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सोमवार, 4 मई 2020
वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद " में रविवार 3 मई 2020 को 200 वां वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया गया। इस आयोजन की विशेषता और अनूठापन था मुरादाबाद मंडल के साहित्यकारों का अपनी हस्तलिपि में रचना प्रस्तुत करना । इस ऐतिहासिक आयोजन में मुरादाबाद मंडल के 82 साहित्यकारों ने हिस्सा लिया । प्रस्तुत है आयोजन में शामिल मुरादाबाद मंडल के साहित्यकार सर्वश्री यश भारती माहेश्वर तिवारी, मंसूर उस्मानी, शचीन्द्र भटनागर ,डॉ मनोज रस्तोगी, डॉ प्रेमवती उपाध्याय, ऋचा पाठक, डॉ अजय जनमेजय, डॉ पूनम बंसल, मनोज वर्मा मनु, मुजाहिद चौधरी, योगेंद्र वर्मा व्योम, अखिलेश वर्मा ,डॉ अजय अनुपम, डॉ प्रीति हुंकार, शिव अवतार सरस, हेमा तिवारी भट्ट, अंदाज अमरोहवी ,अरविंद कुमार शर्मा आनन्द, अशोक विद्रोही, अशोक विश्नोई, आयुषि अग्रवाल, कमाल जैदी, डॉ अनिल शर्मा अनिल, डॉ अशोक रस्तोगी, डॉ कृष्ण कुमार नाज, डॉ कृष्ण कुमार बेदिल, डॉ रीता सिंह, प्रीति चौधरी, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, रवि प्रकाश ,स्वदेश सिंह, अभिषेक रुहेला ,आमोद कुमार, ओंकार सिंह ओंकार, कंचनलता पांडेय, डॉ अर्चना गुप्ता, डॉ अलका अग्रवाल , डॉ मीना नकवी, डॉ सुधा सिरोही, डॉ मक्खन मुरादाबादी, डॉ श्वेता पूठिया, त्यागी अशोक कृष्णम, नृपेंद्र शर्मा सागर , प्रशांत मिश्र, मंगलेश लता यादव, मीनाक्षी ठाकुर ,रागिनी गर्ग , राजीव प्रखर , रामकिशोर वर्मा, राशिद मुरादाबादी, शिशुपाल मधुकर , श्री कृष्ण शुक्ल , सूर्यकांत द्विवेदी, अतुल कुमार शर्मा , अमितोष शर्मा ,इला सागर रस्तोगी, उज्ज्वल वशिष्ठ, डॉ मीना कौल, प्रीति अग्रवाल ,मनोरमा शर्मा, डॉ ममता सिंह, अनुराग रुहेला, अस्मिता पाठक, आरिफा मसूद, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, इंदु रानी, जितेंद्र कमल आनंद , डॉ पुनीत कुमार ,रश्मि प्रभाकर ,रचना शास्त्री , प्रवीण राही, डॉ मीरा कश्यप ,मोनिका मासूम , मोनिका अग्रवाल , कंचन खन्ना, आदर्श भटनागर, संतोष कुमार शुक्ल , सीमा रानी की रचनाएं-----
रविवार, 3 मई 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता ------ भगवान से साक्षात्कार
जिंदगी में ऐसा पहली बार हुआ
लेटते ही आंख लग गई
और स्वप्न में
भगवान से साक्षात्कार हुआ
हमने बिना कोई पल गंवाए
आज के ज्वलंत मुद्दे उनके सामने उठाए
हे त्रिलोक स्वामी,
ये कैसी व्यवस्था है तुम्हारी
पूरे विश्व में फैली हुई है
कोरोना रूपी महामारी
भगवान बोले
वत्स,इसे महामारी मत कहो
ये हमारे प्रेम का प्रकाश है
सृष्टि को सुधारने का
एक छोटा सा प्रयास है
मैंने ,करने को अपना मनोरंजन
सृष्टि का किया था सृजन
फिर बड़ी लगन से मानव को बनाया
लेकिन उसको दिमाग देकर पछताया
इस दिमाग का दुरुपयोग कर
मानव ने सृष्टि का
रूप ही बिगाड़ दिया है
अलग अलग द्वीपों और देशों में
इसे बांट दिया है
अलगाववाद और वर्चस्व की दुर्भावना
इतनी प्रबल और व्याप्त हो गई है
मानव नाम की प्रजाति
लगभग लगभग समाप्त हो गई है
कोई हिन्दू,कोई सिक्ख,कोई मुसलमान है
किसी की जैन , बौद्ध
किसी की ईसाई के रूप में पहचान है
सब भूल चुके हैं
सब मेरी ही संतान हैं
कोई छोटा या बड़ा नही
सब एक समान हैं
सबका एक ही धर्म,मानव धर्म है
प्यार करना और प्यार बढ़ाना
जिसका मर्म है
लेकिन किसी को किसी की
परवाह कहां है
हर कोई दूसरे की टांग खींचने में लगा है
और तो और
तुम सबने मेरा स्तर भी गिरा दिया है
मंदिर,मस्जिद,चर्च और गुरुद्वारों में
मुझे अलग अलग नाम से बैठा दिया है
जबकि मैं तो सृष्टि के कण कण में हूं
आत्मा स्वरूप में,तुम सबके मन में हूं
कोरोना के चलते बंद है
सारे तथाकथित धार्मिक स्थल
कहीं पर नहीं है कोई भी हलचल
मजबूरी में सबको
घर पर ही ध्यान लगाना है
खुद को पहचानना है
अपने अंदर मुझको जगाना है
ये भी कोरोना का ही प्रभाव है
धीरे धीरे पनप रहा विनम्रता का भाव है
भौतिक सुख सुविधाएं,धन दौलत
मृत्यु के आगे सब बेकार हैं
फिर किस बात का अहंकार है
ये सबको समझ में आ रहा है
क्योंकि कोरोना
कोई भेदभाव नहीं दिखा रहा है
मैंने पूरी सृष्टि को पांच तत्वों से बनाया है
मानव शरीर में भी उन्हीं का
अंश समाया है
लेकिन मानव निरंतर
इनसे छेड़छाड़ कर रहा है
प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर
भौतिक सुविधाओं की जुगाड कर रहा है
पर्यावरण हो चुका है असंतुलित
जल हो या वायु
सभी हो चुके है प्रदूषित
लेकिन कोरोना के बाद से
सब कुछ रहा है बदल
स्वच्छ होने लगा है नदियों का जल
पेड़ पौधे खुशी से झूम रहे है
पशु पक्षी भी सहजता से घूम रहे है
इसीलिए तुम से कहता हूं
कोरोना से ना डरना है
ना किसी को डराना है
कुछ समय के लिए,घर में ही रहकर
अपने पारिवारिक दायित्वों को निभाना है
कड़वे हो चुके,टूटते बिखरते रिश्तों को
स्नेह की चासनी में पकाना है
अगर इतने से भी
किसी की समझ में नहीं आएगा
भविष्य में पृथ्वी पर
और अधिक खतरनाक वायरस भेजा जाएगा
तभी अचानक
कोयल की सुरीली आवाज ने मुझको जगा दिया
भगवान ने जबरदस्ती
मुझको ब्रह्म मुहूर्त में ही उठा दिया
मैंने विषय पर पुनः चिंतन किया
मुझको लगा
जिस दिन ये सारी बातें
हमारे विचारों में घुल जाएंगी
हम पढ़े लिखे मूर्खो की आंखें
हमेशा के लिए खुल जाएंगी
✍️ डॉ पुनीत कुमार
T-2/505, आकाश रेसीडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
कांठ रोड, मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की रचना -----श्रमजीवी ही बनकर रहना देती हूं जग को पैगाम
मैं हूँ महिला श्रमिक ,मेहनत करना मेरा काम ।
श्रमजीवी ही बनकर रहना ,देती हूँ
जग को पैगाम ।
ईंट उठाती पानी भरती,
स्वप्न साकार कराती हूँ
छत विहीन अपना जीवन
पर भवन बनाती हूँ।
प्रतिपल नव उल्लास लिये मैं
करूँ परिश्रम आठों याम ।
श्रमजीवी ........
जन्मजात श्रमिक हूँ मैं
संघर्ष मेरे है अंतहीन ।
अधरों पर मुस्कान लिये मैं
अंतर के सुख में सदा लीन।
कर्म मार्ग है मेरी पूजा
इससे श्रेष्ठ नही है काम।
श्रम जीवी ,,......
प्रतिदिन ही कुछ स्वप्न अनोखे
मैं भी देखा करती हूं ।
एक रोज सुखों की भोर कोई
सुख सूरज देखा करती हूं ।
खुश रहकर इसको जीना है
जीवन हैअनुपम अभिराम ।
श्रमजीवी.....
✍️ डॉ प्रीति हुंकार
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
मो 8126614625
शनिवार, 2 मई 2020
मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी जनपद सम्भल (वर्तमान में अलीगढ़ निवासी) साहित्यकार लव कुमार प्रणय की दो रचनाएं ---- ये रचनाएं उन्होंने लगभग 47 साल पूर्व लिखी थीं । इन रचनाओं का प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र ' प्रदेश पत्रिका ' के 25 नवंबर 1973 के अंक में हुआ था। यह साप्ताहिक समाचार पत्र प्रत्येक रविवार को स्मृति शेष राज नारायण जी द्वारा संपादित , मुद्रित और प्रकाशित होता था ----
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार अंदाज अमरोहवी की नज़्म -----लॉक डाउन
कहां तलक यह बतायें कि लॉकडाउन है .
यह लोग बाज़ तो आये कि लॉकडाउन है ..
ज़रा सी देर को चाहे बुरा लगे फिर भी .
न हाथ अपना मिलाये कि लॉकडाउन है ..
रहे सुकून से घर में ही यह जरूरी है .
न घर को छोड़ के जायें कि लॉकडाउन है .
सभी को आप अगर चाहते हैं जिंदा रहें .
सभी को बस यह बतायें कि लॉकडाउन है ..
अगर जो खांसी उठे भी तो मुंह पे हो रुमाल.
कहीं न छींटे उड़ाये कि लॉकडाउन है..
हो सांस लेना कठिन सर में दर्द हो या बुख़ार .
तो डॉक्टर को दिखाएं कि लॉकडाउन है..
है इंतज़ाम सभी तुम को ठीक रखने के .
पुलिस का साथ निभाये कि लॉकडाउन है..
मिले किसी से तो दूरी हो एक मीटर की .
यह फासला न घटाएं कि लॉकडाउन है..
यह मर्ज़ फैलता कैसे है सबको हो मालूम .
वजह हर एक को बतायें कि लॉकडाउन है ..
✍️ अंदाज़ अमरोहवी
मोहल्ला बगला, ब्रिटिश इंग्लिश स्कूल,
अमरोहा -244221
उत्तर प्रदेश , भारत
वाट्सअप न. 9837272808
ईमेल - andaazamrohvi@gmail.com
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी की गजल ------ दिन का वध करने वालों ने रात की हत्या कर दी है। चाँद खरीदे धनवानों ने ,आज अमावस घर घर है।।
उपवन सारा मुरझाया है, जंगल जंगल पतझर है।।
जाने कैसा जादू टोना,डाल दिया है ऋतुओं ने।
हरियाली का जो वाहक था, छाँव-रहित वह तरुवर है।।
लेखन के स्वर मौन हुये हैं, ध्वनि हीन हैं अक्षर तक।
एक कोलाहल मन के बाहर, एक कोलाहल भीतर है।।
दिन का वध करने वालों ने रात की हत्या कर दी है।
चाँद खरीदे धनवानों ने ,आज अमावस घर घर है।।
ऊब के एकाकीपन से जब , झाँका है उसके मन में।
ऐसा लगा आँखों में उसकी निर्मल प्रेम का सागर है।।
त्याग की वर्षा तिरोहित है, और मेघ घिरे हैं निज हित के।
कुंठित है संवेदन शक्ति, भूमि भाव की बंजर है।।
लेखन धर्म है भक्ति-भाव से , पूर्ण समर्पण है कविता।
शब्द मेरे रह जायें 'मीना' यह काया तो नश्वर है।।
✍️ डा. मीना नक़वी
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की कविता------श्रम देवता
तुम्हारे द्वारा कराये गये
हर अहसास को
महसूस किया है मैंने ।
तुम बनकर मेरी प्रेरक शक्ति
कराते हो हर पल
मुझे उन अहसासों को
जो जीवन पथ में आने वाली
हर मुश्किलों को सुलझाने में
मेरे किसी अच्छे मित्र के समान
सहायक होंगे ।
सूरज निकलने से सूरज ढलने तक
तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले
श्रम के पश्चात
उसका मनोनुकूल फल भी
जब तुम्हें नहीं मिलता
तब मैं तुम्हारा अधिकार
तुम्हें दिलाने के लिए
तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ ,
लेकिन किसी मजबूरी का
बहाना लेकर
सिर्फ अपनी सहानुभूति को
तुम्हारे साथ कर देती हूँ ।
जब संध्या ढले घर पहुँचने पर
तुम्हारी नन्हीं गुड़िया
ढेर सारी बचपनी आशाों के साथ
तुम्हारे खाली हाथ देखती है
तब मेरे प्यार , दुलार और
ममत्व का अहसास
तुम्हारी उस गुड़िया के साथ होता है ।
तुम्हारी पत्नी की
पुरानी सी मटमैली धोती में
लिपटे हुए तुम्हारे
गोदी के बालक को देखकर
मन करता है
मैं गोद लेकर उस भावी नागरिक का
पालन पोषण करूँ
और बचा लूँ उसे
विचलित कर देने वाले
दुःखों के हर उन थपेड़ों से
जिनका तुम मुझे
कदम कदम पर
अहसास कराते हो ।
✍️ डॉ रीता सिंह
एन के बी एम जी कॉलेज
चन्दौसी (सम्भल)
शुक्रवार, 1 मई 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ------- कोई न कोई जगह तो
कहीं न कहीं/कोई न कोई/जगह तो
मजदूरों का भी/अपना घर होती है ,
सबकुछ होता है/उनमें भी/घर जैसा ही
बस , गुजर - बसर नहीं होती है ।
ऐसे में भी/रहते आयें हैं ये
इन्हीं घरों में/संतोषी मन से ,
कम्बख़त/पेट नहीं मानता, लेकिन
ले चल पड़ता है/इनको तन से ।
यूं ही कौन छोड़ता है/अपना घर ,
छुड़वा देते हैं, लेकिन/
मजदूरी की/मजबूरी के पर ।
पेट भरण की/आस जहां भी/दिख जाती है,
मन विहीन इन तनों की/
ज़िन्दगी ठिठक/ टिक वहीं जाती है।
कमरतोड़ मेहनत से/जी-तोड़ कमाते,खाते,
जहां टिके होते जाकर/वहीं में रच,बस जाते।
ज़िन्दगी/परवान चढ़ने लगती ,
उम्मीद बढ़ने लगती ।
चाहे जैसी भी हैं, नौकरियां ,
इनकी लाचार कथा-व्यथा रूपों में
शहर-शहर/उग आती हैं/
इनके घर होकर/झुग्गी-झोंपड़िया।
इनमें ही रात कटती है ,
ज़िन्दगी की/हर बात बंटती है।
जिन विवशताओं से ये/चिपटे रहते हैं ,
उनमें इनके/सारे सुख/लिपटे रहते हैं।
ऐसी-वैसी/विपदाओं को तो
ये विपदा ही नहीं मानते ,
क्या होता है कष्ट?
इनके तन-मन/दोनों ही नहीं जानते।
जंगल-जंगल/रंगत-रौनक/चहल-पहल की
मुर्दों में जान पड़ी सी/जो भी हलचल है,
वह सब इनकी ही/कर्मठता का प्रतिफल है।
किन्तु,आज समाना/विपदा काले/
इन पर संकट/गहरा जाता है ,
तब और अधिक,जब/इनकी श्रम बूंदों से/
फलीभूत हुआ भी/कन्नीकाट हुआ होकर/पुकार इनकी पीड़ा की /नहीं है सुनता/
हो निपट बहरा जाता है ।
जब, आशाओं पर/फिर जाता है पानी,
राह भटकते देखे हैं/
अच्छे-अच्छे ज्ञानी-ध्यानी।
सब यादों की/छोड़ के दौलत/
अपने-अपने नीड़ों में ,
बीबी-बच्चों सहित/कुछ सामानों के
निकल पड़ते हैं ये/होकर शुमार भीड़ों में।
भूखे पेटों का स्वर भी/
मिल जाता है/मन के स्वर से ,
इन्हें पुकार/आने लगती है
अपने उसी पुराने घर से ।
यात्राएं हों/कितनी भी लम्बी
धुन सवार हो जाती है , इन पर/
ये खोकर उसमें/उसके ही हो जाते हैं,
पांव!रेल,बस, गाड़ियां/नहीं होते, लेकिन
जाने कैसे/हो, उड़नखटोला जाते हैं ।
ये तो/कर लेंगे फिर भी/
कर मुकाबला/बड़े-बड़े कहरों का ,
लेकिन,क्या होगा आगे/
इन शहरों के/अंधे,गूंगे, बहरों का ?
✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9319086769
मुरादाबाद के साहित्यकार शिशुपाल सिंह मधुकर का गीत ----यह तो बिल्कुल अलग बात है
मजदूरों की व्यथा- कथा तो कहने वाले बहुत मिलेंगे
पर उनके संघर्ष में आना यह तो बिल्कुल अलग बात है
कितना उनका बहे पसीना
कितना खून जलाते हैं
हाड़ तोड़ मेहनत करके भी
सोचो कितना पाते हैं
मजदूरों के जुल्मों- सितम पर चर्चा रोज बहुत होती है
उनको उनका हक दिलवाना यह तो बिल्कुल अलग बात है
मानव है पर पशुवत रहते
यही सत्य उनका किस्सा है
रोज-रोज का जीना मरना
उनके जीवन का हिस्सा है
उनके इस दारुण जीवन पर आंसू रोज बहाने वालों
उनको दुख में गले लगाना यह तो बिल्कुल अलग बात है
है संघर्ष निरंतर जारी
यह है उनका कर्म महान
वे ही उनके साथ चलेंगे
जो समझे उनको इंसान
एक दिन उनको जीत मिलेगी पाएंगे सारे अधिकार लेकिन यह दिन कब है आना यह तो बिल्कुल अलग बात है
✍️ शिशुपाल "मधुकर"
मुरादाबाद 244001
गुरुवार, 30 अप्रैल 2020
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कहानी ------- गरीब
"अरे भई जल्दी करो..!कितनी देर और लगेगी खाना पैक होने में,?"सुभाष बाबू ने झुंझलाहट भरे स्वर में राजू से पूछा।"हो गया साहब! पाँच पैकेट और बस...।" राजू ने उत्तर दिया।
आज पूरे सौ पैकेट गरीबों तक पहुँचाने थे।
सुभाष बाबू सामुदायिक रसोई का संचालन कर रहे थे।सरकार ने लाक डाउन मे गरीबों तक बना बनाया खाना पहुँचाने की व्यवस्था के तहत शहर मे कई जगह रसोई चलवाई थी। शहर की इस पाश कालोनी में रहने वाले सुभाष बाबू को सामुदायिक रसोई के संचालन की ज़िम्मेदारी दी गयी थी।
अचानक उनकी जेब में रखा मोबाइल बज उठा। स्क्रीन पर अपने मित्र रवि का नम्बर देखकर मुस्कुराते हुऐ सुभाष बाबू ने काल रिसीव की ,"हैल्लो...रवि.!.कैसा है यार?और बता.....कैसे याद किया। "
"अजी मुबारकां जी, मुबारकां...,"उधर से आवाज़ आयी।
"किस बात की बधाई दे रहा है यार? हे.हे.हे हे हे....!!,सुभाष बाबू ने दाँत फाड़ते हुऐ कहा ।
"अरे भई रसोई चला रहा है ,शहर भर की,ये क्या कम बात है।कल तो फोटो भी छपी थी तेरी अखबार में, खाना बाँटते हुऐ।"रवि ने कहा।
"सो तो है....मगर बड़ा सरदर्दी वाला काम है यार....सुबह से काल पर काल आ रही हैं....पता नहीं कितने भुक्खड़ हैं शहर में!!"
" सरदर्दी कैसी ?....सुना है तुझे भी काफी फायदा हो रहा है इस सबमें...किराना स्टोर वाले गुप्ता जी बता रहे थे....।"रवि ने तंज कसते हुऐ कहा।
"अरे कहाँ यार फायदा वायदा!...ये मोहल्ले वाले तो जलते हैं मुझसे..।"सुभाष बाबू ने खीसे निपोरीं",चल छोड़ ...तू बता क्या हाल हैं...भाभी जी कैसी हैं ?"
"सब ठीक हैं . ..तू बता...आज क्या क्या बन रहा है खाने में...?"रवि ने पूछा।
"आज तो आलू की सब्जी और पूरी है।साथ में हरी मिर्च और अचार भी है ।"
"अच्छा...बस एक ही सब्ज़ी है क्या....?चल यार..एक काम कर ....!आज श्रीमतीजी की तबियत कुछ खराब है,कामवाली भी नहीं आ पा रही है,तू ज़रा पाँच पैकेट खाने के भिजवा दे ...आज ज़रा तेरी रसोई का भी खाकर देखें कैसा है...?"उधर से रवि ने कहा।
"बिल्कुल.... अभी ले....अभी भिजवाता हूँ,..और भाभी जी से कहियो...जब तक तबियत खराब है...यहीं से खाना जायेगा,परेशान ना हों..।चल ठीक है फिर......बाद में बात करता हूँ...ओके..
बाय..।"
रवि सुभाष बाबू के लंगोटिया यार व पड़ोसी था और अब दूसरी कालोनी में नयी कोठी बनायी थी,परिवार सहित वहीं शिफ्ट हो गया था।
फोन जेब में रखकर सुभाष बाबू मुँह खोलकर होठों के किनारे को तर्जनी उँगली से खुजलाते हुऐ ,फिर से राजू की तरफ बढ़े ही थे कि फोन फिर से घनघना उठा था।"अब कौन मर गया....!!"
बड़बड़ाते हुऐ सुभाष बाबू ने फोन रिसीव किया तो उधर से एक रिरियाती हुई महिला की आवाज़ आयी,"साब.. कल सुबह से हम सब भूखे हैं.. वो...खाना ....खाना चाहिए ...?"
उसकी बात पूरी होने से पहले ही सुभाष बाबू ने मानो महिला को पहचानते हुऐ, उपेक्षा से कहा,"देखो भई !और भी गरीब हैं यहाँ ....!!!तुम्हारे यहाँ परसों तो भिजवाया ही था...!दूसरे गरीबों का भी नम्बर आने दो..!"
" मगर साब..!साब! ..मेरी बात तो ....."
उस गरीब औरत की बात पूरी होने से पहले ही सुभाष बाबू ने फोन काट दिया था।
"राजू !!"
"जी साहब"
"ज़रा ये एड्रेस नोट कर...सबसे पहले यही पर खाने की डिलीवरी करना।अर्जेंट है..।"कहकर सुभाष बाबू रवि का नम्बर राजू को नोट कराने लगे थे ।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
मोबाइल फोन नं. 8218467932
मुरादाबाद की साहित्यकार स्वदेश सिंह की लघुकथा ----- आईना
यह सुनकर विशाल का दिल बैठ गया और मिन्नतें करने लगा ....परंतु मकान मालकिन ने जैसे दरवाजा न खोलने की कसम खा रखी हो..और बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई ।
विशाल मेडिकल का स्टूडेंट है। इस समय देश में कोरोना महामारी फैलने के कारण उसकी ड्यूटी कोरोना मरीजों की देखभाल के लिए लगा दी गयी है जिसके कारण मकान मालकिन बेहद डर गयी है , उसे लग रहा है कि विशाल के द्वारा बीमारी उसके घर में प्रवेश कर जाएगी और वह भी संक्रमित हो जाएगी ।
थका -हारा ,भूखा -प्यासा विशाल दरवाजे पर ही बैठ गया और उसकी आँखो से आंसू टपकने लगे ... रोते -रोते उसे कब नींद आ गई पता ही ना चला ।...सुबह के 4:00 बजे जब दरवाजे की घंटी बजी तब उसकी आंख खुली तो देखा दरवाजे पर एक लड़का घंटी बजा रहा है ...घंटी की आवाज सुनकर मकान मालकिन बड़बड़ाती हुई दरवाजा खोलने आई और दरवाजा खोलते ही चिल्लाते हुए बोली ... तू गया नहीं अभी तक ... जा यहां से....उधर से आवाज आई मम्मी मैं हूं आपका बेटा रोहित... आवाज सुनते ही उसकी आंखें खुली की खुली रह गई उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा बेटा रोहित ....तू यहां कैसे तू ...तो लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में .......पढ़ाई कर रहा था ...दुखी होते हुए रोहित ने कहा - माँ , वहां मैने डॉक्टरों के साथ मिलकर कोरोना वायरस से संक्रमित बीमारों की सेवा करनी शुरू कर दी थी। संक्रमण फैलने के डर से मकान मालिक ने मुझे अपने घर से निकाल दिया और मुझे घर आना पड़ा ।यह सुनकर उसके होश उड़ गए और वह सोचने लगी कि मैं भी तो यही करने जा रही थी।
✍️ स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार अखिलेश वर्मा की लघुकथा ------- डॉ० साहब क्वारंटाइन में हैं
"हलो ! हलो !!"
"यस ! दिसलोक हॉस्पिटल हियर ।" रिशेप्सनिस्ट आलोक बोला ।
"मुझे डॉ शर्मा का नम्बर लगवाना है जो कॉर्डियोलोजिस्ट हैं ।" मरीज की आवाज़ आयी ।
"वो आपको पंद्रह दिन नहीं मिल सकते ।"
"पर उन्होंने मुझे दिल के आपरेशन की तारीख दे रखी है कल की । तो ऑपरेशन से पहले एडमिट करना होगा .. ज़रूरी टेस्ट वगैरह भी कराने होंगे ।" परेशान आवाज़ में मरीज़ बोला ।
"कहा ना ! वो पंद्रह दिन नहीं मिल सकते ।" आलोक सख्त आवाज़ में बोला ।
"क्या बात कह रहे हैं आप , अभी लॉकडॉउन से पहले ही तो उन्होंने कहा था कि मेरे दिल की नसों में नब्बे प्रतिशत ब्लॉकेज आई है तीन दिन में आपरेशन नहीं कराया तो कोई ताक़त नहीं बचा सकती ।" मरीज़ ने पूरी बात बताई ।
''मगर अब उन्होंने अपने सभी मरीजों के लिए कहा है कि पुराने पर्चे की दवा ही खाएँ पंद्रह दिन और ! " आलोक ने समझाते हुए कहा ।
"पर तब तक तो मैं उनके कहे अनुसार मर जाऊँगा भाई ! आप उनसे मेरी बात तो कराइये ।'' दुखी व रोष में मरीज़ बोला I
"सॉरी , डॉक्टर साहब क्वारंटाइन में हैं ।" कहकर रिसेप्शनिस्ट ने फोन पटक दिया ।
✍️ अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा ----तरीका
अपने तीनो दोस्तों के साथ घूमते हुए राज ने आईस्क्रीम की दुकान देखकर कहा"चलो आईस्क्रीम खायी जाये"।"हमारे पास पैसे नहीं है"कहकर वे आगे चल दिये। अरे पैसा कौन माँगता है, खानी हो तो बोलो"।
अरे खाने को कौन मना करेगा चलो खिलाओ" कहकर सब आईस्क्रीम की दुकान की ओर चले।राज दुकान वाले के पास जाकर कुछ बात करने के बाद तेज आवाज मे बोला "पत्ते तीन और बनाओ केसर वाले मलाई के साथ"। दुकानदार ने तेजी के साथ चार प्लेट लगाकर बोला "लीजिए और बताइये कि कैसी है?"।अपने दोस्तों के साथ बोला "थोड़ी मलाई और लगाओ तो स्वाद बढ़ जायेगा"।आईस्क्रीम खाकर राज चलने लगा दोस्तों के साथ तभी दुकान वाला बोला"साब तारीख कब है ,कितने लोग होगें? कल आकर बताता हूँ।"राज उसने पैसै क्यों नहीं माँगे और कौन सी तारीख पूछ रहा था"?
अरे छोड़ो यार वो तो मैने उससे कहा हमारे यहां शादी है और तुम्हारी आईस्क्रीम की तारीफ सुनी है"।
तो कब है शादी "
"कौन सी शादी किसकी शादी। वो तो तुम सबको आइसक्रीम खिलानी थी" कहकर राज कुटिलता से मुस्कुरा दिया।
✍️ डॉ श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रागिनी गर्ग की लघुकथा---- गलतफ़हमी
आज अर्णव,आॅफिस से देर से घर आया। काफी थका -थका , निढाल सा।
माधवी, पानी का गिलास लेकर आयी।फिर व्यंगात्मक -अंदाज में बोली :-"क्या बात अर्णव! काफी थके हुये लग रहो हो?क्या आज अपनी बाॅस रिनी के साथ चाय नहीं पी , या उसने तुमसे काम ज्यादा करा लिया?"
अर्णव बोला,"तुम्हारे दिमाग में रिनी जी को लेकर जो शक का कीडा़ रेंग रहा है उसे निकाल बाहर करो। यह हमारे बीच रोज की क्लेश अच्छी नही । मेरे और उनके बीच में बाॅस और सेक्रेटरी के अलावा न कोई रिश्ता है, और न होगा।" मैं बताता हूँ , "आज क्या हुआ -----?"
वो माधवी को कुछ बता पाता, इससे पहले ही माधवी की नजर अर्णव की कमीज पर लगी लिपस्टिक की ओर चली गयी।
"यह क्या है अर्णव? अब मुझे कुछ नहीं सुनना , झूठ बोलने की भी हद होती है। छीः! मुझे शर्म आती है तुम पर। मैं तुम्हारे साथ अब एक पल भी नहीं रह सकती। इसी समय मम्मी के घर जा रही हूँ।' इतना कहकर वो अपना सामन बाँधने लगी।
तभी दरवाजे की घन्टी बजी।
अर्णव ने दरवाजा खोला।माधवी भी बाहर आ गयी।
60-65 साल के एक बुजुर्ग- दम्पत्ति हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिये खडे़ थे।उन दोनों ने एक स्वर से पूछा, "क्या अर्णव जी आप हैं?"
"जी हाँ! मैं हीअर्णव हूँ। पर माफ कीजियेगा, मैंने आपको पहचाना नहीं।"
दोनों बुजुर्ग अर्णव के पैरों की ओर झुक गये, बोले:- बेटा! आप हमारे लिये भगवान हो। हम उसी जवान -बच्ची के माँ -बाप हैं, जिसकी आपने आज जान बचायी है। ट्रक वाला तो उसे मारकर चला ही गया था, अगर आप उसको समय पर अस्पताल न पहुँचाते तो हम अपनी बच्ची को जिन्दा नहीं पाते।
हमें आपके घर का पता अस्पताल के उस फाॅर्म से मिला जो आपने मेरी बेटी का संरक्षक बनकर भरा था।
अर्णव बोला, "आप मेरे माता-पिता जैसे हैं , कृपया मेरे पैर न पकडे़ं यह तो मेरा फर्ज था।"
पास ही खडी़ माधवी शर्म से, धरती में गढी़ जा रही थी।उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे। एक छोटी सी बात को लेकर इतनी बडी़ गलतफहमी पालकर वो अपना घर तोड़ने जा रही थी।
✍️ रागिनी गर्ग
रामपुर
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार सीमा रानी की लघुकथा ----"चार धाम यात्रा "
पैसा पैसा जोड़कर चार धाम की यात्रा करने का इंतजाम किया था सज्जन सिंह ने |घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी छोटी सी कृषि से ही बाल बच्चों की पढ़ाई व बाकी खर्च चलता था |पर मन में जीवन में एक बार चार धाम की यात्रा करने का सपना रह रहकर उभरता था तो अपनी छोटी सी आमदनी से यात्रा के खर्च का इंतजाम करने में कई वर्ष लग गये थे |
यात्रा का खर्च पूरा हो जाने पर सज्जन सिंह बड़े प्रफुल्लित थे कि चलाे अब प्रभु दरबार के दर्शन आसानी से कर सकूंगा और फिर शांति से देह का त्याग भी कर सकूंगा |
सज्जन सिंह खिड़की के पास खड़े होकर सड़क पर आते जाते लोगों को निहार रहे थे जाने जिंदगी किस धुन में दौड़ लगाती रहती है तभी बराबर वाले वर्मा जी ने आकर बताया कि रहीम भाई के बेटे की तबीयत बहुत खराब है डॉक्टर ने दाे लाख का खर्च ऑपरेशन के लिए बताया है यह सुनकर तो रहीम भाई की बोलती ही बंद हो गई |
वर्माजी की बातें सुनकर सज्जन सिंह अवाक थे क्याेंकि रहीम भाई के घर का इकलौता चिराग उनका बेटा ही था.... |
अब सज्जन सिंह दुविधा में पड़ गए कि वर्मा जी से तो कह सकता हूं कि मैं उनकी कोई सहायता नहीं कर सकता परंतु खुद से कैसे कहूं कि..... ...?
और यदि ऐसे धर्म संकट में मैने मानव धर्म नहीं निभाया तो क्या मेरी चार धाम यात्रा कुबूल हाे पायेगी इसी द्वन्द में वे पूरी रात सो नहीं सके |
सुबह सज्जन सिंह बहुत दृढ़ निश्चय व शांत मन से उठकर रहीम भाई के घर पहुँचे और रहीम भाई के कंधे पर हाथ रखकर बाेले घबराओ न रहीम भाई....... |ये लाे दाे लाख और बेटे का ऑपरेशन कराओ |रहीम भाई का गला रूंध गया मुँह से शब्द नही निकल पा रहा था बडी हिम्मत से बाेले सज्जन.... .....|
बस टकटकी लगाकर सज्जन सिंह काे निहारते रहे..... |
✍🏻✍🏻सीमा रानी
अमराेहा
मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर की कहानी ----- गांव कोर
शालिनी ने स्तब्ध होकर पूछा "क्या गांवकोर जैसी कुप्रथा आज के समय में भी चलन में है?"
महिमा ने उत्तर दिया "हां शालिनी, कम से कम हमारे गांव में तो यह चलन में है। तुम तो बचपन में ही पढ़ने लिखने के लिए शहर चली गई और एक वकील बन गई, लेकिन हम सबकी ऐसी किस्मत कहाँ ? हम सब तुम्हें बहुत याद करते थे, काकी काका तो तुमसे शहर मिलने आ जाते थे लेकिन हम तो पहली बार मिल रहे हैं। तुमने तो वास्तव में तरक्की कर ली सोच में भी और शिक्षा में भी लेकिन इस गांव के लोगों ने जरा भी तरक्की नहीं करी, सब ज्यों के त्यों ही है। पुरानी कुप्रथाओं से इस प्रकार बंधे हुए हैं जैसे कि छूटना ही नहीं चाहते हो।"
शालिनी ने पूछा "महिमा तुम मुझे ले जा सकती हो गांवकोर पर? मैंने नाम तो सुना है लेकिन कभी देखा नहीं है।"
महिमा शालिनी को अपने साथ गांवकोर की तरफ ले गई।
गांव के आखिरी छोर पर एकदम सुनसान एवं वीराने में एक छोटी सी झोपड़ी थी। दोनों ने अंदर प्रवेश करा तो वह खाली थी। तभी बास के डंडों से बने बाथरूम पर जिस पर पर्दा ढका हुआ था, उसे हटाकर एक लड़की कराहते हुए बाहर निकली।
उसने शालिनी को देखते ही पहचान लिया और बोली "अरे शालिनी तू यहां कैसे? तू तो बिल्कुल वैसी ही लग रही है जैसे बचपन में लगती थी, बस थोड़ी लंबी हो गई तुझे क्या महावारी हो रही है जो तू इस झोपड़ी में आई है?"
शालिनी ने उत्तर दिया "नहीं महावारी तो नहीं हो रही निलीमा बस मैं किसी काम से यहां पास में आई थी तो मांबाबा और सबसे मिलने आ गई।"
उसने आगे पूछा "लेकिन तुम यहां क्या कर रही हो?
नीलिमा ने उत्तर दिया "मेरा मासिक धर्म चल रहा है इसलिए हर महीने पांच दिन मैं यही रहती हूं। वरना कभी-कभी इसके धब्बे कपड़े में से रिसकर फैल जाते हैं फिर साफ भी नहीं हो पाते और बदबू भी बहुत हो जाती है।"
शालिनी ने पूछा "तुम कपड़ा इस्तेमाल करती हो लेकिन कपड़े से इन्फेक्शन होने का खतरा रहता है, जिससे सर्वाइकल कैंसर का डर बना रहता है। तुम लोग यहां इतने सुनसान में रहती हो, तुम्हें जंगली जानवरों, सांप, बिच्छू का डर नहीं लगता? यहां तो मुझे बिस्तर भी नहीं दिखाई दे रहा, तुम जमीन पर सो कैसे लेती हो वह भी इस अवस्था में। तुम्हारे खाने पानी का इंतजाम कैसे होता है? बरहाल तुम इस अवस्था में रहती ही क्यों हो मना क्यों नहीं करती?
महिमा ने बोला "दरअसल इसका उत्तर यह नहीं दे पाएगी मैं देती हूं। क्योंकि यह इस गांव का रिवाज है कि मासिक धर्म के दौरान लड़की को चाहे वह कुंवारी हो या फिर
शादीशुदा गांवकोर में ही रहना पड़ता है। घर से उबला हुआ खाना, पानी के साथ आ जाता है तो वही खाना होता है और आजकल के जमाने में जहां इंसान शैतान बन चुका है वहां जानवर से क्या डरना? अभी कुछ दिन पहले सांप के काटने के कारण एक लड़की की मृत्यु हो गई लेकिन यह इतना भयावह नहीं था जितना कि कुछ माह पहले एक लड़की को माहवारी के दौरान बलात्कार करके मार दिया गया और उसके तन पर कपड़ा भी नहीं ढका।"
शालिनी ने कहा "मतलब इतना सब होने पर भी तुम लोग को गांवकोर में रहने आ जाते हो। गांव से इतना दूर सुनसान में गांवकोर बनाने की जरूरत ही क्या है?
महिमा ने आगे कहा "चलो शालिनी, इन सब चीजों में तुम मत पड़ो तुम शहर की हो वहां का आनंद लो हम गांव में ऐसे ही ठीक है, अब चलो बहुत देर हो रही है काका काकी घर पर इंतजार कर रहे होंगे।"
शालिनी घर तो वापस आ गई लेकिन उस गांवकोर का दृश्य उसके मस्तिष्क में लगातार घूम रहा था। वो बस यह कारण जानने को उत्सुक थी कि आखिर क्यों इतनी मुश्किलों के बावजूद एक स्त्री गावकोर में रहने को मजबूर है।
यह प्रश्न शालिनी को लगातार परेशान किए जा रहा था। अंततः वो अपनी दादी के पास प्रश्न के उत्तर की तलाश में गई। दादी कमरे में शालिनी की मां ममता के साथ बैठकर गेहूं बीन रही थीं। शालिनी ने कमरे में प्रवेश किया और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई। बैठे बैठे वह गहरी सोच में डूब गई और सोच में डूबे डूबे वो गेहूं को एकटक निहार रही थीं। उसे इस प्रकार ख्यालों में खोया देख दादी तो समझ गई थी कि वो किसी गहन चिन्तन में है।
उन्होंने शालिनी को झकझोरते हुए मजाकिया तंज मे पूछा "क्या बात शालू तूने कभी गेहूं नहीं देखे जो इन्हें ऐसे घूरे जा रही है?"
दादी की बात पर शालिनी का ध्यान भंग हुआ तो वो बोली "वो दादी..... दरअसल..... कुछ पूछना था।"
दादी बोली "हाँ तो पूछ न बिटिया क्या पूछना है ? "
शालिनी ने प्रश्न किया "दादी दरअसल मैं गांवकोर के बारे में पूछना चाहती हूँ ? आखिर आज के समय में गांवकोर की क्या आवश्यकता है? इतनी मुश्किले झेलते हुए भी लड़कियां व महिलाए वहां जाने को क्यों मजबूर हैं?" दादी ने शालिनी की बात का उत्तर देते हुए कहा "शालू जो प्रश्न तू आज उठा रही है यह मैं काफी बार उठा चुकी हूं और मैंने बदलाव लाने की कोशिश भी करी लेकिन असफल रही। और इसका कारण हैं कि समाज बदलाव लाना ही नहीं चाहता। लोग गांवकोर की स्थिति को सुधार तो देते हैं लेकिन खत्म नहीं करते। तेरी मौसेरी दादी के गांववाले हमारे यहां से ज्यादा स्वतंत्र विचारों के हैं परन्तु वहां भी इस कुप्रथा का खत्म करने के स्थान पर गांवकोर की स्थिति सुधार दी गई। अब वहां गांवकोर की झोपड़ी की जगह ईंट की दीवारों से बना कमरा है जहां सोने के लिए बिस्तर है तो दरवाजे भी हैं।"
शालिनी ने कुछ सोचते हुए कहा "मतलब गांवकोर कुप्रथा तब तक रहेगी जबतक यह समाज के मस्तिष्क में रहेगी".....कहते कहते शालिनी सोचने लगी कि मासिक धर्म तो इस संसार को चलाने के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है। यदि मासिक धर्म ही नहीं होगा तो स्त्री बच्चे कैसे पैदा कर सकेगी? मासिक धर्म ही तो उसे काबिलियत देता है बच्चे पैदा करके इस संसार को चला सकने की और उसी के लिए इस तरह से बर्ताव किया जा रहा है। मंदिर में प्रवेश ना करना, रसोई घर में प्रवेश न करना, घर में अलग कमरे में रहना तो शहरों में भी सुनने को आ जाता है लेकिन गांवकोर जैसी कुप्रथा अब भी चलन में है यह बात तो बहुत ही गलत है।
शालिनी ने निश्चय करा कि वह पूरे एक हफ्ते जब तक इस गांव में है तब तक गांवकोर की प्रथा को मिटाने के खिलाफ अपनी कोशिशें जारी रखेगी।
✍️ इला सागर
मुरादाबाद 244001
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघु कथा ----- भूख
मां ने तीनों बच्चों को अपने पास बैठाया उनके सर पर हाथ फेरकर कहा बच्चों आज
सेठ के लड़के का जन्म दिन था, वहां महमानों की भीड़ जमा थीं औऱ बेटा वहां कई तरह के पकवान, मिठाइयां भी बनी थी ।बच्चे बोले और माँ----! महमानों ने प्लेटों में खाना, मिठाइयाँ छोड़ दीं उन्हें कुत्ते खा रहे थे। और-------!!'' तभी एक बच्चा बोला पर माँ तुम खाना क्यों नहीं लाई मुझे भूख लग रही है "।यही प्रश्न उन दोनों ने भी किया ।उनकी बातें सुनकर माँ की आंखों में आँसू आ गए ।आँसू देखकर बच्चे चुप हो गए और बोले '' माँ कल फिर सुनना ऐसी सुंदर कहानी ''।हमारा तो कहानी सुनकर ही पेट भर जाता हैं माँ--------!!और बच्चे उठकर सोने चले गए ।
✍️ अशोक विश्नोई
मुरादाबाद 244001
मोबाइल फोन नम्बर 9411809222
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ----खजाने की गुप्त भाषा
दो सौ साल पुराने मकान को तोड़कर नया मकान बनाने की तैयारी चल रही थी । इसी क्रम में घर का सबसे पुराना कमरा टूट रहा था । दीवार को तोड़ते समय मजदूरों ने आवाज लगाई "बाबूजी ! यह छोटी सी संदूकची निकली है दीवार में। देखिए कुछ काम की तो नहीं है ?"
मैं दौड़ा और तत्काल संदूकची को अपने कब्जे में ले लिया । पीतल की बहुत ही खूबसूरत काम की बनी हुई यह एक छोटी सी संदूकची थी । ऊँचाई 3 इंच ,चौड़ाई भी लगभग 3 इंच और लंबाई 6 इंच। संदूकची को उत्सुकता वश खोला तो देखा कि उसके अंदर एक कागज रखा हुआ है ।कागज को उठाकर देखा तो टेढ़े-मेढ़े कुछ अक्षर बने हुए थे ।लेकिन हाँ , थे एक सीध में । तीन चार लाइनों में यह सब लिखावट थी । समझ में कुछ नहीं आया कि यह सब क्या है ? मजदूरों से उस तरफ काम रोक देने के लिए कहा और उन्हें घर जाने की अनुमति दे दी।
संदूकची और उसमें रखा हुआ कागज लेकर पिताजी के पास दौड़ा- दौड़ा पहुँचा । उन्हें संदूकची और उसमें रखा हुआ कागज दिखाया। सारी घटना बताई। कागज को देखकर वह भी सोच में पड़ गए । कहने लगे "जिस परिस्थिति में यह कागज और संदूकची मिली है ,तो इसमें कुछ न कुछ रहस्य तो होना चाहिए ।लेकिन इस कागज में जो लिखा हुआ है ,उसे पढ़ेगा कौन ? यह तो कोई गुप्त भाषा जान पड़ती है ।"
सहसा पिताजी को कुछ याद आया। कहने लगे" हमारे दादा जी अर्थात तुम्हारे परदादाजी अपने जमाने के बहुत धनवान व्यक्ति थे । मेरे पिताजी बताते थे कि उन्होंने अपना कोई खजाना कहीं छिपा दिया था और फिर अंतिम समय में उसके बारे में स्वयं ही भूल गए थे । दरअसल अंत में उनकी याददाश्त खो गई थी । उन्हें कुछ भी याद नहीं रहा । हो सकता है कि इसमें उसी खजाने का कोई रहस्य छिपा हुआ हो।"
मैंने खुशी से उछल कर कहा "तब तो यह कागज बहुत कीमती है और इसका पढ़ा जाना बहुत जरूरी है ।"
इस पर पिताजी कहने लगे " एक पुराने मुनीमजी हैं। उनकी आयु 90 वर्ष की होगी । अगर उनसे जाकर पूछा जाए तो शायद इसे पढ़ लें। सुना है , पुराने जमाने में वह बहीखातों का काम करते थे ।"
तत्काल मैं और पिताजी स्कूटर पर बैठे और जिन मुनीमजी का जिक्र हो रहा था, उनके घर पर पहुँच गए । और हाँ ! रास्ते में कुछ फल और मिठाइयाँ साथ में ले लीं। खाली हाथ जाना उचित नहीं था । मुनीमजी घर में खाली बैठे थे। उनके पुत्र से पूछा" क्या मुनीमजी हैं ? "
वह कहने लगा "अभी तो जब तक ऊपर से बुलावा नहीं आया है ,हमारी छाती पर ही मूँग दल रहे हैं ।"
सुनकर धक्का लगा । "बुजुर्गों के बारे में भला कोई ऐसा कहता है ? ऐसा नहीं कहना चाहिए आपको !"
"क्यों नहीं कहना चाहिए ? अब जब यह किसी काम के नहीं हैं, सिवाय खाना और सोना ,इसके अलावा इनसे कोई काम आता नहीं ,तो इनकी उपयोगिता ही क्या है ? इनका मूल्य फूटी कौड़ी भी नहीं रह गया है।"
पिताजी ने मुनीमजी के पुत्र से बहस करना उचित नहीं समझा। बस इतना कहा "आप हमें उनसे मिलवा दीजिए ।"
लड़का बोला "आइए चलिए ! आप मिल लीजिए !क्या करेंगे मिलकर ?"
पिताजी बोले "कुछ नहीं ,बस हाल-चाल पूछना था "
लड़का मुनीमजी के पास ले गया। मुनीमजी चारपाई पर रोगी- सी अवस्था में थे ।उम्र की बात भी थी। पिताजी ने उनकी कुशल क्षेम पूछी । वह पहचान गए । पिताजी ने उन्हें फल और मिठाई सौंपी, जिसे उनका पुत्र तत्काल ले गया । कमरे में अब केवल मुनीमजी , मैं तथा पिताजी थे।
पिताजी ने मुनीमजी से कहा "आपसे एक कागज पढ़वाना है । पढ़ देंगे?"
मुनीमजी के रूखे चेहरे पर हल्की सी हँसी तैरी और कहने लगे "हाँ ! अभी आँखों से इतना तो दिख जाता है कि लिखा क्या है । लेकिन ऐसा क्या है जो सिर्फ मैं ही पढ़ सकता हूँ?"
पिताजी ने कागज उनके आगे कर दिया। मुनीमजी ने कागज हाथ में लिया और दो मिनट तक उसे भीतर ही भीतर पढ़ते रहे। उनकी आँखों में गहरी चमक आ गई। धीरे से पिताजी के कान में बोले "इसमें खजाने का विवरण लिखा हुआ है । यह तुम्हें किसी दीवार में छुपाया हुआ तो नहीं मिला ?"
पिताजी खुशी से काँपने लगे। बोले" हाँ ! ऐसा ही है ।"
मुनीमजी ने धीरे से कहा "इसमें लिखा हुआ है कि जिस स्थान पर संदूकची में यह कागज़ रखा हुआ है, ठीक उसी स्थान पर नींव में सोने की अशरफियों का संदूक गड़ा हुआ है ।"
फिर मुनीमजी ने धीरे से बताया "यह कागज मुंडी लिपि में लिखा हुआ है । एक जमाना था ,जब पाठशालाओं में भी मुंडी पढ़ाई जाती थी और दुकानों पर बहीखातों के सारे काम भी इसी मुंडी लिपि में हुआ करते थे । तुम्हारे दादा परदादा इसी मुंडी लिपि को लिखने की आदत रखते होंगे और इसीलिए उन्होंने सहज रूप से इसे मुंडी लिपि में लिख दिया । मुंडी लिपि में लिखने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वह नहीं चाहते होंगे कि यह कागज किसी बिल्कुल अनजान आदमी के हाथ में पड़े ।"
पिताजी सुन कर आश्चर्यचकित रह गए। सचमुच अगर उस मजदूर ने संदूकची खोलकर कागज निकाल भी लिया होता तो मुंडी में लिखा होने के कारण वह उसे नहीं पढ़ पाता।
पिताजी और मैं खुशी से उछल रहे थे।अब पिताजी ने मुनीमजी के हाथ चूमे और कहा " मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूँ। दस हजार रुपए लाया हूँ।आपको दे दूँ।"
बूढ़े मुनीमजी ने कहा "मुझे देकर क्या करोगे ? और मैं रूपयों का करूँगा भी क्या? बुझता हुआ चिराग हूँ। मेरे बेटे को दे दो। शायद वह इससे मेरी कुछ कद्र करने लगे ।"
पिताजी ने ऐसा ही किया। बाहर आए और मुनीमजी के लड़के को दस हजार रुपए दे दिए। कहा "इनसे मुनीमजी की अच्छी तरह सेवा करते रहना ।"
लड़के की समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन उसने झटपट रुपए अपनी जेब में रख लिए । पिता जी घर आए । हम दोनों ने मिलकर हथौड़ी से उस स्थान पर पहले दीवार हटाई और फिर नींव खोदना शुरू किया । जरा सा नीचे जाते ही एक संदूक में सोने की अशरफियाँ भरी हुई मिल गयीं। मुनीमजी ने मुंडी लिपि में लिखे हुए कागज को बिल्कुल ठीक पढ़ा था ।
मैंने कहा " पिताजी ! अगर मुनीमजी जीवित नहीं होते तो क्या मुंडी लिपि पढ़ने वाला कोई और व्यक्ति शहर में था ?"
पिताजी बोले "मुनीमजी आखिरी व्यक्ति हैं ,जो मुंडी लिपि जानते हैं। एक सज्जन और भी थे, मगर पिछले साल ही उनका भी लगभग 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया था । वैसे मेरा अनुमान भी कुछ-कुछ मुंडी लिपि की तरफ ही जा रहा था । इसीलिए मैं तुम्हारे साथ मुनीमजी के पास ही सबसे पहले गया।"
✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर
उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99 97 61 5451
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