत करते हैं तब घर चलता है। ऋचा लगभग चिल्लाते हुए बोली। दीप्ति ने उम्मीद भरी निगाहों से दीपक की और देखा और कहा -भैया.............!!! इससे पहले कि वह कुछ कहती,  दीपक ने नज़रें नीचे कर ली।
    दीप्ति समझ गयी कि अब उसे ही अपने और अपने पिता के सपने को पूरा करना है। दीप्ति पढ़ाई लिखाई में तो होशियार थी ही ,उसने घर पर बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया ।अब वह अपने लक्ष्य को पूरा करने में जुट गयी। उसने दिन रात मेहनत की ।उसके पिता  का आशीर्वाद उसके साथ था जिस कारण उसने पहले ही प्रयास में प्री,मेंस और साक्षात्कार परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रदेश में तीसरी रेंक प्राप्त की ।घर में बधाई देने के लिए मोहल्ले पड़ोस के लोग आने लगे।सब दीप्ति की तारीफ़ करते न थकते कि मास्टरजी की लड़की ने उनका नाम रोशन कर दिया।न्यूज़  चैनल  वाले भी आ गए । उन्होंने दीप्ति से पूछा कि वह अपनी सफलता का श्रेय किसे देती है । दीप्ति ने  भैया -भाभी की तरफ देखते हुए कहा ’’ईश्वर और स्वर्गीय पिता जी के आशीर्वाद और अपने भैया-भाभी के सहयोग से ही यह हो पाया।
यह सुन कर दीपक और ऋचा की आँखो में आँसू आ गए।न्यूज़ चैनल वालों के जाने के बाद दीपक ने दीप्ति से माफ़ी माँगी,’’बहन मैं तेरा पिता न बन सका ।मुझे माफ़ कर दो ।
’’नही भैया ऐसा न कहो ।आपने तो मुझे अपने पर भरोसा करना सिखाया तब ही मैं साक्षात्कार को आत्मविश्वास से दे पायी ।मैं जानती हूँ आप हमेशा मेरा भला ही सोचते है ।बड़ा भाई तो पिता समान होता है ।अब जाइए बाज़ार से लड्डू ले आइए मुझे प्रसाद चढ़ाने मंदिर जाना है ।’’
दीप्ति ने भी हँसकर दीपक से कहा।’’क्यूँ हम भी खायेंगे और पूरे मोहल्ले में भी बाँटेंगे ।आप देसी घी के ख़ूब सारे लड्डू लाना ।आख़िर मेरी प्यारी ननद अधिकारी बनी है ।जाइए जल्दी जाइए ।’’ऋचा की इस बात को सुनकर सब हंसने लगे। पूरे परिवार में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी।
                 
 प्रीति चौधरी, शिक्षिका
राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज, हसनपुर
जनपद अमरोहा।