गुरुवार, 16 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था "राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति" द्वारा प्रत्येक माह की 14 तारीख को काव्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। लॉकडाउन के कारण 14 जुलाई 2020 को आयोजित ऑनलाइन काव्य गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ मीना नकवी, श्री कृष्ण शुक्ल, डॉ मीना कौल, के पी सिंह सरल, डॉ अर्चना गुप्ता, योगेंद्र वर्मा व्योम, मोनिका शर्मा मासूम, प्रीति चौधरी, शिशुपाल सिंह मधुकर, मीनाक्षी ठाकुर ,अशोक विद्रोही, राजीव प्रखर, अशोक विश्नोई, डॉ रीता सिंह, रश्मि प्रभाकर, रचना शास्त्री, सीमा वर्मा, इला सागर रस्तोगी, नृपेंद्र शर्मा सागर, प्रशांत मिश्रा, कंचन लता पांडे, राजकुमार सेवक विश्नोई, जय प्रकाश विश्नोई, विकास मुरादाबादी, राशिद मुरादाबादी, डॉ महेश दिवाकर और योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई की रचनाएं-----


मुंह पर गिरकर बूंदोंने बतलाया है
देखो कैसे सावन घिरकर आया है
बौछारों से तन मन ठंडाकरने  को
डालडाल झूलोंका मौसम आया है
मुँह पर गिरकर------------------

बारिश बरसी धरती ने स्नान किया
भोंरों ने फूलोंसे मधुरस पान किया
महकलुटाती चम्पाकी डाली बोली
झूमो,नाचो,गाओ सावन आया है।
मुँह पर गिरकर------------------

झुलसाती  गर्मी भी हार  मान बैठी
बादरिया चादरिया  घनी तान बैठी
घोर गर्जना करती  घोर घटाओं  ने
देखो कैसे दिन को रात बनाया है।
मुँह पर गिरकर-------------------

सारी सखियाँ देखो झूला झूल रहीं
मस्त बहारोंमें खुशियों से फूल रहीं
कच्चे,नीम,निबोली,बंदर बागों  के
गीतों ने गोरी  का  मन  हर्षाया है।
मुँह पर गिरकर------------------

दादुर, मोर, पपीहा  शोर मचाते हैं
हरियाली केसाथ हिरन इठलाते हैं
लगता है गर्मी से व्याकुल हरप्राणी
बूंदों की अगवानी  करने आया है।
मुँह पर गिरकर------------------भव

 वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
  मुरादाबाद/उ, प्र,
  09719275453
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दिल में ख्वाहिश है कि धरती पे नवाज़िश(कृपा) हो जाये।
काश , आ जाये घटा, झूम के बारिश हो जाये।।

धूप के साथ तपिश ले के चला आया है।
आज सूरज की न पूरी कहीं साज़िश हो जाये।।

 नाव काग़ज़ की हो , बरसात के पानी मे रवाँ।
फ़िर से बचपन में चले जाने की काविश(कोशिश) हो जाये।।

उसके दिल में भी उतर आये ये भीगा मौसम।
उसके जज़्बात से मौसम की सिफारिश हो जाये।।

मैं भी बरसात के पानी से भिगो लूँ ख़ुद को।
दिल पे तहरीर ये मौसम की निगारिश (लेख)हो जाये।।

सुरमई अब्र(बादल) के टुकड़ो से उलझती है हवा।
ये भी मुमकिन है कि मौसम की नवाज़िश हो जाये।।

 जावेदाँ (अमर) , काश , मेरी कोई ग़ज़ल हो "मीना"।
शेर मेरा भी कोई बाइसे  नाजि़श हो जाये।

  डॉ.मीना नक़वी
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रिमझिम लेकर आ गया, पावन सावन मास।
शुष्क दिलों में भी जगा, पुनः नया उल्लास।।

उमड़ घुमड़ छाने लगे, बादल चारों ओर।
त्रस्त ह्रदय हर्षित हुए, बरसो घन घनघोर।।

बारिश की बौछार से, हुई सुहानी शाम।
प्यासी थरती को मिला, थोड़ा सा आराम।।

रिमझिम वर्षा कह रही, छोड़ो सारी लाज।
छत पर आकर भीग लो, मेरे सँग में आज।।

नदियाँ भी इठला रहीं, ताल भरे भरपूर।
धानी चूनर ओढ़कर, खिला प्रकृति का नूर।।

धन्य धन्य हे बादलों, शत शत तुम्हें प्रणाम।
गरज गरज कर बरस कर, पहुंचाया आराम।।

ताप भले ही कम हुआ, उमस बढ़ गई आज।
बदन चिपचिपा हो रहा, मची हुई है खाज।।

श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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सावन  की क्या बात करें, इस कोरोना काल में
सावन भी सूखा जाएगा, इस कोरोना काल में।

सूने हैं  सुख के आँगन ,दुख की चादर है मैली
जीवन ह॔स तड़प रहा है ,फँसा हुआ है जाल में।1

घेवर फैनी मेंहदी चूड़ी , कैसे झूले गीत मल्हार
देवालय भी बंद पड़े हैं, इस अभागे साल में।2

धरती का आँचल रीता ,अम्बर का दामन खाली
नहीं दिखती वो सौगातें ,जो सज जाएं  थाल में।3

सखी सहेली रिश्ते नाते ,सिमट गए दरवाज़ों तक
आस लगी बस कदमों की ,जाने हैं किस हाल में। 4

गरजते बादल बरसती बूंदे ,सावन का संगीत हैं
मन के मीना गीत हैं बिखरे, न सुर में न ताल में।5

  डाॅ  मीना कौल
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बदरा ले जाओ अश्रु हमारे,
जाय बरसो प्रीतम के द्वारे  !       
साजन बिन सावन सब सूना,
देता विरह पपीहा दूना !                       
पीहु पीहु की टेर लगाकर
घर पर आय पुकारे  !
 सावन की ये काली राते,
तनहाई की ये बरसातें  !
गरज घुमड़ कर काले बादल
बरसें सांझ सकारे  !
चकाचौंध बिजली की डराए,
इन्द्रधनुष खाने को आए !       
   कटती नहीं रातें एकाकी
 नहिं कटते दिवस हमारे!                                     पिया बाट में नैन भी हारे,
 वरबस टपकत अश्रु हमारे!
रो रो कर अंधी हुईं अंखिया
 कैसे दर्शन करें तुम्हारे !
नहीं संदेश न कोई पाती,
तड़फ तड़फ कर मैं रह जाती !
यादें भी अब धुंधली पड़ गई
 इतना नहीं सतारे!
तीजों का त्यौहार न भाए,
झूले हमको नहीं सुहाए!
कैसे काटूं ये पावस रितु
 रस्ता 'सरल' बतारे!   

 के पी सिंह 'सरल'
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सावन की रुत आ गई, छाने लगी बहार
भावों में बहने लगी, प्रीत भरी रसधार

कली फूल को चूमकर, भँवरे गाते गान
रंगबिरंगी तितलियाँ, फेंक रही मुस्कान
कूक कोकिला की रही, मन में मिश्री घोल
मस्त नाचता मोर है, रहा पपीहा बोल
पवन सुगंधित दे रही, सपनों को आकार
सावन की रुत आ गई,छाने लगी बहार

लगता सूनापन बहुत,पिया गये परदेश
उनके आने में अभी, बचे बहुत दिन शेष
बातें होती फोन पर, मन फिर भी बेचैन
कटते उनको याद कर, दिन हो चाहें रैन
और लगाती आग है,ये रिमझिम बौछार
सावन की रुत आ गई, छाने लगी बहार

डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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मेघों को धमका रहा, सूरज तानाशाह ।
काग़ज़ वाली नाव की, किसे कहाँ परवाह ।।

पावस पर हावी हुआ, सूरज का बर्ताव ।
प्यासी धरती ला रही, अविश्वास प्रस्ताव ।।

रोज़ाना ही हर सुबह, तलब उठे सौ बार ।
पढ़ा कई दिन से नहीं, मेघों का अख़बार ।।

कहीं धरा सूखी रहे, कहीं पड़े बौछार ।
राजनीति करने लगा, बूंदों का व्यवहार ।।

पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।

तन-मन दोनों के मिटे, सभी ताप-संताप ।
धरती ने जबसे सुना, बूँदों का आलाप ।।

रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।

भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।

बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।

पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।

- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
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छोड़कर बाबुल की गलियों को  चली मेरी ग़ज़ल
उनसे मिलने को गई उनकी गली मेरी ग़ज़ल

भोर की बेला में ये सूरजमुखी सी खिल उठी
गूंज भंवरों की सुने बनके कली मेरी ग़ज़ल

 धूप में  प्यासी नदी की मिस्ल बहती जा रही
गोद में दिनकर लिये दिनभर जली मेरी ग़ज़ल

धुँध में धुँधली फ़िज़ा के जैसे धूमिल हो गयी
सांझ होते ही थकी ,हारी, ढली मेरी ग़ज़ल

चांद की बांहों में जब "मासूम" उतरी चांदनी
प्रीत से महकी, हुई है सन्दली मेरी ग़ज़ल

मोनिका "मासूम"
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कुछ यादें भर आँचल में
फिर बदरा सावन के आए

