वो चार थे । बड़े - बड़े , भारी बदन के , रोज चौराहे के पास खड़े मिलते थे । दूर से आते जाते दिख जाते थे , अक्सर मैं कतरा कर निकलने की कोशिश करती पर सामना हो ही जाता था । नज़र पड़ते ही पूरे शरीर में एक अजीब सी कंपक॔पी सी छिड़ जाती थी । उनकी लाल - लाल आँखों से हर वक्त वहशत टपकती रहती थी । ऐसे घूरते थे मानों मौका पाते ही झपट पड़ेंगे ।
मैं बेज़ार आ चुकी थी , दिन - रात ऐसे दहशत के साथ भी कोई कैसे जी सकता था । बाहर आना - जाना तो लगा ही रहता था , पर हर बार अगर खौफ ही मन पर छाया रहे तो हिम्मत टूट जाती थी । अक्सर मैं काम टाल जाती , कुछ बहाने बनाती , कभी - कभी तो झूठ का भी सहारा लिया की बाहर जाने से बच जाऊँ । पर मजबूरी थी , इस मोहल्ले में आए अभी कुछ ही वक्त हुआ था । पति सुबह के निकले रात गए घर घुसते थे । पीछे रह जाते मैं , माँ जी और मेरा छोटा सा बेटा । अब घर बाहर की सारी जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर थी । ऐसे में इन चारों का , हर वक्त का सामना मेरी नींदें उड़ा रहा था ।
पति बेचैनी से करवट बदलते देखते तो पूछते - " क्या परेशानी है ?" "क्या नए घर में मन नहीं लग रहा ?" "अब तुम्हारी ही ज़िद थी इस मौहल्ले में आकर रहने की , थोड़ा वक्त गुज़र जाने दो , अभ्यस्त हो जाओगी ।" ऐसे में मैं उन्हें क्या बताती ।
पर एक दिन मैं हिम्मत हार गई , राशनवाले से रोजमर्रा का सामान लेकर घर की तरफ बढ़ी ही थी कि उनमें से एक पीछे - पीछे चल पड़ा , मैंने कदम तेज़ कर दिए । दो चार कदम बाद लगा कि सारे के सारे हैं , बस मेरी घिग्घी बँध गई । तेज़ - तेज़ चलने के कारण साँसें उखड़ रहीं थीं , टाँगें काँप रहीं थीं पर घर की चौखट आने तक मैं थमी नहीं । माँ जी दरवाज़ा खोलने को आईं तो उन्हें लगभग ढकेलते हुए अंदर किया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया । वो मेरी हालत देखकर बाहर झाँकने को हुईं तो मैंने चिल्लाकर कहा "नहीं माँ दरवाजा मत खोलना बाहर वो चारों ...........।" बेचारी माँ जी मेरी घबराहट को देख सकपका कर रुक गईं । गहरी आँखों से मुझे देखती हुई मेरे लिए पानी लेने चली गईं । मैंने सोफे पर बैठ सिर पीछे टिका लिया ।
"पानी ले - ले बिटिया ", माँ का स्पर्श कंधे पर पाते ही सब्र का बाँध टूट गया । मैं रोती रही और वो सहलातीं रहीं । ना कोई प्रश्न किया, ना ही कुछ पूछा , मानो स्वयं ही सबकुछ समझ गईं ।
रात को पतिदेव कुछ पल माँ जी के साथ जरूर बिताते थे , उनके कमरे से लौटे तो चिंतित स्वर में बोले - " तुम्हें मुझे जरूर बताना चाहिए था ।" "जानती तो हो आजकल शहर का हाल ।" "कोई भी जगह शरीफों के रहने लायक नहीं रह गई ।" "अब अपनी इज्जत अपने हाथ है ।" "ये कुत्ते तो हर जगह फैले पड़े हैं ।" मेरी आँखों में प्रश्न देख , वो दिलासा देते हुए बोले -"कल ही प्रधानजी से बात करता हूँ कि मोहल्ले में बहु - बेटियाँ हैं " "ऐसे में इन वहशी जानवरों का यहाँ क्या काम " "इन्हें तो सीधा पुलिस के हवाले कर देना चाहिए ।" आक्रोश से हाँफने लगे थे वो ।
"पर कुत्तों को तो मवेशी खाने (पशुओं की सुरक्षा केलिए बना सरकारी विभाग) वाले लेकर जाते हैं ना? "
मेरे प्रश्न पर उन्होंने कुछ अचरज से मेरी तरफ देखा और बोले "तुम कौन से कुत्तों से डर रही थी ?" और पूरी बात समझ आते ही वो राहत की साँस लेकर बोले "अरे वो कुत्ते!!! उन्हें तो एक- दो बार रोटी डाल दोगी तो वो ना ही पीछा करेंगे ना भौंकेंगे । मैं तो किन्हीं और कुत्तों की सोच कर डर गया था।" पल भर में ही चिंता और आक्रोश की जगह उनके चेहरे पर सुकून छा गया और उन्होंने आँखें बंद कर लीं । मैं भी आँखें मूँद कर अगले दिन की योजना के लिए हिम्मत जुटाने लगी ।।
सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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