शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग के 22 गीत .....। ये गीत वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब पर योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा प्रस्तुत किये गए थे ।.


 






















::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ----प्यारी बहना

   


कोरोना की विभीषिका में कितने ही घर उजड़ गए ....राहुल का दोस्त सुबोध अच्छा भला सॉफ्टवेयर इंजीनियर था, जिस पर घर की सारी जिम्मेदारी थी, असमय ही काल गाल में चला गया । राहुल ने ही इस त्रासदी में उसके परिवार को संभाला मां और बहन सारिका को ढांढस बंधाया ! 

     वह सुबोध की कमी को तो पूरी नहीं कर सकता था परन्तु सारिका की शादी धूम धाम से तय तारीख पर ही सम्पन्न कराई.....।

 ******* 

.........रक्षाबंधन की रौनक बाजारों में हर ओर दिखाई दे रही थी। दुकानों पर जगह-जगह राखियां लगी थीं.....हर ओर रक्षाबंधन के गीत गूंज रहे थे....."ये राखी बंधन है ऐसा..."

..... आज रक्षाबंधन है सभी बहनें सज धज कर भाइयों को राखी बांधने जा रहीं हैं सब ओर बड़ी चहल पहल है तभी राहुल का ध्यान अपनी सूनी कलाई की ओर गया वह ख्यालों में डूबता चला गया और..... पांच साल पहले हुई घटना का एक-एक दृश्य सजीव होकर सामने आने लगा.....

***

...... "दीदी दो माह हो गए जमीन की रजिस्ट्री किए हुए हैं बाकी के तीन लाख रुपए अभी तक नहीं मिले अच्छा होता आप  हरिओम से कह कर  रुपए हमें भिजवा देतीं........

.. चेक बाउंस होने से पांच सौ रुपए की चपत अलग से और लग गयी....!"राहुल ने फोन पर याद दिलाते हुए मुन्नी दीदी से कहा ।

प्रत्युत्तर में राहुल ने जो कुछ सुना उसकी उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी....."तुम्हारी जमीन ही कम थी! कैसे पैसे ! भूल जाओ! और भविष्य में फिर कभी इस विषय पर कोई बात मत करना "!

   "अरे दीदी आपके कहने पर मैंने पहले ही तीन लाख रुपया छोड़ दिया था,, ऐसा नहीं कहो मुझे अपना लोन भी तो चुकाना है!"

परंतु उत्तर में उसे पैसे तो नहीं मिले बल्कि और भी अधिक बुरी-भली, जली-कटी सुनने को मिलीं......आपस में दूरियां बढ़ती ही चली गईं.....

   राहुल ने हमेशा ही अपनी दीदी के बच्चों की तन मन धन से मदद की थी उसने सपने में भी नहीं सोचा था उसकी सगी दीदी व भांजा उससे ऐसा सलूक करेंगे ! और यह जमीन का सौदा इतना महंगा पड़ने वाला है। ज्यादा कहने सुनने से रिश्ते में और अधिक खटास बढ़ती गई यहां तक कि लड़ाई झगड़ा भी राहुल के साथ हो गया.... आज पांच साल हो गए..... हाथ पर बहन की राखी तक  भी नहीं बंधी! सोचते सोचते राहुल की रुलाई फूट पड़ी....!

    ......तभी घंटी बजी सारिका ने अपने  छोटे बच्चे के साथ भैया... भैया! कहते हुए घर में प्रवेश किया.... हाथ में राखी का थाल था और काजू वाली बर्फी भी... छोटा युग मामा!...मामा!! कहते हुए राहुल से लिपट गया .... 

........"क्या हुआ मेरे प्यारे राहुल भैया को ?" सारिका भावुक होते हुए बोली....

राहुल का कंठ अवरुद्ध हो गया एक बारगी स्वर नहीं फूटे..... फिर आंखें पौछीं और राखी के लिए अपनी कलाई आगे करते हुए  अनायास ही मुंह से निकल पड़ा..........

...... प्यारी बहना!!

✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नम्बर - 82 188 25 541

   

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार का संस्मरण---- जब स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास जी ने मुझसे कहा -- ... जो चाहते हो,उसे हिम्मत के साथ करोगे, तभी आगे बढ़ पाओगे


मैं आजकल जो कुछ लिख रहा हूं, उसमें आदरणीय पंडित मदन मोहन व्यास जी का महत्वपूर्ण योगदान है। मैंने कक्षा 6 से 12 तक की शिक्षा, पार्कर इंटरमीडिएट कॉलेज में प्राप्त की। आदरणीय व्यासजी वहां हिंदी पढ़ाया करते थे। यह मेरा परम सौभाग्य था, कि कक्षा 9 और 10 में मुझे आदरणीय व्यासजी से हिंदी पढ़ने और समझने का अवसर मिला।  मैं उस समय तक छोटी मोटी तुकबंदियां करने लगा था। लेकिन संकोची स्वभाव के कारण,अपने तक ही सीमित था।इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि मेरे अंतस में उमड़ रही काव्य घटाओं को, आदरणीय व्यासजी के मार्ग दर्शन और प्रेरणा से ही बरसने का मौका मिला।

     पार्कर कॉलेज में उन दिनों,हर वर्ष,फर्स्ट डिविजनर्स डे मनाया जाता था,जिसमे ईसाई समुदाय के, बरेली मंडल के प्रमुख,जिनको बिशप कहा जाता था, मुख्य अतिथि होते थे। कई दिन पहले से इस कार्यक्रम की तैयारी की जाती थी। यह शायद 1972 या 73 की घटना है। बिशप महोदय के स्वागत में,एक स्वागत गीत,आदरणीय व्यासजी के निर्देशन में,तैयार किया जा रहा था। यह गीत लिखा भी आदरणीय व्यास जी ने था । उसके मुख्य बोल थे --- " खुश है धरती गगन ,आपके स्वागत में"
मैंने उस गीत की एक पैरोडी बना डाली,जिसकी
दो पंक्तियां मुझे आज भी याद हैं
"स्कूल का पुता भवन,आपके स्वागत में
पढ़ना ,लिखना दफन,आपके स्वागत में"

आस पास बैठे साथियों को इसका पता चल गया और उन्होंने आदरणीय व्यासजी तक,ये बात पहुंचा दी।अगले दिन उन्होंने,मुझे स्टाफ रूम में बुलाया। मैं डरते डरते उनके पास गया।," ये तुमने लिखा है" उन्होंने कड़क आवाज में पूछा। मैंने कांपते हुए, स्वीकृति में सिर हिलाया।" लिखते हो तो डरते क्यों हो .... जो चाहते हो,उसे हिम्मत के साथ करोगे, तभी आगे बढ़ पाओगे।" इतना कह कर उन्होंने, मेरी पीठ थपथपाई। मेरी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े।आज, लगभग 50 साल बाद भी,जब परिस्थितिजन्य व्यथाओं से मन विचलित होता है,उनके ये शब्द, मुझे संतुलन प्रदान करते हैं।


✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
आदर्श कॉलोनी रोड
मुरादाबाद 244001
मोबाइल फोन नम्बर 9837189600

     

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- लोकाचार के कवि --ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी।


 आज जबकि अधिकांश शब्दकार निजी प्रचार, धन और यश अर्जित करने की कामना के साथ साहित्य सृजन कर रहे हैं। साथ ही स्वयं की 'अर्ध-देवता' (डेमी गाड) सरीखी छवियाँ निर्मित कर रहें और समाज पर अपनी कुण्ठाएं, हताशाएं, अतार्किक और अवैज्ञानिक विचार आरोपित कर रहे हैं। ईश्वर चन्द्र गुप्त 'ईश' जी एक ऐसे शब्द शिल्पी हैं जो पूर्णतया निस्पृह, निष्पक्ष और समर्पण भाव के साथ मौन रहकर अपनी शब्द यात्रा जारी रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष की आयु में भी 'ईश' जी जिस उत्साह और आशावादिता के साथ सृजनरत हैं वह निश्चित ही साहित्य और समाज के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं व्यक्ति के लिए भी एक स्वस्थ सकारात्मक संदेश है। 'ईश' जी धन और यश की कामना से नहीं बल्कि समाज को लगातार बेहतर बनाने और मानव जाति का परिष्कार करने की दृष्टि से सृजनरत हैं।

      मुझे पहली बार उनसे साक्षात्कार का सुयोग अग्रज पुष्पेन्द्र वर्णवाल के निवास पर दो-तीन वर्ष पहले आयोजित एक कवि गोष्ठी में प्राप्त हुआ जिसमें नगर के लगभग सभी वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे। इसमें मैंने 'ईश' जी की कविता को ध्यान पूर्वक सुना। जनकल्याण की भावना से प्रेरित स्वांत: सुखाय लिखी गयी यह कविता अतीत और वर्तमान का जीता जागता चलचित्र था। प्रकम्पित कण्ठ से पढ़ी गयी कविता उपस्थित कवि समुदाय पर कितना प्रभाव छोड़ सकी यह तो मैं नहीं जानता किन्तु खादी के साधारण वस्त्र और गांधी टोपी धारण किये इस कवि के सरल व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना मैं न रह सका। उनका यह ऋजुरेखीय व्यक्तित्व ठीक उनके साहित्य में भी प्रतिबिंबित होता है ।

      उनकी रचनाओं में साहित्यिक कलाबाजियाँ अधिक दिखायी नहीं पड़ती। भाषा और शिल्प भी सहज-सरल और एक साधारण पाठक के लिए ग्राह्य है। अपने साहित्य में वैचारिक स्तर पर वे हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार विष्णु प्रभाकर या फिर पत्रकार लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी या कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' सरीखे नजर आते है। दरअसल, वे उस पीढ़ी के हैं भी जिसके मानस या अवचेतन पर गांधी जैसे युग पुरुष के व्यक्तित्व और विचारों की गहरी छाप है। 'ईश' जी के साहित्य में गांधी वादी विचारों के सूत्र ढूँढ पाना किसी भी सुधि पाठक के लिए बेहद सरल है। किन्तु 'ईश' जी निरे गांधीवादी भी नहीं हैं। साहित्यकार के तौर पर वे टामस मोर के 'यूटोपिया' के काफी करीब नजर आते हैं और समाज की विसंगतियों पर ड्राइडेन और पोप की तरह पैने व्यंग्य करते रहते हैं। दरअसल, एक 'यूटोपिया' उन्हें बराबर 'हांट' करता रहता है। यूटोपिया से आक्रांत होने के कारण उनका समूचा सृजन समाज सुधार की भावना से ओतप्रोत है।

यद्यपि 'ईश' जी का रचनाकाल सुदीर्घ है तथापि उनकी बहुत अधिक कृतियां प्रकाशित नहीं हुई हैं। उनकी अब तक पांच-छः कृतियां प्रकाशित हुई हैं। जिनमें 'ईश गीति ग्रामर' और 'चा का प्याला' मुख्य हैं। 'चा का प्याला' सर्वाधिक उल्लेखनीय कृति है। 'चा का प्याला आधुनिक लोकाचार की सब से प्रमाणिक कृति भी है जो लोकप्रिय कवि बच्चन की 'मधुशाला' की तर्ज पर रची गयी है। यदि बच्चन जी की 'मधुशाला' हालावाद पर आधारित है तो 'चा का प्याला' प्यालावाद से प्रेरित है। इस दृष्टि से ईश जी हालावाद के समानान्तर प्यालावाद के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। आधुनिक जीवन में लोकाचार और काफी सीमा तक शिष्टाचार का पर्याय बन चुकी चाय के महत्व पर काव्य कृति का सृजन कर ईश जी ने सचमुच एक नया और विलक्षण प्रयोग किया है। 'चा का प्याला' के बहाने 'ईश' जी ने समकालीन समय की नब्ज को पकड़ने का प्रयास तो किया ही है कथित सभ्य समाज और आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विद्रूपों पर भी खुलकर कठोर प्रहार किये है। 'चा का प्याला' का मुख्य स्वर व्यंग्य है और यह अलेक्जेंडर पोप के 'रेप ऑव द लाक' की तरह काव्य, विशेषकर छन्द में रचा गया व्यंग्य महाकाव्य (माक एपिक) है जिस तरह अर्वाचीन इंग्लैण्ड में कॉफी को बेदखल कर चाय बुद्धिजीवियों और राज परिवार सहित कथित कुलीन वर्ग का पसन्दीदा पेय बनती जा रही थी और महलों में आयोजित होने वाली चाय दावतों की पोप ने जमकर भर्त्सना की थी उसी शैली में 'ईश' जी ने चाय के लोकाचार, शिष्टाचार और भ्रष्टाचार का अंग बनने और भारतीयों के इसके प्रति रुझान का जमकर उपहास किया है। बस अन्तर यही है कि जहाँ पोप की व्यंग्योक्तियाँ कटु और अधिक तीखी हो गयी है वहीं 'ईश' जी ने कहीं सभ्यता और शिष्टता का दामन नहीं छोड़ा है। उनका व्यंग्य अभिव्यक्ति के मामले में बिल्कुल 'मृदु', संयत और शालीन है। व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की मृदुता, शिष्टता और शालीनता आधुनिक व्यंग्य काव्य में दुर्लभ है। साथ ही, श्रमसाध्य भी। इस दृष्टि से ईश जी एक बड़े और समर्थ रचनाकार नजर आते हैं। जब 'ईश' जी लिखते हैं,

" आदत पड़ जाने पर तो यह ! 

तन-मन तक बेकल करती। 

शकल मुहर्रम बन जाए पर,

 इसके बिना न कल पड़ती।।

रक्खा क्या संध्या नमाज में, 

इसका चुम्बन कर डाला। 

उन्हें 'ईश' खुद ही मिल जाते,

 मिलता जब चा का प्याला

तब वे केवल चाय जैसे लोकाचार की सार्वभौमिकता को ही स्वीकार नहीं कर रहे होते बल्कि परोक्ष रूप से एक सहज मानवीय वृत्ति का भी उद्घाटन कर रहे होते हैं। 'चा का प्याला' साहित्य का एक ऐसा स्पेक्ट्रम है जिसमें जीवन का हर रंग अपने मनोहारी रूप में प्रतिबिम्बित होता है।

     'चा का प्याला' की भूमिका में विद्वान समीक्षक ने ठीक ही लिखा है "चा के प्याले के माध्यम से समूचे परिप्रेक्ष्य की मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करने में कवि का शिल्प विधान अपूर्व रूप से सहायक हुआ है। अनुभूति में रागात्मकता, शब्दों में कोमलता, विचारों में सम्प्रेषणीयता, अभिव्यक्ति में ऋजुता तथा व्यंग्योक्तियों में मर्मस्पर्शिता कवि के रूप सज्जा और शिल्प विधान की उल्लेखनीय खूबियां हैं। कवि ने परम्परागत शब्दावली से निकलकर ऐसी शब्दावली का वरण किया है जिसमें सामान्य विषयों से सम्बद्ध गहन अनुभूतियों की अपूर्व क्षमता है।

     'चा का प्याला' कवि 'ईश' जी का आधुनिक समय, समाज और भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में दिया गया साहित्यिक वक्तव्य ही नहीं है बल्कि लोकाचार की शोकांतिका भी है। इसके निहितार्थ व्यापक है। और समीक्षकों के लिए भी इसे ठीक व्याख्यायित- परिभाषित कर पाना कठिन है। एक कवि रूप में अभी 'ईश' जी का समुचित आकलन नहीं हुआ है। यदि किसी ने ऐसा किया तो निश्चित ही कवि 'ईश' के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ अनछुए आयाम उद्घाटित होंगें ।

(यह आलेख उस समय प्रकाशित हुआ था जब श्री ईश जी साहित्य साधना कर रहे थे )


✍️ राजीव सक्सेना 

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

 मथुरा

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) की साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ---अदना


 मैले कुचैले चिथड़ों में लिपटा हुआ.... एक नन्हा सा लड़का उम्र यही कोई दस या ग्यारह वर्ष रही होगी..... डेली आ जाता था दरवाज़े पर......  मैं भी दया और सहानुभूति भाव से उसे रोजाना दस या पांच रुपए दे देती थी । जब मैं उसे कुछ भी देती तो वह काफ़ी देर तक ऊपर को घूरता सा रहता था..... मुझे बहुत ही अजीब लगता था, आख़िर मैंने पूछ ही लिया कि "मैं रोज़ाना तुम्हें कुछ तो देती ही हूं और फिर भी तुम चुपचाप ऊपर की ओर ताकते रहते हो"। 

     वह मुस्कुराया.... और बोला--  मांजी, मैं ऊपर वाले से कहता हूं कि जिसने मुझे दिया है तू! उसे और दे... ।यह सुनकर..... मैं सोचती रही कि वह कहां 'अदना' है....., जो अपने लिए कुछ भी नहीं मांगता हमारे लिए मांगता है।


✍️ रेखा रानी, विजय नगर, गजरौला, जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश,भारत।

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी- मेथी-आलू की भुजिया!


पेशकार, पंडित राम भरोसे लाल दीक्षित तैयार होकर नाश्ते के इंतज़ार में बैठे थे।यकायक उन्हें ख़याल आया कि आज तो घर पर कोई है ही नहीं।घर के सभी सदस्य करीबी रिश्तदार की शादी में शामिल हेने दिल्ली गए हुए हैं।

    दीवार पर टंगी घड़ी को देखा तो उसमे पूरे नौ बज रहे थे।जब कि उनको साढ़े दस बजे तक कचहरी पहुंचना भी जरूरी था।

   गांव से मुख्य सड़क तक आने के लिए शार्टकट रास्ता बाल्मीकि बस्ती से होकर ही जाता।

    दीक्षित जी ने झट-पट फाइलों का थैला उठाया और ताला डालकर घर से निकल लिए।तेज कदमों से चलते हुए कुछ ही पलों में बाल्मीकि बस्ती के नुक्कड़ तक पहुंच गए।

    थोड़ा सा आगे बढ़े ही थे कि हरिया बाल्मीकि की पत्नी अतरी देवी जो लोहे की कढ़ाई में मेथी-आलू की भुजिया बना रही थी।जिसकी सुगंध घर के  बाहर  तक  अपना असर छोड़ रही थी।

    पंडित रामभरोसे लाल दीक्षित को देखकर हरिया की पत्नी अतरी देवी ने आवाज़ लगाकर कहा देवर जी कहाँ जा रहे हो।बड़ी जल्दी में लग रहे हो। हाँ भाभी,साढ़े दस बजे तक कचहरी जो पहुंचना है।अतरी ने पुनः प्रश्न किया पेशकार जी कुछ नाश्ता-वास्ता भी कर लिया है या ऐसे ही भूखे पेट भागे जा रहे हो।मुझे पता है घर पर कोई नहीं है।नाश्ता भी किसने कराया होगा।

    मैंने तो मेथी-आलू की भुजिया बनाई है।गेंचनी की हाथ पानी की रोटी भी सेक रही हूँ।अगर एतराज न हो तो खाकर ही चले जाते।परंतु कंजूस स्वभाव दीक्षित जी भूख से व्याकुल तो थे।परंतु जाति-बिरादरी की लोकशंका से व्यथित होना भी स्वाभाविक ही था।

     चलते-चलते उन्होंने सोचा  कि इतने प्यार से कौन किसको बुलाता है।भाभी ने खाने के लिए आवाज़ दी है तो कुछ अपना समझकर ही दी होगी।

    फिर हाथ धोकर ही सब्ज़ी काटी होगी,काटी हुई सब्ज़ी की भी कई बार धोया होगा।तेल भी शुद्ध सरदों का डाला होगा,इसके साथ ही वही मसाले,धनियां,नामक -मिर्च,हल्दी डाली होगी जो हम अपने घर पर भी रोज़ खाते हैं। साफ सुथरी लोहे की कढ़ाई में खूब अच्छी तरह ढंग से पकाकर भुजिया बनाई होगी।ऊपर से गेंचनी की रोटी चूल्हे पर खूब करारी सेक कर ही तो मुझे खाने को देगी।इसमें अतरी भाभी का क्या दोष।

    पंडित जी ने अतरी से पूछा भाभी नहा धोकर ही तो रसोई बना रही होगी। अतरी बोली और क्या, बिना नहाए धोए,गंदे-संदे ही खाना बनाएंगे।आप मुझे ऐसी-वैसी मत समझना।मैं तो बिना पूजा करे चाय तक भी नहीं पीती, देवर जी।

    मैंने तो इंसानियत के नाते  पूछ लिया आगे आपकी इच्छा।मैं तो फिर कहूंगी खा लो,,पेट पड़े गुन देगी।

       अच्छा भाभी जब तुम इतना कह रही हो तो ,,,,मना करना भी अच्छा नहीं लगता।

पंडित जी ने इधर-उधर देखा और घर के अंदर जाकर चारपाई पर जा बैठे। और खाना आने का इन्तज़ार करने लगे।तभी चमचमाती थाली में सुगंधित मेथी-आलू की सब्ज़ी वह भी घी से तरबतर।गेंचनी की हाथ की मोटी-मोटी चार रोटी साथ में पुदीने की चटनी की महक भी भूख को दोगुना कर रही थी।

    जल्दी से दीक्षित जी ने अतरी के हाथ से थाली लेकर  मंत्रोच्चारण के पश्चात खाना प्रारंभ कर दिया।शीघ्र ही भोजन समाप्त करके संतुष्टि की डकार के साथ ही भाभी जी के स्वादिष्ट खाने की प्रसंशा करए हुए धन्यवाद दिया।

 अब तक घड़ी भी दस बजने का स्पष्ट संकेत दे रही थी।पंडित जी भी तेज कदमों के साथ कार्य स्थल के लिए प्रस्थान कर गए।

जाते-जाते सोचने लगे कि खाना बनाना और प्यार से खिलाना भी एक कला है।जो सबके पास नहीं मिलती।इस खाने में प्यार भी था,विश्वास भी था,वात्सल्य और समर्पण  भी था।इसके साथ मिठास भरा अपनापन भी तो कम नहीं था।

     पर इस भेदभाव के लिए कोई और नहीं हम स्वयं ही दोषी हैं।परहेज मनुष्य से नहीं और ना ही उसकी दरिद्रता से करना चाहिए,बल्कि अपने कुसंस्कारों,मिथ्या अहम और हैवानियत से करना चाहिए।

    यही परमपिता परमात्मा की सच्ची उपासना है।

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद,उप्र, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

              

                     

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन का नवगीत ---बहुत प्यारे लग रहे हो-


 _                

बहुत प्यारे लग रहे हो 

ठग नहीं हो, किन्तु फिर भी 

हर नजर को ठग रहे हो 

                         बहुत प्यारे लग रहे हो


दूर रहकर भी निकट हो 

प्यास मैं, तुम तृप्ति घट हो 

मैं नदी की, इक लहर हूँ

तुम नदी का, स्वच्छ तट हो

सो रहा हूँ किन्तु मेरे 

स्वप्न में तुम जग रहे हो 

                        बहुत प्यारे लग रहे हो


देह मादक, नेह मादक

नेह का मन गेह मादक 

और यह मुझ पर बरसता 

नेह वाला मेह मादक 

किन्तु तुम डगमग पगों में,

एक संयत पग रहे हो 

                       बहुत प्यारे लग रहे हो 


अंग ही हैं सुधर गहने

हो बदन पर जिन्हें पहने 

कब न जाने आऊँगा मैं

यह जरा-सी बात कहने

यह कि तुम मन की अंगूठी के

अनूठे नग रहे हो 

                      बहुत प्यारे लग रहे हो

✍️ डॉ कुंअर बेचैन

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार राम किशोर वर्मा के चालीस दोहे ------


 (1)

जीवन भी इक 'खेल' है, कभी हार या जीत ।

कुदरत भी खेले कभी, सिखलाने को प्रीत ।।

(2)

'खेल'-खेल में सीखते, बच्चे पाते ज्ञान ।

खेलों में भी नाम है, और बनें विद्वान ।।

(3)

संँग कभी नहीं खेलना, जीवन में वह 'खेल' ।

सबकी अँगुली भी उठें, हो जाये फिर जेल ।।

(4)

'खेल' गेंद का खेल कर, नाथ दिया था नाग ।

चौपड़ का भी 'खेल' था, लगा दिया था दाग ।।

(5)

घर -बैठे ही खेलिए, अब हैं ऐसे 'खेल' ।

भाग-दौड़ अब कम हुई, नहीं जरूरी मेल ।।

 (6)

सरकारी सेवा मिली, जाने कुछ अधिकार ।

'त्याग' पिया का घर कहे, मैं सशक्त हूँ नार ।।

(7)

'त्याग' भावना प्रेम से, चलता है घरवार ।

अहंकार अधिकार से, होता बंटाधार ।।

(8)

दुर्गुण चहुँदिशि फैलते, रहता मन अंजान ।

इनको जो भी 'त्याग' दे, पाता है सम्मान ।।

(9)

'त्याग' तपस्या कर सके, जिस मन कसी लगाम ।

जिसका मन चंचल हुआ, उसका नहिँ है काम ।।

(10)

कौन करेगा 'त्याग' जब, दिया 'त्याग' को 'त्याग' ।

पुस्तक तक सीमित हुआ, नहीं रहा अनुराग ।।

 (11)

 सब कान्हा के बाबरे , राधा से कम प्रीति ।

 कान्हा राधा बाबरे, अजब लगी यह रीति ।।

  (12)

भोले रखिए देश के, भोलों का भी ध्यान ।

पढ़े-लिखे विद्वान जो, करें न उनका मान ।।

   (13)

'आजादी' में देखिए, जनता सब खुशहाल ।

जिसके मन जो भा रहा, दिखला रहा कमाल ।।

  (14)

'आज़ादी' का हो रहा, आज बहु दुरुपयोग ।

भारत के टुकड़े करें, विपक्षी दलिय लोग ।। 

(15)

'आज़ादी' इस देश में, नहिँ कोई प्रतिबंध ।

पढ़े-लिखें आगे बढ़ें, मधुर रखें संबंध ।। 

 (16)

 सच देखो तो अब हुआ , भारत देश महान ।

  डंका पूरे विश्व में, सब करते सम्मान ।।

  (17)

मीठी वाणी बोलकर,रखा हुआ जो खोट ।

मिठबोला सब ही कहें,छवि पर लगती चोट ।।

(18)

किस के मन क्या चल रहा, मुश्किल है पहचान।

ओढ़ चदरिया राम की,घूम रहा हैवान।।

(19)

 राधारानी संग में,नटखट नंदकिशोर।

शीश नवाता प्रेम से,वर्मा राम किशोर ।।

(20)

सेना के उपकार से, सोते पैर पसार । 

जीवन के हर रंग का, पाते सुख-संसार ।।

(21)

जनानियां अफ़ग़ान की, खरीद रहीं हिजाब ।

शिक्षा 'तालिबान' की, दिखती सभी जनाब ।।  

(22)

अफ़ग़ान की जनानियां, 'तालिबान' का प्यार ।

मर्द उन्हें ऐसे लगें, हों ज्यों हिस्सेदार ।। 

(23)

