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रविवार, 14 नवंबर 2021
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति की ओर से 14 नवम्बर 2021 को किया गया काव्य-गोष्ठी का आयोजन
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति की ओर से मासिक काव्य-गोष्ठी का आयोजन रविवार 14 नवम्बर 2021 को विश्नोई धर्मशाला लाइनपार में किया गया।
राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई ने कहा --
सारे संसार में खोजना व्यर्थ है।
बैठ जाओ कहीं भी गगन के तले।।
मुख्य अतिथि ओंकार सिंह ओंकार की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी -
रात अंधेरी में से ही तो, भोर नई फूटेगी।
घोर निराशा में से आशा, जीवन में उतरेगी।।
विशिष्ट अतिथि के रूप में रघुराज सिंह निश्चल ने कहा -
खूब जलाये दीपक तुमने,
मिटा नहीं मन का अँधियारा।
हृदयों में जब भरी कलुषता,
फिर कैसे होता उजियारा।।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए रामसिंह निशंक ने कहा ---
सारे जग में सबसे सुंदर,
लगती हमें धरा अपनी।
सबसे बढ़कर न्यारी-प्यारी,
लगती हमें धरा अपनी।।
केपी सिंह सरल ने आह्वान किया -
अमन चाहते हो, बाबा को फिर गद्दी पर आने दो।।
रामेश्वर वशिष्ठ की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी - द्वार द्वार पर नई चेतना जागे।
मिटे अंधकार नई चेतना जागे।
राजीव प्रखर ने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा -
दिलों से दूरियाँ तज कर, नये पथ पर बढ़ें मित्रों।
नया भारत बनाने को, नई गाथा गढ़ें मित्रों।
खड़े हैं संकटों के जो बहुत से आज भी दानव,
सजाकर शृंखला सुदृढ़, चलो उनसे लड़ें मित्रों।
प्रशांत मिश्र की अभिव्यक्ति इस प्रकार रही - जब स्कूल की गोल कराई याद आती है,
थियेटर में बैठे मैथ की पढ़ाई याद आती है।।
संजय विश्नोई ने कुछ इस प्रकार कहा-
असत्य पर सत्य की जीत की एक सुनहरी सुबह नयी।
कितने युग बीत गये, प्रभु श्रीराम आज भी कालजयी।।
योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई ने आभार-अभिव्यक्त किया ।
:::::::::प्रस्तुति::::::::
राजीव 'प्रखर'
डिप्टी गंज, मुरादाबाद , उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 8941912642 , 9368011960
शुक्रवार, 12 नवंबर 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे के बारह गीत ।ये सभी गीत साहित्य कला मंच, चांदपुर, बिजनौर द्वारा वर्ष 1995 में डॉ महेश दिवाकर के सम्पादन में प्रकाशित साझा काव्य संग्रह 'काव्य-धारा' से लिये गए हैं
(1)
मुक्त विहग फिर तरु शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते।
जो पर थे पिंजरे में सीमित,
रक्त-बिन्दुओं से थे रज्जित,
पाकर आज गगन वह विस्तृत, अनायास ही हिल-डुल जाते।
मुक्त विहग फिर तरु-शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते।।
ऊँचे उड़ जाने की आशा,
मन में सतरंगी अभिलाषा,
आज़ादी की बन परिभाषा, मधुबन में रह-रह मदमाते ।
मुक्त विहग फिर तरु-शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते ।।
उर में ले आह्वाद परिन्दे,
मस्ती में हैं शाद परिन्दे,
आज बने आज़ाद परिन्दे, देखो आज़ादी अपनाते । मुक्त विहग फिर तरु-शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते ।।
(2)
जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर।
उल्लास भरी, उन्मत्त घड़ी,
विह्वलता की वह अश्रु लड़ी,
दोनों जीवन की चिर-संगी,
