सड़क पर खड़े
गधों को गधों ने
देखा...
सभी के कंधे
जिम्मेदारी के
बोझ से दबे थे
फिर भी सड़क पर
सीधे और तने थे।
इस बीच कितने
गधे वहाँ से गुजरे
वही नाज़ नखरे
कोई गधा मानने
को तैयार नहीं था
हम गधे है।
गधे हैं तो फिर
क्यों गधे हैं।
गधे गणेश जी के पास पहुंचे..
गधे: क्या हम गधे हैं?
गणेश: पूरे गधे हो
गधे: आधे कब थे
गणेश: पता चल जाएगा
गधों ने वही सवाल
कवि से किया.
.क्या हम गधे हैं..?
कवि: तुम तो फिर भी ठीक हो, मगर वो...
गधे: वो कौन...?
कवि: अरे वही, जो मेरी रचना पढ़ गया।
गधे सोच में/ रचना..?
हम गधों की क्या रचना?
खर-खर-खर: खराक्षरी?
बात बुद्धि की थी
गधे हार गए...!
तभी सामने से..
धवल वेषधारी नेताजी
का पदार्पण हुआ...
आकाश से
पुष्प वर्षा होने लगी...
कानों में
अपने आप शंख
बजने लगे....?????
लंबे-लंबे कान गधों
के हिलने लगे...?
सड़क पर सधे/तने
गधे हटने लगे...!
मुद्दा जस का तस रहा
हम क्यों गधे हैं..!!
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
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