 जिनमे भीग मन बावरा
गलियाँ पुरानी घूम आए

संग मिल सब सखी सहेली
झूल झूल कर गाने गाए

पेंग पहुँचे जब बदरा तक
मस्ती से सब झूम जाए

बूँदे बारिश की तन पर
यौवन का अहसास दिलाए

इंतज़ार अगले सावन तक
कैसे करूँ ,कोई समझाए

 छूकर हवा बदन को मेरे
रह रह पिया की याद दिलाए

बदरा काले कुछ ऐसा कर
बात जिया की उन तक जाए

ले जा ये संदेश पिया तक
बिन उनके न सावन भाए

   प्रीति चौधरी
   गजरौला,ज़िला अमरोहा
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कारे -कारे आए बदरा
        पानी भरकर लाए बदरा
        चम चम  चम चम बिजुरी चमके
        जन-जन को हर्षाए बदरा
     
        गर्मी -उमस बहुत है भारी
        व्याकुल हैं सारे नर -नारी
        पंछी भूखे प्यासे फिरते
        हरियाली भी सूखी सारी
        ऐसे में मन भाए बदरा

         तड़ तड़ पानी लगा बरसने
         नभ में बिजली लगी चमकने
         पानी पीकर माटी हरषे
         सोंधी खुशबू लगी महकने
         मादकता फैलाए बदरा

          सूखी फसलें हुई हरी हैं
          आशाओं से हुई भरी हैं
          वृक्ष लगाएं गीत सुनाती
          फूलों ने मुस्कान धरी हैं
          नव उल्लास जगाए बदरा

            शिशुपाल "मधुकर"
                मुरादाबाद
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घनश्याम घटा घनघोर घनी,घन झूम गयौ गरजे- बरसे।
चमकी ,चपला ,चित -चोर बनी  ,पपिहा चहके, मनवा तरसे ।।

तरु झूम -झमाझम शोर करें,सरिता बहती,झरती झर से ।
पनघट ,नदिया सब भीजि गये,चुनरी सरकी सर- सर ,सर से।।

धरि धीर ,धरा- सम ,कित उर में, दिन रैन डरावहिं फणिधर से।।
झट से पट  के पट बोल गये,जब ही छुप के निकली घर से।

ऋतु पावस ,आस भरोस पिया,नित बैन सुनावहिं मधुकर से।
सखि! सावन अंग लगे सजना,अँगना महके,जियरा हरसे।।

मीनाक्षी ठाकुर,
मुरादाबाद
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सावन में मेघा उमड़ घुमड़
       बस यूं  ही जल बरसाते हैं
हर बरस युवा प्रेमी जोड़ों
         के हृदय यूं ही हर्षाते हैं
 यह बरस धरा पर भारी है
       फैली घर घर महामारी है
संकट यह अब भी जारी है
        अब फैल रही बेकारी है
हे प्रभू दयानिधि दया करो
         आखिर क्यों देर लगाते हैं
कोरोना ने विध्वंस किया
         हम हर दिन मरते जाते हैं
 ग्रीष्म गया वर्षा ऋतु आई
         कोरोना से मुक्ति ना पाई

अशोक विद्रोही
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दुबका बैठा इन दिनों, घर में ही उल्लास।
कैसे झूला डाल दूँ, अबके सावन मास।।
******
झूले पर अठखेलियाँ, होठों पर मृदु गान।
इन दोनों के मेल से, है सावन में जान।।
******
वृक्षों पर विध्वंस ने, पायी ऐसी जीत।
क़िस्सों में ही रह गये, अब झूलों के गीत।।
******
ढल कर मृदु सुर-ताल में, करती हैं हर बार।
प्यारी कजरी-भोजली, सावन का श्रंगार।।

- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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लड़की---रिमझिम ये बरसात है,
              प्यार हमारा साथ है
              तू भीगे मैं भीगूँ--
              भीगे मेरा मन सजन  ।
              सजन भीगे मेरा मन ।।
लड़का- झटकों मत जुल्फों को ऐसे रानी
            गिने दो यूं ही बालों से पानी
             हाथों में हाथ है,
             वाह वाह क्या बात है
             मन के अन्दर है तपन ।
             तू भीगे मैं भीगूँ भीगे मेरा मन।।
लड़की---   तूफानों में घिरें हैं
                 हम दोनों सिरफिरे हैं
                 होने वाली रात है
                 क्या सोचा है जानेमन ।
              तू भीगे मैं भीगूँ भीगे मेरा मन ।।
              भीगे मेरा मन सजन ।।

                   अशोक विश्नोई
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सारंगों ने साथ पवन के
छेड़ी मीठी सारंगी ,
गा उठा है साथ उसी के
मन मेरा भी सतरंगी ।

रूप लिया जब बूँदों ने है
सप्तसुरों के तारों सा ,
राग सुनाया वसुधा ने भी
मानों मधुरिम मधुवंती ।

नदियाँ नहरें जी भर झूमीं
नाचें तरुवर पल्लव भी
और सृष्टि का कण कण गाये
गान मधुर जयजयवंती ।

डॉ. रीता सिंह
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 बागों में पड़े हैं झूले, पेड़ों पे बहार है,
मेहंदी लगी हाथों में, तीज का त्यौहार है।।

हरी हरी साड़ी पहने, हरी हरी चूड़ियां,
घर घर खीर बनी, और बनी पूड़ियां,
कानों में हैं झुमके,मुख पे श्रृंगार है।
मेहंदी लगी,,,,,

बाबुल बुलाएं घर, भैया लेके आये हैं,
सारी सखी मिलजुल, तीज मनाये हैं,
झूम,झूम झूला झूलें, गायें मल्हार हैं।
मेहंदी लगी,,,

मैया दौड़े अंगना में, करे तैयारी है,
बिटिया को तीज देने, लायी नयी साड़ी है,
यही माई बाबुल, भाई बहना का प्यार है।
मेहंदी लगी,,,,

रश्मि प्रभाकर
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बाद  आषाढ़ के मुझसे हँसकर मिला सावन।
लगा ख्वाहिशों का खूबसूरत सिलसिला सावन।
 लिपटा रहा बावरा रात भर रात रानी से,
सुबहो फिर मालती के गुंचों में खिला सावन।

शीश जटाजूट विराजे,
बहे गंग की धार।
सावन मास में भोले,
तेरी जय जयकार।।

 रचना शास्त्री
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 मनभावन  है सखी सावन
          बूँद - बूँद है पावन
  हृदय को हरषावन
          पी की पाती आवन
  नयन नीर भर जावन
          भीतर बाहर सावन
  उमड़ - घुमड़ गरजावन
           मेघ मल्हार को गावन
  पग थिरकत ताल बजावन
           पिहू मोर पपीहा गावन
  सब जग जल थल हो जावन
          तन - मन भी तो भरमावन
  सखी आवे जब ये सावन
          पीहर की याद दिलावन
  अब इकली बैठी सोचूँ
          यादों की सौगात ये सावन ।।

  सीमा वर्मा
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हरियाली परिपूर्ण पावन माह
सावन मास का होता प्रारम्भ,
बरस रहा मतवाला सावन
संग भीनी भीनी फुहार लिए।

साधना अराधना का उत्सव प्रारंभ
पावस ऋतु का होता आरम्भ,
लिप्त हो पूर्णतया भक्तिरस में
महादेव की उपासना का सावन प्रारम्भ।

प्रकृति भी होती निरी प्रसन्न
इतरा रही कैसे ठुमक ठुमक,
ओढ़के दुशाला हरियाली रूपी
मुस्करा रही खिलते पुष्पों संग।

वृक्षों की शाखाओं पर
डल चुके कितने झूले है,
मोर नाच रहे बौछारों संग
मन चितवन सुहागनों संग।

हरियाली समेटे हरियाली तीज प्रारंभ
उमामहेश्वर के पूजन का महोत्सव प्रारम्भ,
अपने सुहाग के लिए पुन: नववधु सी
सजधज करती,
उपासना का उत्सव प्रारंभ।

इला सागर रस्तोगी
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मनभावन सावन आया,
बर्षा की मधुर फुहार लिए।
पुष्पित पल्लवित हुए उपवन।
नव सर्जन नई बहार लिए।।

साजन सजनी में प्रेम बढ़ा,
सावन आया मधुपान पिए।
तन मन की उमंगे जाग गयी,
बर्षा ने जब जब बदन छुए।।

आयी हरियाली तीज सरस
सजनी ने सब श्रृंगार किये।
आया त्यौहार बन्धन का भी
भाई बहना का प्यार लिए।।

शिव विवाह सती माता के संग,
भक्ति की जय जयकार लिए।
आयी श्रावणी शिवरात्रि,
शिव भोले आशीर्वाद दिए।।

श्रावण मास की महिमा बड़ी,
इसका गुणगान कौन करे।
सावन में अम्बर से बरसे,
जल जीवन का संचार करे।।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
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"सूरज" ने "बदली" से कहा
इतना क्यों बरसती हो
बदली ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया
तू क्या जाने ?
दिन-छिपी रात से...
भोर.... तक यूँ ...तरसना
जा...
तू...देखना छोड़ दे,
मैं बरसना

-प्रशान्त मिश्र
मुरादाबाद
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धानी धरती मना रही है, देखो ख़ुश हो हास परिहास
उनसे मिलनें बूँदे आयी, गूँजा बादलों का अट्टहास
जहाँ तहाँ दिखते जन मानस, रोपते जलमग्न खेत में धान
जो अब तक ख़ाली थे खेत, धानी बना सुन्दर परिधान
कहीं नीम कहीं पीपल पर, झूलों की दिखती है बहार
कहीं मची बिरहा की धूम, कज़री सावन का उल्लास

