पेशकार, पंडित राम भरोसे लाल दीक्षित तैयार होकर नाश्ते के इंतज़ार में बैठे थे।यकायक उन्हें ख़याल आया कि आज तो घर पर कोई है ही नहीं।घर के सभी सदस्य करीबी रिश्तदार की शादी में शामिल हेने दिल्ली गए हुए हैं।
दीवार पर टंगी घड़ी को देखा तो उसमे पूरे नौ बज रहे थे।जब कि उनको साढ़े दस बजे तक कचहरी पहुंचना भी जरूरी था।
गांव से मुख्य सड़क तक आने के लिए शार्टकट रास्ता बाल्मीकि बस्ती से होकर ही जाता।
दीक्षित जी ने झट-पट फाइलों का थैला उठाया और ताला डालकर घर से निकल लिए।तेज कदमों से चलते हुए कुछ ही पलों में बाल्मीकि बस्ती के नुक्कड़ तक पहुंच गए।
थोड़ा सा आगे बढ़े ही थे कि हरिया बाल्मीकि की पत्नी अतरी देवी जो लोहे की कढ़ाई में मेथी-आलू की भुजिया बना रही थी।जिसकी सुगंध घर के बाहर तक अपना असर छोड़ रही थी।
पंडित रामभरोसे लाल दीक्षित को देखकर हरिया की पत्नी अतरी देवी ने आवाज़ लगाकर कहा देवर जी कहाँ जा रहे हो।बड़ी जल्दी में लग रहे हो। हाँ भाभी,साढ़े दस बजे तक कचहरी जो पहुंचना है।अतरी ने पुनः प्रश्न किया पेशकार जी कुछ नाश्ता-वास्ता भी कर लिया है या ऐसे ही भूखे पेट भागे जा रहे हो।मुझे पता है घर पर कोई नहीं है।नाश्ता भी किसने कराया होगा।
मैंने तो मेथी-आलू की भुजिया बनाई है।गेंचनी की हाथ पानी की रोटी भी सेक रही हूँ।अगर एतराज न हो तो खाकर ही चले जाते।परंतु कंजूस स्वभाव दीक्षित जी भूख से व्याकुल तो थे।परंतु जाति-बिरादरी की लोकशंका से व्यथित होना भी स्वाभाविक ही था।
चलते-चलते उन्होंने सोचा कि इतने प्यार से कौन किसको बुलाता है।भाभी ने खाने के लिए आवाज़ दी है तो कुछ अपना समझकर ही दी होगी।
फिर हाथ धोकर ही सब्ज़ी काटी होगी,काटी हुई सब्ज़ी की भी कई बार धोया होगा।तेल भी शुद्ध सरदों का डाला होगा,इसके साथ ही वही मसाले,धनियां,नामक -मिर्च,हल्दी डाली होगी जो हम अपने घर पर भी रोज़ खाते हैं। साफ सुथरी लोहे की कढ़ाई में खूब अच्छी तरह ढंग से पकाकर भुजिया बनाई होगी।ऊपर से गेंचनी की रोटी चूल्हे पर खूब करारी सेक कर ही तो मुझे खाने को देगी।इसमें अतरी भाभी का क्या दोष।
पंडित जी ने अतरी से पूछा भाभी नहा धोकर ही तो रसोई बना रही होगी। अतरी बोली और क्या, बिना नहाए धोए,गंदे-संदे ही खाना बनाएंगे।आप मुझे ऐसी-वैसी मत समझना।मैं तो बिना पूजा करे चाय तक भी नहीं पीती, देवर जी।
मैंने तो इंसानियत के नाते पूछ लिया आगे आपकी इच्छा।मैं तो फिर कहूंगी खा लो,,पेट पड़े गुन देगी।
अच्छा भाभी जब तुम इतना कह रही हो तो ,,,,मना करना भी अच्छा नहीं लगता।
पंडित जी ने इधर-उधर देखा और घर के अंदर जाकर चारपाई पर जा बैठे। और खाना आने का इन्तज़ार करने लगे।तभी चमचमाती थाली में सुगंधित मेथी-आलू की सब्ज़ी वह भी घी से तरबतर।गेंचनी की हाथ की मोटी-मोटी चार रोटी साथ में पुदीने की चटनी की महक भी भूख को दोगुना कर रही थी।
जल्दी से दीक्षित जी ने अतरी के हाथ से थाली लेकर मंत्रोच्चारण के पश्चात खाना प्रारंभ कर दिया।शीघ्र ही भोजन समाप्त करके संतुष्टि की डकार के साथ ही भाभी जी के स्वादिष्ट खाने की प्रसंशा करए हुए धन्यवाद दिया।
अब तक घड़ी भी दस बजने का स्पष्ट संकेत दे रही थी।पंडित जी भी तेज कदमों के साथ कार्य स्थल के लिए प्रस्थान कर गए।
जाते-जाते सोचने लगे कि खाना बनाना और प्यार से खिलाना भी एक कला है।जो सबके पास नहीं मिलती।इस खाने में प्यार भी था,विश्वास भी था,वात्सल्य और समर्पण भी था।इसके साथ मिठास भरा अपनापन भी तो कम नहीं था।
पर इस भेदभाव के लिए कोई और नहीं हम स्वयं ही दोषी हैं।परहेज मनुष्य से नहीं और ना ही उसकी दरिद्रता से करना चाहिए,बल्कि अपने कुसंस्कारों,मिथ्या अहम और हैवानियत से करना चाहिए।
यही परमपिता परमात्मा की सच्ची उपासना है।
✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद,उप्र, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453
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