जब देखो दोनो पास खड़ीं।
पल भर हँसते ही रो पड़ता, निज व्याकुलता में सुधि खोकर ।
जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर ।।
बहुधा मीठे हों जीवन-क्षण,
बहुधा तीखे हों जीवन-क्षण,
विषमय जीवन की यह हाला,
हम पीते रहते हैं क्षण-क्षण
मुझ जीवन-पथ के राही को करते निराश उत्साहित कर।
जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर ।।
मीठी मादक-सी यह हाला,
विष का भी यह कड़वा प्याला,
शीतलता की ही जीवन में,
धू-धू भी करती है ज्वाला,
सुख की स्वर्णिम बदली आती, घिरते दुख के घन मंडरा कर।
जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर ।।
(3)
जब से तुम जीवन में आई।
तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाईं ।।
रंजित हो आते जीवन-क्षण,
औ कर जाते मधुमय जीवन,
आह्लाद भरा रहता प्रतिपल,
अलसाया तन और विकसित मन,
वैदेही छवियाँ मुस्काई, जब से तुम जीवन में आईं। तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाईं ।।
जीवन में परिवर्तन आया,
जीवन-सरिता की गति बदली,
जीवन का कण-कण मुस्काया,
मन में आशा की खिली कली
जिस क्षण तुमने ली अँगड़ाई, जब से तुम जीवन में आईं।
तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाई ।।
तुम हो जैसे आकाश-कुसुम,
मैं इस धरती का तृण लघुतम,
तुमको पा ऐसा मदमाया,
खैयाम करे ज्यों खाली खुम,
तब सुरभित सुधियाँ पुलकाई, जब से तुम जीवन में आईं।
तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाई ।।
(4)
शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में।
अलकें मुख पर छितराई-सी,
आँखें कुछ-कुछ अकुलाई-सी,
पुतली में प्रतिबिम्बित होती,
कोई अनुपम परछाई-सी,
मन की गति बढ़ती जाती है, फिर आज किसी की आहट में।
शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में ।।
मुख पर है पीत मलिन छाया,
फिर शिथिल हुई जाती काया,
अन्तर्जग में हलचल-सी है,
यह सहसा कौन निकट आया,
यह किसके लोचन भीग रहे, मृदु केश-राशि के झुरमुट में।
शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में ।।
है अर्द्ध-निशा और चन्द्र उदित,
डाली पर हो पल्लव विचलित,
क्यों कम्पित करते मौन दिशा,
जब चलती पुरवइया किञ्चित,
होते हैं घाव हरे उर के, नित रंगे वेदना के पुट में। शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में।।
(5)
विहग फिर गीतों के उड़ चले।
लगाकर अरमानों को गले ।।
लचीली शाख़ वो चिकने पात,
नीड़ के तिनकों की क्या बात,
उड़ा फिरता है झंझावात,
विपद क्षण टाले नहीं रहे।
विहग फिर गीतों के उड़ चले।
भुलाकर मधुवन का आहलाद,
लिये कटु अनुभव का अवसाद,
सँजोये उर में बिसरी याद,
कहाँ वह जोश और बलवते।
विहग फिर गीतों के उड़ चले।
उमंगों में ऊदापन कहाँ ?
बुझी-सी जीवन की ले शमां।
दूर तक उड़े गगन में जहाँ,
थके फिर आये तरु के तले।
विहग फिर गीतों के उड़ चले।
डाल पर कहीं किया विश्राम,
उड़े फिर पहरों ये अविराम,
सुबह हैं कहीं, कहीं हैं शाम,
कहाँ पहुँचेंगे ये दिन ढले।
विहग फिर गीतों के उड़ चले।।
वेदना से निखरा अनुराग,
हृदय में दबी-दबी-सी आग,
विहंगम वाणी का मृदु राग,
नित्य ही अन्तर्तम में पले
विहग फिर गीतों के उड़ चले।
(6)
मृदुल भावों के राजकुमार,
तुम्हीं से है मधुमय संसार ।
तुम्ही सूने जीवन में रंग
लगा, भर देते सरस उमंग,
सिहर उठते हैं जिससे अंग
औ, होते झंकृत उर के तार।
मृदुल भावों के राजकुमार,
तुम्हीं से है भावुक संसार ।।
प्रणय में पतझर ही मधुमास,
प्रणय आता है किसको रास,
आँसुओं में बह जाता हास,
तुम्हीं ने पाया इसका सार ।
मृदुल भावों के राजकुमार,
तुम्हीं से है मधुमय संसार।।
द्रवित कर अपनी अन्तर पीर,
बहाता है नित निर्झर नीर,
कि कवि आ जाता उसके तीर,
छलक पड़ता फेनिल उद्गार
मृदुल भावों के राजकुमार,
तुम्हीं से है मधुमय संसार ।।
कल्पना के पंखों को खोल,
कल्पना के पंखों पर डोल,
कल्पना के पंखों को तोल,
देखता नित जग की दृग-धार।
मृदुल भावों के राजकुमार,
तुम्हीं से है भावुक संसार ।।
(7)
कटुता का अनुभव होने पर,
अन्तिम सुख-कण भी खोने पर,
आघातों से पा तीव्र चोट,
अन्तर्तम के भी रोने पर,
विपदाओं के झोकों से
विचलित तो नहीं हुआ करते।
मन ऐसा नहीं किया करते।
उर पर जो कुछ आ पड़ता है,
उसको सहना ही पड़ता है,
यह विश्व यहाँ तो जीवन में,
पल-पल पर ही विह्वलता है,
पर विह्वलता की बात नहीं,
होठों पर यूँ लाया करते।
मन ऐसा नहीं किया करते।
अन्तर में ज्वाल जली है तो,
तुम इस ज्वाला को जलने दो,
अन्तर्ज्वाला में पिघल-पिघल
नूतन भावों को ढलने दो,
नूतनता ही तो जीवन है,
इससे तो नहीं बचा करते।
मन ऐसा नहीं किया करते।
दुख में जिनके आयें आँसू,
जो रह-रह भर लायें आँसू,
मानस में अन्धड़ चलने पर,
जो निज दृग में पायें आँसू
उनके आँसू पोंछा करते।
उनके आँसू को लख अपने
लोचन में अश्रु नहीं भरते।
मन ऐसा नहीं किया करते ।।
(8)
इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती।
मधु अमाँ वह दिन सुहाने,
प्रीत के मधुमय तराने,
सामना कब हो किसी से,
अब मिलन की कौन-जाने,
है न यह संध्या सुहानी, अब मुझे पल भर सुहाती। इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती ।।
क्या हुए वह क्षण रंगीले,
जब कि दो लोचन रसीले,
दे रहे थे चुप निमंत्रण
तृषित उर दो घूंट पी ले,
फिर हृदय-पट पर किसी की, है उभर तस्वीर आती। इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती ।।
दो घड़ी की यह कहानी,
हो न पायेगी पुरानी,
जग भुलाना चाहता,
पर यह सदा है याद आनी,
रागिनी फिर वेदना की, हाय ! उर में गूंज जाती।
इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती ।।
(9)
ओ, मस्त हवा के झोंके, तू,
मुझ विह्वल से परिहास न कर।
मैं आप लुटा-सा बैठा हूँ
ले जीवन के सौ कटु अनुभव,
यह सोच रहा हूं, मैं क्या हूँ
अपनी भावुकता में बहकर
ओ, मस्त हवा के झोंके, तू,
मुझ विह्वल से परिहास न कर ।।
काफूर हुआ मेरा मधु सुख,
दृग में आँसू बन तैर रहा -
मेरे इस अन्तर्तम का दुख
जो जाता इक बदली-सा झर।
ओ, मस्त हवा के झोके, तू,
मुझ विह्वल से परिहास न कर।।
सोया-सा है यह मेरा मन,
भूला मैं सारे राग-रंग
है आज शिथिल मेरा जीवन -
ले अभिलाषाओं का पतझर ।
ओ, मस्त हवा के झोंके, तू,
मुझ विह्वल से परिहास न कर।।
तू विरह-मिलन को क्या जाने,
क्या जाने क्यों जग बहक रहा
तू प्रणय-मिलन को क्या जाने
है जिसमें जाता हृदय निखर ।
ओ, मस्त हवा के झोंके, तू,
मुझ विह्वल से परिहास न कर।।
(10)
नीरव रातों में मैं पहरों, निज मन को बहलाता रहता।
नैनों में खारा नीर भरे,
नस-नस में मीठी पीर भरे,
यह घाव नमक लेकर मैंने
अपने हाथों ही चीर भरे,
हा! मुझसे कितनी भूल हुई, भूलों पर पछताता रहता।
नीरव रातों में मैं पहरों, निज मन को बहलाता रहता ।।
मम आशा के उजड़े खण्डहर,
दृग नित बरसा करते जिन पर,
इस करुण दृश्य से हो व्याकुल,
यह मग्न हृदय आता भर-भर,
हाँ! साथ ओस के मैं रजकण, आँखों से दुलकाता रहता।
नीरव रातों में मैं पहरों, निज मन को बहलाता रहता ।।