'तालिबान' अफ़ग़ान की, है भैयों की बात ।

कल फिर होंगे साथ में, सही न अब जज्बात ।। 

(24)

दधि-माखन असली मिले, जिस घर पलती गाय ।

दुग्ध कमी अब भी नहीं, निर्मित बहु मिल जाय ।।

(25)

घर-घर पलती गाय थी, अब कुत्तों का दौर ।

यों थी नदियांँ दूध की, मिले कहाँ वह ठौर ।।

(27)

कहे नहीं श्रीकृष्ण-जय, 'राम-राम' बिसराय ।

अच्छा वह लगता कहाँ, हाय कहें या बाय ।।

(28)

दूध कहाँ अच्छा लगे, पय अब विविध प्रकार ।

बचपन तक सीमित हुआ, रुचिकर नहिँ गौ-धार ।।

(29)

कोरोना से डर नहीं, जब टीका लग जाय ।

इसका मतलब यह नहीं, नियम ताक रख आय ।।

(30)

उसके दिल से पूछिए, जिसके लगती चोट ।

 पाने को इंसाफ फिर, चहिए समय व नोट ।।

(31)

समय बहुत बरवाद हो, एक न्याय में खोट ।।

 मिलता तो पर न्याय है, एक यही है ओट ।।

(32)

कुछ हैं ऐसे मामले, लें विवेक से काम ।

बोझ अदालत पर नहीं, मिले सुखद परिणाम ।।

(33)

परिवारिक, गृह भूमि के , या मोटर के वाद ।

 लोक अदालत जाइए, लघु जो वाद-विवाद ।।

(34)

 लोक अदालत से मिला, जिसको जब भी न्याय ।

 जीवन भी सुखमय बना, द्वार  अपील न जाय ।।

  (35)   

 न्याय शुल्क भी कब लगे, लगे अगर;  मिल जाय ।

 लोक अदालत ने सदा, मन के मैल मिटाय ।।

(36)

 न्याय व्यवस्था आज भी, है गौरव की बात ।

 मानव हित ही फैसला, नहीं धर्म या जात ।।

  (37)    

'अटल' विचारों को सभी , देते हैं सम्मान ।

 अटल हमारी एकता, अटल राष्ट्र अभिमान ।।

 (38)

 'अटल' सभी को साधते, करते सबसे प्यार ।

 उनके स्वप्नों को करें, मिलकर सब साकार ।।

(39)

  भारत रत्नम् 'अटल' जी,राजधर्म के साथ ।

  सत्य, वचन, जनभावना, खेले उनके हाथ ‌।।

(40)

 अटल रखा विश्वास है, अटल रखी है बात ।

  अटल राष्ट्र के हित रहे, अटल रखी थी मात ।।

  

✍️ राम किशोर वर्मा, रामपुर ,उ०प्र०, भारत


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ---काफिर ही सही


रुखसार ने फोन कॉल रिसीव की तो एक जानी पहचानी आवाज एक लम्बे अरसे बाद सुनकर उसकी हृदय गति तेज हो गई ........। अब्दुल गफ्फार! जी ...आज ...अचानक.. "रुखसार सिसकते हुए कहने लगी" ।

    हाँ मैं ....हाँ मैं ,तुम्हारा अब्दुल जो कभी तुम्हें और इस वतन की मिट्टी को मनहूस कहकर  हमेशा के लिए छोड़ गया था आज मुझे मेरी करनी का फल मिल गया है । मेरी दूसरी पत्नी व तीन बच्चे तालिबान सैनिकों ने बंधक बना लिए हैं ।सारी सम्पत्ति जब्त कर ली है । किसी तरह जान बचाकर तुम्हें फोन किया है ,बस तुम ही कुछ कर सकती हो .... कहते कहते फफक पडा़ वह । 

      यह क्या अब्दुल ने नौ साल बाद फोन किया ...वह भी अपने स्वार्थ के लिए । हाय किस्मत , मैं तो कुछ और समझ बैठी... पर हाँ कुछ तो करना होगा मुझे तुम्हारे लिए ...तुम्हारे बच्चों के लिए।तुमने सही कहा था कभी कि काफिर हूँ मैं ..तो काफिर ही सही । 

✍️ डॉ प्रीति हुंकार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता की कविता -- विचार -


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का गीत --हार कर भी जो न रुकती जीत है यह जिंदगी .....


 

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की नाट्य कृति - गुरु गोविन्द सिंह । उनकी यह कृति वर्ष 1990 में प्रकाशित हुई ।


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डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 25 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष कैलाश चन्द्र अग्रवाल के कृतित्व पर केंद्रित डॉ कंचन प्रभाती का आलेख -- कैलाश जी के गीतों में प्रीति के गंगाजल का सा भाव



"प्रीति है आराधना भगवान् की, 
प्रीति का प्रत्येक क्षण अनमोल है !"

यह हैं  साहित्य-मर्मज्ञ, उद्भट विद्वान् और हिन्दी के प्राणवन्त गीतिकार श्री कैलाश चन्द्र अग्रवाल की पंक्तियां। प्रीति-जैसा सुकोमल, भाव जैसा गम्भीर, मदुभाषी किन्तु स्वाभिमान का धनी, गेहुँआ रंग, अनुभव एवं आयु की प्रगाढ़ता को साफ दर्शाता झुरियों पड़ा चेहरा, ऊँची नाक, चौड़ा ललाट, एवं सिर के सफेद बाल ......व्यवहार, स्वभाव में सादगी किन्तु गाम्भीर्य की साक्षात् प्रति मूर्ति, बंद गले का कोट और पेंट, सिर पर टोपी, गले में मफलर, एक साधारण सभ्य नागरिक की छाप । यह था  गीतिकार श्री कैलाश जी का व्यक्तित्व, जो हिन्दी-काव्य में अपनी अद्भुत विशेषता एवं महत्ता रखता है। वे मानव-हृदय- मर्मज्ञ, रससिद्ध, मधुर गायक, भावधनी एवं युग-प्रबुद्ध सन्देश-वाहक थे।

कैलाश जी का व्यक्तित्व 'प्रीति' के बिना कुछ भी नहीं है। यही प्रीति' उनके गीतों में व्यथा, दुःख, पीडा, दर्द, वेदना विकलता, टीस, छटपटाहट आदि विविध रूप
धारण कर आयी है,जिस प्रकार से पतित पावनी गंगा में आकर विविध नाले नालियां आत्मसात् हो जाते हैं और दृष्टिगोचर होती है केवल गंगा की पवित्रता, उसका मोहिनी रूप तथा कल-कल निनादिनी गंगा का छल-छल करता बहता निरन्तर निर्मल जल..... ठीक उसी प्रकार उनके गीतों में बहती प्रीति की गंगा, जो व्यथा दुःख, पीडा, दर्द, वेदना, विकलता, टीस, छटपटाहट आदि मानवीय अहसासों को स्वयं में आत्मसात् कर निरन्तर अपने पाठकों एवं श्रोताओं को स्वस्थ एवं पवित्र मनोरंजन-जल ही नही प्रदान करती है, अपितु उनके हृदय-पक्ष को भी प्रभावित करती है। पाठक हो, अथवा श्रोता उनके गीतों का रसास्वादन कर सब-कुछ भूल जाता है, और प्रेम-प्रेममय हो जाता है। उसे कुछ अन्य चाहना भी नहीं रहती है। उसके अन्दर का कल्याण कहीं दूर भागने लगता है। कैलाश जी के गीतों में प्रीति के गंगाजल का सा भाव है। 'कविता' सीधे उनके जीवन से फूटकर आयी है। यह उनके जीवन की अनिवार्यता थी, विवशता थी, यानी उनके जीने की शर्त, जो प्रीति का रूप धारण करके विविध रूपों में फूट पड़ी। वे स्वयं कहते हैं-

मैं ये गीत नहीं लिख पाता, 
अगर न मिलता प्यार तुम्हारा !"