~कंचन लता पाण्डेय “कंचन”
९४१२८०६८१६
पी डब्लू डी आफ़िसर्स कालोनी
आगरा
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"सूखा पेड़ ,हरी ही घास ,
  देते एक संदेशा खास ।
 बचपन , यौवन,जरा वयस ,
   इनसे गुजरे जीव अवस‌ ।
 जरा वयस नहीं करें टराये ,
 सूखा तरु , फल पात गिराये ।
  नभ में मेघ , उमड़ कर आया ,
   देख वृद्ध तरुवर मुस्कराया ।
     वृथा बरसना मेरे ऊपर ,
    डालो पावस धार धरा पर ।
   रहे सुरक्षित लघु हरियाली ,
    इसमें ही मेरी खुशहाली  ।
     मेरी विनय वृद्ध मानव से ,
   लेओ सीख उस सूखे तरु से ।
   तरु सम सब संतोषी बनकर ,
  सकल लालसा अपनी तजकर।
   बांटों निज अनुभव और ज्ञान ,
      नयी पीढ़ी को दो सम्मान ।।
       नयी पीढ़ी को दो सम्मान ।।

   राजकुमार ' सेवक '
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 कारे कारे बदरा है सावन मधु मास।
मन आनंदित हो रहा ले वर्षा की आस।।
 पल पल बदरा घिर रहे कररहे बौछार।
जन जन उसमें भीगते गाते गीत मल्हार।।
सावन के इस माह में पुरवा करती शोर।
 कारे बदरा देख कर नाचें वन में मोर।।
 बिजली चमके जोर से करती बेहद शोर।
 लगता बदरा फट रहे होती वर्षा  पुर जोर।
 सावन के इस बीच में आवे तीज त्यौहार।
महिला झूला झूलती कर सोलह श्रृंगार।।
सावन के इस माह में चहकें मरू उद्यान।
 चहकें पंछी, जानवर,बालक , वृद्ध ,जवान।।
 कारोना की मार से  विगड़ा खेल त्योहार ।
सिमट घरों में रह गये, से लाकडाउन की मार।।
नियम बंधन में बंध गए, रचना साहित्यकार।
 वाटस एप पर कर रहे काव्य रचना बौछार ।।

जय प्रकाश विश्नोई
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श्रावण आया,श्रावण आया !
पावस  की  हरियाली  लाया !
वर्षा  जल  से  वार वार  नहा ;
माँ  वसुधा  ने  रूप   सजाया !
*
धूप -छांव   करते   हैं   बादल !
सबका  मन   हरते   हैं  बादल !
गर्ज  -घोर   के  साथ   वरसते :
नदी - नाले   भरते   हैं   बादल !
*
गरजे  बादल   बिजली   चमका !
लगा    वरसने    पानी    जमके !
खुश  होते  किसान  मन  ही मन ;
दिन  अब  दूर  हो  गए  गम  के !
*
चतुर्मास   कल्याण  भरा  है !
प्राणी  जीवन  प्राण  भरा  है!
चतुर्मास    है   जीवन   दाता ;
सृष्टि    का   प्रमाण   भरा है !

विकास मुरादाबादी
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बहकता हुआ सावन फिर आया है,
संग भूली बिसरी कितनी यादें लाया है,

फिर दिल में मची है अजब सी हलचल,
फिर ज़हन पे ग़म का बादल छाया है,

तुम्हारे बिन ना गुज़रीं हमारी सुबह शामें,
इन फुहारों ने हमको याद दिलाया है,

तुम्हें चाहा था हमने टूटकर बहुत कभी,
तुमसे बिछड़ के सुकूँ कहाँ हमने पाया है,

हमारे दिल को बहुत तुमने तड़पाया है,
इश्क़ में जुदाई का जाम पिलाया है,

खाते तो थे तुम कसमें मुहब्बत की मगर,
तुमने कहाँ अपना वादा ए वफ़ा निभाया है,

राशिद मुरादाबादी
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राजनीति के रहो समर्थक,
अथवा कोई धर्म - सुधारी!
मत  भूलो  हिंदी  माता  है;
बन्धु! नहीं है वस्तु उधारी!

माता  का  अपमान  करोगे,
कोई क्षमा नहीं  मिलने  की;
बिना दण्ड  के राष्ट्र धर्म की,
कहां खिलेगी कली बिचारी!

सावधान! परतंत्र  नहीं  हम,
राष्ट्र  और  माता  के  रक्षक;
अगर किया अपमान भूल से
जनता  होगी  तक्षक  सारी!

बदलो अपनी सोच, समझ लो
राष्ट्र चेतना बोल रही है;
पट्टी बांध रखी आंखों पर
सुनो चुनौती तात! हमारी!

हिंदी  औ'  भारत माता की,
मिलकर हम सौगंध उठाते;
जब तक प्राण चेतना तन में
स्वाभिमान  के  रहें  पुजारी!

बहुत सह लिया अपमानों को
विष का घूंट रहे हम पीते;
भारत माता  की  संतानों!
छोड़ो, बनना राष्ट्र भिखारी!

जाग चुकी है भारत माता,
हिंदी का केतन लहराता;
बोलो! मिलकर वन्देमातरम
भारत वसुधा जग में न्यारी!

देश  पड़ोसी  भारत मां  के
तन को नित घायल करते हैं;
और  विधर्मी  भारत मां  के,
मन को करते दूषित भारी!

अब भारत का बच्चा बच्चा,
षड्यंत्रों  को  नहीं  सहेगा;
देश द्रोह में लिप्त विषधरों!
फन काटेगी खड़ग दुधारी!
 
डा.महेश दिवाकर
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कुछ नहीं बन सके जिंदगी में तो क्या
आदमी बन गए तो बड़ी बात है
आदमी चाहता मैं बनू देवता पर अहंकार को छोड़ पाता नहीं
मन स्वार्थ में ले रहा डुबकियां किंतु निष्काम से जोड़ पाता नहीं
मानव से दानव पराभूत है
सिद्धियां साधना के वशीभूत है
 यह सिद्धत: अटल है अटूट है
वह इसको कभी तोड़ पाता नहीं
निस्वार्थ सेवा में है दिव्यता
यही जिंदगी की सही बात है

योगेंद्र पाल विश्नोई

::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

बुधवार, 15 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा --- काँटा

    एक चूहा बड़ा सा काँटा लिए दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में मेंढक ने पूछा कि, "अरे मूषक भाई ये काँटा लिए कहाँ दौड़ लगा रहे हो?"
"अरे भाई साँप को काँटा चुभा है तो मेरे पास आया था मदद माँगने, बस वही निकालने के लिए ले जा रहा हूँ", चूहे ने चलते-चलते जवाब दिया।
"लेकिन काँटा तो तुम अपने तेज़ दाँतो या नुकीले नाखून से भी निकाल सकते हो?" मेंढक ने सवाल किया।
"बिल्कुल निकाल सकता हूँ मित्र, लेकिन फिर उसे याद कैसे रहेगा", चूहे ने मुस्कुराकर कहा और दौड़ लगा दी।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार सीमा रानी की लघुकथा ----जमाईं

   पति की मौत के बाद मधु ने अपनी दोनों बेटियों को दिन-रात कपड़े सिल सिल कर पढ़ाया | बेटियों के सपनों को पूरा करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी |  जीवन की गाड़ी मदन की मौत के बाद तो रुकती सी  मालूम हो रही थी परंतु मधु ने अपनी हिम्मत वह हुनर से रुकने नहीं दिया |बड़ी बेटी अब स्नातक कर एक स्कूल में शिक्षण कार्य करने लगी थी और छोटी बहन की पढ़ाई के खर्च का बोझ उठाने लगी थी तो मधु को लगा जैसे हर रात के बाद सवेरा अवश्य होता है अब जीवन उसको थोड़ा सहज  लगने लगा था |
                बेटियों के विवाह योग्य हो जाने पर हर मां-बाप की तरह उसे भी बेटियों के विवाह की चिंता सताने लगी थी । अंततः बड़ी बेटी का विवाह पड़ोस के शहर में व छोटी बेटी का उसी शहर में हो गया | अब मधु ने चैन की सांस ली उसे लगा जैसे वर्षों बाद उसके जीवन में सवेरा हुआ हो धीरे-धीरे जीवन की गाड़ी फिर चल पड़ी कुछ दिन तक तो सब ठीक ठाक रहा पर साल 2 साल में दामाद (जमाई) अपने नए नए रूप दिखाने लगे बेटियों से कहते कि तुम्हारी मां अकेली है इतने बड़े मकान में अकेली रहकर बोर हो जाती होंगी मकान बेच कर उन्हें अपने साथ ले आओ कुछ दिन बड़ी बेटी के यहां व कुछ दिन छाेटी  बेटी के यहां आराम से रह लेंगीं । दोनों बेटियां मां का मकान बेचकर मां को अपने साथ ले आयीं |कुछ दिन बड़ी बहन के साथ तो कुछ दिन छोटी बहन के साथ माँ को रखने का दोनों नें समझौता कर लिया|कुछ समय बाद सासू मां का अपने साथ रहना दामादाें (जमाई) को बहुत अखरने लगा ।दोनों अक्सर कहते कि तुम्हारी मां के साथ रहना ठीक नहीं लगता है क्यों न हम  ऐसा करें कि इन्हें वृद्ध आश्रम मैं पहुंचा दें क्योंकि वहां इन्हें संगी साथी  भी मिलेंगें और अपनी आयु वर्ग में यह स्वस्थ भी रहेंगीं क्योंकि मन खुश होने पर तन भी  स्वस्थ रहता है |
             अब मधु को हर पल यह एहसास होने लगा था कि आखिर ऐसी मुझसे क्या कमी हो गई जो आज मेरी बेटियां मुझे बाेझ समझ रही है जबकि इनके लिए तो मैंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया |उसे बार-बार मां के कहे शब्द याद आ रहे थे कि "बेटी जमाई जम होता है |" मधु को वृद्धाश्रम भेजकर दोनों बेटियों ने अपना पत्नी धर्म पूरा किया और चैन की सांस ली |


✍🏻सीमा रानी
   अमराेहा
 7536800712

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की लघुकथा----- मृतक आश्रित

   धीरे-धीरे यह खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई और देखते ही देखते सैकड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई हो गई.... हरिओम के पिता को रात को बैठक पर बाहर सोते हुए किसी ने गोली मार  दी !   
     ....शोर मच गया मास्टर को गोली मारी ! पुलिस  भी आ गई हरिओम ने कहा" हमारी तो किसी से दुश्मनी भी  नहीं  है !!"
  पोस्टमार्टम के बाद अंतिम संस्कार भी हो गया गांव में तरह-तरह की बातें हो रही थी....
  ....... ,,अरे हरिओम ने खुद अपने पिता को गोली मारी,,...,,बस अब सरकारी नौकरी मिल जाएगी ‌,,  पुलिस जांच उसके चाचा ने दरोगा होने के कारण.. सब जुगाड़ करवा दिया....
       कुछ दिन बाद ही तो रिटायरमेंट था एक महीना मात्र... 6 महीने भी नहीं बीते... धूमधाम से शादी हो गई... आजकल पिता के स्थान पर नौकरी पर जा रहा है .

अशोक विद्रोही
 82 188 25 541
 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा -----ढंग का काम


रामप्रसाद जी,कमलकिशोर जी के यहां पहुंचे तो उन्हें थोड़ा इंतजार करना पड़ा।कमल किशोर जी अपनी माताजी के पैरो में दवा का लेप लगा कर मालिश कर रहे थे।उनकी माता जी की कूल्हे की हड्डी टूट गई थी
80साल की उम्र में उसका कोई समुचित उपचार संभव नहीं था।उनका सारा काम बिस्तर पर ही करवाना पड़ता था।उनकी सारी जिम्मेदारी कमलकिशोर जी पर ही थी।
रामप्रसाद जी अंदर ही आ गए।*** मातृ दिवस के कार्यक्रम से लौट रहा था।सोचा आपसे मिलता चलूं।बहुत अच्छा कार्यक्रम था।प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर शहर के सभी गणमान्य नागरिकों से मुलाकात हो गई।मां के बारे में दिल को छू लेने वाली रचनाएं सुनने को मिली।**
**तुम भी तो आमंत्रित थे।तुम क्यों नहीं पहुंचे।*
          कमल किशोर जी के कुछ बोलने से पहले ही उनकी पत्नी बड़बड़ाई **इनको अपनी मां से फुर्सत मिले,तब कहीं जाए।पूरे टाइम अपनी मां में ही लगे रहते है।किसी ढंग के काम के लिए इनके पास टाइम ही कहां है।**
    कमल किशोर जी समझ नहीं पा रहे थे कि ढंग का काम क्या होता है।


डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार नवल किशोर शर्मा नवल की लघुकथा - बड़बोलापन


     "मिंटू, तुम बड़े सुस्त और आलसी होते जा रहे हो। न तो नियमित रूप से स्कूल आ रहे हो और न ही  अपने होमवर्क को टाइम पर कंप्लीट कर रहे हो।... करते क्या हो ? आजकल कोई भी काम ढंग से नहीं कर रहे हो ? आखिर, तुम चाहते क्या हो ?
 मिंटू ने दबे स्वर में उत्तर दिया " सर, मैं तो केवल पढ़ना चाहता हूँ और अपना नाम कमाना चाहता हूं। बस और कुछ नहीं...। "
मास्टर जी बोले " अच्छा! तो अब जबान भी लड़ाने लगे हो! शर्म नहीं आती है तुम्हें बकवास करते हुए! टेस्ट तक में तो पास नहीं हो पा रहे हो क्या करोगे तुम...?"
मिंटू ने फिर मुंह लटकाये जवाब दिया "सर, आप चिंता न करें। मैं वार्षिक परीक्षा में अवश्य अच्छे नम्बर से पास होऊंगा।"
मास्टर जी तपाक से बोले "वो तो  लग रहा है तुम्हारे कारनामे देखकर! महीने में दस- दस दिन गैर हाजिर रहते हो। एक काम ढंग से नहीं होता! तुम्हारे जैसे को केवल डंडा ही सुधार सकता है  । तुम पर बातों का तो कोई असर होता ही नहीं है। अभी पिछले तीन महीने की फीस भी बकाया है। उसका क्या.....?
मिंटू पूरी क्लास के सामने खुद को शर्मिंदा महसूस कर रहा था लेकिन फिर भी उसने हिम्मत करते हुए कहा" सर! फीस भी चुका दूंगा। "
इस पर मास्टर जी लगभग आपा खोते हुए ऊंचे स्वर में बोले "अच्छा! जिस फीस को तुम्हारे पापा नहीं चुका पा रहे हैं उसे अब तुम चुकाओगे। डिफॉल्टर कहीं के...!"

यह बात मिंटू के हृदय को भेद गई और उसने कहा, " सर,मैं स्कूल की फीस आज ही जमा करूँगा। मेरे पापा गरीब जरूर हैं पर डिफाल्टर नहीं। वो इस समय बीमार चल रहे हैं घर पर पैसों की तंगी है इसीलिए मैंने स्कूल से गैर हाजिर रहकर मजदूरी करके अपने स्कूल की फीस के लिए पैसे कमाये हैं। इसीलिए इस महीने मैं पढ़ाई को लेकर थोड़ा अव्यवस्थित रहा हूँ।इसके लिए मुझे खेद है। "
  यह सुनते ही पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया और मास्टर जी स्वयं को बौना महसूस करने लगे और  सॉरी कहते हुए उनका सिर झुक गया ।

नवल किशोर शर्मा 'नवल'

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी - 'ऑनलाइन क्लास'


       'ओह, 10 बजे गए, 11 बजे से ऑनलाइन क्लास लेनी है', राकेश ने दुकान पर खड़े हुए घड़ी में देख मन ही मन कहा l राकेश, एक निजी स्कूल में अध्यापक था l लॉक डाउन के चलते स्कूल तो बंद हैं, अब ये ऑनलाइन क्लास के भरोसे ही सारा काम चल रहा है l निजी स्कूल के शिक्षकों को लॉक डाउन में अपनी आजीविका चलाने के लिए एकमात्र सहारा ये ऑनलाइन क्लासेस ही तो थीं l दिन भर 5 घण्टे की क्लास लेने के बाद स्कूल से माह का आधा वेतन मिलता था l प्रबंधक ने साफ़ कह दिया था कि यदि ऑनलाइन काम नहीं तो वेतन भी नहीं l राकेश के पैर जल्दी जल्दी घर की ओर दौड़ने लगे l ' अरे यार! मैं तो भूल ही गया, वो बिना तार वाले हेडफोन लेने थे एक मित्र से' l घर का सामान लेने की जल्दी में राकेश अपने मित्र रवि से वो बिना तार के हेड फोन लेना भूल गया l अब ऑनलाइन पढ़ाने में उसे फोन को दूर रख बोर्ड पर पढ़ाना होता था, लेकिन वहाँ से आवाज फोन तक नहीं पहुंच पाती थी l आधी तनख्वाह में घर का खर्चा ही मुश्किल से निकल पा रहा है l उपर से हर दिन नेट का अतिरिक्त खर्च भी झेलना है, फिर ये बिना तार का हेड फोन जो कम से कम हजार - बारह सौ से कम न मिलेगा, इसीलिए एक मित्र से कुछ दिनों के लिए 'उधार' लेना पड़ रहा है l राकेश रवि के घर पहुंचा और दरवाज़ा खटखटाया l रवि उसे देखते ही समझ गया कि वो वहाँ क्या लेने आया है l रवि ने हेड फोन देते हुए कहा - "यार शाम से पहले दे जाना, लड़के को फोन में गेम खेलना होता है वो बड़ा उत्पात मचायेगा" l राकेश हाँ में गर्दन झुका घर चला आया l आते ही सीधा उपर वाले कमरे में गया और क्लास की तैयारी करने लगा l आज किसी शैतान लड़के ने फिरकी लेने के मिजाज से अपने भाई के दोस्त को क्लास में जोड़ लिया था l उसने पूरे 1 घण्टे राकेश को खूब ही परेशान किया l किसी तरह क्लास निपटा वो सोफ़े पे बैठा सोचने लगा l रोज ही ऐसी हरकत होती रहती, कोई न कोई शैतान छात्र किसी न किसी तरह उसे परेशान किया करता l स्कूल में शिकायत का कोई नतीज़ा नहीं, उल्टा प्रधानाचार्य ने कह दिया कि ज्यादा दिक्कत हो तो क्लास बंद कर दो l अगर क्लास बंद कर दी तो जो आधा वेतन आता है वो भी नदारद l इसी उधेड बुन में शाम हो चली l राकेश रवि के घर की ओर चल पड़ा, हेड फोन वापस करने l उधर अपने एसी कमरे में सोफ़े पर लेटे हुए एक अभिभावक अपने मित्र को ज्ञान दे रहे थे - 'ऑनलाइन क्लास एक दम बकवास है यार l  पैसा लूट रहे हैं सब l इससे कोई फायदा नहीं होने वाला l' इत्तेफाक से इनका लड़का ही था जो आए दिन बाहर के लड़कों को ऑनलाइन क्लास में बुला राकेश को तंग किया करता था l राकेश रवि के घर से वापस लौट रहा था ये सोचते हुए कि स्कूल तो बंद ही हैं यदि ऑनलाइन क्लास भी बंद हो गई तो क्या होगा?