जब जग के खुलते मदिरालय,
मतवाले हो मदिरा में लय,
जीवन में लाते रंगीनी,
तब मैं करता जग में अभिनय,
रोना आने पर रजनी में, रह-रहकर मुस्काता रहता। नीरव रातों में मैं, पहरों, निज मन को बहलाता रहता ।।
(11)
मानव जीवन का विश्लेषण,
सुख-दुख की करुण कहानी है।
हैं याद मुझे वह भी घड़ियाँ,
जब मैं अधरों पर हास लिये,
फिरता था मधुबन में पहरों,
भोले मुख पर उल्लास लिये,
फिर शनैः शनैः बालापन से,
यौवन की सीमा में आया,
फिर शैनः शनैः मैंने अपने,
जीवन को कुछ से कुछ पाया,
फिर प्रेम-सरोवर के तट पर,
मैं प्रेम-सलिल की प्यास लिये,
सौ बार थका-माँदा आया,
इक प्रेम-मिलन की आस लिये,
अब धुँधला-धुँधला एक चित्र,
है इस मानस-पट पर अंकित,
मैं हाय, यही बस इक पूँजी,
कर पाया जीवन में संचित।
मत पूछो खाक कहाँ मैंने किस-किस मरुथल की छानी है।
मानव-जीवन का विश्लेषण, सुख-दुख की करुण कहानी है।।
(12)
कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये।
जब सह न सका जग की कटुता,
जब व्याकुल करके आकुलता,
अपनी सीमा से आगे बढ़
कवि-उर को छोड़ गई जलता,
कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये ।
मानव का उत्पीड़न क्रन्दन,
अबलाओं का वह मूक रुदन,
जब आतुर करके छोड़ गया,
भावुकता में अधझुल-सा मन,
कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये ।
जब दग्ध हृदय वाला कोई,
लब पर लाता प्याला कोई,
पर सहसा जब वह टूट गिरा,
और पी न सका हाला कोई,
कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये।
✍️ शंकर दत्त पांडे
:::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
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गुरुवार, 11 नवंबर 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे का बाल कहानी संग्रह - बारह राजकुमारियां। इस संग्रह में उनकी छह बाल कहानियां हैं। इस कृति का प्रकाशन वर्ष 1962 में हिंदिया प्रकाशन चांदनी चौक दिल्ली से हुआ था ।
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डॉ मनोज रस्तोगी
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे का अप्रकाशित कविता संग्रह - रेत पर जमती नहीं भीत । इस संग्रह में उनकी चालीस मुक्त छंद कविताएं उन्हीं की हस्तलिपि में हैं । भूमिका लिखी है पुष्पेंद्र वर्णवाल ने । यह दुर्लभ कृति हमें डॉ प्रेमवती उपाध्याय से प्राप्त हुई है ।
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मंगलवार, 9 नवंबर 2021
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ----यूज एंड थ्रो
दहलीज के एक कोने पे...
मायूस खड़े दीये ने...
दूसरे कोने में लुढ़के पड़े...
दूसरे दीये से पूछा,
"ठीक तो हो,भाई!
ये पीठ चौखट पे....
टेढ़ी क्यों टिकायी?"
दूसरा दीया बड़ी मायूसी से बोला
दर्द-ए-दिल का जैसे दरवाजा खोला,
"क्या बताऊँ,भाई?
कल रात जब मैं....
लुटा चुका था....
अपना सारा खजाना,
जला चुका था....
अपने रक्त की....
आख़िरी बूँद को भी...
दुनिया की चमक के लिए....
कि खुशी से चहकते....
किन्हीं कदमों की....
अल्हड़ ठोकर ने....
मुझे यूँ ठुकराया...
हाय,मैं दर्द में...
कराह भी न पाया...
बहुत शुक्रिया,दोस्त!
जो तुमने मेरी सुध ली...
पर अफसोस....
इससे अधिक हम दोनों ही....
कुछ कर नहीं सकते हैं....
सहेज ले कोई यूँ ही....
बस राह तकते हैं।"
गमगीन था दूसरा दीया भी....
बोला,"ठीक कहते हो दोस्त!
ये दुनिया बड़ी मतलबी है,
इसे कब किसकी पड़ी है?
जब तक उजाले की गरज थी,
त्योहार पे घर झिलमिलाना था।
घर का खास कोना....
हमारा ठिकाना था।
संभाला गया हम को....
कितने प्यार से....
भरे गये हमारे अंतस
स्नेह की धार से....
पहन साफ वस्त्र ....
नये सूत की बाती के।
टिमटिमाते थे हम....
धरती की छाती पे....
सब कुछ कितना आकर्षक था,
चारों ओर झिलमिलाहट थी।
जलते दीयों के वजूद की....
होंठों पर खिलखिलाहट थी।
है नियति ये....
हम सब को समझ आती है।
लेकिन इंसान की....
फितरत रूलाती है।
पल पल इसका....
रंग बदलता है।
इसका स्वार्थीपन....
बहुत अखरता है।
ये बटोरेगा अब ऐसे....
जैसे कि कबाड़ है हम।
"यूज एण्ड थ्रो" के
असली शिकार है हम"
दूसरे दीये ने ढाँढस बँधाया,
बुझे मन से वह बुदबुदाया,
"न हो उदास और हताश,
मत मलाल कर,मेरे भाई
इंसान ने तो रिश्तों में भी,
नीति यही अपनायी।
रिश्ते नाते और दोस्ती
अब यूज किये जाते हैं...
और निकलते ही मतलब,
फैंक दिये जाते हैं"
✍हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 244001,
उत्तर प्रदेश, भारत
सोमवार, 8 नवंबर 2021
मुरादाबाद मंडल के चंदौसी जनपद सम्भल (वर्तमान में अलीगढ़ निवासी ) के साहित्यकार लव कुमार प्रणय का गीत--- बेटियों को सदा प्यार करते रहो
बेटियाँ शान हैं ,बेटियाँ मान हैं
बेटियाँ साँस हैं ,बेटियाँ प्रान हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
बेटियाँ गीत हैं ,बेटियाँ प्रीत हैं
बेटियाँ जीत हैं ,बेटियाँ मीत हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
बेटियाँ रूप हैं ,बेटियाँ फूल हैं
बेटियाँ धूप हैं ,बेटियाँ कूल हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
बेटियाँ ठाँव हैं ,बेटियाँ पाँव हैं
बेटियाँ गाँव हैं ,बेटियाँ छाँव हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
बेटियाँ भोर हैं , बेटियाँ शाम हैं
बेटियाँ प्यार के,अनगिनत नाम हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
बेटियाँ आज हैं , बेटियाँ नाज़ हैं
बेटियाँ ज़िन्दगी का मुखर साज़ हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
बेटियाँ नींव हैं, बेटियाँ द्वार हैं
बेटियाँ सावनी मेघ मल्हार हैं
बेटियों को सदा प्यार करते रहो।
✍️ लव कुमार 'प्रणय'
के-17, ज्ञान सरोवर कॉलोनी, अलीगढ़ .
चलभाष - 09690042900
ईमेल - l.k.agrawal10@gmail.Com
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की दो क्षणिकाएं -----
1--देखो हम
कहाँ से कहाँ
आ गये,
जो भी लगा हाथ
उसे खा गये।
2-- देश
प्रगति की ओर
बढ़ रहा है,
हर कोई
कुर्सी के लिए
लड़ रहा है।
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र की ग़ज़ल --सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में, लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,
सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में,
लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,
क्या पड़ोस का कलुआ अब भी, पीकर जुआ खेलता है,
मंगलसूत्र बहू का गिरवीं, रख आता था दांव में।
क्या बच्चों की टोली अब भी, मुझे पूछने आती है,
मैं बंदी था, जिनकी मुस्कानों के सरल घिराव में।
बिन दहेज के कई लड़कियां, क्वांरी थीं उस टोले में,
लिखना, बिछुए झनक रहे हैं, अब किस-किसके पांव में।
कभी तलैया में कागज की नाव चलाया करता था,
अब ख़ुद ही दिल्ली में बैठा हूं कागज की नाव में।
(22 मार्च 1983) (दिल्ली-प्रवास)
✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र
रविवार, 7 नवंबर 2021
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से सात नवम्बर 2021 को किया गया ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी का आयोजन
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार 7 नवम्बर 2021 को गूगल मीट पर झिलमिल दीप जलें शीर्षक से काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया।
राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ रचनाकार वीरेन्द्र सिंह बृजवासी ने कहा -
दीप - दीप से दीप जलाएं,
अंधकार को दूर भगाएं।
पावन दीपावली मनाकर,
सबके दिल में जगह बनाएं।
मुख्य अतिथि ओंकार सिंह विवेक ने अपने खूबसूरत दोहों से संदेश देते हुए कहा -
हो जाए संसार में, अँधियारे की हार।
कर दे यह दीपावली, उजियारा हर द्वार।।
निर्धन को देें वस्त्र-धन, खील और मिष्ठान।
उसके मुख पर भी सजे, दीपों-सी मुस्कान।।
विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ रचनाकार डाॅ. मनोज रस्तोगी ने मंगलकामना करते हुए कहा - बिताकर वर्ष आया,
दीपावली का त्योहार।
बढ़े सुख समृद्धि आपकी
और आपस में बढ़े प्यार।
दीप जलें खुशियों के,
दुखों का हो दूर अंधकार।
विशिष्ट अतिथि मोनिका मासूम ने कहा --
अंधेरा दूर हो गम का , खुशी की रोशनी बिखरे।
मिले सौगात सेहत की ये जीवन और भी निखरे।
बढ़े सुख -संपदा- समृद्धि के भंडार हर घर में,
ऐ मेरी लेखनी तू ऐसी अब शुभकामना लिख रे।
संचालन करते हुए युवा रचनाकार राजीव प्रखर ने कहा -
मेरे अँगना आज भी, जलकर सारी रात।
झिलमिल दीपक दे गये, दोहों की सौग़ात।।
दम्भी तम तू भूल जा, अपनी सारी ऐंठ।
झिलमिल दीपक फिर गया, तेरे कान उमेंठ।।
चर्चित कवयित्री डाॅ. रीता सिंह ने दीपोत्सव का चित्र खींचते हुए गुनगुनाया -
दीप जलाना मन भाया है।
पर्व दीवाली का आया है।
लड़ी सजेंगी सब अँगना में,
राज उजालों का छाया है।
कवयित्री इन्दु रानी की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही -
गढ़ माटी के दीप को ,कहता है कुम्हार।
इस दीवाली पर्व पर, दिया सजाओ यार।।
दुआ गरीबों की लगे, बना रहे परिवार।
इस दीवाली पर सभी, सुखी रहे संसार।।
युवा कवि प्रशांत मिश्र ने कहा --
आओ! चले उस बाग में ..., जहाँ फूलों की कलियाँ खिली हुई हों,
भौरों की आँखें कुम्भला रही हों, मधुर संगीत गा रही हों।
:::::प्रस्तुति:::::
राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत
मो. 8941912642 (वाट्सएप)
9368011960 (जिओ)
मुरादाबाद के साहित्यकार शिशुपाल सिंह मधुकर की ग़ज़ल ----हमको जो भी हकूक हासिल हैं उनको लड़कर ही हमने छीना है
हमसे कैसा गिला ओ शिकवा है
हमने वो ही कहा जो देखा है
सच को कैसे दबा के रखते हैं
यह भी हमने तुम्हीं से सीखा है
हम थे अनजान बेवफाई से
तुमको जाना तो उसको समझा है
हमको जो भी हकूक हासिल हैं
उनको लड़कर ही हमने छीना है
जिसने खुद को बदल लिया "मधुकर "
उसने ही तो जमाना बदला है
✍️ शिशुपाल 'मधुकर ", मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
शनिवार, 6 नवंबर 2021
शुक्रवार, 5 नवंबर 2021
गुरुवार, 4 नवंबर 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की ग़ज़ल ---हो चमक सितारों की या कि बिजलियाँ दमकें , हर किसी पे भारी है सादगी चिराग़ों की !
दिल को मोह लेती है रोशनी चिराग़ों की ,
क्या किसी ने देखी है तीरगी चिराग़ों की !
सबको रास आती है रोशनी चिराग़ों की ,
दोस्तो ! बचा लीजे ज़िंदगी चिरागों की !
रात के अँधेरे में ज़िंदगी न खो जाये ,
इसलिए ज़रूरी है ज़िंदगी चिराग़ों की !
हो चमक सितारों की या कि बिजलियाँ दमकें ,
हर किसी पे भारी है सादगी चिराग़ों की !
इक दिया जलाओ तुम एक मैं जलाऊँगा ,
"आएगी नज़र सबको रोशनी चिराग़ों की" !
मुश्किलें ज़माने की सब क़बूल हैं मुझको ,
सह न पाऊँगा लेकिन बेरुख़ी चिराग़ों की !
इल्म के चिराग़ों की बात ही निराली है ,
रोशनी से भरती है बात भी चिराग़ों की !
इक झलक फ़क़त जिसकी तीरगी-1मिटाती है ,
रोशनी-सी लगती है बात भी चिराग़ों की !
हर जगह अँधेरों की आजकल सियासत है ,
सिर्फ़ बात होती है हर घड़ी चिराग़ों की !
प्यार के उजाले ही हर जगह रहें 'ओंकार' ,
आँगनों में हो सबके रोशनी चिरागों की !
तीरगी = अँधेरा
✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार'
1-बी-241बुद्धि विहार, मझोला
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244103, भारत
बुधवार, 3 नवंबर 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी के पांच दोहे ----
कुछ दोहे!
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धनतेरस,दीपावली,गोधन, भैया दूज,
नत मस्तक हो पूजिए,होवे पावन सूझ।
बनें सहायक सभी के,लक्ष्मी और कुवेर,
यश वैभव के दान में, करें न तनिक अवेर।
दीप मालिका से करें, घर भर का श्रृंगार,
मन अंधियारा दूर कर, भरो सकल उजियार।
फल,मेवा, मिष्ठान संग रखो खिलोने खीर,
खुशी-खुशी हो बांटिए,खुश होंगे रघुवीर।
जहरीला वातावरण,देता सबको पीर,
प्राण वायु निर्मल रखो, हो करके गंभीर।
✍️ वीरेंद्र सिंह बृजवासी, मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश, भारत
सोमवार, 1 नवंबर 2021
मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) की साहित्यकार प्रीति चौधरी की ग़ज़ल -- .....दिये को हवा में जलाने लगा है
ये क्या सिरफिरा आजमाने लगा है
दिये को हवा में जलाने लगा है
बताऊँ तुम्हें बात दिल की सुनों तो
सफ़र ये नया यार भाने लगा है
चमन में खिले फूल को देखकर वह
मुहब्बत वही गुनगुनाने लगा है
हँसा है बहुत वो बिना बात के ही
लगे कुछ पुराना भुलाने लगा है
बचा लो उसे 'प्रीति' तुम इस जहां से
नहीं जानता क्या मिटाने लगा है
✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला, अमरोहा
उत्तर प्रदेश, भारत
रविवार, 31 अक्तूबर 2021
शनिवार, 30 अक्तूबर 2021
मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद सम्भल) के साहित्यकार डॉ मूलचन्द्र गौतम का व्यंग्य ---- सोना उछ्ला चांदी फिसली
आज भी आम आदमी की समझ में सेंसेक्स और निफ्टी के बजाय प्याज , टमाटर की तरह सोने-चांदी की कीमतों से ही महंगाई का माहौल पकड़ में आता है। उसके लिये डालर और पौंड से रुपये की कीमत के बजाय सोने-चांदी का भाव ज्यादा प्रामाणिक है।सरकार भी जनता के मन में अपनी साख जमाने के लिये लगातार बताती रहती है कि उसके पास विदेशी मुद्रा के अलावा कितना सोना जमा है।
पुराने जमाने के आदमियों के पास सोने का भाव ही भूत और वर्तमान को नापने का पैमाना होता है।घी,दूध,गेहूँ,चना,गाय ,बैल और भैंस का नम्बर इनके बाद आता है।आजकल चाय का रेट भी इस दौड़ में शामिल हो गया है। कारण सबको मालूम है।
सोने पर अमीरों का एकाधिकार है बर्तन भले उन्हें चांदी के पसंद आते हों।उनके मंदिरों में भगवान भी अष्टधातु के बजाय शुद्ध सोने के होते हैं क्योंकि वहाँ उन्हें किसी सीबीआई और ईडी के छापों का डर नहीं होता।गरीबों का सपना भी हकीकत में न सही लोकगीतों में सोने के लोटे में गंगाजल पानी का होता था और मेहमानों के लिये भोजन भी सोने की थाली में परोसा जाता था।अब तो स्टील के बर्तनों ने गरीब पीतल और ताँबे के बर्तनों को प्रतियोगिता से आउट कर दिया है और दावतें भी पत्तलों के बजाय प्लास्टिक के बर्तनों पर होने लगी हैं ।
खरे सोने के नाम पर रेडीमेड जेवरों में मिलावट का पता ही नहीं चलता।जबसे सरकार ने हालमार्क छाप जेवरों की बिक्री अनिवार्य की है तब से मिलावटखोरों की नींद हराम है।ज्यादा अमीरों ने सफेद सोने के नाम पर प्लेटिनम खरीदना शुरु कर दिया है लेकिन पीले सोने को मार्केट में पीट नहीं पाये हैं।दो नम्बर का पैसा आज भी सोने में ज्यादा सुरक्षित रहता है भले बैंक के लाकरों में बंद पडा रहता हो ।
जबसे सोने के जेवरों की छीन झपट शुरु हुई है तबसे नकली गहनों ने जोर पकड़ लिया है।अब झपट मार भी पछताते हैं कि क्या उनकी मति मारी गयी थी जो इस धंधे में आये।इसलिये उन्होंने हथियारों की तस्करी शुरू कर दी है।
नोटबंदी के बाद रियलिटी मार्केट डाऊन है जबकि सोने में निरंतर उछाल है। सौ दो सौ कम होते ही सोना अपने प्रेमियों के लिये धड़ाम हो जाता है। सटोरियों के चक्कर में शुगर और ब्लड प्रेशर की तरह सोना थोडा ऊपर नीचे होता रहता है लेकिन आयात में आज भी वह नम्बर वन है। एयर पोर्टों पर ड्रग्स के मुकाबले सोने की तस्करी की खबरें ज्यादा आती हैं।तस्कर भाई बहिन पता नहीं शरीर के किन किन गुप्तांगों में सोना छिपाकर ले आते हैं। सोना आखिर सोना है।
✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम
शक्ति नगर,चंदौसी, सम्भल 244412
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल 8218636741
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की कविता -- भूख
1
यह पेट की भूख भी अजीब है
मंदिर मस्जिद ,
हिंदू मुसलमान ,
यहूदी ईसाई ,
क़ब्रिस्तान शमशान ,
सवर्ण और दलित
के शोर गुल में इतनी दब जाती है
ये ख़्याल ही नहीं रहता
कई दिनों से पेट में
भूख के हिसाब से
अन्न का ग्रास नहीं पहुँचा है .
2
पैसे की भूख भी ख़ासी बड़ी है
जितना खीसे में पैसा आता है
यह उतनी ही और बढ़ती जाती है
सच तो यह है अगर एक बार
पैसे की भूख ज़ोर से लग गयी
तो मनपसंद खाने के लिए
चिकित्सक रोक लगा देता है
इसके बढ़ते ही,
बढ़ते जाते हैं दवा दारू के खर्चे
चश्मे के नम्बर बढ़ जाते हैं
हृदय से लेकर किडनी और दाँतों के
प्रत्यारोपण की बारी आ जाती है
3
एक और ग़ज़ब की भूख है
जिसे शोहरत का नाम दिया जाता है
जितनी इसे मिटाने की कोशिश की जाती है
उतनी और बढ़ जाती है
अपने सम्मान में अपने पैसे से अभिनंदन ग्रंथ
अपने नाम से साहित्य सम्मान
अपने नाम से खेल स्पर्धा ,
मुशायरों , कवि सम्मेलनों की सदारत
अपने नाम की कोई सड़क (गली भी चलेगी )
अपने पैसे से किसी चौराहे पर अपना बुत
इतना सब कुछ करने के बाद भी
कुछ तो रीतापन सा लगता है
क्योंकि शोहरत की भूख
अनादि-काल से जारी है
और सारी भूख पर भारी है
✍️ प्रदीप गुप्ता B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065
सोमवार, 25 अक्तूबर 2021
रविवार, 24 अक्तूबर 2021
मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकारों ने करवा चौथ के पर्व पर अपने जीवनसाथी के लिए लिखे गीत । इन गीतों को हमने लिया है धामपुर (जनपद बिजनौर ) से डॉ अनिल शर्मा अनिल के सम्पादन में प्रकाशित अनियतकालीन ई पत्रिका अभिव्यक्ति से ....
::::::प्रस्तुति::::::