मैं वो अनसुलझी कहानी ।
मुझे कोई समझ न पाया ।
जीवन के हर मोड़ पे ,
मुझे कोई मिल न पाया।
अकेली आई ,अकेली चल दी इन
राहों पर ।
जिन राहों पर कोई और चल न
पाया।
मंजिल दूर-दूर होकर मुझसे चली ।
न जाने क्यों कहाँ कैसे मुझसे यूँ चली।
चाहा बहुत कुछ था ,जीवन में।
फिर भी कुछ मिल न पाया ।
मैं वो अनसुलझी कहानी ।
मुझे कोई समझ न पाया ।
जीवन के हर मोड़ पे ।
मुझे कोई मिल न पाया ।
थी ,एक आस सी मन में मेरे।
छू लू ये आसमान धरती तले ।
शायद वो आस मेरी आस
बन के मन में रही ।
मेरी उस आस को कोई किनारा
मिल न पाया ।
मैं वो अनसुलझी कहानी ।
मुझे कोई समझ न पाया ।
जीवन के हर मोड़ पे ।
मुझे कोई मिल न पाया ।
✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद
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