- विभांशु दुबे 'विदीप्त'
गोविंद नगर, मुरादाबाद
9948149835

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा -----ननद


रमा बडी बहन थी ।अपने छोटे भाई का संरक्षण उसकी जिम्मेदारी थी जो माँपिता ने अंतिम समय मे सौपी थी।एक मातृवत् ही सदैव उसने अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया था।मगर भाई अनिल की शादी के बाद उसे बहुत जल्दी समझा दिया गया कि वह बहन है।अनिल की पत्नी विन्नी उसे बडा मानने के बदले ननद मानती थी।उसका विश्वास था कि ननद भाभी का भला नहीं चाह सकती हैं।इसी लिए जब भी उसने बडे होने केनाते समझाना चाहा उसे विन्नी ने अपने अधिकार क्षेत्र मे दखल ही माना।पदौन्नति केबाद उसे दूसरे शहर जाना पडेगा।यह सुनकर विन्नी की खुशी का ठिकाना न रहा।तीन वर्ष गुजर गये।इधर जब रमा अवकाश मे आयी तो देखा विन्नि की तबीयत खराब थी ।घर अस्तव्यस्त था।दोनो बेटियां टी वी देखने मे मस्त थी।विन्नी के बुलाने पर भी न सुनती।रमा ने दो तीन दिन में घर को व्यवस्थित किया।दोनों भतीजी बुआ से खुश थी।इधर विन्नी की तबियत भी कुछ सभल गयी थी। दोपहर मे  टीवी के चैनल का शोर न था।वह उठी देखने के लिए।दूसरे कमरे मे रमा उसकी बेटियों को समझा यहीथीकि अब तुम भी बडी हो गयीं हो।घर एवं परिवार के लिए सब को सहयोग करना चाहिए।विन्नी की तबियत और खराब न हो इसकाध्यान रखना ।गृहिणी यदि स्वसथ न हो तो पूरा परिवार बिखर जाताहै।यदि तुम छोटे छोटे काम एवं अपने काम कर लोगी तो उसपर बोझ कम रहेगा और काम भी जल्दी होग।"
सुनकर विन्नी की आँखों से आँसू बहने लगे।उसकी पूर्व सोच आँसुओं मे बह गयीं।दौडकर वह दीदी कहती हुई उसके गले लग गयी।रमा थपथपाते हुए बोली,"सब ठीक हो जायेगा, तुम चिन्ता मत करो बस अपना ध्यान रखो"।
डा श्वेता पूठिया
मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष हुल्लड़ मुरादाबादी की पुण्यतिथि पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा दो दिवसीय ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा


        वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा मुरादाबाद के गुज़र चुके बड़े साहित्यकारों को "ज़मीं खा गयी आसमां कैसे कैसे" शीर्षक के तहत 12 जुलाई को हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी की पुण्यतिथि पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । ग्रुप के सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा की। चर्चा दो दिन चली।
सबसे पहले ग्रुप के सदस्य वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने
हुल्लड़ मुरादाबादी के जीवन के बारे में बताया कि हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं । दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की
   चर्चा शुरू करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि " हुल्लड़ विशुद्ध हास्य कवि थे काका हाथरसी की परम्परा के ।मेरे भीतर हास्य-व्यग्य कवि की जो छवि बेढब बनारसी ,चोंच बनारसी  ,भैया जी बनारसी ,रमई काका या विद्रोही जी की रचनात्मकता से बनी थी वह अलग थी।
   वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि हुल्लड़ जी का स्मरण करने का अर्थ है मुरादाबाद के साहित्यिक पन्ने पलटना। मै स्वयं हुल्लड़ जी के प्रारम्भिक रचनाकार का साथी रहा हूं। हुल्लड़ जी ने हास-परिहास नाम से संस्था का संचालन किया था।
  वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मैं सन् १९७० में ही अपनी मित्र मंडली के साथ हुल्लड़ जी के संपर्क में आ गया था। देश-विदेश में अपने हास्य से लबरेज व्यंग्य-विनोद के लिए विख्यात मुरादाबाद के कवि हुल्लड़ जी का प्रयाण दिवस था। उन्हें, उनके साथ जुड़ी स्मृतियों की हर खिड़की से कोटि-कोटि नमन।
  मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि मुझे उनसे सदैव बड़े भाई का प्यार मिला। मैं उनके पारिवारिक सदस्य की तरह था। हुल्लड़ जी मंच के स्टार थे। लोग उनको सुनने के लिए देर रात तक बैठे रहते थे। महानगर में विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों में वह मुझे अपने साथ ले जाते थे।
    कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि वे अपनी चुटिले व्यंग कविताओं में हास्य का अनोखा पुट देकर श्रोताओं को हंसाने और तुरंत गंभीर करने की कला में माहिर थे। जिन समस्याओं को हुल्लड़ जी ने काफी पहले अपनी कविताओं के द्वारा सचेत किया था वे आज शत प्रतिशत हमारे सामने है।
 प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि  आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी को मैं अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूं। ये मेरा सौभाग्य है कि मैंने उन्हें मंच से सुना है उनकी प्रस्तुति कि विशिष्ट शैली थी जो सबको आकर्षित करती थी।
 प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि मुरादाबाद की धरती सौभाग्यशाली है कि यहाँ हुल्लड़ जी जैसे रचनाकार हुए जिन्होंने अपने रचनाकर्म से यहाँ की प्रतिष्ठा को विश्व भर में समृद्ध किया। उनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण धरोहर हैं। उनकी रचनाओं में ऐसी तासीर है कि लोग आज भी उन्हें सुनकर या पढ़ कर ठहाके लगाने पर विवश हो जाते हैं।
  समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि उनकी रचनाएं पढ़ने के बाद अंदाजा होता है की हुल्लड़ जी की मकबूलियत का राज उनकी भाषा में छिपा हुआ है। उन्होंने आम आदमी के दुख दर्द को समझा और उसी की भाषा में पेश करके यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना यह है कि हुल्लड़ जी मूल रूप से एक हास्य-व्यंग्य के कवि थे और हास्य-व्यंग्य भी ऐसा जो गूढ़ साहित्यिक शब्दों एवं नियमों के बंधन से मुक्त रहते हुए, आम जनमानस की भाषा-शैली में, जीवन की समस्याओं को उठाने एवं उनके सशक्त हल प्रस्तुत करने में सक्षम रहा।
कवि श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि देश की शिक्षा पद्धति और बेरोजगारी पर इतना तीक्ष्ण व्यंग इतनी सहजता से हास्य के तड़़के के साथ प्रस्तुत कर देना ही हुल्लड़ जी के लेखन की विशिष्टता थी, और इन्हीं रचनाओं के प्रस्तुतिकरण का उनका विशिष्ट अंदाज उन्हें श्रोताओं के ह्रदय तक पहुँचा देता था।
  युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि हुल्लड़ जी को सुनना,पढ़ना चेहरे पर मुस्कान ला देता था,लेकिन यह हास्य फूहड़ नहीं था और न ही केवल मनोरंजन मात्र।वे समाज की विद्रुपताओं को हास्य की कोटिंग में लपेटकर इस तरह पेश करते कि जब यह कोटिंग उतरती तो  विद्रुपताओं का नग्न स्वरूप मस्तिष्क को कचोटने लगे और हम सोचने को मजबूर हों।वे निश्चित ही हास्य व्यंग्य के बड़े रचनाकार थे।     
   युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि अनोखी शैली, चुटीले व्यंग्य और चुटकुलों पर पूरी तुकांत कविता कह देने वाले शब्दों के जादूगर थे हुल्लड़ मुरादाबादी। केवल 8 साल की उम्र में ही मेरा जब कविता से परिचय हुआ तो लगा कि कवि केवल काका हाथरसी, सुरेंद्र शर्मा और हुल्लड़ मुरादाबादी ही होते हैं। उनकी एक-एक रचना ज़बरदस्त हास्य और व्यंग्य का नमूना है।
युवा शायरा मोनिका मासूम ने कहां कि उनकी रचनाएं साधारण जनमानस के जीवन की समस्याओं ,समाज में पांव पसार थी विषमताओं पर आधारित होती थीं इसलिए उससे अपने आपको जोड़ पाना बहुत आसान हो जाता था । उनकी हास्य व्यंग्य की रचनामन मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाया करती हैं। और मन में प्रसन्नता के हिलोर उठा देती हैं।
 ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि हैरत होती है कि क्या आसान ज़बान, क्या आम बोलचाल की हिंदुस्तानी ज़बान का इस्तेमाल हुल्लड़ जी ने अपने यहां किया है। तो उसका सबसे अच्छा जवाब उनकी ग़ज़लें हैं और ग़ज़लों की यह ज़बान है।

::::::प्रस्तुति::::::
ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
मुरादाबाद लिटरेरी क्लब
मो०8755681225

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अमितोष शर्मा की रचना


मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की रचना


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ इंदिरा रानी की कविता


मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की कविता


मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की कविता


मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार मनोरमा शर्मा की कविता


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की रचना


मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की गीतिका


मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार सन्तोष कुमार शुक्ल की कविता


मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कविता


मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार मुजाहिद चौधरी की गजल


मुरादाबाद की साहित्यकार अरविंद कुमार शर्मा आनन्द की ग़ज़ल


मुरादाबाद की साहित्यकार पूनम गुप्ता की कविता


सोमवार, 13 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के 10 गीतों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा----


        वाट्सएप पर संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 11 व 12 जुलाई 2020 को मुरादाबाद के विख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी के दस गीतों पर ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा दस गीत पटल पर प्रस्तुत किये गए-----

*गीत - 1*

शहरों से जो
मिली चिट्ठियां
गांव - गांव के नाम ।
पढ़ने में बस
आंसू आये
अक्षर मिटे तमाम ।।
           हर चिट्ठी पर
           पुता मिला है
           धूल - गर्द का लेप ।
           शारीरिक सब
           भाषाओं की
           बिगड़ गई है शेप ।
           यात्राओं की
           पीड़ाओं से
           कहां अभी आराम ।।
           शहरों से जो-------।।
मेहनत करके
अर्जित करना
जिया एक ही राग ।
लिख आईं ये
भाग सभी के
लिखा न अपना भाग।।
जिनके बल पर
वैभव , उनके
भूले - बिसरे     नाम ।
शहरों से जो---------।।
           आशाएं थीं
           सब आयेंगी
           होकर मालामाल ।
           गांव दुखी हैं
          दुख के मारे
          सोच - सोच कर हाल।।
          वज्रपात ने
          कौड़ी - कौड़ी
          करके भेजे दाम ।
          शहरों से जो-----।

*गीत : 2*

हर दोपहरी बाट जोहती
है वृक्षों की छांव ।
चल देहात नगर से, जाने
कब लौटेंगे गांव ।।
खंडहर के सन्नाटों से जा
मांगे अन्धा भीख।
आकर झोली में पड़ती पर
दो दो मुट्ठी चीख ।।
लेकर आशा घोर निराशा
लौटे उल्टे पांव ।
सब देहात------।।
चमक दमक ने हम सबकी ही
आंखें दी थीं फोड़ ।
गुणा भाग सब और घटाना
ठीक नहीं था जोड़।।
जो सपनों में महल बुने सब
उल्टे लगते दांव ।
सब देहात------।।
ताल तलैया कुएं पोखरे
गई नदी तक सूख ।
मिड-डे मील पढ़ाने निकला
ले सुरसाई भूख ।।
मूल बुलाता सूद बिना सब
आओ अपने ठांव।
सब देहात -------।।

*गीत : 3*

ठहर सतह पर रुक मत जाना
मन से मन को छूना ।
भीतर भीतर बजती रहती
कोई पायल मुझमें ।
प्रेम परिंदा घर कर बैठा
होकर घायल मुझमें।।
परस भाव से अपनेपन के
पन से पन को छूना ।
ठहर---------------।।
अंतर्मन में चाह उमगना
दुविधा भर जाता है ।
कुछ-कुछ जी उठता है भीतर
कुछ-कुछ मर जाता है।।
आगा पीछा सोच समझकर
तन से तन को छूना ।
ठहर---------------।।
घने अभावों में मुट्ठी भर
भावों का मिल जाना।
चिथड़े-चिथड़े पहरन के ज्यों
दो कपड़े सिल जाना।।
उल्लासों के मेले छड़ियां
कन से कन को छूना ।
ठहर----------------।।

*गीत : 4*

मौसम जब मनचले हुए तो
डांट दिए रितुओं ने मौसम।
ड्योढ़ी ड्योढ़ी यौवन आहट
जात उमंगित न्यारी न्यारी ।
हाव भाव में भरी चुलबुली
मिसर उठी पतियाती क्यारी।।
सूंघ महकते संवादों को
सांट दिए रितुओं ने मौसम।
डांट दिए------------------।।
उमड़ घुमड़ कर रस आया तो
रसने अधर,अधर को आए ।
कातर कातर सहमे सहमे
नीचे पड़ कर नयन लजाए।।
सोच समझ कर इस भाषा को
चांट दिए रितुओं ने मौसम।
डांट दिए-----------------।।
मनमौजी  मनमाने पंछी
बहुत मनाए पर कब माने।
चुपके छुपके देखभाल कर
चुगने लगे प्रेम के दाने ।।
विपरीती परिणाम दिखे तो
फांट दिए रितुओं ने मौसम ।
डांट दिए------------------।।

*गीत- 5*

*गीत पेड़ से गुज़रा*
 
अमरूदों को कुछ तोतों ने
कुतर कुतर फिर,कुतरा।
दुख दारुण हो टपक टपक कर
पेड़ गीत से गुज़रा।।
टहनी टहनी अपना दुखड़ा
कहती फिरती रो कर।
पगलाई वह लुटी पिटी सी
अपना सबकुछ खोकर।।
तड़क भड़क कर हार गईं पर
तोता एक न सुधरा।
पेड़ गीत से गुज़रा ।।
पत्तों में भी खुसर फुसर यह
जो थे रतन छिपाए।
हम रखवाले तो भी उनको
रक्ष नहीं कर पाए।।
क़ौम दगीली आज हुई है
हर पत्ता नाशुकरा।
पेड़ गीत से गुज़रा।।
सहमी सहमी कलियां बोलीं
धर्म हमारा खिलना।
उन्हें मुबारक उनकी करनी
जिनसे छल ही मिलना।।
हाथ छुआएं अब तोड़ेंगी
उन छैलों के थुथरा।
पेड़ गीत से गुज़रा ।।
       
*गीत - 6*

आस पास में इसीलिए तो
रहती चहल पहल है।
पीड़ाओं को लगता,मेरा
घर आनन्द महल है।।
मिलता कब है लाचारी को
सम्मान जनक आसन।
भोर हुए से दिन ढलने तक
करती चौका बासन।।
मेरे घर में इनके ही तो
मन का सुखद महल है।
घर आनन्द महल है।।
घर से निकलूं तो मिल जाती
भिखमंगी मजबूरी।
धर्मपरायण मर्मशास्त्र भी
चलें बनाकर दूरी।।
मेरे दर पर इन दुखियों की
होती रही टहल है।
घर आनन्द महल है।।
थक हारी पड़ जातीं कुछ तो
फुटपाथी बिस्तर पर।
तम को गाने लग जातीं फिर
अपना सगा समझकर।।
इनकी भूकंपी सांसों की
मुझ तक रही दहल है।
घर आनन्द महल है।

*गीत : 7*

बाहर हैं,पर दिखे नहीं हों
ये सबके भीतर होते हैं।
मानो या मत मानो लेकिन
गीतों के भी घर होते हैं।।
गीत लोक के वंशज ठहरे
हर मौसम में गाये जाते।
कभी कभी तो खुलते पूरे
कभी कभी सकुचाये जाते।
पानी पानी पानी मांगे
जब जब गान मुखर होते हैं।
गीतों के------------------।।
मचले जो ये रीति रंग में                             
रचने में ही लीन हो गए।
भक्त हुए तो ऐसे जिनके
प्राण बांसुरी बीन हो गए।।
भटके को जो राह दिखादें
इनमें इतर असर होते हैं।
गीतों के----------------।।
चलते चलते घर पाने को
गीत अगीत प्रगीत हुए हैं।
पी ली नीमों की ठंडाई
तब जाकर नवगीत हुए हैं।।
दिशाहीन रसपानों की ये
रचते धुकर पुकर होते हैं।
गीतों के ------------------।।

*गीत : 8*

मोबाइल के नोट पैड की
खिलकर आई भीत।
दक्ष पोरुए टाइप करके
चले गए कुछ गीत।।
चंद्रयान से चली चांदनी
उतरी तम के द्वार ।
किरणयान का टिकिट कटा तम
पहुंचा पल्ली पार।।
दिवस रात सब अभिनय करके
ऐसे जाते बीत ।
दक्ष पोरुए----  ।।
मन विह्वल में कतरे पर के
उठते नहीं उड़ाव ।
पर कतरों का षड्यंत्रों से
गहरा बहुत जुड़ाव।।
इनकी ढाल बनी दृढ़ रहती
ग़जट हुई हर नीत।
दक्ष पोरुए-------।।
आय योजना तो उसमें को
कितने पड़ते कूद।
गाय दुखी है हर खूंटे पर
देना पड़ता दूध।।
शिष्टाचारित मन से होती
भ्रष्टाचारित जीत।
दक्ष पोरुए-------।।

