सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में,
लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,
क्या पड़ोस का कलुआ अब भी, पीकर जुआ खेलता है,
मंगलसूत्र बहू का गिरवीं, रख आता था दांव में।
क्या बच्चों की टोली अब भी, मुझे पूछने आती है,
मैं बंदी था, जिनकी मुस्कानों के सरल घिराव में।
बिन दहेज के कई लड़कियां, क्वांरी थीं उस टोले में,
लिखना, बिछुए झनक रहे हैं, अब किस-किसके पांव में।
कभी तलैया में कागज की नाव चलाया करता था,
अब ख़ुद ही दिल्ली में बैठा हूं कागज की नाव में।
(22 मार्च 1983) (दिल्ली-प्रवास)
✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र
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