पग-पग पर पीडा़यें भोगी,
सपने चकनाचूर हुए हैं!
कैसे अपना दर्द छुपाएँ,
क्यों अपनों से दूर हुए हैं?
साथ-साथ आंगन में खेले,
प्रातराश-भोजन भी पाया!
तारे गिनते - गिनते सोये,
कभी नहीं मजबूर हुए हैं!!
खेल-खेल में गिरे अचानक,
चोट लगी कितना मन रोया!
हाथ पकड़ कर सहलाते थे,
कितने दिन काफ़ूर हुए हैं!!
बड़े हुए घर गया छूटता,
शिक्षा-परहित रहे अकेले!
लेकिन,घर को भूल न पाये,
मिलन दिवस अति क्रूर हुए हैं!!
समय बदलते देर न लगती,
मात-पिता भी स्वर्ग सिधारें!
अपनों का संकट हरने को,
अनचाहे ज्यों घूर हुए हैं!!
तन-मन कब नीलाम हो गया,
वैभव - साहुकार के द्वारा!
यौवन उसका दास बन गया,
मित्र कहें मशहूर हुए हैं!!
श्रम ने भाग्य बदल डाला है,
बदला घर का मानचित्र भी!
अपने भूले अहंकार में,
हम खट्टे अंगूर हुए हैं!!
अपना कौन पराया जग में,
इसका बोध नहीं हो पाता ?
महाकष्ट में साथ खड़े जो,
वे ही सच्चे शूर हुए हैं!!
✍️ डॉ. महेश 'दिवाकर'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें