गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर की कहानी ----- गांव कोर


      शालिनी ने स्तब्ध होकर पूछा "क्या गांवकोर जैसी कुप्रथा आज के समय में भी चलन में है?"
महिमा ने उत्तर दिया "हां शालिनी, कम से कम हमारे गांव में तो यह चलन में है। तुम तो बचपन में ही पढ़ने लिखने के लिए शहर चली गई और एक वकील बन गई, लेकिन हम सबकी ऐसी किस्मत कहाँ ? हम सब तुम्हें बहुत याद करते थे, काकी काका तो तुमसे शहर मिलने आ जाते थे लेकिन हम तो पहली बार मिल रहे हैं। तुमने तो वास्तव में तरक्की कर ली सोच में भी और शिक्षा में भी लेकिन इस गांव के लोगों ने जरा भी तरक्की नहीं करी, सब ज्यों के त्यों ही है। पुरानी कुप्रथाओं से इस प्रकार बंधे हुए हैं जैसे कि छूटना ही नहीं चाहते हो।"
शालिनी ने पूछा "महिमा तुम मुझे ले जा सकती हो गांवकोर पर? मैंने नाम तो सुना है लेकिन कभी देखा नहीं है।"
महिमा शालिनी को अपने साथ गांवकोर की तरफ ले गई।
गांव के आखिरी छोर पर एकदम सुनसान एवं वीराने में एक छोटी सी झोपड़ी थी। दोनों ने अंदर प्रवेश करा तो वह खाली थी। तभी बास के डंडों से बने बाथरूम पर जिस पर पर्दा ढका हुआ था, उसे हटाकर एक लड़की कराहते हुए बाहर निकली।
उसने शालिनी को देखते ही पहचान लिया और बोली "अरे शालिनी तू यहां कैसे? तू तो बिल्कुल वैसी ही लग रही है जैसे बचपन में लगती थी, बस थोड़ी लंबी हो गई तुझे क्या महावारी हो रही है जो तू इस झोपड़ी में आई है?"
शालिनी ने उत्तर दिया "नहीं महावारी तो नहीं हो रही निलीमा बस मैं किसी काम से यहां पास में आई थी तो मांबाबा और सबसे मिलने आ गई।"
उसने आगे पूछा "लेकिन तुम यहां क्या कर रही हो?
नीलिमा ने उत्तर दिया "मेरा मासिक धर्म चल रहा है इसलिए हर महीने पांच दिन मैं यही रहती हूं। वरना कभी-कभी इसके धब्बे कपड़े में से रिसकर फैल जाते हैं फिर साफ भी नहीं हो पाते और बदबू भी बहुत हो जाती है।"
शालिनी ने पूछा "तुम कपड़ा इस्तेमाल करती हो लेकिन कपड़े से इन्फेक्शन होने का खतरा रहता है, जिससे सर्वाइकल कैंसर का डर बना रहता है। तुम लोग यहां इतने सुनसान में रहती हो, तुम्हें जंगली जानवरों, सांप, बिच्छू का डर नहीं लगता? यहां तो मुझे बिस्तर भी नहीं दिखाई दे रहा, तुम जमीन पर सो कैसे लेती हो वह भी इस अवस्था में। तुम्हारे खाने पानी का इंतजाम कैसे होता है? बरहाल तुम इस अवस्था में रहती ही क्यों हो मना क्यों नहीं करती?
महिमा ने बोला "दरअसल इसका उत्तर यह नहीं दे पाएगी मैं देती हूं। क्योंकि यह इस गांव का रिवाज है कि मासिक धर्म के दौरान लड़की को चाहे वह कुंवारी हो या फिर
शादीशुदा गांवकोर में ही रहना पड़ता है। घर से उबला हुआ खाना, पानी के साथ आ जाता है तो वही खाना होता है और आजकल के जमाने में जहां इंसान शैतान बन चुका है वहां जानवर से क्या डरना? अभी कुछ दिन पहले सांप के काटने के कारण एक लड़की की मृत्यु हो गई लेकिन यह इतना भयावह नहीं था जितना कि कुछ माह पहले एक लड़की को माहवारी के दौरान बलात्कार करके मार दिया गया और उसके तन पर कपड़ा भी नहीं ढका।"
शालिनी ने कहा "मतलब इतना सब होने पर भी तुम लोग को गांवकोर में रहने आ जाते हो। गांव से इतना दूर सुनसान में गांवकोर बनाने की जरूरत ही क्या है?
महिमा ने आगे कहा "चलो शालिनी, इन सब चीजों में तुम मत पड़ो तुम शहर की हो वहां का आनंद लो हम गांव में ऐसे ही ठीक है, अब चलो बहुत देर हो रही है काका काकी घर पर इंतजार कर रहे होंगे।"
शालिनी घर तो वापस आ गई लेकिन उस गांवकोर का दृश्य उसके मस्तिष्क में लगातार घूम रहा था। वो बस यह कारण जानने को उत्सुक थी कि आखिर क्यों इतनी मुश्किलों के बावजूद एक स्त्री गावकोर में रहने को मजबूर है।
यह प्रश्न शालिनी को लगातार परेशान किए जा रहा था। अंततः वो अपनी दादी के पास प्रश्न के उत्तर की तलाश में गई। दादी कमरे में शालिनी की मां ममता के साथ बैठकर गेहूं बीन रही थीं। शालिनी ने कमरे में प्रवेश किया और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई। बैठे बैठे वह गहरी सोच में डूब गई और सोच में डूबे डूबे वो गेहूं को एकटक निहार रही थीं। उसे इस प्रकार ख्यालों में खोया देख दादी तो समझ गई थी कि वो किसी गहन चिन्तन में है।
उन्होंने शालिनी को झकझोरते हुए मजाकिया तंज मे पूछा "क्या बात शालू तूने कभी गेहूं नहीं देखे जो इन्हें ऐसे घूरे जा रही है?"
दादी की बात पर शालिनी का ध्यान भंग हुआ तो वो बोली "वो दादी..... दरअसल..... कुछ पूछना था।"
दादी बोली "हाँ तो पूछ न बिटिया क्या पूछना है ? "
शालिनी ने प्रश्न किया "दादी दरअसल मैं गांवकोर के बारे में पूछना चाहती हूँ ? आखिर आज के समय में गांवकोर की क्या आवश्यकता है? इतनी मुश्किले झेलते हुए भी लड़कियां व महिलाए वहां जाने को क्यों मजबूर हैं?" दादी ने शालिनी की बात का उत्तर देते हुए कहा "शालू जो प्रश्न तू आज उठा रही है यह मैं काफी बार उठा चुकी हूं और मैंने बदलाव लाने की कोशिश भी करी लेकिन असफल रही। और इसका कारण हैं कि समाज बदलाव लाना ही नहीं चाहता। लोग गांवकोर की स्थिति को सुधार तो देते हैं लेकिन खत्म नहीं करते। तेरी मौसेरी दादी के गांववाले हमारे यहां से ज्यादा स्वतंत्र विचारों के हैं परन्तु वहां भी इस कुप्रथा का खत्म करने के स्थान पर गांवकोर की स्थिति सुधार दी गई। अब वहां गांवकोर की झोपड़ी की जगह ईंट की दीवारों से बना कमरा है जहां सोने के लिए बिस्तर है तो दरवाजे भी हैं।"
शालिनी ने कुछ सोचते हुए कहा "मतलब गांवकोर कुप्रथा तब तक रहेगी जबतक यह समाज के मस्तिष्क में रहेगी".....कहते कहते शालिनी सोचने लगी कि मासिक धर्म तो इस संसार को चलाने के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है। यदि मासिक धर्म ही नहीं होगा तो स्त्री बच्चे कैसे पैदा कर सकेगी? मासिक धर्म ही तो उसे काबिलियत देता है बच्चे पैदा करके इस संसार को चला सकने की और उसी के लिए इस तरह से बर्ताव किया जा रहा है। मंदिर में प्रवेश ना करना, रसोई घर में प्रवेश न करना, घर में अलग कमरे में रहना तो शहरों में भी सुनने को आ जाता है लेकिन गांवकोर जैसी कुप्रथा अब भी चलन में है यह बात तो बहुत ही गलत है।
शालिनी ने निश्चय करा कि वह पूरे एक हफ्ते जब तक इस गांव में है तब तक गांवकोर की प्रथा को मिटाने के खिलाफ अपनी कोशिशें जारी रखेगी।

✍️ इला सागर
मुरादाबाद 244001

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें