शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शंकर दत्त पांडे के बारह गीत ।ये सभी गीत साहित्य कला मंच, चांदपुर, बिजनौर द्वारा वर्ष 1995 में डॉ महेश दिवाकर के सम्पादन में प्रकाशित साझा काव्य संग्रह 'काव्य-धारा' से लिये गए हैं

(1)

मुक्त विहग फिर तरु शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते। 

जो पर थे पिंजरे में सीमित, 

रक्त-बिन्दुओं से थे रज्जित,

पाकर आज गगन वह विस्तृत, अनायास ही हिल-डुल जाते। 

मुक्त विहग फिर तरु-शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते।। 

ऊँचे उड़ जाने की आशा, 

मन में सतरंगी अभिलाषा, 

आज़ादी की बन परिभाषा, मधुबन में रह-रह मदमाते । 

मुक्त विहग फिर तरु-शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते ।। 

उर में ले आह्वाद परिन्दे,

मस्ती में हैं शाद परिन्दे, 

आज बने आज़ाद परिन्दे, देखो आज़ादी अपनाते । मुक्त विहग फिर तरु-शाखा पर, तिनकों से नव-नीड़ बनाते ।। 


(2)


जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर। 

उल्लास भरी, उन्मत्त घड़ी, 

विह्वलता की वह अश्रु लड़ी, 

दोनों जीवन की चिर-संगी, 

जब देखो दोनो पास खड़ीं। 

पल भर हँसते ही रो पड़ता, निज व्याकुलता में सुधि खोकर । 

जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर ।। 

बहुधा मीठे हों जीवन-क्षण, 

बहुधा तीखे हों जीवन-क्षण, 

विषमय जीवन की यह हाला, 

हम पीते रहते हैं क्षण-क्षण

मुझ जीवन-पथ के राही को करते निराश उत्साहित कर।

जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर ।। 

मीठी मादक-सी यह हाला, 

विष का भी यह कड़वा प्याला, 

शीतलता की ही जीवन में, 

धू-धू भी करती है ज्वाला, 

सुख की स्वर्णिम बदली आती, घिरते दुख के घन मंडरा कर। 

जीवन का पथ सुरभित भी है, काँटे भी चुभते पग-पग पर ।। 


(3)

जब से तुम जीवन में आई। 

तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाईं ।। 

रंजित हो आते जीवन-क्षण, 

औ कर जाते मधुमय जीवन, 

आह्लाद भरा रहता प्रतिपल, 

अलसाया तन और विकसित मन, 

वैदेही छवियाँ मुस्काई, जब से तुम जीवन में आईं। तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाईं ।। 

जीवन में परिवर्तन आया, 

जीवन-सरिता की गति बदली,

जीवन का कण-कण मुस्काया, 

मन में आशा की खिली कली 

जिस क्षण तुमने ली अँगड़ाई, जब से तुम जीवन में आईं। 

तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाई ।। 

तुम हो जैसे आकाश-कुसुम, 

मैं इस धरती का तृण लघुतम, 

तुमको पा ऐसा मदमाया, 

खैयाम करे ज्यों खाली खुम, 

तब सुरभित सुधियाँ पुलकाई, जब से तुम जीवन में आईं। 

तब से स्वर्णिम बदली बनकर, तुम जीवन-अम्बर में छाई ।।


(4)

शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में। 

अलकें मुख पर छितराई-सी, 

आँखें कुछ-कुछ अकुलाई-सी, 

पुतली में प्रतिबिम्बित होती, 

कोई अनुपम परछाई-सी, 

मन की गति बढ़ती जाती है, फिर आज किसी की आहट में। 

शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में ।। 

मुख पर है पीत मलिन छाया, 

फिर शिथिल हुई जाती काया, 

अन्तर्जग में हलचल-सी है, 

यह सहसा कौन निकट आया, 

यह किसके लोचन भीग रहे, मृदु केश-राशि के झुरमुट में। 

शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में ।। 

है अर्द्ध-निशा और चन्द्र उदित, 

डाली पर हो पल्लव विचलित, 

क्यों कम्पित करते मौन दिशा, 

जब चलती पुरवइया किञ्चित, 

होते हैं घाव हरे उर के, नित रंगे वेदना के पुट में। शत्-शत् निश्वासें रोक रहा, कोई अधरों के सम्पुट में।। 


(5)


विहग फिर गीतों के उड़ चले। 

लगाकर अरमानों को गले ।।


लचीली शाख़ वो चिकने पात, 

नीड़ के तिनकों की क्या बात, 

उड़ा फिरता है झंझावात,

विपद क्षण टाले नहीं रहे। 

विहग फिर गीतों के उड़ चले। 


भुलाकर मधुवन का आहलाद, 

लिये कटु अनुभव का अवसाद, 

सँजोये उर में बिसरी याद, 

कहाँ वह जोश और बलवते।

विहग फिर गीतों के उड़ चले। 


उमंगों में ऊदापन कहाँ ? 

