गुरुवार, 26 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- लोकाचार के कवि --ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी।


 आज जबकि अधिकांश शब्दकार निजी प्रचार, धन और यश अर्जित करने की कामना के साथ साहित्य सृजन कर रहे हैं। साथ ही स्वयं की 'अर्ध-देवता' (डेमी गाड) सरीखी छवियाँ निर्मित कर रहें और समाज पर अपनी कुण्ठाएं, हताशाएं, अतार्किक और अवैज्ञानिक विचार आरोपित कर रहे हैं। ईश्वर चन्द्र गुप्त 'ईश' जी एक ऐसे शब्द शिल्पी हैं जो पूर्णतया निस्पृह, निष्पक्ष और समर्पण भाव के साथ मौन रहकर अपनी शब्द यात्रा जारी रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष की आयु में भी 'ईश' जी जिस उत्साह और आशावादिता के साथ सृजनरत हैं वह निश्चित ही साहित्य और समाज के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं व्यक्ति के लिए भी एक स्वस्थ सकारात्मक संदेश है। 'ईश' जी धन और यश की कामना से नहीं बल्कि समाज को लगातार बेहतर बनाने और मानव जाति का परिष्कार करने की दृष्टि से सृजनरत हैं।

      मुझे पहली बार उनसे साक्षात्कार का सुयोग अग्रज पुष्पेन्द्र वर्णवाल के निवास पर दो-तीन वर्ष पहले आयोजित एक कवि गोष्ठी में प्राप्त हुआ जिसमें नगर के लगभग सभी वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे। इसमें मैंने 'ईश' जी की कविता को ध्यान पूर्वक सुना। जनकल्याण की भावना से प्रेरित स्वांत: सुखाय लिखी गयी यह कविता अतीत और वर्तमान का जीता जागता चलचित्र था। प्रकम्पित कण्ठ से पढ़ी गयी कविता उपस्थित कवि समुदाय पर कितना प्रभाव छोड़ सकी यह तो मैं नहीं जानता किन्तु खादी के साधारण वस्त्र और गांधी टोपी धारण किये इस कवि के सरल व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना मैं न रह सका। उनका यह ऋजुरेखीय व्यक्तित्व ठीक उनके साहित्य में भी प्रतिबिंबित होता है ।

      उनकी रचनाओं में साहित्यिक कलाबाजियाँ अधिक दिखायी नहीं पड़ती। भाषा और शिल्प भी सहज-सरल और एक साधारण पाठक के लिए ग्राह्य है। अपने साहित्य में वैचारिक स्तर पर वे हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार विष्णु प्रभाकर या फिर पत्रकार लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी या कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' सरीखे नजर आते है। दरअसल, वे उस पीढ़ी के हैं भी जिसके मानस या अवचेतन पर गांधी जैसे युग पुरुष के व्यक्तित्व और विचारों की गहरी छाप है। 'ईश' जी के साहित्य में गांधी वादी विचारों के सूत्र ढूँढ पाना किसी भी सुधि पाठक के लिए बेहद सरल है। किन्तु 'ईश' जी निरे गांधीवादी भी नहीं हैं। साहित्यकार के तौर पर वे टामस मोर के 'यूटोपिया' के काफी करीब नजर आते हैं और समाज की विसंगतियों पर ड्राइडेन और पोप की तरह पैने व्यंग्य करते रहते हैं। दरअसल, एक 'यूटोपिया' उन्हें बराबर 'हांट' करता रहता है। यूटोपिया से आक्रांत होने के कारण उनका समूचा सृजन समाज सुधार की भावना से ओतप्रोत है।

यद्यपि 'ईश' जी का रचनाकाल सुदीर्घ है तथापि उनकी बहुत अधिक कृतियां प्रकाशित नहीं हुई हैं। उनकी अब तक पांच-छः कृतियां प्रकाशित हुई हैं। जिनमें 'ईश गीति ग्रामर' और 'चा का प्याला' मुख्य हैं। 'चा का प्याला' सर्वाधिक उल्लेखनीय कृति है। 'चा का प्याला आधुनिक लोकाचार की सब से प्रमाणिक कृति भी है जो लोकप्रिय कवि बच्चन की 'मधुशाला' की तर्ज पर रची गयी है। यदि बच्चन जी की 'मधुशाला' हालावाद पर आधारित है तो 'चा का प्याला' प्यालावाद से प्रेरित है। इस दृष्टि से ईश जी हालावाद के समानान्तर प्यालावाद के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। आधुनिक जीवन में लोकाचार और काफी सीमा तक शिष्टाचार का पर्याय बन चुकी चाय के महत्व पर काव्य कृति का सृजन कर ईश जी ने सचमुच एक नया और विलक्षण प्रयोग किया है। 'चा का प्याला' के बहाने 'ईश' जी ने समकालीन समय की नब्ज को पकड़ने का प्रयास तो किया ही है कथित सभ्य समाज और आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विद्रूपों पर भी खुलकर कठोर प्रहार किये है। 'चा का प्याला' का मुख्य स्वर व्यंग्य है और यह अलेक्जेंडर पोप के 'रेप ऑव द लाक' की तरह काव्य, विशेषकर छन्द में रचा गया व्यंग्य महाकाव्य (माक एपिक) है जिस तरह अर्वाचीन इंग्लैण्ड में कॉफी को बेदखल कर चाय बुद्धिजीवियों और राज परिवार सहित कथित कुलीन वर्ग का पसन्दीदा पेय बनती जा रही थी और महलों में आयोजित होने वाली चाय दावतों की पोप ने जमकर भर्त्सना की थी उसी शैली में 'ईश' जी ने चाय के लोकाचार, शिष्टाचार और भ्रष्टाचार का अंग बनने और भारतीयों के इसके प्रति रुझान का जमकर उपहास किया है। बस अन्तर यही है कि जहाँ पोप की व्यंग्योक्तियाँ कटु और अधिक तीखी हो गयी है वहीं 'ईश' जी ने कहीं सभ्यता और शिष्टता का दामन नहीं छोड़ा है। उनका व्यंग्य अभिव्यक्ति के मामले में बिल्कुल 'मृदु', संयत और शालीन है। व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की मृदुता, शिष्टता और शालीनता आधुनिक व्यंग्य काव्य में दुर्लभ है। साथ ही, श्रमसाध्य भी। इस दृष्टि से ईश जी एक बड़े और समर्थ रचनाकार नजर आते हैं। जब 'ईश' जी लिखते हैं,

" आदत पड़ जाने पर तो यह ! 

तन-मन तक बेकल करती। 

शकल मुहर्रम बन जाए पर,

 इसके बिना न कल पड़ती।।

रक्खा क्या संध्या नमाज में, 

इसका चुम्बन कर डाला। 

उन्हें 'ईश' खुद ही मिल जाते,

 मिलता जब चा का प्याला

तब वे केवल चाय जैसे लोकाचार की सार्वभौमिकता को ही स्वीकार नहीं कर रहे होते बल्कि परोक्ष रूप से एक सहज मानवीय वृत्ति का भी उद्घाटन कर रहे होते हैं। 'चा का प्याला' साहित्य का एक ऐसा स्पेक्ट्रम है जिसमें जीवन का हर रंग अपने मनोहारी रूप में प्रतिबिम्बित होता है।

     'चा का प्याला' की भूमिका में विद्वान समीक्षक ने ठीक ही लिखा है "चा के प्याले के माध्यम से समूचे परिप्रेक्ष्य की मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करने में कवि का शिल्प विधान अपूर्व रूप से सहायक हुआ है। अनुभूति में रागात्मकता, शब्दों में कोमलता, विचारों में सम्प्रेषणीयता, अभिव्यक्ति में ऋजुता तथा व्यंग्योक्तियों में मर्मस्पर्शिता कवि के रूप सज्जा और शिल्प विधान की उल्लेखनीय खूबियां हैं। कवि ने परम्परागत शब्दावली से निकलकर ऐसी शब्दावली का वरण किया है जिसमें सामान्य विषयों से सम्बद्ध गहन अनुभूतियों की अपूर्व क्षमता है।

     'चा का प्याला' कवि 'ईश' जी का आधुनिक समय, समाज और भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में दिया गया साहित्यिक वक्तव्य ही नहीं है बल्कि लोकाचार की शोकांतिका भी है। इसके निहितार्थ व्यापक है। और समीक्षकों के लिए भी इसे ठीक व्याख्यायित- परिभाषित कर पाना कठिन है। एक कवि रूप में अभी 'ईश' जी का समुचित आकलन नहीं हुआ है। यदि किसी ने ऐसा किया तो निश्चित ही कवि 'ईश' के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ अनछुए आयाम उद्घाटित होंगें ।

(यह आलेख उस समय प्रकाशित हुआ था जब श्री ईश जी साहित्य साधना कर रहे थे )


✍️ राजीव सक्सेना 

प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) 

 मथुरा

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