*गीत : 9*

यह जो चीनी गुब्बारा है
इसकी हवा निकालो ।
बहुत पतंगें उड़ लीं इसकी
उनका अब उड़ना क्या।
इसका मांझा इसकी गर्दन
और अधिक करना क्या।
कंधे बहुत उचकते इसके
उनका खवा निकालो।
इसकी--------------।।
         जितनी पैठ बनाई इसने
         बाजारों में अपने।
         अपनी बढ़ा दुकानें कर दो
         लंगड़े दूषित सपने।।
         फूं - फूं बड़ी दिखाता
         फिरता
         फूं - फूं सवा निकालो।
         इसकी---------------।।
दूध न देती आसानी से
नये ब्यांत की झुटिया।
जबरन भी यदि दुहना चाहो
खाली रहती लुटिया ।।
रवेदार बनता फिरता है
इसका रवा निकालो ।
इसकी--------------।।
          चीलें चमगादड़ चूहे सब
          जिसके तोते-मिट्ठू।
          अपने घर ही भरे पड़े हैं
          इस शातिर के पिट्ठू।।
          एक बार ही फंद कटें सब
          ऐसी दवा निकालो।
          इसकी----------- ।।

*गीत : 10*

किया उजागर कोरोना ने
आडम्बर का बौनापन।
बिंदी जैसी सेवाओं के
सूरज जैसे विज्ञापन।।
चुग्गा होता जिनका हिस्सा
जाल तने रहते उनपर।
अर्थमुखी खा उसको जाते
बाने में ताना बुनकर।।
बनकर बन्दर सब गांधी के
गड्डी गिनते नियमासन।
बिंदी जैसी------------।।
डाल डाल पर हावी होकर
लुक में अपने रहता है।
इर्द गिर्द का मौसम चाहे
किलच किलच कर डहता है।।
इन जैसों की लाबिंग तगड़ी
साधा सबने ऊंटासन।
विंदी जैसी-----------।।
स्कूलमुखी सड़कें तो देखो
लिप्त पड़ीं हुड़दंगों में ।
कहां मिलेगा अनुशासन जो
रहा संटियों अण्डों में ।।
ब्रेन खिड़कियां कैसे खोले
पड़ा रिटायर मुर्गासन।
बिंदी जैसी----------।।
इन गीतों पर चर्चा करते हुए प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा कि हिंदी की हास्य व्यंग्य कविता में पिछले  दशकों में तेजी से अपनी पहचान बना चुके डॉ. मक्खन मुरादाबादी अपने ढंग के अकेले रचनाकार हैं ।पिछले दिनों आये उनके पहले संग्रह से इसकी  पुष्टि होती है ।इस बीच उन्होंने गीतलिखना शुरू किया है  ।उन्होंने अपने लेखन का आरम्भ छंदोबद्ध रूप से किया यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता ।जिन हास्य व्यंग्य के कवियों ने  अपना लेखन गीतकार के रूप में किया उनमें स्व.सुरेंद्र मोहन मिश्र ,श्री सुरेश उपाध्याय तथा सुरेंद्र दुबे से मेरा परिचय रहा ।इन लोगों  ने सिर्फ आस्वाद बदलने के लिए नहीं बल्कि रचनात्मक दबाव के तहत गीत के आंगन में गाते गुनगुनाते रहे ।इस बीच प्रवीण शुक्ल की गुनगुनाहट के स्वर सुनाई देने लगे हैं ।मक्खन मुरादाबादी की गीत के घर आमद नई है  ।मक्खन ने पटल पर प्रस्तुत अपने गीतों में  कुछ खूबसूरत  बिम्बों के प्रयोग किये हैंजो उनके भीतर बैठे गीत कवि की संभावनापूर्ण आश्वस्ति को बल देते हैं।
 वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि गीत हमेशा गीत ही है। लय के साथ भावों की प्राणवत्ताही उन्हें पाठक/श्रोता के मन के भीतर तक सम्प्रेषित करती है। गीत कार अपने परिवेश को जीता है तब गीत रचना होती है। मक्खन जी ने गीत में समकालीन समाज की सुखद परिस्थितियों के साथ विद्रूप का भी सुंदर चित्रण किया है। एकदम नवीन खरेऔर ताज़ा तरीनबिम्ब मक्खन जी को गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में ले जा रहे हैं। आगे क्याहोताहै इसकी प्रतीक्षा काव्य जगत करेगा। मैं भी उनमें शामिल हूं। मक्खन जी को हार्दिक बधाई के शब्द कम पड़ रहे हैं।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि आदरणीय डॉ.मक्खन मुरादाबादी जी के गीतों को पढ़ कर नि:शब्द हूँ। हम अब तक उन्हे सशक्त समर्थ और उत्कृष्ट व्यंग्यकार और हास्य कवि के रूप ही जानते हैं। आज उनके दस गीतों को पढ़ कर महसूस हुआ कि उनका गीतकार कितना समर्थ और सशक्त है। अब तक उनकी व्यंग्य की चुटीली सुनारों वाली चोट पर गीतों की मधुरता की यह लोहारी चोट बहुत मनोहारी है। व्यंग्य पर सशक्त पकड़ रखने वाले ख्याति प्राप्त कवि ने गीतों में  विस्मयकारी इतिहास रच दिया है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि आदरणीय मक्खन जी भी छंदमुक्त से छन्दयुक्त कविता की तरफ़ आए और इस यात्रा के आरंभ में ही शानदार गीतों की रचना की। लोगों ने उनकी छंदमुक्त कविताएं तो पढ़ी और सुनी हैं, लेकिन यह पहला अवसर होगा, जब लोग उनके गीत भी पढ़ेंगे। चूंकि मक्खन जी व्यंग्य कवि हैं, इसलिए उनके गीतों में भी सशक्त व्यंग्य के दर्शन होते हैं। उनके यहां आम आदमी की दौड़-धूप, उसकी समस्याएं और उन समस्याओं का निदान आसानी से देखा जा सकता है। उन्होंने शब्दों को भाषा की दृष्टि से नहीं, बल्कि उपयोग की दृष्टि से देखा है, इसीलिए उनके यहां अंग्रेज़ी, उर्दू आदि के अतिरिक्त देशज शब्द भी प्रचुर संख्या में मिलते हैं।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने कहा कि सब की तरह मैंने भी मक्खन जी को हमेशा एक व्यंग्य के कवि के रूप में देखा और सुना है।लेकिन अब उन्हें एक गीतकार के रूप में पढ़ कर अचम्भा भी नहीं हुआ।क्योंकि असल चीज़ सृजन है। मक्खन जी के गीत पढ़ कर यह कहीं नहीं लगता कि वह इस डगर के नए मुसाफिर हैं।हाँ उन की व्यंग्यात्मक शैली गीतों में भी झलक पड़ती है।और यह होना स्वाभाविक भी है।क्योंकि व्यंग्य उनका पहला प्यार जो ठहरा। गीत का ख़्याल मन में आते ही सोई हुई सी रक्तकोशिकाओ में एक प्रवाह सा महसूस होता है। ठहरी हुई ज़िन्दगी में एक लहर सी उठती है। अब अगर मक्खन जी के गीतों को पढ़ा जाए तो वह इस कसौटी पर पूरे उतरते हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी का नया काव्य रूप गीतकार। लगता है कि गीतों की पायल उनके मन में बहुत पहले से ही बजती रही है।  इसका आभास तो बीते साल ही प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन पर आयोजित पावस गोष्ठी में उस समय हो गया था जब उन्होंने श्रंगार रस का एक गीत सुनाया था। पटल पर प्रस्तुत उनके सभी 10 गीत मन को भीतर तक छू लेते हैं। उनके अंतर्मन रूपी घर में बरसों से सकुचाए बैठे गीत अब खुलकर मुखर हो गए हैं और मोबाइल फोन के नोटपैड पर थिरकने लगे हैं। मानों या मत मानों उनके गीतों में वही कसमसाहट ,तिलमिलाहट, पैनापन ,नीम की ठंडाई, संवेदना, भावविह्वलता दिखाई देती है जो उनकी व्यंग्य कविताओं में है।
वरिष्ठ कवि डॉ शिशुपाल मधुकर ने कहा कि मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के रचनाकारों की समीक्षा कार्यक्रम के क्रम में डॉ कारेंद्र देव त्यागी उर्फ मक्खन मुरादाबादी जी के दस नवगीत पढ़ने को मिलना एक अप्रत्याशित घटना है।अप्रत्याशित इसलिए कि अभी तक हमने उनका यह रूप कभी नहीं देखा।कवि गोष्ठियों या मंचों पर उन्होंने हमेशा गद्यात्मक व्यंग रचनाओं का ही पाठ किया है।अचानक इतने गंभीर और उत्कृष्ट शैली में नवगीतों की रचना अपने आप में अविश्वस्नीय सी लगती है। बड़ा ही सुखद लगा कि मक्खन जी ने गीत की दुनिया में सशक्त रूप से धमाकेदार एंट्री की है।सभी दस गीतों को कई बार पढ़ा।सभी गीत नवगीत की सभी शर्तों को उत्कृष्ट रूप से पूरा करते है।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि  मेरे अग्रज आदरणीय मक्खन भाई साहब जी के गीतकार के रूप के नये अवतार को नमन करती हूं। उनके सशक्त गीतों पर कुछ समीक्षा कर सकूँ अभी इस काबिल नहीं हूं ।हाँ गीतों को पढ़कर बहुत आनंदित हूं और हृदय की अतल गहराइयों से अपनी अनंत शुभकामनाएं प्रेषित कर रही हूं।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि आदरणीय डॉ. मक्खन मुरादाबादी के सभी 10 गीतों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी यह अभिनव गीत-यात्रा भी लोकरंजन से लेकर लोकमंगल तक की वैचारिक पगडंडियों से होती हुई निरंतर आगे बढ़ी है। उनके गीतों में वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति के साथ-साथ गीत के परंपरागत स्वर में लोकभाषा के शब्दों की मिठास भरी सुगन्ध भी है। व्यंग्य कविता-यात्रा की पांच दशकीय अवधि में प्रचुर मात्रा में मुक्तछंद में कविताई करने वाला लेकिन हर क्षण कविता के हर स्वरूप को जीने वाला रचनाकार जब अचानक छंद की ओर लौटता है और वह भी गीत की ओर तो सभी का चौंकना भी स्वभाविक है और गीत की शक्ति का स्वप्रमाणित होना भी।
युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि डॉ मक्खन मुरादाबादी उन्होंने सिद्ध कर दिया कि गुणवत्ता की चमक कभी फीकी नहीं होती उत्पाद चाहे जो भी हो। एक ही झटके में उन्होंने आवरण उतारा तो  व्यंग कवि के भीतर बैठे एक अद्भुत, विलक्षण, कल्पना तीत रूप से रहस्यमयी गीतकार के दर्शन हुए जिसकी आभा ने सभी की आंखों को चौंधिया दिया।  पटल पर प्रस्तुत मक्खन जी के दसों गीत अपनी गीतात्मकता में बेजोड़ हैं, लेकिन मुझे सबसे अधिक चमत्कृत किया उनकी गांव की मिट्टी में सनी भाषा ने। यह वह भाषा है जो इतनी सादा और देसी है कि  उसे समझना अपने आप में कभी-कभी बड़ा क्लिष्ट  होता है। आप देशज हुए बिना उसे न तो महसूस कर सकते हैं और न ही समझ सकते हैं।
कवि श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि दादा के सभी गीत पढ़ने के बाद यह भी प्रतीत होता है कि सभी गीत अभी के लिखे हुए हैं। उनके गीतों में भी उनकी व्यंग की शैली स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है जो स्वाभाविक भी है। अपने दसों गीतों में मक्खन जी ने विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। प्रवासी मजदूर हों, प्रेम हो, शोषण  हो, अभाव ग्रस्त जीवन हो, चीन द्वारा सीमाओं पर अतिक्रमण के कारण उत्पन्न आक्रोश हो, या आपदकाल में सरकारी सहायता और घोषणाओं की वास्तविकता के धरातल पर स्थिति हो, हर विषय पर गीतों के माध्यम से आपने सशक्त अभिव्यक्ति की है। कुल मिलाकर सभी गीत वर्तमान परिस्थितियों से उत्पन्न सामाजिक परिदृश्य को अभिव्यक्ति देते हैं।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि  आदरणीय डॉक्टर मक्खन मुरादाबादी जी जोकि हास्य व्यंग के सशक्त हस्ताक्षर हैं,उनके द्वारा रचित नवगीत पढ़कर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है। परंतु मुझे कोई आश्चर्य इसलिए नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि एक हास्य व्यंग का कवि जितनी खूबी के साथ अपनी बातों को इशारों इशारों में कहने पर पकड़ रखता है अर्थात प्रतीकों और बिंबो के प्रयोग करने का हुनर रखता है उसके लिए नवगीत कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि इन दोनों चीजों की प्रधानता ही गीत को नवगीत बनाती है। आदरणीय मक्खन जी इसमें सिद्धहस्त हैं। ये ऐसे नवगीत हैं जो हम जैसे साहित्य के विद्यार्थियों को बहुत कुछ सीखने और समझने का अवसर प्रदान करते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि  चूँकि श्रद्धेय मक्खन जी मूलतः एक व्यंग्य कवि हैं, यही कारण है उनके इन उत्कृष्ट गीतों में पूरी गंभीरता के साथ व्यंग्य का पुट भी दृष्टिगोचर होता है। बिंदी, गांधी बन्दर, सूरज जैसे विज्ञापन, चीनी गुब्बारा जैसे सशक्त एवं अनोखे बिंबों से सजी एवं आम जनमानस की भाषा से ओतप्रोत उनकी ये अभिव्यक्तियाँ यह दर्शा रही हैं कि उनके भीतर एक उत्कृष्ट गीतकार भी रहता है, जो उनके गौरवशाली रचना कर्म के इस मोड़ पर, सशक्त रूप से हमारे सम्मुख आया है। ये गीत इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि अब दादा मक्खन जी की लेखनी से उत्कृष्ट गीतों की भी एक ऐसी अविरल धारा अपनी यात्रा का शुभारंभ कर चुकी है जो वर्तमान एवं भावी दोनो ही पीढ़ियों को प्रेरित करेगी।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि मुझे लगा था कि दादा की व्यंग्य कविताएं पढ़ने को मिलेंगीं लेकिन जिस तरह देश भर में पिछले कुछ दिनों से अप्रत्याशित घटित हो रहा है उसी तरह इस पटल पर भी हो गया। ख़ैर दादा की लेखनी का ये नया रूप भी बहुत अच्छा है। हर गीत अलग तेवर और कलेवर का है।
समीक्षक डॉ अज़ीमुल हसन ने कहा कि आदरणीय डॉ मक्खन  मुरादाबादी काव्य के  आसमान पर चमकता हुआ एक ऐसा तारा हैं जिसकी चमक से व्यंगात्मक काव्य में मुरादाबाद सदा जगमगाता रहा है। आपके गीत वर्तमान समाज का दर्पण हैं जो समाज को उसका सही प्रतिबिम्ब दिखाने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। समाज पर व्यंग का एक ऐसा आघात है जिससे समाज अपने भीतर झाँकने पर विवश हो जाता है। हमें आशा है कि हमारा समाज आपके गीतों से सदा लाभान्वित होता रहेगा।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि श्री कारेन्द्र देव त्यागी जी के गीत अप्रत्याशित भले ही हों पर उनके उच्च गुणवत्तायुक्त होने पर संशय किया ही नहीं जा सकता। वह हमेशा कहते रहे हैं कि मैं छंद के बारे में अधिक नहीं जानता या मैं छंद में नहीं लिखता लेकिन जब छंदबद्ध उनके गीत पटल पर आए तो लगा कि वास्तव में किसी विधा का ज्ञाता होने का दम्भ भरना और किसी विधा को सचमुच आत्मसात कर लेना दोनों ही कितनी अलग बातें हैं। भाव पक्ष हो अथवा कला पक्ष दोनों ही दृष्टि से आदरणीय मक्खन जी के गीत श्रेष्ठ हैं।
युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि  आदरणीय मक्खन मुरादाबादी आपके गीत एक नहीं कई कई बार पढ़े। जितनी बार पढ़े, हर बार नवीन गूढ़ रहस्य नज़र आये। नये विम्ब दिखे। आपके अद्भुत गीतों की चमकदार माला देखकर आँखें विस्मित हैं,अभी तक जब भी गीत पढ़े वे प्रिय, प्रियतमा ,साढ़, सावन ,भादो,प्रृकति चित्रण, विरह वेदना पर ही अधिकांशतः केंद्रित होते  देखे हैं,शायद प्रथम बार ऐसे गीत पढ़ने को मिले हैं, जिनमें मन की पीड़ा व्यंग्य के तरकश से निकलकर घातक मार करती हुई लक्ष्य प्राप्त करती है। मुझे गीतों के बारे में बहुत कुछ नहीं पता परंतु इतना अवश्य ही पता चल गया कि गीत इतने सादगी भरे भी हो सकते हैं। निःसंदेह आपके ये गीत हर मौसम में गाये जायेंगे।
डॉ ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि मुझे कहने दीजिए कि कहीं से ऐसा नहीं लग रहा कि ये गीत किसी ऐसे रचनाकार ने लिखे हैं जिसने कई वर्षों से गीत नहीं लिखे या कभी गीत लिखे ही नहीं। गीतों की भाषा में और गीत का जो रंग है जो रूप है वो हमें गांव की तरफ ले जाता है। अक्सर गीतों के शब्दों में और शब्दों के बीच जो ख़ामोशी है, उसमें हमें गांव की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खु़शबू महसूस होती है। गांव और शहर का जो रिश्ता है। वो खट्टा भी है और मीठा भी। जिसमें आशा भी है और निराशा भी, वह इतनी मज़बूती और इतने रचाव के साथ इन गीतों में बयान किया गया है कि देखते ही बनता है। गीत लिखते हुए किसी तरह के काव्यात्मक तकल्लुफ़ का कोई प्रयोग नहीं किया गया है। ज़ुबान आसान है, बहुत मुश्किल नहीं है। क्योंकि व्यंग के कवि हैं इसलिए गीतों में कहीं-कहीं व्यंग भी बहुत खूबसूरती से परोसा गया है। लेकिन वह इतना शुगर कोटेड है कि निगलते हुए कड़वाहट का एहसास नहीं होता।

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद 244001
मो० 7017612289