बुझी-सी जीवन की ले शमां।

 दूर तक उड़े गगन में जहाँ, 

थके फिर आये तरु के तले। 

विहग फिर गीतों के उड़ चले। 


डाल पर कहीं किया विश्राम, 

उड़े फिर पहरों ये अविराम, 

सुबह हैं कहीं, कहीं हैं शाम, 

कहाँ पहुँचेंगे ये दिन ढले। 

विहग फिर गीतों के उड़ चले।। 


वेदना से निखरा अनुराग, 

हृदय में दबी-दबी-सी आग, 

विहंगम वाणी का मृदु राग, 

नित्य ही अन्तर्तम में पले 

विहग फिर गीतों के उड़ चले।


(6)

मृदुल भावों के राजकुमार, 

तुम्हीं से है मधुमय संसार । 


तुम्ही सूने जीवन में रंग 

लगा, भर देते सरस उमंग, 

सिहर उठते हैं जिससे अंग 


औ, होते झंकृत उर के तार। 

मृदुल भावों के राजकुमार, 

तुम्हीं से है भावुक संसार ।। 


प्रणय में पतझर ही मधुमास, 

प्रणय आता है किसको रास, 

आँसुओं में बह जाता हास, 


तुम्हीं ने पाया इसका सार । 

मृदुल भावों के राजकुमार, 

तुम्हीं से है मधुमय संसार।। 


द्रवित कर अपनी अन्तर पीर, 

बहाता है नित निर्झर नीर, 

कि कवि आ जाता उसके तीर, 


छलक पड़ता फेनिल उद्गार 

मृदुल भावों के राजकुमार, 

तुम्हीं से है मधुमय संसार ।। 


कल्पना के पंखों को खोल, 

कल्पना के पंखों पर डोल, 

कल्पना के पंखों को तोल, 


देखता नित जग की दृग-धार। 

मृदुल भावों के राजकुमार, 

तुम्हीं से है भावुक संसार ।।


(7)

कटुता का अनुभव होने पर, 

अन्तिम सुख-कण भी खोने पर, 

आघातों से पा तीव्र चोट, 

अन्तर्तम के भी रोने पर, 


विपदाओं के झोकों से 

विचलित तो नहीं हुआ करते। 

मन ऐसा नहीं किया करते। 


उर पर जो कुछ आ पड़ता है, 

उसको सहना ही पड़ता है, 

यह विश्व यहाँ तो जीवन में, 

पल-पल पर ही विह्वलता है, 


पर विह्वलता की बात नहीं, 

होठों पर यूँ लाया करते। 

मन ऐसा नहीं किया करते। 


अन्तर में ज्वाल जली है तो, 

तुम इस ज्वाला को जलने दो, 

अन्तर्ज्वाला में पिघल-पिघल 

नूतन भावों को ढलने दो, 


नूतनता ही तो जीवन है, 

इससे तो नहीं बचा करते। 

मन ऐसा नहीं किया करते। 


दुख में जिनके आयें आँसू, 

जो रह-रह भर लायें आँसू, 

मानस में अन्धड़ चलने पर, 

जो निज दृग में पायें आँसू


उनके आँसू पोंछा करते। 

उनके आँसू को लख अपने 

लोचन में अश्रु नहीं भरते। 

मन ऐसा नहीं किया करते ।। 


(8)

इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती। 

मधु अमाँ वह दिन सुहाने, 

प्रीत के मधुमय तराने, 

सामना कब हो किसी से, 

अब मिलन की कौन-जाने, 

है न यह संध्या सुहानी, अब मुझे पल भर सुहाती। इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती ।। 

क्या हुए वह क्षण रंगीले, 

जब कि दो लोचन रसीले, 

दे रहे थे चुप निमंत्रण 

तृषित उर दो घूंट पी ले, 

फिर हृदय-पट पर किसी की, है उभर तस्वीर आती। इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती ।। 

दो घड़ी की यह कहानी, 

हो न पायेगी पुरानी, 

जग भुलाना चाहता, 

पर यह सदा है याद आनी, 

रागिनी फिर वेदना की, हाय ! उर में गूंज जाती। 

इक पुरानी बात, नूतन दर्द ले फिर याद आती ।।


(9)

ओ, मस्त हवा के झोंके, तू, 

मुझ विह्वल से परिहास न कर। 


मैं आप लुटा-सा बैठा हूँ 

ले जीवन के सौ कटु अनुभव, 

यह सोच रहा हूं, मैं क्या हूँ 


अपनी भावुकता में बहकर 

ओ, मस्त हवा के झोंके, तू,

 मुझ विह्वल से परिहास न कर ।। 


काफूर हुआ मेरा मधु सुख, 

दृग में आँसू बन तैर रहा - 

मेरे इस अन्तर्तम का दुख 


जो जाता इक बदली-सा झर। 

ओ, मस्त हवा के झोके, तू, 

मुझ विह्वल से परिहास न कर।। 


सोया-सा है यह मेरा मन, 

भूला मैं सारे राग-रंग 

है आज शिथिल मेरा जीवन - 


ले अभिलाषाओं का पतझर । 

ओ, मस्त हवा के झोंके, तू, 

मुझ विह्वल से परिहास न कर।।


 तू विरह-मिलन को क्या जाने, 

क्या जाने क्यों जग बहक रहा 

तू प्रणय-मिलन को क्या जाने 


है जिसमें जाता हृदय निखर । 

ओ, मस्त हवा के झोंके, तू,

 मुझ विह्वल से परिहास न कर।।


(10)

नीरव रातों में मैं पहरों, निज मन को बहलाता रहता। 

नैनों में खारा नीर भरे, 

नस-नस में मीठी पीर भरे, 

यह घाव नमक लेकर मैंने 

अपने हाथों ही चीर भरे, 

हा! मुझसे कितनी भूल हुई, भूलों पर पछताता रहता। 

नीरव रातों में मैं पहरों, निज मन को बहलाता रहता ।। 

मम आशा के उजड़े खण्डहर, 

दृग नित बरसा करते जिन पर, 

इस करुण दृश्य से हो व्याकुल, 

यह मग्न हृदय आता भर-भर, 

हाँ! साथ ओस के मैं रजकण, आँखों से दुलकाता रहता। 

नीरव रातों में मैं पहरों, निज मन को बहलाता रहता ।। 

जब जग के खुलते मदिरालय, 

मतवाले हो मदिरा में लय, 

जीवन में लाते रंगीनी, 

तब मैं करता जग में अभिनय, 

रोना आने पर रजनी में, रह-रहकर मुस्काता रहता। नीरव रातों में मैं, पहरों, निज मन को बहलाता रहता ।।


(11)

मानव जीवन का विश्लेषण, 

सुख-दुख की करुण कहानी है। 


हैं याद मुझे वह भी घड़ियाँ, 

जब मैं अधरों पर हास लिये, 

फिरता था मधुबन में पहरों, 

भोले मुख पर उल्लास लिये, 


फिर शनैः शनैः बालापन से, 

यौवन की सीमा में आया, 

फिर शैनः शनैः मैंने अपने, 

जीवन को कुछ से कुछ पाया, 


फिर प्रेम-सरोवर के तट पर, 

मैं प्रेम-सलिल की प्यास लिये, 

सौ बार थका-माँदा आया, 

इक प्रेम-मिलन की आस लिये, 


अब धुँधला-धुँधला एक चित्र, 

है इस मानस-पट पर अंकित, 

मैं हाय, यही बस इक पूँजी, 

कर पाया जीवन में संचित। 


मत पूछो खाक कहाँ मैंने किस-किस मरुथल की छानी है। 

मानव-जीवन का विश्लेषण, सुख-दुख की करुण कहानी है।।


(12)

कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये।

 जब सह न सका जग की कटुता,

  जब व्याकुल करके आकुलता, 

अपनी सीमा से आगे बढ़ 

कवि-उर को छोड़ गई जलता, 

कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये । 


मानव का उत्पीड़न क्रन्दन, 

अबलाओं का वह मूक रुदन, 

जब आतुर करके छोड़ गया, 

भावुकता में अधझुल-सा मन, 

कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये । 


जब दग्ध हृदय वाला कोई, 

लब पर लाता प्याला कोई, 

पर सहसा जब वह टूट गिरा, 

और पी न सका हाला कोई, 

कवि ने कविता सुकुमारी के आँचल से आँसू पोंछ लिये।

✍️ शंकर दत्त पांडे

:::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल  स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


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