(1)
मेरे सपने, तेरे सपने
घर पर ही कुर्बान हुए
संतानों ने चढ ली सीढी,
सपने तब संधान हुए
सोचा क्या, पाया फिर हमने
इतनी फुरसत मिली कहां
अंगारों पर चले मुसाफिर
क्या अपने-अरमान हुए
बच्चों ने भी गुल्लक फोड़ी
मां ने गहने बेच दिए
कर्जा कर्जा लदे पिताजी
तब जाकर भगवान हुए।
कुछ बनने की खातिर यूं तो
करते हैं सब, जतन यहां
रखी दिवाली मन के अंदर
बल-बलकर बलिदान हुए।।
(2)
टूटी सड़कें, पसरे गड्ढे,
अपना सफर तो जारी है
आसमान में छेद किया है,
दिल अपना त्योहारी है।
सुबह सवेरे निकले घर से
क्या पूरब कहाँ पश्चिम है
दगा दे रहे सूरज को सब
दिल अपना सरकारी है।
आओ आकर देख लो तुम भी
कदमों से नापी दुनिया
उठते गिरते बढ़ गये आगे
छालों से भी यारी है।।
अभी अभी तो यहीं कहीं पर
फ़ाइल देखी किस्मत की
फेंका पैसा, खुल गई यारो
क्या अपनी लाचारी है।।
घर से दफ्तर,दफ्तर से घर
हर दिन का रूटीन यही
मुँह चुराता घर का चूल्हा
महँगी सब तरकारी है।।
(3)
प्रेम की संकल्पना
प्रेम की वर्जनाएं
है मेरे पास ही
तुम्हारी कल्पनाएं
एक दिया हाथ पर
रोशनी मुझमें कैद
प्रकाश का वह घेरा
और तुम्हारी अर्चनाएं
दीप्त प्रदीप्त सी तुम
समक्ष जो मेरे खड़ीं
उच्छवास था गहरा मगर
गूंजती मंगल कामनाएं
दर पर प्रतीक्षित चांद सा
मैं नभ दृष्टिपात करता
लाने उसको आँगन यहां
करता नित अभ्यर्थनाएं..
है परस्पर प्रीत का पर्व
आलिंगन में विश्वास बेला
तैरते नैनों ने देखी फिर
सदा यूँ ही ज्योत्स्नाएं..
(4)
जब जब ढलके शाम, गूंजता मन का क्रंदन
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
आई पीर कहने लगी, सागर बूंदों का
डरना क्या तूफानों से, तन तो नींदों का
बन अगस्त्य हैं पी जाते, लहरें सागर की
बादल बनते हैं हमसे, आशा गागर की
ठहरो-ठहरो चली वेग है, खिलता उपवन।।
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
हर मौसम की नई फसल, इन खलिहानों की
जब जब फूटती बालियां, कह बलिदानों की
रह रहकर फिर आ जाती, कथा सावन की
आसमां पर टिकी निगाहें, व्यथा आंगन की
नागफनी सम ख्वाब हमारे, तन-मन चंदन।
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
आओ करते गुणा-भाग, अपनी बदरी का
छाता ओढे खड़े हुए जन, अपनी नगरी का
बीत गई लो उम्र अपनी, किस्सा पानी सा
नापतोल कर लिखा हमने, हिस्सा रानी का
ज्यूं कर रही कोई अप्सरा, छम-छम नर्तन।।
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ
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