श्री कैलाश चन्द्र अग्रवाल का व्यक्तित्व और कृतित्व परस्पर असंपृक्त नहीं हैं । उनका व्यक्तित्व निष्कपट और निश्छल है । वे क्या सोचते हैं ? उनकी भावना क्या है? यह उनके गीतों से तो स्पष्ट है ही, साथ ही उनके चेहरे से भी स्पष्ट है । उनके पास किसी प्रकार का कोई आवरण भी नहीं है, इसीलिए वे लोकप्रिय न बन सके । उनके 'जीवन-परिचय' से यह बात स्पष्ट है । उन्होंने जो पथ चुना है, वह स्वतंत्र है, स्वाधीन है, किसी की क्षणिक चाटुकारिता से भी बहुत-बहुत दूर स्वाभिमान से आपूरित । इसी कारण उनका व्यक्तित्व अजेय बना हुआ है।

दुनिया चाहे जिधर जाये, चाहे कोई कुछ करे, पर कैलाश जी के कवि ने तो जैसे जीवन का सार ही प्राप्त कर लिया है

"युग-युगों से इस धरा पर प्यार जैसा, 
सत्य, शिव, सुन्दर न कोई दूसरा है।"

कैलाश जी का कवि प्यार का कवि है । वह अपने कर्तव्य के प्रति निरन्तर सचेत और दूसरों से भी कहता है

"कर्म से अपने विमुख होना नहीं अच्छा ।
 व्यर्थ ही अपना समय खोना नहीं अच्छा । 

व्यक्ति निज पुरुषार्थ से फूला- फला करता,
श्रम बिना जीवन सदा निस्सार होता है !"

इसी गीत में वे मानव से कहते हैं-

"लोक-सेवा-भावना का मूल्य है अपना । 
साधना की अग्नि में अनिवार्य है तपना ।
हर दुखी का दुख निवारण हो सके जिससे, 
चाहिए वह मन्त्र ही निशिदिन हमें जपना ।

वास्तव में कैलाश चन्द्र जी का कवि-व्यक्तित्व अपने जीवन की सार्थकता उस में समझता है, जो लोक सेवा-भावना से अनुप्रेरित हो । "कर्म ही पूजा है, साध ईश्वर है-इसका साक्षात् प्रतीक है कवि कैलाश का व्यक्तित्व ।

वास्तव में वे जन-मन को सुरभित करने वाले तथा जीवन-संघर्ष में आस्था वाले कवि थे। उन्होंने स्पष्ट कहा है

"मेरी पूजा के ये बोल अकिंचन,
 सम्भव है बन जायें मीत तुम्हारे । " 

 कैलाश चन्द्र अग्रवाल के व्यक्तित्व में निरन्तर संघर्षशील अदम्य साहस था, जो भी उनके जीवन-परिचय को पढ़ेगा, वह उनकी इस विशेषता को सराहेगा स्वाभिमान, निश्छलता, कर्मठता, परोपकार एवं सहृदयता की साक्षात् प्रतिमा मानवीय मूल्यों में उनकी गहरी निष्ठा थी । वे आत्मप्रशंसा से परे, अहंकारशून्य परोपकारी व्यक्ति थे । यही नहीं, मितभाषी और मितव्ययी थे । सब-कुछ होते हुए स्वयं को अकिंचन-सा मानने वाले और आत्मसन्तोषी थे । वे इशोपासक थे और भारतीय संस्कृति के आदर्श मूल्यों, परम्पराओं एवं मर्यादाओं में उनकी अखण्ड आस्था थी । व्यर्थ की मिथ्या, निराधार और अर्थहीन रूढ़ियों  एवं कुरीतियों में उनका बिलकुल विश्वास नहीं था। कला की साधना और आराधना में उनका अटूट विश्वास था । 
मैं स्वयं को परम सौभाग्यशालिनी मानती हूँ कि हिन्दी साहित्य के एक सफल हस्ताक्षर व साहित्य जगत के सशक्त पुरोधा के साहित्य पर शोध करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उस कवि हृदय के मुझे साक्षात दर्शन हुए हैं। उन पर लघु -शोध प्रबन्ध व शोध प्रबन्ध पर कार्य करने वाली मैं प्रथम शोध कर्त्री रही । शोधकार्य के दौरान मुझे उनसे समय समय पर साक्षात्कार का अनुभव हुआ है। अक्सर वे कहा करते थे- कहते हैं लक्ष्मी व सरस्वती जी एक साथ  कृपा नहीं करतीं पर मुझ पर तो दोनों ही की कृपा है।
                                                                 

✍️ डॉ कंचन प्रभाती  प्राध्यापिका              आर्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय       पानीपत

  

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र का कहानी संग्रह--- पुजारिन । इस संग्रह में उनकी 14 कहानियां हैं ।इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1959 में सफलता पुस्तक भंडार, रेती स्ट्रीट ,मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की भूमिका लिखी है गोविंद त्रिगुणायत जी ने । इस कृति का द्वितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ । इस कृति का जय प्रकाश तिवारी 'जेपेश' द्वारा किया गया समीक्षात्मक अध्ययन वर्ष 1995 में अहिवरण प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है ।


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 ::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

रविवार, 22 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र की बाल कविता ----अनुपम राखी का त्योहार


रक्षाबंधन ही लाता है

      अनुपम राखी का त्योहार।

धागा नहीं, प्रेम का बंधन

       खुशियाँ बढ़तीं कई हजार।।


दीपू की भी एक बहन है

      नाम मनोहर मंजूबाला।

सुंदर - सुंदर वस्त्र पहनकर

          पहने है बैजंती माला।।


बहना तुमको मैं लाया हूँ

      बढ़िया सुंदर - सी एक कार।।


दीपू भी तैयार हो गए

   सेंट लगाकर खुशबू वाला।

प्यारी बहना राखी बाँधो

          मैं रक्षक हूँ हिम्मतवाला।।


मंजू ने भी राखी बाँधी।

      पाया सुंदर - सा उपहार।।


घर - घर गली - गली में रौनक 

     मन चाहे पकवान बने हैं।

पुआ, पकौड़ी खीर है मेवा

       खाकर ही सब बने ठने हैं।।


सब बच्चों के मन को भाए 

       प्यारा - सा राखी त्योहार।।

✍️ डॉ राकेश चक्र , 90 बी,शिवपुरी, मुरादाबाद 244001,उ.प्र . भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

मुरादाबाद के साहित्यकार राशिद हुसैन की रचना ----हां मैं इंसान हूं....

 


हां मैं इंसान हूं,  मैं परेशान हूं।

जिंदगी तुझे देखकर हैरान हूं।।


वो जो कहते हैं जी मुस्कुराया करो।

अपने दिल को न यूं तुम सताया करो।।

कैसे कह दूं कि मन से मैं वीरान हूं।

खुशियों से अभी मैं अनजान हूं।।

                   हां मैं इंसान हूं.....


रोज़ी रोटी की है हरदम जुस्तजू यहां।

तन पे कपड़ा भी रखना है बेशक सफा।।

घर में बर्तन हैं खाली और मेहमान हैं।

ये सब जानकर भी मैं अनजान हूं।।

                   हां मैं इंसान हूं.....


उम्र कट रही है ऐसे सिसकते हुए।

बंद मुट्ठी से रेत जैसे फिसलते हुए।।

मेरे मालिक तू ही मेरा निगहबान है।

तेरा बंदा हूं और साहिबे ईमान हूं।।

                 हां मैं इंसान हूं.....

✍️ राशिद हुसैन, मुरादाबाद

शनिवार, 21 अगस्त 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की रचना ----नित लिखता नयी इबारत हूँ , मैं भारत हूँ , मैं भारत हूँ .....


मैं युग युग खड़ी इमारत हूँ

मै भारत हूँ मैं भारत हूँ । 


मैं वेद पुराणों की गाथा

मैं भू का उन्नत सा माथा

मैं गंगा सतलज की धारा

मैं जग की आँखों का तारा

मैं राम कृष्ण की धरती की

नित लिखता नयी इबारत हूँ ।

मैं भारत हूँ , मैं भारत हूँ ..... 


मैं महायुद्ध का हूँ साक्षी

मैं विश्व शांति का आकांक्षी 

मैं योग विधाओं का दाता

मैं गीत प्रेम के ही गाता

ऋषियों के तप की ग्रन्थों में

मैं करता रोज इबादत हूँ ।

मैं भारत हूँ , मैं भारत हूँ..... 


मैं सारंगी के तारों में

मैं वीणा की झंकारों में

मैं मुरली की मधु तानों में

मैं गाता मीठे गानों में

कण कण गूँजते गीत मेरे 

मैं सँगीत भरी महारत हूँ ।

मैं भारत हूँ , मैं भारत हूँ .... 


मैं खेलूँ ग्वाले गोपी में

मैं सजता अहमद टोपी में

मैं सिक्खों के बलिदानों में

मैं हरा खेत खलिहानों मे

वीरों के साहस से देखो

मैं सदियों रहा हिफाज़त हूँ ।

मैं भारत हूँ , मैं भारत हूँ..... 

✍️ डॉ. रीता सिंह, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत 

बुधवार, 18 अगस्त 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 17 अगस्त 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी', उमाकांत गुप्त,सीमा रानी,रेखा रानी,मनोरमा शर्मा,वैशाली रस्तोगी,सुदेश आर्य और राजीव प्रखर की कविताएं -----


मम्मी  जी  ने  तेज  धूप  में,

गेहूं         चने        सुखाए,
रखवाली को  डंडा   लेकर,
हम         बच्चे       बैठाए।

चिड़िया,कौआऔर कबूतर,
पास    कभी     जो   आए,
डंडा देख  उड़   गए   सारे,
दाना    चुग      ना     पाए।

गेहूं    खाने   को   गैया   ने,
ज्यों     ही   कदम    बढ़ाए,
हट-हट  करके   सारे  बच्चे,
एक     -   साथ    चिल्लाए।

भाग गई   गैया  भी  अपनी,
लंबी           पूँछ       उठाए,
गौ माता पर  जान  बूझकर,
डंडे          नहीं       बजाए।

घुर-घुर कर  सूअर के बच्चे,
गेहूं           खाने        आए,
हम  बच्चों  ने   सारे  सूअर,
पत्थर        मार      भगाए।

तभीअचानक खोंखों करते,
बंदर          मामा       आए,
मार      झपट्टा   सारे    गेहूं,
धरती         पर       फैलाए।

भूल   गए   सारी   रखवाली,
कुछ    भी  कर    ना    पाए,
भागो - भागो, कहते - कहते,
घर       के      अंदर    आए।

✍️ वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी', मुरादाबाद/उ,प्र,भारत, मोबाइल फोन नम्बर-- 9719275453
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कभी सुनहरा, पीला भूरा
दादा देखो ! आसमान को
इतने रंग बदलता कैसे
थोड़ा सा समझा दो मुझको ।
***
दादा ने फिर भेद बताया
बादल को सूरज की किरणें
लाल सुनहरे पीले, भूरे
रंगों में रंग देतीं  किरणें ।
**
वैसे अम्बर  नीला  रहता
टहलते फिरते इसमें बादल
आसमान क्यूँ रात में दादा
गहरा नीला हो जाता है
**
तारे इतने छा जाते हैं
जैसे मोती बिखरे सारे
गोद में लेकर फिर दादा ने
भोले बच्चों को समझाया
**
दिन में तारे छुप रहते हैं
सूरज से डरकर सोते हैं,
डूबा सूरज हुआ अंधेरा
तारे फिर टिमटिम करते हैं।
***
घूम रही है धरती सारी
काट रही सूरज के चक्कर
रात दिन का भेद यही है
नहीं है इसमें कुछ भी चक्कर ।

✍️ उमाकांत गुप्त, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत
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   बंदर मामा करें तमाशा,
   कूद कूद कर आते हैं ।
   कभी शर्ट तो कभी पेन्ट,
   झट कपड़े ले जाते हैं  ।

  कूद कूद कर बंदर जी ने
   मम्मी को परेशान किया।
  डंडा लेकर दौडे हम ओर,
   बंदर का चालान किया।

   खो खो कर बंदर जी ने,
   सारी पार्टी बुलायी है ।
   दौडा दौडा कर सबने 
   हमको नानी याद दिलाई है ।

दादी बोली सुनो हनुमान
बहुत हुआ अब जाओ तुम।
इधर उधर दौड लगाकर,
लंका यहां न बनाओ तुम।

✍️ सीमा रानी, पुष्कर नगर, अमरोहा, उत्तर प्रदेश, भारत
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नन्ही काव्या प्यारी काव्या
क्यों इतनी इठलाती हो।
बात-बात पर करती गुस्सा,
पल भर में मुस्काती हो।
ढेर खिलौने पास तुम्हारे,
फिर भी ज़िद कर जाती हो।
पापा संग बाजार से नित
नए खिलौने लाती हो।
बड़े चाव से उन्हे सजाती
सबको खूब लुभाती हो।
अपने घर की सारी चीज़ें,
काव्या हमें दिखाती हो।
नित नई शैतानी करके,
सबको खूब रिझाती हो ।
मम्मा की प्यारी सी गुड़िया
पापा की दुलारी हो।
फुदकती रहती चिड़िया सी
घर आंगन चहकाती हो।
तुमसे आंगन महक उठा है,
रौनक घर में लाती हो।
रोज़ शरारत देख तेरी,
मैं  मन में हर्षाती हूं ,
तेरे रूप में बिटिया रानी
मैं बचपन जी पाती हूं।
रेखा नैनों की खिड़की से
बचपन में चली जाती हूं।

✍️ रेखा रानी, विजय नगर, गजरौला,जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश, भारत।
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आओ वीरों का मान करें इनसे मान हमारा है
जन-गण-मन की विजय सदा हो चन्दन तिलक हमारा है

इस देश धरा पर जन्म लिया इसने हमको है पाला इसका अमृत जल पी पी कर प्राणों में भरती है ज्वाला
अमरत्व यहां से सिंचित कर हमने जन्म संवारा है
आओ वीरों का मान करें इनसे मान हमारा है ।
जन-गण-मन की विजय सदा हो चंदन तिलक हमारा है ।

जय हिन्द के नारों से गूँजे काल कराल महाकारा फांसी के फन्दों को चूमे देश के वीरों की हाला
मतवाले भारत सौंप चले सुख वैभव सब वारा है
माँ की रज का सम्मान करें इनसे मान हमारा है ।
जन-गण-मन की विजय सदा हो चंदन तिलक हमारा है

✍️ मनोरमा शर्मा, अमरोहा, उत्तर प्रदेश, भारत
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गुड़िया बैठी कर रही प्रार्थना,
भगवन बहुत है कहना सुनना।
अब न कहीं कहर आए,
अब न कहीं डर छाए।
मैं भी सजधज बाजार जाऊं,
भाई के लिए चुन राखी लाऊं।
बांध कलाई पर उसके राखी,
मस्तक उसके तिलक लगाऊं।
भाई है मेरा भोला भाला,
पसंद है उसको पतंग उड़ाना।
फिर से एक बार हम बच्चे,
घर की छत पर हों इकठ्ठे।
भाई मेरा पतंग उड़ाए,
मैं उसको चरखी दिखलाऊं।
बस यही छोटी सी प्रार्थना,
कर लो स्वीकार हे!भगवन
राखी त्यौहार हो खुशियों भरा,
हर्ष में हों हम सब मगन ।

✍️ वैशाली रस्तोगी, जकार्ता (इंडोनेशिया)
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अभी तो हम बच्चे हैं,
उम्र के अभी कच्चे हैं।
बिना परेशानी भागते इधर-उधर
पढ़ने के सिवा कुछ नहीं लगता दूभर
जैसे पंख लगे हैं पैरों में,
इर्द-गिर्द घूमते अपने गैरों के।
कभी तितली पकड़ने लगते,
और कभी  बंदरों से डरते।
अच्छी लगती है बारिश पहली,
बदन पे जैसे बिजली दहली।
वायु के झौंके जैसे चलते,
कभी एक दूसरे को पकडते।
करते हैं हम जब शरारत,
दौड़ते भागते न होती थकावट।
दादा दादी का देख बुढ़ापा,
ध्यान रखा उनका कहते है पापा।
बडों से हमें रहती हैं आशायें,
उनको भी हमसे हैं आशायें।
हमारी भी पूरी हो आशायें,
सबकी पूर्ण हो आशायें।

✍️ सुदेश आर्य, गौड़ ग्रेशियस, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
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मंगलवार, 17 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम की कृति ---बात बोलेगी.... । यह कृति देश के प्रमुख गीत-नवगीत एवं गजलकारों डा. शिवबहादुर सिंह भदौरिया, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, सत्यनारायण, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शचीन्द्र भटनागर, डॉ माहेश्वर तिवारी, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, डा. कुँअर बेचैन, ज़हीर कुरैशी, डा. ओमप्रकाश सिंह, डा. राजेन्द्र गौतम, आनंद कुमार ‘गौरव’ और डॉ कृष्णकुमार 'नाज़' से लिये गए साक्षात्कारों का संकलन है । उनकी यह कृति गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई ।



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रविवार, 15 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार शिशुपाल सिंह मधुकर की ग़ज़ल ----खूँ जिन्होंने दिया इस चमन के लिए


 सर नवाते उन्हें हम नमन के लिए

हँस के फांसी चढ़े जो वतन के लिए


दम से उनके ही आईं बहारें यहाँ

खूँ जिन्होंने दिया इस चमन के लिए


सब हों आज़ाद हो जुल्म का खात्मा

हो गये होम वे इस हवन के लिए


आओ अर्पित करें अपने श्रृद्धा सुमन

नौजवानों के उस बांकपन के लिए


ख्वाब आँखो में वो ही सजाएँगें हम

मर मिटे थे वे जिस सपन के लिए

 ✍️ शिशुपाल "मधुकर ",मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत 

                   

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की रचना -------आने वाली हर पीढ़ी को जय हिंद सिखाया जायेगा



जब -जब भारत के जन-मन का इतिहास

 पढ़ाया जायेगा,

तब- तब भारत के वीरों का  हर गीत सुनाया जायेगा।


वो डरते नहीं, अरि चालों से,रण में शिव के अनुयायी हैं ,

उनके भागीरथ यत्नों से आतंक मिटाया जायेगा ।


हर सरहद पर पहरा उनका,वो देश की सेवा को जन्मे,

आने वाली हर पीढ़ी को जय हिंद सिखाया जायेगा।


लेकर वो तिरंगा हाथो में,जब कोई शपथ उठाते है,

तब निश्चय ही जानो तुम ये,प्रण पूर्ण निभाया जायेगा।


घाटी कब से ही पूछती थी,कब मुझको तुम अपनाओगे

सेना की इच्छा के बल पर,जन्नत को पाया जायेगा।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर,  दिल्ली रोड,मिलन विहार

मुरादाबाद ,उ.प्र.भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की कविता -----पंद्रह अगस्त


भारत महंगाई घोटालों

से त्रस्त है

देखो 15 अगस्त है।

        ***

कानून जेब में

काम काज खाई में

व्यवस्था अस्त व्यस्त है

देखो 15 अगस्त है ।

       ***

दफ्तर खाली

कुर्सी खाली

जेब गरम                                          अधिकारी मस्त है 

देखो 15 अगस्त है ।

       ***

उल्टा फहरता तिरंगा

ऊंची आवाज में

बजती राष्ट्रीय धुन

प्रगति की घड़ी सुस्त है

देखो 15 अगस्त है ।

   ✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत